Gen-Next Study Madhubani

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A study centre for the students studying between class 4 and class 10. Thorough learning, authentic study materials, motivation, career counseling etc.

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08/03/2023
07/12/2021

बताया जाता है कि ये फोटो हांगकांग के एक अपार्टमेंट की है। कंक्रीट के जंगल का साकार रूप
भयावह...

PC जंगल कथा

28/11/2021

#हारा_वही_जो_लड़ा_नहीं
पिछले दिनों एक पेंगुइन की वीडियो वायरल हुई। अंटार्टिका के बर्फीले पानी वाले समुद्र में कुछ सैलानी नौका पर घूम रहे थे। तभी उनकी नजर समुंदर के सबसे खतरनाक शिकारी "किलर व्हेल" पर पड़ी। उन्होंने देखा कि कुछ किलर व्हेल्स मिलकर पेंगुइनों का शिकार कर रही हैं। एक पेंगुइन के पीछे किलर हाथ धोकर पड़ गयी। पेंगुइन अपनी पूरी ताकत लगाकर भाग रही थी पर विशाल किलर व्हेल से दूरी घटती ही जा रही थी। पर उसने हार नहीं मानी।

कुछ देर किलर को छकाते रहने के बाद जब उसे लगने लगा कि जिंदगी डूबने वाली है तभी उसने आखिरी मौके पर शिकस्त स्वीकारने के बजाय एक अनोखा फैसला किया। वो सैलानियों के बोट की तरफ मुड़ी और किसी क्रूज मिसाइल की तरह बोट के उपर छलांग लगा दिया। छलांग मिस हो गयी और वो बोट से टकराकर वापस पानी मे गिर गयी जहाँ किलर व्हेल उसे मुंह मे लपकने ही वाली थी। पर यह पेंगुइन अलग ही मिट्टी की बनी थी। मौत के मुंह मे सामने से पहले उसने हार नहीं मानी। तुरन्त पूरी ताकत बटोरकर उसने दुबारा छलांग भरी। छलांग जिंदगी की। अगले पल वो बोट के ऊपर थी। किलर व्हेल की मृत्यु दायक पहुंच से दूर, सैलानियों के बीच। वो कुछ देर उनके बीच बैठी रही। मौत और जिंदगी की भाग-दौड़ के बीच वो थोड़ी देर के लिए सुस्तायी होगी। पर वो ज्यादा देर रुकी नहीं। न डर का कोई लक्षण था।

किलर व्हेल कुछ दूर बोट का पीछा करने के बाद वापस लौट गई। तब तक पेंगुइन भी दम ले चुकी थी। वो पुनः बोट के डेक पर चढ़ी और किसी हीरो की तरह वापस अंटार्टिका के बर्फीले समुंदर में कूद पड़ी जो उसकी कर्मस्थली है। कूदते समय ऐसा लग रहा था जैसे वो सबको बाय बोल रही हो। मानो कह रही हो, "कुछ नहीं हुआ गाईज़! यह तो रोज का काम है।"

जब एक पेंगुइन इतनी साहसी हो सकती है तो मनुष्य कितना जिसके लिए कहा गया है-
"कोई दुख
मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं
हारा वही
जो लड़ा नहीं।"

Sunil Kumar Sinkretik

21/10/2021

आज अल्फ्रेड नोबेल का जन्मदिन है।

अल्फ़्रेड नोबेल डायनामाइट के आविष्कारक थे (बोफ़ोर्स कम्पनी भी अल्फ़्रेड नोबेल ने ही आरम्भ की थी)। नोबेल ने डायनामाइट बना कर खूब पैसा कमाया। इस विस्फ़ोटक ने खदानों के उत्पादन में क्रांतिकारी बढोतरी की थी। लेकिन जैसा कि अक्सर होता है... इस फूल के साथ कांटे भी थे। डायनामाइट का प्रयोग हथियारों में भी होने लगा... खुद नोबेल ने बोफ़ोर्स को एक स्टील उत्पादक कम्पनी से बदल कर एक तोप-निर्माता कम्पनी बना दिया। नोबेल के डायनामाइट ने नोबेल पर पैसा और पूरे संसार पर मौत बरसानी शुरु कर दी।
..और लोगों ने नोबेल को "मौत का सौदागर" कहना शुरु कर दिया।

एक बार किसी ने अखबार में जानबूझ कर नोबेल की मृत्यु के बारे में लिख दिया। लोग चाहते थे कि लोगों को मारने की बजाय नोबेल खुद ही मर जाएँ। इससे दुखी होकर और अपने ऊपर से "मौत का सौदागर" का ठप्पा हटाने की कोशिश में नोबेल ने अपनी सारी सम्पदा को नोबेल पुरस्कार के लिए दान कर दिया। उन्होनें अपनी वसीयत में लिखा कि इस सम्पदा के ब्याज से ऐसे लोगों को नोबेल पुरस्कार दिए जाएँ जो मनुष्य जाति के लिए सर्वाधिक लाभदेय कार्य करे। आरम्भ में नोबेल पुरस्कार भौतिकी, रसायन शास्त्र, मेडिसिन, साहित्य और शांति के लिए दिए जाते थे। बाद में इस सूची में अर्थशास्त्र को भी शामिल कर दिया गया। प्रत्येक पुरस्कार में करीब सात करोड़ रुपए दिए जाते हैं -- संयुक्त रूप से पुरस्कृत लोगों के बीच यह राशि बराबर बाँट दी जाती है।

नोबेल ने कभी विवाह नहीं किया। उनके पास 350 से भी अधिक पेटेंट्स थे। नोबेल ने सेकेण्डरी स्कूल की शिक्षा भी प्राप्त नहीं की थी लेकिन फिर भी उन्होने स्विडिश, फ़्रेंच, रूसी, अंग्रेज़ी, जर्मन और इटालियन में महारत हासिल की थी।

कौन थे अल्फ्रेड नोबेल?

अल्फ्रेड बर्नहार्ड नोबेल (Alfred Bernhard Nobel) का जन्म स्वीडन के स्टॉकहोम में 21 अक्टूबर 1833 को हुआ था। अल्फ्रेड के पिता इमानुएल नोबेल एक प्रख्यात अविष्कारक थे मगर वो पढ़े-लिखे नहीं थे। 16 साल की उम्र तक अल्फ्रेड की शिक्षा घर पर ही हुई। उनके पिता को दिवालिया हो जाने के कारण स्वीडन से रुक जाना पड़ा जहां वह रूसी सरकार से रक्षा हथियारों का कॉन्ट्रैक्ट प्राप्त करने में सफल हो गए। 1842 में जब नोबेल सिर्फ 9 साल के थे वह अपनी माता आंद्रिएता एहल्सेल के साथ अपने नाना के घर सेंट पीटर्सबर्ग चले गए। यहां रह कर अल्फ्रेड ने रसायन विज्ञान और संबंधित भाषाओं की शिक्षा प्राप्त की। कुछ नया खोजने का स्वभाव रखने वाले अल्फ्रेड ने स्वीडिश, रूसी, अंग्रेजी, फ्रेंच और जर्मन भाषाएं सीखी।

अल्फ्रेड के पिता ने साल 1850 में उन्हें केमिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए विदेश भेज दिया। इस दौरान अल्फ्रेड ने स्वीडन, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका की यात्राएं की। अल्फ्रेड को साहित्य में भी काफी रूचि थी। अल्फ्रेड के पिता एक इंजीनियर और आविष्कारक थे जो न केवल बिल्डिंग और फूल डिजाइन करते थे बल्कि भिन्न प्रकार के प्लास्टिक चट्टानों का भी परीक्षण किया करते थे। अल्फ्रेड की रूचि साहित्य में थी लेकिन उनके पिता चाहते थे कि वह उन्हीं की तरह काम करें, इसलिए उन्हें केमिकल इंजीनियरिंग पढ़ने बाहर भेजा था।

‘क्रीमिया युद्ध’ के दौरान दिखाई अपनी प्रतिभा

1853 से 18 सो 56 के बीच क्रीमिया युद्ध के दौरान अल्फ्रेड ने रूस के सम्राट जार और जनरल ओं को विश्वास दिलाया कि समुद्री खदानों के इस्तेमाल से दुश्मनों को सीमा में घुसने से रोका जा सकता है। उनका दानों की मदद से ब्रिटिश रॉयल नेवी को सेंड पीटरसन की सीमा पर ही रोक दिया गया थे।

ऐसे बनाया डायनामाइट

अल्फ्रेड ने पेरिस की एक निजी शोध कंपनी में काम किया जहां उनकी मुलाकात इतावली केमिस्ट अस्कानियो सोब्रेरो से हुई। सोब्रेरो ने अति विस्फोटक तरल ‘नाइट्रोग्लिसरीन’ का आविष्कार किया था। यह व्यावहारिक इस्तेमाल की लिए बेहद खतरनाक पदार्थ था। यहीं से अल्फ्रेड की रूचि ‘नाइट्रोग्लिसरीन’ में हुई, जहां उन्होंने निर्माण कार्यों में इसके इस्तेमाल के विषय में सोचा।

1863 में, वापस स्वीडन लौटने के बाद अल्फ्रेड ने अपना पूरा ध्यान ‘नाइट्रोग्लिसरीन’ को एक विस्फोटक के रूप में विकसित करने में लगा दिया। दुर्भाग्य से, उनका यह परीक्षण असफल हो गया, जिसमें कई लोगों की मौत भी हो गई। मरने वालों में अल्फ्रेड का छोटा भाई एमिल भी शामिल था। इस घटना के बाद स्वीडिश सरकार ने इस पदार्थ के स्टॉकहोम की सीमा के अंतर्गत किसी भी प्रकार के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया। हालांकि अल्फ्रेड नहीं रुके, उन्होंने अपना प्रयोग जारी रखा। इस बार उन्होंने अपनी नई प्रयोगशाला झील में एक नाव को बनाया, जहां उनका प्रयोग सफल रहा।

कैसे हुई नोबेल पुरस्कार की शुरुआत?

नोबेल पुरस्कारों की शुरुआत 10 दिसम्बर 1901 को हुई थी। उस समय रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, साहित्य और विश्व शांति के लिए पहली बार ये पुरस्कार दिया गया था। इस पुरस्कार की स्थापना स्वीडन के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक और डायनामाइट के आविष्कारक डॉ अल्फ्रेड नोबेल द्वारा 27 नवम्बर 1895 को की गई वसीयत के आधार पर की गई थी। 10 दिसम्बर, 1896 को इटली के सेनरमो शहर में नोबेल की मृत्यु हो गई। अल्फेड की 92,00,000 डॉलर की संपत्ति विज्ञान और साहित्य में अच्छे कार्य करने वालों लोगो को दी जाती है। इसे ही नोबेल पुरस्कार के नाम से जाना जाता है।

4 अक्तूबर 1957 : ‘स्पुतनिक’ का प्रक्षेपण 04/10/2021

चार अक्तूबर का दिन मानव के अंतरिक्ष विज्ञान के इतिहास मे एक स्वर्णिम पृष्ठ है। इसी दिन चार अक्तूबर 1957 को पृथ्वी की सतह से पहली मानव-निर्मित वस्तु – रूसी उपग्रह ‘स्पुतनिक‘ अंतरिक्ष में छोड़ा गया। रूसी समाचार एजंसी, ‘टास’ के मुताबिक़ उपग्रह का वज़न क़रीब 84 किलोग्राम था और इसे पृथ्वी की निचली कक्षा मे स्थापित किया गया था।

विस्तार से लिंक पर : https://vigyanvishwa.in/2011/10/04/sputnik/

4 अक्तूबर 1957 : ‘स्पुतनिक’ का प्रक्षेपण चार अक्तूबर का दिन मानव के अंतरिक्ष विज्ञान के इतिहास मे एक स्वर्णिम पृष्ठ है। इसी दिन चार अक्तूबर 1957 को पृथ्वी की स...

16/09/2021

OZONE DAY

आखिर ओजोन है क्या?

ओजोन एक हल्के नीले रंग की गैस होती है ।ओजोन परत सामान्यत: धरातल से 10 किलोमीटर से 50 किलोमीटर की ऊंचाई के बीच पाई जाती है। यह गैस सूर्य से निकलने वाली पराबैंगनी किरणों के लिए एक अच्छे फिल्टर का काम करती है।

ओज़ोन (अंग्रेज़ी: Ozone) ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं से मिलकर बनने वाली एक गैस है जो कि वातावरण में बहुत कम मात्रा में पाई जाती है। जहाँ निचले वातावरण में पृथ्वी के निकट इसकी उपस्थिति प्रदूषण को बढ़ाने वाली और मानव ऊतक के लिए नुकसानदेह है, वहीं ऊपरी वायुमंडल में इसकी उपस्थिति परमावश्यक है। इसकी सघनता 10 लाख में 10वां हिस्सा है। यह गैस प्राकृतिक रूप से बनती है। जब सूर्य की किरणें वायुमंडल से ऊपरी सतह पर ऑक्सीजन से टकराती हैं तो उच्च ऊर्जा विकरण से इसका कुछ हिस्सा ओज़ोन में परिवर्तित हो जाता है। साथ ही विद्युत विकास क्रिया, बादल, आकाशीय विद्युत एवं मोटरों के विद्युत स्पार्क से भी ऑक्सीजन ओज़ोन में बदल जाती है।

ओजोन परत क्या है?

ओज़ोन परत(अंग्रेज़ी: Ozone Layer) पृथ्वी के धरातल से 20-30 किमी की ऊंचाई पर वायुमण्डल के समताप मंडल क्षेत्र में ओज़ोन गैस का एक झीना सा आवरण है। वायुमंडल के आयतन कें संदर्भ में ओज़ोन परत की सांद्रता लगभग 10 पीपीएम है। यह ओज़ोन परत पर्यावरण की रक्षक है। ओज़ोन परत हानिकारक पराबैंगनी किरणों को पृथ्वी पर आने से रोकती है।

यदि सूर्य से आने वाली सभी पराबैगनी किरणें पृथ्वी पर पहुँच जाती तो पृथ्वी पर सभी प्राणी रोग(कैंसर जैसे) से पीड़ित हो जाते। सभी पेड़ पौधे नष्ट हो जाते।लेकिन सूर्य विकिरण के साथ आने वाली पराबैगनी किरणों का लगभग 99% भाग ओजोन मण्डल द्वारा सोख लिया जाता है। जिससे पृथ्वी पर रहने वाले प्राणी वनस्पति तीव्र ताप व विकिरण से सुरक्षित बचे हुए है। इसीलिए ओजोन मण्डल या ओजोन परत को सुरक्षा कवच कहते हैं।

पराबैगनी किरणों से नुकसान
आमतौर पर ये पराबैगनी किरण [अल्ट्रा वायलेट रेडिएशन] सूर्य से पृथ्वी पर आने वाली एक किरण है जिसमें ऊर्जा ज्यादा होती है। यह ऊर्जा ओजोन की परत को नष्ट या पतला कर रही है। इन पराबैगनी किरणों को तीन भागों में बांटा गया है और इसमें से सबसे ज्यादा हानिकारक यूवी-सी 200-280 होती है। ओजोन परत हमें उन किरणों से बचाती है, जिनसे कई तरह की बीमारियां होने का खतरा रहता है। पराबैगनी किरणों [अल्ट्रा वायलेट रेडिएशन] की बढ़ती मात्रा से चर्म कैंसर, मोतियाबिंद के अलावा शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है। यही नहीं, इसका असर जैविक विविधता पर भी पड़ता है और कई फसलें नष्ट हो सकती हैं। इनका असर सूक्ष्म जीवाणुओं पर होता है। इसके अलावा यह समुद्र में छोटे-छोटे पौधों को भी प्रभावित करती जिससे मछलियों व अन्य प्राणियों की मात्रा कम हो सकती है।

ओजोन-क्षरण के प्रभाव
मनुष्य तथा जीव-जंतु – यह त्वचा-कैंसर की दर बढ़ाकर त्वचा को रूखा, झुर्रियों भरा और असमय बूढ़ा भी कर सकता है। यह मनुष्य तथा जंतुओं में नेत्र-विकार विशेष कर मोतियाबिंद को बढ़ा सकती है। यह मनुष्य तथा जंतुओं की रोगों की लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता को कम कर सकता है।

वनस्पतियां-पराबैंगनी विकिरण वृद्धि पत्तियों का आकार छोटा कर सकती है अंकुरण का समय बढ़ा सकती हैं। यह मक्का, चावल, सोयाबीन, मटर गेहूं, जैसी पसलों से प्राप्त अनाज की मात्रा कम कर सकती है।

खाद्य-शृंखला- पराबैंगनी किरणों के समुद्र सतह के भीतर तक प्रवेश कर जाने से सूक्ष्म जलीय पौधे (फाइटोप्लैकटॉन्स) की वृद्धि धीमी हो सकती है। ये छोटे तैरने वाले उत्पादक समुद्र तथा गीली भूमि की खाद्य-शृंखलाओं की प्रथम कड़ी हैं, साथ ही ये वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड को दूर करने में भी योगदान देते हैं। इससे स्थलीय खाद्य-शृंखला भी प्रभावित होगी।

पदार्थ – बढ़ा हुआ पराबैंगनी विकिरण पेंट, कपड़ों को हानि पहुंचाएगा, उनके रंग उड़ जाएंगे। प्लास्टिक का फर्नीचर, पाइप तेजी से खराब होंगे।

विस्तार से : https://vigyanvishwa.in/2015/09/16/worldozoneday/

Photos from Build Up Your English's post 13/09/2021
12/09/2021

Instead of very

10/09/2021

बच्चे प्रारंभिक कक्षाओं में ही विभाजन (division) अर्थात भाग देने की प्रक्रिया से परिचित हो जाते हैं। उन्हें यह प्रक्रिया अत्यंत आसान लगती है।

परन्तु जब शून्य से भाग देने की समस्या आती है, तो वे उत्तर -हीन हो जाते हैं। यह समस्या और भी कठिन हो जाती है, जब शून्य में शून्य से भाग देने का प्रश्न उठता है।

एक बार पाँचवीं कक्षा के एक छात्र ने मुझसे पुछा - 0/2015 क्या होगा ?

मैं इस प्रश्न का उत्तर तत्क्षण नहीं देना चाहता था। मैं इस प्रश्न पर परिचर्चा के लिए कुछ ऐसे तरीके खोज रहा था, जिससे कि छात्र भाग की संकल्पना को अच्छी तरह समझ सके और स्वयं इस प्रश्न का उत्तर खोज सके।

छात्र - क्या इसका उत्तर शून्य होगा ?

वह अपने उत्तर के प्रति पूर्णतः आश्वस्त प्रतीत नहीं हो रहा था। उसके प्रश्न की उपेक्षा करते हुए मैंने अपने तरीके (Guided Discovery Way) से समझाने के उद्देश्य से कुछ प्रश्न किए।

मैं -विभाजन या भाग का क्या अर्थ है ?

छात्र - भाग का अर्थ है - 'बराबर भागों' में बाँटना।

मैं - ठीक है, एक उदाहरण दो।

छात्र - यदि मेरे पास 10 आम हैं और इन्हें 5 मित्रों में बाँटा जाए, तो प्रत्येक को 2 आम मिलेंगे. 10/5=2.

मैं - बहुत अच्छा ! यदि तुम्हारे पास एक भी आम नहीं हो और इन्हें 5 मित्रों में बाँटने को कहा जाए, तो प्रत्येक को कितने आम मिलेंगे ?

छात्र - मेरे पास एक भी आम नहीं है, अतः वास्तव में हमें बाँटने के लिए कुछ भी नहीं है........तो किसी को कुछ भी नहीं मिलेगा.

मैं - कुछ भी नहीं से तुम्हारा क्या तात्पर्य है ?

छात्र - कुछ भी नहीं का अर्थ शून्य है.

मैं - इस प्रकार प्रत्येक को 0 आम मिलेंगे. अर्थात 0/5=0?

छात्र - हाँ, 0/5=0.

मैं - अच्छा, यदि तुम्हारे पास एक भी आम नहीं हो और उन्हें 10 मित्रों में बाँटने को कहा जाए, तो प्रत्येक को कितने आम मिलेंगे ?

छात्र - हाँ, समझ गया. 0/10=0.

मैं - अच्छा, तो 0/2015=?

छात्र (हँसते हुए) - शून्य. मैं भी यह जानकर हँस पड़ा की उसे मेरी बात समझ आ गया था।

यदि मैं इस तथ्य को सीधे - सीधे बता देता, तो छात्र आँख मूँदकर बिना समझे उसे स्वीकार कर लेता, गणित आँख मूँदकर स्वीकार करने के लिए नहीं है, यह समझने के लिए है।
मनीष प्रकाश

20/08/2021

The yellow structure is the Laniakea supercluster, which contains about 100,000 galaxies. The red dot in the image is the Milky Way, "our home," which contains about 300 billion stars, including our Sun.
The image was provided by NASA.

20/08/2021

*मुसीबत का सामना*

एक गाँव में एक बढ़ई रहता था। वह शरीर और दिमाग से बहुत मजबूत था।

एक दिन उसे पास के गाँव के एक अमीर आदमी ने फर्नीचर बनबाने के लिए अपने घर पर बुलाया।

जब वहाँ का काम खत्म हुआ तो लौटते वक्त शाम हो गई तो उसने काम के मिले पैसों की एक पोटली बगल मे दबा ली और ठंड से बचने के लिए कंबल ओढ़ लिया।

वह चुपचाप सुनसान रास्ते से घर की और रवाना हुआ। कुछ दूर जाने के बाद अचानक उसे एक लुटेरे ने रोक लिया।

डाकू शरीर से तो बढ़ई से कमजोर ही था पर उसकी कमजोरी को उसकी बंदूक ने ढ़क रखा था।

अब बढ़ई ने उसे सामने देखा तो लुटेरा बोला, 'जो कुछ भी तुम्हारे पास है सभी मुझे दे दो नहीं तो मैं तुम्हें गोली मार दूँगा।'

यह सुनकर बढ़ई ने पोटली उस लुटेरे को थमा दी और बोला, ' ठीक है यह रुपये तुम रख लो, मगर मैं घर पहुँच कर अपनी बीवी को क्या कहुंगा। वो तो यही समझेगी कि मैने पैसे जुए में उड़ा दिए होंगे।

तुम एक काम करो, अपने बंदूक की गोली से मेरी टोपी मे एक छेद कर दो ताकि मेरी बीवी को लूट का यकीन हो जाए।'

लुटेरे ने बड़ी शान से बंदूक से गोली चलाकर टोपी में छेद कर दिया। अब लुटेरा जाने लगा तो बढ़ई बोला,

'एक काम और कर दो, जिससे बीवी को यकीन हो जाए कि लुटेरों के गैंग ने मिलकर मुझे लूटा है । वरना मेरी बीवी मुझे कायर ही समझेगी।

तुम इस कंबल मे भी चार- पाँच छेद कर दो।' लुटेरे ने खुशी खुशी कंबल में भी कई गोलियाँ चलाकर छेद कर दिए।

इसके बाद बढ़ई ने अपना कोट भी निकाल दिया और बोला, 'इसमें भी एक दो छेद कर दो ताकि सभी गॉंव वालों को यकीन हो जाए कि मैंने बहुत संघर्ष किया था।'

इस पर लुटेरा बोला, 'बस कर अब। इस बंदूक में गोलियां भी खत्म हो गई हैं।'

यह सुनते ही बढ़ई आगे बढ़ा और लुटेरे को दबोच लिया और बोला, 'मैं भी तो यही चाहता था।

तुम्हारी ताकत सिर्फ ये बंदूक थी। अब ये भी खाली है। अब तुम्हारा कोई जोर मुझ पर नहीं चल सकता है।

चुपचाप मेरी पोटली मुझे वापस दे दे वरना .....और हां🙄बंदूक के साथ थोड़ा दिमाग भी काम लाया कर...🤓😎

यह सुनते ही लुटेरे की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई और उसने तुरंत ही पोटली बढ़ई को वापिस दे दी और अपनी जान बचाकर वहाँ से भागा। 😅😅🤓

20/08/2021

Journey of Indian Rupee

17/07/2021

Life before mobile phones
1980s

14/07/2021

बच्चों के दुश्मन,,

कल दिल्ली आ रहा था ट्रेन से तो एक मां बाप का जोड़ा अपने दो साल के बच्चे को डांट रहे थे बात बात पर,, मैंने कहा कि डाँटो मत भाई,, कहने लगे कि मां बाप की जिम्मेदारी आप क्या जानो बाबाजी??,,बच्चे संभालना कितना कठिन है,,

मैं चुप रहा,जबकि चाईल्ड #बिहेवियर पर मेरा गहन अध्धय्यन है ये उन बापत्व और ममत्व में अंधे गांधारी और #धृतराष्ट्रों को कैसे बताऊं,,सुनो भाई एक बात,,

बच्चे का 8 साल तक #हृदय विकसित होता है,, हृदय मतलब उसमें भावनाएं,, प्रेम, करुणा, दया, स्नेह, अपनापन,, निर्भयता, साहस,, सहअस्तित्व,, परिवार के प्रति लगाव,, सम्मान, श्रद्धा,, आज्ञाकारिता,, ये सब भाव 8 साल से पहले हृदय में पनपते और पुष्ट होते हैं,, इसलिए वैदिक युग में 8 साल के बाद ही बच्चों को गुरुकुल भेजा जाता था,

उससे पहले भी एक बात का विशेष ध्यान रक्खा जाता था कि बच्चे का ज्यादा से ज्यादा समय #दादा-दादी के पास गुजरे,, क्योंकि हो सकता है कि मां बाप अभी गृहस्थी में कच्चे हों, हो सकता है बच्चे कैसे पालें जाएं उन्हें उतना अनुभव न हो, क्योंकि वे तो पहली बार माता पिता बने हैं,, जबकि दादा दादी अनुभवी हैं,, कुछ बातें अनुभव से ही आती हैं,,

तो बच्चा दादा के #सिर पर चढ़ा रहता, उसपर मूत भी देता, दाढ़ी खींच लेता,,दांत निकलने लगते तब काट भी लेता,,कभी कभी ऐसी शरारत भी कर देता जो असहनीय हो,, फिर भी दादा दादी डांटते नहीं थे,, बस प्रेम करते रहते थे,,इससे बच्चे के मासूम हृदय में यह बात बैठ जाती की परिवार मतलब हमारी कैसी भी गलती हो उसका उत्तर #प्रेम से देने का नाम है,,जछिड़ककर नहीं,,

#कुत्ता आ जाता तो दादा कहता-ये ले लठ, मार,,बच्चा डंडा लेकर कुत्ते के पीछे दौड़ पड़ता,, उस समय यह खेल था,,लेकिन बाद में जब हृदय #निर्भय हो जाता था तो वही बच्चा शेर से भी ऐसे ही टकरा जाता था बिना किसी भय के जैसे गली के कुत्ते से,, जैसा उसने बचपन से सीखा था,,

अब बच्चे 2 साल की उम्र में #प्ले स्कूल में जा रहे हैं,,वहां गैर अनुभवी छोटी उम्र के #मास्टर मास्टरनियों द्वारा बात बात में डांटे जाते हैं,, धीरे धीरे बच्चे के हृदय में जो अभी विकास कर ही रहा था,, उसके हृदय में बैठ जाता है कि जीवन मतलब परिवार से दूरी,, क्योंकि आप 2 साल के बालक को स्कूल के नाम पर दूर कर ही रहे हो न,, तो बड़ा होकर वह आपको उठाकर #कबाड़ घर में फेंक दे तो इसमें आश्चर्य कैसा,,??यही तो उसने सीखा है बचपन में,,

छिपकली, कॉकरोच, डॉगी,, से डरके घर में दुबक जाए तो क्या दिक्कत है,, बालपन में जब हृदय निर्भयता के लिए तैयार था तब उसमें कुत्ते, कॉकरोच, भूत आदि से डर ही तो बिठाया गया था,, उसके हृदय ने जो पहली भाषा सीखी वह परिवार से #दूरी की थी,, पास रहने की नहीं,, पहली बात जो उसके मासूम हृदय को सीखनी चाहिए थी वह निर्भयता थी लेकिन उसने जो बात सीखी वह डर था,, तुम्हारी डांट फटकार का डर, कुत्ते बिल्ली भूत का डर,,,

तो भाई मेरे,,बहन लोगों तुम भी,, अपने बच्चों का बचपन #नियमों और विद्या के नाम पर खत्म न करो,, आधुनिक विज्ञान तुम्हें बताएगा कि बच्चा जितना सारी उम्र में सीखता है उतना उम्र के पहले तीन साल में सीखता है,,उनकी बातों में मत आना,, उनके तथ्य #निराधार और हर दो दस साल में बदलने वाले होते हैं,,

जबकि तुम सनातन के हिस्से हो,, जो शास्वत है,, जो था और रहेगा,, अपने पूर्वजों के ज्ञान विज्ञान पर भरोसा करके उनके बताए मार्ग पर पालन पोषण करो,, ताकि वे तुम्हारे साथ वह कर सकें जो तुमने उनके साथ बचपन में किया है,, वे तुम्हें वह दे सकें जो तुमने उन्हें बचपन में दिया है,,
अगर तुमने उन्हें बालपन में डर और दूरी और बात बात में डाँट दी है तो समय आने पर डर, दूरी और बात बात में उनसे #डाँट खाने के लिए तैयार रहो,, भले ही तुम यह बहाना बनाओ की यह सब हम उनके भले के लिए कर रहे हैं,,
वे बहाना नहीं बनाएंगे, #वृद्धाश्रम बनाएंगे,, और कहेंगे हम यह तुम्हारे भले के लिए कर रहे हैं,,

और हां,, जो उन्होंने कहा--बाबाजी आप क्या जानों मां बाप की जिम्मेदारी,, तो बता दूं कि जिस बच्चे से हम एकबार मिल लेते हैं वह सदा के लिए हमारा हो जाता है,, क्योंकि हम उन्हें #प्रेम और #स्वतंत्रता देते हैं श्रद्धा के साथ,, वही हमें उनसे वापस मिलता है,, इस साधु की यही तो एकमात्र पूंजी है,, प्रेम बिना बंधन के,, स्वतंत्रता बिना #मर्यादाओं की सीमा उलांघे,,श्रद्धा वो भी बेशर्त,,ज्ञान #अनुभव से--बिना उनकी खोपड़ी में सूचनाओं का बोझ लादे,,

काश अपने बच्चों को ऐसे पाल सको,,उन्हें सूचनाओं की #मशीन की जगह हृदयवान #मनुष्य बना सको,,

ॐ श्री परमात्मने नमः। *सूर्यदेव*

05/07/2021

वह गणित में बहुत कमजोर था। इसकी वजह से उसके सहपाठी और अध्यापक उसे बुद्धू समझते थे। उसके साथी उसके कोट के पीछे ‘बुद्धू’ लिखी पर्ची चिपका देते थे और फिर सभी उसकी हंसी उड़ाया करते थे। सहपाठियों का ऐसा करना उसे अच्छा नहीं लगता था। वह अपने सहपाठियों से कहता, ‘माना कि मैं गणित में कमजोर हूं, किंतु इसका यह अर्थ तो नहीं कि तुम सब मिलकर मेरा इस तरह मजाक उड़ाओ।’

लेकिन विरोध करने पर सहपाठी और दूने वेग से उसका मजाक उड़ाते। जब उससे सहन न हुआ तो उसने एक-दो लड़कों के साथ लड़ाई-झगड़ा भी किया, अपने अध्यापकों से उनकी शिकायत भी की। चुप रहने और कक्षा में पीछे बैठने की वजह से अध्यापक उसकी शिकायत पर कोई ध्यान नहीं देते थे। एक दिन तो कक्षा में एक अध्यापक ने भी उस पर व्यंग्य कसते हुए कहा, ‘यह बुद्धू और किसी विषय में तो फिर भी पास हो सकता है, लेकिन गणित में तो सात जन्मों में भी सफल नहीं हो सकता।’

अध्यापक का यह व्यंग्य बालक के कोमल हृदय को भेद गया। तब उसने सोचा, इस तरह विरोध करने, लड़ने-झगड़ने या शिकायत करने से कोई लाभ नहीं दिख रहा है। क्यों न मैं इन सबको गलत साबित कर दूं। उस दिन के बाद उसने कमर कसकर दिन-रात पूरी लगन के साथ गणित का अध्ययन शुरू कर दिया।

प्रारंभ में उसे काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन उसने हिम्मत न हारी। गणित पर फतह हासिल करना उसका लक्ष्य बन गया और वह दिन-रात गणित में ही डूबा रहने लगा। उसका खाना-पीना, सोना-जागना, उठना-बैठना सब गणित ही बन गया। गणित के ज्ञान ने विज्ञान में उसकी इतनी दिलचस्पी पैदा कर दी कि बचपन में बुद्धू कहलाने वाला वह बालक सुप्रसिद्ध गणितज्ञ और महान वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टाइन बना।

मनीष प्रकाश

30/06/2021

लालटेन की कहानी 🔥

हमारी जिंदगी का आधा समय अंधेरे में बीतता है, जिसमे हमें रोशनी की बेतरह दरकार होती है। आज चकाचौंध रोशनी से घिरे हुए हम अंधेरे की तकलीफ और रोशनी की लिए इंसान के संघर्ष की कल्पना भी नहीं कर सकते। खुले आसमान तले अंधेरी रातों में एक कतरा रोशनी हासिल करने के लिए जाने कितने जतन किए होंगे हमारे पुरखों ने। सुना था कि सुदूर अफ्रीका में आदिवासी जालीदार डिब्बों में जुगनू बंद कर लिया करते थे, वही उनकी लालटेन होती थी। लेकिन इतने भर से भला कैसे काम चलता? अविष्कारों का शौकीन इंसान लगातार नए साधन विकसित करता गया, उसे अंधेरा मंजूर जो नही था।

खोज की इस कड़ी में एक क्रांतिकारी कदम था लालटेन का विकास। आज जो लालटेन हमें अनुपयोगी और बाबा आदम के जमाने की लगती है, करीब डेढ़ सौ वर्ष पहले वह विज्ञान का एक चमत्कार मानी गई थी, और वो थी भी। दरअसल हम अत्यधिक मशीनीकरण के कारण छोटी चीजों में छिपे विज्ञान को नहीं चीन्ह पाते हैं। हजारों सालों तक हमने दीपक या लैंप का प्रयोग किया, उसे हवा से बचाने के लिए कांच की चिमनी भी लगाई, लेकिन चिमनी वाले लैंप बत्ती के बाजू में स्थित छेदों से हवा लेते हैं, इसीलिए तेज़ हवा से बुझ जाते थे, जी की बड़ी समस्या थी।

इन लैम्पों में जो बर्नर वाला हिस्सा होता है, उस के सुरक्षित और प्रभावी मॉडल का आविष्कार 1858 में माइकल ए. डीट्स ने किया था। फिर 1873 में जॉन एच इर्विन ने उस पर आधारित लालटेन का आविष्कार किया, जिसे हम आज भी देखते हैं, यानी हमारी प्रिय मिट्टी के तेल से जलने वाली लालटेन। इसे लालटेन नाम हम हिंदुस्तानियों ने दिया, पर असली नाम हरिकेन लैंटर्न है, क्योंकि यह तेज हवाओं को सह सकती है। सबसे पहले इसका हॉट ब्लास्ट मॉडल आया था, जिसमें गर्म हवा दोबारा दहन में प्रयोग की जाती थी, परंतु उससे रौशनी कम मिलती थी, ठंडी हवा बेहतर दाहक होती है, इसलिए कोल्ड ब्लास्ट मॉडल लाया गया।

यह लालटेन डिजाइन का एक करिश्मा है। इसके मुख्य रूप से चार हिस्से होते हैं, सबसे ऊपर वेंटीलेशन सिस्टम होता है, जो जलने से उत्पन्न गर्म हवा को बाहर निकालता है, और ठंडी हवा को खींच कर नीचे भेजता है। उसके बाद लौ को हवा से बचाने वाली कांच की चिमनी आती है, जो वायर मैकेनिस्म द्वारा ऊपर नीचे की जा सकती है। फिर आता है बर्नर, जिसमे दहन हेतु बत्ती और एडजस्टमेंट नॉब लगी होती है। बर्नर में हवा लालटेन के आजूबाजू स्थित दो एयर स्टेबलाइजर्स से आती है। जी हां लालटेन के बगल में जो दो पाइप आप देखते हैं, वो ऊपर से हवा नीचे लाने के लिए लगाये गए हैं।

सबसे नीचे आती है टंकी, जो कि दो हिस्सों में बंटी होती है, पहले भाग में एयर स्टेबलाइजर से हवा आती है और बर्नर तक सुरक्षित आंतरिक छिद्रों द्वारा पहुंचाई जाती है। दुसरे भाग में मिट्टी का तेल भरा होता है जिसमे बत्ती डूबी रहती है। ये बत्ती चपटी और सरंध्र होती है, ताकि अधिक चौड़ी और चमकदार लौ प्राप्त की जा सके, इस बत्ती का आविष्कार भी सैकड़ों वर्षों के प्रयोगों के बाद हुआ था, पहले धागे नुमा बत्ती ही उपयोग की जाती थीं, जिसमे गुल जमने की समस्या होती थी, चपटी बत्ती में ये समस्या खत्म हो गई।

लालटेनों का ईंधन मिट्टी का तेल या केरोसीन सामान्य समझा जाता है, पर वास्तव में सबसे महत्वपूर्ण पेट्रोलियम उत्पाद है, लालटेन जलाने के अलावा परिशोधित मिट्टी का तेल जेट हवाई जहाज उड़ाने के भी काम आता है। मिट्टी के तेल के अविष्कार के बाद ही कार्यकुशल लालटेन का विकास संभव हो पाया क्योंकि वनस्पति तेल अपेक्षाकृत गाढ़े होते हैं। पहला सफल मॉडल बनने के बाद माइकल ए डीट्स के भाई ने दुनिया की सबसे बड़ी लालटेन बनाने वाली कंपनी की स्थापना की थी जो आज भी कायम है। इन लालटेनों में बस एक ही समस्या थी कि ये टेढ़ी होने पर बुझ जाती थी।

भले ही हम अब इन्हें अपने जीवन से बाहर कर चुके हैं, लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि, दुनिया के बड़े हिस्से में आज भी लालटेन सबसे महत्वपूर्ण साधन है रोशनी का, और जितना केरोसिन सारी दुनिया के हवाई जहाज साल भर में इस्तेमाल करते हैं, उतना ही लालटेन जलाने में भी इस्तेमाल किया जाता है। तो देखा आपने साधारण लालटेन का विज्ञान भी कितना गूढ़ है, और उसे बनाने में कितने वर्ष लगे थे। अब जब भी आप लालटेन देखेंगे तो इसके आविष्कारक का लोहा जरूर मानेंगे।

आज जब हम चीन को पछाड़ने बातें करते हैं, तो यह भूल जाते हैं की विज्ञान मूलतः प्रायोगिक विषय है, सैद्धांतिक नहीं। हम इस मामले में बहुत पीछे हैं, सबसे पहले हमें वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि विकसित करनी होगी, जब तक हम अपने आसपास की चीजों में छिपे विज्ञान को और उनके आविष्कार में किए गए संघर्ष को नहीं समझेंगे, तब तक हम वैज्ञानिक चेतना संपन्न राष्ट्र नहीं बन पाएंगे। इसलिए अपने बच्चों को केवल तकनीकी डिग्री मत दिलवाईये उनमें व्यावहारिक विज्ञान को समझने और अनुप्रयोग करने की सलाहियत विकसित कीजिए, तभी आप राष्ट्र को आगे ले जाने में सहभागी हो पाएंगे 😊
#लालटेन
Abhishek Chaurey

29/06/2021

🙄🙄😲😲😇😇

23/06/2021

#रोटी_और_सोने_के_सिक्के_का_गणित
एक बार दो आदमी एक मंदिर के पास बैठे गपशप कर रहे थे। वहा अँधेरा होने लगा था और बरसात का मौसम होने से बादल भी मंडरा रहे थे। थोड़ी देर में वहां एक आदमी आया और वो भी उन दोनों के साथ बैठकर गपशप करने लगा।

कुछ देर बाद वो आदमी बोला उसे बहुत भूख लग रही है, उन दोनों को भी भूख लगने लगी थी। पहला आदमी बोला मेरे पास ३ रोटी है दूसरा बोला मेरे पास ५ रोटी है, हम तीनो मिल बाँट कर खा लेते है। उसके बाद सवाल आया कि ८ रोटी तीन आदमियों में कैसे बाँट पाएंगे ?

पहले आदमी ने सलाह दी कि ऐसा करते है, हम हर रोटी के ३ टुकड़े करते है अर्थात ८ रोटी के २४ टुकड़े हो जायेंगे और इस तरह तीनो में ८-८ रोटी के टुकड़े बराबर बराबर बाँट लिए जायेंगे। तीनो को उसकी राय अच्छी लगी और ८ रोटी के २४ टुकड़े करके प्रत्येक ने ८-८ रोटी के टुकड़े खाकर भूख शांत की । बाहर बारिश होने के कारण तीनो लोग मंदिर के प्रांगन में ही सो गए।

सुबह उठने पर तीसरे आदमी ने उनके उपकार के लिए दोनों को धन्यवाद दिया और प्रेम से ८ रोटी के टुकड़े के बदले दोनों को उपहार स्वरुप ८ सोने के सिक्के देकर अपने घर की और चला गया। उनके जाने के बाद पहला आदमी ने दुसरे आदमी से कहा की हम दोनों ४-४ सिक्के बाँट लेते है। दूसरा बोला नहीं मेरी ५ रोटी थी और तुम्हारी सिर्फ ३ रोटी थी अतः में ५ सिक्के लूँगा और तुम्हे सिर्फ ३ सिक्के ही मिलेंगे। इस पर दोनों में बहस और झगडा होने लगा।

इसके बाद वे दोनों सलाह और न्याय के लिए मंदिर के पुजारी के पास गए और पुजारी को सारी समस्या सुनाई तथा न्यान्पूर्ण समाधान की प्रार्थना की। पुजारी भी असमंजस्य में पड़ गया, पुजारी ने कहा तुम लोग ये ८ सोने के सिक्के मेरे पास छोड़ जाओ और मुझे सोचने का समय दो में कल सुबह जवाब देता हूँ।

पुजारी को दिल में वैसे तो दुसरे आदमी की ३-५ की बात ठीक लगी पर फिर भी वह गहराई से सोचते सोचते गहरी नींद में सो गया। कुछ देर बाद उसके सपने में भगवान प्रकट हुए, तो पुजारी ने सब बाते बताई और न्यायिक मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना की और बताया की मेरे ख्याल से ३-५ का बंटवारा ही उचित लग रहा है।

भगवान मुस्कुरा कर बोले कि पहले आदमी को १ सिक्का मिलना चाहिए और दुसरे आदमी को ७ सिक्के मिलने चाहिए। भगवान् की बात सुनकर पुजारी हतप्रभ हो गया और अचरज से पूछा प्रभु ऐसा क्यों ?

भगवान् फिर एकबार मुस्कुराये और बोले इसमें कोई शंका नहीं की पहले आदमी ने अपनी ३ रोटी के ९ टुकड़े किये परन्तु उन ९ टुकडो में से उसने सिर्फ १ टुकड़ा बांटा और ८ टुकड़े स्वयं खाए, अर्थात उसका त्याग सिर्फ १ रोटी के टुकड़े का था इसलिए वो सिर्फ १ सोने के सिक्के का ही हकदार है।

दुसरे आदमी ने अपनी ५ रोटी के १५ टुकड़े किये जिसमे से ८ टुकड़े उसने स्वयं खाए और ७ टुकड़े उसने बाँट दिए। इसलिए वो न्यायानुसार ७ सिक्को का हकदार है, ये ही मेरा गणित है और ये ही मेरा न्याय है।

इश्वर की न्याय का सटिक विश्लेषण सुनकर पुजारी उनके चरणों में नतमस्तक हो गया।

इस कहानी का सार ये ही है कि हमारा वस्तुस्थिति को देखने का समझाने का दृष्टिकोण और ईश्वर का दृष्टिकोण एकदम भिन्न है। हम इश्वरीय न्याय्लीला को जानने समझाने में सर्वदा अज्ञानी हैं। हम अपने त्याग का गुणगान करते है परन्तु ईश्वर हमारे त्याग की तुलना हमारे सामर्थ्य और भोग को तोलकर यथोचित निर्णय करते हैं।

मनीष प्रकाश

21/05/2021

मुझे लगता है दुनिया में वैज्ञानिक के साथ दार्शनिक का होना बहुत जरूरी है। वैज्ञानिक अविष्कार करता है तो दार्शनिक उसका मानवीय महत्व की पड़ताल करता है। वैज्ञानिक कारण बताता है तो दार्शनिक उद्देश्य बताता है। वैज्ञानिक क्योर ढूंढता है तो दार्शनिक प्रिवेंशन (रोक) ढूंढता है। विज्ञान हाथी है और दर्शन ऊँट है।

बीसवीं शताब्दी में और खासकर 2000 ईस्वी के बाद विज्ञान एक तरफा बढ़ता चला गया और दर्शन पीछे छूट गया। हाथी आगे बढ़ गया और ऊँट पीछे रह गया। नतीजा, हाथी सनक गया। वो मनमाना हो गया। उसने मानवों को ताबड़तोड़ टेक्नोलॉजी के उपहार दिए। नए-नए अविष्कार दिए पर उन मशीनों, टेक्नोलॉजी, कम्फर्ट का मानवीय उपयोग कितना तक न्यायोचित है ये बताने वाला दार्शनिक रहा ही नहीं।

अब परिणाम दिखना शुरू हुआ है। लोगों ने स्वास्थ्य जीवन की सारी परम्पराएं छोड़ दीं। सबसे सामाजिक और चंचल पूर्वज का वंशज एकाएक एकांत प्रेमी हो गया। उसने इक्विपमेंट्स को ही जिंदगी मान ली। एसी के लिए छोटा सा भूड़ छोड़कर उसने अपनी खिड़कियों पर फट्टे ठोक दिए। 100 मीटर जाने के लिए गाड़ियों का उपयोग करने लगा। सीढ़ियों को एस्कलेटर में तब्दील कर दिया, फ्लोर को लिफ्ट में। ताजी धूप और हवा से बचने की इस तरह कोशिशें करने लगा जैसे दीमकें बाम्बी के जरिये करती हैं।

विज्ञान की खोज मनुष्य को गुमराह करती चली गयी। आराम तलब आदमी विज्ञान के उस लपेटे में फंसता चला गया जिसमें समाधान से समस्या उतपन्न होती है और जिसे vicious circle कहते हैं। कोरोना महामारी सिर्फ एक झलक है। ब्लैक फंगस, व्हाइट फंगस शुरुआत है। आगे बहुत झोल है। अभी सिर्फ सार्स वेब सीरीज का सीक्वल आया है। स्वाइन फ्लू, मर्स-2, जीका, निपाह.... etc का सीक्वल बाकी ही है। कह नहीं सकता इस श्रृंखला में कितनी कड़ियाँ हैं।

Prevention is better than cure. दवाइयां नहीं इस कु-श्रृंखला की रोक ढूंढों। मानवों, वैज्ञानिक नहीं वह दर्शन ढूंढो जो तुम्हारे अविष्कारों के जस्टिफिकेशन की पड़ताल कर सके। अपने अंदर के वैज्ञानिक को कुछ दिन रोको, अब वह दार्शनिक ढूंढो जो तुम्हें सही राह दिखा सके। तुम्हारी मजबूती तुम्हारा छलावा है। मजबूत तुम नहीं हुए, तुम्हारे अविष्कार हुए हैं। तुम बहुत कमजोर हो चुके हो। यह ढर्रा छोड़ो वरना तुम एक दिन उस अन-ऑक्सि बैक्टेरिया की तरह हो जाओगे जो ऑक्सीजन से मर जाता था।

विज्ञान बहुत हुआ अब मुझे इंतजार है उन दार्शनिकों का जो दुनिया को विज्ञान का न्यायोचिय उपयोग सिखाएंगे। फिलहाल तो भारत क्या दुनिया में कहीं भी इस तरह की सोच उठती दिखाई नहीं दे रही। इस बात पर मुझे हैरत भी हो रही है, अफसोस भी। विज्ञान हाथी का ज्ञान-मीमांसक ऊँट कहाँ है?

Sunil Kumar Sinkretik
(लेखक 'बनकिस्सा' व 'बात बनेचर

17/04/2021

हमें मालूम है कि हम कहाँ पैदा हुए। लेकिन, क्या हमने खुद को पैदा होते हुए देखा? हमने शायद पुराने एल्बम में तस्वीरें देखी होगी। उनसे हमें पता लगा होगा कि हम बचपन में कैसे दिखते थे। हमारे माँ-बाप बचपन में कैसे थे, यह कैसे पता लगेगा? अगर उनके पास एल्बम न हुई तो? शायद दादी या नाना से पूछ कर पता लग जाए। और दादा-दादी का बचपन? अब उनके मम्मी-पापा तो रहे नहीं। शायद कोई पुरानी डायरी मिल जाए। अगर नहीं मिली तो? यह पता करना ही क्यों है?

जैसे हम डॉक्टर के पास जाते हैं, तो वह पूछते हैं कि कल क्या खाया था, पहले क्या बीमारी हुई थी, पापा या नाना को कोई बीमारी तो नहीं? वह आज की बीमारी का पता कल को अच्छी तरह समझ कर ही लगा सकते हैं।

जैसे- गाँव में एक पुरानी चिट्ठी मिली जो दो सौ साल पहले एक ने दूसरे को लिखी थी,

“पुराना बाँध टूट गया है। अब हर साल यहाँ बाढ़ आती है। लगता है हमें गाँव छोड़ कर जाना पड़ेगा।”

इस चिट्ठी में ही वह रहस्य (सीक्रेट) छुपा है कि गाँव के लोग क्यों ऊँची जगह पर जाकर बस गए। शायद पुराना गाँव डूब गया?

पहले राजा-महाराजा जब कोई लड़ाई जीत लेते तो वहाँ एक खंभा गाड़ देते, और उस पर लिख देते कि हमने यहाँ ज़ंग जीत ली। वे सच में जीते या हारे, मालूम नहीं, मगर वह स्तंभ (खंभा) तो यही कहता है। कभी-कभी राजा किसी से कह कर पूरी किताब ही लिखवा लेते कि उन्होंने कैसे युद्ध जीता।

जब वह लिख-पढ़ भी नहीं पाते थे, तब भी अपने चिह्न, फुटप्रिंट्स छोड़ जाते थे। हमें हर पत्थर, हर दीवाल, हर नदी, हर पहाड़ पर वे सबूत ढूँढने हैं। तभी तो हमें आज की बीमारी पता लगेगी।

(To be continued)


प्रवीण झा

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