Geet Rishi Dr. Shiv Bahadur Singh Bhadauria Sansthan
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पुरवा जो डोल गई
पुरवा जो डोल गई,
घटा घटा आँगन में जूड़े-से खोल गई।
बूँदों का लहरा दीवारों को चूम गया,
मेरा मन सावन की गलियों में झूम गया;
श्याम रंग परियों से अम्बर है घिरा हुआ,
घर को फिर लौट चला बरसों का फिरा हुआ;
मइया के मन्दिर में
अम्मा की मानी हुई-
डुग-डुग-डुग-डुग-डुग बधइया फिर बोल गई।
बरगद की जड़ें पकड़ चरवाहे झूल रहे,
बिरहा की तानों में बिरहा सब भूल रहे;
अगली सहालक तक ब्याहों की बात टली,
बात बड़ी छोटी पर बहुतों को बहुत खली;
नीम तले चीरा पर
मीरा की बार बार
गुड़िया के ब्याह वाली चर्चा रस घोल गई।
खनक चूड़ियों की सुनी मेंहदी के पातों नें,
कलियों पै रंग फेरा मालिन की बातों ने;
धानों के खेतों में गीतों का पहरा है,
चिड़ियों की आँखों में ममता का सेहरा है;
नदिया में उमक-उमक
मछली वह छमक-छमक
पानी की चूनर की दुनियाँ से मोल गई।
झूले के झूमक हैं शाखों के कानों में,
शबनम की फिसलन है केले की रानों में;
ज्वार और अरहर की हरी हरी सारी है,
सनई के फूलों की गोटा किनारी है;
गाँवों की रौनक है
मेहनत की बाँहों में,
धोबिन भी पाटे पर हइया छू बोल गई।
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