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नई कहानी हुण्डी को थोड़े दुलार और अधिक सुधार करने का मिला। इससे प्रयास करने का मनोबल बढ़ा है।आभार 🙏🏽

“कहानी और प्रस्तुतीकरण बहुत अच्छा है, लेकिन परिमार्जन की आवश्यकता है।
भाषा पर पकड़ कहीं-कहीं ढीली है।”
-डॉ. अलका शर्मा

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15/11/2023

हुण्डी (कहानी)

फलते-फूलते शहर का वह मन्दिर। उस मन्दिर में कोई लक्ष्मी जी की मूर्ति नहीं थी, परन्तु उसमें लक्ष्मी का जैसे साक्षात वास था। किसी धार्मिक स्थल की संपन्नता उसके आस-पास बसे लोगों की धनाढ्यता पर निर्भर करता है। इससे अधिक उन लोगों की उदारता मायने रखती है। आए दिन मन्दिर में सोने-चाँदी के चढ़ावे चढ़ते थे। मन्दिर में माथा टेकने की जगह से अधिक हुण्डियाँ (दानपात्र) विराजमान थीं। आदमी अगर दो-चार हुण्डियों को अनदेखा कर भी दे, बिना इनमें कुछ दान किए मन्दिर की चौखट पार नहीं कर सकता था। जैसे हुण्डियाँ बोलती रही हों कि अब बहुत अनदेखी कर लिये, प्रभु सब-कुछ देख रहे हैं। इस आध्यात्मिक अपराध बोध की अनदेखी कोई कैसे कर सकता था! ईश्वर लोगों की मन्नतें पूरी करते और लोग मन्दिर की हुण्डी स्वेच्छा से ही भरते जाते। मन्दिर संस्कृति के केन्द्र के रूप में था। समय-समय पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन करवाता था। इन कार्यक्रमों के टिकट लगते थे। इन आयोजनों से मन्दिर के खज़ाने में रातों-रात बढ़ोत्तरी होती थी। आते-जाते लोग हुण्डी में अपनी श्रद्धा से जो दान देते, वो तो अलग से बोनस! मन्दिर में जगह-जगह दान करने की विभिन्न विधियों के विज्ञापन लगे थे। अपने सामर्थ्य के अनुसार फूल-माले, अंग-वस्त्र से लेकर बिल्डिंग बनवाने तक का बेड़ा उठाया जा सकता था। मन्दिर तकनीक के मामले में ज़माने के साथ चल रहा था। ‘फ़ोन-पे’, ‘पेटीएम’, ‘भीम’ इत्यादि द्वारा भी दान किया जा सकता था। बड़े-बड़े क्यू. आर. (QR) कोडों के बीच में देवी-देवताओं की झाँकती तस्वीरें! वे जैसे उनकी तस्वीर खींचने का निमंत्रण दे रही हों। नगद की बड़ी राशि के अलावा, ट्रस्ट, वसीयत, सिक्योरिटीज़ इत्यादि अन्य माध्यामों से भी श्रद्धा-सुमन अर्पित किए जा सकते थे। कुल मिलाकर मन्दिर के कोष का वर्तमान और सुदूर भविष्य बहुत ही सुनहरा था।

मन्दिर का प्रशासन बोर्ड के हाथों में था। बोर्ड में चेयरमैन/चेयरवुमन, अध्यक्ष के अतिरिक्त कुछ सदस्य होते थे। सभी पदों का चयन एकदम लोकतांत्रिक था। प्रभु में निष्ठा और मन्दिर के प्रति समर्पण के आधार पर भक्तगण अपने चहेते, श्रेष्ठ भक्त को बोर्ड में चुनकर भेज सकते थे। जब मन्दिर के पास इतनी धनराशि हो, तो उसका प्रबन्धन देखने के लिएउम्मीद्वार की ईमानदारी तो सबसे बड़ी योग्यता होती थी। साथ ही वह इन पैसों का सही निवेश करके और कैसे बढ़ा सकेगा, इस योग्यता पर भी समान बल रहता था। बोर्ड के संरक्षण में मन्दिर के मणि की आभा निरन्तर फैलनी चाहिए थी।

कबीर जी लगभग सत्तर साल के थे। वे पिछले पाँच सालों से मन्दिर ट्रस्ट के चेयरमैन थे। बचपन में धर्म-कर्म की सीख परिवार के माहौल ने उनको दी। तभी से ईश्वर में उनकी गहरी आस्था विकसित हो गई और भक्ति उनको विरासत में मिली। इस मन्दिर के प्रबन्धन का काम उन्होंने ज़मीनी स्तर से शुरू किया। मन्दिर में उनका सबसे पहला योगदान श्रद्धालुओं के जूते-चप्पलों को सम्भालने का था। जनता के जूतों से जनता जनार्दन के मुकुट तक की ज़िम्मेदारी पूरी ईमानदारी से उन्होंने निभाई। उनकी इस कर्त्तव्यपरायणता ने उनको मन्दिर-प्रबन्धन की सबसे ऊँची सीढ़ी चढ़वा दी। अब तो वो अपने जीविका के काम से भी अवकाश प्राप्त कर चुके थे। इसलिए अपना सारा समय भगवान की भक्ति में लगा दिये थे। मन्दिर भगवान का घर होता है। कबीर भगवान के पड़ोसी हो गए थे। दिन-रात वही काम-काज में व्यस्त रहते।
नौजवान सुरेश मन्दिर में काग़ज़-पत्तरों का काम देखता था। कहने को उसकी पोस्ट क्लर्क की थी, मगर मन्दिर प्रशासन उससे क्लर्क और अर्दली का दोहरा काम लेता था। वह धार्मिक कर्मकाण्डो में कच्चा था, लेकिन अपने एकहरे शरीर से दोहरी ज़िम्मेवारी बड़ी फूर्ति से पूरी करता था। वो बोलता कम था। वो इसलिए नहीं कि उसको बोलना नहीं आता था। बल्कि इसलिए कि एक अर्दली की कोई सुने कौन! उसके माथे पे चौथे क्लॉस का टीका जैसे उसकी बुद्धि को छू गया हो। जब कोई उसकी बातें सुनने को राज़ी होता, तो उनके भार से उबर नहीं पता था। बातों में वज़न होता था ! शाम का समय। सभी श्रद्धालु दर्शन-पूजन करके जा चुके थे। आज सप्ताह का वह दिन था, जब सुरेश को एक-दो घण्टे की बेग़ारी करनी पड़ती थी। मतलब बिना भुगतान के ओवरटाइम। नौकरी करने वाले लोगों से कैसे बर्ताव होने चाहिए यह मन्दिर सीख चुका था। आज की शाम शुक्रवार की शाम थी। सारी हुण्डियाँ के खुलने की शाम। लोगों की साप्ताहिक छुट्टियों के दिन हुण्डियों को सबसे अधिक काम आना पड़ता था। शुक्रवार को ख़ाली होकर वे शनिवार और रविवार को आने वाले श्रद्धालुओं के स्वागत में तैयार रहतीं। सारी हुण्डियों को खाली कर कबीर मन्दिर के कार्यालय पहुँचे। दो बड़े-बड़े झोले उनके दोनों कंधों से ऐसे लटक रहे थे, जैसे कोई कहार अपनी क्षमता से अधिक छलकता हुआ पानी ढो रहा हो। उन्होंने झोलों को उतारकर मेज़ पर आहिस्ते रखा। बैंकों में नोटों को गिनाने की मशीन होती है। मन्दिर के पास भी एक थी। उस मशीन को सुरेश ने पहले-से ही लगा रखा था! नोटों की बड़ी-से-बड़ी संख्या को भर्र से गिनने के लिए। कबीर ने उन झोलों को उड़ेला। मेज़ जैसे नोटों की प्रिंटिंग प्रेस की तरह बिछ गई हो। लेकिन इनमें से एक भी नोट कोरी या सीधी न थी। सबकी-सब नोटें सूखे हुए महुओं की तरह सिमटी हुई थीं। जैसे श्रद्धालुओं ने उनको अपने वॉलेट या पर्स से नहीं, बल्कि रूमाल की गाँठ से निकाला हो। दान में मिले सिक्कों के साथ सौतेला व्यवहार हुआ। उनको मेज़ नसीब न हुई। एक डब्बे में समाना पड़ा। नोटों को गिनना था। उससे पहले नोटों को छँटनी ज़रूरी थी। आम तौर पर सुरेश को कबीर रूखेपन से बुलाया करते थे। बस एक यही काम ऐसा था, जब सुरेश को चेयरमैन साहब से पुचकार मिलती। सुरेश को नाराज़ कर दिया तो १०० के नोट १० के साथ भी चुने जाने का भय था। फिर भी नोटों को देखकर किसका ईमान कब डोल जाए! कबीर नोटों की पूरी छँटनी-गिनती CCTV कैमरे के सामने ही करवाते थे। सुरेश मशीन रख के दूर अपनी कुर्सी पे बैठ गया। कबीर ने स्नेह भरे स्वरों में ,” भई, आज तो बहुत है, आओ फ़टाफ़ट गिनके घर चलें।” सुरेश को पता होता था कि कबीर क्या कहने वाले होते। इसलिए कबीर की बात ख़त्म होने तक सुरेश तीर की तरह मेज़ पर आ पहुँचा। नोटों की छँटाई-बिनाई शुरू हुई। सबसे कठिन काम सुरेश को मिलता था। २, ५ और १०, २० के नोटों को छाँटने का। इनकी संख्या हुण्डी में अधिक होती थी। ५० और उससे ऊपर के नोटों को छाँटने का काम कबीर का होता। सुरेश २ के नोट चुनना शुरू किया। घण्टे भर छँटाता रहा। हुण्डी के सारे नोट इतने अकड़े होते कि सीधे होने का नाम ही लेते थे। कई बार सुरेश ने नोटों को ज़ल्दी से सीधा करने के लिए स्त्री (iron) करने का प्रस्ताव कबीर को दिया। लेकिन जलने के भय से कबीर ने उसपे अमल नहीं किया। सुरेश विचित्र क़िस्म की नोट मिलने पर कबीर से पूछ लिया करता था कि इनके साथ क्या किया जाए! काफ़ी देर तक दो की संख्या को हेरता हुआ सुरेश कबीर के सामने एक नोट रख दिया, साहब, इसका क्या करना है?” नोट दो टुकड़ों में था। मशीन गिन नहीं सकती थी। कबीर नोट को परखे, जैसे कोई सोनार सोने को बारीक़ी से परखता है। दोनों टुकड़ों को मिलाने पे नोट का सरकारी नम्बर पूरा हो रहा था। कबीर एक वित्तीय विशेषज्ञ की तरह बोले, “ अलग रख दो। नम्बर पूरे हैं, चल जाएगी।”

जब नोटों की ऊँचाई मशीन में गिनने भर की हो जाती, कबीर उनको फर्र से गिनकर रबर बैण्ड लगा देते।बिनाई -छँटाई-गिनाई के दौरान कबीर बगुले की तरह ध्यान लगाते। लगभग मौन। उनकी आवाज़ केवल दो चीज़ों के लिए निकलती थी। एक सुरेश के कुछ पूछने पर निर्देश देने के लिए, दूसरी किसी बड़ी नोट के मिलने पर अनैच्छिक क्रिया की तरह, जैसे बड़ी नोट कण्ठ में घण्टी बजा रही हो। आज कबीर बहुत बोल रहे थे। २००० के नोट उनको काफ़ी मिल रहे थे। इस बात से प्रसन्न कबीर को सुरेश ने छेड़ा, "साहब, ज़ल्दी से बैंक में डाल दीजिएगा, बड़े नोट आजकल लम्बे नहीं चल पा रहे हैं। सरकार इनको सैर-सपाटा करवाकर वापस बुला ले रही है!” कबीर के खिले चेहरे पर जैसे पाला मार दिया। वे बोले, “ भगवान का पैसा है, कोई काला धन नहीं…।” आवाज़ में पहले से अधिक आत्मविश्वास था। जैसे वो सुरेश को फ़ायनेंस के लेक्चर से अधिक ख़ुद को दिलासा दे रहे हों। सुरेश ने पिनकाने की बची-खुची कसर पूरी कर डाली, “ क्या पता कोई काला धन हुण्डी में छुपा रहा हो!” कबीर इन सवालों के काग़ज़ी उत्तर जान रहे थे। उनको पता था मन्दिर में आने से पहले धन का चाहे जो रंग रहा हो, प्रभु के चरणों में वो दूध का धुला हो जाता है। अपनी अंतर्रात्मा के थोड़े-से भी सम्पर्क में रहने वाला पहले संवेदनशील होता है, बाद में और कुछ। इसलिए सुरेश की इन कुरेदने वाली बातों से वे हिल गए। बीच-बीच में कुछ दूसरे देशों के नोट भी मिल रहे थे। कबीर का सीना चौड़ा हो गया कि अब श्रद्धालु विदेशों से भी आने लगे हैं। मशीन में गिनने के बाद नोटों में रबर बैंड लगती। नोटों की गड्डियाँ मेज़ पर ऐसी रौनक़ बिखेरतीं, जैसी रौनक़ बैंक में होती है। किसी नेता या व्यवसायी के यहाँ काले धन के पकड़े जाने की तस्वीर अख़बार में इतनी ही छटा बिखेरती है। छँटनी में सुरेश को फिर एक विचित्र काग़ज़ मिला। यह कोई विदेशी नोट या चेक नहीं था। यह एक पत्र था। सुरेश ने अपने आपको पत्र पढ़ा। लिखावट और भाषा शैली से किसी बच्चे का मालूम हुआ। उसमें लिखा था,

“प्यारे भगवान जी! मैं आपको हर शनिवार को लेटर लिखता हूँ। पर आप उत्तर ही नहीं देते। कोई बात नहीं। मेरे पापा कहते थे कि आप एक दिन ज़रूर सुनेंगे। मुझे पापा ने बताया था कि आप डिवोशन (आस्था) की परीक्षा लेते हैं। मैं स्कूल की हर परीक्षा में फ़र्स्ट आता हूँ। आपकी परीक्षा भी पास ज़रूर करूँगा। माँ कहती है कि आपको जो लोग प्यारे होते हैं, उनको अपने पास बुला लेते हैं। मेरे पापा को आपने क्यों बुलाया? मैं उनको आपसे अधिक प्यार करता हूँ। उनको मेरे पास भेज दीजिये। अब पापा नहीं हैं, घर की सारी रेस्पोंसिबिलिटी (ज़िम्मेदारी) मम्मी की है। मुझे लगता है कि हम भाई-बहनों की स्कूल पूरी नहीं हो पाएगी। अनपढ़ कहलाये जाने की बात से हम बहुत डरे हुए हैं। माँ बहुत दुःखी रहती है। हम सभी के पास डर और दुःखों का सरप्लस (अधिकता) हो गया है। पापा के साथ मन्दिर आते वक़्त वो मुझे बताया करते थे कि जो भी चीज़ हमारे पास अधिक हो जाए उसे भगवान को दान कर देनी चाहिए। इससे आदमी का बोझ कम रहता है। आप हमारे डर और दुःख ज़ल्दी से ले लीजिए। ये अब बहुत अधिक हो रहे हैं। - रोहन”

इस चिट्ठी को पढ़ने पर सुरेश मुस्कुराया और अपने आपसे बोला कि वाक़ई में बच्चे भगवान का रूप होते हैं! इतनी मासूमियत! बच्चे ने हुण्डी में अपने दुःखों को ही दान दे डाला। उसने इस चिट्ठी को कबीर के सामने रख दिया। यह पहली ऐसी चिट्ठी नहीं थी। इस बच्चे ने कई महीनों से हुण्डी में ऐसी चिट्ठियाँ डाली थीं। कबीर की मशीन केवल नोट गिनकर रखती थी, गिनकर बाँटना उसने सीखा नहीं था। कबीर को बच्चे की याचना पता थी। उसको स्कूल की फ़ीस भगवान से भरवानी थी। कबीर ने चिट्ठी को हाथ में लिया और उसे मोड़कर दूर फेंक दिया। सुरेश नीलकण्ठ की तरह विष पी कर लाल हो उठा! नौकरी करने के ख़याल ने उसे ठण्डा किया। वह एकदम मौन हो गया। बचे हुए नोट उसने चुने। वह चुपचाप उठा और उस चिट्ठी को उठाया। कोरे ख़त के काग़ज़ का हाल तोड़-मोड़कर हुण्डी में डाले नोटों जैसा हो चला था। फिर सुरेश उस चिट्ठी को उठाते हुए अपनी कुर्सी पकड़ लिया। मशीन भी फ़र्राटा भरना बन्द कर दी। कबीर ने टोटल जोड़ा और सन्तोष की गहरी साँस ली। एक हल्क़ी मुस्कान उनके चेहरे से झाँक रही थी। इस मुस्कान का मतलब था कि इस सप्ताह का टोटल पिछले से अधिक था। सिक्कों के साथ दोबारा सौतेला व्यवहार हुआ, उनकी कोई गिनती नहीं हुई। डब्बे से उन्हें बड़े से बोरे में भर दिया गया। ठीक वैसे ही जैसे झोले का अनाज बड़ी बोरी में झर-झराकर उड़ेला जाता हो।

कबीर के इस व्यवहार पर सुरेश को तनिक भी अचरज नहीं हुआ। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। क्योंकि किसी भी अप्रत्याशित चीज़ का आश्चर्य सिर्फ़ पहली बार होता है। उसके बाद अप्रत्याशित अपेक्षित हो जाता है। उसका होना आदत हो जाता है। फिर धीरे-धीरे उसका न होना अप्रत्याशित लगने लगता है। सुरेश ख़ुद बच्चे की प्रार्थना सुनने की प्रभु से प्रार्थना करता था। ख़तों के साथ दुर्व्यवहार और पक्षपात की सीमा कबीर थे। डोनेशन के लिए आए ख़तों की VIP ख़ातिरदारी। विद्यालय, अनाथालय, हस्पताल दूसरे छोटे मन्दिर आदि जगहों से आने वाले पत्रों से कबीर को परहेज़ था। वे उनका ब्लड प्रेशर (रक़्त चाप) बढ़ाते थे। इस प्रकार ख़त को सम्मान या कूड़ेदान भाग्य में मिलते थे।

कबीर हाथों में नोटों की गड्डियों को लेकर अलमारी में रखने के लिए उठे। पीछे मुड़ते ही सुरेश प्रेत की तरह खड़ा मिला। कबीर डर गए, “ जासूसी कर रहे हो मेरी… कितनी बार कहा है कि थोड़ा खाँस-खखार लिया करो। हॉर्ट पेशेंट ( हृदय रोगी) हूँ। क्या चाहते हो, मन्दिर में सीधे मोक्ष पा जाऊँ!” सुरेश को पता था कि इन सवालों को केवल सुनना है, उत्तर नहीं देना है। सुरेश के हाथ में चिट्ठियों की एक गड्डी थी। ये सारी उसी बच्चे की चिट्ठियाँ थीं। सुरेश सारी फेकी हुई चिट्ठियों को सम्भाल के रखा लेता था। कबीर को समझ नहीं आ रहा था कि सुरेश क्या करना चाहता था! रात का समय था। मन्दिर में और कोई आदमी बचा भी नहीं था। कबीर कहीं सुरेश के हवाले तो नहीं हो गए थे! मामला पैसों का था। कहीं सुरेश आज मन्दिर को लूटना तो नहीं चाहता! सुरेश की नज़र उन चिट्ठियों पर पड़ी। अपने डर पर नक़ली नुक़सान ओढ़ाते हुए बोले, “ अभी तक तुमने इनको फेंका नहीं!” सुरेश ने कहा, “ साहेब, छोटा मुँह बड़ी बात... लेकिन मन्दिर को बच्चे की आस्था के लिए कुछ करना चाहिए।” कबीर, सुरक्षा को लेकर पहले से कुछ अधिक आश्वस्त हो गए। कम-से-कम सुरेश की नीयत तो साफ़ निकली! सुरेश उनसे मन्दिर के पैसे बच्चे को देने के लिए कह रहा था। जब भी कोई मन्दिर से पैसे माँगता, कबीर की मांस पेशियों में एकाएक एक तनाव आ जाता और वो पैसों के बचाव के लिए आक्रामक हो जाते। उन्होंने सुरेश के छोड़े हर तीर की ढाल निकाली। बोले, “ देखो, इस मन्दिर को चलाने के लिए बहुत पैसे चाहिए। अगर हम यूँ ही बाँटने लगे, तो मन्दिर को खण्डहर बनते देर नहीं लगेगी। उस बच्चे को लेकर तुम बहुत भावुक हो रहे हो। आख़िर तुम्हारा क्या लगता है वो!” ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ पर घण्टों भाषण देने वाला अगर यह सवाल पूछे, तो ज़रूर उसने अपनी आत्मा गिरवी रखी होगी। सुरेश ने कुछ उत्तर नहीं दिया। कबीर ने अपना वित्तीय लेक्चर चालू रखा, “ जो मन्दिर अपने सम्पत्ति का प्रबन्धन अच्छे-से नहीं कर पाते, वो डूब जाते हैं। क्या चाहते हो कि एकदिन तुम भी बेरोज़गार होकर घर बैठो?” सुरेश सब-कुछ सुन रहा था। समझ रहा था।फिर भी चुपचाप था। किसी वाद-विवाद में एक पक्ष बहुत देर तक नहीं बोल सकता! उसको जारी रखने के लिए दूसरे पक्ष की सहभागिता चाहिए होती है। कबीर की यह सारी दलीलें सुरेश के लिए नहीं थीं। स्वयं कबीर को दिलासा देने के लिए थीं। कहीं-न-कहीं, भीतर कबीर को यह आभास था कि सुरेश की बात कम-से-कम सुनी जानी चाहिए। अमल तो बाद की बात है। सुरेश ने सारे ख़त एक के ऊपर एक करके मेज़ पर रखना शुरू किया। पानी की एक बूँद पत्त्थर को केवल नम करती है, कई सारी बूँदें उसपे निशान करती हैं। कबीर के साथ भी यही हुआ। इतने सारे ख़तों की पुड़िया बनाकर फेंक देना! एक-एक ख़त जैसे अपनी उपेक्षा की उलाहना दे रहा हो। कबीर अन्दर से कुछ असमंजस में पड़ गए ।वो कहना कुछ और चाहते थे, लेकिन उनसे कहा कुछ और ही जा रहा था। पहली बार वो सुरेश से नज़र चुराकर बोले “ इस बच्चे का भाग्य भगवान तय करेंगे। वही भाग्यविधाता हैं।” सुरेश ने आदर के साथ बोला, “ साहब, क्या पता भगवान आपके हाथों ही इस बच्चे का भाग्य लिखवाना चाहते हों!” भगवान का दरबार हो और जैसे सुरेश ने कबीर को कठघरे में खड़ा कर दिया हो। कबीर निःशब्द थे। जो तार्किक प्रतिक्रिया ज़बान पे थी, उसको लगाम लगाया। सुरेश जारी रहा, “ भगवान पालनहार हैं। लोग मन्दिर को दान देते हैं, प्रभु की उन पर कृपा है। कुछ लोग ज़रूरत में हैं, तो भगवान चाहेंगे कि मन्दिर से उनकी मदद हो। भगवान मन्दिर के माध्यम से यह संतुलन बनाना चाह रहे हों। आप ऐसे मानिए कि भगवान का एक हाथ दानवीरों के सिर पर हो और दूसरा हाथ ज़रूरतमंदों का हाथ थामे हो।” सुरेश के लेक्चर सुनके कबीर झेंपने-से लगे। उनके बचाव के तरकश में तीर कम न थे, बोले “ हमें लेक्चर मत दो। मन्दिर की समाज कल्याण कमेटी के बारे में शायद तुम नहीं जानते।” सुरेश झट-से मन्दिर का वित्तीय लेखा-जोखा उठा लाया। पन्ने उलट-पलट कर दिखाने लगा, “ साहब! कमेटी केवल नाम की है। ये देखिए, पिछले कई सालों में एक भी काम ज़मीनी स्तर पे नहीं हुआ है। भला अख़बारों में छपवाने से कभी समाज का कल्याण हुआ है !” पहली बार सुरेश की दलीलों में लक्ष्मण जी वाला तपाक था। जैसे लक्ष्मण परशुराम के सामने निर्भयता से अपना पक्ष रख रहे हों। कबीर को वास्तविकता के धरातल मालूम थे। कल्याण कमेटी काग़ज़ी पर ही थी। वो यह लगभग स्वीकार कर चुके थे कि मन्दिर का व्यवहार नैतिक संगत नहीं है। मगर उनका अहम अभी मानने को राज़ी न था। चेयरमैन एक अर्दली के आगे झुक जाए! अब वो इस संवाद से कन्नी काटने लगे। कबीर ने बोला, “ अच्छा, बातें बहुत करने लगे हो। घर में बीवी-बच्चे राह देख रहे होंगे। चलो कुछ कल के लिए रहने देते हैं।” सुरेश को लगा जैसे कबीर के न्यायाधीश ने मुक़द्दमे की अगली तारीख़ दे दी हो! वह भी अपना झोला बाँधने लगा। उधर कबीर राहत की साँस ले रहे थे। शाम की विदाई देते समय सुरेश ने बोला, “ साहब, मेरे पिता जी कहते थे कि दुनिया केवल बाँटने वालों को ही याद रखती है, बटोरने वालों को वो भुला देती है। मन्दिर को दुनिया कितनी याद करेगी, यह आप पे निर्भर करता है। शुभ रात्रि आपको।” यह कहते हुए सुरेश झट से निकल गया। आलमारी में ताला लगाके कबीर भी घर के लिये निकले। सुरेश के तीर उनकी मूर्छित अंतर्रात्मा को अभी भी भेद रहे थे। हर तीर का घाव जैसे आत्मा को जगाकर हरा कर रहा था। रास्ते भर वो सुरेश की बातों को दोहराते रहे। उनको अपनी संवेदना रहित दलीलों का दुःख भी था। निजी कम्पनी में कार्यकाल स्वर्णिम था । मगर कब ऊँची कुर्सी ने उनकी संवेदना छीन ली, उनको पता ही नहीं चला। कुर्सी, बैठने के लिए होती है। यदि उसकी ऊँचाई सिर चढ़ बैठे, तो आदमी काठ का हो जाता है। सुरेश ने इस काठ को छेद-छेदकर फिर से मानव बनाया था। शाम को घर मेंरौशनी थी, मगर कबीर बुझे-बुझे-से थे। शाम को पूजा-पाठ पूरी किए। वो भगवान से भी नज़रें चुराकर ही रह रहे थे। ऐसा लग रहा था कि सुरेश की आवाज़ में भगवान बोल रहे हों। सोने गये, लेकिन नींद पास नहीं आ रही थी। कुन्तल भर बोझ रखे जाने जितना भारी उनका मन था। नशा कुछ था नहीं कि नैतिक अपराध बोध को नींद में सुला सकें। सुरेश ने अपनी ग़लती अपने आप मानी। आधी रात को उन्होंने फ़ोन उठाया। सुरेश को लगाया। सुरेश गहरी नींद में था । दो-तीन बार घण्टी बजने पर आधी नींद में ही फ़ोन हाथ में लिया। इतनी रात गए चेयरमैन साहब! कहीं सचमुच तो हार्ट अटैक नहीं आ गया! या फिर कोई मन्दिर में डाका तो नहीं डाल दिया! इन सब आकलनों के बीच उसने फ़ोन उठाया। उधर से कबीर की भर्राई हुई आज थी। वो क्षमा माँग रहे थे। आँखें खोलने के लिए आभार भी प्रकट कर रहे थे। सुरेश को लगा कि वो सपना देख रहा था। यह व्यवहार अप्रत्याशित लगा। इस समय वो किसी भी बातचीत की स्थिति में नहीं था। अच्छा, जी, साहब,, इनसे काम चलाकर शुभरात्रि बोल दिया।

अगला दिन शनिवार का था। मन्दिर श्रद्धालुओं से भरा हुआ था। सुरेश आज समय से कुछ ज़ल्दी ही मन्दिर पहुँच गया था। उसने अनाथालयों, चिकित्सालयों, इत्यादि मदद की गुहार लगाने वाली सारी चिट्ठियाँ इकट्ठा कर लीं। आज उनके साथ भगवान न्याय करने जा रहे थे। देर से ही सही, उनको उत्तर भेजे जाने का समय आ गया था। हर शनिवार को वो बच्चा रोहन अपनी माँ के साथ मन्दिर आता था। सुरेश को उस बच्चे की पहचान करनी थी। सुरेश भगवान के ठीक सामने रखी हुण्डी पर घात लगाकर बैठा। चिट्ठी उसी हुण्डी से निकला करती थी। रोहन की पहचान हो गई। लगभग १० बरस का एक दुबला-पतला लड़का। हुण्डी में चिट्ठी डालकर वो भगवान के सामने माथा टेकने गया। सुरेश उसके पीछे जाकर पुकारा, “ रोहन बेटा!” रोहन को लगा कि भगवान की आवाज़ इंसान जैसी ही होती है। सुरेश ने उसके कंधे पर हाथ रखकर अपनी ओर ध्यान खींचा, “ रोहन, भगवान ने आपका सारा दान स्वीकार कर लिया है। मुझे उन्होंने ही आपके पास भेजा है।” रोहन को भरोसा नहीं हो रहा था, “ आपको मेरा नाम कैसे पता है?” सुरेश, “ बीटा, मुझे भगवान ने आपका नाम बताकर भेजा है।” रोहन को भगवान पे पूरा भरोसा था। इस भरोसे से उसने सुरेश पर भरोसा किया। सुरेश, “ अब आपका स्कूल चलता रहेगा।” रोहन बहुत ख़ुश हुआ।

उधर कबीर रोहन की माँ से मिलकर उनकी शिक्षा-दीक्षा के बारे में पूछ रहे थे। उन्होंने रोहन की आशा-आस्था भरी सारी चिट्ठियाँ रोहन की माँ को दिखाईं। नादानी भरी चिट्ठियाँ, वो भी हुण्डी में ! माँ माफ़ी माँगने लगीं। कबीर ने उनको मन्दिर में खाली पद पर काम करने का प्रस्ताव दिया। एक विधवा के प्रति इतनी सहानुभूति! माँ बड़ी असमंजस में थीं। फिर ख़ुद को भगवान के पवित्र का मंदिर का वास्ता देकर उन्होंने समझा लिया। उन्होंने सोचने-विचारने का समय माँगा। कबीर ने उनको ऑफ़र लेटर देते हुए कहा, “ समय ले लीजिए। आपको उचित लगे, तो आपका स्वागत है। अन्यथा समाज कल्याण कमेटी बच्चों की पढ़ाई का ध्यान अवश्य देगी।” रोहन अपनी माँ के साथ हँसी-ख़ुशी वापस घर चला गया। वे दोनों आस्था और उम्मीद का प्रसाद भी साथ ले गये। कबीर ने सुरेश से बोला, “ सुरेश, मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं गंगा नहा लिया हूँ। बड़ा हल्का रहा है ।” सुरेश ने सुबह इकट्ठी की गई याचना वाली सारी चिट्ठियाँ उनके सामने रख दी और बोला, “ ये लीजिए साहब, महादेव की जटा।” कबीर समझे नहीं। सुरेश बोला, “ गंगा जी महादेव की जटा से निकलती हैं साहब। तो आप इस जटा को ही लपेट लीजिए। और हल्क़े हो जाएँगे।” दोनों लोग ठहाकों में डूब गये।

-काशी की क़लम

11/11/2023

आज दुकान में मैं ज़ल्दी-ज़ल्दी ख़रीदारी कर रहा था। वैसे दुकानों में मुझे हमेशा ज़ल्दी ही रहती है। क्योंकि राहत के साथ ख़रीदारी करने पर मेरी ज़ेब बेचैन हो उठती है। उस तेज़ी में जब यह यादगार प्रोडक्ट दिखा, तो मैं इससे पार नहीं जा पाया। एक ठहराव आ गया। जैसे तेज गाड़ी के आगे अचानक जानवर के आ जाने पर ब्रेक पे खड़ा होना पड़े। मैं अपने बचपन में उतर गया और उसकी तस्वीर उतार ली।तस्वीरें यादाश्त की स्टीयरिंग व्हील जैसी होती हैं।

सबकी पसन्द निरमा!

07/11/2023

सादर प्रणाम!
यह रचना एक लाइन की थी। सिर्फ़ पहली लाइन। फिर एक दिन एक आदरणीय भैया से बात करते समय उन्होंने बड़ी गहरी बात कर दी । “ नवीन, ज़माना सिर्फ़ देने वालों को याद रखता है!” यह बात दिल में घर कर गई। तब से कुछ लाइनें ख़ुद-बख़ुद जुड़ती गईं। ऐसे मार्गदर्शकों के सानिध्य का सौभाग्य प्राप्त होना दैवीय कृपा ही है।

बाँटने में जो मज़ा है वो बटोरने में कहाँ है!
बटोरने पे सिर्फ़ गिले, बाँटने पे मिले जहाँ है।

बटोरने वालों की मिल्कियत टुकड़ों की रही
लुटाने वालों के नाम तो मोसल्लम आसमाँ है।

उम्र गुज़ार दी उसने अपनी छत बनाने में
मगर आज भी कई दिलों में उसका मकाँ है।

अपने तो भुला देंगे, फिर बटोरने का सबब क्या है
याद हो कि इतिहास में दरियादिली के ही निशाँ है।

बटोरने वालों के जनाज़े में लोग बटोरने पड़ते हैं
बाँटने वालों को अलविदा करता कारवाँ है।

-काशी की क़लम

03/11/2023

महल जैसा तना है, बहुत ग़ुमान हो गया है,

हुआ करता था घर जो, अब मकान हो गया है।

छतें जो छाँव करती थीं, अब धूप बरसाती हैं

सूखके हर रिश्ता जैसे रेगिस्तान हो गया है।

रेशमी तारों से जुड़ता था जो रिश्ता

अब गाँठों का खदान हो गया है।

जितने ऊँचे मकान हैं उनसे ऊँची दीवारें

इस मकान का हर शख़्स अनजान हो गया है।

मेरे ग़रीब-ख़ाने में क्या है कि महल जल उठा है!

और धुआँ-धुआँ सारा आसमान हो गया है।

-काशी की क़लम

28/10/2023

एक है मेरा जीवन,
एक है आपका आशीर्वचन।
दोनों पास ये मेरे हैं,
ये सौभाग्य मेरे हैं।
चौड़ी मेरी छाती है,
कितनी अनमोल यह थाती है!
-काशी की क़लम

17/10/2023

हल के चीरे से खेत नहीं डरते हैं,
आज सहन कर, कल का पेट भरते हैं।
लोहा तपता,गलता, ख़ुद को खोता है,
तब जाकर कहीं देव साकार मूरत होता है।
-काशी की क़लम

12/10/2023

Made-in-Kashi का लोगो डाक विभाग के स्टाम्प से प्रेरित है, जिसका उद्देश्य है सन्देश पहुँचाना।
स्टाम्प के केंद्र में कोरियन भाषा का अक्षर 'ㅋ' है, जिसका हिंदी लिप्यंतरण "क" है । 'क' से 'काशी' ।
इस अक्षर का प्रयोग कोरिया में "ख़ुशी" के संकेत के रूप में चैटिंग के समय किया जाता है।

10/10/2023

बन जाती हूँ, तो सबको आड़ देती हूँ,
तन जाती हूँ, तो सबको फाड़ देती हूँ।

सबके रहस्यों को अपने कान देती हूँ,
नहीं खोल सकती, ये ज़बान देती हूँ।

जितनी गहरी जड़ हो, उतनी ऊँची जाती हूँ,
जितना चौड़ा धड़ हो, अचल पहरा निभाती हूँ।

घेर लूँ अपनों को, तो किला बन जाती हूँ,
ईंट से बनी, शत्रु की ईंट से ईंट बजाती हूँ।

तो बूझिये मैं कौन हूँ?

06/10/2023

दीवारों के कान हों या न हों, पर ज़बान ज़रूर होती है। वो बोलती हैं अपने रंगों से। गहरे रंग की दीवारें घुटन कहती हैं, हल्क़े रंगों की राहत, शीशे मढ़ी दीवारें ले जाती है हमारे विस्तार को अनन्त की ओर। उनके ऊपर की गई हर चित्रकारी एक कहानी है। यदि शब्दों की सजावट हो, तो दीवारों के मुख से सूक्तिवाक्य निकलते हैं। आज किसी मनीषी दीवार ने कहा,
“जो सही हो वो करो, न कि जो आसान लगे।”

29/09/2023

" The Noblest have fallen, They were buried obscurely
In the deserted place.
No tears fell over them,
Strange hands carried them to the grave.
No cross, no enclosure, and no tombstone tell their glorious names.
Grass grown over them,
A feeble blade bending low keeps the secret.
The sole witnesses were the surging waves which furiously beat
Against the shore.
But even they , the mighty waves,
Could not carry farewell greetings to the distant home."--
U.N. Finger , (Bhagat Singh Recited these lines on the death of comrade Jatin Das.)

Salute to the revolutionary on his birth anniversary.

25/09/2023

I've just reached 600 followers! Thank you for continuing support. I could never have made it without each one of you. 🙏🤗🎉

25/09/2023

आप सभी का आभार 🙏🏽।
Celebrating my 3rd year on Facebook. Thank you for your continuing support. I could never have made it without you. 🙏🤗🎉

14/09/2023

सादर प्रणाम!
जिस भाषा में आप बोलना शुरू करते हैं,
जिस भाषा में आप आप होते हैं,
जिस भाषा में आपको कोई फ़िल्टर लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती,
जिस भाषा में आप मुस्कुराने से लेके हुँकारने तक का काम कर सकते हैं,
जिस भाषा में आपके भाव बिन प्रयास बहे,
जिस भाषा को सीखने में आपको सबसे कम मेहनत करना पड़े,
और सबसे महत्त्वपूर्ण बात,
जिस भाषा को अंतिम साँस में भी बोला जा सके, वह आपकी मातृभाषा है। बाक़ी सब शुरू के अंत तक अपने आपको बनाए रखने का माध्यम है।
मेरी यह सौभाग्यवश हिन्दी है।

हिन्दी दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएँ।
-काशी की क़लम

14/09/2023
06/08/2023

बाँटने में जो मज़ा है, वो बटोरने में कहाँ है?
-काशी की क़लम

02/08/2023

दुश्मनी जमकर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिन्दा न हों।
-बशीर बद्र

25/07/2023

महल जैसा तना है, बहुत ग़ुमान हो गया है,

हुआ करता था घर जो, अब मकान हो गया है।

छतें जो छाँव करती थीं, अब धूप बरसाती हैं

सूखके हर रिश्ता जैसे रेगिस्तान हो गया है।

-काशी की क़लम

14/07/2023

सिर झुकाओगे तो पत्त्थर देवता हो जाएगा
उसे इतना मत चाहो वो बेवफ़ा हो जाएगा।
-बशीर बद्र

12/07/2023

मिटा दे अपनी हस्ती को अगर कुछ मर्तबा चाहे
कि दाना ख़ाक में मिल कर गुल-ओ-गुलज़ार होता है
~सय्यद मोहम्मद मस्त कलकत्तवी

18/12/2022

हमारी नादानी के आजकल बड़े क़िस्से हैं
हम ख़ुश हैं हम उनकी ख़ुशी के हिस्से हैं।
-काशी की क़लम

14/12/2022

उदार सपने ही भव्य मंज़िल तय कर पाते हैं। स्वार्थी सपने किसी का भला नहीं करते। ख़ुद का भी नहीं।
-काशी की क़लम

उम्मीद आपसे क्यूँ रखूँ जब रखता नहीं अपने आपसे 11/12/2022

उम्मीद आपसे क्यूँ रखूँ जब रखता नहीं अपने आपसे

उम्मीद आपसे क्यूँ रखूँ जब रखता नहीं अपने आपसे ग़ज़लताला लगा है ज़बान पे डरता हूँ इस हालात सेन जाने कौन बुरा मान जाए मेरी किस बात से!दुनिया के खेल में सबसे मिलना ज.....

10/12/2022

“Due to some personal work I couldn't give time to read book in starting. Every day I made to read but not executed...

One day I started to read book in weekend . As soon as I turned the next pages I found myself to indulged in story slowlyslowly. So nicely dialogs are written.
Will wait for next part...
Thanks Naveen Sir to make easy availability of this book and Salute to your efforts.”
-Alok

10/12/2022

ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं
तुमने मेरा काँटों-भरा बिस्तर नहीं देखा।
-बशीर बद्र

08/12/2022

सपने देखने के लिए जागना ज़रूरी है,
सपने दिखाने के लिए जगाना ज़रूरी है।
सपने दिखा दिए जो किसी को अगर,
हक़ीक़त करने अवनी-अम्बर उठाना ज़रूरी है।
-काशी की क़लम

Photos from Made-in-Kashi's post 28/11/2022

कभी-कभी दूसरा पहलू कहानी को पूरा कर देता है। एक उदाहरण:

उम्मीद आपसे क्यूँ रखूँ, जब रखता नहीं अपने आपसे 23/11/2022

ताला लगा है ज़बान पे डरता हूँ इस हालात से

न जाने कौन बुरा मान जाए मेरी किस बात से!

दुनिया के खेल में सबसे मिलना ज़रा एहतियात से

कोई माहिर खेल न जाए कहीं किसी के जज़्बात से!

उम्मीद आपसे क्यूँ रखूँ, जब रखता नहीं अपने आपसे

मेरा भी भरोसा क्या बदल जाऊँ कौन-सी बरसात से!

ये बदलते दस्तूरों का दौर है चाँद उदास हो तो हो

अब सूरज का मन बहल रहा है दिन की बारात से!

है एक ज़िंदगी ‘काशी’ इसे अपने ही अल्फ़ाज़ दे

कभी मुक़म्मल होती नहीं कोई कहानी ख़ैरात से।

-काशी की क़लम

उम्मीद आपसे क्यूँ रखूँ, जब रखता नहीं अपने आपसे उम्मीद आपसे क्यूँ रखूँ, जब रखता नहीं अपने आपसे

22/11/2022

“समाज को समय-समय पर आईना दिखाने का काम एक लेखक के सिवा और कोई नही कर सकता।

समाज कितनी भी कोशिश कर ले पर इंसानियत के नाम पर लगे हुए कुछ दाग़ वो कभी भी मिटा नहीं सकता। ऐसे ही एक दाग़ को नवीन ने अपने लेखन का विषय बना कर हमें खुद के कॉलर के अंदर झांकने को मजबूर करने की एक बेहतरीन कोशिश करी है। ऐसे ही लिखते रहो और समाज को आईना दिखाते रहो। बहुत बहुत बधाईयां इतने अच्छे लेखन के लिए।”
-सुरेंद्र वर्मा

20/11/2022

“Dhuri- A true reflection of our society:
Dhuri- A must read book.

The story shows how we can all turn personal struggles into our own success and an example for the society using the wisdom we acquire along the way. Dhuri a girl from a middle-class family in Kanpur fights to give birth to her baby, follows “Matra Dharma”.

Even after being broken emotionally, she strives to put on a happy face every day.
The support extended by her parent & having trust in her deserves applause, though they knew it will be a major problem for them to survive in their society.

It is a story of having hope in the extreme bad situations, no matter how motivating it is to listen, applying it to daily life becomes the hardest, Dhuri has set an example by implementation in real life.
Interwoven with inspiring quotes & eloquent writing skills of Naveen sir in Hindi is the result it is a true real life struggle story dedicated to unrelenting upliftment of the human race.”
-Rahul Sharma

15/11/2022

ऊँचाई की क़ीमत गहराई न हो
ऊँचाई पे इतनी महँगाई न हो।

जो कमतर करे इंसानियत को
ऐसी किसी किसी चीज़ से वफ़ाई न हो।

क़द गिरे किसी का मुझसे
ज़ेहन में इतनी ऊँचाई न हो।

तरक़्क़ी में अन्धा हो जाऊँ
ऐसी तरक़्क़ी पे रौशनाई न हो।

‘काशी’ अपनी गंगा में डूबो यूँ
कि भीड़ को फिर तनहाई न हो।

-काशी की क़लम

14/11/2022

“महिला की सामाजिक दशा का मार्मिक चित्रण

पितृसत्तात्मक समाज अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए अपने हिसाब से परम्पराओं का खेल खेलता रहा है। इस खेल में धर्म ग्रंथों को भी ख़ूब घसीटा गया। ‘धुरी’ ने पर्दे के पीछे चल रहे इन खेलों को अच्छे-से बेपर्दा किया है।अगर औरत औरत का सम्मान करना शुरू कर दे, तो इससे भी औरतों का सामाजिक ओहदा काफ़ी सुधर सकता है, पुस्तक इस बात पे काफ़ी बल देती हुई दीख रही है। गर्भावस्था के दौर से गुजर रही औरत की मनोदशा का मार्मिक चित्रण करने में पुस्तक काफ़ी हद तक सफल है।”
गीता

13/11/2022

“रूढ़िवादी रीति-रिवाजों की बेड़ियों में जकड़ा समाज बहुत तरक़्क़ी नहीं कर सकता, ‘धुरी‘ ने समाज के कल्याण के लिए आवश्यक आधुनिक सोच का प्रस्ताव अच्छे से रखा है। अपने परिवार के सहयोग से आदमी बड़ी-से-बड़ी मुसीबत को पार कर सकता है, धुरी के माता-पिता इस बात को सिद्ध कर रहे हैं।
नियत साफ़ हो, तो पूरी क़ायनात साथ देती है। धुरी की सही नियत, धैर्य और अदम्य साहस ने लोगों को प्राकृतिक रूप से बदला। इस बात को बिना किसी बनावट के साथ कहानी कह ले जाती है।
कुछ लाइनें मानव मन का बहुत ही अच्छा चित्रण करती हैं, जैसे-“अगर मजबूरी में हाथ सिकोड़ना पड़े, तो दुःख उपजता है..।” एक तारा नामक अध्याय में लेखक ने काफ़ी दार्शनिक अन्दाज़ में प्रेम के पहलू को ख़ूबसूरती से रखा है। कहानी में बहुत सारी बातें मंद-मंद हो रही हैं, जैसे बेटा-बेटी एक समान हैं, आज की पीढ़ी को इसका घण्टा फ़र्क़ नहीं पड़ता है। समाज को आगे ले जाने के लिए बहुत अच्छा लेखन।”
-नेत्रा

11/11/2022

“धुरी एक ऐसी कहानी जो यह सिद्ध कर देती है महिलाओं की मानसिक शक्ति का स्तर देवतुल्य है वह भी वह महिला जब मां का रूप धारण कर ले तो उसके अदम्य साहस और धैर्य की तुलना किसी से कहीं नहीं जा सकती... धुरी कहानी है एक ऐसी महिला की जो शायद भारतीय परिप्रेक्ष्य में एक अविवाहित लड़की के लिए कठिनतम दौर से गुजरती है अपने मान सम्मान की परवाह किये बगैर अपने मातृत्व की रक्षा करती है... लेखक धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने इस परिस्थिति में फंसी हुई स्त्री की मनोदशा की बड़ी खूबसूरती से चित्रित किया है.. मजा आ गया और रोना भी ..शानदार कंटेंट..”
-वीना सिंह

10/11/2022

“अद्भुत, सहज और सरल लेखनी ही इस बात का प्रमाण है कि नवीन जी तन से भले ही सात-समंदर पार हों लेकिन मन से गंगा तीरे ही रहते हैं। ये दूसरी पुस्तक है आपकी जिसे पढ़कर और अधिक लगाव महसूस कर रहा हूं। आपसे मिलना तो नहीं हुआ लेकिन लगता है कि सदियों से संवाद है हमारा। मातृभाषा हिंदी को सुदृढ़ बनाने के लिए आपका ये प्रयास प्रसंशनीय है। हार्दिक शुभकामनाएं..”
-विजय प्रकाश

10/11/2022

“समाज के सच को उजागर करती कहानी

अपने इस उपन्यास लेखन के माध्यम से आपने आने वाली पीढ़ियों एवं कॉर्पोरेट जीवन के विभिन्न पहलुओं को बड़ी ही बारीकी से छुआ है जो कि आज के समय में पूर्णतः सत्य प्रतीत होता है। महिलाओं के प्रति उदासीन होते समाज में आपने एक नई ऊर्जा भरने का प्रयास किया है। प्रत्येक महिला धुरी की तरह मनोरमा एवं समाज की रुढ़ियों से लड़कर मजबूत बन सके चाहे कितने ही मंजीत का सामना क्यों ना करना पड़े। आने वाले समय में आप ऐसे ही समाज की रुढ़ियों को अपने लेखन के माध्यम से उजागर करते रहें एवं समाज को जागरूक करते रहें।
धन्यवाद 🙏”
-अजय विक्रम सिंह

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क़द गिरे किसी का मुझसे, ज़ेहन में इतनी ऊँचाई न हो।

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