Rohit Electric Auto Mobile
SAJAG
Memorable day at ISRO - Indian Space Research Organisation with our scientists.
वाहन चालकों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण... टोल की रसीद की कीमत को समझें और उसका उपयोग करें
"टोल बूथ पर मिली इस रसीद में क्या छिपा है और इसे सुरक्षित क्यों रखा जाए?
इसके अतिरिक्त लाभ क्या हैं?" आईए आज जानते हैं।
1. यदि टोल रोड पर यात्रा करते समय आपकी कार अचानक रुक जाती है तो आपकी कार को टो करने के लिए टोल कंपनी जिम्मेदार होती है।
2. अगर एक्सप्रेस हाईवे पर आपकी कार का पेट्रोल या बैटरी खत्म हो जाती है तो आपकी कार को बदलने और पेट्रोल और बाहरी चार्जिंग प्रदान करने के लिए टोल संग्रह कंपनी जिम्मेदार है। आपको फोन करना चाहिए। दस मिनट में मदद मिलेगी और 5 से 10 लीटर पेट्रोल फ्री मिलेगा। अगर कार पंचर हो जाए तो भी आप इस नंबर पर संपर्क कर मदद ले सकते हैं।
3. यहां तक कि अगर आपकी कार दुर्घटना में शामिल है तो आपको या आपके साथ आने वाले किसी व्यक्ति को पहले टोल रसीद पर दिए गए फोन नंबर पर संपर्क करना चाहिए।
4. यदि कार में यात्रा करते समय अचानक किसी की तबीयत खराब हो जाती है तो उस व्यक्ति को तुरंत अस्पताल ले जाने की आवश्यकता हो सकती है। से समय में यह टोल कंपनियों की जिम्मेदारी है कि आप तक एंबुलेंस पहुंचाएं।
जिन लोगों को यह जानकारी मिली है, वे इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाएं।
आज पूरे देश के लिए गर्व का विषय है।
36 उपग्रहों को साथ ले जाने वाले भारत के सबसे बड़े LVM3-M3 रॉकेट के सफल प्रक्षेपण पर इसरो की पूरी टीम का अभिनंदन और देशवासियों को बधाई।
जय हिन्द!
सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सवार्थ साधिके।शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।
महाअष्टमी के पावन पर्व की सभी को अशेष शुभकामनाएं।
मां भवानी हम सभी पर सदैव अपनी कृपा-दृष्टि बनाए रखें।
जय श्री राम
// श्री हनुमान चालीसा //
(हिन्दी अर्थ सहित )
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श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि।
बरनऊं रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।
अर्थ:- श्री गुरु महाराज के चरण कमलों की धूलि से अपने मन रूपी दर्पण को पवित्र करके श्री रघुवीर के निर्मल यश का वर्णन करता हूं, जो चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला है।
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बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरो पवन-कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार।
अर्थ:- हे पवन कुमार! मैं आपको सुमिरन करता हूं। आप तो जानते ही हैं कि मेरा शरीर और बुद्धि निर्बल है। मुझे शारीरिक बल, सद्बुद्धि एवं ज्ञान दीजिए और मेरे दुखों व दोषों का नाश कार दीजिए।
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जय हनुमान ज्ञान गुण सागर,
जय कपीस तिहुं लोक उजागर॥1॥
अर्थ:- श्री हनुमान जी! आपकी जय हो। आपका ज्ञान और गुण अथाह है। हे कपीश्वर! आपकी जय हो! तीनों लोकों, स्वर्ग लोक, भूलोक और पाताल लोक में आपकी कीर्ति है।
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राम दूत अतुलित बलधामा,
अंजनी पुत्र पवन सुत नामा॥2॥
अर्थ:- हे पवनसुत अंजनी नंदन! आपके समान दूसरा बलवान नहीं है।
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महावीर विक्रम बजरंगी,
कुमति निवार सुमति के संगी॥3॥
अर्थ:- हे महावीर बजरंग बली!आप विशेष पराक्रम वाले है। आप खराब बुद्धि को दूर करते है, और अच्छी बुद्धि वालों के साथी, सहायक है।
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कंचन बरन बिराज सुबेसा,
कानन कुण्डल कुंचित केसा॥4॥
अर्थ:- आप सुनहले रंग, सुन्दर वस्त्रों, कानों में कुण्डल और घुंघराले बालों से सुशोभित हैं।
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हाथबज्र और ध्वजा विराजे,
कांधे मूंज जनेऊ साजै॥5॥
अर्थ:- आपके हाथ में बज्र और ध्वजा है और कन्धे पर मूंज के जनेऊ की शोभा है।
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शंकर सुवन केसरी नंदन,
तेज प्रताप महा जग वंदन॥6॥
अर्थ- शंकर के अवतार! हे केसरी नंदन आपके पराक्रम और महान यश की संसार भर में वन्दना होती है।
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विद्यावान गुणी अति चातुर,
राम काज करिबे को आतुर॥7॥
अर्थ:- आप प्रकान्ड विद्या निधान है, गुणवान और अत्यन्त कार्य कुशल होकर श्री राम के काज करने के लिए आतुर रहते है।
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प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया,
राम लखन सीता मन बसिया॥8॥
अर्थ:- आप श्री राम चरित सुनने में आनन्द रस लेते है। श्री राम, सीता और लखन आपके हृदय में बसे रहते है।
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सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा,
बिकट रूप धरि लंक जरावा॥9॥
अर्थ:- आपने अपना बहुत छोटा रूप धारण करके सीता जी को दिखलाया और भयंकर रूप करके लंका को जलाया।
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भीम रूप धरि असुर संहारे,
रामचन्द्र के काज संवारे॥10॥
अर्थ:- आपने विकराल रूप धारण करके राक्षसों को मारा और श्री रामचन्द्र जी के उद्देश्यों को सफल कराया।
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लाय सजीवन लखन जियाये,
श्री रघुवीर हरषि उर लाये॥11॥
अर्थ:- आपने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी को जिलाया जिससे श्री रघुवीर ने हर्षित होकर आपको हृदय से लगा लिया।
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रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई,
तुम मम प्रिय भरत सम भाई॥12॥
अर्थ:- श्री रामचन्द्र ने आपकी बहुत प्रशंसा की और कहा कि तुम मेरे भरत जैसे प्यारे भाई हो।
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सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥13॥
अर्थ:- श्री राम ने आपको यह कहकर हृदय से लगा लिया की तुम्हारा यश हजार मुख से सराहनीय है।
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सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा,
नारद, सारद सहित अहीसा॥14॥
अर्थ:- श्री सनक, श्री सनातन, श्री सनन्दन, श्री सनत्कुमार आदि मुनि ब्रह्मा आदि देवता नारद जी, सरस्वती जी, शेषनाग जी सब आपका गुण गान करते है।
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जम कुबेर दिगपाल जहां ते,
कबि कोबिद कहि सके कहां ते॥15॥
अर्थ:- यमराज, कुबेर आदि सब दिशाओं के रक्षक, कवि विद्वान, पंडित या कोई भी आपके यश का पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकते।
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तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा,
राम मिलाय राजपद दीन्हा॥16॥
अर्थ:- आपने सुग्रीव जी को श्रीराम से मिलाकर उपकार किया, जिसके कारण वे राजा बने।
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तुम्हरो मंत्र विभीषण माना,
लंकेस्वर भए सब जग जाना॥17॥
अर्थ:- आपके उपदेश का विभिषण जी ने पालन किया जिससे वे लंका के राजा बने, इसको सब संसार जानता है।
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जुग सहस्त्र जोजन पर भानू,
लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥18॥
अर्थ:- जो सूर्य इतने योजन दूरी पर है कि उस पर पहुंचने के लिए हजार युग लगे। दो हजार योजन की दूरी पर स्थित सूर्य को आपने एक मीठा फल समझकर निगल लिया।
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प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहि,
जलधि लांघि गये अचरज नाहीं॥19॥
अर्थ:- आपने श्री रामचन्द्र जी की अंगूठी मुंह में रखकर समुद्र को लांघ लिया, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
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दुर्गम काज जगत के जेते,
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥20॥
अर्थ:- संसार में जितने भी कठिन से कठिन काम हो, वो आपकी कृपा से सहज हो जाते है।
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श्री हनुमान चालीसा अर्थ सहित...
WD|
राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसा रे॥21॥
अर्थ-
श्री रामचन्द्र जी के द्वार के आप रखवाले है, जिसमें आपकी आज्ञा बिना किसी को प्रवेश नहीं मिलता अर्थात् आपकी प्रसन्नता के बिना राम कृपा दुर्लभ है।
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सब सुख लहै तुम्हारी सरना,
तुम रक्षक काहू को डरना ॥22॥
अर्थ:- जो भी आपकी शरण में आते है, उस सभी को आनन्द प्राप्त होता है, और जब आप रक्षक है, तो फिर किसी का डर नहीं रहता।
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आपन तेज सम्हारो आपै,
तीनों लोक हांक तें कांपै॥23॥
अर्थ:- आपके सिवाय आपके वेग को कोई नहीं रोक सकता, आपकी गर्जना से तीनों लोक कांप जाते है।
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भूत पिशाच निकट नहिं आवै,
महावीर जब नाम सुनावै॥24॥
अर्थ:- जहां महावीर हनुमान जी का नाम सुनाया जाता है, वहां भूत, पिशाच पास भी नहीं फटक सकते।
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नासै रोग हरै सब पीरा,
जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥25॥
अर्थ:- वीर हनुमान जी! आपका निरंतर जप करने से सब रोग चले जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।
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संकट तें हनुमान छुड़ावै,
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥26॥
अर्थ:- हे हनुमान जी! विचार करने में, कर्म करने में और बोलने में, जिनका ध्यान आपमें रहता है, उनको सब संकटों से आप छुड़ाते है।
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सब पर राम तपस्वी राजा,
तिनके काज सकल तुम साजा॥27॥
अर्थ:- तपस्वी राजा श्री रामचन्द्र जी सबसे श्रेष्ठ है, उनके सब कार्यों को आपने सहज में कर दिया।
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और मनोरथ जो कोइ लावै,
सोई अमित जीवन फल पावै॥28॥
अर्थ:- जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करें तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन में कोई सीमा नहीं होती।
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चारों जुग परताप तुम्हारा,
है परसिद्ध जगत उजियारा॥29॥
अर्थ:- चारो युगों सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग में आपका यश फैला हुआ है, जगत में आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।
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साधु सन्त के तुम रखवारे,
असुर निकंदन राम दुलारे॥30॥
अर्थ:- हे श्री राम के दुलारे! आप सज्जनों की रक्षा करते है और दुष्टों का नाश करते है।
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अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता,
अस बर दीन जानकी माता॥31॥
अर्थ:- आपको माता श्री जानकी से ऐसा वरदान मिला हुआ है, जिससे आप किसी को भी आठों सिद्धियां और नौ निधियां दे सकते है।
1) अणिमा- जिससे साधक किसी को दिखाई नहीं पड़ता और कठिन से कठिन पदार्थ में प्रवेश कर जाता है।
2) महिमा- जिसमें योगी अपने को बहुत बड़ा बना देता है।
3) गरिमा- जिससे साधक अपने को चाहे जितना भारी बना लेता है।
4) लघिमा- जिससे जितना चाहे उतना हल्का बन जाता है।
5) प्राप्ति- जिससे इच्छित पदार्थ की प्राप्ति होती है।
6) प्राकाम्य- जिससे इच्छा करने पर वह पृथ्वी में समा सकता है, आकाश में उड़ सकता है।
7) ईशित्व- जिससे सब पर शासन का सामर्थ्य हो जाता है।
8) वशित्व- जिससे दूसरों को वश में किया जाता है।
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राम रसायन तुम्हरे पासा,
सदा रहो रघुपति के दासा॥32॥
अर्थ:- आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण में रहते है, जिससे आपके पास बुढ़ापा और असाध्य रोगों के नाश के लिए राम नाम औषधि है।
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तुम्हरे भजन राम को पावै,
जनम जनम के दुख बिसरावै॥33॥
अर्थ:- आपका भजन करने से श्री राम जी प्राप्त होते है और जन्म जन्मांतर के दुख दूर होते है।
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अन्त काल रघुबर पुर जाई,
जहां जन्म हरि भक्त कहाई॥34॥
अर्थ:- अंत समय श्री रघुनाथ जी के धाम को जाते है और यदि फिर भी जन्म लेंगे तो भक्ति करेंगे और श्री राम भक्त कहलाएंगे।
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और देवता चित न धरई,
हनुमत सेई सर्व सुख करई॥35॥
अर्थ:- हे हनुमान जी! आपकी सेवा करने से सब प्रकार के सुख मिलते है, फिर अन्य किसी देवता की आवश्यकता नहीं रहती।
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संकट कटै मिटै सब पीरा,
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥36॥
अर्थ:- हे वीर हनुमान जी! जो आपका सुमिरन करता रहता है, उसके सब संकट कट जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।
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जय जय जय हनुमान गोसाईं,
कृपा करहु गुरु देव की नाई॥37॥
अर्थ:- हे स्वामी हनुमान जी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो! आप मुझ पर कृपालु श्री गुरु जी के समान कृपा कीजिए।
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जो सत बार पाठ कर कोई,
छूटहि बंदि महा सुख होई॥38॥
अर्थ:- जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा वह सब बंधनों से छूट जाएगा और उसे परमानन्द मिलेगा।
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जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा,
होय सिद्धि साखी गौरीसा॥39॥
अर्थ- भगवान शंकर ने यह हनुमान चालीसा लिखवाया, इसलिए वे साक्षी है, कि जो इसे पढ़ेगा उसे निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी।
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तुलसीदास सदा हरि चेरा,
कीजै नाथ हृदय मंह डेरा॥40॥
अर्थ:- हे नाथ हनुमान जी! तुलसीदास सदा ही श्री राम का दास है। इसलिए आप उसके हृदय में निवास कीजिए।
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पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सूरभूप॥
अर्थ:- हे संकट मोचन पवन कुमार! आप आनंद मंगलों के स्वरूप हैं। हे देवराज! आप श्री राम, सीता जी और लक्ष्मण सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए।
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#आरती -
मंगल मूरती मारुत नंदन; सकल अमंगल मूल निकंदन I
पवनतनय संतन हितकारी; हृदय बिराजत अवध बिहारी I
मातु पिता गुरू गणपति सारद; शिव समेठ शंभू शुक नारद I
चरन कमल बिन्धौ सब काहु; देहु रामपद नेहु निबाहु I
जै जै जै हनुमान गोसाईं; कृपा करहु गुरु देव की नाईं I
बंधन राम लखन वैदेही; यह तुलसी के परम सनेही I
॥ सियावर रामचंद्रजी की जय॥
// श्री संकटमोचन हनुमानाष्टक //
(हिन्दी अर्थ सहित )
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बाल समय रबि भक्षि लियो तब,
तीनहुँ लोक भयो अँधियारो।
ताहि सो त्रास भयो जग को,
यह संकट काहुँ सो जात न टारो।
देवन आनि करी बिनती तब,
छाँड़ि दियो रवि कष्ट निवारो।
को नहिं जानत है जग मे कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो॥१॥
अर्थ:- हे हनुमान जी ! आप बालक थे तब आपने सूर्य को अपने मूख मे रख लिया जिससे तीनो लोकों मे अँधेरा हो गया। इससे संसार भर मे विपति छा गई, और उस संकट को कोई भी दूर नही कर सका। देवताओं ने आकर आपकी विनती की और आपने सूर्य को मुक्त कर दिया। इस प्रकार संकट दूर हुआ। हे हनुमान जी, संसार में ऐसा कौन है जो आपका संकट मोचन नाम नहीं जानता।
बालि की त्रास कपीस बसै गिरि,
जात महा प्रभु पंथ निहारो।
चौंकि महामुनि साप दियो तब,
चाहिए कौन बिचार बिचारो।
कै द्विज रुप लिवाय महाप्रभु,
सो तुम दास के सोक निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो॥२॥
अर्थ:- बालि के डर से सुग्रीव पर्वत पर रहते थे। उन्होनें श्री रामचन्द्रजी को आते देखा, उन्होनें आपको पता लगा के लिए भेजा। आपने अपना ब्राह्मण का रुप धर कर के श्री रामचन्द्र जी से भेंट की और उनको अपने साथ लिवा लाये, जिससे आपने सुग्रीव के शोक का निवारण किया। हे, हनुमानजी, संसार मे ऐसा कौन है जो आपका संकट मोचन नाम नहीं जानता।
अंगद के संग लेन गए सिय,
खोज कपीस यह बैन उचारो।
जीवत ना बचिहौ हम सों जु,
बिना सुधि लाए इहाँ पगु धारो।
हेरि थके तट सिंधु सबै तब,
लाए सिया सुधि प्रान उबारो।
को नही जानत है जग मे कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो॥३॥
अर्थ- सुग्रीव ने अंगद के साथ सीता जी की खोज के लिए अपनी सेना को भेजते समय कह दिया था कि यदि सीता जी का पता लगाकर नही लाए तो हम तुम सब को मार डालेंगे। सब ढ़ूँढ़ ढ़ूँढ़कर हार गये। तब आप समुद्र के तट से कूद कर सीता जी का पता लगाकर लाये, जिससे सबके प्राण बचे। हे हनुमान जी संसार मे ऐसा कौन है, जो आपका संकट मोचन नाम नही जानता।
रावण त्रास दई सिय को सब,
राक्षसि सो कहि सोक निवारो।
ताहि समय हनुमान महाप्रभु ,
जाय महा रजनीचर मारो।
चाहत सिय अशोक सों आगिसु,
दै प्रभु मुद्रिका शोक निवारो।
को नहीं जानत हैं जग मे कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो॥४॥
अर्थ:- जब रावण ने श्री सीता जी को भय दिखाया और कष्ट दिया और सब राक्षसियों से कहा कि सीता जी को मनावें, हे महावीर हनुमानजी, उस समय आपने पहुँच कर महान राक्षसों को मारा। सीता जी ने अशोक वृक्ष से अग्नि माँगी परन्तु आपने उसी वृक्ष पर से श्री रामचन्द्रजी कि अँगूठी डाल दी जिससे सीता जी कि चिन्ता दूर हुई। हे हनुमान जी,संसार मे ऐसा कौन है जो आपका संकट मोचन नाम नही जानता।
बान लग्यो उर लक्षिमण के तब,
प्राण तजे सुत रावन मारो।
लै गृह वैद्य सुषेन समेत,
तबै गृह द्रोन सु बीर उपारो।
आनि सजीवन हाथ दई तब,
लछिमन के तुम प्रान उबारो।
को नहिं जानत हैं जग मे कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो॥५॥
अर्थ:- रावन के पुत्र मेघनाद ने बाण मारा जो लक्ष्मण जी की छाती पर लगा और उससे उनके प्राण संकट मे पड़ गए। तब आपही सुषेन वैद्य को घर सहित उठा लाए और द्रोणाचल पर्वत सहित संजीवनी बूटी ले आये जिससे लक्ष्मण जी के प्राण बच गये। हे हनुमान जी,संसार मे ऐसा कौन है जो आपका संकट मोचन नाम नही जानता।
रावन जुद्ध अजान कियो तब, नाग की फाँस सबै सिर डारो।
श्री रघुनाथ समेत सबै दल,
मोह भयो यह संकट भारो।
आनि खगेस तबै हनुमानजु,
बन्धन काटि सुत्रास निवारो।
को नहि जानत है जग मे कपि,
संकट मोचन नाम तिहारो॥६॥
अर्थ:- रावण ने घोर युद्ध करते हुए सबको नागपाश मे बाँध लिया तब श्री रघुनाथ सहित सारे दल मे यह मोह छा गया की यह तो बहुत भारी संकट है। उस समय, हे हनुमान जी आपने गरुड़ जी को लाकर बँधन को कटवा दिया जिससे संकट दूर हुआ। हे हनुमान जी,संसार मे ऐसा कौन है जो आपका संकट मोचन नाम नही जानता।
बंधु समेत जबै अहिरावण,
लै रघुनाथ पाताल सिधारो।
देविहिं पूजि भली विधि सों बलि,
देउ सबै मिलि मंत्र बिचारो।
जाय सहाय भयो तब ही,
अहिरावन सैन्य समेत संहारो।
को नहिं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो॥७॥
अर्थ:- अब अहिरावन श्री रघुनाथ जी को लक्षमण सहित पाताल को ले गया, और भलिभांति देवि जी की पूजा करके सबके परामर्श से यह निशचय किया कि इन दोनों भाइयों की बलि दूंगा, उसी समय आपने वहाँ पहुंच कर अहिरावन को उसकी सेना समेत मार डाला। हे हनुमानजी, संसार मे ऐसा कौन है जो आपका संकट मोचन नाम नहीं जानता॥
काज किए बड़ देवन के तुम,
बीर महाप्रभु बेखि बिचारो।
कौन सो संकट मोर गरीब को,
जो तुमसो नहिं जात है टारो।
बेगि हरौ हनुमान महाप्रभु,
जो कछु संकट होय हमारो।
को नहिं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो॥८॥
अर्थ - हे महाबीर आपने बड़े बड़े देवों के कार्य संवारे है। अब आप देखिये और सोचीए कि मुझ दीन हीन का ऐसा कौन सा संकट है जिसकोआप दुर नहीं कर सकते। हे महाबीर हनुमानजी, हमारा जो कुछ भी संकट हो आप उसे शीघ्र ही दूर कर दीजीए। हे हनुमानजी, संसार में ऐसा कौन है जो आपका संकट मोचन नाम नहीं जानता।
॥दोहा॥
लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लंगूर।
बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर॥
अर्थ:- आपका शरीर लाल है, आपकी पूँछ लाल है और आपने लाल सिंदूर धारण कर रखा है, आपके वस्त्र भी लाल है। आपका शरीर बज्र है, और आप दुष्टों का नाश कर देते है। हे हनुमानजी आपकी जय हो, जय हो, जय हो॥
!! जय श्री राम !! जय श्री राम !!
!! जय श्री राम !! जय श्री राम !!
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// श्री हनुमान बाहुक (हिन्दी भावार्थ सहित) //
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[ श्रीमद्-गोस्वामि-तुलसीदास-कृत ]
II श्रीगणेशाय नमः I श्रीजानकीवल्लभो विजयते II
II छप्पय II
सिंधु-तरन, सिय-सोच-हरन, रबि-बाल-बरन तनु ।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहुको काल जनु ।।
गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव ।
जातुधान-बलवान-मान-मद-दवन पवनसुव ।।
कह तुलसिदास सेवत सुलभ सेवक हित सन्तत निकट ।
गुन-गनत, नमत, सुमिरत, जपत समन सकल-संकट-विकट ।।१।।
भावार्थ:– जिनके शरीर का रंग उदयकाल के सूर्य के समान है, जो समुद्र लाँघकर श्रीजानकीजी के शोक को हरने वाले, आजानु-बाहु, डरावनी सूरत वाले और मानो काल के भी काल हैं। लंका-रुपी गम्भीर वन को, जो जलाने योग्य नहीं था, उसे जिन्होंने निःसंक जलाया और जो टेढ़ी भौंहो वाले तथा बलवान् राक्षसों के मान और गर्व का नाश करने वाले हैं, तुलसीदास जी कहते हैं – वे श्रीपवनकुमार सेवा करने पर बड़ी सुगमता से प्राप्त होने वाले, अपने सेवकों की भलाई करने के लिये सदा समीप रहने वाले तथा गुण गाने, प्रणाम करने एवं स्मरण और नाम जपने से सब भयानक संकटों को नाश करने वाले हैं ।।१।।
स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रबि-तरुन-तेज-घन ।
उर बिसाल भुज-दंड चंड नख-बज्र बज्र-तन ।।
पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन ।
कपिस केस, करकस लँगूर, खल-दल बल भानन ।।
कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति बिकट ।
संताप पाप तेहि पुरुष पहिं सपनेहुँ नहिं आवत निकट ।।२।।
भावार्थ:– वे सुवर्ण-पर्वत (सुमेरु) – के समान शरीरवाले, करोड़ों मध्याह्न के सूर्य के सदृश अनन्त तेजोराशि, विशाल-हृदय, अत्यन्त बलवान् भुजाओं वाले तथा वज्र के तुल्य नख और शरीरवाले हैं, भौंह, जीभ, दाँत और मुख विकराल हैं, बाल भूरे रंग के तथा पूँछ कठोर और दुष्टों के दल के बल का नाश करने वाली है। तुलसीदासजी कहते हैं – श्रीपवनकुमार की डरावनी मूर्ति जिसके हृदय में निवास करती है, उस पुरुष के समीप दुःख और पाप स्वप्न में भी नहीं आते ।।२।।
II झूलना II
पञ्चमुख-छमुख-भृगु मुख्य भट असुर सुर,
सर्व-सरि-समर समरत्थ सूरो ।
बाँकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली,
बेद बंदी बदत पैजपूरो ।।
जासु गुनगाथ रघुनाथ कह, जासुबल,
बिपुल-जल-भरित जग-जलधि झूरो ।
दुवन-दल-दमनको कौन तुलसीस है,
पवन को पूत रजपूत रुरो ।।३।।
भावार्थ:– शिव, स्वामि-कार्तिक, परशुराम, दैत्य और देवता-वृन्द सबके युद्ध रुपी नदी से पार जाने में योग्य योद्धा हैं । वेदरुपी वन्दीजन कहते हैं – आप पूरी प्रतिज्ञा वाले चतुर योद्धा, बड़े कीर्तिमान् और यशस्वी हैं । जिनके गुणों की कथा को रघुनाथ जी ने श्रीमुख से कहा तथा जिनके अतिशय पराक्रम से अपार जल से भरा हुआ संसार-समुद्र सूख गया । तुलसी के स्वामी सुन्दर राजपूत (पवनकुमार) – के बिना राक्षसों के दल का नाश करने वाला दूसरा कौन है ? (कोई नहीं) ।।३।।
II घनाक्षरी II
भानुसों पढ़न हनुमान गये भानु मन-
अनुमानि सिसु-केलि कियो फेरफार सो ।
पाछिले पगनि गम गगन मगन-मन,
क्रम को न भ्रम, कपि बालक बिहार सो ।।
कौतुक बिलोकि लोकपाल हरि हर बिधि,
लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खभार सो।
बल कैंधौं बीर-रस धीरज कै, साहस कै,
तुलसी सरीर धरे सबनि को सार सो ।।४।।
भावार्थ:– सूर्य भगवान् के समीप में हनुमान् जी विद्या पढ़ने के लिये गये, सूर्यदेव ने मन में बालकों का खेल समझकर बहाना किया ( कि मैं स्थिर नहीं रह सकता और बिना आमने-सामने के पढ़ना-पढ़ाना असम्भव है) । हनुमान् जी ने भास्कर की ओर मुख करके पीठ की तरफ पैरों से प्रसन्न-मन आकाश-मार्ग में बालकों के खेल के समान गमन किया और उससे पाठ्यक्रम में किसी प्रकार का भ्रम नहीं हुआ । इस अचरज के खेल को देखकर इन्द्रादि लोकपाल, विष्णु, रुद्र और ब्रह्मा की आँखें चौंधिया गयीं तथा चित्त में खलबली-सी उत्पन्न हो गयी । तुलसीदासजी कहते हैं – सब सोचने लगे कि यह न जाने बल, न जाने वीररस, न जाने धैर्य, न जाने हिम्मत अथवा न जाने इन सबका सार ही शरीर धारण किये हैं ।।४।।
भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज,
गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो ।
कह्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर,
बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो ।।
बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि,
फलँग फलाँग हूँतें घाटि नभतल भो ।
नाई-नाई माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जोहैं,
हनुमान देखे जगजीवन को फल भो ।।५
भावार्थ:– महाभारत में अर्जुन के रथ की पताका पर कपिराज हनुमान् जी ने गर्जन किया, जिसको सुनकर दुर्योधन की सेना में घबराहट उत्पन्न हो गयी । द्रोणाचार्य और भीष्म-पितामह ने कहा कि ये महाबली पवनकुमार है । जिनका बल वीर-रस-रुपी समुद्र का जल हुआ है । इनके स्वाभाविक ही बालकों के खेल के समान धरती से सूर्य तक के कुदान ने आकाश-मण्डल को एक पग से भी कम कर दिया था । सब योद्धागण मस्तक नवा-नवाकर और हाथ जोड़-जोड़कर देखते हैं । इस प्रकार हनुमान् जी का दर्शन पाने से उन्हें संसार में जीने का फल मिल गया ।।५।।
गो-पद पयोधि करि होलिका ज्यों लाई लंक,
निपट निसंक परपुर गलबल भो ।
द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर,
कंदुक-ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो ।।
संकट समाज असमंजस भो रामराज,
काज जुग पूगनि को करतल पल भो ।
साहसी समत्थ तुलसी को नाह जाकी बाँह,
लोकपाल पालन को फिर थिर थल भो ।।६
भावार्थ:– समुद्र को गोखुर के समान करके निडर होकर लंका-जैसी (सुरक्षित नगरी को) होलिका के सदृश जला डाला, जिससे पराये (शत्रु के) पुर में गड़बड़ी मच गयी । द्रोण-जैसा भारी पर्वत खेल में ही उखाड़ गेंद की तरह उठा लिया, वह कपिराज के लिये बेल-फल के समान क्रीडा की सामग्री बन गया । राम-राज्य में अपार संकट (लक्ष्मण-शक्ति) -से असमंजस उत्पन्न हुआ (उस समय जिसके पराक्रम से) युग समूह में होने वाला काम पलभर में मुट्ठी में आ गया । तुलसी के स्वामी बड़े साहसी और सामर्थ्यवान् हैं, जिनकी भुजाएँ लोकपालों को पालन करने तथा उन्हें फिर से स्थिरता-पूर्वक बसाने का स्थान हुईं ।।६।।
कमठ की पीठि जाके गोडनि की गाड़ैं मानो,
नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो ।
जातुधान-दावन परावन को दुर्ग भयो,
महामीन बास तिमि तोमनि को थल भो ।।
कुम्भकरन-रावन पयोद-नाद-ईंधन को,
तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो ।
भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान,
सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो ।।७
भावार्थ:– कच्छप की पीठ में जिनके पाँव के गड़हे समुद्र का जल भरने के लिये मानो नाप के पात्र (बर्तन) हुए । राक्षसों का नाश करते समय वह (समुद्र) ही उनके भागकर छिपने का गढ़ हुआ तथा वही बहुत-से बड़े-बड़े मत्स्यों के रहने का स्थान हुआ । तुलसीदासजी कहते हैं – रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद रुपी ईंधन को जलाने के निमित्त जिनका प्रताप प्रचण्ड अग्नि हुआ । भीष्मपितामह कहते हैं – मेरी समझ में हनुमान् जी के समान अत्यन्त बलवान् तीनों काल और तीनों लोक में कोई नहीं हुआ ।।७।।
दूत रामराय को, सपूत पूत पौनको,
तू अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो ।
सीय-सोच-समन, दुरित दोष दमन,
सरन आये अवन, लखन प्रिय प्रान सो ।।
दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो,
प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो ।
ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान,
साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो ।।८
भावार्थ:– आप राजा रामचन्द्रजी के दूत, पवनदेव के सुयोग्य पुत्र, अंजनीदेवी को आनन्द देने वाले, असंख्य सूर्यों के समान तेजस्वी, सीताजी के शोकनाशक, पाप तथा अवगुण के नष्ट करने वाले, शरणागतों की रक्षा करने वाले और लक्ष्मणजी को प्राणों के समान प्रिय हैं । तुलसीदासजी के दुस्सह दरिद्र-रुपी रावण का नाश करने के लिये आप तीनों लोकों में आश्रय रुप प्रकट हुए हैं । अरे लोगो! तुम ज्ञानी, गुणवान्, बलवान् और सेवा (दूसरों को आराम पहुँचाने) – में सजग हनुमान् जी के समान चतुर स्वामी को अपने हृदय में बसाओ ।।८।।
दवन-दुवन-दल भुवन-बिदित बल,
बेद जस गावत बिबुध बंदीछोर को ।
पाप-ताप-तिमिर तुहिन-विघटन-पटु,
सेवक-सरोरुह सुखद भानु भोर को ।।
लोक-परलोक तें बिसोक सपने न सोक,
तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को ।
राम को दुलारो दास बामदेव को निवास,
नाम कलि-कामतरु केसरी-किसोर को ।।९।।
भावार्थ:– दानवों की सेना को नष्ट करने में जिनका पराक्रम विश्व-विख्यात है, वेद यश-गान करते हैं कि देवताओं को कारागार से छुड़ाने वाला पवनकुमार के सिवा दूसरा कौन है ? आप पापान्धकार और कष्ट-रुपी पाले को घटाने में प्रवीण तथा सेवक रुपी कमल को प्रसन्न करने के लिये प्रातः-काल के सूर्य के समान हैं । तुलसी के हृदय में एकमात्र हनुमान् जी का भरोसा है, स्वप्न में भी लोक और परलोक की चिन्ता नहीं, शोकरहित हैं, रामचन्द्रजी के दुलारे शिव-स्वरुप (ग्यारह रुद्र में एक) केसरी-नन्दन का नाम कलिकाल में कल्प-वृक्ष के समान है ।।९।।
महाबल-सीम महाभीम महाबान इत,
महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को ।
कुलिस-कठोर तनु जोरपरै रोर रन,
करुना-कलित मन धारमिक धीर को ।।
दुर्जन को कालसो कराल पाल सज्जन को,
सुमिरे हरनहार तुलसी की पीर को ।
सीय-सुख-दायक दुलारो रघुनायक को,
सेवक सहायक है साहसी समीर को ।।१०।।
भावार्थ:– आप अत्यन्त पराक्रम की हद, अतिशय कराल, बड़े बहादुर और रघुनाथजी द्वारा चुने हुए महाबलवान् विख्यात योद्धा हैं । वज्र के समान कठोर शरीर वाले जिनके जोर पड़ने अर्थात् बल करने से रणस्थल में कोलाहल मच जाता है, सुन्दर करुणा एवं धैर्य के स्थान और मन से धर्माचरण करने वाले हैं । दुष्टों के लिये काल के समान भयावने, सज्जनों को पालने वाले और स्मरण करने से तुलसी के दुःख को हरने वाले हैं । सीताजी को सुख देने वाले, रघुनाथजी के दुलारे और सेवकों की सहायता करने में पवनकुमार बड़े ही साहसी हैं ।।१०।।
रचिबे को बिधि जैसे, पालिबे को हरि,
हर मीच मारिबे को, ज्याईबे को सुधापान भो ।
धरिबे को धरनि, तरनि तम दलिबे को,
सोखिबे कृसानु, पोषिबे को हिम-भानु भो ।।
खल-दुःख दोषिबे को, जन-परितोषिबे को,
माँगिबो मलीनता को मोदक सुदान भो ।
आरत की आरति निवारिबे को तिहुँ पुर,
तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो ।।११।।
भावार्थ:– आप सृष्टि-रचना के लिये ब्रह्मा, पालन करने को विष्णु, मारने को रुद्र और जिलाने के लिये अमृत-पान के समान हुए; धारण करने में धरती, अन्धकार को नसाने में सूर्य, सुखाने में अग्नि, पोषण करने में चन्द्रमा और सूर्य हुए; खलों को दुःख देने और दूषित बनाने वाले, सेवकों को संतुष्ट करने वाले एवं माँगना-रुपी मैलेपन का विनाश करने में मोदक-दाता हुए । तीनों लोकों में दुःखियों के दुःख छुड़ाने के लिये तुलसी के स्वामी श्रीहनुमान् जी दृढ़-प्रतिज्ञ हुए हैं ।।११।।
सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि,
सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँक को ।
देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ,
बापुरे बराक कहा और राजा राँक को ।।
जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद,
ताके जो अनर्थ सो समर्थ एक आँक को ।
सब दिन रुरो परै पूरो जहाँ-तहाँ ताहि,
जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को ।।१२।।
भावार्थ:– सेवक हनुमान् जी की सेवा समझकर जानकीनाथ ने संकोच माना अर्थात् अहसान से दब गये, शिवजी पक्ष में रहते और स्वर्ग के स्वामी इन्द्र नवते हैं । देवी-देवता, दानव सब दया के पात्र बनकर हाथ जोड़ते हैं, फिर दूसरे बेचारे दरिद्र-दुःखिया राजा कौन चीज हैं । जागते, सोते, बैठते, डोलते, क्रीड़ा करते और आनन्द में मग्न (पवनकुमार के) सेवक का अनिष्ट चाहेगा ऐसा कौन सिद्धान्त का समर्थ है ? उसका जहाँ-तहाँ सब दिन श्रेष्ठ रीति से पूरा पड़ेगा, जिसके हृदय में अंजनीकुमार की हाँक का भरोसा है ।।१२।।
सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि,
लोकपाल सकल लखन राम जानकी ।
लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि,
तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी ।।
केसरी किसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब,
कीरति बिमल कपि करुनानिधान की ।
बालक-ज्यों पालिहैं कृपालु मुनि सिद्ध ताको,
जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की ।।१३।।
भावार्थ:– जिसके हृदय में हनुमान् जी की हाँक उल्लसित होती है, उसपर अपने सेवकों और पार्वतीजी के सहित शंकर भगवान्, समस्त लोकपाल, श्रीरामचन्द्र, जानकी और लक्ष्मणजी भी प्रसन्न रहते हैं । तुलसीदासजी कहते हैं फिर लोक और परलोक में शोकरहित हुए उस प्राणी को तीनों लोकों में किसी योद्धा के आश्रित होने की क्या लालसा होगी ? दया-निकेत केसरी-नन्दन निर्मल कीर्तिवाले हनुमान् जी के प्रसन्न होने से सम्पूर्ण सिद्ध-मुनि उस मनुष्य पर दयालु होकर बालक के समान पालन करते हैं, उन करुणानिधान कपीश्वर की कीर्ति ऐसी ही निर्मल है ।।१३।।
करुनानिधान, बलबुद्धि के निधान मोद-
महिमा निधान, गुन-ज्ञान के निधान हौ ।
बामदेव-रुप भूप राम के सनेही,
नाम लेत-देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ ।।
आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील,
लोक-बेद-बिधि के बिदूष हनुमान हौ ।
मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार,
तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ।।१४।।
भावार्थ:– तुम दया के स्थान, बुद्धि-बल के धाम, आनन्द महिमा के मन्दिर और गुण-ज्ञान के निकेतन हो; राजा रामचन्द्र के स्नेही, शंकरजी के रुप और नाम लेने से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के देने वाले हो । हे हनुमान् जी ! आप अपनी शक्ति से श्रीरघुनाथजी के शील-स्वभाव, लोक-रीति और वेद-विधि के पण्डित हो !मन, वचन, कर्म तीनों प्रकार से तुलसी आपका दास है, आप चतुर स्वामी हैं अर्थात् भीतर-बाहर की सब जानते हैं ।।१४।।
मन को अगम, तन सुगम किये कपीस,
काज महाराज के समाज साज साजे हैं ।
देव-बंदी छोर रनरोर केसरी किसोर,
जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं ।
बीर बरजोर, घटि जोर तुलसी की ओर,
सुनि सकुचाने साधु खल गन गाजे हैं ।
बिगरी सँवार अंजनी कुमार कीजे मोहिं,
जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं ।।१५।।
भावार्थ:– हे कपिराज ! महाराज रामचन्द्रजी के कार्य के लिये सारा साज-समाज सजकर जो काम मन को दुर्गम था, उसको आपने शरीर से करके सुलभ कर दिया । हे केशरीकिशोर ! आप देवताओं को बन्दीखाने से मुक्त करने वाले, संग्राम-भूमि में कोलाहल मचाने वाले हैं, और आपकी नामवरी युग-युग से संसार में विराजती है । हे जबरदस्त योद्धा ! आपका बल तुलसी के लिये क्यों घट गया, जिसको सुनकर साधु सकुचा गये हैं और दुष्टगण प्रसन्न हो रहे हैं, हे अंजनीकुमार ! मेरी बिगड़ी बात उसी तरह सुधारिये जिस प्रकार आपके प्रसन्न होने से होती (सुधरती) आयी है ।।१५।।
सवैया जान सिरोमनि हौ हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो ।
ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो ।।
साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहाँ तुलसी को न चारो ।
दोष सुनाये तें आगेहुँ को होशियार ह्वैं हों मन तौ हिय हारो ।।१६।।
भावार्थ:– हे हनुमान् जी ! आप ज्ञान-शिरोमणी हैं और सेवकों के मन में आपका सदा निवास है । मैं किसी का क्या गिराता वा बिगाड़ता हूँ । हे स्वामी ! आपने मुझे सेवक के नाते से च्युत कर दिया, इसमें तुलसी का कोई वश नहीं है । यद्यपि मन हृदय में हार गया है तो भी मेरा अपराध सुना दीजिये, जिसमें आगे के लिये होशियार हो जाऊँ ।।१६।।
तेरे थपे उथपै न महेस, थपै थिरको कपि जे घर घाले ।
तेरे निवाजे गरीब निवाज बिराजत बैरिन के उर साले ।।
संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरी के से जाले ।
बूढ़ भये, बलि, मेरिहि बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले ।।१७।।
भावार्थ:– हे वानरराज ! आपके बसाये हुए को शंकर भगवान् भी नहीं उजाड़ सकते और जिस घर को आपने नष्ट कर दिया उसको कौन बसा सकता है ? हे गरीबनिवाज ! आप जिस पर प्रसन्न हुए, वे शत्रुओं के हृदय में पीड़ा रुप होकर विराजते हैं । तुलसीदास जी कहते हैं, आपका नाम लेने से सम्पूर्ण संकट और सोच मकड़ी के जाले के समान फट जाते हैं । बलिहारी ! क्या आप मेरी ही बार बूढ़े हो गये अथवा बहुत-से गरीबों का पालन करते – करते अब थक गये हैं ? (इसी से मेरा संकट दूर करने में ढील कर रहे हैं) ।।१७।।
सिंधु तरे, बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवा से ।
तैं रनि-केहरि केहरि के बिदले अरि-कुंजर छैल छवा से ।।
तोसों समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से ।
बानर बाज ! बढ़े खल-खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवा-से ।।१८।।
भावार्थ:– आपने समु
|| पुराणों तथा संहिता में नक्षत्र विचार ||
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नक्षत्र ग्रह विप्राणां वीरुधां चाप्यशेषतः |
सोमं राज्ये दधह्रह्याम यज्ञानां तमसामापि ||
(श्री विष्णु पुराण) ~ श्री विष्णु पुराण के अनुसार दक्ष प्रजापति की 27 कन्याएं ही नक्षत्र रूपा हैं जिनका विवाह चंद्रमा से हुआ है | इन्हीं 27 नक्षत्रों का भोग चन्द्र द्वारा किये जाने पर चैत्र आदि एक चन्द्र मास पूर्ण होता है |सभी पुराणों में नक्षत्रों के महत्व तथा शुभाशुभ फल का वर्णन किया गया है | ज्योतिष शास्त्र में नक्षत्रों का उपयोग बालक/बालिका के जन्म के समय शुभाशुभ विचार , नामकरण, मुहूर्त विचार,ग्रह चार,मेलापक तथा जातक के अन्य सभी शुभ अशुभ फल विचारने के लिए किया जाता है | अग्नि पुराण,नारद पुराण ,गरुड़ पुराण मत्स्य पुराण तथा अन्य पुराणों तथा बृहत्संहिता,भद्रबाहु संहिता ,नारद संहिता ,वशिष्ठ संहिता आदि में नक्षत्रों का वर्णन निम्न प्रकार से वर्णित है।
नक्षत्रों के देवता और नाम के प्रथम अक्षर
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प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं | प्रत्येक चरण का एक अक्षर निश्चित है | बालक /बालिका का जन्म नक्षत्र के जिस चरण में होता है उस से सम्बंधित अक्षर पर उसका नामकरण किया जाता है|
नक्षत्र का नाम। नक्षत्र का देवता। नक्षत्र के चरण
अश्वनी। अश्वनी कुमार। चू चे चो ला
भरणीं। यमली लू ले लो
कृतिका। अग्नि। अ इ उ ए
रोहिणी। ब्रह्मा। ओ वा वी वू
मृगशिरा। चन्द्र। वे वो का की
आर्द्रा। शिव। कु घ ड० छ
पुनर्वसु। अदिति। के को हा ही
पुष्य। बृहस्पति। हु हे हो डा
आश्लेषा। सर्प। डी डु डे डो
मघा। पितर। मा मी मू मे
पूर्वाफाल्गुनी। भग। मो हा टी टू
उत्तराफाल्गुनी। अर्यमा। हे हो पा पी
हस्त। सूर्य। पु ष ण ठ
चित्रा। त्वष्टा। पे पो रा री
स्वाति। पवन। रू रे रो ता
विशाखा। इन्द्राग्नि। ती तू ते तो
अनुराधा। मित्र। ना नी नु ने
ज्येष्ठा। इंद्र। नो या यी यु
मूल। राक्षस। ये यो भा भी
पूर्वाषाढ़। जल। भू ध फ ढ
उत्तराषाढ। विश्वेदेव। भे भो जा जी
श्रवण। विष्णु। खी खू खे खो
धनिष्ठा। वसु। गा गी गु गे
शतभिषा। वरुण। गो सा सी सू
पूर्वा भाद्रपद। रूद्र। से सो दा दी
उत्तरा भाद्रपद। अहिर्बुध्न्य` दु थ झ ञ
रेवती। पूषा। दे दो चा ची
अग्नि पुराण के अनुसार प्रति मास अपने जन्म नक्षत्र के दिन नक्षत्र देवता का विधिवत पूजन अर्चन करने से उस महीने का फल शुभ रहता है और कष्ट की निवृति होती है |जन्म नक्षत्र ज्ञात न हो तो प्रचलित नाम के पहले अक्षर से नाम नक्षत्र ज्ञात करें और उस नक्षत्र के देवता की पूजा करें।
उर्ध्वमुख नक्षत्र तथा उसमें सफल होने वाले कार्य
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रोहिणी ,आर्द्रा, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ, श्रवण, धनिष्ठा ,शतभिषा ,उत्तरा भाद्रपद ये नौ नक्षत्र उर्ध्वमुख अर्थात ऊपर मुख वाले हैं | इन में विवाह आदि मंगल कार्य,राज्याभिषेक ,ध्वजारोहण,मंदिर निर्माण,बाग़-बगीचे लगवाना ,चार दीवारी बनवाना ,गृह निर्माण आदि कार्य करवाना शुभ रहता है |
अधोमुखी नक्षत्र तथा उसमें सफल होने वाले कार्य
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कृतिका, भरणीं ,आश्लेषा, विशाखा, मघा ,मूल, पूर्वाषाढ़ ,पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वा भाद्रपद ये नौ नक्षत्र अधोमुख अर्थात नीचे मुख वाले हैं | इन में तालाब कुएं खुदवाना ,नलकूप लगवाना ,चिकित्सा कर्म, विद्याध्ययन ,खनन,लेखन कार्य,शिल्प कार्य, भूमि में गड़े पदार्थों को निकालने का कार्य करना शुभ रहता है |
तिर्यङ्मुख नक्षत्र तथा उसमें सफल होने वाले कार्य
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अनुराधा, मृगशिरा ,चित्रा, हस्त, ज्येष्ठा, पुनर्वसु ,अश्वनी, स्वाति, रेवती ये नौ नक्षत्र सामने मुख वाले हैं जिन में यात्रा करना ,खेत में हल जोतना ,पत्राचार करना ,सवारी करना ,वाहन निर्माण आरम्भ करना शुभ है |
ध्रुव संज्ञक नक्षत्र तथा उसमें सफल होने वाले कार्य
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रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी ,उत्तराषाढ ,उत्तरा भाद्रपद ये चार नक्षत्र ध्रुव नक्षत्र हैं जिनमें क्रय-विक्रय करना ,हल जोतना ,बीज बोना आदि कार्य करना शुभ हैं |
क्षिप्र संज्ञक नक्षत्र तथा उसमें सफल होने वाले कार्य
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हस्त,अश्वनी,पुष्य ये तीन नक्षत्र क्षिप्र संज्ञक हैं जिनमें यात्रा करना ,दुकान लगाना,शिल्प कार्य,रति कार्य,ज्ञान अर्जन करना शुभ है |
साधारण संज्ञक नक्षत्र तथा उसमें सफल होने वाले कार्य
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विशाखा तथा कृतिका साधारण नक्षत्र हैं जिनमे सभी कार्य किये जा सकते हैं |
चर संज्ञक नक्षत्र तथा उसमें सफल होने वाले कार्य
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धनिष्ठा ,पुनर्वसु,शतभिषा ,स्वाति तथा श्रवण नक्षत्र चार संज्ञक हैं जिन में यात्रा करना ,बाग- बगीचे लगाना ,तथा परिवर्तन शील कार्य करना शुभ है |
मृदुसंज्ञक नक्षत्र तथा उसमें सफल होने वाले कार्य
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मृगशिरा ,अनुराधा,चित्रा,रेवती मृदु नक्षत्र हैं जिनमें आभूषण निर्माण,खेल कूद,नवीन वस्त्र धारण करना ,गीत-संगीत से सम्बंधित कार्य करना शुभ रहेगा |
नक्षत्रों की अन्धाक्षादि संज्ञाएँ
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रोहिणी नक्षत्र से आरम्भ करके क्रमशः चार चार नक्षत्र अंध,मंद,मध्य,तथा सुलोचन नक्षत्र कहलाते हैं | अंध नक्षत्र में खोई वस्तु बिना विशेष प्रयत्न के पुनः प्राप्त हो जाती है | मंद नक्षत्र में खोई वस्तु प्रयत्न करने पर बड़ी कठिनता से मिलती है | मध्य नक्षत्र में खोई वस्तु का पता तो चल जाता है पर प्राप्ति नहीं होती | सुलोचन नक्षत्र में खोई वस्तु का न तो पता चलता है और न ही प्राप्ति होती है |
कुलाकुल संज्ञक नक्षत्र तथा उनके फल
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अश्वनी,कृतिका ,मृगशिरा ,पुष्य,चित्रा,मूल ,उत्तराफाल्गुनी,उत्तराषाढ,उत्तराभाद्रपद,श्रवण,धनिष्ठा ,मघा,पूर्वाफाल्गुनी, विशाखा कुल संज्ञक नक्षत्र हैं जिन में अदालत में मुकद्दमा दायर करने वाला व्यक्ति हार जाता है तथा युद्ध के लिए प्रयाण करने वाले की पराजय होती है |
रोहिणी, ज्येष्ठा,रेवती,पुनर्वसु,
स्वाति,हस्त,अनुराधा ,भरणीं,पूर्वा भाद्रपद ,आश्लेषा अकुल संज्ञक नक्षत्र हैं जिनमें आक्रमणकारी शत्रु पर विजय प्राप्त करता है और अदालत में मुकद्दमा दायर करने वाला व्यक्ति जीत जाता है|
आर्द्रा ,शतभिषा,पूर्वाषाढ़ कुलाकुल नक्षत्र है जिनमें मुकद्दमा दायर करने अथवा युद्ध आरम्भ करने पर दोनों पक्षों में संधि की संभावना रहती है |
नक्षत्रों की भूकंप आदि संज्ञाएँ
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विचारणीय काल में सूर्य जिस नक्षत्र में स्थित हो उस से पांचवें को विद्युत्, सातवें नक्षत्र को भूकंप, आठवें को शूल, दसवें को अशनि, चौदहवें की निर्घातपात ,पन्द्रहवें को दण्ड,अठारहवें को केतु,उन्नीसवें को उल्का, इक्कीसवें की मोह,बाइसवें की निर्घात,तेइसवें की कंप,चौबीसवें की कुलिश तथा पच्चीसवें की परिवेश संज्ञा होती है इन नक्षत्रों में कार्य आरम्भ करने पर प्रायः सफलता नहीं मिलती |
नक्षत्र एवम् वार के योग से उत्पन्न शुभाशुभ मुहूर्त
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अश्वनी आदि 27 नक्षत्रों तथा रवि आदि 7 वारों के संयोग से उत्पन्न शुभाशुभ प्रभाव देने वाले योगों का विभिन्न पुराणों और संहिताओं में वर्णन निम्नलिखित प्रकार से है।
औत्पातिक योग
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निम्नलिखित वार तथा नक्षत्र के योग से औत्पातिक योग होता है जिनमें यात्रा तथा अन्य शुभ कार्य आरम्भ करने से उत्पात,रोग,हानि होने की संभावना रहती है |
वारनक्षत्ररविवारविशाखा अनुराधा ज्येष्ठासोमवारपूर्वाषाढ़ उत्तराषाढ श्रवणमंगलवारधनिष्ठा शतभिषा पूर्वा भाद्रपदबुधवारअश्वनी भरणीं रेवतीगुरूवाररोहिणी मृगशिरा आर्द्राशुक्रवारपुष्य आश्लेषा मघाशनिवारउत्तराफाल्गुनी हस्त चित्रा
अमृत योग
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रविवार को मूल,सोमवार को श्रवण ,मंगलवार को उत्तरा भाद्रपद,बुधवार को कृतिका,गुरूवार को पुनर्वसु, शुक्रवार को पूर्वा फाल्गुनी तथा शनिवार को स्वाति नक्षत्र हो तो अमृत योग होता है जो सभी कार्यों में सिद्धि प्रदायक होता है |
सिद्धि योग
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रविवार को हस्त ,सोमवार को मृगशिरा ,मंगलवार को अश्वनी ,बुधवार को अनुराधा ,गुरूवार को पुष्य , शुक्रवार को रेवती तथा शनिवार को रोहिणी नक्षत्र हो तो सिद्धि योग होता है जो सभी कार्यों में सिद्धि देने वाला होता है |
विष योग
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रविवार को भरणी ,सोमवार को चित्रा ,मंगलवार को उत्तराषाढ ,बुधवार को धनिष्ठा ,गुरूवार को शतभिषा , शुक्रवार को रोहिणी तथा शनिवार को रेवती नक्षत्र हो तो विष योग होता है जो अपने नाम के अनुसार सभी कार्यों में अशुभ फलदायक होता है |
आनन्दादि योग
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क्रम रविवार सोमवार मंगलवार बुधवार गुरूवार शुक्रवार शनिवार आनन्दादि योग शुभाशुभ
फल1.अश्वनी मृगशिरा आश्लेषा हस्त अनुराधा उत्तराषाढ शतभिषा आनंदसिद्धि
2.भरणीं आर्द्रा मघा चित्रा ज्येष्ठा अभिजित पूर्वाभाद्रपद कालदंडमृत्यु
3.कृतिका पुनर्वसु पूर्वाफाल्गुनी स्वाति मूल श्रवण उत्तराभाद्रपद धूम्रअसुख
4.रोहिणी पुष्य उत्तराफाल्गुनी विशाखा पूर्वाषाढ़ धनिष्ठा रेवती धातासौभाग्य
5.मृगशिरा आश्लेषा हस्त अनुराधा उत्तराषाढ शतभिषा अश्वनी सौम्यसुख
6.आर्द्रा मघा चित्रा ज्येष्ठा अभिजित पूर्वाभाद्रपद भरणीं ध्वांक्षधनक्षय
7.पुनर्वसुपूर्वा फाल्गुनी स्वाति मूल श्रवण उत्तराभाद्रपद कृतिका ध्वजसौभाग्य
8.पुष्य उत्तराफाल्गुनी विशाखा पूर्वाषाढ़ धनिष्ठा रेवती रोहिणी श्रीवत्ससंपदा
9.आश्लेषा हस्त अनुराधा उत्तराषाढ शतभिषा अश्वनी मृगशिरा वज्रक्षय
10.मघा चित्रा ज्येष्ठा अभिजित पूर्वाभाद्रपद भरणीं आर्द्रा मुद्गरधनक्षय
11.पूर्वाफाल्गुनी स्वाति मूल श्रवण उत्तराभाद्रपद कृतिका पुनर्वसु छत्रराजसम्मान
12.उत्तराफाल्गुनी विशाखा पूर्वाषाढ़ धनिष्ठा रेवती रोहिणी पुष्य मित्रपुष्टि
13.हस्त अनुराधा उत्तराषाढ शतभिषा अश्वनी मृगशिरा आश्लेषा मानससौभाग्य
14.चित्रा ज्येष्ठा अभिजित पूर्वाभाद्रपद भरणीं आर्द्रा मघा पद्मधनागम
15.स्वाति मूल श्रवण उत्तराभाद्रपद कृतिका पुनर्वसु पूर्वाफाल्गुनी लुम्बधनहानि
16.विशाखा पूर्वाषाढ़ धनिष्ठा रेवती रोहिणी पुष्य उत्तरा
फाल्गुनी उत्पातसंकट
17.अनुराधा उत्तराषाढ शतभिषा अश्वनी मृगशिरा आश्लेषा हस्त मृत्युमृत्यु
18.ज्येष्ठा अभिजित पूर्वाभाद्रपद भरणीं आर्द्रा मघा चित्रा काणक्लेश
19. मूल श्रवण उत्तराभाद्रपद कृतिका पुनर्वसु पूर्वा
फाल्गुनी स्वाति सिद्धिकार्यसिद्धि
20.पूर्वाषाढ़ धनिष्ठा रेवती रोहिणी पुष्य उत्तराफाल्गुनी विशाखा शुभकल्याण
21.उत्तराषाढ शतभिषा अश्वनी मृगशिरा आश्लेषा हस्त अनुराधा अमृत राज सम्मान
22.अभिजित पूर्वाभाद्रपद भरणीं आर्द्रा मघा चित्रा ज्येष्ठा मूसल धन हानि
23.श्रवण उत्तराभाद्रपद कृतिका पुनर्वसु पूर्वाफाल्गुनी स्वाति मूल गदविद्यालाभ
24.धनिष्ठा रेवती रोहिणी पुष्य उत्तराफाल्गुनी विशाखा पूर्वाषाढ़ मातंग कुलवृद्धि
25.शतभिषा अश्वनी मृगशिरा आश्लेषा हस्त अनुराधा उत्तराषाढ रक्ष महावृद्धि
26.पूर्वाभाद्रपद भरणीं आर्द्रा मघा चित्रा ज्येष्ठा अभिजित चर कार्यसिद्धि
27.उत्तराभाद्रपद कृतिका पुनर्वसु पूर्वाफाल्गुनी स्वाति मूल श्रवण स्थिरगृहारम्भ
28.रेवती रोहिणी पुष्य उत्तराफाल्गुनी विशाखा पूर्वाषाढ़ धनिष्ठा प्रवर्द्धमानविवाह।
त्रिपुष्कर योग
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रवि, शनि तथा मंगलवार को भद्रा तिथि ( द्वितीया ,सप्तमी,द्वादशी )और तीन पाद एक ही राशि में होने वाले नक्षत्र कृतिका,पुनर्वसु,उत्तराफाल्गुनी,विशाखा ,उत्तराषाढ तथा पूर्वा भाद्रपद हो तो त्रिपुष्कर योग होता है जिसमें लाभ या हानि त्रिगुणित कही गयी है |
द्विपुष्कर योग
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रवि ,शनि या मंगलवार को भद्रा तिथि (द्वितीया, सप्तमी,द्वादशी )और दो पाद एक ही राशि में होने वाले नक्षत्र मृगशिरा ,चित्रा या धनिष्ठा हो तो द्विपुष्कर योग होता है जिसमें लाभ या हानि दुगनी होती है |
सिद्ध योग
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शुक्रवार को नंदा तिथि ( प्रतिपदा ,षष्टि ,एकादशी ) , बुधवार को भद्रा तिथि ( द्वितीया ,सप्तमी,द्वादशी ) , मंगलवार को जया तिथि ( तृतीया ,अष्टमी,त्रयोदशी ), शनिवार को रिक्ता तिथि ( चतुर्थी ,नवमी,चतुर्दशी ) तथा गुरूवार को पूर्णा तिथि ( पंचमी,दशमी,पूर्णिमा ) हो तो सिद्ध योग होता है जिसमें सभी कार्यों में सिद्धि मिलती है |
दग्ध योग
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सोमवार को एकादशी,मंगलवार को पंचमी ,बुधवार को तृतीया ,गुरूवार को षष्टि ,शुक्रवार को अष्टमी तथा शनिवार को नवमी हो तो दग्ध योग होता है जिसमें आरम्भ किये कार्य सफल नहीं होते |
संवर्त योग
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रविवार को सप्तमी ,बुधवार को प्रतिपदा हो तो संवर्त योग होता है जो शुभ कार्यों में बाधक होता है |
चंडीशचंडायुध योग
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विचारणीय काल में सूर्य जिस नक्षत्र में स्थित हो उस से तत्कालीन आश्लेषा,मघा,चित्रा अनुराधा रेवती या श्रवण नक्षत्र तक की गणना करने पर जो संख्या आये वाही संख्या यदि अश्वनी नक्षत्र से तत्कालीन चन्द्र नक्षत्र की हो तो चंडीशचंडायुध योग होता है जिसमें शुभ कार्यों का आरम्भ वर्जित है |
पंचक नक्षत्र
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धनिष्ठा के अंतिम दो चरण ,शतभिषा,पूर्वा भाद्रपद ,उत्तरा भाद्रपद और रेवती इन पांच नक्षत्रों के समूह को पंचक कहा जाता है | ये पांचो नक्षत्र कुम्भ तथा मीन राशि के अंतर्गत हैं | पंचक लगने पर लकड़ी और घास का संग्रह,दक्षिण दिशा की यात्रा ,मृतक का दाह संस्कार ,खाट बनवाना त्याज्य होता है | पंचकों में उपरोक्त कार्य करने पर अग्नि भय ,रोग,दण्ड ,हानि,और शोक होता है |
गण्डमूल नक्षत्र
पुराणों में गण्डमूल नक्षत्र
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पुराणों में अनेक स्थानों पर गंडांत नक्षत्रों का उल्लेख किय गया है | रेवती नक्षत्र की अंतिम चार घड़ियाँ ,अश्वनी नक्षत्र की पहली चार घड़ियाँ गंडांत कही गई हैं | मघा ,आश्लेषा ,ज्येष्ठा एवम मूल नक्षत्र भी गंडांत हैं | विशेषतः ज्येष्ठा तथा मूल के मध्य का एक प्रहर अत्यंत अशुभ फल देने वाला है | इस अवधि में उत्पन्न बालक /बालिका व उसके माता -पिता को जीवन का भय होता है | गंडांत नक्षत्रों को सभी शुभ कार्यों में त्याग देना चाहिए | २८ वें दिन उसी नक्षत्र में गण्डमूल दोष की शांति कराने पर दोष की निवृति हो जाती है |
स्कन्द पुराण के काशी खंड में सुलक्षणा नाम की कन्या का वर्णन है जिसका जन्म मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ था तथा उस बाला के माता -पिता दोनों का देहांत उस के जन्म के कुछ समय के बाद ही हो गया था | नारद पुराण के अनुसार मूल नक्षत्र के चतुर्थ चरण को छोड़ कर शेष चरणों में तथा ज्येष्ठा नक्षत्र के अंतिम चरण में उत्पन्न संतान विवाहोपरांत अपने ससुर के लिए घातक होती है | ज्येष्ठा नक्षत्र में उत्पन्न कन्या अपने जेठ के लिए तथा विशाखा में उत्पन्न कन्या अपने देवर के लिए अशुभ फल का संकेत कारक होती है |दिन में गंडांत नक्षत्र में उत्पन्न संतान पिता को रात्रि में माता को व संध्या काल में स्वयम को कष्ट कारक होता है |
ज्योतिष शास्त्र में गण्डमूल नक्षत्र
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फलित ज्योतिष के जातक पारिजात ,बृहत् पराशर होरा शास्त्र ,जातकाभरणं इत्यादि सभी प्राचीन ग्रंथों में गंडांत नक्षत्रों तथा उनके प्रभावों का वर्णन दिया गया है |अश्वनी ,आश्लेषा ,मघा ,ज्येष्ठा ,मूल तथा रेवती नक्षत्र गण्डमूल नक्षत्र हैं |
अश्वनी👉 नक्षत्र के पहले चरण में जन्म हो तो पिता को कष्ट तथा अन्य चरणों में शुभ होता है |
आश्लेषा👉 नक्षत्र के पहले चरण में जन्म हो तो शुभ ,दूसरे में धन हानि ,तीसरे में माता को कष्ट तथा चौथे में पिता को कष्ट होता है |यह फल पहले दो वर्षों में ही मिल जाता है
मघा👉 नक्षत्र के पहले चरण में जन्म हो तो माता के पक्ष को हानि ,दूसरे में पिता को कष्ट तथा अन्य चरणों में शुभ होता है |
ज्येष्ठा👉 नक्षत्र के पहले चरण में जन्म हो तो बड़े भाई को कष्ट ,दूसरे में छोटे भाई को कष्ट, तीसरे में माता को कष्ट तथा चौथे में पिता को कष्ट होता है| यह फल पहले वर्ष में ही मिल जाता है | ज्येष्ठा नक्षत्र एवम मंगलवार के योग में उत्पन्न कन्या अपने भाई के लिए घातक होती है |
मूल👉 नक्षत्र के पहले चरण में जन्म हो तो पिता को कष्ट दूसरे में माता को कष्ट तीसरे में धन हानि तथा चौथे में शुभ होता है | मूल नक्षत्र व रवि वार के योग में उत्पन्न कन्या अपने ससुर का नाश करती है |यह फल पहले चार वर्षों में ही मिल जाता है
जातकाभरणं के अनुसार जन्म के समय मूल नक्षत्र हो तथा कृष्ण पक्ष की 3' 10 या शुक्ल पक्ष की 14 तिथि हो एवम मंगल ,शनि या बुधवार हो तो सारे कुल के लिए अशुभ होता है |मूल नक्षत्र के साथ राक्षस ,यातुधान ,पिता ,यम व काल नामक मुहुर्तेशों के काल में जन्म हो तो गण्डमूल दोष का प्रभाव अधिक विनाशकारी होता है |
रेवती👉 नक्षत्र के चौथे चरण में जन्म हो तो माता -पिता के लिए अशुभ तथा अन्य चरणों में शुभ होता है |
अभुक्त मूल ज्येष्ठा नक्षत्र की अंतिम दो घटियाँ तथा मूल नक्षत्र की आरम्भ की दो घटियाँ अभुक्त मूल हैं जिनमें उत्पन्न बालक , कन्या , कुल के लिए अनिष्टकारी होते हैं | इनकी शान्ति अति आवश्यक है....
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