भारत के मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी
भारत के मुस्लिम स्वतन्त्रता सेनानी
डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन, भारत के एक ऐसा अज़ीम शख़्स का नाम है, जिसने अपना पूरा जीवन तालीम के लिए वक़्फ़ कर दिया। 1920 में जब वो महज़ 23 साल के थे तब जामिया मिल्लिया इस्लामिया की अलीगढ़ में बुनियाद डालने में सबसे अहम रोल अदा किया।
1926 के दौर में जब जामिया मिल्लिया इस्लामिया बंद होने के हालात पर पहुँच गई तो ज़ाकिर हुसैन ने कहा “मैं और मेरे कुछ साथी जामिया की ख़िदमत के लिए अपनी ज़िन्दगी वक़्फ़ करने के लिए तैयार हैं. हमारे आने तक जामिया को बंद न होने दिया जाए.” जबकि उस वक़्त वो जर्मनी में पीएचडी कर रहे थे।
और 1926 में डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन अपने दो दोस्त आबिद हुसैन व मुहम्मद मुजीब के साथ जर्मनी से भारत लौटकर जामिया मिल्लिया इस्लामिया की ख़िदमत में लग गए। डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन 29 साल की उमर में 1926 में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के वाइस चांसलर बने और 1948 तक इस पद पर रहे।
इस दौरान पूरे भारत में अब्दुल मजीद ख़्वाजा के साथ पूरे भारत का दौरा कर जामिया मिलिया इस्लामिया के लिए चंदा जमा किया और उसके लिए ओखला में अलग से ज़मीन ख़रीदी।
1 मार्च, 1935 को जामिया के सबसे छोटे छात्र अब्दुल अज़ीज़ के हाथों ओखला में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की पहली बिल्डिंग की बुनियाद गई। जामिया के सबसे छोटे बच्चे के हाथों नींव रखवाने का ये आईडिया डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन का ही था। ज़ाकिर हुसैन का ये आईडिया गांधी जी को भी ख़ूब पसंद आया।
प्राइमरी एजुकेशन की मुहीम चलाई और चालीस के दहाई में हिंदुस्तानी तालीमी संघ के जलसों में लगातार सक्रिय रहे। इसके बाद दिसंबर 1948 को इंडियन यूनिवर्सिटीज़ कमीशन के मेम्बर बने। भारत के बँटवारे के बाद जब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बंद होने के हालत में पहुँच गई तब उसे बचाने के लिए वहाँ गए और नवम्बर 1948 से सितम्बर 1956 तक वहाँ के वाइस चांसलर रहे।
इसी दौरान 1950 में डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन वर्ल्ड यूनिवर्सिटी सर्विस के चेयरमैन बने।
1957 में बिहार के गवर्नर बना कर भेजे गए, इस तरह से वो ख़ुद ब ख़ुद पटना यूनिवर्सिटी के चांसलर बन गए, क्यूँकि पटना यूनिवर्सिटी का चांसलर बिहार का गवर्नर होता है। वहाँ भी वो लगातार शिक्षा के लिए काम करते रहे। उन्होंने नेत्राहाट स्कूल से लेकर ख़ुदाबख़्श लाइब्रेरी के फ़रोग़ के लिए निजी तौर पर इंट्रेस्ट लिया। देसना की तारीख़ी अल इस्लाह लाइब्रेरी की किताबें उनकी वजह कर ही बच पाई।
1962 तक डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन पटना यूनिवर्सिटी के चांसलर और बिहार के गवर्नर रहे और फिर 13 मई 1962 को भारत के दूसरे उपराष्ट्रपति बने। शिक्षा से जुड़े प्रोग्राम में लगातार जाते रहे। फिर 1963 में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के चांसलर बने और इसी पद पर रहते हुवे 13 मई 1967 को भारत के राष्ट्रपति बने और अपनी आख़री साँस तक भारत के राष्ट्रपति और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के चांसलर के पद पर रहे। 3 मई 1969 तक डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन का इंतक़ाल हुआ, उन्हें उनके बनाए हुवे इदारे जामिया मिल्लिया इस्लामिया में दफ़न कर दिया गया।
- Md Umar Ashraf
क़ाज़ी ज़ुल्फ़िकार अली 1857 की क्रांति के उन गुमनाम लोगों में से जिन्होंने अपनी जान वतन की आज़ादी की ख़ातिर क़ुर्बान की। आप बाबू कुंवर सिंह के सबसे ख़ास साथियों में से थे।
आपको यानी क़ाज़ी ज़ुल्फ़िकार अली खाँ को कई ख़त बाबू कुंवर सिंह ने मई और अगस्त 1856 में लिख रखा है, जिन्हें पढ़ कर आप अंदाज़ा लगा सकते हैं, की ये किस चीज़ के लिए प्लान कर रहे थे।
आज़ादी के 77 साल गुज़र जाने के बाद भी ये क्रांतिकारी गुमनाम था, जिन्हें पर्दे पर किताब लिख कर लाया है संजय कुमार जी ने - उनकी किताब “ज़ुल्फ़िकार अली: 1857 के गुमनाम योद्धा” को आप लोग ज़रूर पढ़े और हौंसला बढ़ाए। ताकि आगे भी लोग गुमनाम लोगों को ढूँढ कर मंज़र ए आम पर लाने की कोशिश करते रहें।
किताब Amazon पर मौजूद है। जिसकी क़ीमत मात्र 150 रुपया है। लिंक नीचे दिया है। आप सीधे ऑर्डर कर सकते हैं। https://www.amazon.in/dp/B0CHDP4X1C?ref=myi_title_dp
शुक्रिया।
रानी लक्ष्मीबाई की मुस्लिम महिला अंगरक्षक का नाम मुँदार खातून था। वह 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान रानी लक्ष्मी बाई की भरोसेमंद और वफादार साथी थीं। मुँदार खातून को रानी की सेवा करने और झाँसी की घेराबंदी के दौरान ब्रिटिश सेना के खिलाफ झाँसी की रक्षा करने में उनकी बहादुरी और समर्पण के लिए जाना जाता था। एक अंगरक्षक के रूप में उनकी भूमिका और रानी के हित के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने उन्हें भारतीय इतिहास के उस दौर में साहस और एकजुटता का प्रतीक बना दिया है। उनके बारे में अधिक जानने के लिए नीचे दिये लिंक पर click करें -
See Detail - https://www.heritagetimes.in/moondar-muslim-friend-of-rani-jhansi-who-martyred-herself-for-the-motherland/ .
महबूब अहमद का जन्म 1920 ई॰ में पटना के चौहट्टा मोहल्ला में हुआ था। वालिद का नाम डॉ वली अहमद था, जो एक डॉक्टर थे। 1932 ई॰ में इनके पिता ने इन्हें देहारदून मिलिटरी स्कूल में भेज दिया। 1940 ई॰ में उनकी नियुक्ति ब्रिटिश इंडियन आर्मी में सेकेण्ड लेफ्टिनेट के पद पर हुई।
उन्हें फौजी दस्ते के साथ मलाया भेज दिया गया। वे कुछ दिनों तक ब्रिटिश इंडियन आर्मी में नौकरी करने के बाद 1942 में नौकरी छोड़कर आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गए। वर्श 1943 में कर्नल महबूब को सिंगापुर में बुलाया गया जहाँ सुभाष चन्द्र बोस से उनकी पहली मुलाकात हुई। वे सुभाष बाबू के भाषण से बहुत प्रभावित हुए।
इन्हें सुभाष रेजीमेंट का एड-ज्वाइन्ट के पद पर नियुक्त किया गया। कर्नल महबूब का पहला मोरचा भारत- बर्मा, सीमा, पर चीन हिल पर था। इस युद्ध में आजाद हिंद फौज के सिपाहियों को कामयाबी हासिल हुई। इस युद्ध की जीत पर नेताजी ने कर्नल महबूब को शाबाशी देते हुए कहा कि ‘‘महबूब 23 वर्ष की उम्र में तुमने तो कमाल कर दिया।’’
1943 के आखिरी महीने में ‘सुभाष रेजीमेन्ट’ को मयरांग मोरचे पर भेज दिया गया जहाँ अंग्रेजी फौज एवं आजाद हिन्द फौज के बीच युद्ध हुआ इसमें कर्नल महबूब के सिपाहियों को जीत मिली। 14 मई, 1944 को हुए युद्ध में कर्नल महबूब के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज का क्लांग - क्लांग घाटी पर अधिकार हो गया।
1945 ई॰ में पोपा हिल पर भयंकर युद्ध हुआ जिसमें सुभाष चन्द्र बोस के मिलिटरी सेक्रेटरी से कर्नल महबूब अहमद थे। इस युद्ध में आजाद हिन्द फौज की जीत हुई। 1947 में देश की आजादी मिलनें के बाद उन्हें भारतीय विदेश सेवा में शामिल किया गया। इस महान देशभक्त का निधन 9 जून, 1992 को पटना में हो गया।
#बिहार #بہار #بیہار
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भारतिय इतिहास की सबसे भयानक जंगो में से एक पानीपत की तीसरी लड़ाई जिसमे एक और अहमद शाह अब्दाली,नजीब उद्दोला, अवध के नवाब शुजा उद्दोला थे तो दूसरी और मराठा साम्राज्य के सदाशिवराव भाऊ विश्वासराव,इब्राहिम गार्दी थे ये युद्ध पानिपत के मैदान में लड़ा गया था सुबह से लेकर ज़ोहर तक चली जंग में हज़ारो सौनिक एक ही दिन में मारे गए थे जो कि अपने आप में इतिहास है।
मराठे जब अपनी फौज कशी करते हुए दिल्ली की तरफ़ बड़ रहे थे तब मालवा से गुज़रते हुए उन्होने रास्ते में भोपाल नवाब को पैग़ाम भेजा की दोराहा पर हमारा इस्तक़बाल करें, बताते हैं कि नवाब फैज़ मोहम्मद खान अपनी इबादात की मसरूफ़ियत के चलते खुद दोराहा ना पहुंच सकें लेकिन अपने लोगो को वहां पहुंचा दिया, नवाब फ़ैज मोहम्मद को अपने सामने ना पाकर मराठा सरदार आग बबूला हो गए और ये कह गए की पानीपत से लौट कर हम भोपाल को रौंद देंगे, मुलाज़िमों को लगा कि नवाब साहब ने बहुत बड़ा सरदर्द मोल ले लिया भोपाल पहुंच कर नवाब साहब से कहा की आपने ना जाकर क्युं मुसीबत मोल ले ली, मराठे कह गए हैं की पानीपत से लौटकर भोपाल को रौंद देंगे तो इसपर नवाब फैज़ मोहम्मद खान ने जवाब दिया की मराठे पानीपत से लौटेंगे ही नहीं।
इतिहास कार लिखते हैं कि पानीपत की भीषड़ लड़ाई में मराठे बहुत बहादुरी से लड़े लेकिन अहमद शाही तूफ़ान ने सब को रौंद डाला इतिहास कार ये भी लिखते हैं की जंग में सदाशिव राव भाऊ और उनके भतीजे विश्वास राव मारे गए अहमद शाह अब्दाली ने उनके शवों को ढूंढ कर सम्मान के साथ हिंदू रिती रिवाज सें दोनो मराठा सरदारों का अंतिम संस्कार कराया और उनकी अस्थियों को सोने के कलश में भरवाकर पूरे सम्मान के साथ पुणे भेज दिया था।
भारतीय इतिहास के सबसे ताक़तवर शासकों में से एक अलाउद्दीन खिलजी ख़ुद को सिकंदर-ए- सानी कहते थे. उन्होंने अपने साम्राज्य में शराबबंदी भी लागू की थी.
वो दुनिया के ऐसे चंद शासकों में भी शामिल थे जिन्होंने मंगोल आक्रमणों को नाकाम किया और अपने राज्य की रक्षा की.
उन्होंने न सिर्फ़ बड़ी मंगोल सेनाओं को हराया बल्कि मध्य एशिया में मंगोलों के ख़िलाफ़ अभियान भी चलाया.
ताक़तवर मंगोल सेना को उन्होंने एक नहीं कई बार हराया.
अली बेग़ (चंगेज़ ख़ान के वंशज) और तारताक़ के नेतृत्व में 50 हज़ार मंगोल सैनिकों का मुक़ाबला मलिक काफुर के नेतृत्व में सुल्तान खिलजी की सेना से उत्तर प्रदेश के अमरोहा में हुआ.
गंगा के मैदानी इलाक़े में 1305 में हुए भीषण युद्ध में खिलजी की सेना ने मंगोलों को बुरी तरह हराया.
क़ब्ज़े में लिए गए दोनों मंगोल जनरलों को दिल्ली में सूली चढ़ा दिया गया.
273 Birth Anniversary of Tipu Sultan
20 नवंबर 1750 को हैदर अली के बड़े बेटे टीपू सुल्तान पैदा हुए थे..
टीपू सुल्तान का नाम आरकाट के बुज़ुर्ग टीपू मस्तान औलिया के नाम पे टीपू रखा गया था.. इनको अपने दादा फ़तेह मोहम्मद के नाम की मुनासिबत से फ़तेह अली भी कहा जाता था..
टीपू सुल्तान गंगा जमुना तहज़ीब के क़ायम रखने वाले और इंक़लाबी बादशाह रहे हैँ..
टीपू सुल्तान तुग़रक़ फ़ौजी रॉकेट के खालिक़ थे..
इनका एक क़ौल बहोत मशहूर है
"शेर की एक दिन की ज़िन्दगी गीदड़ की 100 साल की ज़िन्दगी से बेहतर है"..
क्या आपको पता भारत की सबसे पुरानी मस्जिद ग्राम घोघा, जिला भावनगर, गुजरात में है
यह इकलौती ऐसी मस्जिद हो सकती है जिसका रुख यरूशलेम (बैतुल मुकद्दस रुख) की तरफ है। इसका सन ए तामीर लगभग 1300 वर्ष पुराना है,पहले अरब व्यापारी सातवीं वीं शताब्दी की शुरुआत में गुजरात के भावनगर में आए थे और यहां एक मस्जिद का निर्माण किया।
यह वह समय था जब क़िबला रुख मक्का के बजाय यरुशलम था। लेकिन ये मामूल 16 से 17 महीनों तक ही रहा, 622 और 624 ईस्वी के बीच, हिजरत के बाद, पैगंबर मोहम्मद स.अ.व और आपके सहाबियों ने नमाज़ अदा करते समय यरूशलेम यानी बैतुल मुक़द्दस की और रुख किया।
यह प्राचीन मस्जिद, जिसे स्थानीय रूप से बरवाड़ा मस्जिद या जूनी मस्जिद के रूप में जाना जाता है, उस दौरान ही बनाई गई थी और यह भारत की सबसे पुरानी मस्जिदों में से एक है।
बाद में पैगंबर स.अ.व को वही (आकाशवाणी) के ज़रिये ये हुक्म हुआ कि यरूशलेम से क़िब्ला रुख बदल कर मक्का की और करें। यह मस्जिद भारत की अन्य सभी मस्जिदों से प्राचीन है। इस प्राचीन मस्जिद में भारत के सबसे पुराने अरबी शिलालेख भी हैं यह मस्जिद बरवाडा जमात की देखरेख में है।
Shoaib Gazi ,
यौमे शहादत (Abadi Bano Begum) बी अम्मा 💚🌸 13 नवंबर 1924 अमरोहा की क़ाबिल ए फ़ख़्र बेटी : 💐
बी अम्माँ हिन्दुस्तान की जंग ए आज़ादी और खिलाफत आन्दोलन के बानी के नामवर सपूत मौलाना मुहम्मद अली जौहर और मौलाना शौकत अली की वालिदा ए मोहतरमा थीं.
बी अम्माँ का नाम आबादी बेगम बेगम (पैदाइश 1850) था. वो मोहल्ला शाही चबूतरा पर अमरोहा एक मुअज़्ज़ज़ कलाल खानदान में पैदा हुईं. उनके वालिद मुज़फ़्फ़र अली ख़ां थे. मुज़फ़्फ़र अली खां के परदादा दरवेश अली ख़ां मुग़लों के आख़िरी एहद में पंज हज़ारी ज़ात के मनसबदार थे यानी अमरोहा में इस खानदान को इज़्ज़त और दौलत में इम्तियाज़ हासिल था. अमरोहा के मशहूर नक़्शबन्दी बुज़ुर्ग हज़रत हाफ़िज़ अब्बास अली खां भी इसी खानदान के चश्म ओ चिराग़ थे जिन के नाम पर तहसील के पास "मस्जिद हाफ़िज़ अब्बास अली खां" है. आप का मज़ार अमरोहा में बिजनौर रोड पर रौज़ा हाफ़िज़ अब्बास अली के नाम से मशहूर है.
बी अम्माँ की शादी रामपुर में अब्दुल अली साहब से हुई जो रामपुर रियासत में मुलाज़िम थे. महज़ 27 साल की उम्र में बी अम्माँ बेवा हो गईं. उनके दूसरे निकाह की भी कोशिश की गई लेकिन उन्होंने साफ़ इंकार कर दिया और ख़ुद को अपने बच्चों की तालीम ओ तरबियत के लिए वक़्फ़ कर दिया. बी अम्माँ ने अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए अपने ज़ेवर तक बेच दिए थे.
ये बी अम्माँ की ही तालीम ओ तरबियत का असर था कि उनके दो बेटे मौलाना मुहम्मद अली जौहर और मौलाना शौकत अली ने हिन्दुस्तान में खिलाफ़त मूवमेंट शुरू किया जिसने काँग्रेस के साथ मिलकर हिन्दुस्तान को आज़ादी दिलाने मे एक अहम किरदार अदा किया.
बी अम्माँ हिन्दुस्तान में तहरीक ए खिलाफ़त की सरगर्म कारकुन थीं. 1917 के मुस्लिम लीग के जलसे में बी अम्माँ ने ज़बर्दस्त तक़रीर फ़रमाई थी कि लोगों में आज़ादी का ज़ज्बा पैदा और शदीद होने लगा.
जिस ज़माने में उनके बेटे मुहम्मद अली और शौकत अली तहरीक ए खिलाफ़त के सिलसिले में जेल में थे उस वक़्त इस तहरीक ए खिलाफ़त की कमान बी अम्माँ ने सम्भाल ली और पूरे हिन्दुस्तान में अपनी तक़रीरों से लोगों के दिलों में आज़ादी के ज़ज्बात को उभारने में कामयाब हुईं. वो रेलगाड़ी से मुल्क में घूमतीं तकरीरे करतीं और लोगों में आज़ादी का ज़ज्बा बेदार करतीं . 1923 में जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के सालाना जलसे में उन्होंने ज़बर्दस्त और तारीखी तक़रीर करते हुए कहा कि...
"मैंने अपना बुर्का इसलिए उतारा है क्यूंकि इस मुल्क में अब किसी भी आबरू बाक़ी नहीं. 1857 में मैंने मैंने अपने झंडे को उतरते देखा है अब मेरी तमन्ना है कि अँग्रेजों के झंडे को उतरते हुए देखूँ. (सोर्स BBC)
13 नवंबर 1924 में खिलाफ़त की ये शैदाई खातून अपने मालिक ए हक़ीकी़ से जा मिलीं और दिल्ली में रौज़ा ए शाह अबुल खैर फारुकी में दफ़्न हुईं.
"शहादत है मतलूब-ओ-मक़्सूद-ए-मोमिन
न माल-ए-ग़नीमत न किश्वर-कुशाई
~अल्लामा इक़बाल रह०🖤
अल्लाह जन्नत में आला से आला मुकाम अता फरमाए
आमीन 🤲💚☘️
सन 1888 में एक बच्चा अपने ननिहाल मक्का में पैदा होता है नाम रखा गया अहमद मोहिद्दीन , अहमद के वालिद हिंदुस्तानी थे जबकि वालिदा मदीना के एक बड़े अंसारी आलिम की बेटी और अरब थीं
दो साल की उम्र में वालिद उसे लेकर हिंदुस्तान आ गए और कलकत्ता में आबाद हो गए ग्यारह साल का हुआ , वालिदा का इंतकाल हो गया
वालिद सैयद हुसैनी परिवार से थे बड़े पीर थे पैसे और आराम की कमी नहीं थी वह अहमद को भी अपने जेसा पीर व मुर्शिद बनाना चाहते थे बच्चा जमाने की हवा से खराब न हो इस लिए किसी स्कूल मदरसा न भेजा बल्कि पूरे देश से अच्छे व काबिल शिक्षकों को अपने घर इकट्ठा कर दिया कि अहमद की शिक्षा में कमी न रह जाए
अहमद के घर का माहोल पीरी मुरीदी वाला था वह पीर का बेटा था मुरीद आगे पीछे हाथ बांध कर खड़े रहते थे जब वह चलता था तो कुछ अकीदतमंद उस मिट्टी को उठा लेते थे जहां उस के पांव पड़े होते थे
यह चीज़ अहमद को अजीब लगती थी लोग उस के वालिद से अकीदत रखते हैं समझ में आता है कि वह पीर हैं लेकिन उस की इतनी ताज़ीम क्यों करते हैं
इस चीज़ ने उसे सोचने पर मजबूर किया वह जितना सोचता जाता इस माहौल से छुटकारा पाना चाहता उसे सिर्फ बिरादरी खानदान और वालिद की वजह से यह ताजीम अच्छी नहीं लगती आखिर कार एक दिन वह इस माहौल से आज़ाद हो गया और पीरी मुरीदी छोड़ दी
अहमद को तकरीर करने का शौक था खेल खेल में घर के बच्चों को इकट्ठा करके उन के सामने तकरीर करना मशगला था इसी शौक और मेहनत के चलते वह बड़ा मुकर्रि व वक्ता हो गया
शिक्षा ने उसे मौलाना, तकरीर की महारत ने उसे अबुल कलाम और घर के माहौल से आजादी ने उसे आज़ाद बना दिया
स्कूल क्लास की झंझट नहीं थी घर पर पढ़ना था इस लिए बहुत ही कम उम्र में तालीम मुकम्मल कर ली इस का फायदा यह हुआ कि वह हर जगह कम उम्री में पहुंचते गए , कम उम्र में पत्रकार बने संपादक बने नेता बने यहां तक कि वह कम उम्री में ही कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी के अध्यक्ष भी बन गए
अरबी उन की मादरी ज़ुबान मातृभाषा थी उन्होंने उर्दू अरबी शैली को मिला कर एक नई शैली बनाई कि मौलाना हसरत मोहानी जैसे बड़े शायर को भी कहना पड़ा
जब से देखी अबुल कलाम की नस्र
नज़्मे हसरत में भी मज़ा न रहा
बाकी फिर कभी
Khursheeid Ahmad
17 अक्टूबर 1858 को बाहदुर शाह ज़फर मकेंजी नाम के समुंद्री जहाज़ से रंगून पहुंचा दिए गये थे ,शाही खानदान के 35 लोग उस जहाज़ में सवार थे ,कैप्टेन नेल्सन डेविस रंगून का इंचार्ज था , उसने बादशाह और उसके लोगों को बंदरगाह पर रिसीव किया और दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी हुकूमत के बादशाह को लेकर अपने घर पहुंचा !
बहादुर शाह ज़फर कैदी होने के बाद भी बादशाह थे, इसलिए नेल्सन परेशान था, उसे ये ठीक नही लग रहा था कि बादशाह को किसी जेल ख़ाने में रखा जाये ... इसलिए उसने अपना गैराज खाली करवाया और वहीँ बादशाह को रखने का इंतज़ाम कराया !
बहादुर शाह ज़फर 17 अक्टूबर 1858 को इस गैराज में गए और 7 नवंबर 1862 को अपनी चार साल की गैराज की जिंदगी को मौत के हवाले कर के ही निकले , बहादुर शाह ज़फर ने अपनी मशहुर ग़ज़ल इसी गैराज में लिखा था ....
लगता नही है दिल मेरा उजड़े दियार में
किस की बनी है है आलम न पायेदार में
और
कितना बदनसीब है ज़फर दफ़न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिले कुए यार में..
7 नवंबर 1862 को बादशाह की खादमा परेशानी के हाल में नेल्सन के दरवाज़े पर दस्तक देती है , बर्मी खादिम आने की वजह पूछता है ..खादमा बताती है बादशाह अपनी ज़िन्दगी के आखिरी साँस गिन रहा है गैराज की खिड़की खोलने की फरमाईश ले कर आई है .... बर्मी ख़ादिम जवाब में कहता है ... अभी साहब कुत्ते को कंघी कर रहे है .. मै उन्हें डिस्टर्ब नही कर सकता .... ख़ादमा जोर जोर से रोने लगती है ... आवाज़ सुन कर नेल्सन बाहर आता है ... ख़ादमा की फरमाइश सुन कर वो गैराज पहुँचता है .....!
बादशाह के आखिरी आरामगाह में बदबू फैली हुई थी ,और मौत की ख़ामोशी थी ... बादशाह का आधा कम्बल ज़मीन पर और आधा बिस्तर पर ... नंगा सर तकिये पर था लेकिन गर्दन लुढ़की हुई थी ..आँख को बहार को थे .. और सूखे होंटो पर मक्खी भिनभिना रही थी .... नेल्सन ने ज़िन्दगी में हजारो चेहरे देखे थे लेकिन इतनी बेचारगी किसी के चेहरे पर नही देखि थी .... वो बादशाह का चेहरा नही बल्कि दुनिया के सबसे बड़े भिखारी का चेहरा था ... उसके चेहरे पर एक ही फ़रमाइश थी .... आज़ाद साँस की !
हिंदुस्तान के आखिरी बादशाह की ज़िन्दगी खत्म हो चुकी थी ..कफ़न दफ़न की तय्यारी होने लगी ..शहजादा जवान बख़्त और हाफिज़ मोहम्मद इब्राहीम देहलवी ने गुसुल दिया ... बादशाह के लिए रंगून में ज़मीन नही थी ... सरकारी बंगले के पीछे खुदाई की गयी .. और बादशाह को खैरात में मिली मिटटी के निचे डाल दिया गया ......
उस्ताद हाफिज़ इब्राहीम देहलवी के आँखों को सामने 30 सितम्बर 1837 के मंज़र दौड़ने लगे ...जब 62 साल की उम्र में बहादुर शाह ज़फर तख़्त नशीं हुआ था ...वो वक़्त कुछ और था ..ये वक़्त कुछ और था ....इब्राहीम दहलवी सुरह तौबा की तिलावत करते है , नेल्सन क़बर को आखिरी सलामी पेश करता है ...और एक सूरज गुरूब हो जाता है !
कभी ऐसा दिखता था दुनिया सबसे पुराना शहर बनारस 🎈
हैदराबाद में स्थित गोलकुंडा दुर्ग
कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए।
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।
ये शेर आखिरी मुग़ल बादशाह और 1857 की जंगे आज़ादी के नायक बहादुर शाह ज़फ़र की एक गज़ल का है जिसे उन्होने रंगून में अंग्रेज़ हुकूमत की क़ैद में रहते हुए लिखी थी, आजकल इतिहास पढ़ाया जा रहा है की मुग़ल लुटेरे थे लेकिन बहादुर शाह ज़फ़र का इतिहास बताता है की वो यहीं पैदा हुए और इसी वतन की मोहब्बत में मर गए यहां तक के अपने जवान बेटों को भी कुर्बान कर गए।
बहादुरशाह ज़फ़र हमारे उस स्वतंत्रता संग्राम के नायक हैं जिसमें हम हार भले ही गए थे पर हिंदुओं व मुसलमानों क्रांतिकारियों ने उसे एकजुट होकर लड़ा था और अपनी एकता की शक्ति से अंग्रेजों में खौफ पैदा कर दिया। भारत के आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का जिक्र आते ही उनकी उर्दू शायरी और हिंदुस्तान से उनकी मोहब्बत के लिए याद किया जाता है, लेकिन हम भूल जाते हैं कि इन्होंने 1857 की क्रांति में विद्रोहियों और देश के सभी राजाओं का एक सम्राट के तौर पर नेतृत्व किया। इसके लिए इन्हें बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी थी। अंग्रेजों ने इन्हें गिरफ़तार कर ऐसी मौत दी कि 132 साल तक किसी को इनके कब्र के बारे में ही पता नहीं चल पाया।
बहादुर शाह ज़फ़र का इंतेकाल 1862 रंगून में हुआ था जहां अंग्रेज़ हुकूमत ने उन्हें क़ैद कर रखा था मिर्ज़ा ग़ालिब बहादुर शाह ज़फर के उस्ताद थे जिन्हे उनके इंतेकाल की खबर बहुत बाद में अख़बार के ज़रिये मिली 16 दिसंबर 1862 को गालिब ने अपने दोस्त महदी मजरूह को खत लिख कर बताया की '7 नवंबर 14 जमादिल उल अव्वल जुमे के दिन अबु सिराजउद्दीन बहादुर शाह क़ैद ए जिस्म ओ क़ैद ए जिस्म से रिहा हुए।
अंग्रेजों ने बहादुर शाह ज़फर को उसी घर के पीछे दफना दिया था जहां वो क़ैद थे और उस ज़मीन को समतल कर दिया और ये सुनिश्चित किया कि उनकी कब्र की पहचान ना की जा सके। उनकी मौत के 132 साल बाद साल 1991 में एक स्मारक कक्ष की आधारशिला रखने के लिए की गई खुदाई के दौरान उस कब्र का पता चला। कब्र में बादशाह जफर की निशानी और अवशेष मिले जिसकी जांच के बाद यह पुष्टि हुई की वह जफर की ही हैं। जिसके दो साल बाद 1994 में उसी जगह उनकी दरगाह बनी। इस दरगाह में महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग प्रार्थना करने की जगह बनी है।
जब बादशाह ज़फर को गिरफ्तार किया गया, तो उर्दू जानने वाले एक अंग्रेज पुलिस अफसर फिलिप ने उन पर कटाक्ष करते हुए कहा-
'दम दमे में दम नहीं, अब खैर मांगो जान की।
ए जफर, अब म्यान हो चुकी है, शमशीर हिन्दुस्तान की!
इस पर बहादुर शाह ज़फर ने करारा जवाब देते हुए कहा था-
'ग़ाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की।
तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की।
फिलिप ने अपने शेर जो 'दम दमे' लफ़्ज़ का इस्तेमाल किया है असल में ये दम दम उस तोप का नाम है जिसे अहमद शाह अब्दाली ने पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों के खिलाफ इस्तेमाल किया था
Shoaib Gazi
ये मुबारक मक़ाम है
जहाँ से मोहम्मद ﷺ ज़मीन से आसमानो
पर मेराज के सफर के लिए गए थे
❤️ 🇵🇸
#अलअक्सा #मस्जिद ,
कमेंट बॉक्स मे MashaAllah लिखते जाए....
.. “जाऊँगा खाली हाथ मगर ये दर्द साथ ही जायेगा,
जाने किस दिन हिन्दोस्तान आज़ाद वतन कहलायेगा?
बिस्मिल हिन्दू हैं कहते हैं “फिर आऊँगा, फिर आऊँगा,
फिर आकर के ऐ भारत माँ तुझको आज़ाद कराऊँगा”।।
जी करता है मैं भी कह दूँ पर मजहब से बंध जाता हूँ,
मैं मुसलमान हूँ पुनर्जन्म की बात नहीं कर पाता हूँ;
हाँ खुदा अगर मिल गया कहीं अपनी झोली फैला दूँगा।
और जन्नत के बदले उससे एक पुनर्जन्म ही माँगूंगा।।
-------अशफ़ाकुल्लाह खां
देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करनेवाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अमर शहीद् अशफाकुल्लाह खाँ की जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि एवं शत शत नमन।।
जय हिंद।। जय भारत।।
बेगम हजरत महल स्वतन्त्रता सेनानी
बेगम हजरत महल अवध के शासक वाजिद अली शाह की पहली पत्नी थीं। सन 1857 में भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह किया। उन्होंने लखनऊ को अंग्रेजों से बचाने के लिए भरसक प्रयत्न किए और सक्रिय भूमिका निभाई। बेगम हजरत महल की हिम्मत का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने मटियाबुर्ज में जंगे-आजादी के दौरान नजरबंद किए गए वाजिद अली शाह को छुड़ाने के लिए लार्ड कैनिंग के सुरक्षा दस्ते में भी सेंध लगा दी थी
कृष्णा वल्लभ सहाय , मुरली मनोहर प्रासाद , जगत नारायण लाल जैसे बड़े कांग्रेसी नेताओं ने 25 अक्तुबर 1946 को बिहार में ‘नोआखाली डे’ मनाने का एलान कर दिया; जिसके बाद इस दिन पटना की सड़को पर "ख़ून के बदले ख़ून से लेंगे" जैसे भड़काऊ नारे लगाते हुए बड़ी संख्या में जुलूस गांधी मैदान जमा होने लगे और वहां कृष्णा वल्लभ सहाय की अध्यक्षता मे एक बड़ा जलसा हुआ।
इस जलसा मे प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी भी पहुंच गए और उन्होने हक़गोई और बेबाकी से काम लेते हुए जमा हुई भीड़ को जम कर फटकार लगाते हुवे कहा :- “हम कांग्रेसी तो अहिंसावादी हैं और सारे मामले को शांति से हल करना चाहते हैं, मगर जो लोग फ़ैसला तलवार से करना चाहते हैं; तो उन्हे पानीपत के मैदान मे जमा हो कर लड़ाई का फ़ैसला वहां कर लेना चाहीए। बेक़सूर शहरीयों को क़त्ल करने से मामले का हल नही निकलेगा और ना ही उन्हे बहादुर माना जाएगा।” इसके बाद भीड़ तीतर बितर हुई। पर मामला शांत कहाँ होने वाला था। आग तो लग चुकी थी।
और इसी के साथ बिहार मे फ़साद शुरू होता है। जिसमें 10 दिन के अंदर तीस हज़ार से अधिक मुसलमान क़त्ल कर दिए जाते हैं, और उनके सैंकड़ों गाँव उजाड़ दिए जाते हैं। शुरुआत होती है 26 अक्तुबर 1946 को छपरा शहर से, जिसमे बड़ी तादाद पर मुसलमानो का क़त्ल हुआ। (वैसे सितम्बर के महीने में भी कई दंगे हो चुके थे, जिसमें कई दर्जन लोग मर चुके थे) पर अक्तूबर में हुआ फ़साद वेल प्लाँड था।
बाद में 28 मार्च 1947 को इस फ़साद को अपनी तरफ़ से रोकने की पूरी कोशिश करने वाले प्रोफ़ेसर अब्दुल बारी भी क़त्ल कर दिए गए, इस फ़साद में मगध के देहाती इलाक़ों से मुसलमान पूरी तरह ख़त्म हो गए, मुसलमान सिर्फ़ इन जगहों पर बचे जहां स्वामी सहजानंद सरस्वती और उनकी किसान सभा का असर था, जैसे पलिग़ंज, बिहटा, अरवल आदि।
- Md Umar Ashraf
सय्यद अताउल्लाह शाह बुखारी 23 सितम्बर 1892 को जन्मे भारत के एक हनफी मुस्लिम इस्लामिक विद्वान्,धार्मिक गुरु और राजनेता थे।वो मजलिसे अह्रारे इस्लाम के संस्थापक भी थे। उनकी जीवनी लिखने वाले ,आगा शोरिश कश्मीरी लिखते है,भारत के आम मुसलमानों में अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध नफरत और गुस्से को मुसलमानों के दिल में बसाने के पीछे उनका बोहुत बड़ा योगदान था
पटना में जन्मे मौलाना साहब ने अपनी शुरूआती धार्मिक शिक्षा गुजरात में ली और 10 वर्ष की आयु में अपने पिता,हाफिज सय्यद जियाउद्दीन से कुरान को कंठस्त यानि याद किया।22 वर्ष की आयु में वो अमृतसर चले गए और अपनी उच्च धार्मिक शिक्षा को देवबंद की विचारधारा के अंतर्गत पूरा किया। वो उस वक़्त के कई विद्वानों की तरह मदरसे सिस्टम को अंग्रेजी स्कूल पर तरजीह और अंग्रेजी भाषा खिलाफ थे। अपनी चालिस साल की उम्र तक वो अमृतसर के एक मस्जिद में बतौर इस्लामिक विद्वान् काम किया और कुरान सिखाया। वो समाजवादी और कोम्मुस्निस्ट विचारधारा के लोगो से अक्सर वार्ता करते।हजरत साहब ने सहीह बुखारी किताब,जो मुसलमानों में कुरान के बाद सबसे ज्यादा मौताबर किताब मानी जाती है,का अध्धयन जेल में रहकर किया क्योकि वो अपने हर खुतबे में अंग्रेजो के ज़ुल्म और अंग्रेजियत के खिलाफ आग उगलते थे।
वैसे तो उनका धार्मिक और राजनेतिक करियर 1916 से ही शुरू हो गया था जब वो अपने हर खुतबे में अग्रेजो के खिलाफ और ज़ुल्म के बारे में अवाम को जागरूक करते।वो अरबी,फारसी,उर्दू,पंजाबी और मुलतानी भाषाओ में अंग्रेजो के खिलाफ ज्वलंत,जज्बाती,जोशीली और भड़काऊ भाषण देने के लिए खासे मशहूर हुए। वो अपने हर भाषण में गरीब और पिछडो की समस्याओ को रेखांकित करते और यह वादा देते की अंग्रेजो के काले शासन के साथ उनके दुःख भी ख़तम हो जायेंगे
जलीयावाला बाग़ के हादसे ने उनेह हिला कर रख दिया और यह हादसा इनको इतना मुतास्सिर कर गया की उन्होंने पूरे भारत में यात्राये करके अंग्रेजो के खिलाफ मोर्चा खोल लिया और लोगो को इस काली सरकार के विरुद्ध किया।1919 में अमृतसर में खिलाफत कांफ्रेंस में ज़बरदस्त तक़रीर की जिसके बाद 1921 में कोलकाता में जाकर अंग्रेजो के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इन तकरीरो ने उनकी प्रसिद्धी चारो ओर फैला दी और वो एक बड़े नेता के तौर पर जाने जाने लगे।27 मार्च 1921 को उनको उनकी तकरीरो के लिए ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया।
मौलाना महात्मा गाँधी के सिधान्तो पर चलते हुए अहिंसा मार्ग से आजादी प्राप्त करने के पक्षधर थे। उन्होंने अपने अन्दर एक दावत देने वाला मुसलमान और एक राजनेता के रूप को भली भांति संजोये रखा और सख्ती के साथ कुरान की शिक्षाओ पर अमल करते रहे। बोहुत जल्द ही वो प्रशासन की आँखों को चुभने लगे इतना की प्रशासन ने उनके बारे में ऑफिशियली यह कह डाला की
"अताउल्लाह एक ऐसा आदमी है जो जितना जेल में बंद रहे उतना हमारे लिए अच्छा है।उसने अपनी ज़िन्दगी का बड़ा हिस्सा लोगो को जगाने में लगा दिया।वो एक ज़बरदस्त स्पीकर है जो अवाम पर प्रभाव डालता है"
मौलाना साहब की तकरीरो का प्रभाव इतना था की आगा शोरिश कश्मीरी,जिन्होंने उनकी जीवनी लिखी और उनके दोस्त भी थे उनपर भी इसका इतना असर हुआ की वो खुद भी एक समाज सुधारक के काम में लग गए
1941 में एक बार उनेह गिरफ्तार किया तो जेलर ने उनको बुलाया और एक माफीनामे पर दस्तखत करने को कहा जिसपर लिखा था
"अगर सरकार मुझे इस बार रिहा करदे तो मैं वादा करता हूँ की भविष्य में कभी ऐसा कुछ नहीं करूँगा जिससे सरकार को कोई आपत्ति हो"
हजरत साहब ने वो माफीनामा उठाया,फाड़ा,पैरो से रोंद कर उसपर तीन बार थूका और जेलर को आँखे दिखाते हुए वापस चले गए। जब उनकी रिहाई को कुछ दिन बाकी थे तो फिर से जेलर ने बुलाया और यही दस्तखत करने को कहा तो हजरत ने कहा इसपर अंग्रेजी में कुछ लिखो जेलर बोला क्या? तो हजरत ने कहा
"जब तक मैं ज़िंदा हूँ तुम्हारी जड़े काटता रहूँगा"
हजरत साहब अपने तकरीरो के लिए तो जाने ही जाते थे साथ में वो एक उम्दा कवि भी थे। उनकी अधिकतर कविता फारसी में लिखी गयी है जो उनके बड़े बेटे सय्यद अबुज़र बुखारी ने 1956 में सवाती उल इल्हाम नाम की किताब में संजो कर रख ली।
हजरत साहब ने 21 अगस्त 1961 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया। तकरीबन दो लाख लोगो ने मुल्तान में उनकी नमाज़े जनाज़ा में शिरकत की
भारतीय मुस्लिम देश के ऐसे नेता,धार्मिक गुरु और स्वतंत्रता सेनानी को सलाम करता है
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संक्षिप्त कथा
स्रोत्र :विकिपीडिया
रसूलु्ल्लाह ﷺ ग़ार-ए-हिरा में मु़शरिकीन की नज़रों से कुछ वक़्त के लिए ओझल हो गए कि एक सदी से भी कम अरसे बाद स्पेन से लेकर हिंदुस्तान तक आज़ानों की आवाज़ें गूंज रही है, मुसलमानों की फ़ौजें चीन से लेकर फ़्रांस की सरहदों पर गश्त कर रही हैं।
मायूस होने की ज़रूरत नहीं
(अगर अल्लाह तुम्हारी मदद करे तो कोई तुम पर ग़ालिब नहीं आ सकता और अगर वो तुम्हें छोड़ दे तो फिर उस के बाद कौन तुम्हारी मदद कर सकता है? और मुसलमानों को अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिए)
(अल-इमरान/160)
Hamza Zucced
क्या आपने कभी ग़ौर किया है मिस्र, इराक़, जॉर्डन, क़ुवैत, सूडान, सीरिया, यूएई और फ़लस्तीन का झंडा एक जैसा क्यूँ है??
इसके पीछे शरीफ़ हुसैन इब्ने अली हाशमी का हाथ है जिसका ताल्लुक़ हाशिमी ख़ानदान से था, जो उस्मानी दौर में मक्का का अमीर था। लॉरेंस ऑफ़ अरेबिया के बहकावे में आ कर ख़िलाफ़त की लालच में ना सिर्फ़ पहली जंग ए अज़ीम के दौरान अंग्रेज़ों का साथी बन गया, बल्कि ख़ूब ख़ून ख़राबा भी किया। जैसे ही तुर्कों का ज़वाल हुआ, इन्होंने 1924 में ख़ुद को ख़लीफ़ा घोषित कर दिया। इनके पास जो झंडा था उसका रंग भी सेम वही था, जो ऊपर बताए गए मुल्कों का था। झंडा अंग्रेज़ों ने डिज़ाइन कर के दिया था।
इनके बाद इनके बेटे अली इब्न हुस्सैन को हेजाज़ मिला, जिसे कुछ साल बाद नज्द के सऊद ने छीन लिया। यानी मक्का मदीना उस सऊद ख़ानदान के पास आ गया, जो आज साऊदी अरब पर हुकूमत कर रहे हैं।
दूसरे बेटे अब्दुल्ला इब्न हुस्सैन को जॉर्डन मिला, जिनकी औलाद आज भी जॉर्डन पर हुकूमत कर रही है, क़ुद्स यानी जेरूसलम इनके पास था, जिस पर 1967 से इज़रायल ने क़ब्ज़ा कर रखा है।
और एक बेटे फ़ैसल इब्न अब्दुल्ला को सीरिया और इराक़ मिला। जिनसे बाद में फ़्रांस ने जंग कर सीरिया छीन लिया और उसे कई खंड में बाँटा गया; ताके इज़रायल की स्थापना के लिए ज़मीन हमवार हो सके। जो सीरिया बचा उसका हेड बरकत अल ख़ालिदी बना; जो फ़्रांस का आदमी था। अब फ़ैसल के पास इराक़ बचा, उनके बाद उनके बेटे ग़ाज़ी बिन फ़ैसल इराक़ के हाकिम बने, उनके बाद उनके बेटे जूनियर फ़ैसल; जिन्हें 23 साल की उम्र में 14 जुलाई 1958 को क़त्ल कर दिया गया। इन्हें क़त्ल करने वाले इराक़ी आर्मी के एक कैप्टन अल इब्लूसी के अनुसार क़त्ल की वजह भी इसके पर दादा और दादा द्वारा की गई ग़द्दारी ही थी। असल में सीनियर फ़ैसल ने इज़राईल की स्थापना में बड़ा अहम रोल अदा किया था।
इधर 1805 तक 1914 सूडान और मिस्र में एक ख़ानदान के उस्मानी ख़दीव यानी Viceroy थे; जिन्होंने उस्मानीयों के परचम तले हुकूमत की। मुहम्मद अली इसी ख़ानदान के थे; जिन्होंने हेजाज़ पर से सऊद ख़ानदान के क़ब्ज़े को ख़ाली कराया था। अब्बास हलीम बे आख़री हाकिम थे जिन्हें 19 दिसम्बर 1914 को अंग्रेज़ों ने उनके पद से हटा दिया; और इन्ही के एक रिश्तेदार और अपने वफ़ादार हुस्सैन कमाल को हाकिम बना कर 1517 से चली आ रही उस्मानीयों की हुकूमत को ख़त्म कर दिया। हुस्सैन कमाल ने अंग्रेज़ों से सुल्तान का ख़िताब भी हासिल कर लिया। इन्हें भी वही झंडा मिला, जो हेजाज़, इराक़ और सीरिया वालों को मिला। 9 अक्तूबर 1917 को इंतक़ाल के बाद इन्हें छोटे भाई फ़वाद को हुकूमत मिली; ये ब्रिटेन के संरक्षित राज्य की हैसयत से उन्ही के संरक्षण में हुकूमत कर रहे थे। 28 फ़रवरी 1922 को ब्रिटेन ने संरक्षित राज्य की सूची से मिस्र का नाम हटा लिया; जिसके बाद 15 मार्च 1922 फ़वाद ने ख़ुद को मिस्र का बादशाह घोषित कर दिया। फ़वाद के निधन के बाद उसके बेटे फ़ारूक़ ने 28 अप्रेल 1936 को गद्दी सम्भाला और 26 जुलाई 1952 तक पद पर रहे। उसके बाद 26 जुलाई 1952 को उनके बेटे जूनियर फ़वाद बादशाह बने; जिन्हें 18 जून 1953 को मिस्र के आख़री बादशाह की हैसयत से रीज़ाईन करना पड़ा। उसके बाद से आज तक मिस्र क्रांति की भेंट चढ़ा हुआ है। इसके साथ ही सूडान भी आज़ाद हो गया; और लगातार ख़ानाजंगी की भेंट चढ़ कर दो टुकड़े हो गया।
अब इन सब मामले में भारतीय उपमहाद्विप के मुसलमान ख़ुद को बड़ा पाक साफ़ मान रहे होंगे; जबकि ऐसा नही है। यहाँ के मुसलमानो ने पहली जंग ए अज़ीम में अंग्रेज़ों के लिए बढ़ चढ़ कर अपनी सेवाएँ दी थी। 1917 में जब अंग्रेज़ों ने फ़लस्तीन और इराक़ पर जीत हासिल की तो उसमें सबसे बड़ा योगदान इन्ही लोगों का था। जब उस्मानियों को हरा कर क़ुदस यानी जेरूसलम पर अंग्रेज़ों ने क़ब्ज़ा किया तो मस्जिद ए अक़्सा और दीगर पवित्र मुस्लिम स्थान के हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी भारतीय मुस्लिम जवानों के सुपुर्द की गई। ठीक इसी तरह का काम इराक़ में भी हुआ था।
बाक़ी जहां तक इन चार रंग की बात है ये अरबवाद की निशानी मानी जाती है, जिसमे -
हरा - ख़िलाफ़त ए राश्दा और फ़ातमी
लाल - हाशमियों
सफ़ेद - बनू उमैया
काला - अब्बासियों
की निशानी है।
- Md Umar Ashraf
रानी लक्ष्मीबाई की मुस्लिम महिला अंगरक्षक का नाम मुँदार खातून था। वह 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान रानी लक्ष्मी बाई की भरोसेमंद और वफादार साथी थीं। उदा खातून को रानी की सेवा करने और झाँसी की घेराबंदी के दौरान ब्रिटिश सेना के खिलाफ झाँसी की रक्षा करने में उनकी बहादुरी और समर्पण के लिए जाना जाता था। एक अंगरक्षक के रूप में उनकी भूमिका और रानी के हित के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने उन्हें भारतीय इतिहास के उस दौर में साहस और एकजुटता का प्रतीक बना दिया है।
See https://www.heritagetimes.in/moondar-muslim-friend-of-rani-jhansi-who-martyred-herself-for-the-motherland/
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