Vijay Ke Blogs
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चार दिन चार डिनर और 24 टॉप उद्यमियों के साथ हाई लेवल मीटिंग! दुनिया के सबसे खतरनाक प्रीडेटर ड्रोन, भारत में जेट इंजन्स का निर्माण और बहुत ही बड़ी 3 बिलियन डालर की डिफेंस डील!
अमेरिका की फर्स्ट लेडी जिल बाइडन के निमंत्रण पर व्हाइट हाउस में जिल और जो बाइडन के साथ प्राइवेट डिनर! न्यूयार्क स्थित यूएनओ मुख्यालय में इंटरनेशनल योग दिवस पर 180 देशों के साथ योग प्राणायाम और ओंकार ध्वनि! भारतवंशी अमेरिकन और प्रवासी भारत वासियों के साथ भारत के आर्थिक उत्थान पर आत्मीय चिंतन, देशवासियों से भेंट!
जी हां, ठीक समझे। जो बाइडन के विशेष निमंत्रण पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका राजकीय यात्रा पर अमेरिका पहुंच गए हैं। उनके अनेक बड़े कार्यक्रम हैं। इतनी बड़ी डिफेंस डील से हमारे शत्रु चीन के काफी होश उड़े हुए हैं। खासकर दुनिया में केवल अमेरिका के पास उपलब्ध भयंकर ड्रोन से जो अमेरिका ने आज तक किसी को नहीं बेचे। पाकिस्तान से निपटने के तो खैर हजार साधन हमारे पास हैं, परंतु प्रिडेटर ड्रोन डील से चीन खासा परेशान है। यह यात्रा साबित करेगी कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत का जलवा कितना बरकरार है। मोदी का यह दौरा भारत को सुपर पावर बनाने की राह प्रशस्त करेगा।
मोदी की अमेरिकी विजिट से इंडो यूएस सम्बन्धों की न्यू डायनेमिक्स लिखी जाएगी। भारत ने दुनियाभर में संबंध बनाए हैं। लेकिन अमेरिका से जितने बढ़िया संबंध मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बने हैं, पहले कभी नहीं रहे। बराक ओबामा हों, ट्रंप हों या फिर जो बाइडन, उन्हें शीशे में उतरने की कला सिर्फ मोदी को ही आती है। याद रहे यह वही मोदी हैं जिन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए कांग्रेस ने अमेरिका का वीजा नहीं लेने दिया था। जबकि वे अमेरिकी उद्यमियों को गुजरात में उद्योग लगाने का निमंत्रण देने जा रहे थे। अब देखिए, उसी नरेंद्र मोदी को आज अमेरिका न केवल सर आंखों पर बैठा रहा है, अपितु मिस्टर एंड मिसेज बाइडन उन्हें अपने घर पर प्राइवेट डिनर भी दे रहे हैं।
मोदी को अमेरिका में स्टेट गेस्ट का दर्जा दिया गया है। प्रधानमंत्री दूसरी बार अमेरिकी संसद को संबोधित करेंगे। अमेरिका में बसे भारतवासियों की खुशी का ठिकाना नहीं है। अमेरिका भारत की संप्रभुता का सम्मान करता है। विश्व के वर्तमान हालात में अमेरिका को भारत की जरूरत है। भारत की कूटनीति इतनी जबरदस्त है कि रूस और अमेरिका दोनों को भारत की जरूरत है। अमेरिका को भारत में बाजार भी चाहिए और चीन पर नियंत्रण के लिए एशिया में भारत जैसा ताकतवर मित्र भी। मोदी की अमेरिका यात्रा डिफेंस और फाइनेंस की फील्ड में नया इतिहास रचेगी। आइए, इस यात्रा का आनंद लेते हैं, देश के सम्मान पर गर्व करते हैं और सुखदाई डील की प्रतीक्षा करते हैं।
2 अक्टूबर के बारे में मैं क्यूं लिख रहा हूं? शायद मेरे पूर्वाग्रह हैं। जबरदस्त पूर्वाग्रह। गांधी को लेकर दिल में हमेशा से ही कसमसाता सा है कुछ। सुलगता सा है। कोई चिंगारी। कोई लावा। कोई बहुत पुरानी भड़ास। जिसे जितना भी निकालो, उतनी ही मजबूत हुई जाती है। खत्म होने का नाम ही नही लेती। जैसे कोई बोझ लाद दिया गया हो। एक पीढ़ी पर। एक सदी पर। हमारे कंधों पर। हमारे जीवन पर। हमारी सोच पर। भीषण बोझ। गांधी के राष्ट्रपिता होने का बोझ। माफ कीजिएगा। होने का नही। एक समझौते के तहत उन्हें राष्ट्रपिता बनाकर थोप दिए जाने का बोझ। गांधी। राष्ट्रपिता? और हम सब? एक बंजर पिता के खेत की लुटी पिटी औलादें! गांधी मेरी नजर में हमेशा से ही बंजर रहे। एक बेहद ही अलोकतांत्रिक शख्सियत। बुरी तरह असुरक्षित। जिसकी सारी जिंदगी अपने विरोधियों को हाशिए पर डालने में बीती। गांधी को अंबेडकर बर्दाश्त नही हुए। मेरी नज़र में इस मुल्क के राष्ट्रपिता की पदवी पर अगर किन्हीं दो शख्सियतों का पहला हक था तो वो अंबेडकर और बोस थे। मगर राजनीतिक ताकत और रुतबे के भूखे गांधी इन दोनो से ही भिड़ गए। सिर्फ अपने स्वार्थ की खातिर। हां स्वार्थ था। निरा स्वार्थ। जबरदस्त स्वार्थ। स्वार्थ अपनी स्वीकार्यता को बनाए रखने का। स्वार्थ अंग्रेजों के सामने इकलौती राष्ट्रीय ताकत बने रहने का। मगर क्या ये ताकत वाकई राष्ट्रीय थी? मेरी नज़र में राष्ट्रीयता के खोल में छुपी हुई बेहद ही संकरी ताकत थी ये। बचपन की किताबों ने गांधी को जितना महान बताया। जवानी के पन्नों पर गांधी उतने ही धूल धूसरित नज़र आए। साल दर साल। घटनाएं दर घटनाएं। मानो ज़ेहन की सतह पर कोई चलचित्र सा घूमता हो।
सबसे पहले साल 1932। अंबेडकर दलितों के लिए पृथक निर्वाचन चाहते थे। ये सही था या गलत। थोड़ी देर के लिए इसे भूल जाइए। गांधी इससे असहमत थे। यहां तक मुझे कुछ भी गलत नही नज़र आता। अंबेडकर एक प्रस्ताव के हक में थे। गांधी उससे असहमत थे। मगर इसके आगे गांधी ने किया क्या। अंबेडकर से जीत पाने में नाकाम गांधी ब्लैकमेलिंग के बेहद ही निचले स्तर पर उतर आए। पुणे की यरवदा जेल में गांधी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया। मतलब साफ था। मेरी बात मानो नही तो जान दे दूंगा। ये बड़प्पन था अंबेडकर का कि गांधी की जान बचा ली। पूना पैक्ट पर दस्तखत कर दिए। अंबेडकर वाकई बड़े थे, बर्दाश्त कर ले गए सब। मुझे हमेशा से लगता आया है कि गोडसे ने गांधी को गोली मारकर बहुत गलत किया। ये नही करना था। गोडसे को चाहिए था कि दिल्ली के बिड़ला भवन के आगे आमरण अनशन पर बैठ जाता। गांधी और उनके चेलों के हाथ से इस देश की बागडोर छीन लो। वरना जान दे दूंगा। अमर हो जाता गोडसे। हालांकि गांधी के धुर विरोधियों की नज़र में वो आज भी अमर है। मैं गांधी का इतना भी धुर विरोधी नही।
साल 1938। सुभाष बाबू हरिपुरा अधिवेशन में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। ये दूसरे विश्वयुद्ध का दौर था। सुभाष चाहते थे कि इसका फायदा उठाया जाए। हथियार उठाए जाएं, सेना बनाई जाए। गांधी ऐसा नही चाहते थे। यहां तक मुझे कुछ भी गलत नही लगता है। सुभाष एक रास्ते के हक में थे। गांधी उसके खिलाफ थे। जिसमें दम था वो देश को आगे ले जाता। मगर फिर गांधी ने वही किया। बेहद निचले दर्जे की गुटबाज़ी। निम्न राजनीति। ब्लैकमेलिंग। जैसे कि एक घटिया मिठाई के उपर से चांदी का वरक हटा दे कोई। अब गांधी की ब्लैकमेलिंग का लेवल देखिए। या तो सुभाष रहेंगे या मैं रहूंगा। गांधी की असली रंगत अपने शबाब पर थी। रवींद्र नाथ ठाकुर गांधी को खत लिखकर प्रार्थना करते रहे। ऐसा मत कीजिए। सुभाष को काम करने दीजिए। गांधी नही माने। 1939 के कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में पट्टाभि सीतारमैय्या को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। गांधी का अहंकार अपने चरम पर था। सोचते थे कि सीतारमैय्या मेरे हैं। जीत किसी दूसरे की हो ही नही सकती। नतीजा आया। गांधी के हाथों से तोते, चील, बतख, बटेर सब एक साथ उड़ गए। सुभाष को कुल 1580 वोट मिले। गांधी के कैंडीडेट पट्टाभि सीतारमैय्या 1377 वोटों पर सिमट गए। गांधी के प्रचंड विरोध के बावजूद सुभाष बाबू 203 वोट से चुनाव जीत गए। सुभाष की जीत से बुरी तरह बौखलाए गांधी आपे से बाहर थे। हाशिए पर जाते गांधी। ये बर्दाश्त नही कर पाए। सुभाष के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। सुभाष बाबू ने इस्तीफा दे दिया। गांधी जीत गए। ऐसा ही जीतते आए थे गांधी।
1955 को बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में अंबेडकर ने कहा था कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने की पीछे की वजह सुभाष थे, “अंग्रेजों को इस बात का पक्का यकीन था कि इस देश में चाहे कुछ भी हो जाए, चाहे यहां के राजनेता कुछ भी कर लें, वे किसी भी सूरत में सैनिकों की स्वामिभक्ति (लॉयलटी) नही बदल सकते। सुभाष ने इंडियन नेशनल आर्मी खड़ी करके उनके इस यकीन की चूलें हिला दीं।”
और अब वो जिसके चलते गांधी मेरी नज़र में इस देश की आज़ादी की लड़ाई की सबसे बौनी शख्सियतों में एक हैं। साल 1929। आजाद, भगत, सुखदेव और उन जैसे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के क्रांतिकारी बंदूक और बम के ज़ोर पर देश की आज़ादी चाहते थे। गांधी सत्याग्रह और अहिंसा के दम पर। यहां तक कुछ भी गलत नही था। क्रांतिकारियों का एक मत था, गांधी का दूसरा। ये हो सकता है। ये तो होता ही है। मगर गांधी ने किया क्या? भगत सिंह और उनके साथियों ने लाहौर की असेंबली में बम फोड़ा। फांसी की सज़ा मिली। इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल से क्रांतिकारियों की अपील खारिज हो गई। गांधी बड़े नेता थे। उनसे हस्तक्षेप के लिए कहा गया। क्योंकि गांधी ऐसा कर सकते थे। गांधी की हकीकत उस वक्त के वायसराय इरविन ने बयां कर दी। इरविन ने 19 मार्च 1931 के अपने नोट में लिखा, “वापस लौटते हुए गांधीजी ने मुझसे पूछा कि क्या वे भगत सिंह के मामले के बारे में बात कर सकते हैं। क्योंकि अखबारों में छप रहा है उन्हें 24 मार्च को फांसी दी जाएगी। ये इसलिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा कि उसी दिन कांग्रेस के नए अध्यक्ष को कराची पहुंचना है। ऐसे में बेहद गरम चर्चाएं होंगी। मैने उन्हें समझाया कि मैने इस बारे में सोचा है और मुझे फांसी माफ करने का कोई कारण समझ नही आता। मुझे लगा कि गांधी जी ने मेरे दिए लाजिक को वजनी पाया।”
एकदम सही पहचाना था इरविन ने। यही असली गांधी थे। सोचिए गांधी ने 5 मार्च 1931 के गांधी इरविन पैक्ट के तहत 90 हज़ार राजनीतिक बंदियों को रिहा करवा दिया। मगर भगत, राजगुरु और सुखदेव की फांसी उनकी नाक का सवाल थी। शायद उनकी फांसी ही गांधी की जीत थी। मानो गांधी के एकछत्र राज की राह के कांटे निकल गए हों। 23 मार्च 1931 को इन क्रांतिकारियों को फांसी दे दी गई। उस वक्त के न्यूयार्क टाइम्स के मुताबिक देश में जगह जगह गांधी मुर्दाबाद के नारे लगाए गए। गाँधी को काले झंडे दिखाए गए। कराची में एक युवक ने उन पर हमले की कोशिश भी की। अब गांधी की घटिया राजनीतिक चाल का नमूना देखिए। गांधी ने वायसराय इरविन को उसी दिन एक चिट्ठी लिखी जब भगत सिंह को फांसी चढ़ाया जाना था और फांसी माफ किए जाने की अपील की। इरविन को ये पत्र तब मिला जब फांसी हो चुकी थी। चिट्ठी उसी दिन लिखी गई। और देर से मिली। गांधी एक झटके में भगत सिंह के समर्थकों की सहानभूति पाने की चाल चल गए। भगत सिंह के न रहने के बाद। एक बार फिर सामने आया। इतिहास का एक बेहद ही असुरक्षित राष्ट्रपिता, जो एक साजिश के तहत हम पर थोप दिया गया।
और आखिर में, ये राग गाना बंद कीजिए कि गांधी ने देश आज़ाद कराया। साल 1920 के दौर से ही ब्रिटेन के उपनिवेशवाद की असमय मौत शुरू हो गई थी। एक एककर ब्रिटिश कालोनियां आज़ाद होती जा रही थीं। ये वही दौर था जब देश में असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था। अंग्रेजी शासन की चूलें हिलती नज़र आ रही थीं। पर चौरीचौरा कांड की आड़ में गांधी ने अचानक ही इस आंदोलन की भ्रूण हत्या कर दी। सोचता हूं तो लगता है मानो ये भी एक साजिश थी गांधी की अंग्रेजों के इशारे पर।
साल 1919 में अफगानिस्तान अंग्रजों से पूरी तरह आज़ाद हो गया। 1922 में इजिप्ट यानि मिश्र आज़ाद हो चुका था। 1932 में इराक। 1946 में जार्डन। 1948 में इजरायल। 1948 में ही म्यांमार और श्रीलंका। 1956 में सूडान। 1960 में नाइजीरिया। 1961 में तंजानिया। 1961 में ही साउथ अफ्रीका। 1965 में मालदीव...। बड़ी लंबी लिस्ट है। ये पूरी की पूरी लिस्ट हमारे मुंह पर तमाचा मारती है। हमसे पूछती है कि आखिर कौन था जिम्मेदार? विश्वभर में फैली आज़ाद होने की प्रचंड आग के बावजूद हमें सालों साल गुलामी की जंजीरों में सड़ाने का कसूरवार? कहो तो थोड़ी और हिम्मत करूं और बोल दूं कि वही शख्स जिसे इस मुल्क ने राष्ट्रपिता के आसन पर बिठा रखा है। अगर कोई थोड़ा सा पाश का लहू मेरी रगों में दौड़ा दे तो ये भी बोल दूं कि गांधी जिस मुल्क के राष्ट्रपिता हैं, उस मुल्क से मेरा नाम अभी, इसी वक्त खारिज कर दो…। नफरत है मुझे ऐसे 2 अक्टूबर है जिसे गांधी के नाम से पहचाना जाता हो।
किताबों को खंगालने से हमें यह पता चला कि ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय’ (BHU) के संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय जी नें 14 फ़रवरी 1931 को लॉर्ड इरविन के सामने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी रोकने के लिए दया याचिका दायर की थी ताकि उन्हें फांसी न दी जाये और कुछ सजा भी कम की जाए। लॉर्ड इरविन ने तब मालवीय जी से कहा कि आप कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष है इसलिए आपको इस याचिका के साथ नेहरु, गाँधी और कांग्रेस के कम से कम 20 अन्य सदस्यों के पत्र भी लाने होंगे।
जब मालवीय जी ने भगत सिंह की फांसी रुकवाने के बारे में नेहरु और गाँधी से बात की तो उन्होंने इस बात पर चुप्पी साध ली और अपनी सहमति नहीं दी। इसके अतिरिक्त गाँधी और नेहरु की असहमति के कारण ही कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भी अपनी सहमति नहीं दी।
रिटायर होने के बाद लॉर्ड इरविन ने स्वयं लंदन में कहा था कि “यदि नेहरु और गाँधी एक बार भी भगत सिंह की फांसी रुकवाने की अपील करते तो हम निश्चित ही उनकी फांसी रद्द कर देते, लेकिन पता नहीं क्यों मुझे ऐसा महसूस हुआ कि गाँधी और नेहरु को इस बात की हमसे भी ज्यादा जल्दी थी कि भगत सिंह को फांसी दी जाए।”
प्रोफेसर कपिल कुमार की किताब के अनुसार “गाँधी और लॉर्ड इरविन के बीच जब समझौता हुआ उस समय इरविन इतना आश्चर्य में था कि गाँधी और नेहरु में से किसी ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को छोड़ने के बारे में चर्चा तक नहीं की।”
लॉर्ड इरविन ने अपने दोस्तों से कहा कि ‘हम यह मानकर चल रहे थे कि गाँधी और नेहरु भगत सिंह की रिहाई के लिए अड़ जायेंगे और हम उनकी यह बात मान लेंगे।’
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी लगाने की इतनी जल्दी तो अंग्रेजों को भी नही थी जितनी कि गाँधी और नेहरु को थी, क्योंकि भगत सिंह तेजी से भारत के लोगों के बीच लोकप्रिय हो रहे थे जो कि गाँधी और नेहरु को बिलकुल रास नहीं आ रहा था। यही कारण था कि वो चाहते थे कि जल्द से जल्द भगत सिंह को फांसी दे दी जाये, यह बात स्वयं इरविन ने कही है।
इसके अतिरिक्त लाहौर जेल के जेलर ने स्वयं गाँधी को पत्र लिखकर पूछा था कि ‘इन लड़कों को फांसी देने से देश का माहौल तो नहीं बिगड़ेगा?’ तब गाँधी ने उस पत्र का लिखित जवाब दिया था कि ‘आप अपना काम करें कुछ नहीं होगा।’
इस सब के बाद भी यदि कोई गांधी, नेहरू और कांग्रेस को देशभक्त कहे तो निश्चित ही उसकी बुद्धिमत्ता पर रहम भी और हमें उस पर गुस्सा भी आएगा।
RTI के माध्यम से खुद भी जानकारी निकाल सकते है लार्ड इरविन के रिकार्डस की अगर सरकारी रिकार्डस मे से जानकारी निकालेंगे तो आपकी शंका खुद ही दूर हो जायेगी।
मतलब कांग्रेस और कांग्रेसीयों का चरित्र शुरु से ही दोगला रहा है
शुरुआत में, मुझे पहलवानों के विरोध के प्रति 100% सहानुभूति थी; लेकिन मेरी सहानुभूति संदेह में बदल गई जब उन्होंने दावा किया कि बृजभूषण सिंह द्वारा 1000 लड़कियों का यौन उत्पीड़न किया गया था, फिर भी वे एक भी नाम प्रदान करने में असमर्थ थे।
पहले विनेश फोगट और साक्षी मलिक ने कमेटी के सामने दावा किया कि एक महिला फिजियो को परेशान किया गया, फिजियो ने परेशान होने से इनकार किया।
तब विनेश फोगट ने आरोप लगाया कि 2015 में तुर्की यात्रा के दौरान उन्हें और साक्षी मलिक को परेशान किया गया था, लेकिन बृजभूषण सिंह टीम के साथ तुर्की नहीं गए।
तब विनेश फोगट ने दावा किया कि वह सटीक तारीख भूल गई, यह वास्तव में 2016 में मंगोलिया दौरे के दौरान था, फिर से समिति ने जांच की और पाया कि बृजभूषण सिंह मंगोलिया दौरे के दौरान भी टीम के साथ नहीं थे।
उसके बाद, उन्होंने दावा किया कि नाबालिगों सहित हजारों लड़कियों को परेशान किया गया। समिति ने उनसे कुछ नाम बताने को कहा। हम उनके नाम नहीं जानते, लेकिन ऐसा हुआ, प्रदर्शनकारी पहलवानों ने कहा।
और फिर वे यह दावा करते हुए सड़क पर आ गए कि सरकार कार्रवाई नहीं कर रही है क्योंकि आरोपी भाजपा सांसद है।
दिलचस्प बात यह है कि उनमें से किसी ने भी बृजभूषण सिंह के खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की और उन 1000 पीड़ितों में से कोई भी अपने दावों को साबित करने के लिए सामने नहीं आया।
यह देखते हुए कि वे खेल हार रहे हैं, एथलीटों ने विरोध में शामिल होने के लिए विपक्षी राजनीतिक दलों को बुलाया। फौरन पप्पू यादव, प्रियंका गांधी, सत्यपाल मलिक, स्वरा भास्कर, राकेश टिकैत, प्रकाश राज, केजरीवाल आदि जैसे पात्र दौड़ पड़े। ''मोदी तेरी कबर खुदेगी'' के नारे लगे।
सुप्रीम कोर्ट ने दखल दिया और दिल्ली पुलिस को बृजभूषण सिंह के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने को कहा। एफआईआर दर्ज होने के बाद पहलवान कहने लगे कि हमें दिल्ली पुलिस पर भरोसा नहीं है; भले ही CJI ने कहा है कि वह व्यक्तिगत रूप से इसकी निगरानी करेंगे।
वे अपने आरोपों का ब्योरा और सबूत देते हुए खुद प्राथमिकी दर्ज नहीं कराना चाहते।
वे नहीं चाहते कि दिल्ली पुलिस मामले की जांच करे।
वे अदालती सुनवाई नहीं चाहते।
उन्होंने समिति की रिपोर्ट (जिसकी अध्यक्षता दिग्गज मैरी कॉम कर रही थीं) को खारिज कर दिया।
वे ऐसी एक भी लड़की को पेश नहीं कर सके जिसका उत्पीड़न किया गया हो।
वे केवल इतना चाहते हैं कि बृजभूषण सिंह को उनके पद से बर्खास्त कर दिया जाए और बिना किसी मुकदमे के दंडित किया जाए; सिर्फ विनेश-साक्षी के “मौखिक बयान” पर वो भी मीडिया में, कोर्ट में नहीं।
बजरंग पुनिया की पत्नी संगीता फोगट ने एक इंस्टाग्राम पोस्ट डाली है जिसमें धमकी दी गई है कि वे मोदी को कुचल देंगे और जाट वर्चस्व के बारे में बात करेंगे।
यदि आप बारीकी से देखें, तो बजरंग पुनिया और संगीता फोगट की पति-पत्नी की जोड़ी और उनकी बहन विनेश फोगट विरोध का नेतृत्व कर रहे हैं; साक्षी मलिक के साथ। यहां तक कि गीता और बबीता फोगाट ने भी खुद को इस विरोध से अलग रखा है।
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