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changing the sets (scene) on stage, मंच पर सेट चेंज करना, ਸਟੇਜ ਤੇ ਸੀਨ ਚੇਂਜ ਕਰਨਾ 30/03/2024

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script aur screenplay, स्क्रिप्ट और स्क्रीनप्ले, ਸਕ੍ਰਿਪਟ ਅਤੇ ਸਕਰੀਨ ਪਲੇ continue... 29/03/2024

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script aur screenplay, स्क्रिप्ट और स्क्रीनप्ले, ਸਕ੍ਰਿਪਟ ਅਤੇ ਸਕਰੀਨ ਪਲੇ continue... script aur screenplay, स्क्रिप्ट और स्क्रीनप्ले, ਸਕ੍ਰਿਪਟ ਅਤੇ ਸਕਰੀਨ ਪਲੇ continue...

12/08/2022

आज भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक विक्रम साराभाई का जन्मदिन है।

विक्रम साराभाई (जन्म- 12 अगस्त, 1919, अहमदाबाद; मृत्यु- 30 दिसम्बर, 1971, तिरुवनंतपुरम) को भारत के 'अंतरिक्ष कार्यक्रम का जनक' माना जाता है। इनका पूरा नाम 'डॉ. विक्रम अंबालाल साराभाई' था। इन्होंने भारत को अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में नई ऊँचाईयों पर पहुँचाया और अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर देश की उपस्थिति दर्ज करा दी। विक्रम साराभाई ने अन्य क्षेत्रों में भी समान रूप से पुरोगामी योगदान दिया। वे अंत तक वस्त्र, औषधीय, परमाणु ऊर्जा, इलेक्ट्रॉनिक्स और कई अन्य क्षेत्रों में लगातार काम करते रहे थे। डॉ. साराभाई एक रचनात्मक वैज्ञानिक, एक सफल और भविष्यदृष्टा उद्योगपति, सर्वोच्च स्तर के प्रर्वतक, एक महान् संस्थान निर्माता, एक भिन्न प्रकार के शिक्षाविद, कला के पारखी, सामाजिक परिवर्तन के उद्यमी, एक अग्रणी प्रबंधन शिक्षक तथा और बहुत कुछ थे।

डॉ. साराभाई का जन्म पश्चिमी भारत में गुजरात राज्य के अहमदाबाद शहर में 1919 को हुआ था। साराभाई परिवार एक महत्त्वपूर्ण और संपन्न जैन व्यापारी परिवार था। उनके पिता अंबालाल साराभाई एक संपन्न उद्योगपति थे तथा गुजरात में कई मिलों के स्वामी थे। विक्रम साराभाई, अंबालाल और सरला देवी के आठ बच्चों में से एक थे। अपनी इंटरमीडिएट विज्ञान की परीक्षा पास करने के बाद साराभाई ने अहमदाबाद में गुजरात कॉलेज से मेट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद वे इंग्लैंड चले गए और 'केम्ब्रिज विश्वविद्यालय' के सेंट जॉन कॉलेज में भर्ती हुए। उन्होंने केम्ब्रिज से 1940 में प्राकृतिक विज्ञान में ट्राइपॉस हासिल किया। 'द्वितीय विश्वयुद्ध' के बढ़ने के साथ साराभाई भारत लौट आये और बेंगलोर के 'भारतीय विज्ञान संस्थान' में भर्ती हुए तथा नोबेल पुरस्कार विजेता सी. वी. रामन के मार्गदर्शन में ब्रह्मांडीय किरणों में अनुसंधान शुरू किया। विश्वयुद्ध के बाद 1945 में वे केम्ब्रिज लौटे और 1947 में उन्हें उष्णकटिबंधीय अक्षांश में कॉस्मिक किरणों की खोज शीर्षक वाले अपने शोध पर पी.एच.डी की डिग्री से सम्मानित किया गया।

साराभाई को 'भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का जनक' माना जाता है। वे महान् संस्थान निर्माता थे और उन्होंने विविध क्षेत्रों में अनेक संस्थाओं की स्थापना की या स्थापना में मदद की थी। अहमदाबाद में 'भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला' की स्थापना में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, केम्ब्रिज से 1947 में आज़ाद भारत में वापसी के बाद उन्होंने अपने परिवार और मित्रों द्वारा नियंत्रित धर्मार्थ न्यासों को अपने निवास के पास अहमदाबाद में अनुसंधान संस्थान को धन देने के लिए राज़ी किया। इस प्रकार 11 नवम्बर, 1947 को अहमदाबाद में विक्रम साराभाई ने 'भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला' (पीआरएल) की स्थापना की। उस समय उनकी उम्र केवल 28 वर्ष थी। साराभाई संस्थानों के निर्माता और संवर्धक थे और पीआरएल इस दिशा में पहला क़दम था। विक्रम साराभाई ने 1966-1971 तक पीआरएल की सेवा की।

संस्थानों की स्थापना
'परमाणु ऊर्जा आयोग' के अध्यक्ष पद पर भी विक्रम साराभाई रह चुके थे। उन्होंने अहमदाबाद में स्थित अन्य उद्योगपतियों के साथ मिल कर 'इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट', अहमदाबाद की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉ. साराभाई द्वारा स्थापित कतिपय सुविख्यात संस्थान इस प्रकार हैं-

1.भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला (पीआरएल), अहमदाबाद
2.इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट (आईआईएम), अहमदाबाद
3.कम्यूनिटी साइंस सेंटर, अहमदाबाद
4.दर्पण अकाडेमी फ़ॉर परफ़ार्मिंग आर्ट्स, अहमदाबाद
5.विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र, तिरुवनंतपुरम
6.स्पेस अप्लीकेशन्स सेंटर, अहमदाबाद
7.फ़ास्टर ब्रीडर टेस्ट रिएक्टर (एफ़बीटीआर), कल्पकम
8.वेरिएबल एनर्जी साइक्लोट्रॉन प्रॉजेक्ट, कोलकाता
9.इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड(ईसीआईएल), हैदराबाद
10.यूरेनियम कार्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड(यूसीआईएल), जादूगुडा, बिहार

'इसरो' की स्थापना
'भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन' (इसरो) की स्थापना उनकी महान् उपलब्धियों में एक थी। रूसी स्पुतनिक के प्रमोचन के बाद उन्होंने भारत जैसे विकासशील देश के लिए अंतरिक्ष कार्यक्रम के महत्व के बारे में सरकार को राज़ी किया। डॉ. साराभाई ने अपने उद्धरण में अंतरिक्ष कार्यक्रम के महत्व पर ज़ोर दिया था-

"ऐसे कुछ लोग हैं, जो विकासशील राष्ट्रों में अंतरिक्ष गतिविधियों की प्रासंगिकता पर सवाल उठाते हैं। हमारे सामने उद्देश्य की कोई अस्पष्टता नहीं है। हम चंद्रमा या ग्रहों की गवेषणा या मानव सहित अंतरिक्ष-उड़ानों में आर्थिक रूप से उन्नत राष्ट्रों के साथ प्रतिस्पर्धा की कोई कल्पना नहीं कर रहें हैं, लेकिन हम आश्वस्त हैं कि अगर हमें राष्ट्रीय स्तर पर और राष्ट्रों के समुदाय में कोई सार्थक भूमिका निभानी है, तो हमें मानव और समाज की वास्तविक समस्याओं के लिए उन्नत प्रौद्योगिकियों को लागू करने में किसी से पीछे नहीं रहना चाहिए।"

परमाणु विज्ञान कार्यक्रम
भारतीय परमाणु विज्ञान कार्यक्रम के जनक के रूप में व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त डॉ. होमी जहाँगीर भाभा ने भारत में प्रथम राकेट प्रमोचन केंद्र की स्थापना में डॉ. साराभाई का समर्थन किया। यह केंद्र मुख्यतः भूमध्य रेखा से उसकी निकटता की दृष्टि से अरब महासागर के तट पर, तिरुवनंतपुरम के निकट थुम्बा में स्थापित किया गया। अवसंरचना, कार्मिक, संचार लिंक और प्रमोचन मंचों की स्थापना के उल्लेखनीय प्रयासों के बाद 21 नवम्बर, 1963 को सोडियम वाष्प नीतभार सहित उद्घाटन उड़ान प्रमोचित की गयी।

अन्य योगदान

डॉ. साराभाई विज्ञान की शिक्षा में अत्यधिक दिलचस्पी रखते थे। इसीलिए उन्होंने 1966 में सामुदायिक विज्ञान केंद्र की स्थापना अहमदाबाद में की। आज यह केंद्र 'विक्रम साराभाई सामुदायिक विज्ञान केंद्र' कहलाता है। 1966 में नासा के साथ डॉ. साराभाई के संवाद के परिणामस्वरूप जुलाई, 1975 से जुलाई, 1976 के दौरान 'उपग्रह अनुदेशात्मक दूरदर्शन परीक्षण' (एसआईटीई) का प्रमोचन किया गया। डॉ. साराभाई ने भारतीय उपग्रहों के संविरचन और प्रमोचन के लिए परियोजनाएँ प्रारंभ कीं। इसके परिणामस्वरूप प्रथम भारतीय उपग्रह आर्यभट्ट, रूसी कॉस्मोड्रोम से 1975 में कक्षा में स्थापित किया गया।

मृत्यु

अंतरिक्ष की दुनिया में भारत को बुलन्दियों पर पहुँचाने वाले और विज्ञान जगत में देश का परचम लहराने वाले इस महान् वैज्ञानिक डॉ. विक्रम साराभाई की मृत्यु 30 दिसम्बर, 1971 को कोवलम, तिरुवनंतपुरम, केरल में हुई।

पुरस्कार
1.शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार (1962)
2.पद्मभूषण (1966)
3.पद्मविभूषण, मरणोपरांत (1972)

महत्त्वपूर्ण पद

1.भौतिक विज्ञान अनुभाग, भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अध्यक्ष ([1962)
2.आई.ए.ई.ए., वेरिना के महा सम्मलेनाध्यक्ष (1970)
3.उपाध्यक्ष, 'परमाणु ऊर्जा का शांतिपूर्ण उपयोग' पर चौथा संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (1971)

सम्मान
रॉकेटों के लिए ठोस और द्रव नोदकों में विशेषज्ञता रखने वाले अनुसंधान संस्थान, विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र (वीएसएससी) का नामकरण उनकी स्मृति में किया गया, जो केरल राज्य की राजधानी तिरूवनंतपुरम में स्थित है। 1974 में सिडनी में अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ ने निर्णय लिया कि सी ऑफ़ सेरिनिटी में स्थित 'चंद्रमा क्रेटर बेसेल' (बीईएसएसईएल) डॉ. साराभाई क्रेटर के रूप में जाना जाएगा। चंद्रयान 2 के लैंडर का नाम विक्रम है।

02/07/2022

I remind myself that my inner and outer life are based on the labor of other men , living and dead and that I must exert myself in order to give in the same measure as I have received and I m still receiving

Albert Einstein

13/06/2022

जैसे जैसे ये बैल गमले में बढ़ रही थी …….. कुछ मेरे अंदर भी ग्रो हो रहा था……. ये बेलें हमारे अंदर मनुष्य को बचा कर रखती है , सम्भाल कर रखती है 🥰🥰

10/06/2022

अगर आप को रात को जमकर नींद आती है और दिन में तबियत से भूख लगती है , सच जानिए आप जो कर रहे है वो बहुत अच्छा काम कर रहे है । आप एक सफल इंसान है और आपका psychic , biology और consciousness सब ठिकाने पर है ….

और आप अगर सो नहीं पा रहे है और भूख नहीं लग रही है! आप एक असफल इंसान है , जो भी कर रहे है तुरंत रोक दे और सोचे क्या ग़लत कर रहे है 🥰🥰

01/06/2022

बिक रहा पानी, बिक रही हवा!

बिक रहा पानी बिक रही हवा

सैलाब मरीजों का, नहीं है दवा।

वो हरे राम अल्लाह करते रहे

यहां एक साथ जल रही चिता।

ऐसे छोड़ दिया किसके भरोसे

जब जगह जगह काल छिपा।

अब न भरोसा इस दुनिया पर

टूटे दिल से हम भी हो जायेंगे फना

कसमें मां भारती की खायी तूने

तुझसे हो गई वो अब खफा।

काल के आगोश में सांसें बेचैन

ज़िन्दगी बूढ़ा गई मौत हो रही जवां।

हमने देखा उनको हरकतें उनकी

रेमडेसिवर का उन्हें खूब चढ़ा!

(‘धूप की लकीरें’ पुस्तक में से)

कई वर्षों की तपस्या, संघर्ष और प्रेममयी जीवन से उपजी कविताएं आपके समक्ष ‘‘धूप की लकीरें’’ के रूप में आपके हाथों में है।

पिताजी के लिये आये दिन रात-बिरात उठना, लालटेन जलाना और उनकी रचनाओं को कागज पर लिख कर सो जाना; इसी क्रम में नन्ही सी उम्र में ही कविता का अंकुरण हो चुका था जीवन में। फिर पढ़ते-पढ़ते कुछ लिख देना आदत सी हो गई। जीवन को अलग नजरिये से देखना, पंक्तिबद्ध कर देना और फिर अपनी सांसारिक गतिविधियों में लग जाना, यह नियम चलता रहा परन्तु कहीं चुपके से अंतर्मन में कविता अपना घर बसा चुकी थी। तीस वर्षों से अधिक समय से किताब लिखने की इच्छा मन में घर किये रही पर कहते हैं, हर कार्य का समय होता है और इसीलिए अब जाकर अपनी यह इच्छा पूरी कर पाई।

मैंने अपनी कविताओं में एक अन्तहीन यात्रा, स्वयं की खोज या कहें स्वयं की यात्रा को बार-बार उकेरित किया है। संसार और अध्यात्म कतई अलग-अलग नहीं हैं या कहिये कि अन्दर बाहर कतई अलग नहीं है। मैं अपने अनुभव से कह सकती हूं कि संसार का एक बेहतर अनुभव करने के लिये अध्यात्म जरूरी है और अध्यात्म तो अपने आप में निहित एक आवश्यकता है जो हर व्यक्ति में होती है। पर, यह जरूर कहना चाहूंगी कि ध्यान योग और प्राणायाम हमें उन्नति की ओर ले जाते हैं या यूं कहिये इनकी संगत से हम समृद्ध होते हैं। जब से ‘द आर्ट ऑफ लिविंग’ से जुड़कर सुदर्शन क्रिया सीखी; जीवन बाधारहित हो गया। जीवन आनन्द से भर गया या कहिये दुःख छू भी नहीं पाता मुझे। मुझमें करूणा, मुदिता, कण्ठकूप, कूर्मा नाड़ी, ज्योतिष्मणी की यात्रा से निकल कर दिव्य स्रोत प्रवाहित हुऐ और मेरी कविताओं ने एक किताब का रूप ले लिया।

मैं अपने पिता डॉ. अम्बिका प्रसाद ‘‘फानि’’ जो मशहूर शायर और कवि थे तथा अपनी मां जिन्हें मैं ‘जीजी’ कहती थी और भाई-बहनों की विशेष आभारी हूं जिन्होंने ग्रामीण परिवेश में भी मुझे शिक्षित करने के संपूर्ण प्रयास किये। मुझे उच्च शिक्षा दिलवाई और वकालत के पेशे से मैं अपनी मां का सपना पूरा कर रही हूं कि बालिकाओं के शिक्षित और जागरूक होने से ही हम समाज में महिलाओं की स्थिति को मजबूत कर सकते हैं।

विशेष आभार श्री श्री रविशंकर जी मेरे गुरूदेव का जिन्हें मैं गुरूजी कहती हूं; जिनका आर्शीवाद सदा मेरे साथ हैं। ‘‘धूप की लकीरें।’’ गुरूदेव श्री श्री रविशंकर जी को समर्पित। जय गुरूदेव!

Photos from Aakhar Mag's post 13/07/2021

बहुत दिनों बाद🙏

01/04/2021

न्यूटन का एकान्त..

आइज़ैक न्यूटन का एकान्त लगभग दुर्भेद्य था। उसमें किसी को प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। उसका पूरा बचपन तनहाई में बीता था (जन्म से पहले पिता की मृत्यु हो गई, तीन वर्ष की अवस्था में माँ दूसरा विवाह करके उसे त्याग गई), और अपनी पूरी किशोरावस्था और युवावस्था में वह अंतर्मुखी, संकोची, निस्संग रहा। उसका कोई संगी था ना साथी। उसने कभी किसी स्त्री से प्रेम नहीं किया। या बेहतर होगा अगर कहें किसी स्त्री ने उससे कभी प्रेम नहीं किया (इन दोनों बातों में बहुत भेद है)। इससे निजता और एकान्त में जिससे सबसे गहरी सेंध लगती है, अंतर्मन के उस कोने को न्यूटन ने बाँध की तरह अभेद बना दिया था। उसकी एकाग्रता सम्पूर्ण थी, कोई उसको अपने काम करने की मेज़ से डिगा नहीं सकता था। कालान्तर में, जब वो प्रौढ़ हुआ, तो वो अनेक सार्वजनिक भूमिकाओं में गया, जैसे- मेम्बर ऑफ़ पार्लियामेंट, रॉयल सोसायटी का प्रेसिडेंट, कैम्ब्रिज में गणित का प्राध्यापक, मिन्ट का प्रमुख- और उसने अपने समय के अनेक ख्यातनाम व्यक्तियों से ख़तो-किताबत भी की, किंतु दूसरों और अपने बीच एक बेमाप फ़ासला उसने हमेशा क़ायम रखा। सहकर्मियों से वह किंचित रूखाई से पेश आता, और अपने मातहतों के लिए वो सुदूर के किसी देवता से कम नहीं था। उसका आत्माभिमान अप्रतिहत था, जो औरों को आतंकित करता था। उसके जीवन में भावनात्मक सम्बंधों के लिए एक गहरी अरुचि थी।

एकान्त के प्रति उसके व्यक्तित्व के इस चुम्बकीय खिंचाव ने ही उससे वैसे उद्यम करवा लिए, जिन्हें अतिमानवीय कहा जाता है और ये माना जाता है कि वो किसी साधारण मनुष्य के बूते की बात नहीं थी। वर्ष 1665 में इंग्लैंड में प्लेग की महामारी फैली। तब न्यूटन कैम्ब्रिज में छात्र था। महामारी से बचाव के लिए उसे उसके गाँव वूल्सथोर्प भेज दिया गया, जहाँ वो पूरे समय अपने कमरे में सिमटा रहता। विज्ञान के इतिहास में इसे न्यूटन का मिरेकल-ईयर कहा जाता है। वैसा ही मिरेकल-ईयर फिर अल्बर्ट आइंष्टाइन के जीवन में भी आया, वर्ष 1905, जब उसने दुनिया को बदल देने वाली स्थापनाएँ सामने रखीं। वूल्सथोर्प में न्यूटन ने डिफ्रेंशियल कैलकुलस की ईजाद की। उसने प्रिज़्म की सहायता से रौशनी के रेशे-रेशे खोलकर देखे और स्पेक्ट्रम के सात रंगों को दुनिया के सामने रख दिया। उसने यूनिवर्सल ग्रैविटेशन पर अपनी थ्योरियों का सूत्रपात भी उसी कालखण्ड में किया और दृढ़ता से यह कहा कि जो चीज़ सेब को धरती पर गिराती है, वही आकाश में ग्रहों और पिण्डों को टिकाए हुए है, इस रहस्यमयी चीज़ का नाम है- ग्रैविटी- पदार्थ में एक चिरंतन महाचेतना का करस्पर्श। वर्ष 1666 तक न्यूटन दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण नेचरल फ़िलॉस्फ़र, भौतिकविद्, गणितज्ञ और वैज्ञानिक बन चुका था, अलबत्ता उसे ख़ुद ही इसकी भनक तक ना थी। भला कैसे होती, तब उसकी उम्र कुलजमा 24 साल ही तो थी!

न्यूटन जितना बड़ा वैज्ञानिक और गणितज्ञ था, उतना ही महान रहस्यदर्शी भी था। धर्म और विज्ञान के बीच स्वर्णिम मध्यमार्ग उसने तलाश लिया था और भौतिकी के अनुल्लंघ्य नियमों को वह एक दैवीय-उपक्रम की अभिव्यक्ति की तरह देखता था। पदार्थ में उसे विश्वचेतना की छाँह दिखलाई देती थी। उसने अल्केमी और थियोलॉजी के क्षेत्र में गणित और भौतिकी से कम काम नहीं किया। जॉन मेनार्ड कीन्स ने न्यूटन को 'द लास्ट ऑफ़ मैजिशियन एंड बेबीलोनियन' कहा था। वहीं न्यूटन की बायोग्रैफ़ी लिखने वाले पीटर एक्रॉयड ने महाकवि विलियम ब्लेक को उद्धृत करते हुए उसे 'द वर्जिन श्राउडेड इन स्नो' कहकर पुकारा था। इस पुकार में एक गहरी विडम्बना निहित थी, क्योंकि विलियम ब्लेक न्यूटन पर आरोप लगाता था कि उसने प्रकृति में कविता की भावना को क्षति पहुँचाकर गणित के नियमों को प्रतिष्ठित कर दिया था। लेकिन न्यूटन की ज़िंदगी में कविता के लिए कोई जगह नहीं थी। या अगर आप चाहें तो उसके काम में पोयट्री ऑफ़ मैथेमैटिक्स ज़रूर खोज सकते हैं। युवल हरारी के स्मरणीय शब्दों में- न्यूटन ने हम सबको यह दिखलाया था कि प्रकृति की किताब गणित की भाषा में लिखी गई है।

कैम्ब्रिज में छात्र से प्राध्यापक बनने में न्यूटन ने ज़्यादा समय नहीं लिया। वो कैम्ब्रिज के इतिहास के सबसे युवा प्राध्यापकों में शुमार है, क्योंकि वो उसके समय के दूसरे शिक्षकों से कहीं अधिक मेधावी था। लेकिन जिस घोर एकान्त में उसने बचपन से लेकर अब तक का अपना जीवन बिताया था, और उसकी देदीप्यमान प्रतिभा आगे चलकर उसके लिए जिस यशस्वी जीवन का दुशाला बुन रही थी, उससे पेश आने वाली दुविधाओं ने उसे चिंतित भी बहुत किया। 1670 के दशक में गणितज्ञ जॉन कोलिन्स को लिखे एक ख़त में उसने विनती की कि उसके द्वारा भेजे गए शोधपत्र को उसके नाम के बिना ही छाप दिया जाए, क्योंकि अगर यह उसके नाम से छपा तो लोगों का ध्यान उसकी तरफ़ खिंचेगा, जो वो हरगिज़ नहीं चाहता था। प्रसिद्धि से एकान्त में ख़लल पड़ सकता था, किंतु न्यूटन जैसी सूर्यदीप्त प्रतिभा के सामने छुपकर रहने का कोई विकल्प नहीं था। कालान्तर में 'प्रिंसिपिया मैथेमैटिका' के प्रकाशन के बाद उसे वैश्विक ख्याति मिली और उसने पहले से अधिक आत्मविश्वास और किंचित आत्ममुग्धता के साथ उसे अंगीकार किया, किंतु मृत्युशैया पर अपनी निजता पर संकट के पुराने भय ने उसे फिर से इतना ग्रस लिया था कि उसने मरने से पहले अपनी अनेक महत्वपूर्ण पाण्डुलिपियाँ और पत्र जला दिए थे।

चर्चित न्यूटन-आइंष्टाइन द्वैत का एक आयाम यह भी था कि जहाँ आइंष्टाइन के स्वभाव में बड़ी सहज विनोदप्रियता थी, वहीं न्यूटन की गम्भीरता कांसे की मूरत की तरह खरी और सुठोस थी। कह लीजिये कि जहाँ आइंष्टाइन भौतिकी की दुनिया का मोत्सार्ट था तो न्यूटन उसका बीथोवन था। बचपन में माँ के द्वारा अकेला छोड़ दिए जाने के दंश से वो कभी उबर नहीं पाया था। उसके व्यक्तित्व में रोष, ग्लानि, महत्वाकांक्षा और आत्माभिमान गहरे तक पैठ गए थे। पीटर एक्रॉयड ने न्यूटन की बायोग्रैफ़ी में उसके द्वारा किशोरावस्था में लिखी जाने वाली डायरियों का हवाला दिया है, जिसमें न्यूटन अपने पापों का ब्योरा लिखता था। ये पाप क्या थे? चेरी के फल चुराना, आज्ञा का उल्लंघन करना, ग़ुस्से में आकर किसी के टोप में कील रख देना, स्कूल में संगियों से लड़ बैठना- अपने इन 'पापों' को न्यूटन ने नोटबुक में दर्ज किया है और बहुत शिद्दत से उनका पछतावा किया है। कुछ और जगहों पर उसने नाच-गाने के प्रति गहरी अरुचि जताई है और अपने जीवन-प्रयोजन के बारे में गम्भीर चिंता प्रकट की है। वो ख़ुद से पूछता है कि मैं क्यों हूँ, किसलिए हूँ, दुनिया में क्या करने के लिए आया हूँ? वो एकान्त में बैठकर रोता रहता था। तब उसकी आयु उन्नीस वर्ष थी। महज़ पाँच-छह साल बाद ही उसने अपने मिरेकल-ईयर की बदौलत दुनिया के इतिहास को बदल देना था। आज सर आइज़ैक न्यूटन की गणना विश्व के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों में की जाती है। संशय और ग्लानि से भरे उस उन्नीस साल के नौजवान को दूर-दूर तक इसका अंदाज़ा नहीं था।

यह कैसे हुआ था? सम्भवतया एक महान नियति ने उसे अपने माध्यम की तरह चुन लिया था। किंतु इसकी एक शर्त थी। जैसा जीवन दूसरे बिताते हैं, वैसा जीवन उसके भाग्य में नहीं था और उसे स्वयं को एक दूसरे ही प्रयोजन में झोंक देना था। अपने एकान्त की पूरी निष्ठा से रक्षा किए बिना यह सम्भव नहीं हो सकता था। न्यूटन का जीवन कइयों के लिए आज भी एक पहेली बना हुआ है। यह पहेली कभी सुलझाई नहीं जा सकेगी, क्योंकि न्यूटन अपने पीछे वो युक्तियाँ नहीं छोड़ गया है, जिनकी मदद से उस तक पहुँचा जा सके। उसने दुनिया और अपने बीच के सारे पुल जला दिए थे। और वैसे जीवन में मैत्री, प्रेम, सुख, विश्राम और संतोष के लिए भला कोई जगह कैसे हो सकती थी?

सुशोभित

20/02/2021

Aakkhar Mag new program

02/02/2021

कहानी के बारे में खुशवंत सिंह के विचार

"सबसे अच्छी कहानियाँ उन लेखकों के द्वारा लिखी जाती हैं जिनके नाम से ज्यादा लोग परिचित नहीं होते और ये कहानियाँ ऐसी अज्ञात, दीन-हीन पत्रिकाओं में छपती हैं जो अपने लेखकों को कोई पारश्रमिक नहीं देती। ऐसी कहानियों पर चर्चा होने और इनका अनुवाद होने में लंबा समय लगा जाता है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि भारत की सभी बड़ी चौदह भाषाओं में लिखी जा रही कहानियों का स्तर समान रूप से ऊंचा है और उनकी लोकप्रियता बेजोड़ है।
कहानी का प्रचलन पश्चिम में अब नहीं रहा है, लेकिन भारत में यह फूल-फल रही है। इसका कारण यह है कि एक साहित्यिक विधा के रूप में इसके लिए कुछ निश्चित नियमों को लेकर चलना होता है। भारतीय लेखक इन नियमों का पालन करते हैं, जबकि आधुनिक यूरोपियन और अमेरिकी लेखक ऐसा नहीं करते।
इसके नियम यद्यपि एकदम अटल तो नहीं, कि तोड़े ही न जा सकें, लेकिन फिर भी जो अपने विचार कहानी की विधा में व्यक्त करना चाहते हैं, उन्हें अग्रलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-

1. कहानी को छोटा होना चाहिए। व्यक्तिगत रूप से मैं सलाह दूँगा कि इसकी शब्द-सीमा 3500 शब्दों से अधिक न हो।

2. कहानी किसी एक घटना अथवा अनेक घटनाओं वाले किसी एक विषय अथवा किसी एक चरित्र के इर्द-गिर्द बुनी होनी चाहिए।

3. इसे फंतासी के रूप में भी लिखा जा सकता है बशर्ते कि यह सच्चाई के दायरे में आती हो और कोई संदेश देती हो।

4. कहानी का एक निश्चित आदि मध्य और अंत होना चाहिए।

5. बिच्छू की पूँछ में छुपे डंक की तरह इसका अंत ऐसा होना चाहिए जो कहानी का सारांश बता दे।

फिर भी इन नियमों का पालन व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है। मेरे खयाल से तो विश्व के महान लेखकों ने भी जाने-अनजाने इन नियमों का पालन किया है।"

-खुशवंत सिंह

17/01/2021

महाश्वेता देवी जी की जयंती है । उनकी एक कविता ।

10/01/2021

भेड़ियों से लड़ते हुए

जब हम देह से लहू और माथे से पसीने पोछते हुए लौट रही होती हैं
जब हमें लगने लगता है कि सभी भेड़िये खदेड़े जा चुके हैं
इंसानी आबादी से बहुत दूर
ठीक तभी भेड़ियों का एक विशाल झुंड
हाहाकार करते हुए बढ़ता है
सभी दिशाओं से

सबके दांतों में अनगिनत स्तनों के लोथड़े फंसे हैं
मुंह में कच्चे दूध की महक
और जुबान पर खून का स्वाद लगा है

थकान और हताशा को कंधों से उतारकर
खूनी पंजों से लड़ते हुए
अनगिनत बार लहूलुहान हो जाती है देह
वस्त्र अनगिनत बार नोचे जाते हैं
और अनगिनत बार होता है बलात्कार
चरित्रहीनता जंग लगी कील की तरह अनगिनत बार ठोक दी जाती है हमारे माथों पर

जब हम भेड़ियों के हमलों से निपट रहे होते हैं,ठीक उसी वक़्त
कुछ भेड़िये बांचने लगते हैं धर्मग्रंथ
कुछ हमारे खिलाफ संस्कृति की दुहाई देने लगते हैं
कुछ अपने यौनांगों पर हाथ फिराते हुए
शील और शुचिता का तराजू लेकर बैठ जाते हैं
और कुछ लकड़बग्घा हंसी हंसते हुए उघाड़ देते हैं अपनी जांघें

और हम हैं कि नुचे वस्त्रों और खुले वक्ष लिए
आंखें और ध्वजा उठाकर चलती हैं

हम बलात्कार से घायल देह और विश्वास लिए
सिर उठाकर आत्मसम्मान के गीत गाती हैं

हम वैश्या की गाली पर शर्मिंदा होने के बजाय
एक बड़ा ठहाका लगाती हैं
और बजबजाती परिभाषाओं पर थूक देती हैं

हम जानते जानते जान गईं हैं कि
प्रेम और संघर्ष से बड़ा कोई चरित्र नहीं है

हम जान गईं हैं
कि हमारी लड़ाई लंबी तो है
मगर अंतहीन नहीं

कि एक दिन हमारी आंखों की आग
धू-धू कर जला देगी धर्मग्रंथों के सभी काले पन्नों को
हमारे अटूट विश्वास के आगे टूट जाएंगे
आदमखोर हाथों के शील और शुचिता के असंतुलित तराजू
और भेड़िया होना इंसानी बस्ती और मुहावरों से हो जाएगा बाहर

कविता कादंबरी
02/01/2021

10/01/2021

राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के प्रधानमंत्री श्री अनंतराम त्रिपाठी का आज सुबह वर्धा में निधन। आखर परिवार की सम्पादक अनिता ठक्कर के पिता थे । आखर परिवार की ओर से हार्दिक श्रधांजलि🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

31/12/2020
27/12/2020

आज ग़ालिब का जन्मदिन है-

गालिब के रंग -
ग़ालिब अथवा मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान (अंग्रेज़ी:Ghalib अथवा Mirza Asadullah Baig Khan, उर्दू: غالب अथवा مرزا اسدللا بےغ خان) (जन्म- 27 दिसम्बर, 1797 ई. आगरा - 15 फ़रवरी, 1869 ई. दिल्ली) जिन्हें सारी दुनिया 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के नाम से जानती है, उर्दू-फ़ारसी के प्रख्यात कवि रहे हैं। इनके दादा 'मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ' समरकन्द से भारत आए थे। बाद में वे लाहौर में 'मुइनउल मुल्क' के यहाँ नौकर के रूप में कार्य करने लगे। मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ के बड़े बेटे 'अब्दुल्ला बेग ख़ाँ से मिर्ज़ा ग़ालिब हुए। अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, नवाब आसफ़उद्दौला की फ़ौज में शामिल हुए और फिर हैदराबाद से होते हुए अलवर के राजा 'बख़्तावर सिंह' के यहाँ लग गए। लेकिन जब मिर्ज़ा ग़ालिब महज 5 वर्ष के थे, तब एक लड़ाई में उनके पिता शहीद हो गए। मिर्ज़ा ग़ालिब को तब उनके चचा जान 'नसरुउल्ला बेग ख़ान' ने संभाला। पर ग़ालिब के बचपन में अभी और दुःख व तकलीफें शामिल होनी बाकी थीं। जब वे 9 साल के थे, तब चचा जान भी चल बसे। मिर्ज़ा ग़ालिब का सम्पूर्ण जीवन ही दु:खों से भरा हुआ था। आर्थिक तंगी ने कभी भी इनका पीछा नहीं छोड़ा था। क़र्ज़ में हमेशा घिरे रहे, लेकिन अपनी शानो-शौक़त में कभी कमी नहीं आने देते थे। इनके सात बच्चों में से एक भी जीवित नहीं रहा। जिस पेंशन के सहारे इन्हें व इनके घर को एक सहारा प्राप्त था, वह भी बन्द कर दी गई थी।
ग़ालिब सदा किराये के मकानों में रहे, अपना मकान न बनवा सके। ऐसा मकान ज़्यादा पसंद करते थे, जिसमें बैठकख़ाना और अन्त:पुर अलग-अलग हों और उनके दरवाज़े भी अलग हों, जिससे यार-दोस्त बेझिझक आ-जा सकें।
5 अक्टूबर को (18 सितम्बर को दिल्ली पर अंग्रेज़ों का दुबारा से अधिकार हो गया था) कुछ गोरे, सिपाहियों के मना करने पर भी, दीवार फाँदकर मिर्ज़ा के मुहल्ले में आ गए और मिर्ज़ा के घर में घुसे। उन्होंने माल-असबाब को हाथ नहीं लगाया, पर मिर्ज़ा, आरिफ़ के दो बच्चों और चन्द लोगों को पकड़कर ले गए और कुतुबउद्दीन सौदागर की हवेली में कर्नल ब्राउन के सामने पेश किया। उनकी हास्यप्रियता और एक मित्र की सिफ़ारिश ने रक्षा की। बात यह हुई जब गोरे मिर्ज़ा को गिरफ़्तार करके ले गए, तो अंग्रेज़ सार्जेण्ट ने इनकी अनोखी सज-धज देखकर पूछा-‘क्या तुम मुसलमान हो?’ मिर्ज़ा ने हँसकर जवाब दिया कि, ‘मुसलमान तो हूँ पर आधा।’ वह इनके जवाब से चकित हुआ। पूछा-‘आधा मुसलमान हो, कैसे?’ मिर्ज़ा बोले, ‘साहब, शरीब पीता हूँ; हेम (सूअर) नहीं खाता।’

जब कर्नल के सामने पेश किए गए, तो इन्होंने महारानी विक्टोरिया से अपने पत्र-व्यवहार की बात बताई और अपनी वफ़ादारी का विश्वास दिलाया। कर्नल ने पूछा, ‘तुम दिल्ली की लड़ाई के समय पहाड़ी पर क्यों नहीं आये, जहाँ अंग्रेज़ी फ़ौज़ें और उनके मददगार जमा हो रहे थे?’ मिर्ज़ा ने कहा, ‘तिलंगे दरवाज़े से बाहर आदमी को निकलने नहीं देते थे। मैं क्यों कर आता? अगर कोई फ़रेब करके, कोई बात करके निकल जाता, जब पहाड़ी के क़रीब गोली की रेंज में पहुँचता तो पहरे वाला गोली मार देता। यह भी माना की तिलंगे बाहर जाने देते, गोरा पहरेदार भी गोली न मारता पर मेरी सूरत देखिए और मेरा हाल मालूम कीजिए। बूढ़ा हूँ, पाँव से अपाहिज, कानों से बहरा, न लड़ाई के लायक़, न मश्विरत के क़ाबिल। हाँ, दुआ करता हूँ सो वहाँ भी दुआ करता रहा।’ कर्नल साहब हँसे और मिर्ज़ा को उनके नौकरों और घरवालों के साथ घर जाने की इजाज़त दे दी।

1857 के ग़दर के अनेक चित्र मिर्ज़ा 'ग़ालिब' के पत्रों में तथा इनकी पुस्तक ‘दस्तंबू’ में मिलते हैं। इस समय इनकी मनोवृत्ति अस्थिर थी। वह निर्णय नहीं कर पाते थे कि किस पक्ष में रहें। सोचते थे कि पता नहीं ऊँट किस करवट बैठे? इसीलिए क़िले से भी थोड़ा सम्बन्ध बनाये रखते थे। ‘दस्तंबू’ में उन घटनाओं का ज़िक्र है जो ग़दर के समय इनके आगे गुज़री थीं। उधर फ़साद शुरू होते ही मिर्ज़ा की बीबी ने उनसे बिना पूछे अपने सारे ज़ेवर और क़ीमती कपड़े मियाँ काले साहब के मकान पर भेज दिए ताकि वहाँ सुरक्षित रहेंगे। पर बात उलटी हुई। काले साहब का मकान भी लुटा और उसके साथ ही ग़ालिब का सामान भी लुट गया। चूँकि इस समय राज मुसलमानों का था, इसीलिए अंग्रेज़ों ने दिल्ली विजय के बाद उन पर विशेष ध्यान दिया और उनको ख़ूब सताया। बहुत से लोग प्राण-भय से भाग गए। इनमें मिर्ज़ा के भी अनेक मित्र थे। इसीलिए ग़दर के दिनों में उनकी हालत बहुत ख़राब हो गई। घर से बाहर बहुत कम निकलते थे। खाने-पीने की भी मुश्किल थी। ऐसे वक़्त उनके कई हिन्दू मित्रों ने उनकी मदद की। मुंशी हरगोपाल ‘तुफ़्ता’ मेरठ से बराबर रुपये भेजते रहे, लाला महेशदास इनकी मदिरा का प्रबन्ध करते रहे। मुंशी हीरा सिंह दर्द, पं. शिवराम एवं उनके पुत्र बालमुकुन्द ने भी इनकी मदद की। मिर्ज़ा ने अपने पत्रों में इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की है।

जब असदउल्ला ख़ाँ 'ग़ालिब' सिर्फ़ 13 वर्ष के थे, इनका विवाह लोहारू के नवाब 'अहमदबख़्श ख़ाँ' (जिनकी बहन से इनके चचा का ब्याह हुआ था) के छोटे भाई 'मिर्ज़ा इलाहीबख़्श ख़ाँ ‘मारूफ़’ की बेटी 'उमराव बेगम' के साथ 9 अगस्त, 1810 ई. को सम्पन्न हुआ था। उमराव बेगम 11 वर्ष की थीं। इस तरह लोहारू राजवंश से इनका सम्बन्ध और दृढ़ हो गया। पहले भी वह बीच-बीच में दिल्ली जाते रहते थे, पर शादी के 2-3 वर्ष बाद तो दिल्ली के ही हो गए। वह स्वयं ‘उर्दू-ए-मोअल्ला’ (इनका एक ख़त) में इस घटना का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि-

"7 रज्जब 1225 हिजरी को मेरे वास्ते हुक्म दवा में हब्स[ सादिर[ हुआ। एक बेड़ी (यानी बीवी) मेरे पाँव में डाल दी और दिल्ली शहर को ज़िन्दान मुक़र्रर किया और मुझे इस ज़िन्दाँ में डाल दिया।"

मुल्ला अब्दुस्समद 1810-1811 ई. में अकबराबाद आए थे और दो वर्ष के शिक्षण के बाद असदउल्ला ख़ाँ (ग़ालिब) उन्हीं के साथ आगरा से दिल्ली गए। दिल्ली में यद्यपि वह अलग घर लेकर रहे, पर इतना तो निश्चित है कि ससुराल की तुलना में इनकी अपनी सामाजिक स्थिति बहुत हलकी थी। इनके ससुर इलाहीबख़्श ख़ाँ को राजकुमारों का ऐश्वर्य प्राप्त था। यौवन काल में इलाहीबख़्श की जीवन विधि को देखकर लोग उन्हें ‘शहज़ाद-ए-गुलफ़ाम’ कहा करते थे। इससे अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि, उनकी बेटी का पालन-पोषण किस लाड़-प्यार के साथ हुआ होगा। असदउल्ला ख़ाँ (ग़ालिब) शक्ल और सूरत से बड़ा आकर्षक व्यक्तित्व रखते थे। उनके पिता-दादा फ़ौज में उच्चाधिकारी रह चुके थे। इसीलिए ससुर को आशा रही होगी कि, असदउल्ला ख़ाँ भी आला रुतबे तक पहुँचेंगे एवं बेटी ससुराल में सुखी रहेगी, पर ऐसा हो न सका। आख़िर तक यह शेरो-शायरी में ही पड़े रहे और उमराव बेगम, पिता के घर बाहुल्य के बीच पली लड़की को ससुराल में सब सुख सपने जैसे हो गए।

जगदीश्वर चतुर्वेदी

"Everywhere" by Translator (Official 2020 new re-recorded version) 11/12/2020

Translator new song ‘Everywhere’ congratulations Robert and translator team. Keep going buddy.

"Everywhere" by Translator (Official 2020 new re-recorded version) "Everywhere"Translator 2020 new re-recorded versionSteve Barton: guitar, vocalRobert Darlington: guitar, lead vocalLarry Dekker: bassDave Scheff: drumsSong w...

10/12/2020

मंगलेश डबराल, भारतीय भाषा के एक बहुत ही महत्वपूर्ण कवि, जिन्होंने हिंदी कविता को एक अलग चेहरे के साथ एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया, अब हमारे बीच नहीं रहे।
।।आखरमैग पत्रिका की तरफ़ से भावभीनी आदरांजलि।।
😔💐
______________________
मंगेश डबराल की एक कविता

*अभिनय*

एक गहन आत्मविश्वास से भरकर
सुबह निकल पड़ता हूँ घर से
ताकि सारा दिन आश्वस्त रह सकूँ
एक आदमी से मिलते हुए मुस्कराता हूँ
वह एकाएक देख लेता है मेरी उदासी
एक से तपाक से हाथ मिलाता हूँ
वह जान जाता है मैं भीतर से हूँ अशांत
एक दोस्त के सामने ख़ामोश बैठ जाता हूँ
वह कहता है तुम दुबले बीमार क्यों दिखते हो
जिन्होंने मुझे कभी घर में नहीं देखा
वे कहते हैं अरे आप टी०वी० पर दिखे थे एक दिन

बाज़ारों में घूमता हूँ निश्शब्द
डिब्बों में बन्द हो रहा है पूरा देश
पूरा जीवन बिक्री के लिए
एक नई रंगीन किताब है जो मेरी कविता के
विरोध में आई है
जिसमें छपे सुन्दर चेहरों को कोई कष्ट नहीं
जगह जगह नृत्य की मुद्राएँ हैं विचार के बदले
जनाब एक पूरी फ़िल्म है लम्बी
आप ख़रीद लें और भरपूर आनन्द उठाएँ

शेष जो कुछ है अभिनय है
चारों ओर आवाज़ें आ रही हैं
मेकअप बदलने का भी समय नहीं है
हत्यारा एक मासूम के कपड़े पहनकर चला आया है
वह जिसे अपने पर गर्व था
एक ख़ुशामदी की आवाज़ में गिड़गिड़ा रहा है
ट्रेजडी है संक्षिप्त लम्बा प्रहसन
हरेक चाहता है किस तरह झपट लूँ
सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार।

26/11/2020

अजब आज़ाद मर्द था


1980 का दशक एक अजब जवांमर्दी का दौर था। रेट्रोसेक्शुअल ऊर्जा उफनी रहती थी। उस दौर के लोकप्रिय पुरुष घेर वाली पतलून पहनते थे। उनके लम्बे घुंघराले बाल कंधों पर जलप्रपात की तरह गिरते। छाती उघड़ी होती। ये पुरुष विनम्रता और सौम्यता की प्रतिमूर्ति नहीं थे, किंतु वो अपने हुनर और सिफ़त का गर्वीला इश्तेहार ज़रूर हुआ करते थे, जिसके सामने दुनिया सिर झुकाती थी। वो मार्केज़, कास्त्रो, सोक्रेटीज़, जैक्सन, निकलसन, मैकेनरो, ट्रवोल्टा, रिचर्ड्स और माराडोना का ज़माना था।

डिएगो माराडोना से पहले पेले फ़ुटबॉल का ख़ुदा था। उसके बाद में भी फ़ुटबॉल की दुनिया में अनेक देवता पैदा हुए, जिन्होंने अपनी श्रेष्ठता का चर्चा छिड़ने पर अपने द्वारा जीते गए ख़िताबों और दाग़े गए गोलों की तरफ़ इशारा किया। पर माराडोना ने फ़ुटबॉल के मैदान पर जिस करिश्मे, उन्माद और भावोद्रेक को जन्म दिया, वह उससे पहले और बाद में कभी नहीं हुआ। माराडोना ने किंवदंतियां रचीं और किंवदंतियों को जीया। उसका जीवन किसी लिहाज़ से बेदाग़ नहीं था, पर उसने कभी इसकी परवाह भी नहीं की। वह फ़ुटबॉल की दुनिया का क्लॉउस किन्स्की था, जिसे फ़्लॉड जीनियस कहा जाता है। हमारे ज़ेहन के किसी कोने में इस आवारा ख़याल को जन्म देने वाला कि खरे सोने से भले गहने बनते हों, आदमी जिस मिट्‌टी से बनता है वो तो अनगढ़ और सच्ची ही होती है।

डिएगो माराडोना हद दर्ज़े का जुझारू और लड़ाका था। उसकी ऊर्जा उसके साथियों को आविष्ट कर लेती थी। फ़ुटबॉल के मैदान पर वह रोमन ग्लेडिएटर बन जाता था। इटली की दंतकथाओं में वह अकारण ही शुमार नहीं है। आज भी आप नेपल्स की गलियों में निकल जाएं तो वहां आपको माराडोना के पोस्टर्स और म्यूरल्स मिलेंगे। वहाँ उसे ईश्वर की तरह पूजा जाता है। रोज़ेरियो में माराडोना के नाम का एक उपासनागृह भी है। ब्यूनस ऑयर्स और बार्सीलोना में उसके नाम की क़समें खाई जाती हैं। कालांतर में ब्यूनस ऑयर्स की गलियों से निकलकर एक और खिलाड़ी बार्सीलोना पहुंचा, जिसे माराडोना का उत्तराधिकारी पुकारा गया। उसका नाम लियोनल मेस्सी था। किंतु ईश्वर ने उसके ज़ेहन को डिएगो से निहायत ही फ़र्क़ करघे पर बुना था। डिएगो में लातीन अमरीकी फ़ुटबॉल की जंगली झरने जैसी रवानी थी, जबकि लियोनल यूरोप की तकनीकी फ़ुटबॉल का कट्‌टर रियाज़ी है। उसमें तमाम अच्छाइयां हैं, लेकिन डिएगो जैसी जांबाज़ी नहीं। अर्जेंतीना की नीली और सफ़ेद धारियों को अपने बदन पर आसमान की तरह पहनने वाले इसीलिए आज भी डिएगो को बेतरह याद करते हैं। वो जानते हैं कि उसके जैसों के बिना विश्वविजय सम्भव नहीं। दक्षिण अमरीका का यह महान देश अब उसके अवसान पर तीन दिन के शोक में डूब गया है। जो मुल्क फ़ुटबॉल के ज़रिये अपनी अस्मिता की पहचान करता है, उसके लिए डिएगो माराडोना क्राइस्ट रिडीमर की मूरत से कम नहीं है।

माराडोना वीया फ़ियोरीतो के शैंटीटाउन्स से निकलकर सामने आया था। ग़ुरबत ने उसको पाला और मुक़द्दर ने उसके शरीर में इस्पात भरा। उसका क़द दरमियानी और बदन गठीला था। लो सेंटर ऑफ़ ग्रैविटी के बावजूद वह उक़ाब की तरह फ़ुर्तीला और सांप की तरह शातिर था। आठ बरस की उम्र में वो नौजवान रंगरूटों को छकाकर गोल करने लगा था। अर्जेंतीना की प्राइमेरा डिवीज़न ने उसको हाथोंहाथ लिया और इससे पहले कि दुनिया को भनक लग पाती, वो अर्ख़ेंतिनियोस जूनियर्स के लिए सौ गोल दाग़ चुका था। तब तक वो बालिग़ भी नहीं हुआ था। इसके बाद वो बोका जूनियर्स के लिए खेला और किंवदंतियों में शुमार ला बोम्बोनेरा स्टेडियम उसके नाम से गूंजने लगा।

वास्तव में डिएगो माराडोना का खेल-जीवन कड़ी प्रतिद्वंद्विताओं से भरा हुआ है और ऐसे लमहों में उसका खेल और निखर जाता था। बोका जूनियर्स और रिवर प्लेट की प्रतिद्वंद्विता, जो सुपरक्लैसिको कहलाती है, पूरी दुनिया में कुख्यात है। जब वो बार्सीलोना के लिए खेलने गया तो एल क्लैसिको में रीयल मैड्रिड से भिड़ा। अर्जेंतीना और ब्राज़ील की प्रतिद्वंद्विता पर पुस्तकें लिखी गई हैं। अर्जेंतीना और इंग्लैंड की प्रतिद्वंद्विता भी फ़ॉकलैंड्स वॉर के चलते अस्सी के दशक में अपने चरम पर थी। जब वो इटली में नैपली के लिए खेलने गया तो रोम से उसने लोहा लिया। यह प्रतिद्वंद्विता डर्बी डेल सोल कहलाती है। इटली को उसने जीत लिया था। मैड्रिड को उसने घुटनों पर झुका दिया था। रीयल मैड्रिड के प्रशंसकों ने माराडोना से पहले बार्सीलोना के किसी खिलाड़ी को सलामी नहीं दी थी और उसके बाद केवल दो को ही दी है- रोनाल्डिनियो और इनीएस्ता। साल छयासी में इंग्लैंड का जैसा मानमर्दन उसने किया, वह तो जगविख्यात है। अर्जेंतीनियों के लिए यह फ़ॉकलैंड्स की जंग का हिसाब चुकता करने जैसा मामला था। कुछ दिनों पहले माराडोना ने अपनी सुपरिचित बदमाशी का परिचय देते हुए कहा था- "ज़िंदगी में मेरी एक ही तमन्ना है- इंग्लैंड के ख़िलाफ़ एक और गोल दाग़ना, लेकिन इस बार दाहिने हाथ से।" और इसके बावजूद आज इंग्लैंड की फ़ुटबॉल टीम ने अपने ऑफ़िशियल हैंडल्स से माराडोना को झुककर सलाम किया है। ये दुनिया को जीतने और झुकाने का माराडोना का अपना अंदाज़ है।

जब अर्जेंतीना ने अपने घर में 1978 का विश्वकप जीता तो डिएगो को टीम में शामिल नहीं किया गया था, जबकि वह एक साल पहले ही अंतरराष्ट्रीय फ़ुटबॉल में पदार्पण कर चुका था। 1982 के विश्वकप तक वह टीम की धुरी बन चुका था। लेकिन 1986 के विश्वकप में उसने जो किया, उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। उस टूर्नामेंट में अर्जेंटीना के द्वारा दाग़े गए चौदह गोलों में से दस में उसने केंद्रीय भूमिका निभाई- पांच गोल और पांच असिस्ट। उसने नब्बे ड्रिबल्स किए और दर्जनों फ्री-किक जीतीं। ऐसा मालूम हुआ जैसे कोई अंधड़ मैक्सिको से जा भिड़ा हो। 1986 में माराडोना अपराजेय था। उसे कोई रोक नहीं सकता था। क्वार्टर फ़ाइनल में इंग्लैंड के विरुद्ध महज़ पांच मिनट के फ़ासले में फ़ुटबॉल-इतिहास के दो सबसे चर्चित गोल ("हैंड ऑफ़ गॉड" और "गोल ऑफ़ द सेंचुरी") दाग़कर वो फ़ुटबॉल के लीजेंड्स में शुमार हो गया। सेमीफ़ाइनल में उसने बेल्जियम के ख़िलाफ़ दो और गोल किए। वेस्ट जर्मनी के ख़िलाफ़ खेले गए फ़ायनल में उसने ख़ोर्ख़े बुर्रुख़ागा को सुई की आंख में धागा पिरोने वाला महीन पास दिया, जिस पर विजयी गोल दाग़ा गया और अर्जेंतीना ने विश्वकप ट्रॉफ़ी चूमी। खेलों के इतिहास में इससे पहले और इसके बाद में किसी और कप्तान ने इस दर्जे का एकल प्रदर्शन करते हुए अपनी टीम को दुनिया का सरताज नहीं बनाया था।

अगर माराडोना 1986 के विश्वकप के बाद एक भी मैच नहीं खेलता, तब भी वह फ़ुटबॉल की दुनिया का सिरमौर कहलाता। लेकिन इसके बाद उसने लगभग इसी जोड़ का एक और कारनामा किया, जब वह बार्सीलोना से नैपली गया और "सेरी आ" (इतालवी लीग) की इस मिड टेबल टीम को पांच ख़िताब जितवा दिए। इनमें दो लीग टाइटिल शामिल थे। जब माराडोना नेपल्स पहुंचा था तो उन लोगों ने कहा, हमारा मसीहा और उद्धारक आ गया है, अब हमें चिंता करने की ज़रूरत नहीं। दक्षिण इटली के इस शहर में आज भी माराडोना जीज़ज़ क्राइस्ट के बाद दूसरा सबसे लोकप्रिय व्यक्ति है। उसने नेपल्स को रोम और मिलान से आंख मिलाने की वक़अत दी थी। 1990 के विश्‍व कप का सेमीफ़ाइनल जब अर्जेंतीना और इटली के बीच नेपल्‍स में हुआ तो दर्शक अपनी टीम को छोड़कर माराडोना का नाम पुकार रहे थे। आज माराडोना की मौत के बाद फ़ुटबॉल क्लब नैपली ने कहा- "दुनिया हमें सुनना चाहती है, लेकिन हम गूंगे हो गए हैं। प्लीज़, हमें शोक में डूब जाने दीजिए।"

इमीर कुस्तुरिका ने माराडोना को "सेक्स पिस्टल" कहा था। उसने कहा था कि अगर ये आदमी फ़ुटबॉल नहीं खेल रहा होता तो गुरिल्ला छापामार योद्धा होता। अलबत्ता माराडोना ने खेल के मैदान पर भी जूतमपैजार से तौबा नहीं की। बार्सीलोना के लिए खेलते हुए एथलेटिक बिल्बाओ के खिलाड़ियों की वह पिटाई कर बैठा था। वो टूटे पंखों वाला बदनाम फ़रिश्ता था। वो नशेड़ी था और कोकेन की तरंग में डूबा रहता था। वो मुंहफट और बदतमीज़ था। वो ख़ुद को ख़ुदा से कम नहीं समझता था। पर जब वो खेल के मैदान पर उतरता, तो ऐसा लगता जैसे क़ायनात के सबसे ख़ूबसूरत अहसास उसके दिल में धड़क रहे हैं। महान मिचेल प्लातीनी ने कहा था, जो मैं फ़ुटबॉल के साथ कर सकता हूं, डिएगो एक संतरे के साथ कर सकता था। 1986 के विश्वकप में जब माराडोना ने "गोल ऑफ़ द सेंचुरी" दाग़ा तो टीवी पर लेजेंडरी कमेंटेटर विक्तोर ह्यूगो मोरालेस कमेंट्री कर रहे थे। उस गोल का आंखों देखा हाल सुनाते हुए मोरालेस की आवाज़ में पारलौकिक आवेश उतर आया था। वे "वीवा एल फु़तबोल" कहते हुए हर्षातिरेक से भर उठे थे। आज भी वह कमेंट्री सुनकर रोमांच हो आता है। इस तरह के लमहों को केवल डिएगो माराडोना ही साकार कर सकता था।

मेरा मानना है कि नियति जिस व्यक्ति को सामूहिकता के उन्माद से भरे ऐसे क्षणों के लिए चुनती है, वो साधारण नहीं होता, उसके माध्यम से अस्तित्व की आदिम शक्तियाँ स्वयं को व्यक्त करती हैं। डिएगो उन्हीं प्रिमिटव और एलीमेंटल ताक़तों का सजीव पुतला था।

माराडोना नाम के इस करिश्मे के बारे में सोचते हुए आज मुझको ग़ालिब का यह शे'र याद आ रहा है-

"ये लाश-ए-बे-कफ़न 'असद'-ए-ख़स्ता-जाँ की है
हक़ मग़फ़िरत करे अजब आज़ाद मर्द था"

और जैसा कि 1986 की उस जादुई शाम विक्तोर ह्यूगो मोरालेस ने कहा था-

"आई वान्ट टु क्राय, डियर गॉड, लॉन्ग लिव फ़ुतबोल!"

जबकि मैं जानता हूं कि डिएगो नाम का यह अजब आज़ाद मर्द हमेशा किंवदंतियों के एलबम में अमर रहेगा!

- सुशोभित

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