Muni samaj
ज्ञान में ही शक्ति है आत्मज्ञानी सबसे बड़ा ज्ञान है
आज गुरुदेव जयन्ती है. आज सद्गुरुदेव योगेश्वर मुनीश्वर श्री श्री शिवमुनि महाराज जी की जयन्ती है.आज बहुत प़तीक्षित मुनियों का पवित्तम त्योहार है. आज के दिन मुनिलोग अधिवेशन के रुप में, कहीं कहीं गोष्ठी के रूप में, नहीं तो अपने घरों को सजाकर श्रद्धा और उल्लास के रूप में मनाते हैं.धन्य है वह सद्गुरुदेव जो हमें मजहब, राजनीति एवं अन्ध विश्वास के अन्धकार से छुडा़कर आत्मज्ञान एवं ब़ह्मज्ञान का अनूठा ज्ञान रूपी प्रकाश दिया.
आज के दिन हम उस सद्गुरुदेव के ज्ञान को आगे बढा़वे अन्य लोगों को भी सुखी, स्वतंत्र स्वस्थ निरामय जीवन का पाठ पढ़ाने.
आज उस महान योग के पुनरूद्धारक स्वतंत्र ज्ञान के अधिष्ठाता सद्गुरुदेव को कोटिशः कोटिशः नमन एवं वन्दन ..
सद्गुरुदेव श्री शिवमुनि महाराज जी की जय, सत्य ज्ञान की जय, अ. भू. सर्व शिरोमणि मुनि समाज की जय.
बालेश्वर मुनि.
अभिनिवेश
मरणभय को अभिनिवेश कहते हैं। यह भी अत्यधिक दु:खदायी होता है। जब किसी को फांसी की सजा सुना दी जाती है तो उसके उपर दु:ख का पहाड़ टुट पड़ता है। मान लिजिए कि अभी किसी को ३ महीने बाद फांसी होने वाली है। ३ महीने 90 दिन का होता है, पर मरणभय इतना बड़ा होता है कि इसके उपस्थित हो जाने से इसका यह 90 दिन का जीवन भी वेकार हो जाता है। लोग कहते हैं कि हट्टा-कट्टा और बलवान तथा पुरुषार्थी मनुष्य भी फांसी की सजा सुनकर अत्यन्त निर्बल कायर और पीला हो जाता है। एक ही दिन भर में ऐसा मनुष्य इतना निर्बल हो जाता है कि कोई काम करना तो दूर की बात है, 20-25 गज भी आसानी से चलने योग्य नहीं रह जाता। यह अभिनेवेश यानी मरणभय इतना दु:खदायी होता है कि फांसी की सजा सुनने के बाद मनुष्य एक तरह से उसी वक्त मर जाता है और किसी काम के योग्य नहीं रह जाता। अत: यह अभिनेवेश भी जब तक किसी के हृदय में वर्तमान है तबतक उस मनुष्य की बुद्धि चित्त या दिमाग ठिकाने नहीं रह सकता। अभिनेवेश के दु:ख से दु:खी मनुष्य संसार का कोई काम ठीक से नहीं कर सकता। अभिनिवेश युक्त मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता।
अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनेवेश यही पांच क्लेश हैं। हमने पहले ही कहा है और सूत्रकार का भी मत है, जिसे हम सिद्ध कर चूके हैं, कि तमाम क्लेश अविद्या के कारण होते हैं। अत: अभिनेवेश भी अविद्या के कारण ही होता है। यह मरणभय ऐसा है कि बड़े-बड़े चतूर और पढ़े-लिखे भी इससे छूटे नहीं है। इसी बात को सूत्रकार मुनिवर पतंजली ने अपने योगदर्शन शास्त्र के साधनपाद के नवें सूत्र में निम्नलिखित प्रकार से कहा है-
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथा रुढ़ोऽभिनिवेशा: ।।९।।
केवल प्राकृतिक प्रवाह या संसार प्रवाह का ज्ञान रखने वाले पंडित और चतुर लोग भी अविद्वानों या मूर्खों की तरह इस मरणभय अभिनिवेश से युक्त रहते हैं। बात यह है कि जन्म-मरण का चक्र सूर्य्य के उदयास्त की तरह, घड़ी की सूई की तरह, नदी के प्रवाह की तरह अथवा पनचक्की की चक्की की तरह बराबर अनिवार्य रुप से चल रहा है, इसे देखकर जड़ पदार्थ के विज्ञानवेत्ता पंडित भी मरणभय से कांप उठते हैं। यद्यपि यह भय आध्यात्मिक ज्ञान के न होने से ही अर्थात् अविद्या के कारण ही होता है और प्रतीत होता है।
बात यह है कि संसार के जितने तत्त्व हैं वह केवल दो कोटि में विभक्त हो सकते हैं। जैसे एक जड़ दूसरा चेतन। जड़ पदार्थ नियम प्रकृति या स्वभाव के वश में हैं, पर आत्मा या कोई चेतन तत्त्व किसी नियम, आदत या प्रवृत्ति के वश में नहीं है। चेतन जब चाहे तब सब नियमों को तोड़कर अपने मन से भी चल सकता है; क्योंकि उसके पास अपना मन और अपनी इच्छा भी है। सूर्य्य प्रात:काल उदय होकर फिर पीछे नहीं लौट सकता , पर मनुष्य अपने घर से बाजार जाने के लिए निकल कर थोड़ी दूर जाकर भी पीछे आ सकता है। नित्य बाजार जाता हुआ भी किसी-किसी दिन इच्छा होने पर नहीं भी जा सकता, पर सूर्य्य कभी ऐसा नहीं कर सकता। घड़ी की बारह से चार की ओर जाती हुई सूई बीच से ही पीछे नहीं लौट सकती;क्योंकि घड़ी के पास अपना मन नहीं है, वह तो जड़ है। जो जड़ है, वह नियम के वश में है, वह घड़ी बनानेवाली आत्मा के नियमों के अधीन में हैं। घड़ी के पास अपना मन नहीं है। जिसमें जितनी जड़ता है, वह उतना ही परवश है और प्राकृतिक प्रवाह के अधीन है।
जैसे एक कमल का हरा और जीवित पौधा पत्थर की तरह जड़ नहीं है, पर एक मनुष्य के इतना चेतन भी नहीं है। अत: कमल मनुष्य से अधिक प्राकृतिक नियमों के अधीन है। सूर्य्योदय होते ही कमल खिल उठता है और सूर्य्यास्त होते ही सिकुड़कर मुंद जाता है, पर मनुष्य सूर्य्यास्त होने के बाद भी कोई-कोई अपनी इच्छा से रात-रात भर नाच देखते, पढ़ते रहते या काम करते रहते हैं। सूर्य्योदय होने पर भी जो नित्य प्रात:काल उठ जाते हैं , वह भी कभी -कभी उठने का मन न होने पर आठ वजे दिन तक सोते रहते हैं। जो जड़ है, वह अपने मन से कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि जड़ होने के कारण उसके पास मन, बुद्धि या विचार है ही नहीं।
इसे हम अपने दूसरे लेखों, ग्रन्थों और पुस्तकों में दूसरी तरह से बड़े विस्तार के साथ लिख चूके हैं। मतलब इस लेख का यह है कि मनुष्य सर्वदा स्वभाव, प्रकृति या नियम के अधीन नहीं है। मनुष्य नियम, प्रकृति या किसी भी वस्तु के अधीन में उतना ही है जितना वह स्वयं उसके वश में रहना चाहता है। मनुष्य यूवा के वश में है, पर जिस दिन से वह जूवा सचमूच न खेलना चाहे, वह यूवा छोड़ सकता है। जूवा मनुष्य के अधीन है मनुष्य यूवा के अधीन में सचमूच नहीं है। जूवा जड़ है मनुष्य चेतन है। शराब या कोई भी बिषय मनुष्य को वश में नहीं कर सकता यदि मनुष्य स्वयं उसके वश में न होना चाहे। चेतन के पास अपना मन और अपनी आत्मा भी है। इस आत्मा और मन के पास अपार। अथाह, असीम और अनन्त बल है, इस आत्मबल और मनोबल का महत्व, रहस्य और गूप्त भेद जानना हो तो हमारा बनाया हुआ 'आत्मबल, मनोबल और इच्छाशक्ति' नाम का ग्रन्थ देखिए; यह एक अद्भूत ग्रन्थ है।
यह सिद्ध है कि मनुष्य चेतन होने के कारण तमाम नियमों से परे है; कोई उसे अपने वश में नहीं कर सकता यदि वह स्वयं उसके वश में न होना चाहे। अत: अब कहना यह है कि इस आध्यात्मिक ज्ञान से युक्त योगी पुरुष या सच्चा मुनि , सचमूच जबतक स्वयं मरना न चाहेगा तब तक नहीं मरेगा। सच्चा ज्ञानी और योगी मृत्यु के वश में नहीं होता, किन्तु मृत्यु ही उसके वश में होती है। एक फांसी पाने वाला ही क्यों मरण भय से कांप रहा है? क्या वह नहीं मरेगा, जिसे फांसी की सजा नहीं सुनाई गई? वह भी मरेगा। पर दूसरे लोगों की मृत्यु एक तारीख को निश्चित और नियत नहीं है, पर फांसी पाने वाला अपने को मृत्यु के वश में पाता है; क्योंकि उसके मृत्यु की तारिख नियत है और वह उसे टालने में अपने को असमर्थ पाता है, अत: वह अपने को मृत्यु के वश में पाकर घबड़ाता है। जेलर भी जेल ही में रहते हैं। सिविल सर्जन भी नित्य जेल में जाते हैं। पर इन लोगों के लिए जेल दु:खदायी नहीं होता, इसलिए कि यह लोग जेल में बन्द होकर या कैद होकर नहीं रहते। ठीक इसी तरह से यदि आप अभिनेवेश के वश में नहीं है तो आपके लिए मृत्यु दु:खदायी नहीं हो सकती । अपनी इच्छा से लाल मार्च खाने में भी स्वाद मिलता है। इसलिए इस चेतन आत्मा के बल का जिसे सच्चा ज्ञान हो गया-जिसकी अविद्या नष्ट हो गई-वह अभिनिवेश नाम के कष्ट से छूट जाता है। योग से अभिनिवेश केवल क्षीण होता है, पर साथ ही साथ जब सदगुरु के उपदेश से सच्चा आत्मज्ञान हो जाता है, तब सचमूच मरण भय अर्थात अभिनिवेश समूल नष्ट हो जाता है। इस सूत्र की व्याख्या पढ़नेवाले हमारा 'शरीर से अमर होने का उपाय' नाम का ग्रन्थ अवश्य देख लें, जो हमारे रचे हुए ग्रन्थों में एक अद्भूत ग्रन्थ है।
( मुनिसमाज के प्रवर्त्तक: आदि मुनीश्वर योगेश्वर शिवमुनि जी द्वारा रचित पुस्तक "योगदर्शन शास्त्र: द्वितीय भाग, हिन्दी मुनीश्वर भाष्य" के अध्याय ६ से उद्धृत )
अस्मिता का स्वरुप और लक्षण
इस योगदर्शन शास्त्र के तीसरे सूत्र की व्याख्या में अस्मिता का वर्णन बड़े विस्तार के साथ पहले ही हो चूका है। अस्मिता वा अहंकार के विषय में भी लोगों की वहुत ही उल्टी धारणा है। हमने वहां सिद्ध किया है कि अविद्यायुक्त या अविद्याजन्य जो अहंकार है उसी का नाम अस्मिता है। सच्चा और ज्ञानमय अहंकार त्याज्य नहीं है।
साधनपाद के पांच सूत्रों की व्याख्या हो चूकी है। इस लेख में ६ ठें सूत्र की व्याख्या होगी जिसमें अस्मिता का स्वरुप या लक्षण सूत्रकार ने स्वयं भी किया है। सूत्र निम्नलिखित प्रकार से है-
दिग्दर्शनशक्तयोरेकात्मतेवास्मिता ।।६।।
अर्थ:- दृग्दर्शन शक्तियों की एकात्मता जिसमें हो उसे अस्मिता कहते हैं।
दृक्शक्ति आत्मशक्ति को कहते हैं;क्योंकि आत्मा ही द्रष्टा है। अपना आप ही अपनी आत्मा ही सब विषयों को इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष करती है। इन्द्रियां विषयों को नहीं प्रत्यक्ष करतीं; किन्तु इन्द्रियों द्वारा आत्मा प्रत्यक्ष करती है। इन्द्रियां तो मूर्दों को भी रहती हैं, पर आत्मा के न रहने पर कोई भी इन्द्रिय किसी भी विषय को प्रत्यक्ष नहीं कर सकती। अत: जो आत्मा इन्द्रियों द्वारा सारे विषयों को प्रत्यक्ष करती है वही आत्मा या जीव अथवा अपना आप द्रष्टा है।
आंख द्वारा रुप का, कर्ण द्वारा शब्द का, नासिका द्वारा गन्ध का, रसना द्वारा रस का और त्वचा द्वारा स्पर्श का आत्मा प्रत्यक्ष करती है इसलिए यह आत्मा या जीव द्रष्टा है; पर जिन विषयों का दर्शन इन्द्रियों द्वारा होता है वे अनात्मा हैं, जड़ हैं और वेजान होने से मिथ्या भी हैं। आत्मशक्ति को कोई देख नहीं सकता, पर कुछ शक्तियां ऐसी हैं, जिनका दर्शन होता है, देख सकते हैं, जिनका प्रत्यक्ष होता है। जैसे धन की शक्ति, राज्य की शक्ति, इञ्जिन की शक्ति स्थान की शक्ति और वहुत से दूसरे पदार्थों की शक्ति। अत: दो शक्तियां हैं- एक आत्मशक्ति, दूसरी अनात्मशक्ति; एक दृकशक्ति और दूसरी दर्शन शक्ति।
राज्यशक्ति, धनशक्ति, स्थानाधिकारशक्ति का अहंकार करना अस्मिता है। राज्यशक्ति, धनशक्ति आदि दर्शनशक्तियां हैं, क्योंकि आप राज्य, जंमीदारी, घर, सोना और चांदी को देख सकते हैं। पर आत्मशक्ति को देख नहीं सकते, इसलिए यह दर्शनशक्ति नहीं है। आत्मशक्ति दृकशक्ति है, क्योंकि यह अपना आप ही सब का द्रष्टा है। लेकिन दर्शन केवल आनात्म पदार्थ का होता है और जो अनात्मा है, वह अपना नहीं है। आत्मशक्ति का अर्थ ही है अपनी शक्ति और अनात्मशक्ति का अर्थ ही है जो अपनी नहीं है। अत: दर्शन शक्ति को अपना रुप या अपनी शक्ति वही जानता है जो अविद्या से युक्त है और अविद्यायुक्त अहंकार ही अस्मिता है। जैसे हम सोनेवाले हैं हम जमींदार हैं, हम रुपया वाले हैं, हम दास हैं, हम भक्त हैं, हम सेवक और गूलाम हैं-यह अस्मिता हैं। पर हम आत्मवान हैं, हम द्रष्टा हैं, हम ब्रह्म हैं, हम ईश्वर हैं, हम आनन्दमय हैं, हम सच्चिदानन्द हैं और हम चेतन और ज्ञानमय हैं-यह अस्मिता नहीं है, क्योंकि यह ज्ञान सच्चा है, अविद्याजन्य नहीं है।
जो सचमूच हम हैं उसे मानना अस्मिता नहीं है। इस अस्मिता का वर्णन विस्तार से जानने के लिए तीसरे सूत्र की व्यख्या देख लेनी चाहिए।
सुखानुशयी राग:।।७।।
दु:खानुशयी द्वेष:।।८।।
इसी तरह से आत्मा को छोड़कर अन्य किसी भी विषय में अविद्या के कारण सुख मानकर उस विषय से अज्ञानवश प्रेम करना 'राग' है जो त्याज्य है। और इसी तरह से सदगुरु, आत्मज्ञान, योगसाधन और सत्य को अविद्या के कारण दु:खदायी समझकर उनसे घृणा करना 'द्वेष' है, जिसे सूत्रकार ने त्याज्य माना है। गूलामी, शराब, जूवा, चोरी मजहब, रिश्वत और असत्य से द्वेष या घृणा करनी त्याज्य नहीं है; त्याज्य है सत्य से द्वेष करना, योग और आत्मज्ञान से द्वेष करना। इस राग द्वेष की भी व्याख्या पहले हो चूकी है।
( योगदर्शन शास्त्र :द्वितीय भाग, हिन्दी मुनीश्वर भाष्य के अध्याय ५ से उद्धृत )
सत्यज्ञान और सच्चा साधन
सत्य को सत्य के लिए मानो
सत्य के लिए चमत्कार की आवश्यकता नहीं है। सत्य तो सत्य है इसके लिये घूस देने की आवश्यकता नहीं है, सत्य को सत्य मानना और सत्य कहना उसकी बहुत बड़ी प्रशंसा है। चमत्कार, सिद्धि वा बाजीगरी, इन्द्रजाल ट्रिक और हाथ की सफाई दिखाकर अपने असत्य की प्रशंसा कराई जाती है। झूठ को सत्य सावित करने के लिए घूस की आवश्यकता है वा रिश्वत की जरुरत है। झूठे मजहब, मत वा सम्प्रदाय का अनुयायी बनाने के लिए उसकी प्रशंसा में झूठी कथायें रचने की आवश्यकता है। अपने असत्य को सत्य सावित करने के लिए ही चमत्कार की आवश्यकता है, सत्य के लिए नहीं।
5 और 4 मिलकर 9 होता है इसे इसलिये मानों कि वह सत्य है। क्या आप 5 + 4=9 तब मानेंगे जब आपकी खांसी अच्छी हो जाय बुखार अच्छा हो जाय या फोड़ा अच्छा हो जाय। सत्य इसलिए माननीय है कि वह सत्य है। हमारे मुनिसमाज का एक सत्यनिष्ठ और स्वतन्त्र विचार वाला मनुष्य मर गया; दो-चार सनातन धर्मियों और आर्यसमाजियों ने वहां के दूसरे मुनिसमाज के सदस्यों से कहा कि देखा ईश्वर के न मानने का फल। देखा तुम्हारे मुनिसमाज का वह सदस्य मर गया।सदस्यों ने हमारे पास पत्र लिखा कि हम इन लोगों को क्या उत्तर दें; हमने कहा कि आप लोग उनसे पूछें कि ईश्वर को न मानने से तो एक-दो मुनिसमाज के कभी मर गये पर ईश्वर को मानने वाले तो हजारों की संख्या में नित्य मर रहे हैं फिर भी आप लोगों ने झूठे ईश्वर को मानना नहीं छोड़ा तो हम क्यों एक मनुष्य के मर जाने से सत्यज्ञान को वा सत्य आत्मा को छोड़ दें। आप लोग तो किसी के मर जाने पर और अधिक "राम नाम सत्य है" कहा करते हैं तो हम इतने सदस्यों के जिन्दा रहते "मुनि समाज सत्य है" सत्यज्ञान सत्य है" "स्वतन्त्र विचार सत्य है" यह क्यों न कहे। हम कहते हैं कि इस वक्त दिन है, दिन इसलिए कहते हैं कि दिन है;रात नहीं है और यह सत्य है। रात इसलिए नहीं कहते कि दिन को रात कहना झूठ है। पर आप कहते हैं कि यह दिन कैसे है?यदि दिन होता तो आप बीमार क्यों पड़ते। हम कहते हैं कि आपके या हमारे बीमार पड़ने से दिन रात नहीं हो जायेगा। आप बीमार पड़ें या न पड़ें दिन, दिन है, रात, रात है और सत्य, सत्य है।
कुछ औरतें कहती है कि हम आपकी बातों को या मुनिसमाज को तब मानेंगी जब हमारे लड़का हो जाय। रोगी कहता है कि हम मुनिसमाज को तब मानेंगे जब हमारा रोग अच्छा हो जाय। हम कहते हैं कि 5+4=9 आप तब मानेंगे जब आपका लड़का हो जाय या आप का रोग छूट जाय या 5+4= 9 इसलिए मानेंगे कि वह सत्य है।
अपनी परीक्षा में सब प्रश्नों का सही उत्तर देने वाला लड़का परीक्षक की सिफारिश नहीं करेगा और न घूस देगा। परीक्षक की सिफारिश वह लड़का करेगा जिसने अपनी परीक्षा में प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया है। परीक्षक को घूस वह लड़का देगा जिसे फेल होने का डर है। सत्य को सत्य के लिए मानो तब आप सत्य निष्ठ हैं, तब आप सच्चे हैं या सत्य के प्रेमी हैं। "हमें धन मिल जाय, लड़का मिल जाय या हमारा वा हमारे घर भर का रोग अच्छा हो जाय तब हम सत्य को मानेंगे" ऐसा कहने वाला सत्य से वा सत्य कहने वाले से भी रिश्वत चाहता है, सत्य से भी घूस लेना चाहता है। हमारे एक परिचित ने 6,7 मनुष्यों को हमारे पास एक पत्र देकर भेजा। उस पत्र में लिखा था कि यदि इन मनुष्यों को दस-दस रुपया मिल जाय तो यह मुनिसमाज में चले जाने के लिए तैयार हैं। हमने उनको यह उत्तर दिया कि आप इन्हें किसी मजहबी पादरी या महन्त के पास भेज दें जो रुपया देकर, भोजन देकर, कुछ भेड़ों को अपनी भेड़ों में शामिल करना चाहते हैं या यों कहिए कि जो घूस देकर अपने झूठों के गोल में कुछ झूठों को मिला कर अपनी गोल या अपने मजहब वालों की संख्या बढ़ाना चाहते हैं।
( मुनिसमाज के संस्थापक आदि मुनीश्वर योगेश्वर शिवमुनि जी महाराज द्वारा रचित पुस्तक "सूक्ष्म शरीर,सूक्ष्मलोक,स्वर्ग और मुक्ति का रहस्य" पुस्तक के अध्याय ५ से उद्धृत)
" स्वावलम्बी बनो और साधन करो
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(सद्गुरुदेव श्री शिवमुनि महाराज)
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जब कभी रक्षा हुई है अपनी बुद्धि द्वारा हुई है. जब कभी अपनी रक्षा हुई है अपने शरीर के बल से हुई है, अपने मनोबल और आत्मबल से हुई है . आज तक ज़ो विशेष रूप से स्वस्थ और दीर्घायु हुआ है, किसी विशेष साधन द्वारा हुआ है. दवा के भरोसे, डाक्टर के भरोसे और देवी देवता के भरोसे नहीं.
मुनि समाज ने इसे जाना है, अतः सबसे पहले मुनि समाज ने ही यह कहना आरम्भ किया कि राजनीति के नेताओं और मजहबी देवी देवताओं और भगवानों का भरोसा छोड़ कर; मुनि समाज का सर्वोत्तम साधन कऱो, मुनि समाज के सच्चे आध्यात्मिक ग़न्थों का स्वाध्याय और सत्संग करो.
जिससे हृदय में आत्मबल बढ़े, आत्मविश्वास बढ़े, आत्मगौरव उत्पन्न हो और आत्मावलम्बन की शक्ति आवे.
मुनि समाज के योग शिक्षक से शारीरिक मानसिक आध्यात्मिक और बौद्धिक सभी शक्तियां बढ़ेगी. जिससे मनुष्य सुख के साथ जीवन निर्वाह करता हुआ पूर्ण रूप से मुक्त, स्वतंत्र और सुखी हो जायेगा.
हमारे शिष्यों को वा मुनि समाज के सदस्यों को हर प़कार के राजनीतिक और मजहबी झंझटों को दिमाग से निकाल देना चाहिए.और राजनीतिक नेताओं और मजहबी नेताओं से किसी प़कार की आशा नहीं रखनी चाहिए. इनके उपदेशों और संसर्ग से अलग रहना चाहिए.
(सच्ची शान्ति, सच्ची मुक्ति और सच्चा स्वराज प़ाप्त करने के उपाय से उद्धृत)
गुप्त सिद्धियां कैसे मिल सकती हैं
प्राय: लोग कहते हैं कि प्राचीन लोगों में इस बात की बड़ी कमी थी कि वे अपनी जानी हुई अच्छी विधाओं को गुप्त रखते और किसी को उसका उपदेश नहीं देते थे। इसमें सन्देह नहीं कि प्राचीन लोग योग और वेदान्तादि विषयों को गुप्त रखते , पर वह इसलिए नहीं कि उसका ज्ञान किसी को न हो, किन्तु इसलिए की उसे अधिक लोग जानने का यत्न करें। क्योंकि जो वस्तु गुप्त रखी जाती है उसे जानने के लिए बहुत-से लोग प्रयत्न करते हैं, प्रत्येक मनुष्य में यह गुण स्वाभाविक रीति से वर्त्तमान है। आप अपने नौकर को दस सन्दुक सौंप जाइए। एक सन्दुक के लिए रीति से कह दीजिए कि चाहे और को खोलना पर इस काली सन्दुक को कभी मत खोलना। अब इसका प्रभाव यह पड़ेगा कि यदि वह सन्दुक खोलेगा-यदि उसे खोलने की इच्छा होगी तो उसी काली सन्दुक को जिसे आपने मना किया है, अवश्य खोलेगा। ईसाई लोग भी कहते हैं कि आदम ने वही फल खाया जिसे ईश्वर ने खाने के लिए मना किया था। मतलब कहने का यह है कि गुप्त विषय को जानने के लिए सर्वसाधारण अधिक प्रयत्न करते हैं, और जो जिस विषय के जानने का दृढ़ प्रयत्न करता है जिसे उसकी दृढ़ जिज्ञासा है वही उस विषय के जानने का अधिकारी है। अधिकारी को सारी गुप्त विद्यायें बतलायी जा सकती हैं। यह सब आचार्यों का मत है। अनाधिकारी को -उस मनुष्य को जो उसे जानने के लिए प्रयत्न और श्रद्धा नहीं दिखलाता- उसे उपदेश देना या किसी वस्तु को बतलाना व्यर्थ होता है। क्योंकि ऐसा मनुष्य या तो ऐसे उपदेशों को ग्रहण ही नहीं करता या उससे वह ऐसा काम लेता है जिसके लिए वह वस्तु नहीं बनायी गयी जैसे, कोई अच्छी पुस्तक किसी बनिए के हाथ में जाय और वह उसे फाड़कर अपना सौदा बांधने के काम में लाये। ऐसे लोग वेदान्तादि ज्ञान का लाभ पा कर इधर-उधर विवाद करते फिरते हैं। कुछ तो उसके पक्ष में विवाद करते हैं और कुछ बिरुद्ध। पर ब्रह्मज्ञान से केवल विवाद ही का काम लेते हैं और कुछ नहीं। ब्रह्मज्ञान केवल विवाद के लिए नहीं है पर अनाधिकारी उसे प्राप्त कर दूसरा क्या कर सकता है? अत: प्राचीन लोग जो ब्रह्मज्ञान और योग को गुप्त रखते थे वह अनुचित नहीं था।
अब हम अपना विचार "गुप्त सिद्धियों" पर प्रकट करना चाहते हैं जो योग और वेदान्त पर सम्बन्ध रखती है और जो प्राचीनकाल में बहुत गुप्त रक्खी जाती थी। पर अब वह समय आ गया है कि वे गुप्त विद्यायें अब उस तौर पर गुप्त नहीं रक्खी जा सकती, हां गुप्त न रहने पर भी इससे लाभ वही उठा सकेंगे जो इसके जानने के अधिकारी हैं। दूसरे नहीं।
सांसारिक मनुष्यों में अधिकतर ऐसे हैं कि यदि उन्हें यह मालूम हो जाय कि आज से एक महीने के बाद अमूक तिथि को उनकी मृत्यु निश्चय हो जायगी, तो वे उसी रोज से मृतक के समान हो जायेंगे- वे जीते जी मूर्दों के समान निश्चेष्ट और निष्क्रिय हो जायेंगे-मृत्यु का भविष्यत जान लेने से जीवन व्यर्थ हो जायेगा यही कारण है कि जब आत्मा संसार में चली तो स्वयम उसने ऐसा प्रबन्ध कर लिया- कि जिसमें अपने भविष्यत् और मृत्यु का ज्ञान उसे न हो। आत्मा को मालूम था कि सांसारिक होने पर यदि हमें अपनी मृत्यु और भविष्यत् का ज्ञान रहेगा तो हमारा जीवन व्यर्थ हो जायेगा।
पर योगियों को अपनी मृत्यु और काल का ज्ञान हो जाता है। यह एक सिद्धि है, जिसे काल ज्ञान की सिद्धि कहते हैं, यह सिद्धि उस मनुष्य को प्राप्त है जो जीवन और मरण को तूल्य समझता है-जो "मृत्यु" को पूराने कपड़े को छोड़ नवीन कपड़ा पहनना या प्राचीन जीवन को छोड़ एक नवीन जीवन में जाना समझता है। जब योगी का पूर्वोक्त ज्ञान दृढ़ हो जाता है, जब उसके हृदय में पुरा वैराग्य उत्पन्न हो जाता है, तब उसके अन्त:करण के सामने से एक ऐसा पर्दा हट जाता है कि जिससे उसे अपनी तथा दूसरों की भी मृत्यु का ज्ञान स्पष्ट होने लगता है। यही एक साधन है जिससे मनुष्य को मृत्यु का ज्ञान प्रत्यक्ष हो सकता है।
"अमूक कार्य में लाभ होगा या हानि, इस समय जो मूकदमा हमारे ऊपर चल रहा है उसमें जीत होगी या हार अथवा वह चीज जिसको हम वहुत चाहते हैं मिलेगी वा नहीं" इन सब बातों का उत्तर एक साधारण मनुष्य भी "भविष्यत् ज्ञान की सिद्धि" प्राप्त कर स्पष्ट दे सकता है। क्योंकि इस सिद्धि को प्राप्त कर लेना कोई कठिन कार्य नहीं। हां उसकी युक्ति न जानने से सभी बातें कठिन मालूम होतीं हैं। पर हम उचित यही समझते हैं कि गुप्त बातों को भी प्रकट करें और लोगों को बतला दें। इस संसार में जितने मनुष्य हैं सभी लाभ, विजय और यश चाहते हैं। उसी लाभ की इच्छा ने ही भविष्यत् ज्ञान के सामने पर्दा डाल दिया है जिससे भविष्यत का सच्चा ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं होता। "हमारी जीत होगी या हार" यह प्रश्न उदय होने पर सबकी आत्मा सच्चा उत्तर दे देती है, पर स्वार्थ , जीत वा लाभ की कामना ऐसी प्रबल होती है जो हमारी आत्मा का सच्चा और निष्पक्ष उत्तर हृदय को सुनने नहीं देती। हृदय के भीतर स्वार्थ इतने जोर का शोर मचाता रहता है कि उससे सत्य ज्ञान का धीमी आवाज सुनने नहीं देती।हृदय के भीतर स्वार्थ इतने जोर का शोर मचाता रहता है कि उससे सत्य ज्ञान की धीमी आवाज सुनने में नहीं आती। यदि हम लाभ और हानि में समबुद्धि रक्खें, यदि हम सुख और दु:ख को बराबर समझें, यदि हमारे हृदय से स्वार्थ की कामना निकल जाय, यदि हम सबको आत्मबत् देखें तो वह पर्दा जो सत्य ज्ञान वा भविष्यतज्ञान के सामने पड़ रहा है ऐसा क्षीण हो जायगा कि होनहार की सब बातें हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष होने लगेंगी-भविष्य की सारी बातें हृदय की आंखों के सामने आ जायेंगी। जब मनुष्य लाभ-हानि में सम होता है, जब उसके हृदय से स्वार्थ निकल जाता है, उस समय वह संसार के सारे मनुष्यों को आत्मवत् देखता है, भेदभाव नहीं रहता। ऐसे योगियों को केवल अपने ही भविष्यत् का ज्ञान नहीं होता किन्तु वह प्रश्न करने पर सबका भविष्यत् बतला सकता है। ऐसे ही योगियों को भविष्यवक्ता कहते हैं।
जो मनुष्य सर्वदा बत्य बोलता है-जिसने सत्य बोलने का इतना अभ्यास कर लिया है कि भूलकर भी उसके मुख से असत्य नहीं निकलता-जिसका जिह्वा स्वभावत: सर्वदा सत्य ही बोलती है-उसके मुख से जो वचन निकलेगा-वह जिसे वर या शाप देगा-वह सर्वदा सत्य होगा इसी सिद्धि को "वाकसिद्धि" कहा है।
सन्तोष धारण करने, चिन्ता रहित रहने, और मनोबल धारण करने से योगी सुन्दर और बलवान होता है। इसी तरह आलस्य रहित होने और परिश्रम करने से शरीर बलवान और सुडौल होता है।
(आदि मुनीश्वर योगेश्वर शिवमुनि जी महाराज के पुस्तक "शान्तिदायी विचार" के अध्याय 16 से उद्धृत )
" योग की उपयोगिता "
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योग द्वारा शक्ति, आयु, स्वास्थ्य, बुद्धि, बल और तेज प़ाप्त करके ही तुम अच्छे भोगी हो सकते हो, तुम भोग के योग्य हो सकते हो और भोग का आनन्द ले सकते हो या सद्गृहस्थ बन सकते हो. अच्छा भोगी बनने के लिए, अच्छा सांसारिक बनने के और एक अच्छा गृहस्थ बनने के लिए एक अच्छा योगी होना नितान्त आवश्यक है. इसे खूब समझ लो, हमने थोड़े में सच्ची बात कह दी है . इस पर खूब बिचार और मनन करो तो योग की उपयोगिता को समझ सकोगे.
अच्छा भोगी बनने के लिए भी एक अच्छा योगी बनना है. संसार का सच्चा सुख उठाने के लिए भी बल, बुद्धि, आयु, और आरोग्य चाहिए जो विना योग के प़ाप्त नहीं हो सकता. क्योंकि आयु, आरोग्य, बल और बुद्धि का भण्डार केन्द्र में है, भीतर में है, आत्मा में है, वहाँ है जहाँ सच्चिदानन्द का निवास स्थान है. अत: संसार या जीवन का आनन्द लिए कुछ समय के लिए बाहर से उपराम को प़ाप्त होकर, बाहर से मुड़कर भीतर में, केन्द्र में, आत्मा में या सच्चिदानंद परब़ह्म में आना होगा .
(योग का परिचय से उद्धृत)
नाम जाप एक अनुभव
वहुत सारे आध्यात्मिक सम्प्रदायों में नाम जाप का रिवाज हैं या नाम जाप करते हैं। लेकिन मैं अभी तक किसी भी सम्प्रदाय से नाम जाप के अनुभव की बातें नहीं सुनी या किसी कितावों या लेख में भी नहीं पढ़ा। पुछने से भी यही जबाव मिलता कि:-"खाये वगैर पता कैसे चलेगा" अथवा "यह सब बताने का नहीं है" मन मसोसकर रह जाता। हम मनुष्यों का एक स्वभाववृत्ति है कि किसी भी कर्म को करने के पहले मन में एक सवाल यह उठता है कि यह काम मैं क्यों करुं, इससे लाभ क्या है, दूसरे लोग क्यों करते हैं आदि आदि। मेरे मन में भी यही सवाल रहा। लेकिन इस सवाल का जबाव कभी किसी औरों से नहीं मिला। खूद को भी सही क्षण और समय नहीं मिलने के कारण, लगातार ज्यादा समय तक जाप करने का मौका न मिलने के कारण अभी तक नाम जाप का लाभ या फल जान नहीं पाया था।
तिथि 20/01/2013 मैं एक जगह जाने के लिए वस पड़ाव पर बस के इंतजार में खड़ा था। किसी की इंतजार में रहने का वह समय काफी उवाऊ और तकलीफ देह होता है। यह इंतजार की घड़ियां बिताना काफी मुश्किल होता है। इसलिए इस उवाऊ क्षण का सही उपयोग करने हेतु और समय का सदुपयोग हेतु नाम जाप करने को ठाना। क्यों न किसी नाम को लेकर उसी नाम को बारंबार दूहराया जाय यानि की किसी नाम का जाप किया जाय! कैसे? सदगुरुजी के बताये बिधि के अनुसार 'मन ही मन से जाप'। मैंने 'शिव ओऽम' जाप शुरु किया। मन में ही 'शिव ओऽम' बोलता (बगैर जिह्वा हिलाये) और मन से ही उसका गिनती भी करते रहता यानि जाप हिसाव से। इस तरह से मन में जाप करता और मन से ही गिनती रखता।
मैं सुवह आठ वजे से वस की इंतजार में खड़ा था। प्राय: सवा आठ वजे से मैंने 'शिव ओऽम' जाप शुरु किया। जाप करते हुए समय जितना ही अधिक बीत रहा था मेरा शरीर जैसे क्रमश: हल्का महसूस होते जा रहा था। मन ही मन से वगैर जिह्वा हिलाये, वगैर आवाज के ही जाप करते जा रहा था। मेरे साथ मेरा एक दोस्त भी था। कभी अचानक वह कुछ बोलता या पुछता। जाप एवं गिनती को छोड़कर उसका जबाव देता। जितना कहता या पुछता उतने का ही जबाव देकर फिर जाप शुरु करता एवं गिनती जहां छोड़कर जबाव दिया था उससे आगे गिनती को क्रमश: आगे बढ़ाता चला जाता। दोस्त कुछ बोलने या पुछने पर भी नराजगी में जबाव नहीं देता आनन्द के साथ खूश होकर जबाव देता। अपने आप में पुरी तरह यम और नियम का आचरण लिये हुए था। इसी तरह जाप करते-करते ऐसा लगने लगा कि जैसे हृदय का स्पन्दन ( दिल की धड़कन) थम सा जा रहा। जैसे ही धड़कन बन्द हो जा रहा, जाप एवं गिनती छूट जा रहा। दूवारा जब धड़कन शुरु होती तो जाप एवं बन्द होने के पहले जहां गिनती था उससे आगे गिनती करते जाता। जैसे गिनती अगर बन्द होने के पहले 4836 था तो शुरु होने के बाद गिनती 4837 से करता। इसी तरह से निरन्तर जाप चलाते जा रहा था। ठीक दस वजे वस आई एवं हम दोनों वस में चढ़े। 'शिव ओऽम' जाप लेकिन पहले की तरह ही क्रमानुसार चलते रहा। वस में चढ़ने के बाद संयोग से हमें बैठने को सीट भी मिल गई तो दोनों ही सीट में बैठ गये। दो व्यक्तियों के बैठने का सीट था। खिड़कियों के तरफ वह मेरा दोस्त एवं अन्दर की तरफ मैं बैठ गया। बस में बैठे हुए भी जाप चलते रहा। छह हजार बार नाम जाप (शिव ओऽम) हो गया। 6700 बार तक जाप में जैसे वहुत जल्दी- जल्दी दिल की धड़कन बन्द हो जा रही थी। पहले 50, फिर 40 फिर 30 बार के बाद ही धड़कन बन्ध होने लगी थी। 6768 बार तक जाप पंहुचकर जैसे दिल की धड़कन एवं जाप सम्पूर्ण रुप से बन्द हो गई। मैं पहले जैसे शरीर युक्त अनुभूति के साथ था एवं धड़कन बन्द होने पर थोड़ी देर के लिए शरीर वोध छूट रहा था। सम्पूर्ण रुप से धड़कन बन्द होने पर शरीर अनुभूति/शरीर वोध सम्पूर्ण रुप से छूट गया एवं मैं जैसे त्रिकुटी (दोनों भौहों) के बीच स्थित हो गया। जब मैं शरीर से समेटकर त्रिकुटी में स्थित हो गया तब उस त्रिकूटी से एक वाक्य फूट पड़ा -"भगवान, भगवान, भगवान, भगवान को सूनने के लिए पृथ्वी अपेक्षारत"। यह वाक्य सुनने के बाद ही सारे शरीर जैसे निष्प्राण होकर निढाल हो गया, इसी तरह वस के सीट में कितना देर रहा पता नहीं। जब स्पिड ब्रेकर में चढ़कर पुरी बस जोर से हिचकोले खाकर पार हुआ तो मैं जाग उठा। उठकर यही विचार करता रहा कौन है वह भगवान,और कौन सा पृथ्वी उस भगवान को सुनने के लिए अपेक्षारत(इंतजार में) है। यह सवाल अब भी मुझमें बना हुआ है। अब त्रिकूटी जहां से वह वाक्य सूनाई दिया उस जगह से हल्का-हल्का मीठा-मीठा सा दर्द महसुस होने लगा।
मैं जहां के लिए निकला था वहां से शाम सात वजे घर वापस आया। शाम के सात वजे तक वह दर्द महसूस होते रहा। घर में पंहुचकर जब प्रणव जाप किया तो वह दर्द दूर हुई।
मजहबी रोग
मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह जिस मजहब और मत को मानता है उसका यह विश्वास हो जाता है कि किसी समय सारा संसार इसी मजहब का अनुयायी हो जायगा। यह भी एक प्रकार की मूर्खता है। संसार में न कभी एक मत व मजहब था न अब है और न आगे कभी होगा। पर मजहबी लोग अपने मजहब के अनुसार अपना जीवन सुधारने में अपना समय न लगाकर दूसरे मजहब वालों से झगड़ा करने में अपना समय बिताते हैं। ऐसे लोग दूसरे मत वालों से अनेक प्रकार का वाद-विवाद कर उनसे अपना मत मनवाना चाहते हैं। जब उनका मत कोई नहीं मानता तो वे वहुत ही दु:खी और चिन्तित होते हैं। बहुत से लोग तो अपना मजहब स्वीकार कराने के वास्ते अन्य मत वालों का प्राण तक लेने के लिए तैयार हो जाते हैं। अपना मत मनवाने के लिए छल और कपट से भी काम लेते हैं। ऐसे मतवादियों और मजहबी लोगों को कभी शान्ति नहीं मिल सकती। ऐसे लोगों के लिए मजहब और मत भी एक रोग है। जितना समय तुम व्यर्थ के विवाद और वहस में विताते हो उसका आधा भी यदि आत्मचिन्तन और आत्मसुधार में लगा दो तो बड़ा काम हो जाय। जितने लोग दूसरों को सूधारने के लिए व्याख्यान और उपदेश दे रहे हैं वे यदि स्वयं सूधर जायें तो संसार का एक भाग उसी समय सुधर जाय। अत: मजहबी विवाद को छोड़कर आत्मचिन्तन में लग जाओ तभी आत्मा को शान्ति मिल सकती है।
प्रेम का रहस्य
लोग कहते हैं कि जब हम अमुक मनुष्य को देखते हैं तो हमारी शान्ति भंग हो जाती है-हमारे हृदय में आग लग जाती है-हमारा खून उबलने लगता है-छटांक खून जल जाता है। पर वही मनुष्य जब अपने प्रिय को देखता है गदगद् हो जाता है-शीतल हो जाता है और खून बढ़ जाता है। प्रेम की अदभूत महिमा है-प्रेम में शीतल करने की शक्ति और विरोध में जलाने की ताकत है-एक विरोधी मनुष्य यदि किसी सभा या गांव में चला जाय तो सभा या गांव में आग लगा दे। ठीक इसी तरह एक प्रेमी मनुष्य यदि किसी गांव में चला जाय, किसी सभा में चला जाय तो सब को शीतल कर दे। वहां अमृत की बर्षा होने लगे।
इसकी परीक्षा हो चूकी है और इच्छा हो तो आप भी ले सकते हैं। यदि दो मनुष्य अपने पूर्ण क्रोध से लड़ रहे हों उस समय यदि उन दोनों के मुंह का थूक लिया जाय तो उसमें बिष पाया जायगा। बिल्लियों और कुत्तों को खिलाकर देखा गया वे मर गये हैं। इसी तरह यदि दो प्रेमी और प्रिय परस्पर मिल रहे हों तो उनका थूक अमृत होगा। प्राय: ऐसे थूक जब-जब (एक विशेष युक्ति से) पागल कुत्तों को दिए गये तो वे सब के सब अच्छे हो गये। प्रेमियों का जूठा फल लोग क्यों खाते हैं? साधूओं का जूठा प्रसाद खाने से बड़े-बड़े असाध्य रोग क्यों छूट गये? इसका कारण यही है कि साधू उसी मनुष्य को कहते हैं कि जिसका रोम-रोम प्रेम से भरा हो। और इसके कारण उसके मुंह में अमृत का निवास हो। प्रेमी मनुष्य तो धन्य हैं ही पर वह मनुष्य भी संसार में धन्य है जिसे किसी सच्चे प्रेमी का दर्शन हो जाय। प्रेमियों के दर्शन से हृदय में वही आनन्द होगा जो भगवान के दर्शन से होता है। सच्चा प्रेमी साक्षात भगवान है और उसका जूठा "अकाल मृत्यु हरणं सर्वव्याधि विनाशनम्" वाला महा प्रसाद है। पर आजकल वहुत से ऐसे नामधारी साधु भी हैं कि उनका जूठा आप पर विषतूल्य प्रभाव डालेगा। इसी से होशियार रहना चाहिए। सच्चे प्रेमी का दर्शन करो ; हृदय को शान्ति मिलेगी।
जैसे प्रिय को न मिलने से बुखार चढ़ जाता है, उसी तरह यदि ज्वर चढ़ा हो और सच्चा मित्र यदि मिल जाय तो बूखार उतर जायेगा। एक-आध चिकित्सक ऐसे डाक्टर हैं कि रोगी के साथ प्रेम से बातचीत करते हैं और उसका ज्वर उतर जाता है। हमने स्वयं ऐसा किया है और हमारे कई एक शिष्यों का बूखार हमारे साथ बातचीत करने से उतर गया है। हम सत्य कहते हैं कि यदि कोई ऐसा मनुष्य हो कि उसका किसी के साथ विरोध न हो तो वह कभी बीमार ही नहीं पड़ सकता। अत: वह मनुष्य धन्य है जिसका किसी के साथ विरोध न हो किन्तु सर्वदा अपने प्रियतम के प्रेम में मस्त रहता हो।
क्रमश:
(शिव मुनि साहित्य "शान्तिदायी विचार" के अध्याय 13 एवं 14 से उद्धृत )
दु:ख का रहस्य
सुख की इच्छा ही ने दु:ख को उत्पन्न किया। जीवात्मा को जब सुख की इच्छा हुई, उस समय उसने दु:खपूर्ण संसार की कल्पना की। इस जगत को उत्पन्न किया। यदि सुख की इच्छा उत्पन्न न हूई होती तो यह संसार और उसका दु:ख भी उत्पन्न न हुआ होता। बिना दु:ख का सुख का ज्ञान हो ही नहीं सकता। मीठे मुंह शरबत की मिठाई नहीं मालूम होती। बिना भूख का दु:ख उठाए भोजन का सुख अनुभव नहीं आता। अत: यह निश्चित है कि सुख के लिए दु:ख हमने ही उत्पन्न किया। दु:ख हमारा बनाया हुआ हमारी इच्छा है। फिर जो वस्तु हमारी बनाई हुई है-जिसे हमने स्वयं निमन्त्रण दिया है-उसके आने पर घबड़ाना। उसको सहन न करना, सिवाय मूर्खता के और क्या हो सकता है? यदि तुम दु:ख उठाना नहीं चाहते, सुख की इच्छा छोड़ दो। सुख में सुखी न हो। सुख में प्रसन्न न होने से, दु:ख सहने की शक्ति आप से आप आ जायगी, ऐसी अवस्था में आप से आप मन में दु:ख का अनुभव नहीं होता। जो पुत्र के जन्म लेने पर सुखी नहीं होता वह उसके मरने पर भी कदापि दु:खी न होगा। जो सुख में अभिमान नहीं करता, जिसका मन और स्वभाव सुख में नहीं बदलता, वह दु:ख में कदापि विचलित नहीं हो सकता। उसके लिए संसार ही वैकुण्ठ है-संसार ही विष्णुलोक, शिवलोक और स्वर्ग है। जिसने सुख-दु:ख को जित लिया, जिसका चित्त सुख-दु:ख, मानापमान और लाभ हानि में समान है, वह मनुष्य भाग्यवान और धन्य है-वह स्वयं इन्द्र। विष्णु और शिव है जिस पर सुख और दु:ख का प्रभाव नहीं पड़ता-जो सुख और दु:ख से विल्कुल अलग है। अत: वेदान्त कहता है कि समानता धारण करो , समत्व ही आनन्द का कोष और शान्ति का समूद्र है।
जैसे दिन के बाद रात और रात के बाद दिन बराबर आता और चला जाता है, उसी तरह सुख के बाद दु:ख और दु:ख के बाद सुख बराबर आता और चला जाता है। सच्ची बात तो यह है कि रात और दिन ये दोनों परस्पर एक दूसरे के कारण हैं। इनमें से एक दूसरे को उत्पन्न करने के लिए आता है और उसे उत्पन्न कर चला जाता है। अत: जो दु:ख, सुख को उत्पन्न करने के लिए आया है-जो सुख का कारण है-जो सुख का पिता है-जो मनुष्य को इस योग्य बनाता है कि उसके पास सुख आ सके -इस दु:ख को देखकर घबड़ाना अज्ञानता और मूर्खता है। ऐसे दु:ख को पाकर प्रसन्नता के साथ सहन करो, उसका स्वागत करो, उससे भयभीत होना मानो अपने को मृत्यु में डाल देना है, यदि तुम अपनी आत्मा की उन्नति और अपने हृदय में शान्ति चाहते हो तो वीरता के साथ प्रसन्नता के साथ दु:ख का सामना करो। केवल सांसारिक धन या बल वा केवल पुस्तकों के पढ़ने से हृदय में शान्ति की धारा न बहेगी।
जैसे संसार की और वस्तुएं, अनित्य और नाशवान हैं, उसी तरह दु:ख भी अनित्य और नश्वर है। इस बात को खूब दृढ़ जान लो कि जिस समय तुम्हारे हृदय में इसका निश्चय हो जायेगा, दु:ख रुपी भूत कभी अपना प्रभाव न डाल सकेगा। देखो जिसे न्यायाधीश ने यह सुना दिया कि तुम्हें एक महीने के बाद फांसी की सजा मिलेगी उसका फांसी के पूर्व का सारा दिन व्यर्थ है- वह उसी रोज मर चूका। कारण इसका यह है कि जिस समय से किसी दु:ख वा सुख के आने का दृढ़ निश्चय हो जाता है, उसका प्रभाव उसी समय पड़ने लगता है। अत: आपको यदि इसका दृढ़ निश्चय हो जाय कि दु:ख नाशवान, अनित्य, शीघ्र कट जाने वाला वा आगमापायी है तो वह आपको दु:खी नहीं कर सकता। जिसमें तितीक्षा नहीं है, जो दु:ख को नहीं सहता उसका दु:ख भी रोने वा चिल्लाने से कम नहीं होता किन्तु और अधिक दु:खदायी होता है। अत: जो दु:ख तुम्हारे ऊपर पड़ा है उसको सहन करो। सहन करने से दु:ख कम हो जाता है, शिघ्र कट जाता है। जब बहुत गर्मी पड़ती है तो आंधी आप से आप आ जाती है-चारों ओर से टूट पड़ती है। ठीक इसी तरह से जहां पर दु:ख होता है,वहां सुख आप से आप टूट पड़ता है। इस सिद्धान्त का यह मतलब नहीं है कि तुम दु:ख को दुर करने का उद्योग न करो, कभी नहीं! पर इस सिद्धान्त के अनुसार जो घबड़ाता नहीं, डरता नहीं, चिल्लाता और रोता नहीं, वही दु:ख काटने का उद्योग भी कर सकता है। पर जो दु:खों में घबड़ा गया दु:ख में अपने सच्चे स्वरुप को भूल गया-वह उद्योग क्या कर सकता है? ऐसे मनुष्य का जीवन अंधकारमय है।
(शिवमुनि ग्रन्थावली प्रथम खण्ड, शान्तिदायी विचार, अध्याय-10 से उद्धृत)
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