Kumud Ranjan

Kumud Ranjan

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Brij Bihari singh

हिन्दी कविताएँ

20/08/2020

बेहतरी के लिए
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अब शातिरपन का मतलब यह नहीं कि कुछ कहा ही न जाये
लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि कह भी दें सबकुछ
और उसकी बारीकी न समझी जाये
इस तरह निकलकर आगे आ जायें
किसलिए आखिर विचारों के युद्ध में एक धारा को संपोषित करते हुए
या कहें एक तरह की मनोदशा
जिसमें जिजीविषा के साथ अजीब शातिरपन हो
अब जिसका खुलासा होना भी जरूरी है
इसे पागलपंथी या मस्ती या गंभीरता भी नहीं कह सकते
उसके भीतर जो महक डाली गई है
हम उसका मजाक नहीं उड़ाते
बल्कि जो बारीकी है जिसमें चतुराई भी काम कर रही है
अघोरपंथ है नष्ट-भ्रष्ट हो गया है पूरा महकमा
सबमें वह घुसा है या किसी ने उसे लाया है अपने भीतर
ऐसा छल ऐसा धोखा नहीं होना चाहिए
हम जैसा कहें वैसा करें
और जो विद्रोह हो उसमें बदलाव की चेतना रहे
कुछ नहीं बिगाड़ पायेंगी वो शक्तियाँ
जब अच्छे से अच्छों को अच्छा होने के लिए प्रेरित किया जाता है
वही खुशी जो विद्रोह है सच का
प्रेम की मानिंद
एक व्यक्ति कहाँ कुछ होता है अलग-अलग नामों के अस्तित्व में
तब हमारा काम है कहना बिना किसी भेदभाव के
उज्ज्वल भविष्य की कामना के साथ
अब परिवार के भविष्य की चिंता तो होगी ही व्यावहारिक जीवन में

कहीं किसी खोह में खोजने से बेहतर है
बेहतरी के लिए कायम रहना

सृजन का सुख
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यूँ तो बहुत कड़वा सच कहता था वह
और कहते-कहते पसीने से तर-बतर हो जाता था
पूरी धरती का सच उसके सपनों में
उसके अंदर गडे़ हुए बीजों के अंकुरित होकर
पल्लवित पुष्पित होने तक
यहाँ तक कि उसमें लगे फलों का स्वाद मीठा होता था
और उसमें जो घोंसला था एकाकीपन का
हरे पत्तों से ढँका होता था
सूरज की रोशनी की गर्माहट से पूरा इलाका खुशबूदार रहता था
जो मीठी हवाओं और चिडियों की स्वच्छंद उड़ान
जो साँसों में घुलकर और ताजा कर देती थी मन
गरमी में भले ही उजाड़ और बारिश भी अच्छी होती थी
चिडिया को नींद अच्छी आती थी
सुबह का गीत गाने के लिए
निस्पंद धरती जग उठती थी नीरवता से
सारे जीव जो मासूम थे खुश हो जाते थे
और कोमल मिट्टी में बरबराकर नयी पौध तैयार होने लग जाती थी

यही सृजन का सुख है
और धरती की प्यारभरी मुस्कान

(कविताएँ : कुमुद रंजन २०.०८.२०२०)

30/07/2020

सींचते रहना प्यार
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जन्म जो खिंचकर आता है सृष्टि की कड़ी में जुड़ने के लिए
सृजन होता जाता है मिट्टी हवा और आकाश की सीमा में बँधकर
मन और संस्कार उज्ज्वल के समर्थन के रूप में
खिंचा चला आता है उन तत्त्वों के साथ
उर्वर मंत्रबीज जो बनाता है अपना घर अँधेरे से प्रकाश की तरफ
वही होता है जीवन, काया का संगीत
कौन खोजता है उसे शायद परिवार की खोज का आनंद होता है
जो सबसे बड़ी व्यवस्था है चलती है नियमों में बँधकर
कायदे और कानून बनते हैं उसके लेकिन सब अँधेरे से प्रकाश की तरफ ले जाता हुआ
जिसमें प्रवृत्त होती हैं मानवीय मन की तरंगें
जिसे जुड़ना चाहिए उस संगीत से और जो होना होता है हमारा भविष्य

तमाम जो आती हैं कठिनाइयां वैसे तो काम वासना और इंद्रियों की लोलुपता की अतिशयता सताने लगती है और हमारी अस्मिता उसमें नहीं है

ऐसे में सच का बयान बहुत जरूरी होता है
एक ऐसे आदमी के लिए जो कह दे अपनी बात ईश्वर की खुशी के लिए
आदर्श और सिद्धान्त तो वैसे नियामक होते हैं हमारे
लेकिन जो छलावा है वो सच नहीं है
ऐसे बीतती है बचपन की घड़ियाँ,चुचकार-पुचकारकर
मांँ की थपकियों के साथ आता है निर्विकार नींद का सुख
उसमें जिजीविषा तो होती है लेकिन फिर उसमें
चाहकर भी घुसना मुश्किल होता है
बाद में जब हम होते हैं प्रवृत्त दुनियाबी आकृतियों से जुड़कर अपनी पहचान बनाते हैं
जिसमे मिलते है कभी अनगढ़ और अनसुलझे लोग भी
मानते हैं हम कि यही सच्ची साधना है
सच भी यही है
इस पर ज्यादा बहस भी निरर्थक है
क्योंकि जो कहा गया है जितना भी उसे मान लें बस
किलकारियों और अनजानी दुनिया से पहचान करते हुए
घुसते हैं इसकी गहराई में
एक कोमल मन होता है तब भी
अगर गाँव के संस्कार में जीते हैं
तो अनायास कुछ लोग बवंडर खड़ा करते हैं
शहरों से ज्यादा चहल-पहल होती है इस मामले में
लोग करते दिख जाते है चुगलियाँ
और उलझे रहते हैं लोग एक निरर्थक बहस में
देते रहते हैं एक दूसरे को गालियाँ
कुछ ऐसे भी होते हैं जो दर्द रखते हैं सीने में
लेकिन ज्यादातर लोग हंँसोड़ और बेवजह
तालियाँ पीटने वाले होते हैं
पुरखों की बातें छेड़ते हैं करते हैं बकबक
गोलगप्पे तो शहर में ही खाये जाते हैं
यहाँ तो सहना पड़ता है सिर्फ उसका खट्टापन
जो नाम कर जाते हैं कुछ अच्छा
उसमें भी कुछ निकाल लेते हैं दोष
और बन जाती हैं अलग-अलग पार्टियाँ
होने लगता है उत्सव और माहौल अच्छा
स्त्रियाँ भी गाने लगती हैं गीत अपने बेटे-बेटियों
के ब्याह का,बहुत अच्छा रहता है माहौल खुशी का
खाते-पीते हैं सब नाचते गाते हैं
इसमें भी ज्यादा खुशी होती है
जब मरने वाले के श्राद्ध का अन्न जो उन्हें
बहुत स्वादिष्ट लगता है
स्वाद लेने वाले दौड़कर जाते हैं दो दिन पहले से
उसके घर अगोरकर कर देते हैं कुछ काम उसका
और खाते-पीते हैं
भोज में आनंदोत्सव होता है
घाट पर जलाकर आते हैं मुर्दे तो वहाँ भी पंडित के
क्रिया-कर्म सम्पन्न होने के बाद खूब खुशी से
खाने-पीने में लग जाते हैं फिर सब
इस तरह तेरह दिन चलता है आनंदोत्सव
शादी-ब्याह में तो तिलक दहेज के हिसाब से खिलाया जाता है या कुछ नहीं भी खिलाते हैं
दहेज प्रथा तो कुरीति है समाज की जिसे क्यों होना चाहिए
जबकि पढ़-लिखकर हो गये है सभ्य
एक चमकता संस्कार होना चाहिए बुद्धिजीवियों में
खैर,इसपर क्या बहस करना कहने वाले बहुत हैं
समझ में नहीं आता कि गाँव-गँवई में लोग अभी भी इतने बेवकूफ क्यों हैं कि मरनेवाला कहता नहीं कुछ
जिन्दा में क्या बर्त्ताव हुआ उसके साथ
तो क्यों खाया-खिलाया जाता है
वह आ तो नहीं सकता
खैर,इसपर भी क्या कहना कहने वाले बहुत हो गये हैं सभ्य
अरे कीर्त्ति करो दम्भ मत भरो
करो कुछ उपाय अपने सगे-संबंधियों भाइयों बहनों के हित के लिए
बातें करो अनमोल बस यही रह जायेगा सब दिन

चलते हैं फिर आगे
गद्य में कहते तो अच्छा होता
लेकिन पद्य में कहने की आदत जो साँझ की छुअन से
रात बीतकर सुबह होने तक की व्यथा कह जाती है
उसे इन मोल-जोल,भाव,क्रय-विक्रय से क्या लेना-देना
हाँ,विवशता जो गढ़ी गई है उसमें जीना पड़ता है
और उसमें दर्द और आनंद तो होता ही है क्योंकि नश्वरता जो साथ है हमारे जीवन के गलियारे में
कब होती साँझ,सुबह,रात,दोपहरी
कथा में बीत जाता दिन
फिर बेफिक्र होकर सो जाते हैं
अचानक किसी बीमारी के आने से होते हैं बेचैन
ईश्वर अपने पर कलंक क्यों ले

तो होती हैं ऐसी छोटी-मोटी घटनाएँ जीवन में
अबोध मन कभी-कभी गंदी हरकतें भी करता है
जैसे मैंने भी जिया है जीवन
जैसे सब जीते हैं बचपन में शान से
खाते हैं पान थूकते हैं पीक नुक्कड़ पर
जहाँ होता रहता है किसी प्रसिद्ध नेता का भाषण
जब चुनाव की बारी आती है
सबको जीतना है प्रत्याशी हो जाते हैं क्रियाशील
चौक-चौराहों बाजारों गाँवों में हर जगह पक्के वादे होते हैं
देखा जायेगा आने तो दो मन में ऐसा चलता रहता है
पता नहीं क्यों छला जाता है सभ्य समाज भी
या मजबूरियाँ रहती होंगी बल-प्रयोग भी हो सकता है
डर की निर्ममता के वशीभूत होते हैं

बेटियों की शादी में डालते हैं खलल
और बेटे की करते हैं शिकायत कि शादी न हो उसकी
इससे ऊपर नहीं उठ पाये हैं
हालाँकि नाटक-संस्कृति मंचों पर कभी-कभी
कथावाचकों का भी आयोजन होता है
स्त्री कथावाचक मर्मज्ञ होती हैं
सजी-धजी होती हैं फिर भी पवित्र होती हैं
कुछ-कुछ पुरुष कथावाचक भी मनमौजी होते हैं
हाथ मिलाकर नाचते गाते हैं फिल्म के नायक की तरह
सबकुछ दिखावा हो गया है
बाद में शिक्षा-ग्रहण के उपरान्त एक परिवार होता है
हम चलने लगते हैं तेजी से लाते हैं कमाकर कितना कुछ
जो स्त्रियाँ मार देती हैं अपने पतियों को प्रेमी की खातिर
और जो पुरुष अधेड़ उम्र में चार-चार बच्चों के पिता होते हुए भी
कर लेते हैं प्रेम किसी नवयौवना से
उनके बारे में भी क्या कहा जाय
कितना घिनौनापन है लेकिन झेलते हैं फिर भी चुपचाप
क्योंकि उसको अपनी पहुँच का दम्भ है
अपराधीकरण में प्रवृत्त होता समाज
दिखाता हुआ कुकृत्य अपने ही भाई की हत्या की साजिश
माँ-बाप को नहीं छोड़ा जाता
बेटे को भी नहीं छोड़ते बाप
वासना का कुकृत्य खेल होता रहता है जिसकी पीड़ा सहते हैं सब
लेकिन हो सकता है पहलीवाली ध्यान न देती हो किसी कारणवश
और दूसरी उसे रोज सुबह उठकर उसके खाने-पीने से लेकर
सेवा-सुश्रुषा और स्वास्थ्य पर ध्यान देती हो
अक्सर एेसा देखा जाता है सभ्य समाज में तेजी से बढ़ रही हैं ऐसी आदतें पनप रही हैं भ्रांतियां कठोर और
एक दबा-सा अहसास होता है ख्वाब भी होते हैं खूब मजे के लेने का आनंद
मेैं भी तो इसी का हिस्सा हूँ
मैंने मान लिया है प्रेम को अपना पुरस्कार

कौन है जो हमें गर्म रोटियाँ खिलाती है
आग सुलगाती ठंड में करती है सेहत की रक्षा
बीमारी न हो देती है ध्यान
उसके पास स्वार्थ है अपने बच्चों के हित के लिए हालाँकि वीभत्स दिखने वाले लोग
अपने हित में उसकी मजबूरियों में की गई हरकतों पर अत्याचार करना भी नहीं भूलते
झूठ तो नहीं बोलती वह अफवाह भी कभी-कभी उठती है
उसके बारे में
या वह जिनसे वह छली गई अपना समझकर
इस प्रपंच को वह समझा नहीं पायी हो
और करवाया गया हो ऐसा कहने के लिए नाजायज
गलत तो गलत बनाता है संस्कार है
भूल जाता है मर्यादा का ज्ञान और नहीं रह पाता संयमित
कुछ लोग उसे जबरन खींचकर लाना चाहते हैं साजिश से
अपने चंद स्वार्थ के टुकड़ों के लिए
जो बेईमानी और कुकृत्य से खरीदते हैं सुख अपने लिए
उनकी बुद्धिमानी की प्रशंसा भी होती है
यहाँ तक कि सभ्य समाज में भी

पता नहीं कब टूट जाये साँसों की यह डोर
और हो जाये सूना यह संसार
इसलिए गाना चाहता हूँ गीत एकता का
सब कुछ बाँट देना चाहता हूँ एक बोधिवृक्ष के नीचे लाकर
उपदेश के छंद नहीं सुनाता
खुशी-खुशी चल लें देकर कविता का प्यार
रचकर कविता का संसार
पीड़ा तो हमारी भी है तुम्हारी भी है
याद करो न सही
बस पढ़ लेना यह दो आखर
सींचते रहना प्यार

कुमुद रंजन. (हिन्दी)

25/07/2020

हँस देता हूँ फिर भी कभी-कभी
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सारी चीजें गड्डमड्ड करता है एक बच्चा
जो अबोध नहीं है जानता है दुनियादारी का सच
इसका फैलाव
क्योंकि उसके पास ऐसे संदेश भी आते रहते हैं
जो यह बयाँ करते हैं कि वह अब बच्चा नहीं
बड़ा हो गया है
मैं डाँटता हूँ कभी-कभी इसके लिए
लेकिन मान जाता हूँ
जब सारी चीजें सही जगह पर मिल जाती हैं

वह अपना कर्त्तव्य भी कभी-कभी पूरा कर लेता है
मसलन,जब अकेला होता हूँ
पीने का पानी भर लेता है
रोटियाँ सेंकने में मदद कर देता है
मैं माँगता नहीं हूँ कुछ भी उससे
न कोई मदद न उसकी संगति की दुनिया
जो बचपन की होती है
लौटकर देखने और भोगने की इच्छा होती है ये सब

मैं उसकी माँ नहीं हूँ
जो चिंता रख सकता हूँ उसकी हर बात की
भोलापन अच्छा है एक मनुष्य होने के लिए
एक पूरा अदद इंसान की इंसानियत

अरे,भूल ही गया था मैं कि खाना चढ़ा हुआ है ईंधन पर
खराब हो जायेगा और वह खा नहीं पायेगा
कमरा भी गंदा है साफ करना है उसे
नहाना भी है गंदगी और मैल साफ करने के लिए

वह आएगा स्कूल से और वही सब होगा
जो मैं बनाना चाहता हूँ उसे
एक अच्छा इंसान
सिखाना चाहता हूँ अच्छी बातें
सिर्फ अकेला एक मैं

हालाँकि जल्दी-जल्दी निपटाने में हो सकती है नींद खराब
गंदगी साफ करने में दुनिया वालों से क्या शर्म
और बच्चे के लिए खाना पकाने में क्या भय
खा लेगा वह कुछ भी जो होगा
उसकी माँ बिना खबर किये भी आ सकती है
और अनायास पन्ने पलटकर पढ़ सकती है मेरी कविता
जो उसके बच्चे के बारे में है
उसका लगाव जो है
और मेरी कविता भी वह झेलती है

सुनो,यह जिन्दगी का दूसरा सच है
मान लो कि यही सच है
क्योंकि बाहर की दुनिया का उतना ज्ञान नहीं ला पाया हूँ अपने अंदर
जिसमें लोभ ईर्ष्या घृणा की पैदाइश ही खत्म हो जाती है

एक सच बाँट रहा हूँ हर कहीं
अप्रतिम प्रतीक गूढ़ रहस्यमय सच
पूरी दुनिया के लिए सच्चा सुख पृथ्वी पर

जैसे-तैसे बनाता हूँ तस्वीर
बनाने ही नहीं आता तो क्या करें
लेकिन जो बेचैनी है
वह सबके लिए है

कहीं कुछ गलती न हो जाय इसलिए रहता हूँ सतर्क
बच्चा खेलकर आता है पढ़ने बैठ जाता है
समय पर चला जाता है ट्यूशन
फिर आकर पढ़ने लगता है
मन उसका व्यावहारिक दुनिया में संवेदनशील होता है
आज का बच्चा ज्ञानी होता है
कैसे समझाऊँ उसे भीतर की दुनिया के बारे में

मोबाइल के बारे में उसकी माँ भी बेचैन हो जाती है
उसकी बहनें भी सजग हो जाती हैं
मानो कुछ ज्यादा छूट रहा हो उसकी बेचैनी समा जाती है उसके अंदर
पैसे की बोली भी पहचान लेता है आज का बच्चा
यही सब भीतर की दुनिया में नहीं होता है

गढ़ना है भविष्य बेटे-बेटियों का
माँ को खाना बनाना और बच्चों का ध्यान रखना
ऐसे पिता जो सँभालकर रखते हैं उसका भविष्य
नहीं जाँय गलत रास्ते पर बेटियाँ
समझदार होना भी इस वक्त जरूरी है
ऐसे हालात में जबकि बिगड़ रहे हैं सब
उनको भी नसीहत देना है
दुहराता हूँ अपनी ही कविता की पंक्तियाँ
कि बंद दरवाजे के किवाड़ खिड़कियाँ खोलकर
आने दें शुद्ध रोशनी और स्वस्थ हवा
सारे बदबूदार बाहर निकलते जाँय अपने आप भीतर से
और खिंचती चली आये वह सब अच्छी चीजें
और बिखेर दें सुगंध पूरी दुनिया में उसे स्वतंत्र और निर्भीक् होकर

मैं नहीं डाँटना चाहता किसी बच्चे को उसके भविष्य के बारे में
जो आ जाँय उसके अंदर की दुनिया में
बचपन जवानी और बुढ़ापे से मृत्यु के इंतजार तक

उसकी गलतियों पर शक नहीं करता
हँस देता हूँ फिर भी कभी-कभी

(कविता : कुमुद रंजन २५.०७.२०२०). (हिन्दी)

23/07/2020

नौ कविताएँ

अकथ
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कथाओं से भरी इस दुनिया में
जी रहे लोगों के लिए फिलहाल कोई शब्द नहीं है कहने के लिए हमारे पास
इस वाचिक परम्परा के रहनुमाओं और आकाओं के
रहस्यपूर्ण व्याख्यान ही बहुत कुछ कहने का दम रखते हैं
तरह तरह के तर्क तरह तरह की उलझनें
तालियों की गूँज
लीलाओं में मनुष्य होने की बात दुहराई जाती है
कवच में मंत्रसिद्धि और पाने की होड़
जिसे भक्तगण नृत्य-गायन से भी जोड़ देते हैं
वैसे नेतागण इसमें आकर भी ऐसा नहीं करना चाहते
वो केवल चलाना चाहते हैं राज
और उन्हें भी शामिल कर लेते हैं

कोई एक घटना हो तो बताऊँ
कौन-सा साक्ष्य लाऊँ
अब तो हृदय-विदारक घटनाओं ने लील लिया है
सारा अरमान और भ्रष्ट हो गया है संस्कार
विद्रूपताओं ने घेर लिया है जो दुःख से भरा और अकथ है
क्या कहूँ और क्या छोड़ दूँ
अब ढूँढना होगा कोई नया राग
कोई नयी दिशा
अकथ को कहने के लिए

शब्द छूटने की बेचैनी
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कविताओं में कभी-कभी
शब्द छूटने की बेचैनी बढ़ जाती है
शब्द आते हैं पर भाव छूट जाते हैं
इसलिए कभी-कभी बड़े कवियों के
प्रकृति के बारे में कहे गये शब्दों को
बरबस ढूँढ़कर लाना पड़ता है
कि भाव छूटे़ नहीं

शब्द वो ताकत हैं
जो बहुत ऊपर भी ले जा सकते हैं
और बहुत नीचे भी ला सकते हैं
ऊपर लाने में बहुत मशक्कत भी करनी पड़ती है
कुछ दाँव-पेंच भी मुनासिब हो सकते हैं
मसलन,प्रकृति तो अनंत है
कहाँ से लाऊँ वो शब्द
जो दुनिया को बहुत कुछ देने की ताकत रखते हैं
और अमर हो जाना चाहते हैं वो शब्द
अभी तक तो हर स्तर पर
एक ही शब्द मिला है
आदि से अंत तक
हालाँकि आदि-अंत भी एक प्रक्रिया के तहत है

शब्द उबलते हुए आते हैं जब नफरत की बात होती है
शब्द दौड़ते हुए आते हैं
जब प्रेम और भाईचारे की बात होती है
मुझे मिल गया वह शब्द
मैं फिर से कहना चाहता हूँ सबसे
व्यक्ति के रूप में प्रेम की स्मृति बनना चाहता हूँ
पूरी दुनिया के लिए

हर जगह छान मारा
मिला बार-बार वही
मैं धन्य हो गया
किसी लाचार दुखियारी आँखों के आँसू पोंछते हुए
बच्चे,बूढ़े,जवान
औरतें वृद्ध लाचार
उनकी बूढ़ी आँखों की हसरतें
बच्चों की निगाहों का भोलापन और नवजातों की किलकारियाँ
कोई कहर नहीं बरपा करता
बस सिखा जाते हैं कि प्रेम की दुआओं से बढ़कर
कोई ऐसा फूल नहीं
जो खिलकर अपनी सुगंध बिखेर दे
और बदले में तन्हाइयाँ मिले
क्योंकि मुरझाना तो एक प्रक्रिया के तहत होती है
लेकिन सुगंध तो पूरी दुनिया
आकाश और पृथ्वी के मौजूद रहने तक रहती है

मनुष्यता की खातिर
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पौराणिक आख्यानों में
कुदृष्टि की परम्परा ने सारे युद्धों को सरंजाम दिया है
और लड़े गये सारे युद्ध
और मारे गये अविवेकी प्रबुद्धों के द्वारा
हरे पेड़ को काटने वाले को मौत की सजा मिलती है
और जो दूसरों की मछलियाँ छीनते हैं उनपर बद्दुआओं का असर होता है

कर्म का फल तो भोगना पड़ता है सूद-सहित

प्रकृति से बड़ा कोई कलाकार हो नहीं सकता
हम सब जानते हैं
फिर भी क्यों करते हैं हत्यायें,बलात्कार,अपहरण
नित नये रूप में
कानून से सजा भी मिलती है
लेकिन फिर भी बढ़ते ही जाते हैं ये सब

सबसे ताकतवर और कद्दावर
उन्हें भी रोका जाना चाहिये हठात्
और छेड़ी जानी चाहिये उनके खिलाफ जंग
ये कैसा लोकतंत्र है
कैसा जमाना आ गया है कि उनके आदेशों के बिना कुछ चलता ही नहीं
वैसे ये सब हम ही ने दिये हैं उनको
सबकुछ सोच-समझकर किया जाना चाहिये
सच्चे आदमी की पहचान होनी चाहिये

और तब चलेगा देश और जहान
वरना सबकुछ डूब जायेगा और कुछ भी नहीं बचेगा मनुष्यता की खातिर

एक नई दुनिया की खोज होती रहे लगातार
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देवता गये थे पूरी पृथ्वी पर
पाताललोक में भी मकरध्वज से मिलने
युद्ध करने
उनकी संगमरमर से बनी मूर्त्तियाँ बताती हैं
पूरी पृथ्वी से लेकर पाताललोक और यहाँ तक
कि पूरे ब्रह्मांड में फैले हुए हैं उनके रहस्य
अच्छा होता कि उन रहस्यों को ढूँढ़ने के बजाय
ढूँढ़ा जाता प्रेम का प्रमाण
तो उनकी दया मिलती
और विनाश की दमनकारी इच्छाशक्ति की प्रवृत्तियों
के बल से निजात मिलता
सारी खोजों में सबसे अप्रतिम खोज है
मनुष्य मनुष्य के रूप में अपना अस्तित्व बचाते हुए
उन आदमजातों की नस्लों का सफाया कर दे
और अपने आप को बचाने में संस्कार को जीवित रखे
जो पौराणिक कथाओ के देश में जीवंत है
उनका अनुसरण करते हुए
हम उन चीजों को बचाकर रखें
और पूरी दुनिया में एक ही सच्ची तस्वीर
जो इंसानियत और अपनापन की है
हँसना रोना एक दूसरे को प्यार देना
और दुःख के भय में भी शक्ति प्राप्त करना होता है
उसे दें जो शैतानों को उनकी दुनिया में परास्त कर दे
और सारे के सारे मातहत हतप्रभ होकर
इन चीखों को काटते रहें
एक नई दुनिया की खोज होती रहे लगातार
एक नई ऊर्जा की रोशनी मिलती रहे

शुभकामना
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आप तो ज्ञानी है , संत हैं, शक्तिशाली हैं
बहुत लंबा-चौड़ा साम्राज्य है आपका
मेरी क्या बिसात है आपके सामने
मैं तो केवल प्यार बाँटना चाहता हूँ
और बंद कपाटों को खोलकर
उसमें तर्कों की गहराइयों या शब्दों की साजिशों में नहीं
भरना चाहता हूँ दो मीठे बोल सारे किराये के कमरों में
बड़ी संजीदगी से उतरना चाहता हूँ सबके भीतर
नरम रोशनी की तस्वीरें बनाकर
आना चाहता हूँ सबके घर में खुशियाँ लेकर
और चलना चाहता हूँ सबके साथ
अखिल ब्रह्मांड में युद्धों को दरकिनार करते हुए
अमरत्व की कोई ख्वाहिश नहीं
और तो ख्वाहिश है भी नहीं
जिसके बल पर दुनिया कायम है अलग-अलग तरीके से
उससे अलग अस्तित्व मे रहते हुए
सजग हूँ सही जगह पर सही मुकाम पर
मुकाबला करते हुए तमाम अवरोधों से
लेकिन जिसपर कायम रहना चाहिए दुनिया को
जिसपर सारी भाषायें सारे विचार अवरुद्ध न हों
रास्ते
परिष्कृत होकर आना चाहता हूँ
और उन चिंगारियों को एक मधुर संगीत की
लय में
बिखेर देना चाहता हूँ
सारे रस जो पीकर उन्मादक राग न अलाप सकें
और काँटे बनकर चुभ न सकें
वह तकदीर लेकर आना चाहता हूँ
प्रणाम करता हूं बारम्बार
क्यों कोई तिरस्कृत होकर झेले सबकुछ
ऐसे ही तिरोहित होकर ऐश्वर्य खोजकर
लाना चाहता हूँ सारे रिश्तों में
जो मिट्टी को उर्वरता दे सके
दण्डवत् प्रणाम करता हूँ
मेरी मुबारकबाद स्वीकार हो
मेरे शब्द की मिठास लग जाय सबको निरंतर
यही शुभकामना है मेरी

हुतात्मा
------------

जो देश के लिए लड़ते हैं
उनके लिए एक देश ही काफी नहीं है
क्योंकि देश तो महज एक घटना है खोज की
गहन अर्थवत्ता लिये हुए
देश तो एक रागालाप है प्रेम का
वह कोई दरवाजा नहीं जिसमें सारे मनुष्य
एक साथ समा जाँय
एक-एक रोशनी लेकर
चलो रात का पहर बीत चला
अब तो कुछ बाकी है कहने के लिए
सूरज ही आसरा है
अँधेरे में क्या-क्या नहीं हो रहा है
और सूरज को छला जा रहा है
कि दिन में भी वो सब हो रहे हैं नंगापन
जो नहीं होना चाहिए

हे हुतात्मा,तुम लड़े निस्स्वार्थ होकर
निर्भय होकर
और बचा लिया धरती का सच
जो एक देश नहीं बल्कि एक पूरा मानव-साम्राज्य है

यह आदेश नहीं बस प्यार का रुख कर लो
दुनिया के वास्ते
और कह दो सब एक हैं
हम लड़ेंगे सबके लिए
जो बेचैन हैं निर्वस्त्र हैं भूखे हैं लाचार हैं
एक परिवार बसाना है और सुख का साम्राज्य लाना है
हे वीर सैनिकों,सीमा पर सीना ठोंक कर लड़ो
और उन दुश्मनों को परास्त कर दो
जो हमारी तरफ आँख उठाकर देखते हैं
तुम लाज हो हमारी
हम तुम्हारी पूजा करेंगे क्योंकि तुमने माँ-बहनों की रक्षा का जिम्मा लिया है

आत्मा के नये भोर में जगे हैं सब
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जहाँ प्यार न हो वहाँ कुछ भी नहीं है
हालाँकि प्यार के बारे में बहुत कुछ कहा गया है
लेकिन मुझे भी कुछ कहने का हक मालूम है
प्यार प्यार प्यार
बाजार नहीं,पूरी दुनिया का सच है सुंदर विचार है
इसे पाकर ही हम सारी खुशियाँ पा सकते हैं
लेकिन व्यक्ति को समाज के लिये त्यागपूर्ण कीर्त्ति का उपहार बाँटना चाहिए
कमबख्त जो फैलाना चाहते हैं गंदगी दिमाग की
पूरी दुनिया में
वो बेवकूफ ये नहीं जानते कि कविता में जो कही जाती है
प्यार की बातें
वो भी क्या कम हैं दुनिया के लिये
कि वह छोटी-सी चिड़िया
जो अनायास किसी दरीचे से घुस आती है
कमरे के अंदर या कहीं और भी
उड़ती रहती है स्वच्छंद
हवा का आनंद लेते हुए
क्या वजह है कि इंसानों की आवाज़ सुनकर वहाँ रुकना नहीं चाहती है
उड़ जाना चाहती है फुर्र से

शायद वह भी डरती है इंसानों से
कि वह मार डालेगा मुझे अपनी बस्तियों में ले जाकर
वह ढेर सारा प्यार पाना चाहती है
मैं भी चिड़िया से बहुत प्यार करता हूँ
वह कवियों के बाल के जाल में भी
बना लेती है अपना एक संसार
शायद इंसान उसे ज्यादा प्रिय है

लेकिन इंसानों से नफरत की बू आती है उसे
इसीलिए इंसान उसे मार देना चाहता है
अपनी नश्वरता में पाना चाहता है अपने ज्ञान के घमण्ड की बू
कि मैंने जो बनायी है दुनिया नीतियों की,मायाजाल,भ्रम और गंदी व्यवस्था की
वह बदलना देखना चाहती है चिड़िया इंसानों में
यह सच देखना चाहती है वह
तभी वह कर सकेगी प्रेम इंसानों से
मैं छोटी हूँ इसीलिये मेरा पंख काटकर उड़ने नहीं देना चाहते
हालाँकि उड़कर मैं तो प्यार ही बाँटना चाहती हूँ
बदले में क्या दोगे मुझे
क्या है तुम्हारे पास
जो बनाये हो अपने लिये उसमें सिर्फ नफरतों की जड़ समायी हुई है
मर तो मैं भी जाऊँगी
लेकिन हृदय में अगर प्रेम निस्स्वार्थ हो
तो वह सबसे बड़ा है और अमर है

जो गलतियाँ डेरा जमाये बैठी हैं
जी करता है सारी उन जड़ों को काट डालूँ
बुझा डालूँ वह आग जिसमें नफरत का जादू चल रहा है
जिसमें प्यार का इजहार नहीं
और बना डालूँ वह घोंसला जिसमें अमरता का उजाला हो

कहीं से भी ले आओ ढूँढ़कर
कोई भी प्रतीक नदी के रूप में
पहाड़,हरे पेड़ या कोई भी प्राकृतिक छवि
जो ईश्वर ने रचा है प्यार से इस मिट्टी में
सारे प्रतीक,सारे उपमान
कहीं कुछ भी हो
चाहे विज्ञान की बात हो
उसका भी विकास मनुष्यता का ही इतिहास रचता है
सारी चीजें एक दिन जो बिखरी हुई हैं
एक हो जाएँगी प्यार की भाषा की गहराई में
और यही शायद इस ब्रह्मांड के ज्ञान के बचे रहने का आधार है
आत्मा के नये भोर में जगे हैं सब

कब आएँगे वो दिन
--------------------------

ताल है पर मेल नहीं
साठ है पर गाँठ नहीं
भंडा है पर फोड़ नहीं
राज है पर काज नहीं
कितने शब्द गिनाऊँ
बस इतना ही काफी है जानने के लिए पूरा सच
आज के जमाने का

आजकल दिखते नहीं हैं प्यारे मोहन
कहीं लगता है व्यस्त हो गये हैं
रहते थे तो कहते थे मस्त रहो भाईजान
हम एक दूसरे से अलग थोड़े ही हैं
तब कातिलों की जान नहीं बच पाती थी
भागते थे शातिर लेकिन बख्शे नहीं जाते थे
यकीन मान लो मेरी बात का
भरोसा रक्खो कि एक दिन सब कुछ नंगा दिख जायेगा
ढँकने के लिए हम्हीं आएँगे
कब आएँगे वो दिन !

नमन
--------

जिसने दिया उसने कुछ नहीं लिया
जिसने लिया उसने कुछ नहीं दिया
आनंद तो इस बात में है
कि अँधेरे का भार वहन करते हुए भी
हम उजाले की कामना करते हैं

झेला हूँ अपनापन से
उन पीड़ाओं का प्यार
उसकी त्रासद अदाओं को धन्यवाद देता हूँ
क्योंकि वो सब मेरे अपने हैं
जो ममता और स्नेह के प्रतीक हैं
घोर निराशा और अवसाद के क्षणों में
मेरे अपने हुए
बहुत साफ था उनका हृदय और सूरज की तरह नीतिपूर्ण था कर्म उनका
उतने बड़े हृदय में मुझे स्थान दिया
यही क्या कम है
सबके पास एक उम्मीद है और प्यार को बचाये रखने की जिद है
मैं उन्हें नमन करता हूँ
कितना कुछ सहते हुए

कुमुद रंजन. (हिन्दी)

10/06/2020

लीलामय

(२)

चौतरफ़ा जब हो आक्रमण
छूट रही हों गोलियाँ,दागी जा रही हों मिसाइलें और प्रक्षेपास्त्र
खून की तरह लाल हो रहा हो आसमान
दिन में और धुएँ से हो रहा हो बवंडर
कट रहे हो पंख और नदियों का प्रवाह थम-सा गया हो
तो मौन रहना ही बेहतर होता है इंसानियत की रक्षा करने वालों के लिए
आत्मोत्सर्ग का क्षण सुयशपूर्ण होता है नियति के लिए
निःश्रेयस् की इच्छा जो हो
हम नहीं हैं पृथक् जुड़े हैं सबसे
गति में अपने-अपने कर्म और स्वार्थ की बू जहाँ आती है
हमें चुप क्यों होना चाहिये
छोटे से जीवन के व्यावहारिक व्यापार में
थोड़ा हृदय खुला हो तो ऐसे में सब
छलते हैं लेकिन छले जाते हैं वे सब भी
अँधेरे में एक साथ
एक बात कहूँ मानो या ना मानो
फिर भी तुम्हें चलना पड़ेगा ऐसे जैसे
चलता है सूरज अपनी नियति और कर्म की शान में
सबकुछ चलता चला जाता है शाश्वत
जाग्रत होकर साधना की अग्नि में जलते रहें
पराक्रम की ओर उन्मुख होकर विजयी साधक की तरह

और पाप को बेचकर जो पाप दिखने में बड़ा लगता है
उसका अस्तित्व भी बड़ा दिखता मोल-जोल की दुनिया में
हम हँसकर करें इसका अभिवादन
थोड़ा-सा पुण्य अर्जित करें जीवन में उज्ज्वल
वही जो उज्ज्वल आत्मा है निर्विकार और
निविड़ शान्ति में एकाकार है
निर्भीक् होकर सारा सच प्रेम के प्रकाश में
बलता हुआ सारा दृश्य एकालाप में
वही दुर्धर्ष रागिनी है प्रेम के अखण्ड साम्राज्य में
वह थोड़ा बहुत बड़ा है उसकी जिजीविषा
अखण्ड और अनन्त है सारे जन्मों में
उसी की तृषा आँक रहे हैं सब
देखते हुए उत्कर्ष और ब्रह्मांड का फैलाव असीम
उसी में साँझ है,सुबह की लालिमा
और रात का अँधेरा जिसमें एक हरा पेड़
जो तना है झेलता हुआ सब कुछ एकांत नदी के बहाव के पास
उसमें फिर वही चिड़िया बनकर
गाती है बार-बार एक ही गीत
जो होता है प्यार का क्षण
और हम जिसे अपने उन्माद में फैलाकर खुश होते हैं
सब कुछ अपना है, बस सब कुछ अपना है
अपना हक है, इस विचार को प्रज्वलित करें

चारों तरफ उजियारा है, शांति है , समभाव है
गायें समवेत स्वर में एक केवल एक
जो हम सब समझते है लेकिन मन नहीं लगता
कि जिसमें हम लिप्त हैं उसे छोङकर जाया जाय
हालाँकि परिवार का सृजन जो हुआ है
उसमें छोटी-छोटी आशाओं की जिद होती है दुर्निवार
सहते रहना है दूर दूर तक
अखिल ब्रह्मांड से लेकर अपने घर तक
और वह घर खुशियों से भरा हो
अंतिम विकल्प यही है मानवीय बुद्धि की पराकाष्ठा
की तरंगोर्मियों की हलचल में
तब कहीं कोई विप्लव नहीं, कोई तर्कजाल नहीं,
कोई माया जाल का विषाद नहीं
झूठों और अफवाहों का बोलबाला
जिसका अंत केवल मैं देखना चाहता हूँ
जिससे अच्छी परिस्थिति में हमें जीने का संकल्प मिल जाय

(३)

पापात्माओं के लिए कोई जगह नहीं
यही वक्त है पापात्माओं से लड़ने का
अच्छी चीजों का पृथ्वी पर कोई मेल नहीं
पर रहेगी हमेशा भयमुक्त
यही तो लड़ाई है

उन्मन वाकई हम क्यों हैं
सशक्त क्यों नहीं होते
क्यों नहीं होते एकजुट
आखिर यह भी तो सुन्दर साम्राज्य है
इसे कायम होना चाहिये
वे वासनाएँ जो क्षणिक सुख के लिए तरसती हैं
नहीं कायम कर सकेंगी इसे
क्षमा कर देना प्रभु इन्हें
जो बेचैन हैं छलने के लिए

अच्छाई की दुनिया की वो तस्वीरें
जो बोलना चाहती है दुर्निवार
अकेली होकर आना चाहती हैं
ऐसे समय में जबकि विष घोल रहे योद्धाओं का पतन निश्चित हो गया है

आ गई है घड़ी जगाने की
पतवार को खेते हुए पार लगा दे नैया
अकेले तमाम सुखों को दरकिनार करते हुए
जीना है दुर्दम चीजों को परास्त करते हुए
देना है सबको सबकुछ
जो हक है उनका
चारों तरफ अँधेरे से विकल
हमारी राजसत्ता नहीं जनसत्ता
सम्बोधित करने वाली है पूरे इलाके में
अखिल ब्रह्मांड का भार लिए हुए
एक नये आलोक में
मिटाने के लिए आदिम बौनापन और बुद्धिमान बेईमानी की धुन्ध

खोखलापन को भरने के लिए
चला आ रहा है सर्वशक्तिमान
यही हमारी परम्परा का सच है
सच है सबकी उम्मीद में
और कोई दूसरा उपाय है ही नहीं
विचारों का युद्ध और दुःख मिटेंगे अवश्य
सामना करना है और कोई उपाय नहीं है इसके अलावा

पापात्मायें तो हमेशा आती रहेंगी
उज्ज्वल भविष्य की कामना हमारी धरोहर है
अराजकता से मुक्ति पाने का यही उपाय सर्वोत्तम है
दुश्मनों के सपने चतुर्दिक ध्वस्त हो जायेंगे
ईर्ष्या घृणा द्वेष मिटेंगे
सच सच सच
और रहेगा केवल प्रेम

(४)

बंद दरवाजे के किवाड़ खिड़कियाँ खोलकर
आने दें शुद्ध रोशनी और स्वस्थ हवा
सारे बदबूदार बाहर निकलते जाँय अपने आप भीतर से
और खिंचती चली आये वह सब अच्छी चीजें
और बिखेर दें सुगंध पूरी दुनिया में उसे स्वतंत्र और निर्भीक होकर

(कविता : कुमुद रंजन १०.०६.२०२०). (हिन्दी)

08/06/2020

लीलामय

(१)
लाना होगा कहीं से भी वह बूटी
चमकदार जो पाई जाती होगी कहीं पृथ्वी पर ही
किसी पहाड़ की ऊँचाई पर बसी तलहटियों से
वह असीम प्रकाश में जगमगा रहा होगा
और घेरकर जिसे रहती होगी अमानवीय मायावी शक्तियाँ
जिन्हें आखिर में पराजय ही मिलती है
धन्य हैं वे जो उन्हें भी उठाकर ले आते हैं
और पिला देते हैं एक मृत व्यक्ति को उसकी आत्मा आ जाती है फिर से
एक महान शक्ति जो बलशाली होती है सबके सामने मौजूद रहती है वहाँ
यही तो भ्रम है कि वह कौन है
जो है और नहीं है के बीच चल रहा है
और मनुष्य अपनी जययात्रा के दौर में अपनी कुटिल बुद्धि को कुशलात्मिका समझकर
चला जा रहा है लगातार
वह प्रकाश अमरकीर्त्ति है जिसका न आदि-अंत,
न विस्तार,न शून्य,न जड़,न चेतन
कहीं कोई द्वन्द्व ही नहीं है
इधर एक तरफ आस्था और विश्वास दौड़ लगा रहा है अजेय
अंत में सबकुछ एक ही हो जाता है
दिमाग पर जितना जोर डालो जितने तर्क-वितर्क करो
तुम्हें बस यही अहसास होगा कि एक ही कविता लिखी जा रही है शुरू से
या शुरू भी न कहें एक खोज के तहत या अनंत भी नहीं
लेकिन एक अमर प्रकाश है जो कभी नहीं छलना चाहता है इंसानी बुद्धि की पराकाष्ठा को
कभी विभ्रम में नहीं रखना चाहता है
नहीं कहता कि मानो तो तुम्हारा कल्याण हो जायेगा

पर एक बात कहूँ तो शायद सच हो
न ज्यादा दिमाग न ज्यादा हृदय पर बल दो
क्योंकि जो नाटक चल रहा है,हर जगह द्वन्द्व की स्थिति है
फिजूल का तर्क जाल
सब कुछ जब रचा ही गया इतिहास दर्शन विज्ञान बुद्धि की दशा के साथ
कह लें यह बात कि सारे झगड़े की जड़ दिल और दिमाग का बेखौफ इधर से उधर दौड़कर जाना और कुछ से कुछ
अपने दैहिक सुख के लिए खींचकर लाना है
इतना कुछ कहना जरूरी है
कि सब भावनाओं और विचारों का ही शातिरपन है
जो अँधेरे में भी सुरंगें बनाकर भाग रहा है
और दूसरा उसे प्रकाश की मदद से पकड़ने की कोशिश कर रहा है
लेकिन सच तो मानना पड़ेगा
क्या पूरब,क्या पश्चिम
क्या ज्ञान,क्या विज्ञान
क्या हृदय,क्या मस्तिष्क
भाषाओं में भी मेल नहीं
सारे झगड़े की जड़ पैशाचिक शक्तियों की जय पाने की कवायद है
जो अँधेरे में जा रहा है लगातार
सब के सब भाग रहे हैं लगातार
क्या खोना है क्या पाना है के बीच

सबसे ऊपर है अंततः जो सबसे
सारी खोजों से ऊपर
जहाँ खुले हैं सारे किवाड़
कोई रहस्य नहीं है और जिसमें घुस नहीं सकती
पशुओं की नींद और पक्षियों की स्वच्छंद उड़ान
जिसे मनुष्य ने अपने तर्कों की बुद्धि से कैद कर
स्वाधीन रक्खा हुआ है
वह निष्कलंक है
पाना होगा उसे

वह तीसरी आँख जो एक पवित्र भाषा है सबके लिए
आना होगा उसे मनुष्यों के यशगान में
बरबस उसे आना होगा सब कुछ छोड़
सब एक होकर सबके लिए एकमेव है
कठोरता खत्म करनी होगी
दयालुता के साथ उसे आना होगा

अब ऐसे दौर में जबकि सब अंधे होकर दौड़ रहे हैं
आपाधापी और बोलबाला चाहते हुए
ऐसे में उसे मिटाना होगा ये सब
आना होगा उसे बरबस दयालुता के साथ
सबकुछ बचाने की खातिर
उसकी सारी परिभाषायें सारे सिद्धांत सारे नियम दर्शन
बेकार न हो उसकी अवधारणा
हर उस जगह पर उसे आना होगा

आना तुम
हम तुम्हारी ही बाट जोह रहे हैं
दैत्यों की अपरम्पार बुद्धि को खत्म करने के लिए
अपार करुणा और अथाह प्रेम के साथ
हमें उन आशा के बीजों को फैलाना है
जो निरंतर प्रकाश के अलावा कुछ न हो आत्मरूप में
विजय की गाथा हो मनुष्य की पराजय न हो

( कविता : कुमुद रंजन ०८.०६.२०२०). (हिन्दी)

20/04/2020

बेचैनी
---------

मुझे बेचैनी है
अपने घर लौटने की
मेरा अपना घर
मेरे छोटे सपनों का घर
प्यार और अपनापन से बना
स्वतंत्रता और गंतव्य की ओर
पंछियों की तरह अपने घोंसले में आने के लिए
शाम में
अपनी मधुर चहचहाहटों के साथ
अपने छोटे साम्राज्य में, अपने छोटे सपनों के देश में
जहाँ उन्हें एक नई सुबह की उम्मीद है

मेरी अपनी स्वप्नभूमि
मेरी आशाओं और इच्छाओं का मेरा देश
मेरा मन संस्कृति और सभ्यता के बारे में सोचता है
मेरा दिल इंसानों की आज़ादी चाहता है
पृथ्वी पर एक मानवीय विरासत

मैं जल्द ही उठूँगा, और गंगा के पास जाऊँगा
अतीत की डूबी हुई आँखों के नए मोती और स्फटिक खोजने के लिए
हर जगह हमारे रास्ते पर हमारा मार्गदर्शन करने के लिए
हमारी उपस्थिति में बात करते, प्यार करते और बढ़ते हुए

और नए जीवन के लिए प्रार्थना करें
फिर से जीवन के लिए एक भविष्यवाणी
जहाँ सत्य की मंद हवा बहती है
जहाँ मेरी आत्मा जीना चाहती है
कालातीत, एक अपार संगीत
मेरी धुन के साथ हर कहीं!

चेतन छलाँग मारता है
-----------------------------

तत्त्व क्या है ?

'मनुष्य आत्मा है'
एक समापन की लौ में
आंदोलन और उत्साह
इस अपरिवर्तनीय समुद्र के
एक विविध संस्कृति के बहाव में
पलता निस्सार जीवन


बहता प्रकाश
चेतना के आरोपण पर
जब हमारा ध्यान भंग होता है
पल-पल
एकाग्रता और आत्म-विरोधाभासी
परम सत्य
को समर्पित

नदी चिंतन करती है
-कोई वहाँ मरता हुआ

असंगत अर्थ के साथ उपस्थित
तत्त्व क्या है?
शांति की फुहारें
अति पावन
ओस से भीगे बाल
-थोड़ा भूरा यहां
भयावह एकान्त में
चेतन छलांगता
निर्लज्ज छाया के साथ
हदें पार करता
प्रवाह में संघर्ष करता
हर जगह बिखरा हुआ
कुमुद रंजन (अनु.)

20/04/2020

खामोशी
-----------

एक गहरी ख़ामोशी और उमस भरी रात
प्रेमी का इंतजार नहीं
कोई वायरलेस नहीं, कोई टेलीफोन नहीं
हर स्मृति नग्न और अकेली है
पसीने हथेलियों पर सूख जाते हैं

नंगे पैर महिलाएं और बच्चे
सड़क पर भीख माँगते
भिन्न-भिन्न चेहरों के साथ


अथक टीलों पर हाँफता
सपनों के साथ मृत हाथों में पकड़ा

एक परिचित सहानुभूति दिखाता है
मेरे दुःख में भाग लेने के लिए
लेकिन भूख और प्यास से कुछ नहीं
आँसू बहाना

उसकी गोद में कुछ नहीं है
वह मर चुका है
बंद मुट्ठी बदलती है हथेलियों में
खाली को खाली दिखाती हुई
कुमुद रंजन. (अनु.)

20/04/2020

नदी
--------

नदी हमारे भीतर है
शुष्क रेगिस्तान
कौन इसका अंत पा सकता है
अंतहीन बहती हुई लेकिन समय
मेरे भीतर एक छाया भरता
शुद्ध बोली की, बड़ी महत्वाकांक्षा की।

मैं प्रसन्न संतुष्टि के सागर में
गहरे डूब गया

मैं नदी हूं
अंतहीन बहता हुआ
मेरी अपनी स्वतंत्रता है जिसका अपना जीवन है
वैभव से अलग नहीं

मेरा शरीर, मेरा मंदिर,
मैं इसमें पवित्रता के लिए पूजा करता हूं।
कुमुद रंजन. (अनु.)

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