डॉ.नरेन्द्रपाण्डेय:
संस्कृतभारती एवं संस्कृतं मम जीवनध्येयम्
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः। तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।।
कालो न यातो वयमेव याताः। तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।।
( भोगों को हमने नहीं भोगा, बल्कि भोगों ने हमें ही भोग लिया। तपस्या हमने नहीं की, बल्कि हम खुद तप गए। काल (समय) कहीं नहीं गया बल्कि हम स्वयं चले गए। तृष्णा जीर्ण नहीं हुई बल्कि हम स्वयं जीर्ण हो गए )
CONVOCATION-2024
हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय,धर्मशाला के सप्तम दीक्षांत समारोह से पूर्व विभागीय समावृत्त मौक्तिकों के साथ।
"अप्प दीपो भव" अर्थात् स्वयं प्रकाशवान् बनो।
गौरव का विषय है।
वाल्मीकि के राम ‘विग्रहवान् धर्म’ हैं। उनके जीवन में धर्माचरण है। उनका धर्माचरण यज्ञशाला या मंदिर में नहीं, व्यवहार में दिखता है। उनका योग कन्दरा में नहीं, समाज के बीच में, राजमहल में होता है। वे हर्षित-दुखित होते हैं, उनका संयोग-वियोग होता है। उनका जीवन समग्र है, एकांगी नहीं। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड के प्रथम सर्ग में तो श्रीराम के गुणों का ही वर्णन है- प्रशान्तात्मा, मृदुभाषी, स्नेह-सान्त्वना-सहानुभूति-कृतज्ञता-शीलयुक्त, प्रजानुरागी, अवसरोचित बोलने वाले, व्यवहारकुशल, स्थितप्रज्ञ, अप्रमादी, शास्त्रज्ञ और राजा के गुण-अर्थ के उपार्जन, संरक्षण और वितरण की विधि में निपुण आदि का वर्णन है। उनमें अनन्त गुण हैं किन्तु कोई ऐसा नहीं जो मनुष्य के लिए दुर्लभ हो। सभी गुण ग्रहणीय और अनुकरणीय हैं, केवल प्रशंसनीय नहीं। श्रीराम के चरित्र का अनुसरण-अनुकरण करने में, अपने चरित्र को पवित्र बनाने में किसी जाति-पंथ-संप्रदाय-भाषा-राष्ट्रीयता-लिंग का भेदभाव नहीं। मनुष्य के जीवन का आदर्श हैं श्रीराम, उनका और उनके परिजनों का चरित्र। वाल्मीकि ने जिस हृदयस्पर्शी रीति से उनको एक सामान्य मानव के रूप में प्रस्तुत किया है, वह उन्हें भगवान के अवतार या महामानव की छवि में बाँध कर नहीं रखता। #वन्दे_वाल्मीकिम्
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