The Democratic Socialists of India
Contact information, map and directions, contact form, opening hours, services, ratings, photos, videos and announcements from The Democratic Socialists of India, Social service, Shegaon.
Organization accelerating new world order towards Humanitarian, Inclusive, Fiduciary, Participatory, Democratic and Socialist one world through Socio-Political Interventions for People Centric Development.
Is our TV News Media making the common citizens *psychopath* by spreading hate, anger, dubious debates, fake news, misleading propoganda and showing one sided half history?
The psychic attack by Railway Police Constable followed by hate speech is the unique example. When number of individual Psychopaths resulted out of political hate narratives increases, it gets converted into communal psychology. The burning Manipur, Hariyana, West Bengal are the example.
Can Supreme court take action against such TV News Channels for destroying the mental health of people?
Actions and Reactions. Both matters. Silent actions are equally brutal as the violent reactions.
To stop violence there is need to understand and punish silent and standalone trivial actions along with violent reactions. Both are equally culprits of humanity.
शोध खामगाव च्या लोकनीतिकारांचा !!
खामगाव च्या लोकनीति नियोजनात सहभागी व्हा,
व्हा खामगाव चे लोकनीतिकार
तुम्ही होऊ शकता खामगाव चे लोकनीतिकार!!!
फक्त खालील प्रश्नाची उत्तरे वाचा आणि लोकनीतिकार पुरस्काराचे मानकरी होण्यासाठी स्पर्धेत सहभागी व्हा ...
लोकनीतिकार पुरस्कारासाथी काय करावे लागेल?
- खामगाव च्या विकासा साथी तुमच्या कडे काही सूचना, कल्पना, विचार, योजना आहेत का? जर असतील तर आम्हाला कळवा. आम्ही तुमची मुलाखत व लेखी विचार प्रकाशित करू.
तुमचा विचार छोटा असो का मोठा, प्रत्येक विचार महत्वाचा. म्हणून निसंकोचपणे व्यक्त व्हा व खामगाव चा विकास आराखडा कसा असावा हे ठरविण्यासाठी सहभागी व्हा.
हे कोण्या राजकीय पक्षाशी निगडीत आहे का?
- नाही. सर्व राजकीय पक्षाचे सदस्य, सर्व सामान्य जनता, सामाजिक संस्था, व्यवसायिक संस्था, कोणीही व्यक्ति यात सहभागी होऊ शकते. याचा राजकारणाशी काहीही संबंध नाही. खामगावकरांनी खामगाव च्या विकासासाठी केलेला प्रयत्न. राष्ट्रीय लोकनीति विचार मंच च्या माध्यमाने.
या मागील उद्देश काय?
- खामगावचा विकास सर्वांच्या सहभागातून आणि अभ्यासपूर्ण पद्धतीने व्हावा, शाश्वत व समावेशक व्हावा या करिता हा जनतेचा सहकार्यातून केलेला लोकहिताचा प्रयोग. आपण यात सहभागी व्हा आणि खामगाव च्या विकासात योगदान द्या. याच फेसबुक पेज वर संदेश पाठवून आम्हाला कळवा. आम्ही तुम्हाला संपर्क करू.
*Is only one Hindutwawadi party good for Hindus?*
The current political tussle in Maharashtra has raised one more question that if BJP is Nation wide Hindutwawadi party, shall there be any other party in the Nation following Hindutwa. Almost two and half years ago this question separated BJP and ShivSena from each other. There is a long history how these two parties have complemented each other and strengthen Bhagwa Nishan movement in the politics of Maharashtra. But with the sudden rise of BJP at National Level changed the political dynamics of Maharashtra. Both the parties wanted more stake in Maharashtra and started bargaining with each other. Shiv Sena claimed that they are local party who helped BJP to grow in Maharashtra on the agenda of Hindutva hence there should be respectful division of power. BJP claimed that they are National Party and main proponent of Hindutva hence they should dictate the terms. The leaders of BJP on the other hand lured the voters emotionally by asking them to elect double engine of development means BJP in state and Centre. The leaders directly appealed the voters and politicians to join BJP on the agenda of Hindutva which created sentiments of single Hindutva claim under one banner only. This was like a su***de for Shiv Sena if they admit to BJP's hidden agenda of Single Hindutva Banner. This triggered the conflict between BJP and ShivSena and to tackle this Shiv Sena asked support from Rashtrawadi and Congress to form Government. The objective of Shiv Sena was to stop encroachment of BJP on Shiv Sena's land.
BJP had its own explanation and justification to build single banner Hindutva that it will stop division of votes and will unite Hindus. But, Shiv Sena had an another explanation that collaboration between different Hindutva Banner will be more democratic and will help to preserve Hindutva from getting diluted or loosing controll in any single hand.
BJP's operation Lotus is actually a mission to create single banner Hindutva and that's why it is offering membership in BJP to the leaders of other parties. This infact challenged the existence of other Hindutvawadi parties.
Today, when BJP succeeded to pull in their side the leaders of Shiv Sena on Hindutva agenda, this question is again got a whisper in political discussion. Some opine that giving Hindutva leadership in single hand will lead to china like socio political structure in India which will destroy democracy.
JCS Ravikant reports for-
KJC News
_The Society of Freelance Journalist of India_
लोकतंत्रात्मक क्रियान्वयन कि अनेक पद्धतियां हो सकती है। "एक देश अनेक राष्ट्र", "एक राष्ट्र अनेक देश", "एक देश एक राष्ट्र" यह कुछ प्रचलित पद्धतियां है जो दुनिया भर के लोकतंत्रों मे अधिकतर देखीं गई है।
राष्ट्र और देश अलग अलग संज्ञाएं है। भारत मे राष्ट्र और देश की परिभाषाओं में भ्रमित राजनीतिक दल सत्ता कि राजनीति में लोकतंत्र को राजतंत्र बना रहे हैं। यह लोकतंत्रात्मक क्रियान्वयन तथा राष्ट्र निर्माण की निरंतर प्रक्रिया मे बाधक है। अगर ऐसा हि चलता रहा तो एक दिन हमारा प्रजासत्ताक लोकतंत्र फिर से पूंजीसत्ताक राजतंत्र में बदल जाएगा।
इतिहास गवाह है, भारत मे लोकतंत्र चलने देने के एवज में राजा महाराजाओं को तथा उनके वंशजों को सालाना राशि देनी पड़ती थी जिसे बंद करने के अनेक प्रयास हुए। आखिरकार १९७१ में इसे बंद करने के प्रस्ताव पर लोकसभा में बहुमत मिल पाया। इसके बाद क्रोधित राजवंशज भारत की राजनीति में सक्रिय होकर राष्ट्र को फिर से पूंजीसत्ताक राजतंत्र में ले जाने का प्रयास करने लगे। इससे राष्ट्रीय लोकनीति पर वैचारिक और भावनात्मक असर दिखाई दिया, जिससे भारत में राजनीतिक उथला-पुतल देखने को मिलीं। प्रांतवाद, भाषावाद, जाती वाद, पंथ वाद, धर्म वाद जिन्होने बारंबार भारत को खोखला किया है वह १९७१ के बाद सक्रिय राजनीति का अभिन्न अंग बन गये। पूंजीसत्ताक राजतांत्रिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने राजवंशी और उनके हस्तक हर राजनीतिक दल में घुस कर समाजवादी राष्ट्र कि नींव कमजोर करने लगे। इसमें हिंदू शासकों और मुस्लिम शासकों के वंशज तथा उनके जमिनदार और जागीरदार बड़े तौर पर सक्रिय होकर देश में पहले भ्रष्टाचार के नाम पर समाजवाद समाप्त करने और फिर धर्म के नाम पर लोकतंत्र को मर्यादित करने में सफल रहे। लोगों में समाजवाद और लोकतंत्र को लेकर जो भ्रम फैलाया गया उससे भारत की "एक देश एक राष्ट्र" की सोच इस राजतांत्रिक मंशा के आगे खंडित होती गई। इतिहास के रोमांचक किस्से कहानियों ने जनता को राजनिष्ठ प्रजा कि भुमिका से बाहर आने हि न दिया जिससे प्रजासत्ताक लोकतांत्रिक राष्ट्र कि प्रक्रिया धीमी पड़ गई।
आज खुलेआम धर्म के नाम पर राजनीतिक प्रयोग हो रहे हैं जो प्रजासत्ता को निरस्त कर प्रजा को मानसिक रूप से कमजोर बना रहे है। प्रजा कि यह कमजोरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक है। आज भारत में कल्याणकारी प्रजासत्ताक समाजवादी राष्ट्र कि नींव फिर से गढ़ने कि जरूरत है।
- ज.छ.सि. रविकांत
सरकार की मानें तो पढे लिखे सरकारी बाबू देश के बडे उद्योग संभाल नही सकते। फिर देश इस बात पर भी क्युं विश्वास करे की देश के अधपढे नेता राष्ट्र विकास के बडे कार्य संभाल सकेंगे?
ज.छ.सि. रविकांत
भारतीय प्रजासत्ताक समाजतत्वी
॥ क्या इस अप्रत्यक्ष आरक्षण पर भी कोई बात करेगा??॥
एक किलो अच्छा सेब २०० रू किलो बिकता है और छोटा खराब सेब १०० रू किलो से बिकता है।
कोई एकसाथ ५ किलो अच्छा सेब ले तो वह ८०० रू मे मिल जाता है। याने २०० रू किलो वाला १६० रू किलो मे मतलब ४० रू पाव का हिसाब लगा।
जिसकी ५ तो क्या १ किलो भी लेने की ताकत नही वह कम भाव का याने १०० रू किलो वाला सेब १ पाव किलो हि खरिदेगा। लेकिन बाजार नियमों के हिसाब से कम खरिदने पर भाव बदल जाता है । छोटा खराब सेब १ किलो लोगे तो १०० रू देने होगे और १ पाव किलो लोगे तो २५ रू नही ३० रू देने होगे। मतलब १०० रू किलो का माल १२० रू किलो के दाम से खरिदना होगा।
वही ५० रू पाव किलो वाली सेब ६० रू पाव मे खरिदनी होगी। मतलब २०० रू वाली सेब अमिर को १६० रू मे और गरिब को २४० रू मे।
ईसे इस तरह समझिये-
आपके पास पैसा है तो आप महिने भर का १ किलो सेब खरिद लोगे १६० रू किलो के दाम से। मतलब आपका महीने का खर्चा हुआ १६० रू मात्र। वही अगर आप देहाडी कमाकर हर हफ्ते पाव किलो सेब लेते हो तो महिने भर मे आप उतना ही १ किलो सेब खरिदोगे लेकिन दाम आपको लगेगा ६० रू पाव हर हफ्ते के हिसाब से १ किलो का २४० रू। आपका महिने का उसी सेब का खर्चा हुआ २४० रू।
दोनों उदाहरण मे देखोगे की अगर आप के पास क्रय शक्ति नही है तो आप या तो खराब कम भाव वाला सेब ज्यादा मुल्य पर खरिदोगे और खराब सेब खाकर बिमार पडोगे। या फिर आप अच्छा सेब बहोत ज्यादा मुल्य पर खरिदोगे। दोनों परिस्थितियों में नुकसान आप ही का होगा।
यह बाजार प्रणाली के माध्यम से लगाया गया अप्रत्यक्ष आरक्षण है जो जीवनावश्यक चीजों पर विशिष्ट लोगों को प्रथम अधिकार देता है।
इसलिए देश को पुंजीवादी अर्थव्यवस्था और नीजीकरण का विरोध करना चाहिए। राष्ट्रियकरण और समाजवादी अर्थव्यवस्था को बरकरार रखने वाली सरकार देश मे लाना चाहिए।
हाल हि मे मा. प्रधानमंत्रीजी ने संसद मे जोर शोर से कह दिया की देश के सरकारी बाबू लोग भला क्या क्या काम देखेंगे? प्रधानमंत्रीजी का कहने का मतलब इतना ही था की पिछली सरकारो ने यह देश बाबू लोगों को चलाने के लीये दे के रखा है जो की उनका काम है ही नही |
गौर करने जैसी बात यह थी की बिना सोचे समझे कई सरकारी बाबू खुश हो गये की सरकार आखिर उनके लीये सोच रही है, उनका दर्द देश के साथ बांट रही है| उधर कुछ जनता के प्रतींनिधी नमो के जयकारे लगाते कोस रहे थे ७० साल की उस समाजवादी व्यवस्था को जिसने देश कि अर्थव्यवस्था और समाजव्यवस्था को चलाने के लीये अलग अलग शिक्षा और कौशल्य के लोगों के लीये प्रशासकिय सेवाओं मे नौकरिया निर्माण की| सोचने जैसी बात यह है की नौकरिया तो वही काम करने के लीये बनाई गयी थी तो बाबू लोग भला उसे क्यु नही देख सकेंगे? उदाहरण के तौर पर, भारतीय संचार सेवाये अगर संचार अभियांत्रि को नौकरी देती है तो भला बीएसएनएल मे वह अभियांत्रि क्यु काम नही करेगा? आखीर दिये जिम्मेदारी की ही तो वह तनखा लेता है| और फिर बीएसएनएल का निजीकरन करने से भला उसका पुंजीधारी मालिक थोडे ही खुद काम करेगा? वह भी तो संचार अभियांत्रि को नौकरी देकर उससे काम करवायेगा| फिर सरकारी बाबू का यह काम नही या फिर वे ये कर सकते नही यह प्रधानमंत्रीजीका युक्तिवाद भला कहा तक सही है? और यह युक्तिवाद पुंजीवाद का समर्थन करने कहा तक सक्षम है?
सरकार शायद यह देख मन ही मन खुश हो रही होगी की जनता और सरकारी बाबू सारे उनके समर्थक बने जा रहे है| और बिना कीसी परेशानी के सरकार ने जनता के मन मे समाजवाद के लीये विरोध, विरोधी पार्टीयोके लीये नफरत और निजीकरण के लीये समर्थन का भाव जगृत कर दिया| यह मानसशात्रीय अभ्यासको के लीये अध्ययन का विषय जरूर बना है की वह कोनसी जन मानसिकता रही होगी जिसके चलते लोग उसि व्यवस्था के खिलाफ हो रहे हो जिस व्यवस्था ने उन्हे सही मायनो मे सत्ता और राष्ट्र विकास का भागीदार बनाया, सरकारी रोजगार के माध्यम से स्थायी और शाश्वत उपजीविका प्रदान की, जन सेवा से देश सेवा का अवसर प्रदान कीया, देश की जनता को वस्तु - सेवा और सुविधाए सभी सामाजिक न्याय के तत्व पर उपलब्ध कराये|
प्रजासत्ताक राष्ट्र मे जब जनता प्रस्थापित व्यवस्था से ज्यादा व्यक्तित्व को और विचार से ज्यादा भावनाओंको महत्व देती है तब वहा व्यक्तिप्रधान सत्ता अपने आप प्रस्थापित होती है| उपरोक्त किस्सा उदाहरण है की संपूर्ण देश प्रजासत्ताक होते हुए भी व्यक्ति विशेष की अविरोध सत्ता का अनुयायी बन स्वयम को दुर्बल कैसे बना लेता है|
शून्य से संपूर्ण व्यवस्था निर्माण करना आसान नही होता| देश मे साम्यवादी और पुंजीवादी ताकतो से लढ कर समाजवादी व्यवस्था निर्माण करना आपने आप मे एक लंबी प्रक्रिया थी| ईसी प्रक्रिया मे सर्व समावेशक तथा सभी समुदाय को प्रतिनिधित्व देते हुए नौकरिया निर्माण करना भी एक दिव्य ही था | देश की विविधता और विषमताओ के चलते इस दिव्य की पहली परीक्षा यह थी की देश की सकल सामायिक न्युनतम तथा अधिकतम मानव गुणवत्ता क्या तय करे और विकास, वृद्धी तथा सामाजिक न्याय के मानक कैसे तय करे| दुसरी परीक्षा यह रही की समान संधि के अवसर हर कीसी के लीये कैसे प्रदान करे जो की समावेशक होते हुए कीसी वर्ग विशेष को ही प्रतींनिधीत्व देने वाले ना हो| तिसरी परीक्षा थी वस्तु, सेवा और सुविधाओंको जन मानस के कल्याण हेतु कीस तरह विकसित किया जाये| चौथी परीक्षा रही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम स्पर्धाक्षम कैसे बने रहे| इन सब मे पांचवी फिर भी अहम परीक्षा थी पुंजीवादी और साम्यवादी ताकतो को भी सुयोग्य पहचान प्रदान कर उनके अस्तित्व को प्रजातंत्र मे उचित जगह निर्माण करना | पिछले सत्तर साल इसी पांचवी परीक्षा को पास करने मे सभी पिछली सरकारो का दम निकाल गया| इसका कारण साम्यवादी तथा पुंजीवादी ताकते स्वयम को पूर्ण रूपेण स्थापित करना चाहती थी| वही एक ओर भारतीय समाजवाद अपने मिश्र अर्थव्यवस्था के माध्यम से समुचे विश्व को नई व्यवस्था का उदाहरण दे रहा था की तभि दुसरी ओर सभी ताकते समाजवाद की व्यवस्था को खोकला करने मे जुट गयी| नतिजा भ्रष्टाचार और अस्थिर सरकारे जो की पुंजीवादी ताकतो द्वारा प्रेषित नेताओंकी दलबदलू राजनीति से ग्रासीत थी| इससे निपटणे के लीये समाजवादी ताकतोने लालफितशाही जिसे पर्मिट राज भी कहा गया का सहारा लिया लेकीन पुंजीवाद प्रणीत आर्थिक प्रलोभनो के आगे लालफिताशाही भ्रष्ट होती गयी और राजनीतिक अस्थिरता सरकार को हतबल करती गयी| एक तरफ पुंजीवाद ने भ्रष्टाचार को अपना हथियार बनाया तो दुसरी ओर साम्यवाद के कुछ एक खेमे द्वारा सशस्त्र क्रांति का मोर्चा खोल गृह युद्ध का सहारा लेना चाहा| विगत तीस वर्ष मे समाजवाद को बदनाम करते हुए भ्रष्टाचार, आतंकवाद, धार्मिक और जातीय हिंसा ने जनमानस की आंखो पर इतनी धूल फेंकी की आज जनता को सब धुंदला दिखाई दे रहा है| हित और अहित का फरक भी समज नाही आ रहा है| जीस लोक कल्याण की भावना से अनोखे और बहुरंगी भारतीय समाजवाद की नीव रखी गयी थी वह आज ध्वस्त होती नजर आ रही है|
*भारत में सामाजिक और आर्थिक सुधारों की दिशा और दशा (क्रमशः भाग 2)*
विश्वभर मे राजतंत्र से लोकतंत्र की ओर तथा गुलामी से स्वातंत्र्य की ओर चलते देशों का इतिहास गवाह है। तत्व विचारधारा कोई भी हो, बीच अधर में व्यक्ति प्रधान अधिनायकतंत्र को बढावा देने वाली मानसिकता जब सक्रिय हो जाती है और जनमानस पर अधिकार जमा लेती है तो वहा लोकतांत्रिक प्रक्रिया चरमरा जाती है। इसिसे तानाशाही स्थापित होने का डर लगा रहता है। किसी भी राष्ट्र के सामाजिक और आर्थिक सुधारों में वहा की अधिनायकता क्या व्यक्ति प्रधान है या जनविश्वस्त प्रधान है यह बात बहोत मायने रखती है। जब अधिनायकता अगर व्यक्ति प्रधान हो जाती है तो एक ओर सर्वसमावेशक विकास और दुसरी ओर चयनित वर्ग विकास इन दोनों के बिच राष्ट्र अधर मे रह जाता है । विकास भ्रम मात्र रह जाता है। पुंजीपतीओंके पुंजीवृद्धी की नितियां और योजनाओं से उत्पन्न तत्कालीन लाभ समाज में बटकर राष्ट्र के विकास का दृश्य प्रतित होने लगता है। इसी भ्रम दृश्य को सत्य मानकर जनता व्यक्ति प्रधान को अलौकिक समझने लगती है और उसे सर्वेसर्वा मान लेती है। यही से लोकतंत्र की बुनियाद का हिलना शुरू हो जाता है। जनता शक्तिहिन होकर एक ही व्यक्तित्व के शक्ति को अपनी शक्ति मानने लगती है और वही से सुरक्षा का भाव प्राप्त करने लगती है। यह किसी राष्ट्र की वह स्थिति होती है जहा विशिष्ट विचारधारा राष्ट्र की अर्थसत्ता को विशिष्ट समुदाय या परिवारों के हाथ देकर समाज नियंत्रण स्वयं के हाथ रखना चाहती है ताकी निर्विवाद राष्ट्रीय संपत्ति का प्राथमिकता से उपभोग ले सके। यह विचारधारा व्यक्ति प्रधान को आगे कर गुप्त व्यवस्थाओं का ताना-बाना बुन देती है जिससे की विचारधारा और इसमे लिप्त समुदाय तथा परिवार राष्ट्र की जनता के नजर मे ना आये। जनता के लिए सर्वशक्तिमान होने वाला प्रधान असल मे उस विचारधारा द्वारा प्रेषित प्रतिनिधि होता जो बात जनता की करता है लेकिन लाभ पीछे छुपे विचारधारा को ही पहुंचाता है। यह विचारधारा निसंदेह पुंजीप्रधान अर्थसत्ताक होती है लेकिन राजसत्ता के लिए पूंजीवाद, समाजवाद और साम्यवाद का भ्रमित करने वाला ढांचा निर्माण कर सदैव उसमे विवाद उत्पन्न करती है जिससे कि जनता राजनीति से दूर रहना पसंद करें।
...२.. क्रमशः
That's why Socialists Economy is a need of time. It give the balanced performance if managed proactively
*भारत में सामाजिक और आर्थिक सुधारों की दिशा और दशा (क्रमशः १)*
भारत मे समाजवाद होते हुवे भी जनमानस की समझ से परे रहा। इसका मुल कारण है समाजवाद, साम्यवाद और पुंजीवाद की परिभाषा जिसतरह बताई गई उसमे सिद्धांत कम और मानव निर्मित व्यवस्था यंत्रणा पर ज्यादा बताया गया है।
सिद्धांत स्थायी होते है परंतु व्यवस्था यंत्रणा अक्सर अस्थाई और काल स्थिति पूरक होते है। यह व्यवस्था यंत्रणा कार्यप्रणाली के रुप में दिखती भी है और इसीलिए जन मानस को समझ भी आती है। राजनीतिज्ञ हमेशा इन कार्यप्रणाली और तत्कालीन यंत्रणा रचनाओं पर टिप्पणियां कर विरोध और समर्थन करते है। सिद्धांत और सैद्धांतिक तत्वाधान मे संभव काल अनुरूप आवश्यक परिवर्तन पर वे कभी नही बोलते।
यही कारण है कि सिद्धांत और नीतीमुल्योंकी समझ के बीना समाजवादी और साम्यवादी व्यवस्था यंत्रणा अव्यवहारिक दिखने लगी और पुंजीवादी व्यवस्था यंत्रणा जो बाजार की परिस्थितियों पर बने सिद्धांत पर चलती है वह व्यवहारिक और सरल लगने लगी। परिणाम विगत ७० वर्षों में समाजवाद और साम्यवाद की समझ नागरिकों मे खत्म होती गयी और पूंजीवादी नेतृत्व सुधारों के नाम पर भारत मे पूंजीवादी व्यवस्था यंत्रणा मजबूत करने में लग गये।
...१... क्रमशः
Understanding Socialism in true sense is need of the our
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Socialist Movements: The ideology and the American responses
Though countries have made progress in planning for climate change adaptation, there are significant financing shortfalls in getting them to the stage where they provide real protection against droughts, floods and rising sea levels, a new UN environment report says.
It's the weakness of representative democracy that makes the economy dependent on its larger stake holders and weakens the Governance.
The point here, Government look towards capitalist corporates for funding the development. Where the same corporates earn from citizens and are able to donate to the government for the wellbeing of citizens. And, government is elected by the citizens who are at the mercy of those corporates who controls the government elected by citizens.
किसी राजनीतिक पार्टी के प्रचारजीवी होने से अच्छा है आंदोलनजीवी बने | व्यक्ति प्रधान भक्त संस्कृति से ध्येय प्रधान समाज हितैषी संस्कृति मे आंदोलनजीवी होना गर्व की बात है|
आज समाज मे हर बात के लीये आंदोलन कि जरूरत होती है | CSR के उपक्रम हो या SHG हो या सरकारी योजना, सभी को मुकाम तक पहुंचने के लीये आंदोलन करनेे पडते है | नाम भले कूच भी रखे पर है तो आंदोलन ही|
आशा वर्कर हो या उपजीविका विकास मे कार्य करते सेवादार या MSW पढे सोशल वर्कर, सारे आंदोलन के मार्ग से ही तो समाज सुधार का कार्य करते है | MSW course मे भी तो यही पढाया जाता है|
फिर सरकार इस पवित्र पेशे को बदनाम कयू कर रही है? सिर्फ इसलीये कि इसबार कुछ आंदोलनकारी पुंजीवादी सरकारी नीतीयो के विरोधीयों को मदत कर रहे है|
क्या हम कभी अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, धर्मशास्त्र, इनके आधार पर शास्त्रोक्त चर्चा कर लोकतंत्र को मजबूत करने हेतु योगदान नहीं दे सकते?
क्या सिर्फ तथ्यहीन, निरर्थक, तर्कविसंगत और अज्ञानी युक्तिवाद मे फसकर राजनीति का शिकार बनते रहे?
आओ लोकतंत्र के सच्चे नागरिक का कर्तव्य निभाते है। मिलकर राजनीति की नही शाश्वत जन नीति की बात करते है। शास्त्रों के आधार पर हर बात को परखते है। शाश्वत समावेशक विकास की नींव सहभागिता से रखते हैं।
आओ लोकतंत्र के सच्चे नागरिक का कर्तव्य निभाते है।
*More mispresentation than representation* *is Anybody there to understand what farmers want*
-JCS Ravikant S Wawge
No body is going to understand farmers... They are more mis-presented than being represented at National level. Their contribution in Nation Building and their concerns of sustainable livelihoods is straight forward neglected by all.
Farmers' issues and challenges are sidelined by political agenda...
BJP has its agenda of promoting capitalism... Congress has its agenda to expose what's in the mind of BJP and Modi Govt and thus futile exercise to get public support.
Dalaal's of Agri markets have their own agenda of not allowing government to reform APMCs and refrain from restoring its original purpose behind its cooperative structure and principles.
Farmers have their unexplained, unsupported, unspoken agenda of requesting govt to provide risk hedging mechanism as well as market ownership. They being unorganised and inexperienced are looking towards so called farmer leaders and political parties to understand their concern to represent them and bring reform in APMCs to give power to farmers while on the other hand allowing private players to generate healthy market competition.
Leaving APMCs to get it automatically defunct is never in the interest of farmers. Also explainations by BJP Govt everytime that Congress and others have looted the nation and now this will stop loot need to be stopped because such justifications are itself diverting topic from farmers. And, propper socio-economic feasibility studies and discussion need to be done openly to throw light on how and what future will be shaped and how will it bring inclusive, sustainable development. A Social and economic impact index need to be construed to get clear picture along with strategic impact assessment to be done on regular basis.
Correction of mistakes and reforms doesn't mean abolition of Socialism. Correction should lead to abolition of monopoly. Whether its industrial monopoly or political monopoly.
We supported Jana Sangh and later BJP just to abolish political monopoly of Congress which led us to corrupt and unequal federalism.
If BJP now starts creating monopoly of political and industrial players, then whats the difference in BJP and Congress? (The operational differences related to Independent Democratic Republic ideology).
We still remember when BJP advocated social capitalism in India.
*Inclusive growth is always slow and results in sustainable development while exclusive growth is fast and is a balancing act of compramises and advantages resulting in monopolies, market disruptions and frequently changing livelihood patterns.*
*Isn't America and India the best examples of this theory??*
*The Democratic Socialists of India*
"THE DEMOCRATIC SOCIALISTS OF INDIA" - A socio- political think tank dedicated for people centric development and promoting Inclusive, Participatory and Fiduciary Democracy which is based on the principles of Sustainable and Humanitarian Socialism.
*_पालकमंत्री उदय सामंत यांनी उमेदच्या मुक मोर्चाला सामोरे जात केली दिशाभूल...._
*उमेदच्या राज्य फोरमच्या माध्यमातून येत्या दोन दिवसात निश्चित भूमिका घेणार- निलेश वालावलकर_*
सिंधुदुर्गनगरी दि.१४* उमेद कार्यक्रमांतर्गत कर्मचाऱ्यांना सेवेत घेण्याबाबत शासनाने शासन निर्णय केला असल्याचे मूक मोर्चाला सामोरे जात पालकमंत्र्यांनी दिशाभूल केली असून बाह्य संस्थेला कर्मचाऱ्यांना सामावून घेण्याबाबत पत्राने कळविले आहे. यावरूनच उमेद कार्यक्रमात खासगीकरणाचा घाट घातला जात असल्याचे स्पष्ट होत असून याबाबत उमेदच्या राज्य फोरमच्या माध्यमातून येत्या दोन दिवसात निश्चित भूमिका घेण्यात येईल अशी माहिती उमेद अभियान जिल्हा व्यवस्थापक निलेश वालावलकर यांनी पत्रकारांशी बोलताना दिली
उमेद कार्यक्रम बंद करून कर्मचाऱ्यांना सेवेतून कमी करण्याचा हा घाट आणि राज्यातील आणि जिल्ह्यातील महिला बचत गटाची होणारी गैरसोय आर्थिक दृष्टीने होणारे परिणाम लक्षात घेऊन कॅल यातील बचत गट समूह आणि मूक मोर्चा काढून उमेद कार्यक्रमा अंतर्गत कार्यरत 123 कर्मचाऱ्यांना सेवेत घ्या वेतन द्या महाराष्ट्र जीवन उन्नती अभियान उमेद कार्यक्रम कार्यरत ठेवा आदींसह विविध मागण्यांसाठी शासनाचे लक्ष वेधले होते या मोर्चाला पालकमंत्री उदय सामंत यांनी सामोरे जात उमेद कार्यक्रमांतर्गत कर्मचाऱ्यांना उद्यापासून सेवेत हजर होण्या बाबतचे शासन निर्णय काल रात्री काढले असल्याचे व सदर कर्मचाऱ्यांना प्रतिनियुक्ती देणार असल्याचे सांगत कर्मचाऱ्यांना कमी करणार नाही असे पत्र धीराचे सांगितले होते परंतु शासन निर्णय नकळता बाय संस्थेला या कर्मचाऱ्यांना घेण्याबाबतचे पत्र दिले आहे पाय संस्थेमार्फत उमेद कार्यक्रम राबविण्याचे हे शासनाचे धोरण म्हणजे खाजगीकरणाचे एक पाऊल असल्याचे सांगत जिल्ह्यातील 123 पैकी 81 कर्मचारी कार्यमुक्त तर 50 कर्मचारी अद्यापही कार्यरत असल्याचे सांगत अकरा महिन्याची मुदत संपल्यानंतर या बाह्य संस्थेच्या माध्यमातून नियुक्त्या देण्यात येणार आहेत या कार्यक्रमांतर्गत कर्मचारी राज्य फेडरेशन न्यायालयात गेले असून न्यायालयाने दहशतीचा आदेश दिला आहे याबाबत योग्य ती कार्यवाही नव्हता बाह्य संस्थेने त्या कर्मचाऱ्यांना घेणे म्हणजे योग्य नाही बायफ संस्था नेमून आम्हा कर्मचाऱ्यांना कार्यमुक्त करण्याची भूमिका आहे कंपनीद्वारे सी एस सी गव्हर्नमेंट
Umed-MSRLM is now not just a government program but a livelihood movement of poor household. It has reached beyond government's do called welfare initiative, and now it is self sustaining strategy for the poor women to live and sustain with dignity. Government should not throw them in the hands of NGOs ruled by capitalists.
Policy Reforms: A Sheer Cheating with Gandhian People
JCS Ravikant
Does reforms mean all about opening and liberating the economy?
It’s an obvious question every layman to economics asks in India. And, the obvious answer by the experts and economists is- YES!
Still there are other ideologists who refuse to accept this answer and try to find out an alternative to reform agenda of the government.
Thus, there are two wings of ideologies. One called themselves ‘rightist’ as they are in power and represent main stream of the society and another is ‘Leftist’ as they represent the other side of the society – collective wellbeing.
In India, these two ideologists have set the stage for all political dramas that took place in the parliament, on the streets and in public events of the political parties. The matter of interest is not the people but the share and control on the economy by the lobbies, groups, and those who has considerable grip over the economic sectors through their private enterprises and thus want to safeguard their stake in the economy of the country. Simply, the interest of the big players in the economy is what the drama is played for.
But, the majority of the people who have very little role in the economic affairs of the country want neither rightist nor the leftist but straight economics that would help them to live peacefully with their small dreams and lead them to their survival, sustenance, wellbeing and happiness. It has been observed from the recent movements by the people against corruption in India.
Some voices are also raised very often to bring political alternatives in India and they are not from the political parties but from the public who lost their faith not in the government but in the current political and economic systems.
Recent reaction of the people to government’s economic policies on Foreign Direct Investment is indeed an evidence of public dilemma over political and economic systems in India.
Prime minister of India had to appear in public in defense of Foreign Direct Investment in Retail Sector in India. There was a huge cry over the FDI policy of the government from all the spheres of the society. Truly speaking, it was not an oppose to FDI and Globalization but doubts of the people on intentions and abilities of the government to safeguard every rather small stakeholders in the economy. Unfortunately, government has discussed only the economic benefits to fewer sections of the society and not the wider economic environment that would emerge as a result of government’s economic policies.
Hon. Prime minister appealed to the people of India to believe in his wisdom and assured on the historical ground that like 1991 where his government adopted fruitful liberal policies for revival of Indian economy from the crises, this time also he is going to safeguard Indian economy from the future shocks. But, he didn’t speak on the equations that would assure positive results of his prescriptions to Indian Economy. All this created more hues and cries than opening a dialogue with the people who wanted an assurance from the government that their life and living won’t get adversely affected by the government’s policies. Twenty years have been passed by now when government first took bold decisions for opening the economy. The economic understanding of the common people in 1991 and today has changed a lot. Today people understand that they need to understand what economics is all about and they are aware that they know very little of the macro economics. They want not only government but the stake holding players in the economic system and political system to come clean and transparent.
There is reason to such doubts by the people. India is a land of diverse cultures where many people don’t count their happiness on what they consume and enjoy. For them, although happiness can also be an economic concept, but it is altogether different from what capitalist ideologies presume. Other fact is also noticeable that after Independence and even today the majority of the people have still no clear idea about the economic doctrine that India has pursued. Many people still recite proudly that India is a socialist country. In fact, majority of the people still think so and not so far yesterdays every student in the school was taught that India is a Socialist country. In reality, although there was a planned economy, India has adopted mixed structure of economy having presence of socialist and capitalist ventures. That actually created mixed economic opportunities for the people leaving them confused and divided over the economic direction and economic environment in India. After Independence, congress leaders could leverage the role of Indian National Congress in the freedom movement of India and thus could get support from the people for long time after Independence. Mahatma Gandhi played a major role in the freedom movement and also in the social, economic and spiritual lives of the mass population of India that really made him Mahatma – The Great Soul. After independence, Congress instituted Mahatma Gandhi as a father of nation. Majority of the people got under impression that India follows Mahatma Gandhi’s ideologies of economic and political governance. The mass population mostly living in rural India was and to the extent still today is under influence of Mahatma Gandhi’s social, cultural, spiritual, political and economic doctrine. Embossing of Mahatma Gandhi’s picture on Indian currency endorsed beliefs of the people that India follows Gandhian principles in its social, economic and political developments. Unfortunately it was not true. Although, economic ideologies of Gandhiji are still deeply rooted in the masses in rural India, government policies are fostering rapid urbanization and changes at the fast pace in rural India that too contrast to what people believe in.
In India, since independence, capitalist wanted one set of economic structure while socialists wanted another. This is one of the great reasons why Indian economy couldn’t get direction for its economic development. The Indian government, to be specific – the leaders in Congress party, was ever seen divided on whether to follow Mahatma Gandhi’s economic doctrine, pursue Russian socialist fundamentals, to be capitalist economy or altogether set new socialist economic theories. If we conduct comparative policy study of Indian Economy we could easily find it out that the political will was always suppressed in dilemma of the leaders on economic policies. It wont be wrong to say conflict of interest between capitalist fundamentals and socialist fundamentals instead of saying dilemma.
The Nehru – Mahalonobis model pursued since second plan period strategically tried to satisfy and maintain balance in both the ideologies but missed the opportunity to incorporate Gandhian principles in the planning process. There are people who think it was deliberate avoidance of Gandhiji’s principles by those who empowered in the government to install system for the people and by the people. In the mean time some policy drafts acknowledged the Gandhian model but it couldn’t last due to weak representation of Gandhian Scholars in the economic planning and development process. After Nehru – Mahalonobis model, the Rao – Manmohan model in 1991 reflected the hidden side of the earlier model, the strategic balance between the conflict of interest in socialist and capitalist fundamentalists. By the time, capitalists fundamentalists became so strong that neither Socialists nor Gandhian fundamentalists could understand political strategies of capitalist development.
Today many of the new generations in Indian politics are educated abroad in capitalist economies. Thus they try to find every solution to economic problem in reforming the socialist economy into capitalist. It is fact that those politicians and the policy makers have poor knowledge of alternative economic systems, strategies and models. It would not be an exaggeration if one says they lack understanding of the real culture and values in India. They only understand what the economic theories have been practiced in rich countries.
It is true that Rao – Manmohan model has helped a lot to save Indian economy in 1991. But, that is the one side of the story. The crisis in 1991 was the gross sum of political confusion in India or rather the political conflict in India over economic structure. The mass population was still unaware of this conflict and dilemma. It could be termed as political innocence of the Gandhian populace in India who are large in number, but despite of democracy they are ruled by few rich capitalist politicians. The people of India trusted those politicians to implement Gandhian principles and economic ideology and rest assured blindly for years and years with understanding that India runs on the footprints of the Father of Nation. But after the experiences of last twenty-five years these Indians have started feeling cheated by the politicians. But now they have nothing in their hand. Everything has been changed. The economic reforms in India have exerted many unaccounted impacts on the life and living of common Gandhian people. Their inherent and cultural values of happiness, spiritual life, self-sufficiency, self-reliance, peace, non violence, trust, cooperation and care are forced to compromise and alter their lifestyle to become an economic entity living to earn their bread and butter in terms of money and enjoy for a while if some money gets saved after meeting the physical and economic needs. They are forced to act against their ethics. They are forced to accept and work under the culture of competitive advantage and compromise. The things which they are not made for. These people are hard worker but not opportunists but government forced them to violent work culture. The current Modi Government has added more to it through their Niti Parivartan.
Can government and the political parties in India answer these people why they have been cheated? Today many of the Gandhian people are those families who even didn’t consume a single free rupee from government and lived self-sufficient self-reliant life. But, are forced to be dependent on mercy of the capitalist to earn daily wage for feeding their families. Now they have realized the hidden economic agenda of all politicians in India whatever parties they belong, and thus they are raising their voices to bring political alternatives. Government has all the rights to bring reforms and change the structure of our Economy but not to force someone to change their happy lifestyle for the benefits of few and follow lifestyle against their culture and beliefs.
Gandhian people are peaceful but it doesn’t mean that they won’t register their voices and fight for their rights. They do. They fight peacefully to get their right. And, it is their right to preserve their culture and live their life according to their belief and principles.
If the capitalist politicians keep cheating them and forcing them to alter their self-sufficient, self-reliant lifestyle and live on the mercy of daily wages for feeding their families so as to provide easy labors to the capitalists in their industries then the recent voices will become stronger to bring second fight for freedom in India.
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