IPS Vinod Mishra
The law of attraction - whatever you give others, be ready to receive the same. Universal rule
किसी समय के दरिद्र और आज कुरुसत्ता के एक मजबूत स्तम्भ, श्रेष्ठ गुरु और कुरुओं के महान सैनिक नेता आचार्य द्रोण युद्धशाला में अपने नित्य के आसन पर बैठे थे। युवराज दुर्योधन, महावीर कर्ण और भयंकर दिखने वाले अश्वत्थामा सम्मुख खड़े अपने पुष्कर विजय का समाचार देने आये थे परंतु गुरु से डाँट खा रहे थे।
"मैंने तुम लोगों से चेकितान का हृदय जीतने को कहा था, तुम लोगों ने उसका राज्य छीन लिया?"
दुर्योधन प्रशंसा सुनने आया था, फटकार सुन स्तम्भित रह गया। उदण्ड स्वर में बोला, "गुरुदेव, वह बड़ा दुराग्रही था। वह सदैव हमारा मित्र नहीं बना रहता"।
"क्या ये बच्चों की मित्रता है जो अटूट रहेगी? राजनीति में कोई स्थायी शत्रु या मित्र नहीं होता दुर्योधन। चेकितान हमारा मित्र भले ना बनता, पर तुम उसे शत्रु बना आये। चेकितान यादव है जिसे द्वारका के राजा उग्रसेन ने पुष्कर का कार्यभार सौंपा है। तुमने चेकितान को नहीं, अपितु कृष्ण एवं बलराम को अपना शत्रु बनाया है।"
कर्ण विनीत स्वर में बोला, "परन्तु गुरुदेव, कौरव भी इतने सामर्थ्यहीन नहीं हैं। युवराज ने तो यह सोचकर पुष्कर पर विजय प्राप्त की कि इससे हम द्वारका, विराट और शाल्व पर दृष्टि रख सकें।"
"अच्छा, और इतने बड़े राजमार्ग की रक्षा कौन करेगा? जिसके सिरे पर यादव हों, पूरे रास्ते यादव बस्तियां हों, जिसके एक तरफ द्रुपद और दूसरी तरफ विराट व शाल्व हों, ऐसे क्षेत्र की सुरक्षा के लिए तुम लोगों को अनुमान भी है कि कितना धन और मानव संसाधन व्यर्थ व्यय होगा। जाओ, तुम सब यहां से जाओ। विश्राम करो, और मुझे सोचने दो कि इस कठिनाई से कैसे निकला जाए। मैं इस विषय पर महामहिम भीष्म से परामर्श करूँगा। मेरा आशीर्वाद लो और जाओ।"
उन सभी के जाने के पश्चात द्रोण विचार करने लगे। चेकितान वीर है और यादव है। यादवों का नेता कृष्ण आजकल आर्यावर्त को अपने जैत्र रथ से नाप रहा है। अभी द्रुपद का अतिथि है और कदाचित उनका जमाता बनने वाला है। कृष्ण का मित्र विराट है और शाल्व भी उसका साथ देगा। अगर ये सब मिल जाएं तो हस्तिनापुर पर भारी पड़ेंगे। वैसे भी पांडवों के ना होने से कुरुओं की सामरिक शक्ति कमजोर हुई है, और उनके निर्वासन व स्वर्गवास से कई कुरु-सरदार असंतुष्ट बैठे हैं।
"हाँ शंख, कुछ कहना चाहते हो", गुरु ने सम्मुख खड़े अपने अधेड़ उम्र के शिष्य से पूछा। शंख युद्धशाला में छात्र चयन समिति का प्रमुख था। शंख ने कहा, "गुरुदेव तीन अभ्यर्थी गुरुकुल में प्रवेश के अभिलाषी हैं। परंतु तीसरा लड़के से अधिक लड़की है।"
"उसे जाने के लिए कह दो। मैं कोई ऐसा शिष्य नहीं चाहता जो लड़के से अधिक लड़की हो।"
"वह नहीं जाएगा गुरुदेव। कल प्रातः से ही उसने आपसे मिले बिना भोजन ग्रहण करने से मना कर दिया है।"
"ठीक है, तीनों को बुलाओ।"
शंख तीनों को ले आता है। गुरु पहले लड़के से पूछते हैं, "अपना परिचय दो बालक"।
"मैं भद्र, आपकी सेना में कार्यरत एक सारथी का 10 वर्षीय पुत्र हूँ गुरुदेव।"
"हूँ, तो तुम सारथी बनने का प्रशिक्षण चाहते हो?"
"ये भी गुरुदेव, पर मैं मुख्यतः शस्त्र विद्या का अभिलाषी हूँ।"
गुरुदेव दूसरे बालक से भी यही प्रश्न पूछते हैं, जो किसी कुरु ग्राम के व्यापारी का पुत्र था एवं शस्त्रविद्या का अभिलाषी था। द्रोण कठोरता से उन दोनों से प्रश्न पूछते हैं और सन्तुष्ट होने पर पितृवत स्नेह से कहते हैं, "पुत्रों, यदि तुम परिश्रम करोगे तो मैं भी तुम्हें उत्कृष्ट योद्धा बनाने के लिए परिश्रम करूँगा"।
सभी के जाने के बाद गुरु तीसरे लड़के को ध्यान से देखते हैं जो सहमा सकुचाया सा खड़ा था। कमानीदार भवें, गहरी आंखें, रक्तिम कपोल, मुलायम केश, सीने पर कसकर बांधा गया कपड़ा, और नितंबों की बनावट सारा भेद खोल रही थी। जब उसने कुछ पग चलकर गुरु को प्रणिपात किया तो उसकी चाल में स्त्रियोचित माधुर्य था। इन सभी बातों के अतिरिक्त बालक विनयशील और दृढ़ प्रतीत होता था। गुरु द्रोण सहज ही उसकी तरफ आकर्षित हुए और पूछा, "तुमने कल से भोजन क्यों नहीं ग्रहण किया वत्स?"
"मुझे गुरुकुल से चले जाने के लिए कहा गया था देव, परन्तु मेरे जीवन का ध्येय तो आपका शिष्य बनना है।"
"तुम्हारी आयु क्या है वत्स?"
"सोलह वर्ष।"
"परन्तु तुम तो बारह वर्ष से अधिक के नहीं लगते। अस्तु, क्या तुमने वेदाभ्यास किया है?"
"हाँ गुरुदेव।"
"और धनुर्विद्या की प्रारंभिक शिक्षा?"
"प्राप्त की है गुरुदेव।"
"गदायुद्ध?"
"वह मैं आपके श्रीचरणों में प्राप्त करूँगा देव।"
"हूँ, और मल्लयुद्ध?"
लड़का थोड़ा सकुचाया, पर जब बोला तो उसके स्वर दृढ़ थे, "नहीं गुरुदेव, मेरे आचार्यों ने मुझे गदा और मल्लविद्या नहीं सिखाई। उन्हें लगता था कि मैं लड़की हूँ।"
द्रोण थोड़ा मुस्कुराए और बोले, "लड़कियों को तो मैं भी शिक्षा नहीं देता वत्स। उनके लिए योग्य गुरु मेरे गुरुकुल में नहीं। तुम अपना पूर्ण परिचय दो ब्रह्मचारी।"
"मैं ब्राह्मण नहीं हूं देव। कौशिक क्षत्रिय हूँ। मेरी स्वर्गीय माता काशी की राजकन्या थी। और मेरे पिता, मेरे पिता आपके शत्रु पांचाल नरेश यज्ञसेन द्रुपद हैं।"
अभी तक मंद-मंद मुस्कुराते द्रोण की हँसी विलुप्त हो गई, वे चौकन्ने हो गए। सशंकित द्रोण बोल पड़े, "ओह, तो जो सुना, वह सच है। द्रुपद का एक पुत्र वास्तव में पुत्री है।"
"इसमें मेरे पिता का दोष नहीं गुरुदेव। वे तो आज भी कहते हैं कि मैं वास्तविकता स्वीकार कर लूं। मेरा जन्म ननिहाल में हुआ था, जहां मेरी शंकालु माता ने यह समझकर कि पिता को पुत्र चाहिए था, पुत्री होने पर वे कुपित होंगे, उन्हें मिथ्या समाचार भिजवाया। दस वर्ष की अवस्था में माता की मृत्यु पश्चात मुझे काम्पिल्य लाया गया जहां ये भेद खुला।"
"पर तुम तो विवाहित भी हो?"
"हाँ गुरुदेव, छह वर्ष की अवस्था में दशार्ण की राजकुमारी का प्रस्ताव आया था जिसे पिता ने स्वीकार कर लिया। कठिनाई यही है गुरुदेव, अब राजा हिरण्यवर्मा अपनी पुत्री को विदा करना चाहते हैं। यदि वे आ गई तो सारा भेद खुल जायेगा देव। मेरे कारण मेरे पिता एवं पूरे साम्राज्य को लज्जित होना होगा। मेरे पास कोई रास्ता नहीं था देव, मैं आत्महत्या करने जा रहा था कि मुझे वे मिले। उन्होंने मुझे आपके पास भेजा।"
"मेरे पास, परन्तु क्यों? जिसने भी तुम्हें मेरे पास भेजा है वह अवश्य ही कोई मूर्ख व्यक्ति होगा।"
"नहीं देव, वे पृथ्वी पर सभी जीवित मनुष्यों में सबसे अधिक बुद्धिमान हैं।"
"अच्छा! क्या नाम है उनका?"
"वे कृष्ण वासुदेव हैं देव।"
द्रोण को एक झटका सा लगा। उन्हें लगा कि ये कृष्ण उनके चारों ओर कोई जाल बुन रहा है। द्रुपद की एक पुत्री से विवाह, और दूसरी पुत्री को उनके पास भेजने का क्या प्रयोजन हो सकता है?
उन्होंने पूछा, "कृष्ण? वे तो द्रौपदी से विवाह करने वाले हैं ना?"
"मेरे पिता ने यह प्रस्ताव किया था, परन्तु जनार्दन ने यह कहते हुए मना कर दिया कि वे मेरे पिता के क्रोधोन्माद की आहुति बनने हेतु सज्ज नहीं हैं।"
द्रोण को लगा कि वे स्वप्न में ऐसी बात सुन रहे हैं। ऐसा प्रस्ताव कौन युवक ठुकरा सकता है? विश्वसुंदरी, अपितु अप्सराओं से भी अधिक सुंदर द्रौपदी को ठुकरा दिया? अतिशय धनवान और महान सेना के अधिपति द्रुपद से पारिवारिक सम्बंध को ठुकरा दिया? उन्हें लगा कि उनके अंदर कुछ परिवर्तित हुआ है। कुछ समय मनन करने के पश्चात उन्होंने कहा, "कृष्ण के इतने अधिक नाम क्यों हैं? मेरा प्रिय शिष्य स्वर्गीय अर्जुन भी कई नामों से प्रसिद्ध था। हाँ! तो उन्होंने तुम्हें यहां क्यों भेजा?"
"गुरुवर, जब कृष्ण वहां आये तो मैंने देखा कि सबमें सकारात्मक ऊर्जा भर आई है। मेरे क्रोधित पिता, अदम्य भाई, दृढ़ बहन, सबमें कुछ सुखद परिवर्तन सा हुआ। उसी समय मेरे ससुराल से दूत ने आकर सूचित किया कि कुछ ही दिनों में राजा हिरण्यवर्मा अपनी पुत्री, अर्थात मेरी पत्नी को लेकर काम्पिल्य आ रहे हैं। मैं डर गया था, कोई उपाय ना देख मैंने मृत्यु की शरण जाने का निश्चय किया। परन्तु वहां स्वयं कृष्ण थे। मैं रात्रि में उनसे मिलने गया। वे मेरे साथ नदी तट पर टहलते हुए मेरी व्यथा सुनते रहे। उन्होंने मेरे अश्रु पोंछे, मेरे गाल थपथपाए जैसे मैं कोई बच्चा होऊं।
"उन्होंने मुझसे कहा कि वत्स, जब तक धर्मयुक्त जीवन जीने का विकल्प हो, मरना नहीं चाहिए। तुम मरना ही चाहते हो तो मैं तुम्हें सम्मानपूर्वक मरने का मार्ग बताऊंगा। योद्धा बनो और किसी युद्ध में क्षत्रिय के समान वीरगति प्राप्त करो। गुरु द्रोण के पास जाओ। इस संसार में वही हैं जो किसी स्त्री को सच्चा योद्धा बना सकते हैं।"
"और तुमने उनका विश्वास कर लिया?"
"मेरे पास कोई विकल्प कहाँ था गुरुदेव। जब वे बोल रहे थे तो जैसे इस संसार में सिर्फ दो ही व्यक्ति थे, एक वे और दूसरा मैं। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम पिता की अनुमति के बिना मरने जा रहे थे तो उनकी इच्छा के विरुद्ध उत्तम जीवन जीने के लिए जीवित भी रह सकते हो। गुरु द्रोण के पास जाओ। वे भले ही तुम्हारे पिता के शत्रु हैं पर वे गुरु-शिष्य परम्परा के ध्वजवाहक हैं। वे किसी भी सच्चे शिष्य को विमुख नहीं कर सकते। उनके समक्ष सच्चे हृदय से जाना, मन में द्वेष का लेश भी ना रखना। उन्हें अपना पिता मानना।"
अचंभित द्रोण ने कहा, "और तुम यहाँ आ गए?"
विनीत शिखंडी ने उत्तर दिया, "हाँ गुरुदेव, मैं आपकी शरण में हूँ। आप मेरे आध्यात्मिक पिता हैं"।
द्रोण सोचते रह गए कि ये कृष्ण तो वास्तव में चमत्कारी है। मरने जा रहे व्यक्ति के अंदर जीवन का संचार तो कोई चमत्कारी ही कर सकता है। उसे मुझ पर भी इतना विश्वास है कि शत्रु की पुत्री को मेरी शरण में भेज दिया! आश्चर्य।
द्रोण गदगद स्वर में बोले, "शिखंडी, मैं तुम्हें स्वीकार करता हूँ। मैं तुम्हें उत्कृष्ट योद्धा बनाऊंगा, परन्तु क्या तुम पुरुष भी बनना चाहते हो? पुरुष बनना आवश्यक नहीं है, अपितु मेरी दृष्टि में स्त्री होना तो मानव का सौभाग्य है। अतः पुनः पूछता हूँ। क्या तुम पुरुष बनना चाहते हो?"
"चाहता हूँ गुरुदेव, पर जानता हूँ कि ये सम्भव नहीं।"
"मेरे प्रश्न का स्पष्ट उत्तर दो वत्स।"
"हाँ गुरुदेव, मेरा पुरुष मन इस स्त्री शरीर को स्वीकार नहीं कर पाता। आशीर्वाद दें गुरुदेव।"
"सोच लो शिखंडी। तुम्हारे इस सुंदर शरीर को काटा जाएगा, छीला जाएगा, कूटा जाएगा। मर्मान्तक पीड़ा होगी वत्स। महीनों तुम्हें कड़वी जड़ी-बूटियों पर निर्भर रहना होगा। अन्न और कभी-कभी जल भी नहीं मिलेगा।"
"मैं सब सहूंगा गुरुदेव।"
"ठीक है। तुम इस आश्रम में ब्रह्मचारी बनकर रहोगे। पर पहले तुम्हें यक्ष स्थूलकर्ण के पास भेजा जाएगा। वह विलक्षण व्यक्ति है। स्त्री से पुरुष बनाने वाली शल्य विद्या उसे आती है। शंख तुम्हें उसके पास ले जाएगा। मेरा आशीर्वाद लो पुत्र, तुम्हें इतिहास याद रखेगा।
अधिकतर घरों में बच्चे यह दो प्रश्न अवश्य पूछते हैं कि जब दीपावली भगवान राम के 14 वर्ष के वनवास से अयोध्या लौटने की खुशी में मनाई जाती है तो दीपावली पर लक्ष्मी गणेश पूजन क्यों होता है? राम और सीता की पूजा क्यों नहीं ?
दूसरा प्रश्न यह कि दीपावली पर लक्ष्मी जी के साथ गणेश जी की पूजा क्यों होती है, विष्णु भगवान की क्यों नहीं ?
संभव है कि यहाँ लिखे जा रहे विवरण से भिन्न कतिपय ज्ञान अन्य मित्रों के संज्ञान में हो किन्तु यथासाध्य उपलब्ध विवरण प्रस्तुत है।
दीपावली का उत्सव सतयुग और त्रेता दो युगों से जुड़ा हुआ है। सतयुग में समुद्र मंथन से माता लक्ष्मी उस दिन प्रगट हुई थी, इसलिए लक्ष्मीजी का पूजन होता है।
त्रेता युग में भगवान राम भी इसी दिन अयोध्या लौटे थे तो अयोध्या वासियों ने घर घर दीप जलाकर उनका स्वागत किया था, इसलिए इसका नाम दीपावली है।
अत: इस पर्व के दो नाम है लक्ष्मी पूजन जो सतयुग से जुड़ा है और दूसरा दीपावली, जो त्रेता युग ,प्रभु राम और दीपों से जुड़ा है।
लक्ष्मी गणेश का आपस में क्या सम्बन्ध है
और दीवाली पर इन दोनों की पूजा क्यों होती है?
समुद्र मंथन में मिलीं लक्ष्मी जी से भगवान विष्णु ने विवाह करके उन्हें सृष्टि के धन और ऐश्वर्य की देवी बनाया गया। लक्ष्मी जी ने धन बाँटने के लिए कुबेर को अपने साथ रखा। कुबेर बड़े ही कंजूस थे, वे धन बाँटते ही नहीं थे। वे खुद धन के भंडारी बन कर बैठ गए। माता लक्ष्मी खिन्न हो गईं, क्योंकि रहउनकी सन्तानों को कृपा नहीं मिल रही थी। उन्होंने अपनी व्यथा भगवान विष्णु को बताई। भगवान विष्णु ने कहा कि तुम कुबेर के स्थान पर किसी अन्य को धन बाँटने का काम सौंप दो। माँ लक्ष्मी बोली कि यक्षों के राजा कुबेर मेरे परम भक्त हैं उन्हें बुरा लगेगा।
तब भगवान विष्णु ने उन्हें गणेश जी की विशाल बुद्धि को प्रयोग करने की सलाह दी। माँ लक्ष्मी ने गणेश जी को भी कुबेर के साथ बैठा दिया। गणेश जी महाबुद्धिमान हैं।
वे बोले- “माँ, मैं जिसका भी नाम बताऊँगा, उस पर आप कृपा कर देना।”
माँ लक्ष्मी ने सहमति दे दी।अब गणेश जी लोगों के सौभाग्य के विघ्न, रुकावट को दूर कर उनके लिए धनागमन के द्वार खोलने लगे।कुबेर भंडारी देखते रह गए, गणेश जी कुबेर के भंडार का द्वार खोलने वाले बन गए। गणेश जी की भक्तों के प्रति ममता कृपा देख माँ लक्ष्मी ने अपने मानस पुत्र श्रीगणेश को आशीर्वाद दिया कि जहाँ वे अपने पति नारायण के सँग ना हों, वहाँ उनका पुत्रवत गणेश उनके साथ रहें।
दीपावली कार्तिक अमावस्या को पड़ती है, जब भगवान विष्णु योगनिद्रा में होते हैं। वे ग्यारह दिन बाद देव उठनी एकादशी को जागते हैं। माँ लक्ष्मी को पृथ्वी भ्रमण करने शरद पूर्णिमा से दीवाली के बीच के पन्द्रह दिनों में आना होता है। इसलिए वे अपने सँग अपने मानस पुत्र गणेश जी को लेकर आती हैं।
इसलिए दीवाली को लक्ष्मी गणेश की पूजा होती है।
यह विडंबना है कि भारतवर्ष के और देश के बहुसंख्यक हिंदुओं के सबसे बड़े त्यौहार का शैक्षिक पाठ्यक्रमों में कोई विस्तृत वर्णन उपलब्ध नहीं है और जो कुछ भी है वह अपर्याप्त और अस्पष्ट है । यह भी विचारणीय है ।
साभार: सोशल मीडिया
सपना बहुत मेधावी और सुंदर महिला थी, जिसे समाज में अपनी अलग पहचान बनाने की चाह हमेशा सक्रिय बनाए रखती थी । उसकी शादी बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहे मानव के साथ होने के बाद उसे महसूस होता कि समाज में केवल उसके पति को ही छोड़ अन्य सभी उसकी गतिविधियों को जानने को उत्सुक रहते हैं, जबकि उसके पति को उसकी सफलता और उपलब्धियों में कोई रुचि नहीं है ।
सपना हर रात इंतज़ार करती कि कब मानव घर लौटे और कब वह उसे अपने पूरे दिन के किस्से सुनाए।
अभी पिछले बुधवार ही तो उसे 'स्टार परफ़ॉर्मर ऑफ़ द मंथ' का अवॉर्ड मिला था, जिसकी खबर अख़बारों में पढ़कर जाने कितनी महिलाओं और पुरुषों ने उसे बधाई दी थी । सोशल मीडिया पर उसकी प्रशंसा के पुल बांधे जा चुके थे किन्तु मानव को अभी तक कोई ख़बर ही नहीं थी।
होती भी कैसे....? वह देर रात रात तक ऑफिस में काम करके घर आते ही चुपचाप खाना खाकर सो जाता था।
आज फिर जब सपना ने मानव से अपनी ख़ुशी बाँटना चाहा तो बोली-
"सुनो! तुम्हें पता है मुझे हाल ही में क्या मिला है ...?
"मैं कल पक्का सुनूँगा आज बहुत थक गया हूँ।" मानव ने उबासी लेकर कहा तो सपना झल्ला उठी ।
“तुम्हारा तो अब ये रोज़ का नाटक हो गया है। ऐसा भी क्या काम करना कि ख़ुद की बीवी के लिए ही टाइम ना निकाल पाओ.....?"
“सपना ! मैं ये सब हमारे लिए ही तो करता हूँ । तुम ऐसे गुस्सा क्यों हो रही हो...?"
"अच्छा ठीक है । तुम सो जाओ... । मेरे लिए अपना काम मत छोड़ो।" इतना कह कर सपना ने अपना मुँह चादर से छुपा लिया।
अगली सुबह जब सपना की नींद खुली तो उसने अपने बिस्तर का दूसरा हिस्सा खाली पाया।
"लो ! आज तो मानव समय से पहले ही ऑफ़िस चला गया। उसे अपने काम से ही शादी कर लेनी चाहिए थी ।" उसने सोचा।
सपना ने आँखें मलकर नींद खोली ही थी कि सामने से मानव को हाथ में चाय का प्याला ले कर आते हुए देखा.......!!
आश्चर्य से बड़ी-बड़ी आँखों से वह कुछ पूँछती कि उससे पहले ही मानव ने बोलना शुरू कर दिया।
“हाँ तो तुम कल कुछ कह रही थी कि मुझे कुछ बताना था?"
"तुम आज ऑफ़िस नहीं गए...?”
"नहीं। मैंने ऑफ़िस ड्यूटी से दस दिन की छुट्टी लिया है, ताकि तुम्हारे साथ अपने पति होने की ड्यूटी पूरी कर सकूँ।”
इसीलिए तो इतने समय से ओवरनाइट काम करके सारे काम पहले ही ख़त्म कर लिए।"
सपना अब कुछ भी बोलने की हालत में नहीं थी।
वह बस चुपचाप यही सोचे जा रही थी कि कैसे ज़रा सी नासमझी और रिश्ते में आ गये ठंडेपन की वज़ह से ना जाने कितनी ग़लत फ़हमियाँ पैदा हो जाती हैं।
उसकी आँखों से आते आँसुओं को जैसे ही मानव ने देखा, उसने वहीं पास रखी टेबल पर चाय का कप रखा और सपना को सीने से लगा लिया।
वह फूट-फूट कर रोने लगी...! रोते रोते ही बोल पड़ी-
"अच्छा, आई एम सॉरी!”
मानव ने सपना के आँसू पोंछते हुए कहा-
"मैंने ना ! तुम्हारे बैग में वो 'स्टार परफॉर्मर' वाली ट्रॉफ़ी कल रात को ही देख ली थी। एंड आई एम वेरी प्राउड ऑफ यू। बस मैं एक बार सब कुछ तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूँ।” मानव ने सपना का माथा चूमते कहा ।
मानव का ऐसा प्यार देखकर सपना मुस्कुरा पड़ी और फिर चाय की चुस्कियों के साथ शांति तोड़ते हुए दोनों एक दूसरे से प्यार भरी बातों मे खो गये ...!
यही प्यार ...एक रिश्ता ...खट्टा मीठा ….. कुछ रुठना मनाना .... कुछ नोंकझोंक ... पहले प्यार से गुस्सा करना और फिर मान जाना .. या मना लेना ....! ज़िन्दगी में मिठास घोलती है।
चित्र साभार: गूगल
शादी की वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर पति-पत्नी साथ में बैठे चाय की चुस्कियां ले रहे थे।
संसार की दृष्टि में वो एक आदर्श युगल था।
दोनों में प्रेम भी बहुत था।
लेकिन कुछ समय से दोनों को ही ऐसा प्रतीत हो रहा था कि संबंधों पर समय की धूल जम रही है। शिकायतें धीरे-धीरे बढ़ रही थीं।
बातें करते-करते अचानक पत्नी ने एक प्रस्ताव रखा कि मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना होता है, लेकिन हमारे पास समय ही नहीं होता एक-दूसरे के लिए।
इसलिए मैं दो डायरियाँ ले आती हूँ। और हमारी जो भी शिकायत होगी, हम पूरा साल अपनी-अपनी डायरी में लिखेंगे।
अगले साल इसी दिन हम एक-दूसरे की डायरी पढ़ेंगे, ताकि हमें पता चल सके कि हममें कौन सी कमियां हैं । जिससे कि उसकी पुनरावृत्ति ना हो सके।
पति भी सहमत हो गया कि विचार तो अच्छा है।डायरियाँ आ गईं और देखते ही देखते साल बीत गया। अगले साल फिर विवाह की वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर दोनों एक साथ बैठे।
एक-दूसरे की डायरियाँ लीं। पहले आप,पहले आप की मनुहार हुई। आखिर में महिला प्रथम की परिपाटी के आधार पर पत्नी की लिखी डायरी पति ने पढ़नी शुरू की....!
पहला पन्ना......
दूसरा पन्ना........
तीसरा पन्ना……….......आज शादी की वर्षगांठ पर मुझे ढंग का तोहफा भी नहीं दिया।
.......आज होटल में खाना खिलाने का वादा करके भी नहीं ले गए।
......आज मेरे फेवरेट हीरो की पिक्चर दिखाने के लिए कहा तो जवाब मिला बहुत थक गया हूँ।...... आज मेरे मायके वाले आए तो उनसे ढंग से बात नहीं की....!.......आज बरसों बाद मेरे लिए साड़ी लाए भी, तो वो भी पुराने डिजाइन की।
ऐसी अनेक रोज़ की छोटी-छोटी फरियादें लिखी हुई थीं।
पढ़कर पति की आँखों में आँसू आ गए। पूरा पढ़कर पति ने कहा: “मुझे पता ही नहीं था, मेरी गल्तियों का। मैं ध्यान रखूँगा कि आगे से इनकी पुनरावृत्ति ना हो।”
अब पत्नी ने पति की डायरी खोली ....ये क्या ?
पहला पन्ना……… कोरा
दूसरा पन्ना……….. कोरा
तीसरा पन्ना ……… कोरा
अब दो-चार पन्ने साथ में पलटे वो भी कोरे।फिर 50-100 पन्ने एक साथ में पलटे तो वो भी कोरे।
पत्नी ने कहा: “मुझे पता था कि तुम मेरी इतनी सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकोगे। मैंने पूरे साल इतनी मेहनत से तुम्हारी सारी कमियां लिखीं ताकि तुम उन्हें सुधार सको और तुमसे इतना भी नहीं हुआ...!!”
पति मुस्कुराया और कहा: “मैंने सब कुछ अंतिम पृष्ठ पर लिख दिया है।”
पत्नी ने उत्सुकता से अंतिम पृष्ठ खोला- उसमें लिखा था-
“प्रिये! मैं तुम्हारे मुँह पर तुम्हारी जितनी भी शिकायत कर लूँ लेकिन तुमने जो मेरे और मेरे परिवार के लिए त्याग किए हैं और इतने वर्षों में जो असीमित प्रेम दिया है, उसके सामने मैं इस डायरी में ऐसा कुछ लिख सकूँ ऐसी कोई कमी मुझे तुममें दिखाई ही नहीं दी। ऐसा नहीं है कि तुममें कोई कमी नहीं है लेकिन तुम्हारा प्रेम, तुम्हारा समर्पण, तुम्हारा त्याग उन सब कमियों से ऊपर है। मेरी अनगिनत अक्षम्य भूलों के बाद भी तुमने जीवन के प्रत्येक चरण में छाया बनकर मेरा साथ निभाया है। अब अपनी ही छाया में कोई दोष कैसे दिखाई दे मुझे!”
अब रोने की बारी पत्नी की थी। उसने पति के हाथ से अपनी डायरी लेकर दोनों डायरियाँ अग्नि में स्वाहा कर दीं और साथ में सारे गिले-शिकवे भी।
फिर से उनका जीवन एक नवपरिणीत युगल की भाँति प्रेम से महक उठा।
जब युवावस्था का सूर्य अस्तांचल की ओर प्रयाण शुरू कर दे तब हम एक-दूसरे की कमियां या गल्तियां ढूँढने की बजाए अगर ये याद करें कि हमारे साथी ने हमारे लिए कितना त्याग किया है, उसने हमें कितना प्रेम दिया है, कैसे पग-पग पर हमारा साथ दिया है तो निश्चित ही जीवन में फिर से प्रेम पल्लवित हो जाएगा।
साभार: चित्र गूगल
एक महात्मा जी एक रात्रि में "श्रीराम’" नाम का अजपा जाप करते हुए अपनी मस्ती में चले जा रहे थे।
जाप करते हुए वे एक गहन जंगल से गुज़र रहे थे।विरक्त होने के कारण वे देशाटन करते रहते थे। किसी एक स्थान में अधिक समय नहीं रूकते थे।
वे ईश्वर नाम प्रेमी थे। इस लिये दिन-रात उनके मुख से राम नाम जप चलता रहता था। स्वयं राम नाम का अजपाजाप करते तथा औरों को भी उसी मार्ग पर चलाते।
महात्मा जी गहन वन में मार्ग भी भूल गये थे और अपनी धुन में चले जा रहे थे । अचानक उन्हें कुछ दूर अँधेरे के बीच में बहुत सी दीपमालाएँ प्रकाशित दिखाई पड़ीं। महात्मा जी उसी दिशा की ओर चलने लगे।
निकट पहुँचकर देखा कि एक वटवृक्ष के पास अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र बज रहे हैं, नृत्य-गान और मद्य के साथ कई स्त्री पुरुष साथ में हँसते हुए उत्सव मना रहे हैं ।
उन्हें महसूस हुआ कि वे सब मनुष्य नहीं प्रेतात्माएँ हैं।
महात्मा जी को देखकर एक प्रेत ने उनका हाथ पकड़ कर कहा- “अरे मनुष्य ! चल, हमारे राजा तुझे बुलाते हैं।”
वे मस्तभाव से राजा के पास गये जो सिंहासन पर बैठा था। वहाँ राजा के इर्द-गिर्द कुछ और प्रेत खड़े थे।
प्रेतराज बोला- “तुम इस ओर क्यों आये ? इस बात का तुमने विचार नहीं किया कि इस वन में हमारा राज्य है ? तुम्हें मौत का डर नहीं है ?
हंसते हुए महात्मा जी बोले- “मौत का डर और हमें? राजन् ! जिसे जीने का मोह हो उसे मौत का डर होता हैं। हम साधु लोग तो मौत को आनंद का विषय मानते हैं।”
प्रेतराज- “तुम जानते हो हम कौन हैं?”
महात्माजी- “मैं अनुमान करता हूँ कि आप सब प्रेतात्मा हो।”
प्रेतराज- “मनुष्य लोग तो हमारे नाम से काँपते हैं।”
महात्माजी-“ प्रेतराज ! मुझे मनुष्यों में गिनने की ग़लती मत करना। हम ज़िन्दा दिखते हुए भी जीने की इच्छा से रहित, मृततुल्य ही हैं। यदि ज़िन्दा मानो तो भी तुम मार नहीं सकते। क्योंकि जीवन-मरण तो कर्माधीन है। क्या मैं एक प्रश्न पूछ सकता हूँ...?”
महात्मा जी की निर्भयता देखकर प्रेतराज बोला- “पूछो, क्या प्रश्न है....?”
महात्माजी- “प्रेतराज ! आज यहाँ आनंदोत्सव क्यों मनाया जा रहा है...?”
प्रेतराज- “मेरी इकलौती कन्या योग्य पति न मिलने के कारण अब तक कुआँरी हैं।
लेकिन अब योग्य जमाई मिलने की संभावना बन गयी है और कल उसकी शादी हो जाएगी । इसलिए यह उत्सव मनाया जा रहा है।”
महात्माजी- “तुम्हारा जमाई कहाँ हैं? मैं उसे देखना चाहता हूँ।”
प्रेतराज- “जीने की इच्छा के मोह का त्याग करने वाले महात्मा ! अभी तो वह हमारे पद (प्रेतयोनी ) को प्राप्त नहीं हुआ है। वह इस जंगल के किनारे एक गाँव के श्रीमंत (धनवान ) का पुत्र है।महादुराचारी होने के कारण इस वक्त वह भयानक रोग से पीड़ित है।कल संध्या के पहले उसकी मौत होगी। फिर उसकी शादी मेरी कन्या से होगी। इस लिये रात भर गीत-नृत्य और मद्यपान करके हम आनंदोत्सव मना रहे हैं।”
प्रेतराज की बात की सत्यता को परखने के लिए महात्मा जी वहाँ से विदा होकर श्रीराम नाम का अजपा जाप करते हुए जंगल के किनारे के गाँव में पहुँचे।
उस समय सुबह हो चुकी थी।
एक ग्रामीण से महात्मा जी ने पूछा- "इस गाँव में कोई श्रीमंत का बेटा बीमार है?"
ग्रामीणः जी हाँ, महाराज! नवलशा सेठ का बेटा सांकलचंद एक वर्ष से रोगग्रस्त है। बहुत उपचार पर भी उसका रोग ठीक नहीं होता।”
महात्मा जी नवलशा सेठ के घर पहुंचे!
सांकलचंद की हालत गंभीर थी। अन्तिम घड़ियाँ थीं, फिर भी महात्मा जी को देखकर माता-पिता को आशा की किरण दिखी। उन्होंने महात्मा जी का स्वागत किया।
सेठपुत्र के पलंग के निकट आकर महात्मा जी रामनाम की माला जपने लगे।
दोपहर होते-होते लोगों का आना-जाना बढ़ने लगा।
महात्मा जी- “क्यों, सांकलचंद ! ठीक हो?”
सांकलचंद ने आँखें खोलते ही अपने सामने एक प्रतापी संत को देखा तो रो पड़ा।
बोला "महात्मन ! आप मेरा अंत सुधारने के लिए ही पधारे हो। मैंने बहुत पाप किये हैं, अब भगवान के दरबार में क्या मुँह दिखाऊँगा? फिर भी आप जैसे संत के दर्शन हुए हैं, यह मेरे लिए शुभ संकेत है!" इतना बोलते ही उसकी साँस फूलने लगी, वह खाँसने लगा।
"बेटा ! निराश न हो भगवान राम पतित पावन है। तेरी यह अन्तिम घड़ी है अब काल से डरने का कोई कारण नहीं। ख़ूब शांति से चित्त वृत्ति के तमाम वेग को रोककर श्रीराम नाम के जप में मन को लगा दो। क्योंकि शास्त्र कहता है-
“चरितम् रघुनाथस्य शतकोटिम् प्रविस्तरम्।
एकैकमक्षरम् पुंषांमहापातक नाशनम्॥”
अर्थात् सौ करोड़ शब्दों में भगवान राम के गुण गाये गये हैं। उसका एक-एक अक्षर ब्रह्महत्या आदि महापापों का नाश करने में समर्थ हैं।
दिन ढलते ही सांकलचंद की बीमारी बढ़ने लगी।
वैद्य-हकीम बुलाये गये।क़ीमती औषधियाँ दी गयीं, किंतु अंतिम समय जानकर महात्माजी ने थोड़ा नीचे झुककर उसके कान में रामनाम लेने की उसे याद दिलायी।
"राम" बोलते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये। लोगों ने रोना शुरु कर दिया।
शमशान यात्रा की तैयारियाँ होने लगीं। मौक़ा पाकर महात्माजी भी वहाँ से चल दिये।
नदी तट पर आकर स्नान करके नामस्मरण करते हुए वहाँ से रवाना हुए तो शाम ढल चुकी थी।
फिर वे मध्यरात्रि के समय जंगल में उसी वटवृक्ष के समीप पहुँचे।
प्रेत समाज उपस्थित था।
प्रेतराज सिंहासन पर हताश होकर बैठे थे। आज वहाँ गीत,नृत्य, हास्य कुछ न था। चारों ओर करुण क्रंदन हो रहा था, सब प्रेत रो रहे थे।
सहज भाव से महात्मा जी ने पूछा- "प्रेतराज ! कल तो यहाँ आनंदोत्सव था, आज शोक-समुद्र लहरा रहा है।क्या कुछ अहित हुआ है?"
प्रेतराज- “इसीलिए तो रो रहे हैं। हमारा सत्यानाश हो गया।मेरी बेटी की आज शादी होने वाली थी। मगर अब वह कुँआरी ही रह जायेगी।”
महात्मा जी- “प्रेतराज ! तुम्हारा जमाई तो आज मर चुका है तो फिर तुम्हारी बेटी कुँआरी क्यों रह गयी ?”
प्रेतराज ने चिढ़कर कहा- “तेरे ही पाप से, मैं ही मूर्ख हूँ कि मैंने कल तुझे सब बता दिया। तूने हमारा सत्यानाश कर दिया।”
महात्मा जी ने विनम्र भाव से कहा- “मैंने आपका अहित किया, यह मुझे समझ में नहीं आया। क्षमा करना, मुझे मेरी भूल बताओगे तो मैं दुबारा नहीं करूँगा।”
प्रेतराज ने जलते हृदय से कहाः “यहाँ से जाकर तूने मरने वाले को नाम स्मरण का मार्ग बताया और अंत समय भी राम नाम कहलवाया। इससे उसका उद्धार हो गया और मेरी बेटी कुँआरी रह गयी।”
महात्माजीः “सिर्फ़ एक बार नाम जप लेने से वह प्रेत योनि से छूट गया....?”
प्रेतराजः”हाँ यह सच है ! जो मनुष्य राम नाम जप करता है, वह राम नाम जप के प्रताप से कभी हमारी योनि को प्राप्त नहीं होता। भगवन्नाम जप में नरकोद्धारिणी शक्ति है।”
प्रेत के द्वारा रामनाम का यह प्रताप सुनकर महात्माजी प्रेमाश्रु बहाते हुए भाव समाधि में लीन हो गये।
और जब उनकी आँख खुलीं तब वहाँ कोई प्रेत समाज नहीं था, बाल सूर्य की सुनहरी किरणें वटवृक्ष को शोभायमान कर रही थीं।रामनाम माहात्म्य के प्रति वे नतमस्तक हो गये।
मनुष्य: परमात्मा की अनूठी रचना
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एक हाथी की मृत्यु हुई तो वह धर्मराज के यहाँ पहुँचा। धर्मराज ने आश्चर्य से उससे पूछा- ‘अरे! तुझे इतना बड़ा शरीर दिया था, फिर भी तू मनुष्य के वश में हो गया!’
हाथी बोला- ‘महाराज! यह मनुष्य नाम का प्राणी ही ऐसा है कि बड़े-बड़े इसके वश में हो जाते हैं।’
धर्मराज ने कहा- ‘हमारे यहाँ तो अनगिनत आदमी आते हैं।’
हाथी ने जवाब दिया-‘आपके यहाँ तो मुर्दे आते हैं, कोई जीवित आदमी आये तो पता लग जाएगा।’
धर्मराज ने दूतों से कहा-‘ अरे! एक जीवित आदमी लेकर आओ।’
दूत घूमते ही रहते थे। गर्मी के दिनों में उन्होंने देखा कि छत के ऊपर एक आदमी सोया हुआ है। दूतों ने उसकी खाट उठा ली और लेकर चल पड़े। उस आदमीं की नींद खुली तो देखा कि उसे चारपाई समेत कुछ लोग उठाकर उड़े जा रहे हैं ।वह मुनीम था और ग्रन्थ लिखा करता था। ग्रंथों में धर्मराज के दूतों के लक्षण आते हैं। उसने जेब से कागज और कलम निकली। कागज पर कुछ लिखा और जेब में रख लिया । उसने सोचा कि हम इनसे कुछ चूँ-चपड़ किया तो नीचे गिरूँगा और हड्डियाँ बिखर जाएँगी। वह खाट पर पड़ा रहा कि जो होगा, देखा जायगा।
सुबह होते ही दूत धर्मराज की सभा में पहुँचे। दूतों ने खाट नीचे रखी। उस मुनीम ने तुरन्त जेब से कागज निकाला और दूतों को दे दिया कि धर्मराज को दे दो। उस पर विष्णु भगवान् का नाम लिखा था। दूतों ने यह कागज धर्मराज को दे दिया। धर्मराज ने पत्र पढ़ा।
उसमें लिखा था- ‘धर्मराज जी से नारायण की यथायोग्य। यह हमारा मुनीम आपके पास आता है। इसके द्वारा ही अब सब काम कराना ।
हस्ताक्षर: नारायण, वैकुण्ठपुरी।
पत्र पढ़कर धर्मराज ने अपनी गद्दी छोड़ दी और बोले- “आइये महाराज! यहाँ इस गद्दी पर बैठिए।” धर्मराज ने मुनीम को गद्दी पर बैठा दिया कि भगवान् का आदेश है।
धर्मराज की सभा की कार्यवाही आगे बढ़ी । अब दूत एक दूसरे आदमी को लाये। मुनीम बोला-“यह कौन है?”
दूत- “महाराज! यह डाका डालने वाला है। बहुतों को लूट लिया, बहुतों को मार दिया। इसको क्या दण्ड दिया जाय?”
कायस्थ- “इसको वैकुण्ठ में भेजो।”
“यह कौन है?”
“महाराज! यह दूध बेचने वाला है । इसने पानी मिलाकर दूध बेचा जिससे बच्चों के पेट बढ़ गये, वे बीमार हो गये। इसका क्या करें?”
“इसको भी वैकुण्ठ में भेजो।”
“यह कौन है?”
“इसने झूठी गवाही देकर बेचारे निर्दोष लोगों को फँसा दिया। इसका क्या किया जाय?”
“अरे, पूछते क्या हो? वैकुण्ठ में भेजो।”
अब व्यभिचारी आये, पापी आये, हिंसा करने वाले आये, जो कोई भी आये, उसके लिए एक ही आज्ञा कि ‘बैकुण्ठ में भेजो।’
अब धर्मराज क्या करें? गद्दी पर बैठा मुनीम जो कह रहा है, वही ठीक। वहाँ बैकुण्ठ में जाने वालों की कतार लग गयी। भगवान् ने देखा कि इतने लोग यहाँ कैसे आ रहे हैं? कहीं मृत्युलोक में कोई महात्मा प्रकट हो गये? बात क्या है, जो सभी को बैकुण्ठ में भेज रहे हैं? कहाँ से आ रहे हैं? देखा कि ये तो धर्मराज के यहाँ से आ रहे हैं।
भगवान् धर्मराज के यहाँ पहुँचे। भगवान् को देखकर सब खड़े हो गये। धर्मराज भी खड़े हो गये। मुनीम भी खड़ा हो गया। भगवान् ने पूछा- “धर्मराज! आपने सबको वैकुण्ठ भेज दिया, बात क्या है? क्या इतने लोग भक्त हो गये?”
धर्मराज- “प्रभो! यह मेरा काम नहीं है। आपने जो मुनीम भेजा है, उसका काम है।”
भगवान् ने मुनीम से पूछा- “तुम्हें किसने भेजा?”
मुनीम- “आपने महाराज!”
“हमने कैसे भेजा?”
“क्या यह मेरे वश की बात है, जो मैं जीवित यहाँ आ पाता? आपने ही तो भेजा है। आपकी मर्जी के बिना कोई काम होता है क्या?”
“ठीक है, मगर तूने यह क्या किया?”
“मैंने क्या किया महाराज?”
“तूने सबको वैकुण्ठ में भेज दिया।”
“यदि वैकुण्ठ में भेजना खराब काम है तो जितने संत-महात्मा हैं, उनको दण्ड दिया जाय। यदि यह खराब काम नहीं है तो उलाहना किस बात की? इस पर भी आपको यह पसंद न हो तो सब को वापस भेज दो। परन्तु भगवद्गीता में लिखा यह श्लोक आपको निकालना पड़ेगा- ‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम् परम मम’- ‘मेरे धाम में जाकर पीछे लौटकर कोई नहीं आता।”
“बात तो ठीक है। कितना ही बड़ा पापी हो, यदि वह बैकुण्ठ में चला जाय तो पीछे लौटकर थोड़े ही आयेगा। उसके पाप तो सब नष्ट हो गये। पर यह काम तूने क्यों किया?”
“मैंने क्या किया महाराज? मेरे हाथ में जब बात आयेगी तो मैं यही करूँगा, सबको बैकुण्ठ भेजूँगा। मैं किसी को दण्ड क्यों दूँ? मै जानता हूँ कि थोड़ी देर के लिए गद्दी मिली है, तो फिर अच्छा काम क्यों न करूँ? लोगों का उद्धार करना खराब काम है क्या?”
भगवान् ने धर्मराज से पूछा- “धर्मराज! तुमने इसको गद्दी कैसे दे दी?”
धर्मराज बोले- “महाराज! देखिये, आपका कागज आया है। नीचे साफ-साफ आपके हस्ताक्षर हैं।”
भगवान् ने मुनीम से पूछा-“क्यों रे, ये कागज मैंने तुम्हें कब दिया?”
कायस्थ बोला- “आपने ही गीता में कहा है-‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ यानी ‘मैं सबके हृदय में रहता हूँ’; अतः जब हृदय से आज्ञा आयी कि कागज लिखो तो मैंने लिख दिया। हुक्म तो आपका ही हुआ। यदि आप इसको मेरा मानते हैं तो गीता में से उपर्युक्त बात निकाल दीजिये!”
भगवान् ने कहा- “ठीक है, ठीक है ।”
फिर धर्मराज से पूछा- “अरे धर्मराज! बात क्या है? यह यहाँ जीवित कैसे आ गया?”
धर्मराज बोले- “महाराज! दूत ही इसे ले आए।”
फिर दूतों से पूछा- “तुम लोग इसे क्यों लाए?”
दूत बोले- “महाराज! आपने ही तो एक दिन कहा था कि एक जीवित आदमी लाना।”
धर्मराज- “तो वह यही है क्या? अरे, तो इसका परिचय तो दे देते।”
दूत- “हम क्या परिचय देते महाराज। आपने तो कागज लिया और इसको गद्दी पर बैठा दिया। हमने सोचा कि आपसे परिचय होगा तो फिर हमारी हिम्मत कैसे होती बोलने की?”
हाथी वहाँ खड़ा सब देख रहा था, बोला- “आपने कहा था कि तू कैसे आदमी के वश में हो गया? मैं क्या वश में हो गया, वश में तो धर्मराज हो गये और भगवान् हो गये। यह आदमी बड़ा विचित्र जीव है महाराज। यह चाहे तो बड़ी उथल-पुथल कर दे। यह तो खुद ही संसार में फँस गया है बस।”
भगवान् ने कहा- “अच्छा, जो हुआ सो हुआ, अब तो नीचे चला जा।”
मुनीम बोला- “गीता में आपने कहा है- ‘मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते’ ‘मेरे को प्राप्त होकर पुनः जन्म नहीं लेता’ तो बतायें, मैं आपको प्राप्त हुआ कि नहीं?”
भगवान्- “अच्छा, तू चल मेरे साथ।”
मुनीम - “महाराज ! केवल मैं ही चलूँ? हाथी पीछे रहेगा बेचारा? इसकी कृपा से ही तो मैं यहाँ आया। इसको भी तो ले चलो साथ में!”
हाथी को चलने की अनुमति मिलते ही वह बोला- “मेरे बहुत से भाई यहीं नरक में बैठे हैं, सबको साथ ले लो।”
भगवान् बोले- “चलो, फिर सबको साथ ले लो!”
भगवान् के आने से हाथी का भी कल्याण हो गया, मुनीम का भी कल्याण हो गया और अन्य जीवों का भी कल्याण हो गया!
श्राद्ध से पितरों को भोजन कैसे मिलता है ? इसे अवश्य समझिये-
प्राय: कुछ लोग यह शंका करते हैं कि श्राद्ध में समर्पित की गईं वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती है?
कर्मों की भिन्नता के कारण मरने के बाद गतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई वृक्ष और कोई तृण बन जाता है। तब मन में यह शंका होती है कि छोटे से पिंड से या ब्राह्मण को भोजन करने से अलग-अलग योनियों में पितरों को तृप्ति कैसे मिलती है?
इस शंका का स्कंद पुराण में बहुत सुन्दर समाधान मिलता है
एक बार राजा करंधम ने महायोगी महाकाल से पूछा, 'मनुष्यों द्वारा पितरों के लिए जो तर्पण या पिंडदान किया जाता है तो वह जल, पिंड आदि तो यहीं रह जाता है फिर पितरों के पास वे वस्तुएं कैसे पहुंचती हैं और कैसे पितरों को तृप्ति होती है?'
भगवान महाकाल ने बताया कि विश्व नियंता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि श्राद्ध की सामग्री उनके अनुरूप होकर पितरों के पास पहुंचती है। इस व्यवस्था के अधिपति हैं अग्निष्वात आदि।
पितरों और देवताओं की योनि ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से कही गईं स्तुतियों से ही प्रसन्न हो जाते हैं।
वे भूत, भविष्य व वर्तमान सब जानते हैं और सभी जगह पहुंच सकते हैं। 5 तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति- इन 9 तत्वों से उनका शरीर बना होता है और इसके भीतर 10वें तत्व के रूप में साक्षात भगवान पुरुषोत्तम उसमें निवास करते हैं इसलिए देवता और पितर गंध व रसतत्व से तृप्त होते हैं। शब्द तत्व से तृप्त रहते हैं और स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं। पवित्रता से ही वे प्रसन्न होते हैं और वे वर देते हैं।
पितरों का आहार है अन्न-जल का सारतत्व- जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सारतत्व (गंध और रस) है। अत: वे अन्न व जल का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है।
किस रूप में पहुंचता है पितरों को आहार?
नाम व गोत्र के उच्चारण के साथ जो अन्न-जल आदि पितरों को दिया जाता है, विश्वदेव एवं अग्निष्वात (दिव्य पितर) हव्य-कव्य को पितरों तक पहुंचा देते हैं।
यदि पितर देव योनि को प्राप्त हुए हैं तो यहां दिया गया अन्न उन्हें 'अमृत' होकर प्राप्त होता है।
यदि गंधर्व बन गए हैं, तो वह अन्न उन्हें भोगों के रूप में प्राप्त होता है।
यदि पशु योनि में हैं, तो वह अन्न तृण के रूप में प्राप्त होता है।
नाग योनि में वायु रूप से,
यक्ष योनि में पान रूप से,
राक्षस योनि में आमिष रूप में,
दानव योनि में मांस रूप में,
प्रेत योनि में रुधिर रूप में
और मनुष्य बन जाने पर भोगने योग्य तृप्तिकारक पदार्थों के रूप में प्राप्त होता है।
जिस प्रकार बछड़ा झुंड में अपनी मां को ढूंढ ही लेता है, उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मंत्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं।
जीव चाहें सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।
श्राद्ध में आमंत्रित ब्राह्मण पितरों के प्रतिनिधि रूप होते हैं। एक बार पुष्कर में श्रीरामजी अपने पिता दशरथजी का श्राद्ध कर रहे थे। रामजी जब ब्राह्मणों को भोजन कराने लगे तो सीताजी वृक्ष की ओट में खड़ी हो गईं। ब्राह्मण भोजन के बाद रामजी ने जब सीताजी से इसका कारण पूछा तो वे बोलीं-
'मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे मैं आपको बताती हूं। आपने जब नाम-गोत्र का उच्चारण कर अपने पिता-दादा आदि का आवाहन किया तो वे यहां ब्राह्मणों के शरीर में छाया रूप में सटकर उपस्थित थे। ब्राह्मणों के शरीर में मुझे अपने श्वसुर आदि पितृगण दिखाई दिए फिर भला मैं मर्यादा का उल्लंघन कर वहां कैसे खड़ी रहती? इसलिए मैं ओट में हो गई।'
तुलसी से पिंडार्चन किए जाने पर पितरगण प्रलयपर्यंत तृप्त रहते हैं। तुलसी की गंध से प्रसन्न होकर गरुड़ पर आरूढ़ होकर विष्णुलोक चले जाते हैं।
पितर प्रसन्न तो सभी देवता प्रसन्न- श्राद्ध से बढ़कर और कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है और वंशवृद्धि के लिए पितरों की आराधना ही एकमात्र उपाय है।
आयु: पुत्रान् यश: स्वर्ग कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।
पशुन् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।। (यमस्मृति, श्राद्धप्रकाश)
यमराज जी का कहना है कि श्राद्ध करने से मिलते हैं ये 6 पवित्र लाभ-
श्राद्ध कर्म से मनुष्य की आयु बढ़ती है।
पितरगण मनुष्य को पुत्र प्रदान कर वंश का विस्तार करते हैं।
परिवार में धन-धान्य का अंबार लगा देते हैं।
श्राद्ध कर्म मनुष्य के शरीर में बल-पौरुष की वृद्धि करता है और यश व पुष्टि प्रदान करता है।
पितरगण स्वास्थ्य, बल, श्रेय, धन-धान्य आदि सभी सुख, स्वर्ग व मोक्ष प्रदान करते हैं।
श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाले के परिवार में कोई क्लेश नहीं रहता, वरन वह समस्त जगत को तृप्त कर देता है।
नोट- यह पोस्ट किसी तर्क अथवा बुद्धि विलास के लिए न होकर मात्र उन लोगों के लिए है, जिनको हिन्दू धर्म की संस्कृति और परंपराओं पर विश्वास है ।
साभार चित्र: गूगल