दादूवाणी प्रवचन Daduvani Pravachan
Shree Daduvani Pravachan by Mahant Bajrangdas Swami
(Former Principal- Shree Dadu Mahavidyalaya, Jaipur and Sanskrut Acharya Mahavidyalaya, Chirana Jhunjhunu)
*विचार परचै जिज्ञासु उपदेश ~ दादूवाणी । पीव पहिचान का अंग, भाग-४, महंत श्री बजरंगदास जी महाराज,*
*https://youtu.be/kI9Y-R9KnN0*
*लोहा माटी मिलि रह्या, दिन दिन काई खाइ ।*
*दादू पारस राम बिन, कतहुँ गया विलाइ ॥३५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! लोहा स्थानीय मल - दोष युक्त मन, विषय - वासना रूप कालर से क्षीण होता जा रहा है । पारस रूप आत्म - विचार के बिना, संसार के जन्म - मरण में ही जाता है ॥३५॥
*लोहा पारस परस कर, पलटै अपणा अंग ।*
*दादू कंचन ह्वै रहै, अपने सांई संग ॥३६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! लोहा रूप मन, पारस रूप ब्रह्मवेत्ताओं के सत्संग द्वारा, अन्तर्मुख वृत्ति से आत्मस्वरूप का विचार करके, गुणातीत होकर, विदेह मुक्ति को प्राप्त होता है ॥३६॥
*दादू जिहिं परसे पलटै प्राणियाँ, सोई निज कर लेह ।*
*लोहा कंचन ह्वै गया, पारस का गुण येह ॥३७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मवेत्ताओं के सत्संग से इस बहिर्मुख प्राणी का मन रूप लोहा, व्यष्टि भाव को त्यागकर समष्टि भाव को प्राप्त होता है । फिर यह लोहा रूप मन गुणातीत होकर ब्रह्म - भाव में समा जाता है । ऐसी सत्संग की महिमा है ॥३७॥
*विचार परचै जिज्ञासु उपदेश*
*दहदिशि फिरै सो मन है, आवै जाय सो पवन ।*
*राखणहारा प्राण है, देखणहारा ब्रह्म ॥३८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जागृत में, स्वप्न में, सर्वत्र दशों दिशाओं में घूमने वाला मन है । श्वांस प्रति श्वाँस चलने वाला पवन है और स्थूल संघात की रक्षा करने वाला प्राण है । इन सबको सत्ता - स्फूर्ति देने वाला द्रष्टा रूप साक्षी ब्रह्म है ॥३८॥
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*निर्वासनिक गुणातीत अवस्था में स्वस्वरूप का साक्षात्कार ~ दादूवाणी । पीव पहिचान का अंग, भाग-३, महंत श्री बजरंगदास जी महाराज,*
*https://youtu.be/aJdykbRuuIU*
*अविनाशी साहिब सत्य है, जे उपजै विनशै नांहि ।*
*जेता कहिये काल मुख, सो साहिब किस मांहि ॥२७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वह हमारा साहिब नाम स्वामी परमेश्वर, सत्य स्वरूप, अविनाशी है । वह उत्पत्ति और विनाश से रहित है और उसके बिना जो दूसरा, माया और माया का कार्य है, वह काल के मुँह में जाता आता है । वह कौनसे साहिब की गणना में है ? अर्थात् वह तो सब नश्वर है, वह अविनाशी नहीं हो सकता ॥२७॥
*सांई मेरा सत्य है, निरंजन निराकार ।*
*दादू विनशै देखतां, झूठा सब आकार ॥२८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! भक्तों का स्वामी परमेश्वर, अविनाशी साहिब सत्य स्वरूप है । वह न तो उपजता है और न नाश को ही प्राप्त होता है । और जो अवतार आदि देव हैं, वे सब उत्पत्ति और नाश को पाने वाले हैं । वे अविनाशी ब्रह्म नहीं हो सकते, किन्तु हमारा तो साहिब सत्य - स्वरूप, निरंजन, निराकार - स्वरूप है और संसार भाव सब झूठा है ॥२८॥
*राम रटण छाड़ै नहीं, हरि लै लागा जाइ ।*
*बीचैं ही अटकै नहीं, कला कोटि दिखलाइ ॥२९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! माया चाहे अपने करोड़ों प्रकार के चमत्कार दिखावे, किन्तु साधक, साधन अवस्था में, मायिक सुखों से प्रभावित नहीं होवे और राम - नाम के स्मरण का त्याग कभी नहीं करे, अर्थात् समष्टि चैतन्य में व्यष्टि चैतन्य की विचार द्वारा लय लगाये रहे, वेही उत्तम पुरुष संसार से मुक्त होते हैं ॥२९॥
मन्यना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि में ॥ - गीता
हरि को अपना भक्त जन, तजै न जीवन मांहि ।
निज पद से हारेल ज्यूं, काष्ठ तजत है नांहिं ॥ - नारायण
सोरठा - चला मिले मग और पीर तीर्थंकर ईस सब ।
तज पहुँचा निज ठौर, जहँ अपना निज धाम है ॥
दृष्टान्त - एक परब्रह्म का उपासक अपने साधन - मार्ग में लगा हुआ था, तब एक कट्टरपंथी मौलवी उसको बहकाकर अपने इस्लाम धर्म में मिलाने की चेष्टा करने लगा, किन्तु वह अपनी ईष्ट - साधना में दृढ़ रहा और उसके बहकावे में आकर अपनी भक्ति - साधना को नहीं त्यागा ।
कुछ समय पश्चात् एक जैन - मुनि उसके पास आया और तीर्थंकरों की महिमा बखान करते हुए अपनी उपासना - पद्धति में दीक्षित करने की चेष्टा की, किन्तु वह उसके प्रभाव में नहीं आया और अपनी साधना - पद्धति को नहीं त्यागा । एक दिन एक पादरी साहब पधारे और उन्होंने उसे ईसा मसीह का अनुयायी बनने की सलाह दी ।
किन्तु वह अन्य मत - मतान्तरों के बाह्याडम्बरों में नहीं फँसा और अपने ही धर्म पर आरूढ़ रहा । अन्त में वह साधक अपने लक्ष्य निजधाम प्राप्ति की अद्वैत स्थिति में पहुँच कर परब्रह्म को प्राप्त कर लिया । अतः दृढ़ आस्थावान् व्यक्ति ही परमेश्वर को प्राप्त होता है ।
*उरैं ही अटकै नहीं, जहाँ राम तहँ जाइ ।*
*दादू पावै परम सुख, विलसै वस्तु अघाइ ॥३०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मायिक सुखों में मोहित न होवे, किन्तु जहाँ निर्वासनिक गुणातीत अवस्था में स्वस्वरूप का साक्षात्कार होता है, तहाँ ब्रह्माकार वृत्ति द्वारा जावे । वह पुरुष परम सुख का उपभोग करता है अर्थात् अतृप्त भाव से ब्रह्मानन्द में मग्न रहता है ॥३०॥
*दादू उरैं ही उरझे घणे, मूये गल दे पास ।*
*ऐन अंग जहँ आप था, तहाँ गये निज दास ॥३१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सांसारिक अज्ञानीजन स्त्री, पुत्र, धन और मायावी स्वर्ग-वैकुण्ठ के सुख तथा ऋद्धि-सिद्धि आदिकों में बहुत से लोग उलझ रहे हैं । और आशा-तृष्णा रूप फाँसी द्वारा बंधे हुए संसार में ही भ्रमते रहते हैं । किन्तु जो प्रभु के निष्कामी भक्त हैं, वे गुरु उपदेश के द्वारा स्वस्वरूप का अनुभव करके ब्रह्मानन्द में मग्न रहते हैं ॥३१॥
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*ब्रह्मतत्त्व पूर्ण व्यापक, निश्चल, एकरस है ~ दादूवाणी । पीव पहिचान का अंग, भाग-२, महंत श्री बजरंगदास जी महाराज,*
*https://youtu.be/0yzEbpIi2Wc*
*जामै मरै सो जीव है, रमता राम न होइ ।*
*जामण मरण तैं रहित है, मेरा साहिब सोइ ॥१५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिसमें जन्मना - मरना भाव है, सो साभास अन्तःकरण विशिष्ट जीव है । यह जीव अन्तःकरण सहित रमता राम नहीं होता । जो जन्म - मरण भाव से रहित है, वही हमारा साहिब ब्रह्म है ॥१५॥
*उठै न बैसै एक रस, जागै सोवै नांहि ।*
*मरै न जीवै जगतगुरु, सब उपज खपै उस मांहि ॥१६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! उस कारण ब्रह्म में उठना - बैठना, जागना - सोना, मरना - जन्मना, ये कोई भी क्रियाएँ उसमें नहीं है और वह सम्पूर्ण जगत् का गुरु है । अर्थात् अन्तर्यामी रूप से प्राणी मात्र के भीतर प्रेरणा करता है और एक रस रहता है । सम्पूर्ण नाम रूप जगत उसी में उत्पन्न होता है और उसी में लय हो जाता है, जैसै जल में लहर, तरंग, झाग, बुदबुदे उठते रहते हैं और विलय होते रहते हैं ॥१६॥
*ना वह जामै ना मरै, ना आवै गर्भवास ।*
*दादू ऊंधे मुख नहीं, नरक कुंड दस मास ॥१७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वह ब्रह्मतत्त्व एकरस है । उसमें जन्मना - मरना, गर्भवास में आना - जाना, ऊर्ध्व मुख होकर, दस महीने तक कुम्भी पाक नरक में झूलना, इन सम्पूर्ण क्रिया और विकारों से ब्रह्म रहित है । वही हमारा साहिब है ॥१७॥
न जायते म्रियते वा कदाचित नायं
भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ - गीता
*कृत्रिम नहीं सो ब्रह्म है, घटै बधै नहिं जाइ ।*
*पूरण निश्चल एक रस, जगत न नाचे आइ ॥१८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्म किसी का किया हुआ नहीं है । अनादि अजन्मा है और एक - रस ब्रह्म में घटना - बढ़ना रूप कोई प्रमाण नहीं बनता है । और वह ब्रह्मतत्त्व पूर्ण व्यापक, निश्चल, एकरस होने से, ‘‘जगत न नाचै आइ’’ अर्थात् निर्गुण निष्क्रिय है, उसमें किसी प्रकार की क्रिया रूप नृत्य नहीं है ॥१८॥
*परम तेज परापरं, परम ज्योति परमेश्वरं ।*
*स्वयं ब्रह्म सदई सदा, दादू अविचल स्थिरं ॥२६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परम श्रेष्ठ तेजोमय ब्रह्म, पर और अपर रूप से, परम ज्योतिर्मय परमेश्वर, वह आप स्वयं ब्रह्म चैतन्य, सदैव स्थिर रहने वाला है अर्थात् आप सदैव सत्य स्वरूप, अक्रिय और निश्चल है ॥२६॥
इन्द्रियेभ्यः पराह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः ।
मनसस्तु पराबुद्धिः बुद्धेरात्मा ततः महान् ॥
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्परः पुमान् ।
पुरुषान्तपरं किंचित्साकास्य सा परा गतिः ॥
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*परमात्मा ही सर्वश्रेष्ठ, सर्वोच्च उपास्य देव ~ दादूवाणी । पीव पहिचान का अंग, भाग-१, महंत श्री बजरंगदास जी महाराज,*
*https://youtu.be/U1McQfPBWqs*
*सारों के सिर देखिये, उस पर कोई नांहि ।*
*दादू ज्ञान विचार कर, सो राख्या मन मांहि ॥२॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वह पीव परमेश्वर, सृष्टि के सम्पूर्ण अन्यान्य उपास्य देवों के सिर पर विराजते हैं । उनके ऊपर दूसरा और कोई उपास्य देव नहीं है । ब्रह्मऋषि कहते हैं कि परमेश्वर के विचार रूप ज्ञान को ही हमने तो मन में धारण किया है । तुम भी उपरोक्त विचार को धारण करके पीव का साक्षात्कार करो अर्थात् ब्रह्म-विचार पूर्वक मन को अन्तर्मुखी करके आत्मा के स्वरूप में लगाओ ॥२॥
मत्तगयन्द
देवन के सिर देव विराजत,
ईश्वर के सिर ईश्वर कहिये ।
लालन के सिर लाल निरंतर,
खूबन के सिर खूब जू लहिये ॥
पाकन के सिर पाक सिरोमणि,
देखि विचार उहै दृढ़ गहिये ।
सुन्दर एक सदा सिर ऊपर,
और कछू हमको नहिं चहिये ॥
नेम लियो रजपूत इक, सब सिर होइ सो सेऊँ ।
नृप तज त्याग्यो बादशाह, साहिब शरण हि लेऊँ ॥
दृष्टान्त ~ एक संत ने एक राजपूत को उपदेश दिया कि नौकर का नौकर नहीं होना । राजपूत अपने घर से नौकरी करने चला । एक नगर में पहुँचा और नगर के साहूकार का नौकर हो गया । साहूकार को जागीरदार ने बुलाया ।
जब सेठ इसको अपने साथ चलने को बोला, तब यह पूछता है कि आप क्या उनके नौकर हो ? सेठ ~ ‘‘उनके गाँव में रहते हैं, उनके नौकर ही तो हैं ।’’ ‘‘मैं आपकी नौकरी नहीं करता ।’’ अपना हिसाब लेकर जागीरदार के यहाँ पहुंच गया और नौकरी करने लगा ।
पूर्व की भाँति जागीरदार को भी राजा ने बुलाया । इसने साथ जाने को इन्कार किया, बोला कि ‘‘मैं नौकर का नौकर नहीं रहता ।’’ राजा का नौकर जा बना । राजा को बादशाह ने बुलाया । इसने राजा के साथ जाने से इन्कार किया । अपना हिसाब ले करके बादशाह के यहाँ पहुंच गया । मिल्ट्री में नौकर हो गया ।
एक रोज बादशाह के साथ सैनिक टुकड़ी में यह भी था । जब बादशाह नमाज गुजारने जामा मस्जिद गये, तो वह सैनिक टुकड़ी बादशाह के साथ इन्तजाम पर गई । बादशाह मस्जिद में प्रवेश कर गया, सैनिक लोग बाहर खड़े रहे ।
जब बादशाह नमाज गुजारने लगा, तो यह झुक-झुक कर देख रहा था । बादशाह जब बाहर आये तो, इसने सलाम किया और बोला ~ ‘‘हुजूर ! आप किसकी खुशामद कर रहे थे ?’’ ‘‘जिसको तुम राम कहते हो, उसकी ।’’ ‘‘क्या हुजूर आप उसके नौकर हो ?’’ ‘‘उसका नौकर तो तमाम आलम है ।’’
तब बोला ~ ‘‘हुजूर ! मेरा इस्तीफा लीजिये । मैं तो जानता था कि आप किसी के नौकर नहीं हैं । जिसके आप नौकर हो, उसी की अब नौकरी करूंगा ।’’ अपना हिसाब लेकर, अपने घर को लौटकर आ गया । स्त्री ने पूछा ~ ‘‘नौकरी लगी कहीं ?’’ ‘‘हाँ, नौकरी लग गई है ।’’ ‘‘तनखा ?’’ ‘‘तनखा छह महीने में काम देखकर अपने आप ही दे देंगे ।’’
वर्दी पहन कर रायफल लेकर गाँव के बाहर एक मिट्टी का टीला था, उस पर टहल कर पहरा देने लगा । ‘‘उस परमेश्वर की सम्पूर्ण सृष्टि है । मैं पहरा देना जानता हूँ । सो यहाँ ही तीन घंटे की ड्यूटी देऊँ ।’’
इस प्रकार घूम - घूम कर कभी रात में, कभी दोपहर में, कभी दिन में, सेना की भाँति पहरा देता रहा । छह महीने हो गये । परमेश्वर ने देखा कि संत - वचन में विश्वास करके यह मेरा नौकर बन गया है । मैं किसी का नौकर हूँ नहीं । इसे तनखा देनी है ।
दो थैली अशर्फियों की उस टीले के ऊपर इसने देखी । गौर से पहरा देता रहा । जब ड्यूटी खत्म हुई, तब आवाज दी कि जिसका पहरा है, वह यह रकम संभाले, मैं जा रहा हूँ । तब आकाशवाणी हुई, ‘‘हे बन्दे ! तेरी यह छह महीने की तनखा है, इसे ले जा । और अब घर पर ही मेरी स्मरण रूप नौकरी कर, वहीं तेरा योग-क्षेम पूरा करूंगा ।’’
*सब लालों सिर लाल है, सब खूबों सिर खूब ।*
*सब पाकों सिर पाक है, दादू का महबूब ॥३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! हमारे तो परम प्यारे हमारे स्वामी परमेश्वर, सब लालों में एक अति श्रेष्ठ लाल हैं । सब खूबों में अर्थात् सुन्दरों में अति श्रेष्ठ, सबके शिरोमणि सुन्दर रूप हैं, और सब पवित्र करने वालों में अति श्रेष्ठ पवित्र करने वाले हैं । ऐसे प्रभु ही हमें अति प्रिय हैं । उन्हीं के नाम में हमारा मन अब लयलीन हो रहा है ॥३॥
लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल ।
लाली देखन मैं चली, मैं भी हो गई लाल ॥
छन्द ~
शेष महेश गनेश जहाँ लग,
विष्णु विरंचि हु के सिर स्वामी ।
व्यापक ब्रह्म अखंड अनावृत्त,
बाहिर भीतर अन्तरयामी ।
ओर न छोर अनंत कहैं गुण,
याही तैं सुन्दर है घन नामी ।
ऐसो प्रभु जिनके सिर ऊपर,
क्यूं परि है तिनको कहुँ खामी ॥
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*विपति भली हरि नाम सौं, विश्वास-संतोष ~ दादूवाणी । विश्वास का अंग, भाग-३, महंत श्री बजरंगदास जी महाराज,*
*https://youtu.be/rHL4v7HoPEs*
*विपति भली हरि नाम सौं, काया कसौटी दुख ।*
*राम बिना किस काम का, दादू संपति सुख ॥४१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यदि शरीर पर किसी प्रकार का दुःख भी आवे और प्रभु का नाम - स्मरण होता रहे, तो वह दुःख भी श्रेष्ठ है और राम के स्मरण बिना, नाना प्रकार की संपत्ति और सुख भी प्राप्त हों, तो वे किस काम के हैं । उनका फल तो अन्त में भारी दुःख ही होता है ॥४१॥
दुःख में सुमिरण सब करे, सुख में करे न कोई ।
जो सुख में सुमिरण करे, तौ दुःख काहे को होइ ॥
‘कबीर’ सुख के माथे सिल पड़ो, राम हृदय तैं जाइ ।
बलिहारी वा दुःख की, पल पल राम रटाइ ॥
कबीर वैष्णूं की कुटिया भली, टूटी घर की छांणि ।
ऊँचा मन्दिर जाल दे, जहाँ भक्ति न सारंगपाण ॥
सवैया
प्रीति न देखत हूँ पिरथा बिन,
भूत रु देव विपत्ति न माँगै ।
चाहत है मुख लाल हि देखन,
होहु दयालु कि द्यौ वन बागै ॥
व्याकुल देखि भरे प्रभु आँखिन,
फेरि लिये धन प्राण सु जागै ।
अन्तरध्यान भये सुन कानन,
ता छिन ही मछ ज्यों तन त्यागै ॥
- भक्तमाल
दृष्टान्त ~ पांडवों की माता कुन्ती देवी महाराज वसुदेव की सगी बहिन थी, अतः वह श्रीकृष्ण की बुआ लगती थी । वह एक आदर्श नारी और भगवान् की परम भक्त थी । बचपन में उसका नाम पृथा था, किन्तु राजा कुन्तीभोज को गोद दे दी गई थी, अतः उसको कुन्ती नाम से सम्बोन्धित किया जाने लगा ।
बचपन से ही वह सभी भूत प्राणियों में प्रभु की सत्ता मानती थी, अतः उसे किसी का भय नहीं था । वह भगवान् का मुख - कमल निरन्तर देखना चाहती थी ।
एक बार जब श्रीकृष्ण ने उसकी प्रेमाभक्ति से प्रसन्न होकर उसे कर मांगने को कहा, तो उसने विपत्ति रूप वर मांगा । इस पर श्रीकृष्ण ने पूछा - तुम सदा विपत्ति क्यों चाहती हो ? कुन्ती बोली - ‘‘विपत्ति के समय हम आपको याद करते हैं और तब आप हमारे पास रहते हैं, अतः आपका दर्शन होता रहेगा । हमें निवास तो चाहे आप वन, बाग, नगर आदि कहीं का भी दें, किन्तु आप अपना दर्शन सदा देते रहें ।’’
कुन्ती को प्रेम से व्याकुल देखकर श्रीकृष्ण के नेत्रों मे भी प्रेमाश्रु छलक आये । वह निरन्तर भगवान् का ध्यान करती रहती थी । जिस समय श्रीकृष्ण के परमधाम गमन की बात सुनी, उसी समय कुन्ती के प्राण - पखेरू उड़ गये । जैसे जल बिना मछली प्राण त्याग देती है, वैसे ही अपने शरीर को त्याग दिया था ।
*विश्वास संतोष*
*दादू एक बेसास बिन, जियरा डावांडोल ।*
*निकट निधि दुःख पाइये, चिंतामणि अमोल ॥४२॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमात्मा रूप चिंतामणि अपने अन्तःकरण में ही है, किन्तु विश्वास के बिना यह बहिर्मुख संसारी प्राणी, बाह्य साधनों में ही डावांडोल रहता है । उसको निष्काम नाम - स्मरण के बिना शांति सुख प्राप्त नहीं होता ॥४२॥
*विश्वास - संतोष*
*दादू कर्त्ता हम नहीं, कर्त्ता औरै कोइ ।*
*कर्त्ता है सो करेगा, तूं जनि कर्त्ता होइ ॥५२॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे परमेश्वर के भक्त संतजन, कर्त्तव्य भाव का अहंकार नहीं करते और निष्काम निर्द्वन्द्व रहते हैं । उनके शरीर का जो प्रारब्ध है, सो स्वतः भगवान् की प्रेरणा से पूर्ण होता रहता है । इसी से हे मुमुक्षुजनों ! संतों की धारणा का विचार करके, और ‘‘मैं कर्त्ता भोक्ता हूँ,’’ इस मिथ्या अहंकार का त्याग कर । क्योंकि यह अहंकार कर्मफल और संसार - बन्धन का कारण है । इसीलिए करणहार परमेश्वर की करणी में विश्वास करके, ब्रह्म - स्वरूप आत्मा के विचार में ही मग्न रहो ॥५२॥
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*भजन रूपी उद्योग परमात्मा के लिए ~ दादूवाणी । विश्वास का अंग, भाग-२, महंत श्री बजरंगदास जी महाराज*
*https://youtu.be/7AJnFwB9U6M*
*दादू उद्यम औगुण को नहीं, जे कर जाणै कोइ ।*
*उद्यम में आनन्द है, जे सांई सेती होइ ॥१०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! भजन रूपी उद्योग यदि अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा परमेश्वर से करे तो उसमें ब्रह्म - प्राप्ति रूप पूर्ण आनन्द है और फिर उस जिज्ञासु के अन्तःकरण में किसी प्रकार के कोई भी विकार नहीं उत्पन्न होते हैं अथवा व्यवहार में भी निष्काम भाव से कर्मयोग रूप उद्योग करे तो उनको कोई दोष नहीं लगता है, और फिर वह आत्मानन्द का अनुभव करता हुआ, जीवन - मुक्त हो जाता है ॥१०॥
इक उद्यम विश्वास दोऊ, राखे एकै स्थान ।
दो मोदक लिये भरे, दिये उद्यमी आन ॥
दृष्टान्त ~ एक पुरुष उद्यम को बड़ा बताता था, दूसरा विश्वास को बड़ा बताता था । दोनों एक संत के पास गये । अपने - अपने प्रश्न बताये । संत बोले ~ इस हमारी कुटिया में रात को रह जाओ । दोनों को पता चल जायेगा कि उद्यम बड़ा है या विश्वास । महात्मा ने कुटिया को अपने तपोबल से ठंडी बना दी ।
दोनों पुरुषों के कपड़े उतार कर उस कुटिया में बन्द कर दिया । विश्वासी ने सोचा कि मुझे तो जैसे बाहर बैठना था, वैसे ही विश्वास लेकर अन्दर बैठना है । उद्यमी ने विचार किया कि मैं तो उद्यम करता हूँ इसलिये उद्यम से ही मेरा काम होगा । यह विचार कर, वह दंड बैठक रूप उद्यम करने लगा ।
जब शरीर में गर्मी पैदा हुई, तब इधर - उधर दीवारों के शरीर की टक्कर देने लगा । महात्मा जी ने एक युक्ति बना रखी थी । जब उस दीवार के जाकर टक्कर लगी, तो वह दीवार टूट गई और हाथ देकर उसमें देखा तो एक डिब्बा मिला ।
उसको खोला तो, उसमें लड्डू भरे थे । फिर दुबारा हाथ दिया, तो गंगा - जल की एक शीशी मिली । तीसरे फिर हाथ बढ़ाया, तो लकड़ी, माचिस, फूस, सब मिल गया ।
सब बाहर निकाल कर कोठरी के बीच में अग्नि जलाकर धूनी सिलगा दी । कोठरी गर्म हो गई । डिब्बे से लड्डू निकाले । विश्वासी को भी दिये और आप भी खाये । दोनों ने जल पीया । सारी रात खूब आराम से सोये ।
सवेरे महात्मा जी उठे । कुटिया में धुआँ निकलता देखा । जान गये कि, हैं तो दोनों पक्के । दरवाजा खोला, दोनों ने गुरु महाराज को नमस्कार किया । उद्यमी बोला ~ गुरु जी उद्यम बड़ा । विश्वासी बोला ~ नहीं, गुरु जी, विश्वास बड़ा है ।
तब गुरु महाराज बोले ~ दोनों बराबर हैं । क्योंकि तैंने उद्यम किया तो, तुझे तो उद्यम से ही मिला है, इसने तो उद्यम नहीं किया, यह तो विश्वास ही धारण करके बैठा था, इसके विश्वास ने इसको दिया । परमेश्वर उद्यम द्वारा ही देते हैं । देने वाला एक ही परमेश्वर है । दोनों का संदेह निवृत्त हो गया । गुरुदेव का उपदेश लेकर दोनों ही इस संसार को पार हो गये ।
*दादू चिन्ता राम को, समर्थ सब जाणै ।*
*दादू राम संभाल ले, चिंता जनि आणै ॥१३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! राम जी महाराज समर्थ और अन्तर्यामी कहिए, सबके अन्दर की जानने वाले हैं । वह जीवों के भोजन, वस्त्र इत्यादिक चिन्ता को जानकर आप स्वयं ही उनकी पूर्ति करते हैं । इसलिए सम्पूर्ण चिन्ताओं को त्याग करके केवल एक राम - नाम का ही हृदय में स्मरण करो ॥१३॥
देखि घसियारो अश्व को, रातब अनरुचि खात ।
जाइ लुख्यो विश्वास गहि, हँस्यो देत मुख हाथ ॥
दृष्टान्त ~ एक घसियारा राजा के यहाँ घोड़े के लिए घास डालने गया । वहाँ देखा कि राजा के खास घोड़े को दो आदमियों ने तो दोनों तरफ से उसका मुख पकड़ रखा है और एक ने उसके सिर को पकड़ रखा है, जो हिलने न पावे । चौथा तीनों भाग बराबर का हलवा बना हुआ हाथ में लेकर, घोड़े के मुंह में हलवे का ग्रास देता है और घोड़ा हिनहिना कर खोपरी हिलाता है । इधर-उधर हलवा बिखेरता है । ऐसे ही उसको पुनः पुनः खिलाते हैं ।
घसियारा देख करके चकित हो गया और सोचा कि ऐसा हलवा तो हमें होली - दिवाली को भी खाने को नहीं मिलता है । यह सोचता हुआ चला आ रहा था । रास्ते में एक संत मिल गये । उनसे उपरोक्त वृत्तान्त सब कहा ।
संत बोले ~ ‘‘उस घोड़े को विश्वास है, अपने मालिक का ।’’ घसियारा बोला, ‘‘मैं भी विश्वास कर लूं तो उस घोड़े की तरह ही मुझे भी चार आदमी हलवा खिलावेंगे क्या ?’’ महात्मा बोले ~ ‘‘राम - नाम का स्मरण कर और एकान्त में विश्वास धारण करके बैठ जा, तूं चाहेगा वैसे ही खिलाएँगे, रामजी समर्थ हैं ।’’
घसियारा जंगल में जाकर छुपकर बैठ गया । चौथे रोज रामजी ग्वाल का रूप बनाकर, दो चार साथियों को साथ लिए उससे भी बढ़िया हलवा लेकर आ पहुँचे और बोले ~ ‘‘भाई ! यह महात्मा न मालुम कब से यहाँ भूखा बैठा है ।’’ सामने हलवा रख दिया ।
जब नहीं खाया, तब एक ने सिर पकड़ा, दो ने इधर - उधर मुख पकड़ा । चौथा हाथ में हलवा लेकर उसके मुंह में ग्रास देने लगा, तब हँसा और बोला, ‘‘अब मैं खा लूंगा । जो मेरी भावना थी, रामजी ने पूरी कर दी । अब मुझे निश्चय हो गया कि यह जीव राम का विश्वास करले तो कभी दुःख नहीं पावे ।’’
*दादू चिन्ता कियां कुछ नहीं, चिंता जीव को खाइ ।*
*होना था सो ह्वै रह्या, जाना है सो जाइ ॥१४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! प्रारब्ध कर्म अनुसार जो लाभ हानि होवे, सो स्वतः होता रहे । परन्तु मुमुक्षु प्रारब्ध - कर्म फल का ऐसा विचार करके हर्ष - शोक नहीं करते और सहज स्वभाव से रहते हैं । परमेश्वर का चिन्तन करते हैं । व्यर्थ चिन्ताओं को छोड़ दे और परमेश्वर का विश्वास रख ॥१४॥
चिन्तया नश्यते ज्ञानं चिन्तया नश्यते बलम् ।
चिन्तया नश्यते बुद्धिः तस्मात् चिन्तां परित्यजेत् ॥
‘तुलसी’ भरोसे राम के, निश्चिंत होकर सोय ।
अनहोनी होनी नहीं, होनी होय सो होय ॥
‘कबीर’ का तू चिंतवै, का तोहि चिंता होइ ।
आपन चिन्ता हरि करै, जो तोहि चिन्त न जोइ ॥
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*संतों को अनुकूल और प्रतिकूल एक समान हैं ~ दादूवाणी । विश्वास का अंग, भाग-१, महंत श्री बजरंगदास जी महाराज,*
*https://youtu.be/52NL2Op9sE8*
*दादू सहजैं सहजैं होइगा, जे कुछ रचिया राम ।*
*काहे को कलपै मरै, दुःखी होत बेकाम ॥२॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! प्रारब्ध कर्म अनुसार धीरे - धीरे जो कुछ राम ने इस स्थूल शरीर का भोग रचा है, प्राप्ति - अप्राप्ति, सुख - दुःख आदि में संत किसी प्रकार का हर्ष - शोक नहीं करते हैं और परमेश्वर की समर्थाई में विश्वास करके कर्म - फल के निमित्त चिन्ता नहीं करते । अनुकूल और प्रतिकूल उनको एक समान हैं ॥२॥
क्यों कलपै बेकाम को, चंचल राखै चित्त ।
मिटत न लिखे ललाट के, धीर गहै क्यों न मित्त ॥
भावी लिख्या सु पाइये, बिन भावी कुछ नाहिं ।
‘जगन्नाथ’ बहु पच मरै, प्रापति भावी माहिं ॥
असन बसन तब का दिया, गर्भ पडया जब बिंद ।
‘जगन्नाथ’ घट बढ़ नहीं, जे लिखिया गोबिन्द ॥
*सांई किया सो ह्वै रह्या, जे कुछ करै सो होइ ।*
*कर्ता करै सो होत है, काहे कलपै कोइ ॥३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सृष्टि - कर्त्ता परमेश्वर ने जो कुछ कर्म - फल रचा है, वह प्राप्त हो रहा है और भविष्य में जो कुछ कर्मानुसार फल देंगे, वह होगा । कर्त्ता जीव ने जैसे कर्म किये हैं, उनका वैसा ही सुख दुःख का फल होता है । कर्मफल भोगने में अब क्यों कल्पना करते हो ? और परमेश्वर तो परम दयालु हैं, वह निरंतर ही जीव का कल्याण करते हैं अर्थात् कर्मफल भोगने में विश्वास दिलाकर अपनी शरण में रखते हैं ॥३॥
*दादू करणहार कर्त्ता पुरुष, हमको कैसी चिंत ।*
*सब काहू की करत है, सो दादू का मिंत ॥७॥*
टीका ~ यहाँ भी किसी वादी ने परम गुरुदेव से प्रश्न किया कि महाराज ! आप लोगों के शरीर - निर्वाह का क्या साधन है ? उसके उत्तर में ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज बोले ~ हे भाई ! माया विशिष्ट ईश्वर, इस सृष्टि का रचयिता है, वह इस जड़ चेतन सृष्टि को रचकर सबका पालन करता है अर्थात् उसी को सबकी चिंता है । हमको इस विषय में क्या चिंता करनी है, हम क्या अलग रह जाते हैं ? हम तो विश्वास धारण करके उसके नाम - स्मरण में ही रत्त रहते हैं ॥७॥
छाजने भोजने चिन्ता वृथा कुर्वन्ति वैष्णवाः ।
असौ विश्वम्भरो देवो भक्ताः किमन्वेक्ष्यते ॥
*दादू मनसा वाचा कर्मणा, साहिब का विश्वास ।*
*सेवक सिरजनहार का, करे कौन की आस ?८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मन - वचन - कर्म से, परमेश्वर का विश्वास धारण करके जो निष्काम भाव से नाम - स्मरण करते हैं, वे अनन्य परमेश्वर के भक्त, परमेश्वर को छोड़कर फिर किसी भी देवी - देव, राजा - महाराजा आदि की आशा नहीं करते ।
बिन परिचय परिचय भया, जब आया विश्वास ।
जन रज्जब अज्जब कही, सुनहु स्नेही दास ॥
लई मृग के सींग पर, रोटी जुत विश्वास ।
जब रोटी आई नहीं, त्याग दई तब आस ॥
दृष्टान्त ~ एक संत के पास एक पुरुष आकर बोला ~ महाराज ! आप कहाँ से खाते - पीते हो ? आपको कौन देता है खाने को ? संत ~ ‘‘हमें परमेश्वर देता है, उसका हमें विश्वास है ।’’ ‘‘तो क्या मुझे भी परमेश्वर दे देगा, मैं नहीं कमाई करूंगा तो ?’’
संत ~ ‘‘तुझे विश्वास होगा तो, जरूर देगा ।’’ ‘‘कहाँ विश्वास करूं ?’’ संत - ‘‘निर्जन स्थान में जाकर, उसका विश्वास धारण करके बैठ जा । नाम स्मरण करता रह ।’’ ‘‘यदि मैं यह चाहूँ कि मृग के सींग पर रोटी आवे, तो क्या उसी प्रकार आवेगी ?’’ ‘‘हाँ, वैसे ही आ जावेगी ।’’
तब जंगल में जाकर, बैठ गया और परमेश्वर के नाम का स्मरण करने लगा और निश्चय किया कि मृग के सींगों पर रोटी आएगी, तभी खाऊँगा । परमेश्वर तो श्रद्धा, विश्वास में ही है । तीन रोज हो गये । चौथे रोज मृग का रूप बनाया और दो - दो रोटी और सूखी सब्जी, दोनों सींगों पर धारण किये हुए, सामने लेकर खड़े हो गये ।
आवाज हुई कि हे बन्दे ! जैसा तेरा विश्वास था, उसी प्रकार तेरे लिए रोटी आयी है, आँख खोलकर देख । जब आँख खोलकर देखा, तो उठकर मृग के सींगों पर से रोटियाँ उतार ली और खाने लगा । बड़ा खुश हुआ ।
फिर राम - राम करने बैठ गया । तीन दिन तक इसी प्रकार रोटी आती रही और खाता रहा । चौथे रोज भगवान् ने सोचा कि जरा परीक्षा तो कर लें, विश्वास है कि नहीं ? जब रोटियाँ लेकर मृग नहीं आया, इधर - उधर देखने लगा ।
फिर तो खड़ा होकर जंगल में घूमने लगा । जिधर से मृग आता था, उधर देखने लगा । ऐसे ही सायंकाल हो गया । तब विश्वास छोड़ दिया और महात्मा के पास आ गया । पूर्वोक्त वृत्तान्त महात्मा को कह सुनाया । महात्मा बोले ~ अब कमाओ खाओ, अब नहीं लावेगा ।
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*सफलता के लिए सोच विचार कर ही कहें, करें ~ दादूवाणी । विचार का अंग, भाग-८, महंत श्री बजरंगदास जी महाराज,*
*https://youtu.be/twBu1jt0eKU*
*पहली प्राण विचार कर, पीछे कुछ कहिये ।*
*आदि अंत गुण देखकर, दादू निज गहिये ॥४६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! पहले अन्तःकरण में शब्द के फलाफल का कुछ विचार करके, फिर किसी को कुछ कहना । शब्द के आदि अन्त का गुण देखकर हृदय में निश्चय करना ॥४६॥
सेठ गयो हरिद्वार को, लाख रुपया धर तीर ।
संकल्प्यो नहीं, ढील करी, मच्छ ले गयो नीर ॥
दृष्टान्त ~ एक सेठ लाख रुपया धर्म करने को हरिद्वार लेकर गया । गंगा जी की तीर पर रुपयों की थैली रख दी और विचार किया कि पहले स्नान वगैरा कर लूं, उसके बाद दान करूंगा । उसने यह विचार नहीं किया कि शुभ कर्म जितना जल्दी हो सके, कर लें । वह स्नान करने को गंगा जी में गया । लाख रुपयों की थैली मगरमच्छ घसीट कर जल में ले गया । सेठ के सहित सभी लोग देखकर चकित हो गये और पश्चात्ताप करने लगे ।
*दादू सोच करै सो सूरमा, कर सोचै सो कूर ।*
*कर सोच्यां मुख श्याम ह्वै, सोच कियां मुख नूर ॥४८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जो उत्तम - पुरुष कार्य करने से पहले फलाफल का विचार करके फिर प्रवृत्त होता है, उसके चेहरे पर ओज रहता है । और जो अविवेकी पुरुष कार्य के आदि अन्त का विचार न करके कार्य करता है और उसका फल दुःखदायी होता है । फिऱ सोचता है कि पहले इस प्रकार विचार करके करता तो यह दुःख न होता । कार्य बिगाड़कर सोचने वाले ऐसे कायर पुरुष के चेहरे पर कलंक लगता है ॥४८॥
पूरब बुधि जिन ऊपजै, तिन सुख अति आनन्द ।
‘जगन्नाथ’ पश्चिम मति, ते कहिये मति – मन्द ॥
जिनके आवै आदि ही, अकल कला जगदीश ।
जगन्नाथ सो नर नहीं, सुर है विस्वाबीस ॥
*जो मति पीछे ऊपजै, सो मति पहली होइ ।*
*कबहुं न होवै जीव दुखी, दादू सुखिया सोइ ॥४९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जो मति, परम विवेक रूप बुद्धि, कार्य बिगड़ने के बाद उत्पन्न होती है, वह बुद्धि ईश्वर कृपा और गुरु कृपा से यदि पहले उत्पन्न हो जावे, तो वह जीवात्मा दुःखों को प्राप्त नहीं होता, अपितु जीवात्मा परम सुख को अनुभव करता है ॥४९॥
कबीर पहली ऊपजै, सुधी सुजान सो जान ।
पीछै उपजै अज्ञानि के, मानै दुख परियांन॥
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*सुख-दुःख, कोमल-कठिन, विचार कर ही कुछ निर्णय करें ~ दादूवाणी । विचार का अंग, भाग-७, महंत श्री बजरंगदास जी महाराज,*
*https://youtu.be/NDsiy_nS_-4*
*सुख मांहि दुख बहुत हैं, दुख मांही सुख होइ ।*
*दादू देख विचार कर, आदि अंत फल दोइ ॥४१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! मायावी सांसारिक सुखों के उपभोग में और प्राप्ति करने में बहुत दुःख होता है, अर्थात् जन्म - जन्मान्तरों तक जीव दुखी ही रहता है और परमेश्वर की प्राप्ति के साधन योग, भक्ति, वैराग्य, ज्ञान आदि के साधने में दुःख अवश्य है, परन्तु फिर बाद में उसका फल अखंड ब्रह्मानन्द रूप सुख प्राप्त होता है । इसलिये गुरु उपदेश व शास्त्र - श्रवण द्वारा ब्रह्मतत्त्व का मनन करके निदिध्यासन करिये ॥४१॥
करहा कर कर क्यों करै, भार घणों घर दूर ।
मैं तोहि बरजत क्यों लियो, गहण गलंता सूर ॥
दृष्टान्त ~ सूर्य ग्रहण के पर्व पर बहुत से यात्री कुरुक्षेत्र में एकत्रित हुए । यथाशक्ति स्नान, दान करने लगे । एक राजा सोने की मूंछ बनवाकर गहते ग्रहण में दान करने लगा । उस समय विद्वान् लोगों ने लेने से इन्कार कर दिया ।
तब एक प्रभावी ब्राह्मण ने स्त्री के मना करने पर भी दान ले लिया और उस सोने को इन्द्रियों के सुखों के उपभोग में व्यय करता रहा, परन्तु स्त्री ने उसमें से लेशमात्र भी अपने उदर में नहीं जाने दिया ।
वह ब्राह्मण शरीर छोड़कर चौरासी में गया और स्त्री शरीर छोड़कर राजकन्या बनी । राजा ने किसी सुयोग्य राजकुमार के साथ उस कन्या का विवाह कर दिया । वह ब्राह्मण राजा के यहाँ ऊँटनी का बच्चा बना । वह बड़ा हो गया । वह राजकन्या उसको जानती थी कि यह मेरा पूर्व जन्म का पति है ।
जब राजा ने बहुत सा उसे दहेज दिया, तब वह बोली ~ पिताजी यह ऊँट भी मुझे दे दीजिये । ऊँट दे दिया । उस ऊँट पर नौकरों ने डेरे तम्बू आदि लाद दिये, परन्तु उसकी पीठ पर एक कीला चुभने लगा । जब वहॉं से रवाना हो गये, तब वह ऊँट दर्द से ‘‘ऐं, ऐं, ऐं.......’’ करता चलने लगा ।
राजकन्या अपनी डोली में से बोली ~ ‘‘हे करहा = ऊँट ! अब क्यों ‘‘कर कर’’ करता है ? मैं जानती हूँ, तेरे ऊपर बोझा बहुत है और घर दूर है, परन्तु मैंने तेरे को मना कि या था कि सूर्य ग्रहण में दान मत ले । उस इन्द्रिय सुख का अब तूं भारी दुःख भोग रहा है ।’’
*कोमल कठिन, कठिन है कोमल, मूरख मर्म न बूझै ।*
*आदि रु अंत विचार कर, दादू सब कुछ सूझै ॥४३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! कोमल स्त्री आदि पदार्थ सुख रूप प्रतीत होते हुए भी परिणाम में अति कठिन दुःख रूप हैं और संसार - बंधन का कारण हैं । सत् - शास्त्र का मार्ग तथा गुरु संत के वचनों की धारणा में कष्ट होते हुये भी उनका फल परम आनन्द मुक्ति रूप है । इसलिए आदि अंत का विचार करके जो आत्मा का चिन्तन करता है, वह इस मर्म को जानता है ॥४३॥
कोमल वचन कामिनि कहै, माया रूपी नार ।
साधु वचन क़ड़वा कहै, रज्जब देखि विचार ॥
खोती महलां तले खड़ी, देखी नानक नैन ।
बादशाह की हुरम थी, कहे सिषन सौं बैन ॥
दृष्टान्त ~ नानक जी लाहौर में भाई बाला और मर्दाना के साथ जा रहे थे । बादशाह के महलों के पीछे एक गर्दभी खड़ी रो रही थी । पीठ में कव्वे घाव करके मांस खा रहे थे । नानक जी यह देखकर हँसने लगे । मर्दाना बोला ~ गुरु महाराज ! यह गर्दभी रो रही है और आप हँसते हो, तब नानक जी बोले ~
झीना वस्त्र पहनती, फूलां डंक चुभैइ ।
ऐसा सुकृत ना किया, कोई बोरा तप्पड़ दैइ ॥
हे मर्दाना ! यह बादशाह की पहले जन्म में हुरम थी । इसने बहुत प्रमाद किया था । कुछ भी ईश्वर भक्ति, धर्म, पुण्य आदि सुकृत नहीं किया । कोमल - कोमल फूल भी चुभते थे । मायावी सुखों का उपभोग करती रही । उसका फल यह हुआ कि यह मर कर गर्दभी बनी और कुम्हार ने इसको खूब लादी ।
जब यह कमजोर हो गई, तब इसके घाव के ऊपर बोरी का तपड़ डालकर छोड़ दी । यह जानती है कि इन महलों में मैंने पहले इन्द्रियों के सुख - भोग भोगे थे । उसी को याद कर - करके रोती है और मन में सोचती है कि अब मेरी कोई बात नहीं बूझता है ? इसलिये हमको हँसी आ गई कि इतने बड़े घर में आकर भी इसने ईश्वर प्राप्ति के लिये कोई सत्कर्म नहीं किया ।
*पहली प्राण विचार कर, पीछे पग दीजे ।*
*आदि अंत गुण देख कर, दादू कुछ कीजे ॥४४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कोई भी व्यावहारिक या परमार्थिक कार्य हो, पहले श्वास में उसके आदि और अन्त के फल का विचार करके प्रारंभ करना चाहिये ॥४४॥
चिरकाल गौत्तम सुमन, तात कहि हत माइ ।
मात दोस गुण पितु वचन, संसे रह्यो समाइ ॥
दृष्टान्त ~ गौतम ऋषि अपने पुत्र की परीक्षा हेतु बोले ~ ‘तुम अपनी माता को मार दो’ । पुत्र ने विचार किया कि माता के मारने में तो भारी पाप है । परन्तु फिर विचार किया कि पिता की आज्ञा की अवहेलना करने से तो इससे भी बड़ा पाप होगा ।
यह सोचकर माता की गर्दन पर एक हथियार मारा कि उसी समय माता की मृत्यु हो गई । पिता पुत्र को आज्ञाकारी जानकर अति प्रसन्न हुए और बोले ~ पुत्र ! मांग वरदान । पुत्र बोला ~ हे पिता ! मेरी माता जीवित हो जावे और उसके मन में यह भावना न रहे कि मेरे पुत्र ने मुझे मारा था । पिता ने कहा ~ जाओ, ऐसा ही हो । तत्काल माता जीवित हो गई ।
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*ब्रह्मवेत्ता को काम, क्रोध, जन्म, मरण नहीं व्यापते ~ दादूवाणी । विचार का अंग, भाग-६, महंत श्री बजरंगदास जी महाराज,*
*https://youtu.be/wMXauZW3rHU*
*काया मांही भय घणा, सब गुण व्यापैं आइ ।*
*दादू निर्भय घर किया, रहे नूर में जाइ ॥२९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब तक मन, शरीर के आकार रूप में रहता है, तब तक इसको अनेक प्रकार के भय नाम डर, काल - कर्म, जन्म - मृत्यु, संसार - बन्धन, ये सब व्याप्त होते रहते हैं । जब यह मन सतगुरु ज्ञान को प्राप्त करके निर्भय घर में कहिए, आत्म - स्वरूप में स्थिर होता है, तब यह ब्रह्मरूप हो जाता है ॥२९॥
*खड्ग धार विष ना मरै, कोइ गुण व्यापै नांहि ।*
*राम रहै त्यों जन रहै, काल झाल जल मांहि ॥३०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सच्चे मुक्त ब्रह्मनिष्ठ पुरुष न तो तलवार से, न हलाहल से ही मर सकते हैं, जैसे प्रह्लाद, मंसूर आदि हुए और न उनको कोई शारीरिक गुण - विकार ही लगता है । इस प्रकार वे गुणातीत संतजन राम की तरह अविनाशी, अजर, अमर होकर रहते हैं । जैसे कालरूप अग्नि की झल, जल को नहीं जला सकती, वैसे ही काल और काल के जाल काम, क्रोध, जन्म, मरण, उन ब्रह्मवेत्ताओं को नहीं व्यापते हैं ॥३०॥
मीरा अंगद आदि बहु, रघड़ दासी नेह ।
जहर दिये नाहीं मरे, सब प्रह्लाद की देह ॥
कवित्त
राणाजी के काका कामी, अंगद अपार नामी,
ध्यायो है अन्तर्यामी, जहर जरायो है ।
शंकर सदैव शुद्ध प्रहलाद प्रथम भये,
मीरा बाई मेड़ते में प्रभु पीव पायो है ॥
हनुमान खड़ग सौं मारे मेघनाद बचे,
गाये सच्चे नाथ हरी नीके मन भायो है ।
हरिदास विसवासी राखिये रटत राम,
पाये पर्म धाम श्याम भली भांति गायो है ॥
नाम लेत तूही तूही करै, फिर हूँही हूँही कहि पीर ।
गुरु त्रास दई शिष्य को, कट्या न रोम शरीर ॥
दृष्टान्त - एक उत्तम जिज्ञासु, किसी सच्चे महापुरुष की शरण में आकर बोला कि मुझे परमेश्वर प्राप्ति का उपदेश देओ । संत बोले - "तूं ही, तूं ही" किया कर । जब वह इस अभ्यास को करते करते तन्मय हुआ, तब "हूँही हूँही" करने लगा । गुरु बोले - हूँही हूँही नहीं, तूंही तूंही । फिर बोलने लगा - "तूंही तूंही" । फिऱ कुछ देर में होने लगी "हूँही, हूँही" । तब गुरु ने तलवार उठाकर उसके शरीर पर मारी तो तलवार इधर से उधर निकल गई, परन्तु एक रोम भी शरीर का नहीं कटा, क्योंकि वहाँ तो ब्रह्म का स्वरूप प्रकट हो गया था । गुरु ने निश्चय किया कि इसका उद्धार हो गया ।
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