Jharkhand's Life
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भगवान बिरसा मुंडा जयंती
"मैं सीएनटी एक्ट 1908 हूँ" आज मेरा जन्मदिवस है।
आज ही के दिन मेरा जन्म 11 नवम्बर 1908 ई. को छोटानागपुर की धरती पर हुआ था। मेरे जन्म लेने के पीछे कई कारण रहे थे। आज जब मैं 115 वर्ष का वृद्ध हो गया हूँ तब मुझे लगा कि क्यों न मैं अपने जन्म के कारणों के विषय में इस नयी पीढ़ी को बताऊँ।
मेरा जन्म कोई तत्कालीक घटना नही थी बल्कि मेरे जन्म के पीछे सदियों से चले आ रहे शोषण, अत्याचार और अशांति इसके मूल कारण रहे थे। 1765 ई. के बाद जमीदारों, साहुकारों एवं महाजनों के द्वारा अंग्रेजी सरकार के प्रसय में छोटानागपुर के आदिवासी एवं मूलवासियों के ऊपर अत्याचार बढ़ गए थे। इसके प्रतिक्रिया स्वरूप कई विद्रोह हुए। आदिवासियों की भूमि जिन्हें उनके पुरखों ने जंगल साफ कर तैयार की थी। उस पर उन्हें लगान देने के लिए विवश किया जाने लगा। ज़मींदार लगान न देने पर उनकी भूमि जब्त कर लेते थे और भोले भाले आदिवासी कुछ नहीं कर पाते थे। अंग्रेजों के आने के बाद समस्या और बढ़ गई थी। बेचारे आदिवासी जिनकी जमीन जिनसे छिनी जा रही थी वे कुछ न कर पाने के लिए विवश थे।
यहाँ मैं बता दूं कि भूमि आदिवासियों के लिए न केवल जीविकोपार्जन का साधन थी बल्कि यह तो उनेक धर्म, संस्कृति एवं परम्परागत अधिकारों से जुड़ी उनकी पहचान थी। यह उनके आंतरिक मामलों पर बाह्य हस्तक्षेप था। उस समय के आदिवासी इतने पढ़े लिखे नहीं थे कि कोर्ट-कचहरी जाकर अपनी भूमि वापस पाने के लिए गुहार लगाते। यदि कचहरी से कोई सम्मन आदिवासी के नाम पर निकलता तो ये आदिवासी इतना डर जाते कि घर - बार छोड़कर जंगलो में जाकर छुप जाते थे। असंतोष बढ़ता जा रहा था।
कोल विद्रोह के उपरांत 1860 के दशक में लंबी सरदारी लड़ाई छिड़ गई और उसके बाद बिरसा मुण्डा का पदापर्ण हुआ बिरसा मुण्डा स्वंय भुक्तभोगी थे उनकी जमीन उनसे छीनी गई थी, जंगल से उनके अधिकार छीन लिए गए थे। बाहरी लोगों का शोषण बढ़ चुका था। बिरसा के आन्दोलन का एक मूल कारण भी भूमि ही था। बिरसा ने अपने लोगों के हक एवं अधिकार के लिए उलगुलान किया लेकिन उनके आन्दोलन को दबा दिया गया। भले ही उनके आन्दोलन को दबा दिया गया लेकिन बिरसा का बलिदान व्यर्थ न गया इसके दूरगामी परिणाम भविष्य में आदिवासियों के लिए एक सुखद अनुभूति प्रदान करने वाला था। अंग्रेेेजों ने बिरसा आन्दोलन के दमन के बाद यह गहन विचार विमर्श किया कि ये आदिवासी इतने अशांत क्यों है? काफी मनन-चिंतन के बाद ये निष्कर्ष सामने आया कि प्रकृति प्रदत्त यह भूमि आदिवासी जीवन का मूल आधार है यह भूमि ही उन्हें अपने पुरखों से, अपनी संस्कृति से, अपने धर्म से, अपने संपत्ति से एवं अपने जीविकोपार्जन से जोड़ें रखता है और अगर कोई उसे उसकी भूमि से अलग करता है तो प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक ही था।
ऐसी ही परिस्थितियों में मेरे जन्म लेने के कुछ समय पहले भूमि एवं उससे जुड़े लोगों के हक एवं अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए एक व्यापक रूपरेखा तैयार की गई और भूमि तथा आदिवासी जीवन से संबंधित हर एक पहलू पर विचार - विमर्श के बाद 11 नवम्बर 1908 ई . को मेरा जन्म हुआ। छोटानागपुर के आदिवासी एवं मूलवासियों की भूमि को संरक्षित किया गया। काश्तकारों के वर्ग निश्चित किए गए। रैयत एवं मुंडारी खूूंटकट्टीदारों के अर्थ स्पष्ट किए गए एवं आदिवासियों के भूमि की सुरक्षा के लिए कई धाराएं इसमें सम्मिलित की गई। मेरे अंदर 19 अध्याय है और 271धाराएं है एवं तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार प्रत्येक धाराओं में जल जंगल ज़मीन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर महत्वपूर्ण कानून बनाये गए हैं।
आज 115 वर्ष बाद मुझे इस नये जमाने के साथ चलना है। नयी पीढ़ी को राह दिखाना है यह तभी संभव है जब मेरे अस्तिव को मेरी मूल भावना के साथ बने रहने दिया जाए। मेरी मूल आत्मा इसके अस्तित्व से जुड़ी है। मेरे लोगों मुझे भूल मत जाना मेरे अंदर इतिहास है, पूर्वजों का बलिदान एवं संघर्ष है .. .....इसलिए तो मैं आदिवासी मूलवासी भूमि का सुरक्षा कवच हूँ। मुझे पहचानों मैं सीएनटी एक्ट 1908 हूँ ।
वंदना टेटे
वंदना टेटे जी एक भारतीय आदिवासी लेखिका, कवि, प्रकाशक, एक्टिविस्ट और आदिवासी दर्शन ‘आदिवासियत’ की प्रबल पैरोकार हैं।
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जोहार साथियों!
आप सभी को ओत् गुरू कोल लाको बोदरा जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं।
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इस प्रक्रिया को पूरा होने में चार घंटे लगते हैं और मरीज़ bed पे immobile रहता है.!
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जोहार साथियों!
आप सभी साथियों को शिक्षक दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं!
"हो" भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने हेतु आदिवासी हो समाज के लोग जा रहें हैं नई दिल्ली
भाजपा एसटी मोर्चा के प्रदेश महामंत्री विजय मेलगांडी और भाजपा प्रदेश कार्यसमिति महिला मोर्चा के श्रीमती मालती गिलुआ भी दिल्ली जानेवालों को विदाई देने रेलवे स्टेशन पहुंचे थे.
जोहार साथियों!
76वें स्वतंत्रता दिवस की आप सभी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं!
जोहार साथियों!
जल जंगल जमीन के संरक्षक, प्रकृति के सच्चे सेवक आदिवासी साथियों को विश्व आदिवासी दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं 💐💐
#विश्व_आदिवासी_दिवस_2023
डेढ़ सौ साल बाद बस्तर में हाथियों की दस्तक।
बीते कुछ सालों से झारखंड के हाथियों ने छत्तीसगढ़ को अपना रहवास बना लिया है। झारखंड से लगा हुआ सरगुजा इलाका आज हाथियों का महत्त्वपूर्ण ठिकाना बन गया। यहां की आबोहवा और जंगल हाथियों को भा गया। 1988 में 18 हाथियों का दल पहली बार छत्तीसगढ़ आया। उसके बाद सन 2017 में 245 और अब 2023 में 550 हाथी छत्तीसगढ़ में होने का अनुमान दर्शाया गया है। छत्तीसगढ़ के उत्तर और मध्य क्षेत्र के गांवों में आए दिन हाथी और मनुष्यों के बीच टकराव की खबरे आती रहती है। मध्य छत्तीसगढ़ से हाथी अब दक्षिण की ओर अर्थात बस्तर की ओर बढ़ रहे हैं। बस्तर की हरियाली हाथियों को आकर्षित कर रही है। बस्तर के आसपास के इलाकों का वे मुआयना कर रहे है।
बस्तर से लगा हुआ बालोद क्षेत्र और उसके बाद भानुप्रतापपुर के क्षेत्र में हाथी अपना रहवास तलाश रहे है। भानूप्रतापपुर से आगे नारायणपुर और अबूझ माड़ का घना जंगल हाथियों का अगला पड़ाव हो सकता है। बस्तर में लगभग डेढ़ सौ साल बाद फिर से हाथियों की आमद हो रही है। एक समय था कि बस्तर में हाथी पाए जाते थे। किंतु धीरे धीरे यहां से हाथी खत्म होते गए। आखिरी बार 1876 में बस्तर में हाथी पकड़े गए थे। रियासतकालीन बस्तर और पडोसी रियासत जैपोर दोनो ही राज्य छोटी छोटी बातो के लिये अक्सर लड पड़ते थे। एक ऐसा ही मजेदार किस्सा है हाथी के कारण दोनो राज्यो में तनाव उत्पन्न हो गया था। अंग्रेजों के समय तक हाथी जयपोर (वर्तमान में ओडिशा में अवस्थित) एवं बस्तर रियासत में प्रमुखता से पाये जाते थे।
अंग्रेज अधिकारी मैक्जॉर्ज जो कि बस्तर में 1876 के विद्रोह के दौरान प्रशासक था, ने हाथी और उससे जुडी तत्कालीन राजनीति पर एक रोचक उल्लेख अपने एक प्रतिवेदन में किया है – " दोनो रियासतों में छोटी छोटी बातों के लिये झगड़े होते थे। जैपोर और बस्तर के राजाओं के बीच झगड़े की जड़ था एक हाथी।
जैपोर स्टेट ने बस्तर के जंगलों से चोरी छुपे हाथी पकड़ वाये। इसके लिये वे हथिनियों का इस्तेमाल करते थे। इसी काम के लिये भेजी गयी उनकी कोई हथिनी बस्तर के अधिकारियों ने पकड़ ली। उस समय इस वजह से दोनो रियासतों मे बड़ा विवाद हो गया था।"
अंतत: अंग्रेज धिकारियों को इस हथिनी के झगड़े में बीच बचाव करना पड़ा। हथिनी को सिरोंचा यह कह कर मंगवा लिया गया कि बस्तर स्टेट को वापस कर दिया जायेगा लेकिन फिर उसे जैपोर को सौंप दिया गया। (संदर्भ केदारनाथ ठाकुर बस्तर भूषण)बस्तर दशहरा में शामिल होने पहले दंतेवाड़ा से माईजी की पालकी हाथी पर राजधानी जगदलपुर जाती थी।
अब फिर से हाथियों ने बस्तर की ओर अपना रुख प्रारम्भ कर दिया है। सवाल यह है कि क्या बस्तर हाथियों के स्वागत के लिए तैयार है? मैदानी छत्तीसगढ़ में हाथियों के लिए जंगल कम पड़ रहें हैं। उनके चारे की कमी हो रही है फलत वे खेतों और इंसानी बस्ती में घुसकर उधम मचा रहे हैं जिसके कारण जान माल दोनों की क्षति की खबरे आती रहती है। बस्तर में इनका स्वागत कैसा होगा? क्या जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के साथ हाथियों का सामंजस्य बैठ पायेगा या यहां भी इसी तरह का टकराव होगा।
बस्तर दूर से बड़ा हरा भरा घना वन प्रांत दिखता है। लगता है कि यहां के जंगलों में जानवरो की भरमार होगी किंतु यहां जंगली जानवर ना के बराबर ही दिखते हैं और जो है भी उनका चोरी छिपे शिकार कर लिया जाता है। पिछले एक साल में बस्तर में तीन बाघ के शिकार की घटनाएं सामने आई जिसका समाचार अभी अभी आया है। इसलिए लगता नहीं है कि हाथी यहां सुरक्षित रहेंगे। यहां के आदिवासियो के साथ हाथियों का सामंजस्य कैसा होगा? क्या वे फसलों को घरों को नुकसान नहीं पहुंचायेगे ? क्या यहां मानव हाथी द्वंद नही होगा? हाथी अब धीरे धीरे बस्तर की ओर बढ़ रहे हैं आज नही तो दो चार सालों में हाथी बस्तर में ज़रुर घुसेंगे। इसकी क्या कार्य योजना होनी चाहिए इस संबंध में अभी से सोचना प्रारंभ कर देना चाहिए।
लेख लम्बा है
लेकिन अगर मणिपुर समस्या की जड़ें जानने की इच्छा है तो पढ़ें 👇
वो लोग जो मणिपुर का रास्ता नहीं जानते। पूर्वोत्तर के राज्यों की राजधानी शायद जानते हो लेकिन कोई दूसरे शहर का नाम तक नहीं बता सकते उनके ज्ञान वर्धन के लिए बता दूं
"मणिपुर समस्या: एक इतिहास"
जब अंग्रेज भारत आए तो उन्होंने पूर्वोत्तर की ओर भी कदम बढ़ाए जहाँ उनको चाय के साथ तेल मिला। उनको इस पर डाका डालना था। उन्होंने वहां पाया कि यहाँ के लोग बहुत सीधे सरल हैं और ये लोग वैष्णव सनातनी हैं। परन्तु जंगल और पहाड़ों में रहने वाले ये लोग पूरे देश के अन्य भाग से अलग हैं तथा इन सीधे सादे लोगों के पास बहुमूल्य सम्पदा है।
अतः अंग्रेज़ों ने सबसे पहले यहाँ के लोगों को देश के अन्य भूभाग से पूरी तरह काटने को सोचा। इसके लिए अंग्रेज लोग ले आए इनर परमिट और आउटर परमिट की व्यवस्था। इसके अंतर्गत कोई भी इस इलाके में आने से पहले परमिट बनवाएगा और एक समय सीमा से आगे नहीं रह सकता। परन्तु इसके उलट अंग्रेजों ने अपने भवन बनवाए और अंग्रेज अफसरों को रखा जो चाय की पत्ती उगाने और उसको बेचने का काम करते थे।
इसके साथ अंग्रेज़ों ने देखा कि इस इलाके में ईसाई नहीं हैं। अतः इन्होने ईसाई मिशनरी को उठा उठा के यहां भेजा। मिशनरीयों ने इस इलाके के लोगों का आसानी से धर्म परिवर्तित करने का काम शुरू किया। जब खूब लोग ईसाई में परिवर्तित हो गए तो अंग्रेज इनको ईसाई राज्य बनाने का सपना दिखाने लगे। साथ ही उनका आशय था कि पूर्वोत्तर से चीन, भारत तथा पूर्वी एशिया पर नजर बना के रखेंगे।
अंग्रेज़ों ने एक चाल और चली। उन्होंने धर्म परिवर्तित करके ईसाई बने लोगों को ST का दर्जा दिया तथा उनको कई सरकारी सुविधाएं दी।
धर्म परिवर्तित करने वालों को कुकी जनजाति और वैष्णव लोगों को मैती समाज कहा जाता है।
तब इतने अलग राज्य नहीं थे और बहुत सरे नगा लोग भी धर्म परिवर्तित करके ईसाई बन गए। धीरे धीरे ईसाई पंथ को मानने वालों की संख्या वैष्णव लोगों से अधिक या बराबर हो गयी। मूल लोग सदा अंग्रेजों से लड़ते रहे जिसके कारण अंग्रेज इस इलाके का भारत से विभाजन करने में नाकाम रहे। परन्तु वो मैती हिंदुओं की संख्या कम करने और परिवर्तित लोगों को अधिक करने में कामयाब रहे। मणिपुर के 90% भूभाग पर कुकी और नगा का कब्जा हो गया जबकि 10% पर ही मैती रह गए। अंग्रेजों ने इस इलाके में अफीम की खेती को भी बढ़ावा दिया और उस पर ईसाई कुकी लोगों को कब्जा करने दिया।
आज़ादी के बाद:
आज़ादी के समय वहां के राजा थे बोध चंद्र सिंह और उन्होंने भारत में विलय का निर्णय किया। 1949 में उन्होंने नेहरू को बोला कि मूल वैष्णव जो कि 10% भूभाग में रह गए है उनको ST का दर्जा दिया जाए। नेहरू ने उनको जाने को कह दिया। फिर 1950 में संविधान अस्तित्व में आया तो नेहरू ने मैती समाज को कोई छूट नहीं दिया। 1960 में नेहरू सरकार द्वारा लैंड रिफार्म एक्ट लाया जिसमे 90% भूभाग वाले कुकी और नगा ईसाईयों को ST में डाल दिया गया। इस एक्ट में ये प्रावधान भी था जिसमे 90% कुकी - नगा वाले कहीं भी जा सकते हैं, रह सकते हैं और जमीन खरीद सकते हैं परन्तु 10% के इलाके में रहने वाले मैती हिंदुओं को ये सब अधिकार नहीं था। यहीं से मैती लोगों का दिल्ली से विरोध शुरू हो गया। नेहरू एक बार भी पूर्वोत्तर के हालत को ठीक करने करने नहीं गए।
उधर ब्रिटैन की MI6 और पाकिस्तान की ISI मिलकर कुकी और नगा को हथियार देने लगी जिसका उपयोग वो भारत विरुद्ध तथा मैती वैष्णवों को भागने के लिए करते थे। मैतियो ने उनका जम कर बिना दिल्ली के समर्थन के मुकाबला किया। सदा से इस इलाके में कांग्रेस और कम्युनिस्ट लोगों की सरकार रही और वो कुकी तथा नगा ईसाईयों के समर्थन में रहे। चूँकि लड़ाई पूर्वोत्तर में ट्राइबल जनजातियों के अपने अस्तित्व की थी तो अलग अलग फ्रंट बनाकर सबने हथियार उठा लिया। पूरा पूर्वोत्तर ISI के द्वारा एक लड़ाई का मैदान बना दिया गया। जिसके कारण Mizo जनजातियों में सशत्र विद्रोह शुरू हुआ। बिन दिल्ली के समर्थन जनजातियों ने ISI समर्थित कुकी, नगा और म्यांमार से भारत में अनधिकृत रूप से आये चिन जनजातियों से लड़ाई करते रहे। जानकारी के लिए बताते चलें कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट ने मिशनरी के साथ मिलकर म्यांमार से आये इन चिन जनजातियों को मणिपुर के पहाड़ी इलाकों और जंगलों की नागरिकता देकर बसा दिया। ये चिन लोग ISI के पाले कुकी तथा नगा ईसाईयों के समर्थक थे तथा वैष्णव मैतियों से लड़ते थे। पूर्वोत्तर का हाल ख़राब था जिसका पोलिटिकल सलूशन नहीं निकाला गया और एक दिन इन्दिरा गाँधी ने आदिवासी इलाकों में air strike का आर्डर दे दिया जिसका आर्मी तथा वायुसेना ने विरोध किया परन्तु राजेश पायलट तथा सुरेश कलमाड़ी ने एयर स्ट्राइक किया और अपने लोगों की जाने ली। इसके बाद विद्रोह और खूनी तथा सशत्र हो गया।
1971 में पाकिस्तान विभाजन और बांग्ला देश अस्तित्व आने से ISI के एक्शन को झटका लगा परन्तु म्यांमार उसका एक खुला एरिया था। उसने म्यांमार के चिन लोगों का मणिपुर में एंट्री कराया जिसका कांग्रेस तथा उधर म्यांमार के अवैध चिन लोगों ने जंगलों में डेरा बनाया और वहां ओपियम यानि अफीम की खेती शुरू कर दिया। पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर, मिजोरम और नागालैंड दशकों तक कुकियों और चिन लोगों के अफीम की खेती तथा तस्करी का खुला खेल का मैदान बन गया। मयंमार से ISI तथा MI6 ने इस अफीम की तस्करी के साथ हथियारों की तस्करी का एक पूरा इकॉनमी खड़ा कर दिया। जिसके कारण पूर्वोत्तर के इन राज्यों की बड़ा जनसँख्या नशे की भी आदि हो गई। नशे के साथ हथियार उठाकर भारत के विरुद्ध युद्ध फलता फूलता रहा।
2014 के बाद की परिस्थिति:
मोदी सरकार ने एक्ट ईस्ट पालिसी के अंतर्गत पूर्वोत्तर पर ध्यान देना शुरू किया, NSCN - तथा भारत सरकार के बीच हुए "नागा एकॉर्ड" के बाद हिंसा में कमी आई। भारत की सेना पर आक्रमण बंद हुए। भारत सरकार ने अभूतपूर्व विकास किया जिससे वहां के लोगों को दिल्ली के करीब आने का मौका मिला। धीरे धीरे पूर्वोत्तर से हथियार आंदोलन समाप्त हुए। भारत के प्रति यहाँ के लोगों का दुराव कम हुआ। रणनीति के अंतर्गत पूर्वोत्तर में भाजपा की सरकार आई। वहां से कांग्रेस और कम्युनिस्ट का लगभग समापन हुआ। इसके कारण इन पार्टियों का एक प्रमुख धन का श्रोत जो कि अफीम तथा हथियारों की तस्करी था वो चला गया। इसके कारण इन लोगों के लिए किसी भी तरह पूर्वोत्तर में हिंसा और अशांति फैलाना जरूरी हो गया था। जिसका ये लोग बहुत समय से इंतजार कर रहे थे।
हाल ही में दो घटनाए घटीं:
1. मणिपुर उच्च न्यायालय ने फैसला किया कि अब मैती जनजाति को ST का स्टेटस मिलेगा। इसका परिणाम ये होगा कि नेहरू के बनाए फार्मूला का अंत हो जाएगा जिससे मैती लोग भी 10% के सिकुड़े हुए भूभाग की जगह पर पूरे मणिपुर में कहीं भी रह, बस और जमीन ले सकेंगे। ये कुकी और नगा को मंजूर नहीं।
2. मणिपुर के मुख्यमंत्री बिरेन सिंह ने कहा कि सरकार पहचान करके म्यांमार से आए अवैद्य चिन लोगों को बाहर निकलेगी और अफीम की खेती को समाप्त करेगी। इसके कारण तस्करों का गैंग सदमे में आ गया।
इसके बाद ईसाई कुकियों और ईसाई नगाओं ने अपने दिल्ली बैठे आकाओं, कम्युनिस्ट लुटियन मीडिया को जागृत किया। पहले इन लोगों ने अख़बारों और मैगजीन में गलत लेख लिखकर और उलटी जानकारी देकर शेष भारत के लोगों को बरगलाने का काम शुरू किया। उसके बाद दिल्ली से सिग्नल मिलते ही ईसाई कुकियों और ईसाई नगाओं ने मैती वैष्णव लोगों पर हमला बोल दिया। जिसका जवाब मैतियों दुगुना वेग से दिया और इन लोगों को बुरी तरह कुचल दिया जो कि कुकी - नगा के साथ दिल्ली में बैठे इनके आकाओं के लिए भी unexpected था। लात खाने के बाद ये लोग अदातानुसार विक्टम कार्ड खेलकर रोने लगे।
अभी भारत की मीडिया का एक वर्ग जो कम्युनिस्ट तथा कोंग्रस का प्रवक्ता है अब रोएगा क्योंकि पूर्वतर में मिशनरी, अवैध घुसपैठियों और तस्करों के बिल में मणिपुर तथा केंद्र सरकार ने खौलता तेल डाल दिया है।
साभार -- इंटरनेट
बहुत बधाई और शुभकामनाएं!
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