Sr Anmol Ratan
Sant Rampal Ji Maharaj
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◆वाणी नं. 17 से 21 :-
गरीब, अचल अभंगी राम है, गलताना दम लीन। सुरति निरति के अंतरै, बाजे अनहद बीन।।17।।
गरीब, राम कह्या तौ क्या हुआ, उर में नहीं यकीन। चोर मुसैं घर लूटहीं, पांच पचीसौं तीन।।18।।
गरीब, एक राम कहते राम ह्नै, जिनके दिल हैं एक। बाहिर भीतर रमि रह्या, पूर्ण ब्रह्म अलेख।।19।।
गरीब, राम नाम निज सार है, मूल मंत्र मन मांहि। पिंड ब्रह्मंड सें रहित है,जननी जाया नाहिं।।20।।
गरीब, राम रटत नहिं ढील कर,हरदम नाम उचार। अमी महा रस पीजिये,योह तत बारं बार।।21।।
◆ सरलार्थ :- संत गरीबदास जी ने अपनी आँखों देखकर बताया है कि कबीर परमेश्वर
ही अचल (स्थाई) अभंगी (कभी नष्ट न होने वाला है। नाम का जाप सुरति
तथा निरति से यानि ध्यान लगाकर करने से सत्यलोक में होने वाली धुन सुनाई देने लगेगी।
यदि पूर्ण विश्वास के साथ राम नाम यानि दीक्षा में प्राप्त मंत्र का जाप नहीं किया तो
नाम जपा न जपा के बराबर है। उस साधक पर पाँचों विकार (काम, क्रोध, मोह, लोभ,
अहंकार) तथा प्रत्येक की पाँच-पाँच प्रकृति जो कुल पच्चीस हैं तथा तीनों गुण (रज, सत,
तम) मिलकर ये चोर आपके जीवन रूपी श्वांस धन को मुस रहे हैं यानि चुरा रहे हैं।
(मुसना=चोरी करना) तेरे शरीर रूपी घर को लूट रहे हैं।
जिन साधकों का दिल परमात्मा में रम (लीन हो) गया, वे एक परमात्मा का नाम जाप
करके राम हो जाते हैं यानि आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करके देव के समान पद प्राप्त कर लेते हैं यानि देवताओं जितनी आध्यात्मिक शक्ति वाले हो जाते हैं। परमात्मा शरीर के कमलों में तथा बाहर सब जगह विद्यमान है।
◆ (वाणी नं. 20.21) परमात्मा प्राप्ति के लिए साधना करने में राम नाम यानि गुरू जी से प्राप्त सत्य मंत्र ही निज सार है यानि विशेष महत्व रखता है। वह मूल मंत्र मन में समाया
रहै यानि निरंतर जाप करता रहे। वह परमात्मा जिसका जाप मूल मंत्र (सारनाम) है, वह
पिण्ड यानि शरीर तथा ब्रह्मण्ड से भिन्न आकाश में बने अमर धाम में रहता है। उसका जन्म किसी माता से नहीं हुआ है।
◆ वाणी नं. 21 :- अब उस राम का सुमरन (स्मरण) करने में ढ़ील (देरी) ना कर।
प्रत्येक श्वांस (हरदम) से नाम का उच्चारण कर। यह स्मरण रूपी अमृत को पी ले, यह
तत्व यानि निष्कर्ष है। बार-बार इस नाम के जाप का आनन्द ले। अमी महारस यानि अमर
होने का महान मंत्र के जाप रूपी रस (Juice) को पी ले।
◆ वाणी नं. 22 से 24 :-
गरीब, कोटि गऊ जे दान दे, कोटि जग्य जोनार। कोटि कूप तीरथ खने, मिटे नहीं जम मार।।22।।
गरीब, कोटिक तीरथ ब्रत करी, कोटि गज करी दान। कोटि अश्व बिपरौ दिये, मिटै न खैंचा तान।।23।।
गरीब, पारबती कै उर धर्या, अमर भई क्षण मांहिं। सुकदेव की चौरासी मिटी, निरालंब निज नाम।।24।।
◆ सरलार्थ :- संत गरीबदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्राप्त आध्यात्म ज्ञान को
बताया है कि :-
यदि यथार्थ नाम जाप करने को नहीं मिला तो चाहे पुराणों में वर्णित धार्मिक क्रियाऐं
करोड़ों गाय दान करो, करोड़ों (यग्य) धर्म यज्ञ तथा जौनार (जीमनवार = किसी खुशी के
अवसर पर भोजन कराना) करो, चाहे करोड़ों कुँए खनों (खुदवाओ), करोड़ों तीर्थों के
तालाबों को गहरा कराओ जिससे जम मार (काल की चोट) यानि कर्म का दण्ड समाप्त नहीं होगा।(22)
◆ चाहे करोड़ों तीर्थों का भ्रमण करो, करोड़ों व्रत रखो, करोड़ों गज (हाथी) दान करो,
चाहे करोड़ों घोड़े विप्रों (ब्राह्मणों) को दान करो। उससे जन्म-मरण तथा कर्म के दण्ड से होने वाली खेंचातान (दुर्गति) समाप्त नहीं हो सकती।(23)
◆ वाणी नं. 24 का भावार्थ है कि जैसे पार्वती पत्नी शिव शंकर को जितना अमरत्व (वह
भगवान शिव जितनी आयु नाम प्राप्ति के बाद जीएगी, फिर दोनों की मृत्यु होगी। इतना
मोक्ष) भी देवी जी को शिव जी को गुरू मानकर निज मंत्रों का जाप करने से प्राप्त हुआ है।
ऋषि वेद व्यास जी के पुत्र शुकदेव जी को अपनी पूर्व जन्म सिद्धि का अहंकार था। जिस
कारण से बिना गुरू धारण किए ऊपर के लोकों में सिद्धि से उड़कर चला जाता था। जब
श्री विष्णु जी ने उसे समझाया और स्वर्ग में रहने नहीं दिया, तब उनकी बुद्धि ठिकाने आई।
राजा जनक से दीक्षा ली। तब शुकदेव जी की उतनी मुक्ति हुई, जितनी मुक्ति उस नाम
से हो सकती थी। परमेश्वर कबीर जी अपने विधान अनुसार राजा जनक को भी त्रोतायुग
में मिले थे। उनको केवल हरियं नाम जाप करने को दिया था क्योंकि वे श्री विष्णु जी के
भक्त थे। वही मंत्र शुकदेव को प्राप्त हुआ था। जिस कारण से वे श्री विष्णु लोक के स्वर्ग
रूपी होटल में आनन्द से निवास कर रहे हैं। वहीं से विमान में बैठकर राजा परीक्षित को
भागवत कथा सुनाने आए थे। फिर वहीं लौट गए।
गरीब, ऋषभ देव के आईया, कबि नामें अवतार। नौ योगेश्वर में रमा, जनक विदेही उधार।।
क्रमशः..........
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🌱 ‘‘सुमिरन के अंग का सरलार्थ’’🌱
(राग बिलावल से शब्द नं. 17 भी पढ़ें।)
◆ तत कहन कूं राम है, दूजा नहीं देवा। ब्रह्मा बिष्णु महेश से, जाकी करि हैं सेवा।।टेक।।
जप तप तीर्थ थोथरे, जाकी क्या आशा। कोटि यज्ञ पुण्य दान से, जम कटै न फांसा।।1।।
यहां देन वहां लेन है, योह मिटै न झगरा। वाह बिना पंथ की बाट है, पावै को दगरा।।2।।
बिन इच्छा जो देत है,सो दान कहावै। फल बांचै नहीं तास का, अमरापुर जावै।।3।।
सकल द्वीप नौ खंड के, क्षत्र जिन जीते। सो तो पद में ना मिले, विद्या गुण चीते।।4।
कोटि उनंचा पृथ्वी, जिन दीन्ही दाना। परशुराम अवतार कूं, कीन्ही कुरबाना।।5।।
कंचन मेर सुमेर रे, आये सब माही। कामधेनु कल्पबृक्ष रे, सोदान कराहीं।।6।।
सुर नर मुनिजन से वहीं, सनकादिक ध्यावैं। शेष सहंस मुख रटत हैं, जाका पार न पावैं।7।
ब्रह्मा बिष्णु महेश रे, देवा दरबारी। संख कल्प युग हो गये, जाकी खुल्है न तारी।।8।।
सर्ब कला सम्पूर्णां रे, सब पीरन का पीरा। अनन्त लोक में गाज है, जाका नाम कबीरा।9।।
प्रलय संख्य असंख्य रे, पल मांहि बिहानी। गरीब दास निज नाम की, महिमा हम जानी।।10।।17।।
◆ वाणी नं. 1,2 :-
गरीब, ऐसा अबिगत राम है, आदि अंत नहिं कोइ। वार पार कीमत नहीं, अचल हिरंबर सोइ।।1।।
गरीब, ऐसा अबिगत राम है, अगम अगोचर नूर। सुंन सनेही आदि है, सकल लोक भरपूर।।2।।
संत गरीबदास जी ने जिसको अविगत राम (परम दिव्य पुरूष) कहा है। वह कबीर
परमेश्वर काशी शहर में जुलाहे की भूमिका किया करता था।
गरीब, सब पदवी के मूल हैं, सकल सिद्धि हैं तीर। दास गरीब सतपुरूष भजो, अविगत कला कबीर।।
गरीब, अनन्त कोटि ब्रह्मण्ड का, एक रति नहीं भार। सतगुरू पुरूष कबीर हैं, कुल के सिरजनहार।।
गरीब, हम सुल्तानी नानक तारे, दादू कूं उपदेश दिया। जाति जुलाहा भेद ना पाया, काशी मांहे कबीर हुआ।।
◆ सरलार्थ :- संत गरीबदास जी ने इस अविगत राम का निज नाम पूर्ण सतगुरू से
लेकर सुमरन (स्मरण) करने के लिए जोर देकर कहा है। उसकी महिमा बताई है। उसकी
भक्ति से लाभ तथा अन्य देव की भक्ति से लाभ तथा फिर दोनों की तुलना करके निर्णय
दिया है कि ‘‘राम कबीर का नाम जप भईया, जे तेरा पार चलने को दिल है जी।’’
कबीर परमेश्वर ऐसा अविगत राम है जिसका न आदि (जन्म-शुरूआत) है, न अंत है
यानि मृत्यु है अर्थात् सनातन अविनाशी परमात्मा है। उसका कोई वार-पार यानि भेद नहीं,
वह अनमोल, अचल (स्थाई) हिरंबर (स्वर्ण की तरह सुनहरी रंग यानि तेजोमय) है। जैसे
एक ‘‘पारस’’ पत्थर है। उसके छोटे से टुकड़े को एक क्विंटल के लोहे के गाटर (स्तम्भ)
से छू दिया जाए तो पूरे स्तम्भ को सोना (Gold) बना देता है। यदि सौ क्विंटल के लोहे के
स्तम्भ से छू दे तो उसको भी स्वर्ण बना देता है। यदि हजार-लाख क्विंटल के लोहे से घिसा
दे तो उसे भी स्वर्ण बना देता है। इसी प्रकार उस पत्थर के टुकड़े का मूल्य क्या बताया
जाए? उसे अनमोल कहते हैं।
क्या आकाश फेर (अंत) है, क्या धरती का तोल। क्या परमेश्वर की महिमा कहें, जैसे क्या पारस का मोल।।
इस प्रकार कबीर परमेश्वर अनमोल यानि बेकीमत करतार है।(1)
◆ वह परमात्मा सुन्न में आकाश में रहता है। वहीं से सब लोकों को अपनी शक्ति से
भरपूर (परिपूर्ण) किए हैं। जैसे सूर्य करोड़ों कि.मी. धरती से दूर आकाश में होते हुए भी पूरी पृथ्वी को अपने प्रकाश तथा उष्णता से परिपूर्ण कर रहा है। अगोचर नूर का अर्थ है अव्यक्त प्रकाशयुक्त जो सामान्य साधना तथा चर्मदृष्टि से दिखाई नहीं देता।(2)
◆ वाणी नं. 3 से 7 :-
गरीब, ऐसा अबिगत राम है, गुन इन्द्रिय सै न्यार। सुंन सनेही रमि रह्या, दिल अंदर दीदार।।3।।
गरीब, ऐसा अबिगत राम है, अपरम पार अल्लाह। कादर कूं कुरबान है, वार पार नहिं थाह।।4।।
गरीब, ऐसा अबिगत राम है, कादर आप करीम। मीरा मालिक मेहरबान, रमता राम रहीम।।5।।
गरीब, अलह अबिगत राम है, बेच गूंन चित्त माहिं। शब्द अतीत अगाध है, निरगुन सरगुन नाहिं।।6।।
गरीब, अलह अबिगत राम है, पूर्णपद निरबान। मौले मालिक है सही, महल मढी सत थान।।7।।
● वाणी नं. 3 से 7 का सरलार्थ :-
{शब्दार्थ :- कादर माने समर्थ, दीदार माने दर्शन, करीम माने दयालु, थाह माने अंत,
(मीर) मीरा माने लाठ साहब यानि नवाब, बेचगून माने अव्यक्त जिसको तत्वज्ञान के अभाव से निराकार अर्थ कर रहे हैं। सत् भान माने सत्य स्थान यानि सत्य लोक। पूर्ण पद निरबान माने पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने की पद्यति। अल्लाह, मौला, मालिक माने प्रभु।}
सरलार्थ :- कबीर जी ऐसे अविगत राम हैं जो तीनों गुणों तथा भौतिक शरीर की
इन्द्रियों से न्यारे हैं। उनका शरीर तथा सामर्थ्य सबसे भिन्न और अधिक है। उसका कोई
अन्त नहीं है। वह बेचगून यानि अव्यक्त है। जैसे सूर्य के सामने बादल छा जाते हैं, उस
समय सूर्य अव्यक्त होता है। उसी प्रकार परमात्मा और आत्मा के मध्य पाप कर्मों के बादल
अड़े हैं। जिस कारण से परमेश्वर विद्यमान होते हुए भी अव्यक्त है, दिखाई नहीं देता।
गरीब, जैसे सूरज के आगे बदरा, ऐसे कर्म छया रे। प्रेम की पवन करे चित मंजन, झलकै तेज नया रे।।
◆ भावार्थ :- सत्य साधना शास्त्रोक्त विधि से करने से परमात्मा के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है।
सुमरन (स्मरण-जाप) करते समय या परमेश्वर की महिमा सुनने तथा परमात्मा का
विचार आने पर प्रभु प्रेम में आँसू बहने लगते हैं जो पाप कर्म नाश होने का प्रतीक होता है
जैसे तेज वायु चलने से बादल तितर-बितर हो जाते हैं, सूर्य का प्रकाश स्पष्ट नया ताजा
दिखाई देने लगता है। इसी प्रकार नाम जाप से उत्पन्न प्रेम की आँधी से आत्मा तथा
परमात्मा के सामने से पाप कर्म रूपी बादल तितर-बितर हो जाते हैं। फिर परमेश्वर जी
दिव्य दृष्टि से दिखाई देते हैं। उनका नूर (प्रकाश) पहले अगोचर था। फिर दिव्य दृष्टिगोचर
हुआ। उसी परमेश्वर की भक्ति से पूर्ण निर्बाण (पूर्ण मोक्ष) प्राप्त होता है। वह परमात्मा
(मौला) सत्धाम (सत्यलोक) में रहता है।
◆ सुमिरन के अंग की वाणी नं. 8 से 12 :-
गरीब, अलह अबिगत राम है, निराधारों आधार। नाम निरंतर लीजिये, रोम रोम की लार।।8।।
गरीब, अलह अबिगत राम है, निरबानी निरबंध। नाम निरंतर लीजिये, ध्यान चकोरा चंद।।9।।
गरीब, अलह अबिगत राम है, कीमत कही न जाइ। नाम निरंतर लीजिये, मुख से कह न सुनाइ।।10।।
गरीब, अलह अबिगत राम है, निरबानी निरबंध। नाम निरंतर लीजिये, ज्यूं हिल मिल मीन समंद।।11।।
गरीब, दोऊ दीन मधि एक है, अलह अलेख पिछान। नाम निरंतर लीजिये, भगति हेत उर आन।।12।।
◆ वाणी नं. 8 से 12 का सरलार्थ :-
उस अविगत राम कबीर के निज नाम (वास्तविक नाम) का जाप-स्मरण निरंतर
करो। जिनका कोई आधार नहीं, उनका आश्रय वही परमात्मा है। वह परमात्मा निरबानि
यानि पूर्ण मोक्षदायक है, निरबन्ध यानि स्वतन्त्र है। उनके ऊपर किसी की हुकूमत (सत्ता)
नहीं चलती। वह कुल का मालिक है। उसका नाम इस प्रकार सुमरण करो जैसे मीन
(मछली) समुद्र में एक पल भी निश्चल नहीं रहती। उसी प्रकार नाम का स्मरण करते रहो।
परमेश्वर के नाम से ध्यान ऐसे लगाओ जैसे चकोर पक्षी चाँद से लगाता है। संत धर्मदास
जी ने कहा है कि :-
निर्विकार निर्भय तू ही, और सकल भयमान। सब पर तेरी साहेबी (सत्ता), तुझ पर साहब ना।।
हम यहां मुक्तिबोध पेज नंबर 18, 19 गरीबदास जी की वाणीओ का सरलार्थ पढ़ रहे हैं। सरलार्थ का अगला अंश आप अगली पोस्ट में पढ़ेंगे।
क्रमशः..........
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{ गीता अध्याय 17 श्लोक 1 से 6 तक में भी यही स्पष्ट किया है :- श्लोक 1 में अर्जुन
ने पूछा कि आपने गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि शास्त्रविधि के विपरित
साधना व्यर्थ है। यदि साधक शास्त्रविधि को त्यागकर श्रद्धा से अन्य देवताओं (जिनके विषय में गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, 20 से 23, अध्याय 9 श्लोक 23,25 में वर्णन है) का पूजन करते हैं। उनकी स्थिति सात्विक है या राजसी है या तामसी है?
अध्याय 17 श्लोक 2 से 6 तक गीता ज्ञान दाता ने उत्तर दिया :- मनुष्यों की स्थिति
तीन प्रकार की ही होती है। सात्विक वृति के व्यक्ति (तत्वज्ञान के अभाव से) देवताओं की
भक्ति (पूजा) करते हैं। तामसी व्यक्ति प्रेतों, पित्तरों आदि के जन्त्र-मन्त्र में लगे रहते हैं, जो
व्यक्ति शास्त्रविधि को त्यागकर मन कल्पित घोर तप को तपते हैं, वे शरीर में स्थित मुझे,
उस परमेश्वर तथा कमलों में विराजमान मुख्य देवताओं को कष्ट देने वाले अज्ञानी हैं।
उनको राक्षस स्वभाव के जान।}
◆ वाणी नं. 49 :-
गरीब, निज नाम बिना निपजै नहीं, जप तप करहें कोटि।
लख चौरासी तैयार हैं, क्या मूंड मुंडाया घोटि।।49।।
◆ भावार्थ :- वास्तविक नाम (सात नाम, सतनाम तथा सारनाम) बिना भक्ति रूपी फसल
नहीं उपजती यानि जैसे गेहूँ की फसल प्राप्त करने के लिए गेहूँ का बीज ही बीजना पड़ता
है। यदि ग्वार का बीज बोकर गेहूँ की प्राप्ति की इच्छा लिए है तो भूखा मरेगा। इसलिए कहा है कि वास्तविक नाम के जाप बिना अन्य नामों का जाप तथा मनमाना घोर तप करके आप खुश हुए बैठे हो, कोई सिर के सब बाल तथा दाढ़ी-मूँछ कटाकर सफाचट रहता है, गलत साधना करके मोक्ष की आशा लगाए है, उनसे कहा है कि चौरासी लाख योनियों की प्राप्ति तैयार है।
कबीर, करता था तब क्यों किया, अब करके क्यों पछताए।
बोए पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय।।
यह सुमरन के अंग का सारांश है।
अभी तक सुमिरन के अंग का सारांश का वर्णन किया गया है। अब हम सुमिरन के अंग का सरलार्थ पढ़ेंगे।
क्रमशः..........
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#दहेज_मुक्त_विवाह (रमैनी) का सीधा प्रसारण।
#दहेजमुक्त_विवाह
स्थान: सतलोक आश्रम धनुषा, बेलाचापी न.पा., महेंद्रनगर पुल से पश्चिम, जिला धनुषा, नेपाल।
सतलोक आश्रम धनुषा, नेपाल में भी जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज के 73 वें अवतरण दिवस के अवसर पर 3 दिवसीय भव्य समागम का आयोजन किया गया है। संत रामपालजी महाराज के आध्यात्मिक तत्वज्ञान पर आधारित समागम के तीसरे दिन दिनांक 2023 सितंबर 8 को समागम के तीसरे दिन शुक्रवार को सतलोक आश्रम धनुषा में विभिन्न जोड़ों का दहेज मुक्त विवाह (रमैणी) कार्यक्रम बिना किसी आडंबर के सदगुरुदेव जी के आशीर्वाद से मात्र 17 मिनट में गुरुवाणी (रमैणी) के पाठ द्वारा किया जा रहा है। यह विवाह दहेज जैसी सामाजिक कुरीतियों से ग्रस्त हमारे समाज के लिए प्रेरणा का एक महत्वपूर्ण और अनुकरणीय स्रोत है।
संत रामपाल जी महाराज का मुख्य उद्देश्य संपूर्ण मानव जाति को शास्त्र अनुकूल सतभक्ति प्रदान करके आत्म कल्याण करना तथा विश्व को मोक्ष प्रदान करना है। इसी प्रकार दहेज के नाम पर बेटियों के प्रति भेदभाव, घरेलू हिंसा, भ्रूण हत्या तथा विवाहों में फिजूलखर्ची तथा आडंबर ने भी आध्यात्मिकता से युक्त स्वच्छ, निर्मल विकारमुक्त मानव समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। सतलोक आश्रम ने विश्व भर में संत रामपाल जी महाराज के तत्वज्ञान से प्रेरित हजारों ऐसे जोड़ों का विवाह बिना किसी लेन-देन, बिना दहेज के, वेद शास्त्र के अनुसार सरल तरीके से कराया है।
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गरीब, ऋषभ देव के आईया, कबि नामें अवतार। नौ योगेश्वर में रमा, जनक विदेही उधार।।
■ भावार्थ :- परमेश्वर कबीर जी अपने विधान अनुसार {कि परमात्मा ऊपर के लोक में
निवास करता है। वहाँ से गति करके आता है, अच्छी आत्माओं को मिलता है। उनको अपनी वाक (वाणी) द्वारा भक्ति करने की प्रेरणा करता है आदि-आदि।} राजा ऋषभ देव (जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर) को मिले थे। अपना नाम कविर्देव बताया था। ऋषभ देव जी ने अपने धर्मगुरूओं-ऋषियों से सुन रखा था कि परमात्मा का वास्तविक नाम वेदों में कविः देव (कविर्देव) है। परमात्मा कवि ऋषि नाम से ऋषभ देव को भक्ति की प्रेरणा देकर अंतर्ध्यान हो गए थे। नौ नाथों (गोरखनाथ, मच्छन्द्रनाथ, जलंदरनाथ, चरपटनाथ आदि) को समझाने के लिए उनको मिले तथा राजा जनक विदेही (विलक्षण शरीर वाले को विदेही कहते हैं) को सत्यज्ञान बताकर उनको सही दिशा दी। परंतु राजा जनक ने विष्णु उपासना को नहीं त्यागा। राजा जनक से दीक्षा लेकर शुकदेव ऋषि को स्वर्ग प्राप्त हुआ। परंतु वह पूर्ण मोक्ष नहीं मिला जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा हैः-
(तत्वदर्शी संत से तत्वज्ञान समझने के पश्चात्) अध्यात्म अज्ञान को तत्वज्ञान रूपी
शस्त्र से काटकर उसके पश्चात् परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहाँ
जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर से संसार रूपी
वृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है यानि जिस परमेश्वर ने संसार की रचना की है, केवल उसी की भक्ति करो।
वाणी नं. 24 में यही स्पष्ट किया है कि यदि स्वर्ग जाने की भी तमन्ना है तो वे भी
विशेष (निज) मंत्रों के जाप से ही पूर्ण होगी। परंतु यह इच्छा तत्वज्ञान के अभाव से है। जैसे
गीता अध्याय 2 श्लोक 46 में बहुत सटीक उदाहरण दिया है कि सब ओर से परिपूर्ण
जलाश्य (बड़ी झील=Lake) प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय (तालाब) में मनुष्य का जितना प्रयोजन रह जाता है। उसी प्रकार तत्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् विद्वान पुरूष का वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद) में प्रयोजन रह जाता है।
■ भावार्थ :- तत्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् अन्य देवताओं से होने वाले क्षणिक लाभ
(स्वर्ग व राज्य प्राप्ति) से अधिक सुख समय तथा पूर्ण मोक्ष (गीता अध्याय 15 श्लोक 4 वाला
मोक्ष) जो परमेश्वर (परम अक्षर ब्रह्म=गीता अध्याय 8 श्लोक 3, 8, 9, 10, 20 से 23 वाले
परमेश्वर) के जाप से होता है, की जानकारी के पश्चात् साधक की जितनी श्रद्धा अन्य
देवताओं में रह जाती है :-
कबीर, एकै साधै सब सधै, सब साधें सब जाय। माली सींचे मूल कूँ, फलै फूलै अघाय।।
भावार्थ :- गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 को इस अमृतवाणी में संक्षिप्त कर बताया है किः-
जो ऊपर को मूल (जड़) वाला तथा नीचे को तीनों गुण (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु,
तमगुण शिव) रूपी शाखा वाला संसार रूपी वृक्ष है :-
कबीर, अक्षर पुरूष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार। तीनों देवा शाखा हैं, पात रूप संसार।।
जैसे पौधे को मूल की ओर से पृथ्वी में रोपण करके मूल की सिंचाई की जाती है तो
उस मूल परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म) की पूजा से पौधे की परवरिश होती है। सब तना, डार,शाखाओं तथा पत्तों का विकास होकर पेड़ बन जाता है। छाया, फल तथा लकड़ी सर्व प्राप्त होती है जिसके लिए पौधा लगाया जाता है। यदि पौधे की शाखाओं को मिट्टी में रोपकर जड़ों को ऊपर करके सिंचाई करेंगे तो भक्ति रूपी पौधा नष्ट हो जाएगा। इसी प्रकार एक मूल (परम अक्षर ब्रह्म) रूप परमेश्वर की पूजा करने से सर्व देव विकसित होकर साधक को बिना माँगे फल देते रहेंगे।(जिसका वर्णन गीता अध्याय 3 श्लोक 10 से 15 में भी है) इस प्रकार ज्ञान होने पर साधक का प्रयोजन उसी प्रकार अन्य देवताओं से रह जाता है जैसे झील की प्राप्ति के पश्चात् छोटे जलाशय में रह जाता है। छोटे जलाशय पर आश्रित को ज्ञान होता है कि यदि एक वर्ष बारिश नहीं हुई तो छोटे तालाब का जल समाप्त हो जाएगा। उस पर आश्रित भी संकट में पड़ जाऐंगे। झील के विषय में ज्ञान है कि यदि दस वर्ष भी बारिश
न हो तो भी जल समाप्त नहीं होता। वह व्यक्ति छोटे जलाशय को छोड़कर तुरंत बड़े
जलाशय पर आश्रित हो जाता है। भले ही छोटे जलाशय का जल पीने में झील के जल जैसा
ही लाभदायक है, परंतु पर्याप्त व चिर स्थाई नहीं है। इसी प्रकार अन्य देवताओं (रजगुण
ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी) की भक्ति से मिलने वाले स्वर्ग का सुख
बुरा नहीं है, परंतु क्षणिक है, पर्याप्त नहीं है। इन देवताओं तथा इनके अतिरिक्त किसी भी
देवी-देवता, पित्तर व भूत पूजा करना गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, 20 से 23 तथा
अध्याय 9 श्लोक 25 में मना किया है। इसलिए भी इनकी भक्ति करना शास्त्र विरूद्ध होने
से व्यर्थ है जिसका गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में प्रमाण है। कहा है कि शास्त्र विधि को त्यागकर मनमाना आचरण करने वालों को न तो सुख प्राप्त होता है, न सिद्धि प्राप्त होती है और न ही परम गति यानि पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति होती है अर्थात् व्यर्थ प्रयत्न है।(गीता
अध्याय 16 श्लोक 23) इससे तेरे लिए अर्जुन! कर्तव्य यानि जो भक्ति कर्म करने चाहिए और अकर्तव्य यानि जो भक्ति कर्म न करने चाहिए, उसके लिए शास्त्र ही प्रमाण हैं यानि शास्त्रों को आधार मानकर निर्णय लेकर शास्त्रों में वर्णित साधना करना योग्य है।(गीता अध्याय 16 श्लोक 24)
■ 🌱 सुमरन केअंग की वाणी नं. 38 में कहा है :-
गरीब, ऐसा निर्मल नाम है, निर्मल करै शरीर। और ज्ञान मंडलीक है, चकवै ज्ञान कबीर।।
■ वाणी नं. 47-50 :-
गरीब, नाम बिना क्या होत है, जप तप संयम ध्यान। बाहरि भरमै मानवी, अब अंतर में जान।।47।।
गरीब, उजल हिरंबर भगति है, उजल हिरंबर सेव। उजल हिरंबर नाम है, उजल हिरंबर देव।।48।।
गरीब, निजनाम बिना निपजै नहीं, जपतप करि हैं कोटि। लख चौरासी त्यार है, मूंड मुंडायां घोटि।।49।।
गरीब, नाम सिरोमनि सार है, सोहं सुरति लगाइ। ज्ञान गलीचे बैठिकरि, सुंनि सरोवर न्हाइ।।50।।
वाणी नं. 47 से 50 में भी यही समझाया है कि निज नाम (विशेष मंत्र) बिना अन्य नामों
का जाप तथा मनमाना घोर तप जो करते हैं, उनकी साधना व्यर्थ है।
क्रमशः..........
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#दहेज_मुक्त_विवाह (रमैनी) का सीधा प्रसारण।
#दहेजमुक्त_विवाह
स्थान: सतलोक आश्रम धनुषा, बेलाचापी न.पा., महेंद्रनगर पुल से पश्चिम, जिला धनुषा, नेपाल।
सतलोक आश्रम धनुषा, नेपाल में भी जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज के 73 वें अवतरण दिवस के अवसर पर 3 दिवसीय भव्य समागम का आयोजन किया गया है। संत रामपालजी महाराज के आध्यात्मिक तत्वज्ञान पर आधारित समागम के दूसरे दिन दिनांक 2023 सितंबर 7 को समागम के दूसरे दिन गुरुवार को सतलोक आश्रम धनुषा में विभिन्न जोड़ों का दहेज मुक्त विवाह (रमैणी) कार्यक्रम बिना किसी आडंबर के सदगुरुदेव जी के आशीर्वाद से मात्र 17 मिनट में गुरुवाणी (रमैणी) के पाठ द्वारा किया जा रहा है। यह विवाह दहेज जैसी सामाजिक कुरीतियों से ग्रस्त हमारे भारतीय और नेपाली समाज के लिए प्रेरणा का एक महत्वपूर्ण और अनुकरणीय स्रोत है।
संत रामपाल जी महाराज का मुख्य उद्देश्य संपूर्ण मानव जाति को शास्त्र अनुकूल सतभक्ति प्रदान करके आत्म कल्याण करना तथा विश्व को मोक्ष प्रदान करना है। इसी प्रकार दहेज के नाम पर बेटियों के प्रति भेदभाव, घरेलू हिंसा, भ्रूण हत्या तथा विवाहों में फिजूलखर्ची तथा आडंबर ने भी आध्यात्मिकता से युक्त स्वच्छ, निर्मल विकारमुक्त मानव समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। सतलोक आश्रम ने विश्व भर में संत रामपाल जी महाराज के तत्वज्ञान से प्रेरित हजारों ऐसे जोड़ों का विवाह बिना किसी लेन-देन, बिना दहेज के, वेद शास्त्र के अनुसार सरल तरीके से कराया है।
जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी के 73वां अवतरण दिवस।
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★🌱 सुमरण के अंग की वाणी नं. 20 में कहा है कि :-
गरीब, राम नाम निज सार है, मूल मंत्र मन मांहि। पिंड ब्रह्मंड सें रहित है, जननी जाया नाहिं।।20।।
■ भावार्थ :- संत गरीबदास जी ने कहा है कि मोक्ष के लिए राम के नाम का जाप ही निज
सार है। यानि मोक्ष प्राप्ति का निष्कर्ष है। नाम-स्मरण से ही मुक्ति होती है। नाम भी मूल
मंत्र यानि यथार्थ नाम हो। जिस पूर्ण परमात्मा का जो मूल मंत्र यानि सार नाम है, वह
परमेश्वर पिण्ड यानि नाड़ी तंत्र से बने पाँच तत्व के शरीर से रहित (उसका पाँच तत्व का शरीर नहीं है) है। परमात्मा का जन्म किसी माता से नहीं हुआ।(20)
■ वाणी नं. 21 :-
गरीब, राम रटत नहिं ढील कर, हरदम नाम उचार। अमी महारस पीजिये, योह तत बारंबार।।21।।
■ हे साधक! पूर्ण गुरू से दीक्षा लेकर उस राम के नाम की रटना (जाप करने में) में देरी
(ढ़ील) ना कर। प्रत्येक श्वांस में उस नाम को उच्चार यानि जाप कर। यह स्मरण का अमृत
बार-बार पी यानि कार्य करते-करते तथा कार्य से समय मिलते ही जाप शुरू कर दे। इस
अमृत रूपी नाम जाप के अमृत को पीता रहे। यह तत यानि भक्ति का सार है।(21)
■ यदि यथार्थ नाम प्राप्त नहीं है तो चाहे पुराणों में वर्णित धार्मिक क्रियाऐं करोड़ों गाय
दान करो, करोड़ों धर्म यज्ञ, जौनार (जीमनवार = किसी लड़के के जन्म पर भोजन कराना)
करो, चाहे करोड़ों कुँए खनों (खुदवाओ), करोड़ों तीर्थों के तालाबों को गहरा कराओ जिससे जम मार (काल की चोट) यानि कर्म का दण्ड समाप्त नहीं होगा।
■ वाणी नं. 22 :-
गरीब, कोटि गऊ जे दान दे, कोटि जग्य जोनार। कोटि कूप तीरथ खने, मिटे नहीं जम मार।।22।।
जैसे किसी देव या संत के नाम का मेला लगता है। उसका स्थान किसी छोटे-बड़े
जलाशय के पास होता है। श्रद्धालुओं को उस तालाब से मिट्टी निकलवाने को कहा जाता
है तथा उसको पुण्य का कार्य कहा जाता है। यदि सतनाम का जाप नहीं किया तो मोक्ष नहीं होगा। साधक को अन्य साधना का फल स्वर्ग में समाप्त करके पाप को नरक में भोगना होता है। इसलिए सब व्यर्थ है।(22)
■ वाणी नं. 23 :-
गरीब, कोटिक तीरथ ब्रत करी, कोटि गज करी दान। कोटि अश्व बिपरौ दिये, मिटै न खैंचातान।।23।।
■ चाहे करोड़ों तीर्थों का भ्रमण करो, करोड़ों व्रत रखो, करोड़ों गज (हाथी) दान करो,
चाहे करोड़ों घोड़े विप्रों (ब्राह्मणों) को दान करो। उससे जन्म-मरण तथा कर्म के दण्ड से होने वाली खेंचातान (दुर्गति) समाप्त नहीं हो सकती।(23)
■ वाणी नं. 24 :-
गरीब, पारबती कै उर धर्या, अमर भई क्षण मांहिं। सुकदेव की चौरासी मिटी, निरालंब निज नाम।।24।।
■ वाणी नं. 24 का भावार्थ है कि जैसे पार्वती पत्नी शिव शंकर को जितना अमरत्व (वह
भगवान शिव जितनी आयु नाम प्राप्ति के बाद जीएगी, फिर दोनों की मृत्यु होगी। इतना
मोक्ष) भी देवी जी को शिव जी को गुरू मानकर निज मंत्रों का जाप करने से प्राप्त हुआ है।
ऋषि वेद व्यास जी के पुत्र शुकदेव जी को अपनी पूर्व जन्म की सिद्धि का अहंकार था। जिस कारण से बिना गुरू धारण किए ऊपर के लोकों में सिद्धि से उड़कर चला जाता था। जब श्री विष्णु जी ने उसे समझाया और स्वर्ग में रहने नहीं दिया, तब उनकी बुद्धि ठिकाने आई। राजा जनक से दीक्षा ली। तब शुकदेव जी की उतनी मुक्ति हुई, जितनी मुक्ति उस नाम से हो सकती थी। परमेश्वर कबीर जी अपने विधान अनुसार राजा जनक को भी त्रेतायुग में मिले थे। उनको केवल हरियं नाम जाप करने को दिया था क्योंकि वे श्री विष्णु जी के भक्त थे। वही मंत्र शुकदेव को प्राप्त हुआ था। जिस कारण से वे श्री विष्णु लोक के स्वर्ग रूपी होटल में आनन्द से निवास कर रहे हैं। वहीं से विमान में बैठकर अर्जुन के पौत्र यानि अभिमन्यु के पुत्र राजा परीक्षित को भागवत (सुधा सागर की) कथा सुनाने आए थे। फिर वहीं लौट गए।
क्रमशः..........
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तपाईं हेर्दै हुनुहुन्छ जगतगुरु तत्त्वदर्शी सन्त रामपालजी महाराजको ७३ औँ अवतरण दिवसको उपलक्ष्यमा आदरणीय सन्त गरीबदासजीको अमर ग्रन्थ (सद्ग्रन्थ साहिब) का अमर वाणीहरूको पाठ प्रकाशको सतलोक आश्रम धनुषा, नेपाल बाट भइरहेको प्रत्यक्ष प्रसारण।
जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी के 73वां अवतरण दिवस।
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★🌱 राग बसंत से शब्द नं. 8 :-
■ कोई है रे परले पार का, जो भेद कहै झनकार का।।टेक।।
वारिही गोरख वारिही दत, बारिही ध्रू प्रहलाद अरथ।
वारिही सुखदे वारिही ब्यास, वारिही पारासुर प्रकाश।।1।।
वारिही दुरबासा दरबेश, वारिही नारद शारद शेष।
वारिही भरथर गोपीचंद, वारिही सनक सनंदन बंध।।2।।
वारिही ब्रह्मा वारिही इन्द, वारिही सहंस कला गोविंद।
वारिही शिबशंकर जो सिंभ, वारिही धर्मराय आरंभ।।3।।
वारिही धर्मराय धरधीर, परमधाम पौंहचे कबीर।
ऋग यजु साम अथरवन बेद, परमधाम नहीं लह्या भेद।।4।।
अलल पंख अगाध भेव, जैसैं कुंजी सुरति सेव।
वार पार थेहा न थाह, गरीबदास निरगुन निगाह।।5।।8।।
★ 🌱 राग होरी से शब्द नं. 8 :-
■ अलल का ध्यान धरौ रे, चीन्हौं पुरुष बिदेही।।टेक।।
उलटि पवन रेचक करि राखौ, काया कुंभ भरौ रे।
अडिग अमांन अडोल अबोलं, टार्यौ नांहि टरौ रे।।1।।
बिन सतगुरु पद दरशत नाहीं, भावै तिहूं लोक फिरौ रे।
गुन इन्द्री का ज्ञान परेरो, जीवत क्यौं न मरौ रे।।2।।
पलकौं दा भौंरा पुरुष बिनांनी, खोटा करत खरौ रे।
कामधेनु दूझे कलवारनि, नीझर अजर जरौ रे।।3।।
कलविष कुसमल बंधन टूटैं, सब दुःख ब्याधि हरौ रे।
गरीबदास निरभै पद पाया, जम सें नांहि डरौ रे।।4।।8।।
🌱‘‘सुमिरन के अंग का सारांश’’🌱
संत गरीबदास जी ने अपनी अमृतवाणी रूपी वन में प्रत्येक प्रकार के पेड़-पौधे,
जड़ी-बूटियां, फूल, फलदार वृक्ष, मेवा की लता आदि-आदि उगाए हैं। इसका मुख्य कारण
यह रहा है कि जो मूल ज्ञान है, उसको गुप्त रखना था। यह परमात्मा कबीर जी का आदेश
था। इसी कारण से संत गरीबदास जी ने अनेकों वाणियाँ कही हैं। मन की आदत है कि यदि कम वाणी हैं तो उनको कण्ठस्थ करके अरूचि करता है। ये ढे़र सारी अमृतवाणी लिखवाकर संत गरीबदास जी ने मन को व्यस्त तथा रूचि बनाए रखने का मंत्र बताया है। मन पढ़ता रहता है या सुनता रहता है, आत्मा आनन्द का अनुभव करती है।
वाणी नं. 18 में कहा है कि :-
गरीब, राम कहा तो क्या हुआ, उर में नहीं यकीन। चोर मुसें घर लूटहि, पाँच पचीसों तीन।।18।।
■ भावार्थ :- यदि साधक को परमात्मा पर विश्वास ही नहीं है तो नाम-सुमरण का कोई
लाभ नहीं। उसके मानव जीवन को काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार रूपी पाँच चोर मुस
(चुरा) रहे हैं। इन पाँचों की पाँच-पाँच प्रकृति यानि 25 ये तथा रजगुण के आधीन होकर
कोठी-बंगले बनाने में, कभी कार-गाड़ी खरीदने में जीवन नष्ट कर देता है। सतगुण के प्रभाव से पहले तो किसी पर दया करके बिना सोचे-समझे लाखों रूपये खर्च कर देता है। फिर उसमें त्रुटी देखकर तमोगुण के प्रभाव से झगड़ा कर लेता है। इस प्रकार तीन गुणों के प्रभाव से मानव जीवन नष्ट हो जाता है। यदि तत्वदर्शी संत से ज्ञान सुनकर विश्वास के साथ नाम का जाप करे तो जीवन सफल हो जाता है।
जिन-जिन भक्तों ने मर्यादा में रहकर जिस स्तर की भक्ति, दान आदि-आदि किया है, उनको लाभ अवश्य मिला है। उदाहरण बताया है कि :-
(वाणी नं. 31 से 39 में) = गोरखनाथ, दत्तात्रे, शुकदेव, पीपा, नामदेव, धन्ना भक्त,
रैहदास (रविदास), फरीद, नानक, दादू, हरिदास, गोपीचंद, भरथरी, जंगनाथ (झंगरनाथ),
चरपटनाथ, अब्राहिम अधम सुल्तान, नारद ऋषि, प्रहलाद भक्त, धु्रव, विभीक्षण, जयदेव,
कपिल मुनि, स्वामी रामानंद, श्री कृष्ण, ऋषि दुर्वासा, शंभु यानि शिव, विष्णु, ब्रह्मा आदि
सबकी प्रसिद्धि पूर्व जन्म तथा वर्तमान में की गई नाम-सुमरण (स्मरण) की शक्ति से हुई
है, अन्यथा ये कहाँ थे यानि इनको कौन जानता था? इसी प्रकार आप भी तन-मन-धन
समर्पित करके गुरू धारण करके आजीवन भक्ति मर्यादा में रहकर करोगे तो आप भी भक्ति शक्ति प्राप्त करके अमर हो जाओगे। जिन-जिन साधकों ने जिस-जिस देव की साधना की, उनको उतनी महिमा मिली है।
कबीर जी ने कहा है कि :-
जो जाकि शरणा बसै, ताको ताकी लाज। जल सौंही मछली चढ़ै, बह जाते गजराज।।
■ भावार्थ :- जो साधक जिस राम (देव-प्रभु) की भक्ति पूरी श्रद्धा से करता है तो वह राम
उस साधक की इज्जत रखता है यानि उसको अपने सामर्थ्य अनुसार अपने क्षेत्र में पूर्ण लाभ देता है।
उदाहरण दिया है कि जैसे मछली का जल से अटूट नाता है। वह कुछ समय ही जल
से दूर होने पर तड़फ-तड़फकर प्राण त्याग देती है। ऐसी श्रद्धा देखकर जल ने उसको अपने क्षेत्र में पूर्ण स्वतंत्रता दे रखी है। उसको कोई रोक-टोक नहीं है। जैसे ऊँचे स्थान (Fall) से 50 फुट से दरिया का जल गिर रहा होता है। वह जल की धारा बड़े से बड़े हाथी यानि गजराज को भी बहा ले जाती है जो हाथियों का राजा होता है। परंतु अपनी पुजारिन मछली को पूरी स्वतंत्रता दे रखी है। वह उस गिरते पानी में नीचे से ऊपर (50 फुट तक) चढ़ जाती है। इसी प्रकार जो साधक जिस प्रभु की पूरी श्रद्धा से भक्ति करता है तो वह प्रभु अपने भक्त को अपने स्तर का लाभ अपनी क्षमता के अनुसार पूरा देता है।
■ समझने के लिए सामान्य उदाहरण :-
अपने देश में अभी तक अंग्रेजों वाली परंपरा का प्रभाव भी है। जैसे किसी सामान्य
व्यक्ति को पुलिस थाने से बुलावा आता है तो उसके लिए बड़ी आपत्ति होती है। थाने के
आस-पास से भी सामान्य व्यक्ति डरकर जाता है। बुलावा आने पर तो उसके साथ क्या
बीतेगी? स्पष्ट है। जाते ही लगभग प्रत्येक पुलिसकर्मी तथा थानेदार का दुर्व्यवहार झेलना
पड़ता है। मारपीट तो पहला प्रसाद है। गाली देना पुलिस वालों का मूल मंत्र है।
उसी थाने में किसी का मित्र थानेदार लगा है। वह व्यक्ति वहाँ जाता है तो थानेदार
उसे कुर्सी पर बैठाता है, चाय-पानी पिलाता है। इस प्रकार जो व्यक्ति जिस अधिकारी का
मित्र है, वह अपने स्तर की राहत अवश्य देता है। वह राहत उस सामान्य व्यक्ति के लिए
असहज होती है यानि सामान्य नहीं होती, परंतु वह पर्याप्त भी नहीं है। यदि पुलिस अधीक्षक से मित्रता हो जाए तो थानेदार भी नतमस्तक हो जाता है। यदि मंत्री जी से मित्रता हो जाए तो एस.पी. भी नतमस्तक हो जाता है। यदि मुख्यमंतत्री-प्रधानमंत्री के साथ मेल हो जाए तो नीचे के सर्व अधिकारी-कर्मचारी आपके साथ हो जाएंगे। इसी प्रकार यदि कोई किसी देवी-देव, माता-मसानी, सेढ़-शीतला, भैरो-भूत तथा हनुमान जी की भक्ति करता है तो उसको उनका लाभ अवश्य होगा, परंतु गीता अध्याय 16 श्लोक 23,24 में तथा अध्याय 7 श्लोक 12,15 तथा 20 से 23 तक में बताए अनुसार व्यर्थ साधना होने से मोक्ष से वंचित रह जाते हैं। कर्म का फल भी अच्छा-बुरा भोगना पड़ता है। इसलिए यह साधना करके भी हानि होती है। इसलिए संत गरीबदास जी ने वाणी नं. 38 में कहा है कि :-
गरीब, ऐसा निर्मल नाम है, निर्मल करे शरीर। और ज्ञान मण्डलीक हैं, चकवै ज्ञान कबीर।।
■ भावार्थ :- वेदों, गीता, पुराणों, कुरान, बाईबल आदि का ज्ञान तो मण्डलीक यानि
अपनी-अपनी सीमा का है।(Divisional है) परंतु परमेश्वर कबीर जी द्वारा बताया आध्यात्म
सत्य ज्ञान यानि तत्वज्ञान (सुक्ष्मवेद) चक्रवर्ती ज्ञान है जिसमें सब ज्ञान का समावेश है। वह
कबीर वाणी है।
■ वाणी नं. 41.42 :-
गरीब, गगन मण्डल में रहत है, अविनाशी आप अलेख। जुगन-जुगन सत्संग है, धर-धर खेलै भेख।।41।।
गरीब, काया माया खण्ड है, खण्ड राज और पाट। अमर नाम निज बंदगी, सतगुरू सें भई साँट।।42।।
■ भावार्थ :- पूर्ण परमात्मा कबीर जी गगन मण्डल यानि आकाश में रहता है जो
अविनाशी अलेख है।{अलेख का अर्थ है जो पृथ्वी से देखा नहीं जा सकता। जिसे अविनाशी
अव्यक्त गीता अध्याय 8 श्लोक 20 से 23 में कहा है। जैसे कुछ ऋषिजन दिव्य दृष्टि के द्वारा पृथ्वी से स्वर्ग लोक, श्री विष्णु लोक, श्री ब्रह्मा लोक तथा श्री शिव जी के लोक को तथा वहाँ के देवताओं को तथा ब्रह्मा-विष्णु-महेश को देख लेते थे। परंतु ब्रह्म काल को तथा इससे ऊपर अक्षर पुरूष तथा परम अक्षर पुरूष (अविनाशी अलेख) को कोई नहीं देख सकता।
जिस कारण से उस परमात्मा का यथार्थ उल्लेख ग्रन्थों में नहीं है। यथार्थ वर्णन सुक्ष्मवेद में
है जो स्वयं परमात्मा द्वारा बताया अध्यात्म ज्ञान है। इसलिए उस पूर्ण परमात्मा को अलख
तथा अलेख कहकर उपमा की है। उस परमेश्वर को देखने के लिए पूर्ण सतगुरू जी से दीक्षा लेकर तब सतलोक जाकर ही देखा जा सकता है।} वह परमात्मा स्वयं अन्य भेख (वेश) धारण करके पृथ्वी पर प्रत्येक युग में प्रकट होता है। अपना तत्वज्ञान (चक्रवर्ती ज्ञान) स्वयं ही बताता है कि यह सब राज-पाट तथा शरीर खण्ड (नाशवान) है। केवल सतगुरू से मिलन तथा उनके द्वारा दिया निज नाम (सत्य भक्ति मंत्र) ही अमर है।
यदि सच्चे भक्ति मंत्र प्राप्त नहीं हुए तो अन्य नामों का जाप (सुमरण) तथा यज्ञ करना
सब व्यर्थ है।
क्रमशः..........
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