Perfect Pari
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क्यों लगाई जाती है देवी-देवताओं और मंदिरों की परिक्रमा, जानिए परिक्रमा से होने वाले लाभ
हर हर महादेव
#शिवरात्रि
सरयू सुना रही मुक्ति-संघर्ष की दास्तां ...जब अफसरों की पत्नियों ने बंद की कमिश्नर की बोलती
प्रभु राम को पाकर
भक्त हुए भाव-विभोर...
#राम_का_भव्य_धाम #श्रीराम #अयोध्या #प्रभुश्रीराम
आ ही गए रघुनंदन, सजवा दों द्वार-द्वार, स्वर्ण कलश रखवा दों, बंधवा दों बंधन वार।। ॥ जय जय श्री राम ॥ #श्रीराम #अयोध्या
ये वही है जिसे हम बेर्रा कहते है और आप सब कोकाबेली कहते है।
आप सबकी कुमुदनी और हमारी कोईया का फल होता है।
पकने पर काली सरसों जैसे बीज निकलते है जिसे पीसकर बहुत ही बेहतरीन एवं स्वादिष्ट हलवा या लापसी बनाई जाती है।
वैसे हम सब तो इसे तालाब से निकाल कर कच्चा ही खा जाते थे थोड़ा कसैला सा स्वाद होता है लेकिन आंवले की तरह बाद में मुँह मिठास से भर जाता है।
मै छोटी सी थी नानी के घर से अपने घर पर नवरात्रि में आयी हुई थी क्योंकि मेरे घर पर माँ दुर्गा की काफ़ी बड़ी मूर्ति काफ़ी सालों से प्रतिष्ठित की जाती है।
सबकी नजर बचाकर हम दोनों भाई बहन तालाब में इसे तोड़ने के लिए उतर गए। मै नानी के घर से आयी थी तो पायल पहना हुआ था। पायल पानी या किचड़ में गिर न जाये इसलिए सावधानी बस उतार कर वही पर जमे एक पौधे की डाली पर टांग दिया।
दोनों भाई बहन खूब नहाये, बेर्रा निकाला, कपड़ों को फैला फैला कर मछली निकालने का असफलता प्रयास किया। जब मन भर गया और काफ़ी देर हो गयी तब घर आ गए।
अगले दिन नहाते समय मुझे याद आया कि मेरी पायल तो तालाब में छूट गयी है। भाग भाग कर गयी लेकिन उसे तो कोई और ले जा चुका था।
चांदी की दोनों पायल गुम कर चुकी थी जाहिर सी बात है कि घर पर अम्मा से खूब डांट पड़नी थी सो बहुत ज्यादा डरी हुई थी क्योंकि सावधानी के चक्कर में ही सही कांड तो हो चुका था।
डरते डरते अम्मा से बात बताई गयी और सजा का इंतजार करने लगी लेकिन अम्मा ने मेरी पूरी बात ध्यान सुनी और फिर बिन बोले वहाँ से चली गयी। मुझे लगा अम्मा नाराज है लेकिन वो एकदम सहज और सामान्य थी। अम्मा का न डाटना मुझे हजम नहीं हो रहा था इसलिए दो दिन बाद फिर डरते डरते न डाटने का कारण पूछा तो अम्मा बोली कि --मेरे डाटने या मारने से तुम्हारी पायल तो वापस आने से रही लेकिन तुमने झूठ नहीं बोला सब सच बताया आज अगर तुम्हे डांट या मार पड़ जाती तो अगली बार तुमसे गलती होती तो तुम डर के मारे झूठ बोलती और झूठ बोलना सीख जाती। इसका मतलब ये कतई नहीं है कि मै नहीं डांटुगी ये सोचकर तुम गलतियां करती रहो।
मै ने सर हिला दिया और उधर से चली आयी लेकिन अम्मा की बात और सीख मेरे जेहन में छप गयी और अब तक भूली नहीं।
आज जब ये बेर्रा देखा तो उस समय की बात याद आ गयी।
आपके तरफ इसे क्या कहते है और कैसे खाई जाती है अवश्य बताइयेगा।
जबसे विवाह हुआ गांव छूटा या यू कहिये बचपन छूटा तबसे बेर का स्वाद और बेर खाने की आदत भी छूट गयी।
बेर अब भी मिलते है। बड़े बड़े, लाल लाल, सुंदर सुंदर लेकिन उनमे स्वाद के नाम पर बस मिठास होती है क्योंकि ये बेर हैब्रिड होते है।
गांव में स्वतः उगने वाली देशी बेर की झाड़ियों वाले बेर का जो स्वाद होता था वो इनमे कहाँ होता है।
बेर को हमारे यहां की देशज बोली में बइर कहते है। बेर जैसे झाड़ी वाले पेड़ में एक बहुत छोटे छोटे बेर लगते है जो आकार में मसूर से बड़े मटर दाने से छोटे होते है जिनमे बस छिलका और बीज ही होता है। कच्चा रहने पर हरे रंग के और बेहद खट्टे होते है पकने पर एकदम काले रंग के और स्वाद में हल्की सी मिठास आ जाती है उसे हम सब मोकाईचा कहते है।
स्कूल जाते और लौटते समय काँटों की परवाह किये बिना इन बेरों की झाड़ियों में घुसकर बेर तोड़ कर खाना और जेब भर लेना हम सबकी सबसे जरूरी काम होता था फिर रास्ते भर बेर खाते और सड़क के किनारे उसके बीज मुँह से उछालते आते थे। सम्भवतः हमारे फेके गए यही बीज फिर उगते थे क्योंकि बेर का पेड़ कभी कोई उगाता नहीं था ये स्वयं ही सड़क के किनारे उग आते थे।
कच्ची सड़क की पगडंडी वाले गांव की राह के दोनों तरफ से मुंजा लगा रहता था और उसी के बीज ये बेर की झाड़ी भी उगी रहती थी। लम्बे आकार के बेर का पेड़ होता है इसे हम सब बेर कहते थे। मोकाईचा और गोल बेर जिसे झरबेरी कहते थे इनकी झाड़िया होती थी।
हमें तो ताजे ताजे सीधे पेड़ से तोड़कर खाने का स्वाद ही पता था या फिर जब बेर एकदम कच्ची और उसके बीज नरम रहते थे तब भी उनके बीज समेत उन्हें तोड़ कर खा लेते थे हालांकि ऐसा करने से घर में डांट पड़ती थी कि मत खाया करो खांसी हो जाएगी।
मध्य प्रदेश आयी तो पहली बार इंदौर में राजवाडा के सामने एक अम्मा ने सूखे बेर पर कुछ चटपटा सा मसाला छिड़क कर दिया जो खाने में बहुत स्वादिष्ट लगे थे तब पता चला कि यदि इन्हे तोड़कर संरक्षित कर लिया जाय तो बाद में खाने पर भी बहुत आंनद आता है।
अब तो लगभग हर दर्शनीय स्थलों के सामने ये सूखे बेर मसाला छिड़क कर बिकते मिल जाते है।
आप सबको पोस्ट अच्छी लगी तो लाइक करें, कॉमेट करें शेयर करके उत्साहवर्धन करें ताकि मै यू ही तमाम तरह के संस्मरण आप सबसे साझा करके आप सबको बहुत सी भूली बिसरी बातें याद दिलाती रहूँ
ये जरकुश है।
वही जिसे आप सब लेमन ग्रास कहते है। नीबू जैसी अद्भुत सुगंध देने वाला ये पौधा बहुत गुणकारी होता है।
आप इसे दूध वाली चाय में डालिये, ग्रीन टी के रूप में पीजिये, काढ़ा बनाये या हमारे गांव की तरह काली मिर्च, लौंग, तुलसी पत्ता और जरकुश डालकर बढ़िया गुड़ वाली काली चाय बनाकर पीजिये।
जरकुश की सुगंध, लौंग,काली मिर्च का तीखा स्वाद और गुड़ का गुण आपका तन मन दोनों स्वस्थ कर देगा।
ये कुछ ऐसे औषधीय पौधे होते है जिन्हे जरूर लगाना चाहिए ये आपको कोई नुकसान नहीं देते बल्कि न जाने कितना आपके लिए लाभदायक होते है।
आप सबकी इस पौधे के बारे में उसके प्रयोग एवं गुण के बारे में जो जानकारी हो अवश्य बताये
कितने प्यारे प्यारे खूबसूरत से फूल है न!
इसे अकरकरा कहते है।
हमारे इधर गांव में इसे ही बज्रदंती कहते है। इसको खाने से जीभ में एक अजीब सी झंझनाहट होती है मानो सुन्न हो गयी हो इसलिए हम सब जब छोटे थे तब इसे जीभीयालोढ़ा भी कहते थे।
हमारे गांव में इसके पौधे नहीं थे तो हम सब बच्चे पड़ोस के गांव के बच्चों से खड़िया मिट्टी, चॉक, स्याही के बदले इस अकरकरे के फूल खरीदा करते थे और मुँह में रखकर इसकी झंझनाहट महसूस किया करते थे।
मेरे बाबा जी को किसी ने बताया कि खैनी में मिलाकर खाने से खैनी व मसाले का स्वाद बढ़ जाता है तो उन्होंने कही से लाकर कुछ पौधे नल के पास लगा दिए और अब तो ये सारे खेत, घर के आस पास पड़ी जमीन यानि सारे इलाके में फ़ैल गया है।
खैनी या पान मसाले में आप लोग मत प्रयोग कीजियेगा वो नशा की चीज है और नशा करना गलत बात है। लेकिन हाँ! ये दाँत के रोग में बहुत लाभदायक होता है।
बाकी आप सब इसके बारे में जो जानते हो अवश्य बताये
कनक (सोना ) कनक( धतूरा )ते सौ गुनी मादकता अधिकाय
वा पाए बौराय जग व खाये बौराय
यमक अलंकार का ये उदाहरण हम सबने बचपन में खूब रटा होगा। न रट सके तो मास्टर साहब के डंडे ने रटाया होगा।
ये कनक अर्थात धतूरा है जिसका स्वाभाव मादकता ही है।
हमारे भोले नाथ को धतूरा बहुत प्रिय है।
परन्तु हमारे गांव में अब भी धतूरा कही चोट, सूजन, दर्द, फोड़ा इत्यादि का प्राथमिक चिकित्सीय औषधि है।
किसी को कुछ भी होता तो हर किसी के मुँह से यही निकलता है कि धतूरे की पत्ती गर्म करके बांध दो ठीक हो जायेगा। सच में ठीक हो जाता था।
आप सब बताये इसे आप लोग और किस किस चीज में प्रयोग करते है
फोटो फेसबुक से ली गयी है
आज फेसबुक पर ये फोटो देखी तो याद आया कि कभी ये बान की बनी चारपाई का कितना महत्व हुआ करता था। अब तो बेड के आगे इन्हे कौन पूछता है लेकिन इन पर सोना बहुत आरामदायक एवं लाभदायक होता था।
हिंदी में चारपाई, देशज बोली में खटिया, पंजाब में इसे मंझी कहते है। जिस तरह से हाथ के पंखे यानि बेना की डिजाइन होती है वही डिजाइन इन चारपाई में भी डाली जाती थी। बहुत तरह के डिजाइन से इसे बुना जाता था।
बड़ी चारपाई को पलंग, माध्यम आकार की चारपाई, छोटी सी बच्चों वाली को खटोला कहते है।
इन पलंग, चारपाई एवं खटोले के पाए बड़े सुंदर सुंदर बनाये जाते थे। ये पटसन की बनी रस्सी से बुने जाते थे। घर में कोई न कोई बुजुर्ग जरूर होता था जो काम खत्म करके खाली समय में रस्सी बटता था। मेरे घर में मेरे बाबा के काका रस्सी बटते थे। बाद में मेरे मँझले बाबा और आजी दोनों बटने लगे थे। बटी रस्सी को भी सही आकार देने में बहुत मेहनत होती थी। रस्सी या पटसन के गुच्छे से पूरी रस्सी रगड़ रगड़ के साफ की जाती थी जिसका एक सिरा हम बच्चों को पकड़ाया जाता था फिर किसी लकड़ी में सारी रस्सी लपेटकर बंडल बनाया जाता था।
मेरे घर में मेरे मँझले बाबा और मेरी अम्मा दोनों ही चारपाई बना लेते थे। जब कोई चारपाई बनती थी तब एक कोने पर बाबा बनाने बैठते थे। एक कोने पर बड़ा सा घुंघट काढ़कर हमारी अम्मा बैठती थी। ससुर, बहू की जोड़ी मिलकर चारपाई बनाते थे क्योंकि इन दोनों के आलावा घर में और किसी को बनाने नहीं आता था।
बाद में पटसन की रस्सी की जगह प्लास्टिक ने ले ली फिर पट्टे से चारपाई बनने लगी। पलंग को मशहरी ने फिर बेड ने रिपेल्स किया और अब तो चारपाई कम ही रह गयी है यदि है भी तो लकड़ी की नहीं है लोहे के पाइप पर पट्टे से बुनकर यू ही कामचलाऊ वाली मिलती है।
इन चारपाई के भी अपने अलग ही नखरे होते थे। बारिश में ये अक्सर लंगड़ी हो जाती थी जिसे बिछाने से पहले दो लोग ठोक पीटकर सही करते थे।
अम्मा जैसी बान की डिजाइन वाली तो नहीं बनाने आती है लेकिन पट्टे वाली मै भी बना लेती हूँ।
बढ़िया से बुनी चारपाई हो तो बिस्तर की जरूरत नहीं पड़ती थी। अब भी गांव में जाते है तो दोपहरी में पेड़ की छाँव में ठंडी ठंडी हवा का आंनद लेते हुए बिन बिस्तर बिछाये गहरी नींद आ जाती है।
आप लोग भी अपने अनुभव बताये
कुछ लोग इसे वन तुलसी कहते है तो कुछ लोग अमेरिकन बेसिल कहते है। हमारी तरफ इसे नागबोय कहते है।
ये पौधा तुलसी मैया के साथ साथ हर घर में लगा देखा जा सकता है।
गांव के लोग इसका उपयोग भले न जानते हो लेकिन यदि उग आया है तो इसे उखाड़ते नहीं है। कुछ तुलसी कुछ नीबू जैसा मिश्रित सुगंध देने वाले इस पौधे का मै कुछ ही उपयोग जानती हूँ।
बचपन में जब प्रायमरी स्कूल में टॉनिक की बोतल में पीने का पानी घर से ले जाते थे तब इसकी कुछ पत्तियाँ उस पानी में डाल देते थे। हम सबको लगता था कि इसे डालने से पानी ताज़ा और ठंडा रहेगा। ताज़ा और ठंडा तो पता नहीं लेकिन पानी सुगंधित जरूर रहता था।
जब कभी किसी बच्चे के कान में दर्द होता था तब इसकी पत्तियाँ मसलकर उसका रस दो बून्द कान में टपका देते थे जिससे दर्द में आराम मिल जाता था।
बाकी आप सबको इसके बारे में जो जानकारी हो अवश्य बताये ताकि हमें भी सीखने का मौका मिल सके।
जे लैके आयी बाली, ते देखयक पाई हाली
जे लाई चाउर, ते देखक पाई आउर
जे लाई पिसान, ते देखक पाई बिहान
हेमामालिनी कय साड़ी देखो, मीना कुमारी कय मरकाहवा काजल देखो......
कुछ इस तरह के गीत गा गाकर जब हम छोटे थे तब एक बूढ़े काका सेनीमा दिखाया करते थे।
हमारे लिए तब यही सेनीमा होता था यही हमारे मनोरंजन के साधन थे।
बड़े से बॉक्स में तमाम हीरो हीरोइन और प्रसिद्ध जगहों की तस्वीर लगी होती थी। ऊपर एक हैंडल लगा होता था जिसे सिनेमा वाले काका घुमाते जाते थे और आ रहे चित्रों के बारे में मजेदार सा गीत बनाकर, गाकर बताते जाते थे। या यू कहिये एंकरिंग करते थे। उस डब्बे में लगे अनेकों छोटे छोटे झरोखे जिसमे शीशा लगा था और उसके ऊपर जंजीर की सहायता से ढक्कन लगाया रहता था। जब हम बच्चे देखने का मूल्य चुकाते थे तब काका ढक्कन खोल कर हमारे मुँह उस झरोखे से लगा देते थे। जैसे जैसे चित्र आते हमारी उत्सुकता, रोमांच बढ़ता जाता। देखने के बाद फिर हम सब बच्चे आपस में उसके बारे में ऐसे बात करते जैसे आजकल वायरल खबर पर हम सब बात करते है।
इसे देखने का मूल्य सिर्फ रुपया नहीं होता था बल्कि जिस बच्चे के हाथ - धान, गेहूं, मक्की की बाली, चावल, आटा जो लगा वही मौनी में लेकर दौड़ जाता था और काका सब कुछ अपनी झोली में बिन भेदभाव किये डाल लेते और बच्चे को पूरा सिनेमा दिखाते।
आप सब यदि कुछ जानते हो तो जरूर बताये
जबसे कुल्हड़ की चाय, कुल्हड़ की दही इत्यादि सोशल मिडिया पर छाने लगे तबसे मृतप्राय हुए कुम्हारो के इस रोजगार में जान आ गयी है।
एक समय था तब कोई भी कार्यक्रम होता था तब पत्तीयों से बने पत्तल और कुम्हार के बनाये कुल्हड़ में पानी, चाय परोसा जाता था। अब जबसे प्लास्टिक का चलन आया तबसे फाइबर के प्लेट, और गिलास हर तरफ न सिर्फ छा गए बल्कि पर्यावरण का विनाश करने में भी आगे है।
सच में कुल्हड़ में चाय या पानी पीने से सोंधेपन की महक उसमें खाये जाने वाले भोज्य पदार्थ का स्वाद कई गुना बढ़ा देती है।
मुझे याद है जब मै छोटी थी तब भी पत्तल और कुल्हड़ का प्रयोग होता था। हम बच्चे साफ सुथरे कुल्हड़ बीन कर फिर उनमे मिट्टी भरकर खेला करते थे। मेरी बचपन की एक सहेली जिसका विवाह बचपन में ही उनके परिवार वालों ने तय कर दिया था वो जब हम सबसे लड़ाई करके रूठ जाती थी तब गुस्से में कहती थी कि --- हम अपने बियाह मा केहू का कुल्हड़ न बीनय देब! तब हम सब उस समय उसकी धमकी से डर जाते थे और उससे पट्टी कर लेते थे। अब सोचकर हंसी आती है।
अच्छा है कि किसी बहाने से ही सही इन छोटे छोटे कारोबारियो को अपना रोजगार जीवित रखने की वजह तो मिली।
दीपावली में सड़क के किनारे से मै ढेर सारे मिट्टी के दिये खरीद लाती हूँ और मेरे घर में हर तरफ सिर्फ मिट्टी के दीये ही जलते है।
इन पारम्परिक रोजगारियो से यदि आप कुछ सामान खरीद लेते है तो आपके बजट पर बहुत असर नहीं पड़ेगा क्योंकि महंगे महंगे आयटम की जगह पर इनकी क़ीमत काफ़ी कम होती है लेकिन इनके रोजगार पर, इन पर बहुत असर पड़ेगा इनके घर में खुशहाली आएगी, खुशियाँ आएगी।
झाड़ी जैसा कांटेदार ये पौधा अपामार्ग, लहचिचिरा, लटजीरा अनेकों नाम से ये जाना जाता है।
चलते चलते कपड़ों पर चिपक जाता है यदि कभी नंगे पैरो पर चिपक जाये तो काफ़ी देर तक दर्द करता है।
अनेकों रोगों में इसका प्रयोग औषधि के रूप में होता है। जितना मुझे पता है दांतो के लिए सबसे अधिक लाभदायक है। पायरिया जैसे दंत रोग भी इसके सेवन करने से ठीक हो जाते है।
यू तो ऋषि पंचमी जैसे कुछ व्रत में इसकी दातुन करनी आवश्यक मानी जाती है परन्तु मै तो जब गांव जाती हूँ तब ब्रश नहीं ले जाती और खोज खोजकर इसकी ही दातुन से दाँत साफ करती हूँ।
यदि आपको भी ये कही रास्ते में मिल जाये तो इन्हे नष्ट मत करिये ये बहुत ही काम का पौधा है।
आप सबको इसके बारे में और जानकारी हो तो जरूर बताये
है न! एकदम ताजी ताजी!
आप सबके शब्दों में कहें तो आर्गेनिक यानि जैविक है।
कुछ साल पहले जैविक आर्गेनिक भी कुछ होता है ये नहीं पता था क्योंकि तब सब कुछ आर्गेनिक ही होता था। जबसे पैदावार बढ़ाने के लालच में खतरनाक केमिकल का प्रयोग होने लगा। इन रसायन के जब दुष्परिणाम आये तब लोग फिर से जैविक खेती की तरफ बढ़ने लगे।
वैसे ये ताजी ताजी जैविक फलियाँ न तो बाजार से आयी है न ही गांव से आयी है बल्कि मामा जी के छत पर गमले में लगी हुई थी। वही से अभी ताज़ा ताज़ा तोड़कर लाई हूँ इसकी सब्जी मेरे पसंदीदा सब्जियों में से एक है। एक गमले में गोल मिर्च भी खूब लगी हुई थी कुछ कच्ची तो कुछ पकी हुई थी लेकिन संध्या बेला हो गया था तो उन्हें नहीं तोड़ा।
इन फलियों का नाम भी बड़ा अजब गजब है। कोई इन्हे ग्वार फली कहता है तो कोई चतुरफली कहता है। यानि ये गंवार भी है और बुद्धिमान भी है। हमारे यहां तो इसे ग्वालिन सेम कहते है।
ग्वालिन सेम की कोई आलू डालकर सब्जी बना लेता है, कोई उबालकर चोखा बना लेता है। मुझे तो इसकी पारम्परिक विधि से बनी सब्जी ही पसंद आती है। मै ने जिस तरह खाई है या बनाती हूँ वो आप सबको बताती हूँ......
सबसे पहले इन फलियों को छोटे छोटे टुकड़े में तोड़ लें। तोड़ते समय ही इनके किनारो पर जो रेशे होते है उन्हें साथ साथ ही ध्यान से निकालते जाये। तोड़कर, धोकर रख दे।
अब लहसुन, हरी मिर्च, सरसों दाने, साबुत धनिया पीसकर कच्चा मसाला तैयार कर लें।
अब कड़ाही में तेल डाले गर्म होने पर सरसों के दाने का तड़का लगाए, दाने चटकने लगे तब मसाला डाले, हल्दी पाउडर डाल कर मिलाये और धीमी धीमी आंच पर मसालों को अच्छी तरह से भूनें।
जब मसाला अच्छी तरह से भून जाये तब थोड़ा सा पानी डालकर मसाले गीला करें और उसमें फलियाँ व नमक डालकर अच्छी तरह से मिलाये और धीमी आंच में पकने दे। जब फलियाँ पक जाये और मसाले हल्का हल्का चिपकने लगे, बढ़िया सी खुश्बू आने लगे तब उतार लें।
रोटी या चावल के साथ परोसे खुद भी खाये, घरवालों को खिलाये, प्रशंसा लूटे और फिर अपने अनुभव यहां आकर अवश्य बताये।
नोट -- देशी फलियों की सब्जी हैब्रिड के मुकाबले अधिक स्वादिष्ट बनती है। जब बाजार से फलियाँ खरीदे तो देशी ही खरीदे। देशी फलियाँ दानो से भरी होती है और आकार में थोड़ी छोटी होती है, फलियों पर छोटे छोटे रोयें भी होते है। रोयें से याद आया कि अगर पौधे से फलियाँ तोड़नी हो तो दस्ताने पहनकर तोड़े, इनके रोयें हाथ में चिपक कर खुजली करते है। मेरे हाथ अब तक खुजला रहे थे। धोकर सरसों का तेल लगाया तब राहत मिली है।
इसे कौन कौन जानता है?
ये कजरौटा है।
कभी ये हर घर में पाया जाता था। घर में छोटे बच्चे रहते थे तब उनके खटोले या चारपाई के वरडदउनी (पैताने ) रस्सी में लटका रहता था। छोटे बच्चों के साथ लोहा रखना आवश्यक माना जाता था और कजरौटा दो काम करता था। जब मन किया बच्चों को काजल लगा दो और पास में रखने से नकारात्मक शक्तियों को भी दूर रखता था।
हर सुहागन के पिटारी मतलब मेकअप बॉक्स में सिंदूर के लिए सिंघोरा, शीशा कंघी के साथ साथ ये कजरौटा भी रहता था।
दीपावली में बड़ी सी दीया जलाकर ऊपर से कोसा ढंक कर काजल पारा मतलब बनाया जाता था। अगर घर में कोई गर्भवती होती थी चाहे स्त्री या गाय भैंस हो तो उसके होने वाले बच्चे के नाम से रखा जाता था। माना जाता था काजल में आकृति उभर जाती है जिससे पता चलता था कि कुलदीपक आएगा या घर की लक्ष्मी आएगी। यानि बिना अल्ट्रासॉउन्ड लिंग परीक्षण की निंजा टेक्निक होती थी।
अमावस्या की रात बने काजल को रात में सोने से पहले घर के हर सदस्य को लगाया जाता था। इस दिन काजल लगाना शुभ माना जाता है। जो काजल लगवाने में आनाकानी करता था अगले जन्म में "सोन्हिहार बनबो " कहकर डराकर लगाया जाता था।
इसी काजल को बाद में गाय के घी में कई औषधि मिलाकर साजा जाता था ताकि ये खराब न हो और वर्ष भर यही लगाते थे। इनमे औषधि डाली जाती थी इसलिए ये काजल लगाने से आँखों को कोई बीमारी नहीं होती थी।
पहले मेले में खूब बिकते थे आसानी से मिल जाते थे अब तो घर से भी गायब हो गए है और मेले में भी नहीं दिखाई देते है
अब तो लॉगलस्टिंग आईकोनिंग काजल का समय है।
न ही कोई काजल पारता है न ही साजकर कजराऊटे में रखता है।
आप सबकी कोई और जानकारी हो तो कॉमेंट में जरूर बताये
तस्वीर फेसबुक ग्रुप से साभार है 🙏🏻🙏🏻
हमारी तरफ इसे हुरहुर कहते है।
लौकी की सब्जी में साबुत लाल मिर्च हींग और हुरहुर की तड़का लगी सब्जी बहुत स्वादिष्ट लगती है।
हुरहुर कभी बोया नहीं जाता था ये घर के आस पास, खेतों में, मेढ़ पर अपने आप उग आता है जिसे मेरी अम्मा काटती नहीं थी ताकि बाद में उसमें से उसके बीज संरक्षित किये जा सके।
मुझे तो आलू की सब्जी में भी इसका तड़का बहुत अच्छा लगता है।
दाँत के नीचे जब ये आते है तब करंची सा, सोंधा सा स्वाद आता है।
इसके पौधे, पत्तीयों से तीखी सी गंध आती है। पौधे हरी मिर्च के जितने या उससे बड़े होते है, पीले रंग के फूल आते है,पतली पतली फलियाँ लगती है। पकने पर बीज काले रंग के होते है।बारीक़ राई जैसे आकार के होते है। आप सबको भी अगर ये पौधा कही दिखे तो सरंक्षित कर ले।
एक फूल यहां फूले
एक फूल कलकत्ता
फूल के ऊपर पत्ता
बूझो क्या है?
बचपन ये पहेली अवश्य सुनी होगी।
जी हाँ! ये वही फूल है जिसके फूल के ऊपर पत्ता होता है और इस पौधे को गूमा कहते है।
गूमा बुखार की अचूक औषधि है। किसी भी प्रकार का कोई बुखार हो यदि आप नियमित रूप से इस गूमा का साग खाते है तो आपका बुखार ऐसे भागेगा कि कभी मुड़कर दुबारा वापस नहीं आएगा।
स्वाद में कड़वा जरूर है लेकिन फायदेमंद बहुत है जैसे नीम, करेला ये सब भी तो कड़वे होते है लेकिन हमें इनके गुण मालूम है इसलिए खाते है न!
तो फिर इस पौधे को आस पास खोजिये मिल जाये तो बनाये साग खाये और खिलाये
भूख उम्र नहीं देखती साहब 😭😭😭
दोस्तों इस उम्र में भी कोई काम करता दिखाई दे तो उनके पास रुके और उनसे बात करें अक्सर ऐसे लोगों का कोई अपना नहीं होता है और जब हम अपनापन दिखाते हैं तो यह बहुत प्रसन्न होते हैं जब भी मिलो तो इनकी खुद्दारी को नमन करना और इनसे जरूर कुछ ना कुछ लेना ऐसे लोग बस दो वक्त की रोटी के लिए मेहनत करते हैं,😭😭😭 दोस्तों भूख उम्र नहीं देखते..!
क्या गांव में आपका बचपन बीता है?
अगर बीता है जो इसे जरूर जानते होंगे। अगर जानते है तो इसे देखकर बहुत सी यादें ताज़ा हुई होगी।
है न!
वैसे जैसे मुझको ये तस्वीर देखकर बहुत कुछ याद आ गया।
मोटी मोटी लकड़ियों के खम्बे पर चारपाई टिकाकर, ऊपर से छप्पर डालकर बनाया गया ये झोपड़ीनुमा मकान मकान नहीं है बल्कि मचान है।
जब हम सब छोटे थे तब हमारे यहां मक्की,ककड़ी,अरहर,चरी,उड़द,सनई,पटसन सबको मिलाकर एक साथ बोया जाता था जिसे सहफसल कहते थे। अब आप सब लोग सोच रहे होंगे कि एक खेत में इतनी सारी फसल भला कैसे पनप पाती रही होगी तो उड़द के पौधे छोटे और ककड़ी की बेल होती थी जो नीचे रह जाती थी। चरी और मक्की कम अवधि वाली फ़सल है,जल्दी तैयार हो जाती थी। चरी पशुओं के लिए काट ली जाती थी। मक्की भुट्टा के तैयार होने पर कट जाती थी। पटसन की पत्तियाँ ऊपर भाग छोड़कर पशुओं के लिए तोड़ ली जाती थी बाद में काट लिया जाता था।अरहर की फ़सल सबसे अधिक समय लेती है इसलिए अंतिम में बस वही रह जाती थी और उसको पनपने का भरपूर अवसर मिल जाता था। कुछ इस तरह से एक साथ सारी फसल तैयार की जाती थी।
इन सब फसल के लिए तो नहीं लेकिन जब मक्की और ककड़ी तैयार होती थी तब उसकी रखवाली के लिए ये मचान बनाया जाता था। सोन्हियार, सियार इन फसलों के मुख्य दुश्मन होते थे और सबसे अधिक छोटे शरारती बच्चे जो ककड़ी चोरी करने में माहिर होते थे।
मचान पर घर का कोई बड़ा सदस्य रात भर पहरा देता था। जो रात में कई बार जगकर " होइहाहा होइहाहा" बोलकर पुरे खेत का चक्कर लगाता रहता था या फिर खेत के कोने कोने पर लटकाये टिन के डब्बे जिसकी डोरी मचान पर लगी होती थी उसे बजाया करते थे। टिन के डब्बे दिन में ज्यादा बजाए जाते थे। क्योंकि रात में जानवर होते थे तो दिन में कौवा, तोता जैसे पक्षी परेशान करते थे। उन्हें उडाने के लिए बजाया जाता था।
दोपहर में हम बच्चे जब स्कूल से वापस आते थे तब बस्ता फेंककर मचान की तरफ सरपट भागते थे। घर से तीखा नमक ले जाते थे साथ में भूनी लइया या कुछ इस तरह की खाने की वस्तुएँ ले जाते थे। कुछ नहीं मिला तो खेत से कच्ची ककड़ी ही तोड़कर नमक लगा कर खा लेते थे। कच्ची ककड़ी तीखे चटपटे नमक लगाकर खाने में बहुत स्वादिष्ट लगती थी।
घर पर खाने से ज्यादा आनंद मचान पर बैठकर खाने में आता था। कॉपी किताब भी वही ले जाकर स्कूल से मिला गृहकार्य कर लेते थे।
अहा! बड़े ही आनंद भरे वो दिन थे। अब तो छुट्टा पशुओं की वजह से इन सारी फसल की खेती होनी ही बंद हो गयी है। बीज बोते ही मोर चुग लेते है,उनसे बचा तो बंदर जमे हुए पौधे उखाड़ कर उसकी जड़े खा जाते है, बड़ा होने पर गौ वंश और नीलगाय नहीं छोड़ते। इतनी रखवाली करने के लिए किसी के पास अब समय ही नहीं होता इसलिए खेती करना ही बंद हो गया। अब जब ककड़ी नहीं, मक्की नहीं तो मचान की जरूरत भी नहीं है। हमने सुंदर बचपन जिया है जबकि हमारे बच्चों को मचान क्या होता है यही नहीं मालूम है।
खैर मेरी इतनी ही जानकारी थी बाकी आप सब लोग बताये, अपने अनुभव, अपनी यादें साझा करें। पोस्ट अच्छी लगी हो तो लाइक करें, कॉमेट करें। शेयर करके मेरा उत्साह वर्धन करें ताकि मै आप सबके समक्ष अच्छी अच्छी पोस्ट रख सकू।
ये जो कमल के जैसा फूल देख रहे है न!
इसे लोग" कुमुदनी" कहते है लेकिन हमारे पूर्वांचल में इसे" कोइया " कहते है।
अब इसके खिलकर पुरे तालाब को गजर मजर भर देने का समय आ गया है। पुरे तालाब में ये फ़ैल कर जब खिलतीं थी तो हम लोग जैसे देशी बच्चे इसको ही कमल का फूल मानकर ख़ुश हो लेते थे।
इसको नाल सहित तोड़कर इसकी माला बनाकर पहन लेते थे और फिर स्वयं को किसी महाराजा से कम नहीं समझते थे हालांकि धीरे धीरे इसकी सारी नाल हमारे उदर में समा जाती थी और अंतिम में फूल की पखुड़िया भी तोड़कर उसके राई से भी नन्हें नन्हें पीले रंग के बीज खा जाते थे।
इसका स्वाद आंवले की तरह थोड़ा कसैला होता था लेकिन बाद में पुरे मुँह में एक अनोखा सा मिठास घुल जाता था।
फूल हमारे पितरो को अर्पित किये जाते थे बाकी तो हमारे खेलने और खाने के काम ही आता था।
फूल सूखने के बाद इसका जो फल आता था उसे" बेर्रा " कहते थे। बेर्रा के अंदर सरसों के आकार के काले काले बीज निकलते थे। बेर्रा को तोड़ते समय ही हम सब न जाने कितने पेट में उतार लेते थे जो बचता था उसे घर लाते थे जिसे हमारी आजी सुखा कर उसका बीज निकाल लेती थी। इसके बीज से बहुत स्वादिष्ट लापसी बनती थी।
जब फल फूल खत्म हो जाते थे और पानी सूख जाता था तब तालाब के किचड़ में लथपथ होकर इसकी जड़ निकालने की बारी आती थी। जिसे शेरखी कहते थे। मूल जड़ के साथ साथ उसमें अनेकों छोटी छोटी शेरखी होती थी। दिन में शेरखी निकाली जाती थी और शाम को कउड़ा(अलाव )में डालकर भूनकर सारे बच्चे मिल बाँट कर लड़ झगड़कर खाते थे।
अहा! न जाने कहाँ गए वो बच्चे और वो दिन?
कभी यदि ये मिले तो घर जरूर लाये बच्चों को इसके बारे में बताये।
नेचुरल लूफा नाम से विदेशों में उच्च क़ीमत पर बिकने वाला तस्वीर में जो दिख रहा है वो दरअसल नेनुआ का गूदा है।
जी हाँ!
हमारे घर या गांव में जब नेनुआ या तरोई समय से नहीं तोड़ी जाती थी और कड़ी हो जाती थी सब्जी बनाने योग्य नहीं रहती थी तब उसे उसकी लता में ऐसे ही छोड़ दिया जाता था। जो अगले वर्ष पककर बीज का इंतजाम कर देती थी।
नेनुआ या तरोई दोनों की ही लता होती है जो की छप्पर, खेतों की मेढ़ पर या खेत में ही लकड़ी के बाढ़ के सहारे उगाई जाती है इसलिए अक्सर पत्तों व लताओं में छिपी तरोई तोड़ते समय छूट जाती थी। जब ये छूट ही जाती थी तब इसे बीज के लिए लता में ही पकने के लिए रहने दिया जाता था।
सब्जी का सीजन खत्म होने के बाद जब लताएं सूख जाती थी तब इन तरोई को तोड़कर कहीं लटका दिया जाता था ताकि बीज संग्रह किया जा सके।
आवश्यकता से अधिक तरोई जब कड़ी हो जाती थी तब इनके बीज संभाल लिए जाते थे लेकिन इनकी खोल कहिये या गूदा कहिये इससे हम सब बर्तन मांजते थे। तब चूल्हे पर भोजन बनता था और मिट्टी व राख की मदद से तरोई के लूफे से रगड़ कर बर्तन साफ किया जाता था। ये अंग्रेजो का लूफा ही हमारा स्कोच ब्राईट हुआ करता था। बिम बार टिकिया की जगह पर राख में ही डिटर्जेन्ट पाउडर मिलाकर बर्तन धोकर चमका देते थे।
हाँ ये लूफा सर्दियों में बच्चों को नहलाते समय उनके फ़टे हाथ पैर की मैल व रूखी त्वचा को रगड़कर साफ करने के काम आता था।
बचपन में नेनुआ के सूखे इस गूदे के बारे में नहीं पता था कि हमारा ये लूफा आगे चलकर नेचुरल लूफा नाम से ब्रांड बनकर ऊँची क़ीमत पर बिकेगा और खरीदा जायेगा।
भाई हर चीज को मूल्यवान समझिये पता नहीं कब कौन ब्रांड बन जाये।
समझ रहे है न।
ये जो थोड़ी बिखरी सी रोटी देख रहे है न! इसके रंग, रूप आकार पर मत जाइये। आप तो बस इसके गुण और स्वाद देखिए।
ये चूनी की रोटी है। अब आप सब सोच रहे होंगे कि ये चूनी क्या बला है? जो थोड़े पुराने लोग है उन्हें भली भांति पता है कि चूनी क्या होती है? उसकी रोटी का स्वाद क्या होता है?
मुझसे सालों से जुड़े लोगों को पता होगा कि मेरा बचपन अधिकतर नानी के घर बीता है इसलिए लगभग मेरे सभी संस्मरण और अनुभव वही के है। जब मेरे नाना जी थे तब हमारे यहां की हर सफल इतनी जबरदस्त होती थी कि आस पास क्षेत्र के लोग नाना जी के खेत, फ़सल देखने आते थे और उनसे अधिक उपज व अच्छी खेती करने के तरीके सीखते थे।
हम पूर्वांचल वासियों का भोजन बिना दाल के सम्पूर्ण नहीं माना जाता है। अगर संयुक्त परिवार है और परिवार के लोगों की संख्या अधिक है तब सुबह, शाम दोनों समय भोजन में दाल बनाई जाती थी। दलहन फसल में चना, मटर, उड़द, मसूर, अरहर सब तरह की दाल की खेती होती थी परन्तु प्रयोग में अधिकतर अरहर दाल ही होती है। उड़द दाल शुभ अवसर पर बनाई जाती थी। चना या मटर की दाल उड़द या अरहर की दाल में मिक्स करने के काम में ली जाती थी।
जब अरहर दाल पुरे वर्ष खायी जाती थी तो उसकी खेती भी अच्छी तरह से की जाती थी ताकि वर्ष भर अरहर खत्म न हो। अरहर की फ़सल तैयार होने में लगभग एक वर्ष लेती है इसलिए उसके साथ मक्का, ककड़ी, उड़द, पटसन, चरी जैसी सहफसल भी बोई जाती थी।
जब अरहर की फ़सल तैयार होकर घर आती थी तब सबसे बड़ा काम उसे संरक्षित करना होता है जो कि घर की महिलाये करती है। मेरी नानी सभी अरहर को सबसे पहले कौर (सेक कर ) रख लेती थी फिर चकिया (चक्की ) से दलकर दाल बनाई जाती थी। जिनमे अरहर के छिलके रह जाते थे उसे पहरूवा (उखल -मूसल ) की सहायता से पुनः छाटा अर्थात कूटकर साफ किया जाता था।
दाल बनाने के इस क्रम में जो दालें टूट जाती थी उन्हें सूप (सूपड़ा, छाज )के माध्यम से अलग कर लिया जाता था यही दाल के टुकड़े चूनी कहलाते है।
अब आप सबको चूनी के बारे में जानकारी हो गयी तो अब इसे बनाने की विधि भी जान लीजिये।
एक कप चूनी भिगोकर गलाई हुई,
रोटी बनाने में मदद करने के लिए थोड़ा सा गेहूं का आटा
स्वादानुसार नमक
लहसुन के कुछ दाने छिले और कुटे हुए
एक हरी मिर्च बारीक़ कटी हुई
एक चुटकी साबुत जीरा
एक चुटकी अजवाइन
चाहे तो प्याज़ भी बारीक़ काटकर डाल सकते है।
सबको आपस में मिलाकर आटा गुंथ लें और हाथ पर पानी लगाकर थोड़ी मोटी सी रोटी बनाये। तवे पर सेक लें अगर आप मिट्टी के चूल्हे पर बना रहे है तो कुछ सिक जाने पर उसे चूल्हे में डालकर बढ़िया करारा सा सेंक लें। लीजिये आपकी चूनी की रोटी बनकर तैयार है। हमारी तरफ तो इसे गन्ने के रस से बने सिरके के साथ खाते है। आप लहसुन की चटनी, इमली या खटाई की चटनी या जो पसंद हो उसके साथ आनंद लें।
बाकी रही बात इसके गुण की तो दाल और आटे के तालमेल से बनी है तो समझ जाइये कितनी स्वास्थ्यवर्धक होगी।
अब सबसे बड़ी समस्या ये भी है कि चूनी न मिले तब क्या करें?
तो आप अरहर दाल को हल्का सा सेक कर मिक्सी में मोटा सा पीस लें और फिर ऊपर बताई गयी विधि से बनाये, खाये और खिलाये अपना अनुभव हमसे जरूर बताये।
पोस्ट अच्छी लगे तो शेयर करें ताकि मेरा उत्साह वर्धन हो और आप सबके लिए बेहतरीन पोस्ट लिखू।
किसी को याद आया ये ककड़ी वाला सीजन
अब तो सांप जैसी पतली लम्बी ककड़ी का ट्रेंड है
हमारे समय में ये खूब खाई जाती थी
अपने खेत में है तो ठीक है
नहीं तो चोरी की जाती थी
लेकिन खाया खूब जाता था।…
देख लीजिये मिल गयी है सात के गुच्छो वाली सतपुतिया
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