Kunwar Aditya Singh

Kunwar Aditya Singh

• नगर सहमंत्री , अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद , हंडिया ।

19/12/2022

जिनके मिज़ाज़ दुनिया से अलग होते है ,
महफ़िलो में चर्चे उनके गज़ब होते है !

Photos from Kunwar Aditya Singh 's post 10/12/2022

आज हंडिया इकाई का बैठक हुई। जिसमें आगामी कार्यक्रमो को लेकर चर्चा की गई ।

10/12/2022

दिल में बहादुरी के जज्बात रखना,
सच बोलने की औकात रखना,
पूरी दुनिया तुम्हारी कदमों में होगी,
सिर्फ़ होठों पर ईमानदारी की मुस्कान रखना ।

Photos from Kunwar Aditya Singh 's post 06/12/2022

ाई
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा आज धर्मावती इंटर कालेज में सामाजिक समरसता दिवस पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया।
जिसमे मुख्य अतिथि भारतीय किसान संघ के जिला संगठन मंत्री अतुल जी, काशी प्रान्त के स्कूल प्रमुख अनुराग जी , अभाविप के जिला संगठन मंत्री सौरभ जी, पवन जी, आदि लोग उपस्थित हुए।

04/12/2022

लिख रहा हूं मैं अंजाम, जिसका कल आगाज आएगा,

मेरे लहू का हर एक कतरा, इंकलाब लाएगा,

मैं रहूं या ना रहूं, पर ये वादा है तुमसे मेरा,

कि मेरे बाद वतन पर मरने वालों का सैलाब आएगा,

भारतीय नौसेना दिवस 2022 की शुभकामनाएं

04/12/2022

टंट्या भील को टंट्या मामा भी कहा जाता है। उनका वास्तविक नाम तांतिया था, जिन्हें प्यार से टंट्या मामा के नाम से भी बुलाया जाता था। मालवा और निमाड़ अंचल के लोकनायक टंट्या भील वर्ष 1878 और 1889 के बीच ब्रिटिश भारत में एक बड़े सक्रिय विद्रोही और क्रांतिकारी थे। टंट्या भील स्वदेशी आदिवासी समुदाय के भील जनजाति के सदस्य थे। टंट्या भील का जन्म 1840 में तत्कालीन मध्य प्रांत के पूर्वी निमाड़ (खंडवा) की पंधाना तहसील के बडाडा गांव में हुआ था।


टंट्या भील गुरिल्ला युद्ध में निपुण था। वह एक महान निशानेबाज भी थे और पारंपरिक तीरंदाजी में भी दक्ष थे। 'दावा' या फलिया उसका मुख्य हथियार था। उन्होंने बंदूक चलाना भी सीख लिया था।

मध्यप्रदेश का जननायक टंट्या भील आजादी के आंदोलन के उन महान नायकों में शामिल है जिन्होंने आखिरी सांस तक फिरंगी सत्ता की ईंट से ईंट बजाने की मुहिम जारी रखी थी। टंट्या को आदिवासियों का रॉबिनहुड भी कहा जाता है क्योंकि वह अंग्रेजों की छत्रछाया में फलने-फूलने वाले जमाखोरों से लूटे गए माल को भूखे-नंगे और शोषित आदिवासियों में बांट देते थे।
गुरिल्ला युद्ध के इस महारथी ने 19वीं सदी के उत्तरार्ध में लगातार 15 साल तक अंग्रेजों के दांत खट्टे करने के लिए अभियान चलाया। अंग्रेजों की नजर में वह डाकू और बागी थे क्योंकि उन्होंने उनके स्थापित निजाम को तगड़ी चुनौती दी थी। टंट्या की मदद करने के आरोप में हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया और उनमें से सैकड़ों को सलाखों के पीछे डाल दिया गया।

कुछ इतिहासकारों का हालांकि मानना है कि टंट्या का प्रथम स्वाधीनता संग्राम से सीधे तौर पर कोई लेना-देना नहीं था लेकिन उन्होंने गुलामी के दौर में हजारों आदिवासियों के मन में विदेशी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष की अखंड ज्योति जलाई थी। यह ज्योति उन्हें भारतीय आजादी के इतिहास में कभी मरने नहीं देगी।
टंट्या निमाड़ अंचल के घने जंगलों में पले बढ़े थे और अंचल के आदिवासियों के बीच शोहरत के मामले में दंतकथाओं के नायकों को भी मात देते हैं। हालांकि उसकी कद-काठी किसी हीमैन की तरह नहीं थी। दुबले-पतले मगर कसे हुए और फुर्तीले बदन के मालिक टंट्या सीधी-सादी तबीयत वाले थे।

किशोरावस्था में ही उसकी नेतृत्व क्षमता सामने आने लगी थी और जब वह युवा हुआ तो आदिवासियों के अद्वितीय नायक के रूप में उभरा। उन्हें अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए आदिवासियों को संगठित किया। धीरे-धीरे टंट्या अंग्रेजों की आंख का कांटा बन गए।
इतिहासविद् और रीवा के अवधेशप्रताप सिंह विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. एसएन यादव कहते हैं कि वह इतने चालाक थे कि अंग्रेजों को उन्हें पकड़ने में करीब 7 साल लग गए। उन्हें वर्ष 1888-89 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया। टंट्या भील को उसकी औपचारिक बहन के पति गणपत के विश्वासघात के कारण गिरफ्तार कर लिया गया।

टंट्या भील की गिरफ्तारी की खबर न्यूयॉर्क टाइम्स के 10 नवंबर 1889 के अंक में प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी। इस समाचार में उन्हें 'भारत के रॉबिन हुड' के रूप में वर्णित किया गया था।


डॉ. यादव ने बताया कि मध्यप्रदेश के बड़वाह से लेकर बैतूल तक टंट्या का कार्यक्षेत्र था। शोषित आदिवासियों के मन में सदियों से पनप रहे अंसतोष की अभिव्यक्ति टंट्या भील के रूप में हुई। उन्होंने कहा कि वह इस कदर लोकप्रिय थे कि जब उन्हें गिरफ्तार करके अदालत में पेश करने के लिए जबलपुर ले जाया गया तो उनकी एक झलक पाने के लिए जगह-जगह जनसैलाब उमड़ पड़ा।

कहा जाता है कि वकीलों ने राजद्रोह के मामले में उसकी पैरवी के लिए फीस के रूप में एक पैसा भी नहीं लिया था।

बाद में उन्हें सख्त पुलिस सुरक्षा में जबलपुर ले जाया गया। उन्हें भारी जंजीरों से जकड़ कर जबलपुर जेल में रखा गया जहां ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें अमानवीय रूप से प्रताड़ित किया। उस पर तरह-तरह के अत्याचार किए गए। सत्र न्यायालय, जबलपुर ने उन्हें 19 अक्टूबर 1889 को फांसी की सजा सुनाई। उन्हे फिर 4 दिसम्बर 1889 को फासी दी गई, इस तरह टंट्या भील की मृत्यु हो गई।

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