Anand Shankar Asr
"पत्रकारिता का छात्र | सच्चाई की खोज में | खबरों की दुनिया का जुनून"
अश्विनी और अनीश, दो आईटी पेशेवर, जो 19 मई को पुणे में घर लौट रहे थे, जब कलेनी नगर में एक पंजीकरण न किए गए पोर्शे ने, जो 150 किमी/घंटा की रफ्तार से चल रही थी, उन्हें टक्कर मार दी। उनमें से एक की मौके पर ही मौत हो गई और दूसरे की उपचार के दौरान मौत हो गई।
कार का चालक 17 साल का नाबालिग था, जो कथित तौर पर अपने 12वीं कक्षा के परिणामों का जश्न मनाने के बाद दोस्तों के साथ पार्टी करके क्लब से लौट रहा था।
यह सिर्फ एक दुर्घटना नहीं बल्कि हत्या क्यों है:
1. कार पंजीकरण नहीं की गई थी; शोरूम ने बिना पंजीकरण के कार डिलीवर की।
2. माता-पिता ने नाबालिग को बिना लाइसेंस के गाड़ी चलाने की अनुमति दी।
3. क्लब के मालिक ने नाबालिग को शराब परोसी और उसे प्रवेश की अनुमति दी।
4. ट्रैफिक पुलिस ने महीनों तक सड़क पर बिना पंजीकरण, तेज रफ्तार वाली कार को नोटिस नहीं किया।
जब नाबालिग को आधी रात को गिरफ्तार किया गया, तो उसे वीआईपी ट्रीटमेंट मिला। एक स्थानीय विधायक उसके बचाव में आया, और वकीलों की एक टीम भी थी।
जहां आम लोगों के मामलों में देरी होती है, इस नाबालिग को रविवार को सिर्फ 14 घंटों में जमानत मिल गई। जमानत की शर्त यह थी कि उसे एक निबंध लिखना चाहिए और उसके माता-पिता को सुनिश्चित करना चाहिए कि वह वही गलती दोबारा न करें।
जब कानून एक समान है, तो विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के साथ अलग व्यवहार क्यों होता है?
मैं पीड़ितों को नहीं जानता, लेकिन मुझे आशा है कि उन्हें न्याय मिलेगा। उनकी परिवारों को समर्थन और ताकत मिले। 🙏
1952 में भारत ने कुछ 'अद्भुत' किया।
पहली बार, एक नव स्वतंत्र देश ने अपने सभी वयस्क नागरिकों को मतदान का अधिकार देने का निर्णय लिया, अर्थात सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार। उस समय, पश्चिमी लोकतंत्रों में सामान्य प्रथा यह थी कि पहले संपत्ति वाले पुरुषों को ही यह अधिकार दिया जाए - जिसमें कामकाजी वर्ग और महिलाएं शामिल नहीं होती थीं।
भारत ने सभी को, चाहे वे संपत्ति, लिंग या साक्षरता की परवाह किए बिना, मतदान का अधिकार दिया।
कई लोगों ने इसे 'लोकतंत्र का सबसे बड़ा जुआ' कहा, जबकि अन्य ने टिप्पणी की '“भविष्य और अधिक प्रबुद्ध युग इस तथ्य पर आश्चर्यचकित होगा कि लाखों निरक्षर लोगों के वोटों को दर्ज करने का यह मूर्खतापूर्ण ढोंग है” [इंडिया आफ्टर गांधी द्वारा रामचंद्र गुहा]
अगर आपको वर्तमान चुनाव जटिल लगता है, तो 1952 की स्थिति की कल्पना करें
[1] लगभग 20 करोड़ मतदाता, जिनमें से 85% निरक्षर थे। यह मानवता के इतिहास में सबसे बड़ा चुनाव था।
[2] प्रत्येक मतदाता की पहचान, नामांकन और पंजीकरण किया जाना था। हाँ, नामांकन। कई उत्तर भारतीय महिलाएं अपना नाम देने से इनकार कर दीं और उन्हें एक्स की पत्नी या वाई की मां के रूप में नामित करने पर जोर दिया। यह सुकुमार सेन ICS (मुख्य चुनाव आयुक्त) थे जिन्होंने अधिकारियों को ऐसा नामांकन स्वीकार न करने का निर्देश दिया। इसके बावजूद, लगभग 3 करोड़ महिलाओं के नाम सूची से हटाने पड़े।
[3] अधिकारियों की शक्तियों और कर्तव्यों को परिभाषित करने के लिए कोई मौजूदा विधेयक नहीं था। चुनाव से पहले RPA 1951 और 1952 पारित किए जाने थे।
[4] 'महाकाय समस्या' - 4500 सीटें (लोकसभा + विधानसभा), 2.2 लाख मतदान केंद्र, 56 हजार अध्यक्ष अधिकारी, 2.8 लाख सहायक और 2.2 लाख पुलिसकर्मी!
[5] मतदाताओं के नाम पढ़ने में असमर्थता। इस समस्या को हल करने के लिए, दैनिक जीवन के सबसे आसानी से पहचाने जाने वाले प्रतीकों का उपयोग किया गया - बैल, हाथी, आदि।
[6] एक ही बैलेट बॉक्स निरक्षर भारतीयों के लिए भ्रम का कारण बन सकता था, इसलिए अलग-अलग बैलेट बॉक्स का उपयोग किया गया ताकि मतदाता बस पार्टी के बॉक्स में अपना वोट डाल सकें।
जो आज स्पष्ट लगता है, वह तब लोकतंत्र की सबसे कठिन परीक्षा थी।
और भारत न केवल इस परीक्षा में पास हुआ, बल्कि 75 वर्षों के बाद सबसे बड़े और सफल लोकतंत्र के रूप में उभरा!
सोचता हूं कि अब कुछ बेटों पर भी लिखा जाये-------
घर की रौनक है बेटियां, तो बेटे हो-हल्ला है,
गिल्ली है, डंडा है, कंचे है, गेंद और बल्ला है,
बेटियां मंद बयारो जैसी, तो अलमस्त तूफ़ान है बेटे,
हुडदंग है, मस्ती है, ठिठोली है, नुक्कड़ की पहचान है बेटे,
आँगन की दीवार पर स्टंप की तीन लकीरें है बेटे,
गली में साइकिल रेस, और फूटे हुए घुटने है बेटे,
बहन की ख़राब स्कूटी की टोचन है बेटे,
मंदिर की लाइन में पीछे से घुसने की तिकड़म है बेटे,
माँ को मदद, बहन को दुलार, और पिता को जिम्मदारी है बेटे,
कभी अल्हड बेफिक्री, तो कभी शिष्टाचार, समझदारी है बेटे,
मोहल्ले के चचा की छड़ी छुपाने की शरारत है बेटे,
कभी बस में खड़े वृद्ध को देख, "बाउजी आप बैठ जाओ" वाली शराफत है बेटे,
बहन की शादी में दिन रात मेहनत में जुट जाते है बेटे,
पर उसही की विदाई के वक़्त जाने कहा छुप जाते है बेटे,
पिता के कंधो पर बैठ कर दुनिया को समझती जिज्ञासा है बेटे,
तो कभी बूढ़े पिता को दवा, सहारा, सेवा सुश्रुषा है बेटे,
पिता का अथाह विश्वास और परिवार का अभिमान है बेटे,
भले कितने ही शैतान हो पर घर की पहचान है बेटे.
नोट:- तस्वीर में हमारे मित्र तिवारी सेठ अलमोरा वाले हैं (राहुल तिवारी)
Ye Aakash
मुम्बई के कुछ छपरी फैन्स अब बेवकूफी और बत्तीमीजी में पीएचडी करना चाहते हैं.. उनको रोहित से रन चाहिए लेकिन टीम को जीता हुआ नही देख सकते।
उनको हर हाल में बस हार्दिक को हारते हुए देखना है...
किसी के समर्थन में यह कितनी घटिया बात है सोचकर भी तरस आता है..
हार्दिक इतना बेहतरीन क्रिकेटर है कि पूरे विश्वकप हमने उसको मिस किया, ये और बात है कि मैक्सिमम हमने जीते लेकिन हमको एक ही हार पूरी तरह ले डूबी...
लेकिन हार्दिक की कमी पूरा करने कोई नही आया, फिलहाल अभी है भी नही...
धोनी ने कल के लौंडे को कप्तान बना दिया कोई हो हल्ला नही हुआ, वहां पर धोनी की वाहवाही होती है.. इधर मुम्बई ने किसी सफल कप्तान को कप्तान बना दिया तो सबको हजम नही हो रहा।
विदेश होता तो यही क्रिकेट टीम या किसी भी लीग के लिए अच्छा है.. लेकिन इंडिया के फैन्स सोचते हैं धोनी सौ साल तक खेले, सचिन हजार साल तक खेले..
उनको क्रिकेट की बारीकी उतनी ही पता है जितना सनी देओल को डांसिंग स्टेप के बारे में।
क्रिकेट फैंस अब क्रिकेट फैंस नही रहे, वो स्पेशल क्रिकेटर के फैन्स हो गए हैं. और तो और वो स्पेशल क्रिकेटर के फैन्स भी ज्यादा देर तक नही रह पाते। क्योंकि ये फूफा बदलने में तनिक भी देर नही लगाते।
रोहित का करियर मुम्बई के साथ बेहतरीन था, पंड्या का भी होगा। पिछले सीजन में तो मुम्बई भी नीचे से टॉप सिचुएशन में रही है या नही?
क्रिकेट की तारीफ होनी चाहिए..
अब तुम मेरे उस दोस्त की तरह सोचो जो कहता था कि युवराज को भारतीय टीम का कप्तान होना चाहिए क्योंकि वो देखने में बहुत स्मार्ट है... तब दिल से एक ही आवाज आती थी।
- धत्त तोरी महाबीरवा वाला..
नवादा लोकसभा सीट से विवेक ठाकुर ( भूमिहार ) सी पी ठाकुर के बेटे को टिकट
1999 से एनडीए उम्मीदवार हमेशा जीते हैं
2004 में आरजेडी से वीरचंद्र पासवान जीते थे बाद में बीजेपी का दामन थाम लिया
अगर घर का बेटा घर का नेता का मांग ऐसे ही चलता रहा तो सालों बाद आरजेडी नवादा फतह करेंगी ।
सरवन कुशवाहा उम्मीदवार हैं।
नोट : - नवादा भूमिहार बहुल सीट हैं रिजर्वेशन हटने के बाद सिर्फ भूमिहार उम्मीदवार जीते हैं ।
(निर्दलीय) मगही गायक गुंजन सिंह भी मैदान में होगे
निर्दलीय जितने का मौका सिर्फ़ 1967 में सूर्य प्रकाश पुरी को मिला हैं ।
सवाल बस एक हैं क्या बीजेपी और भूमिहार अपनी परंपरागत सीट बचा पाएगी ।
फिलहाल यहां बाहुबली सूरजभान सिंह (पूर्व संसद) के भाई चंदन सिंह सांसद हैं जो एलजेपी के उम्मीदवार थे ।
फिलहाल एलजेपी(पारस) में
भारत को अंडर-19 वर्ल्ड कप फाइनल में पहुंचाने वाले कप्तान उदय सहारण ने कहा, धोनी या युवराज मेरे फेवरेट फिनिशर नहीं हैं। भारतीय टीम लगातार 5वीं बार ICC अंडर-19 वर्ल्ड कप के फाइनल में पहुंच चुकी है। टीम इंडिया ने पहले सेमीफाइनल में साउथ अफ्रीका को रोमांचक मुकाबले में 2 विकेट से मात दे दी। टीम के कप्तान उदय सहारण ने मैच जिताऊ पारी खेली और टीम को फाइनल में पहुंचा दिया। मैच के बाद उदय ने बड़ा खुलासा किया और ये बताया कि मैच फिनिशिंग स्किल्स उन्होंने किस शख्स से सीखा है। उदय ने किसी खिलाड़ी का नाम नहीं लिया बल्कि उन्होंने अपने पिता को सबसे आगे रखा। सहारण ने 124 गेंद पर 6 चौकों की मदद से 81 रन ठोके। भारत को पहली बार टूर्नामेंट में 200 से ऊपर के लक्ष्य का पीछा करना पड़ा। टीम के सामने 245 रन का टारगेट था। लेकिन एक समय ऐसा आया जब लग रहा था कि टीम ये मैच गंवा देगी। भारतीय टीम का स्कोर 4 विकेट पर 32 रन हो चुका था और लग रहा था कि टीम इंडिया टूर्नामेंट से बाहर हो जाएगी।
सचिन धास ने 95 गेंद पर 96 रन की पारी खेली और और सहारण के साथ मिलकर 171 रन की साझेदारी कर कमाल कर दिया। इस साझेदारी ने टीम की मैच में वापसी करवा दी। मैच के बाद सहारण ने कहा कि मेरे पिता बड़े शॉट्स खेला करते थे और मैच को गहराई तक लेकर जाते थे। मैं भी यही सोच रहा था। मेरी सोच यही थी कि पूरी पारी के दौरान मैं खड़ा रहूंगा और अंत में जाकर बड़े शॉट्स लगाऊंगा। और हुआ भी कुछ ऐसा ही जिससे मैच हमारा हो गया। बता दें कि सहारण को उनकी 124 गेंद पर 84 रन की पारी के लिए प्लेयर ऑफ द मैच का अवॉर्ड दिया गया। पूरे टूर्नामेंट में उदय के बल्ले से रन निकल रहे हैं। ऐसे में इस बल्लेबाज ने मुशीर खान को पीछे छोड़ दिया है और 389 रन के साथ टूर्नामेंट में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले बल्लेबाज बन गए हैं। उदय सहारण को अंडर-19 वर्ल्ड कप सेमीफाइनल में मैन ऑफ द मैच का पुरस्कार जीतने की ढेर सारी शुभकामनाएं
शफी इनामदार फिल्म इंडस्ट्री के उन चुनिंदा कलाकारों में से एक रहे हैं जिन्हें भले ही एक हीरो के तौर पर कभी मौका ना मिला हो मगर उन्हें एक शानदार एक्टर के तौर पर जरूर याद किया जाता है। उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में करीब दो दशकों तक काम किया. फिल्मों के अलावा वे टीवी इंडस्ट्री में भी सक्रिय रहे।
शफी का जन्म 23 अक्टूबर 1945 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिला, दापोली तालुका में पांगरी गांव में हुआ था। साल 1982 में विजेता फिल्म से उन्होंने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत की थी। 1983 में आई ब्लॉकबस्टर फिल्म अर्ध सत्या में इंस्पेक्टर हैदर अली का रोल प्ले कर के वे सुर्खियों में आए। उन्होंने कई सारी फिल्मों में पुलिस इंस्पेक्टर का रोल प्ले किया. इसके अलावा उन्होंने कुछ फिल्मों में निगेटिव शेड का रोल भी प्ले किया।
सपोर्टिव रोल उन्होंने बहुत इमानदारी से निभाए. उनकी एक्टिंग और डायलॉग डिलिवरी इतनी जानदार हुआ करती थी कि छोटे से सीन्स में भी वे लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करवा लेते थे। कुदरत का कानून, वर्दी, सैलाब, जुर्म, इज्जतदार, फूल बने अंगारे, क्रांतिवीर, यशवंत, अकेले हम अकेले तुम जैसी फिल्मों में वे नजर आए। नाना पाटेकर के साथ उन्होंने यशवंत फिल्म में काम किया और यही फिल्म उनके करियर की अंतिम फिल्म साबित हुई।
जाने भी दो यारो फिल्म में नजर आने वाली अदाकारा भक्ति बर्वे से शफी इनामदार ने शादी की थी। वह शफी से तीन साल छोटी थीं। भक्ति बर्वे मराठी, गुजराती थिएटर का बड़ा नाम था। पहले वह दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो में न्यूज रीडर हुआ करती थीं।
13 मार्च साल 1996 को भारत और श्रीलंका के बीच क्रिकेट वर्ल्ड कप सेमीफाइन मुकाबले को देखते समय शफी इनामदार को हार्ट अटैक आ गया। और 50 साल की उम्र में वो दुनिया को अलविदा कह गए।
भगत सिंह के साथ असेंबली में बम फेंकने वाले बटुकेश्वर दत्त को भी फांसी हो गई होती तो ज्यादा अच्छा था !
1947 में आजादी के पश्चात बटुकेश्वर को रिहाई मिली। लेकिन इस वीर सपूत को वो दर्जा कभी ना मिला जो हमारी सरकार और भारतवासियों से इन्हें मिलना चाहिए था।
आज़ाद भारत में बटुकेश्वर नौकरी के लिए दर-दर भटकने लगे। कभी सब्जी बेची तो कभी टूरिस्ट गाइड का काम करके पेट पाला। कभी बिस्किट बनाने का काम शुरू किया लेकिन सब में असफल रहे।
कहा जाता है कि एक बार पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे ! उसके लिए बटुकेश्वर दत्त ने भी आवेदन किया ! परमिट के लिए जब पटना के कमिश्नर के सामने इस 50 साल के अधेड़ की पेशी हुई तो उनसे कहा गया कि वे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लेकर आएं..!!! भगत के साथी की इतनी बड़ी बेइज़्ज़ती भारत में ही संभव है।
हालांकि बाद में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को जब यह बात पता चली तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर से माफ़ी मांगी थी ! 1963 में उन्हें विधान परिषद का सदस्य बना दिया गया । लेकिन इसके बाद वो राजनीति की चकाचौंध से दूर गुमनामी में जीवन बिताते रहे । सरकार ने इनकी कोई सुध ना ली।
1964 में जीवन के अंतिम पड़ाव पर बटुकेश्वर दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में कैंसर से जूझ रहे थे तो उन्होंने अपने परिवार वालों से एक बात कही थी।
"कभी सोचा ना था कि जिस दिल्ली में मैंने बम फोड़ा था उसी दिल्ली में एक दिन इस हालत में स्ट्रेचर पर पड़ा होऊंगा।"
मै देशवासियों का ध्यान इनकी ओर दिलाया चाहता हूँ कि-"किस तरह एक क्रांतिकारी को जो फांसी से बाल-बाल बच गया जिसने कितने वर्ष देश के लिए कारावास भोगा , वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है।"
जब भगतसिंह की माँ अंतिम वक़्त में उनसे मिलने पहुँची तो भगतसिंह की माँ से उन्होंने सिर्फ एक बात कही-"मेरी इच्छा है कि मेरा अंतिम संस्कार भगत की समाधि के पास ही किया जाए। उनकी हालत लगातार बिगड़ती गई।
17 जुलाई को वे कोमा में चले गये और 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर उनका देहांत हो गया !
भारत पाकिस्तान सीमा के पास पंजाब के हुसैनीवाला स्थान पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की समाधि के साथ ये गुमनाम शख्स आज भी सोया हुआ है।
मुझे लगता है भगत ने बटुकेश्वर से पूछा तो होगा- दोस्त मैं तो जीते जी आज़ाद भारत में सांस ले ना सका, तू बता आज़ादी के बाद हम क्रांतिकारियों की क्या शान है भारत में।"
❓❓❓
वक्त की कीमत
किसी के लिए शुभ किसी के लिए अशुभ
कोई माने या ना माने लेकिन फिल्म इंडस्ट्रीज के कामयाब कलाकार जिन्होंने स्टार , जुबली कुमार और सुपर स्टार जैसे तमगे हासिल किए उनका तो यही मानना था।👍
बरसों पुरानी बात बात है। 1950 के दशक में
बंबई इतना फैला हुआ नहीं था। कार्टर रोड़ सुनसान और बियाबान और सुनसान इलाका था । लोग वहां तक जाने से डरते थे। बंबई के इसी डरावने कार्टर रोड पर नौशाद साहब के पड़ोस में एक बंगला था जिसे लोग भूत बंगला कहते थे। इस बंगले को भारत भूषण ने खरीद लिया।
बंगला खरीदते ही भारत भूषण की किस्मत चमकी। खुशी में आकर भारत भूषण ने फिल्में बना डाली। शुरू में कामयाबी मिली। भतीजे को लांच करने के चक्कर में फ्लॉप हो गए। बंगला राजेंद्र कुमार को 65000 में बेचना पड़ा। रामायण सीरियल की मंदोदरी याद है? अपराजिता भूषण ही भारत भूषण की बेटी है।
मनोज कुमार से मशवरा करके राजेंद्र ने इसे लेना चाहा।
इसे खरीदने के लिए राजेंद्र कुमार ने बी0आर0 चोपड़ा की "कानून" और दूसरी फिल्में साइन की। साइनिंग में एडवांस लिया और बंगला खरीद लिया। राजेंद्र कुमार ने अपनी बेटी के नाम से बंगले का नाम डिंपल रखा। उन्होंने यहां कामयाबी देखी। कई सुपर हिट फिल्में दी। जुबली कुमार बन गए। दूसरा बंगला बना लिया वहां चले गए।
1970 में राजेंद्र कुमार ने इसे राजेश खन्ना को 3.5लाख में बेच दिया। राजेंद्र कुमार की तरह राजेश खन्ना ने भी हाथी मेरे साथी के निर्माता से रकम एडवांस लेकर इसे खरीदा।इसका नाम राजेंद्र कुमार के आशीर्वाद से आशीर्वाद रखा। हाथी मेरे साथी की पेंटिंग इस बंगले की दीवारों पर आखरी दिन तक रही।👍
राजेश खन्ना के लिए भी ये बंगला बहुत लकी रहा।
इस बंगले में रहकर राजेश खन्ना ने वो दौर जिया जो आज तक किसी फिल्मी कलाकार को नसीब नहीं हुआ।
कई सुपर हिट फिल्में दी। पहले भी इसमें राजेंद्र की बेटी डिंपल रहती थी और बाद में भी डिंपल रही। जो राजेश खन्ना की बीवी थी। राजेश इसमें मरते दम रहे।
उनके मरने के बाद।
राजेश खन्ना के आखरी दिनों की साथी अनिता आडवाणी ने बंगले में हिस्सा क्या मांग लिया। डिंपल की दोनों लाडली चिढ़ गई। उन्होंने आशीर्वाद का नाम बदलकर "वरदान आशीर्वाद" कर दिया।
ग्राहक मिलते ही दोनों बेटियों ने 90 करोड़ में अलकार्गो के चेयरमैन शशि किरण शेट्टी को बेच दिया।
शशि किरण ठहरे कारोबारी।
उन्हें फिल्मों से क्या लेना~देना।
70 साल से ज्यादा पुराने इस बेशकीमती और किस्मती बंगले को शशि किरण शेट्टी ने तुड़वाना शुरू कर दिया......
उन्होंने पहली फुरसत में 6500 फीट जमीन पर बने आशीर्वाद को हमेशा~हमेशा के लिए जमीन में मिला दिया।
अब यहां ना डिंपल है
ना आशीर्वाद
और ना वरदान के नामों~निशान बाकी है......
गुजरे जमाने को मुंह चिढ़ाते हुए
अब यहां खड़ी है शशि किरण की 🏢
जब सास बहू वाले सीरियल से TRP की दौड़ हों तो और क्या ही उम्मीद कर सकते हैं।।
Sidhe pahar se
आजकल के लड़के #नौकरी लगने के तुरंत बाद शादी करके दुल्हन को सीधे नौकरी पर ले जाते हैं तथा सारा पढ़ाई का कर्ज , खेती का काम सब झंझट माता पिता के पास छोड़ जाते हैं । वो सबसे पहले शहर में #प्लाट लेने की सोचते हैं तथा माता पिता की ओर कम ध्यान देते हैं जो बहुत दुख:दाई है ।
#फेसबुक पर माता पिता को भगवान ज्यादा वो ही लोग लिखते हैं जिनके माता पिता दयनीय स्थिति मे होने के बाद भी उनसे आशा नही करते ।कभी वो लोग गाँव आते हैं तो अपनी जेब का पैसा नही देने हेतु माता पिता से खेती , भैंस आदि की कमाई का हिसाब अपनी पत्नी के सामने लेते हैं तथा उन्हें बहुत सुनाते हैं ।पत्नी भी उनमें कमी निकालकर अपना धर्म पूरा करती है।
यह माजरा करीब 90% लोगों का है जो शहर मे लोगों को #जन्मदिन की पार्टी देकर अपनी झूठी शान का बखान करते हैं । वो अपने पत्नी बच्चों के अलावा किसी पर एक पैसा खर्च नही करते ।
क्या इस हालत मे #समाज_सुधार की ओर अग्रसर माना जा सकता है।गाँव के अधिकांश लोग इसी तरह दुःखी हैं क्योंकि उनको बच्चे की नौकरी के कारण #वृद्धा_पेंसन भी नही मिलती।
माँ बाप कितने सपने संजोकर उन्हें पेट काटकर पढाते हैं फिर नौकरी या तो लगती नही या लगने के बाद बेगाने होना दुःखद है।आजकल लड़को की नौकरी लगे या ना लगे घर का काम तो मरते दम तक बुढों को ही करना पडता है।बच्चों को पढ़ाने का माँ बाप को यही पुरस्कार है जी।
जो लोग #शोशल_मीडिया पर बड़ी बडी बातें करते हैं तथा लोगों का आदर्श बने हुए हैं तथा बड़े पदों पर आशीन हैं उनमें से अनेक भी अपने रिश्तेदारों , माता पिता के प्रति निष्ठुर भाव रखते हैं ।🙏🙏
यह तस्वीर जीवन की बहुत बड़ी सच्चाई को बयां करती है। जब जीवन के रास्ते पर चलते चलते हम कभी ऐसे मोड़ पर आ जाते हैं जहां हमारा एक गलत क़दम हमारी प्रतिष्ठा , हमारा वजूद , हमारे जीवन को बर्बाद कर सकता है , और उस समय हमारी सहायता करने , हमें मुसीबत से निकालने के लिए कोई नही आता।
इस तस्वीर को देखो , कितने दिन वो आवाज रोई , कितने आंसू बहाए , कितने दिन रातें बिन पानी , बिन रोटी गुजरी , दिल किस बात का इंतजार था.. अगर हम एक पल के लिए भी उस जगह खुद को कल्पना कर लें , तो हम उस एहसास को समझ सकते हैं।
तुम्हारे लिए कोई नहीं आएगा , कोई रिश्ता तुम्हारी तरफ नहीं देखेगा , तुम जो कदम उठाओगे उसके बारे में सौ बार सोचना और जो निर्णय लिया उसके बारे में हजार बार सोचना , कभी भी जल्दी निर्णय लेकर मूर्ख मत बनना , यह सोच कर जीना कि मेरा कोई नहीं है कोई आये तो खुश और कोई न आये तो भी दुखी नही।
समाज मे #शिक्षा_का_महत्व लोगों को समझ मे आने लगा है । हां ये तस्वीर उसी बिहार की है जहां कभी औरत को जूते नोक के रखा जाता था आज भी कुछ लोग है तो उस सोच को रखते हैं औरतें को भोग विलास या काम करने वाली मशीन नजरआती है वही कुछ लोग हैं जो उस भीड़ से हटकर बिहार बदलने की कोशिश कर रहे :-
तेनुघाट कॉलेज में गुरुवार को लाल जोड़े में सजी नयी नवेली दुल्हन परीक्षा देने पहुंची तो हर कोई उसे एक टक देखता ही रहा। गोमिया कोठीटांड़ के रहने वाले प्रकाश पासवान की पुत्री और केबी कॉलेज की छात्रा शिवानी की शादी बुधवार एक मार्च की देर रात हुई थी। गुरुवार की सुबह विदाई की घड़ी आई तो शिवानी ससुराल जाने से पहले दुल्हन के लाल जोड़े और सिंदूर में ही परीक्षा देने तेनुघाट कॉलेज पहुंच गई ।
दुल्हन के लिवास में परीक्षार्थी को देखकर परीक्षार्थियों से लेकर परीक्षा नियंत्रक तक हैरान थे । बता दें कि तेनुघाट कॉलेज़ में स्नातक कला, विज्ञान व वाणिज्य पार्ट तृतीय सत्र 2021-24 की परीक्षा चल रही है ।
शिवानी की शादी 1 मार्च की रात को चतरा जिला के युवक से हुई ।
युवक आरक्षी के पद पर कार्यरत है और उनका मानना है कि महिलाओं की शिक्षा बहुत जरूरी है ।
इसलिए वे घर जाने से पहले अपनी पत्नी को परीक्षा दिलाने के लिए सीधे परीक्षा केंद्र पहुंचा ।
उन्होंने बताया कि शादी के बाद और विदाई से पहले दुल्हन ने परीक्षा देने की बात कही ।
शिवानी का पति सही मायने में मर्द है जिसने पुरुष की मर्यादा रखी और जीवन के सुख दुख में साथ साथ चलने वाले साथी की भूमिका निभाई ।
#चलिये_बिहार_बदलते_है
एक किसान एक कार्यक्रम में 2 4 शब्द अंग्रेजी बोलने के लिए नीतीश कुमार से दम भर डांट सुनता है, नीतीश बाबू कहते हैं कि जो देश हम पर राज किया उसी का भाषा बोल रहे हैं आप, गलत बात है, मत बोलिए। जो भी लोग वहां बैठे थे ये सुनकर ताली बजाते हैं। वो किसान जिसकी एक छटाक भर गलती नही थी वो बार बार माफी मांगता है। नीतीश जी कहते हैं कि कोरोना में मोबाइल देखकर शब्द सीख लिया है सब और बोलते रहता है, ऐसा नहीं करना चाहिए।
वहां कई पत्रकार मौजूद थे, नीतीश जी 1 मिनट से ज्यादा उस आदमी को फटकारते हैं, कोई चू तक नहीं करता, वैसे भी राजा के सामने बोलने की हिम्मत कौन करेगा? हम वहां रहते तो चिल्लाकर कह देते कि "सीएम साहब अंग्रेजी का दो शब्द बोलना गुनाह नही है, अपितु आपको गर्व करना चाहिए की आपके प्रदेश का किसान अंग्रेजी जानता है" नीतीश जी बोलते हैं कि किसान तो आम आदमी होता है, इतना घटिया लॉजिक इससे पहले नही सुने थे। किसानी अगर पढ़ा लिखा व्यक्ति करेगा तो हम गारंटी दे सकते हैं की वो ज्यादा कमाएगा भी, अच्छे से रहेगा भी।
खैर, कई लोग अंग्रेजी और गमछा को लेकर बिहार में चरस बोए हुए हैं। कहते हैं की हमको नहीं आता है, अरे बैल सब, अंग्रेजी का ना आना गर्व नही अफसोस का विषय है, तुमको नही आता तो सीखो, भाषा है, विश्व स्तर की भाषा है, सीखोगे तो आगे बढ़ोगे। वैसे ही गमछा को लेकर भी चरस बोए रहता है सब। अरे गमछा लेकर प्रोफेशनल मीटिंग में नही जा सकते बे तुम। इसी घटिया लॉजिक के चलते बिहार आगे नहीं बढ़ रहा। बेकार चीज को अपने सम्मान से जोड़कर बकाइती करता है बिहारी और बाद में कहता है कि "हमको भईया जी बोलकर बेइज्जत ना करो"
माफ करिए, लेकिन अगर यही आदत रहा तो कुछ दिन बाद कोई नही पूछेगा। अंग्रेजी क्या, दुनिया की हर वो भाषा सीखो जो ज्यादा लोग बोलते हैं, काम आएगा सब। गमछा को प्राइड से मत जोड़ो।
चलिए मान लिए की तमिलनाडु में कुछ नही हुआ था। सब अफवाह था लेकिन इस सब के बाद तेजस्वी जी का बयान आया की मजदूरों को तमिलनाडु में जाकर काम करना चाहिए! बताइए बुद्धिजीवियों, ये सही है क्या?
तमिलनाडु छोड़ दीजिए, बिहारी हर राज्य में काम ही तो कर रहा है। 35 साल से लालू, नीतीश और भाजपा वाले सरकार में हैं। क्या 35 साल में भी ये लोग इस एक समस्या का समाधान नहीं ढूंढ सकते थे? समाजवादी और राष्ट्रवादियों ने बिहार का नाश ही किया है! लालू जी ने अपने तरीके से लूटा, नीतीश जी ने अपने तरीके से और भाजपाइयों का तो कभी सीएम रहा ही नहीं लेकिन योगदान उनका भी बराबर का है।
तमिलनाडु मामले को अफवाह समझकर ही सारे मजदूर अगर बिहार लौट आएं तो सरकार के पास मनरेगा के अलावा कोई और विकल्प है क्या? एकदम संचिता में बैठ कर सोचिएगा। उलझे रहिए जात के चक्कर में, 15 20 साल बाद कोई नही पूछेगा तब समझ आना ही है!
हिंदी फिल्मों में राजाओं की छवि को कितना दूषित किया गया है सोचिए
जब पूरे विश्व में पढ़ाई को लेकर जागरूकता नहीं थी उस जमाने में यानी 19वीं सदी में बड़ोदरा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड इस तरह की 400 कारों गाड़ियों में मोबाइल पुस्तकालय बनाकर अपने रियासत में जगह-जगह रखा था इन्ही बड़ौदा के राजाओ ने भीमराव अम्बेडकर को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजा था और आज अबमेडकर के वंशज इन्ही राजाओं को जी भरके गालियां देते है....
पुण्यतिथि पर सादर नमन महाराजा सयाजीराव गायकवाड़... 🙏🙏🙏🙏❤❤🌹🌹
किसी विशिष्ट गाँव के मित्र ने समझाया कि ब्राह्मण एक नियुक्लियस कि तरह केंद्र में रहते हैं ,जिनके चारो तरफ सवर्ण की अन्य जातियां जैसे राजपूत, लाला,भुमिहार का एक सुरक्षा घेरा बना हुआ है,उंसके बाद भी कई अन्य जातियाँ उस सुरक्षा घेरा को मजबूत कड़ती हैं।
ब्राह्मणों पर प्रहार मात्र से ये घेरा सक्रिय हो जाता रहा है । ऐतिहासिक रूप से ब्राह्मण टारगेट भी होते आए हैं।लेकिन हर हमले को ध्वस्त इनके चारो तरफ के घेरे ने किया है ।
ये निक्यूलियस की तरह जब तक स्थिर बैठे थे, पूज्यनीय थे तब तक। आजकल ये केंद्र से बाहर निकलकर जब भी वृत भर्मण करने लगते हैं तभी इन पर खतरा मंडराता है,लेकिन ये वृत भर्मण छोड़ भी नही रहे हैं ।
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