Breakthrough Science Society-Haryana Chapter

Breakthrough Science Society-Haryana Chapter

Contact information, map and directions, contact form, opening hours, services, ratings, photos, videos and announcements from Breakthrough Science Society-Haryana Chapter, Science, Technology & Engineering, .

25/03/2024

In a statement released today, March 23, 2024, Dr Dhrubajyoti Mukhopadhyay, President, All India Committee of BSS, expressed support for the Climate Fast being undertaken by Sonam Wangchuk.

Photos from Breakthrough Science Society-Haryana Chapter's post 25/03/2024

प्रो. जयंत मूर्ति, उपाध्यक्ष, कर्नाटक चैप्टर, ब्रेकथ्रू साइंस सोसाइटी। उनके नाम पर एक क्षुद्रग्रह का नाम रखा गया है। ब्रेकथ्रू साइंस सोसाइटी हरियाणा की ओर से हार्दिक बधाइयाँ

अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ (IAU) ने 2005 में EX296 क्षुद्रग्रह का नाम '(215884) जयंतीमूर्ति' रखा, जो मंगल और बृहस्पति के बीच स्थित है और 3.3 वर्षों में सूर्य की परिक्रमा करता है।

Prof. Jayant Murthy, Vice President, Karnataka Chapter, Breakthrough Science Society. An asteroid is named after him.

The International Astronomical Union (IAU) renamed EX296 asteroid '(215884) Jayantmurthy' in 2005, which lies between Mars and Jupiter and orbits the Sun in 3.3 years.

17/06/2023

17 जून 2023
भारत के महान मानवतावादी वैज्ञानिक व आधुनिक भारतीय रसायन शास्त्र के जनक आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रॉय की मृत्यु वार्षिकी पर ब्रेकथ्रू साइंस सोसाइटी, हरियाणा चेप्टर की ओर से ऑनलाइन परिचर्चा का आयोजन किया गया। जिसका संचालन हरीश कुमार ने किया।

परिचर्चा का विषय "आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रॉय का जीवन संघर्ष व हमारा वर्तमान विज्ञान व वैज्ञानिक दृष्टिकोण" पर वक्ताओं ने बहुत ही उम्दा तरीके से अपनी बात रखी।

चंचल घोष, अखिल भारतीय कार्यकारिणी सदस्य, ब्रेकथ्रू साइंस सोसाइटी ने पीसी रॉय के व्यक्तित्व के अनेक पहलुओं पर विचार रखे। उन्होंने बताया कि पी सी रॉय एक महान मानवतावादी, देशभक्त वैज्ञानिक हुए हैं। जिन्होंने भारतीय रसायन विज्ञान का लोहा पूरी दुनिया में मनवाया। उनकी पुस्तक हिन्दू रसायन का इतिहास में उन्होंने बताया कि कैसे भारत मे मनु ऋषि के बाद से चिकित्सा व ज्ञान-विज्ञान पर पूरी तरह से रोक लग गई। कैसे भारत मे जातिवाद विज्ञान के विकास में रुकावट बनकर खड़ा हो गया। उन्होंने अपना सारा जीवन रसायन विज्ञान को समर्पित कर दिया। उनके द्वारा बनाई गई भारतीय रसायन एसोसिएशन ने देश को नामी वैज्ञानिक व शिक्षाविद दिए हैं। उनके विज्ञान में अटल विश्वास व सत्य के प्रति साधना से ही यह सब संभव हुआ। हमें बच्चों को तर्क करना व सच को मानना सिखाना चाहिए।

हेमंत शेखावत, रसायन विज्ञान शिक्षक ने बताया कि हमें बच्चों को बचपन से ही जानने की सत्य को जानने की ललक पैदा करनी चाहिए। स्कूलों में एक शिक्षक को यह जिम्मेदारी बखूबी निभानी चाहिए।

ओमप्रकाश अम्बावत, विज्ञान शिक्षक, केंद्रीय विद्यालय, रेवाड़ी ने अपने वक्तव्य में बताया कि अगर विज्ञान का इस्तेमाल गलत हाथों में जाता है तो बहुत बड़ी हानि भी समाज को उठानी पड़ती है।

बसंत लाल, पूर्व प्रिंसीपल ने बताया कि केंद्र सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत पाठ्यक्रम से महत्वपूर्ण अंशों को हटा रही है। डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत, मेंडलीव की पीरियाडिक टेबल हटाना छात्रों में तार्किक चिंतन पैदा करने व सत्य को जानने की इच्छा पर करारा हमला है। शिक्षा नीति में शिक्षा के भारतीयकरण के नाम पर दकियानूसी व सामंती मूल्यों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है।

अनिल कुमार , प्रिंसिपल , यूरो इंटरनेशनल स्कूल, रेवाड़ी ने अपने वक्तव्य में कहा कि खुद पीसी रॉय शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ थे। अगर आज पीसी रॉय होते तो ग़ैरवैज्ञानिक विचारों को बढ़ावा देने वाली नीतियों, आयोजनों व पाठ्यक्रम को रद्द कराने में सबसे आगे होते।

हरीश कुमार ने अपने समापन भाषण में कहा कि सरकार जानबूझकर ग़ैरवैज्ञानिक विचारों को बढ़ावा दे रही है। यूनिवर्सिटी व कालेजों में तार्किक विषयों को निरुत्साहित कर धार्मिक रूढ़िवादी व कर्मकांड - यज्ञ करना जैसे विषयों को बढ़ावा दिया जा रहा है। सरकारी स्कूलों से विज्ञान विषयों को हटाया जा रहा है। निजी शिक्षण संस्थानों को बढ़ावा दिया जा रहा है। छात्रों को प्राइवेट स्कूल व कोचिंग के सहारे छोड़ा जा है। ऐसे समय में हमारा फ़र्ज़ और भी बढ़ जाता है कि हम सब मिलकर सत्य जानने की शिक्षा व शिक्षा पद्धति को लागू करवाएं। इसी एक काम के लिए पीसी रॉय जैसे महान लोगों ने अपना जीवन कुर्बान कर दिया था। आज के दौर में यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। सैंकड़ो लोगो ने लाइव सुना व श्रंद्धाजंलि अर्पित की।
ब्रेकथ्रू साइंस सोसाइटी, हरियाणा चैप्टर

16/06/2023

It's a trial

14/06/2023

आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रॉय
(भारत के महान मानवतावादी वैज्ञानिक व आधुनिक भारतीय रसायन शास्त्र के जनक) की मृत्यु वार्षिकी पर

परिचर्चा

विषय: आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रॉय का जीवन संघर्ष व हमारा वर्तमान विज्ञान व वैज्ञानिक दृष्टिकोण

ब्रेकथ्रू साइंस सोसायटी, हरियाणा चैप्टर की ओर से
16 जून 2023 को शाम 7:00 बजे से फेसबुक पेज
https://www.facebook.com/bssharyana
पर लाइव सुनें।

निवेदक: ब्रेकथ्रू साइंस सोसायटी, हरियाणा चैप्टर

05/06/2023

On the occasion of World Environment Day, 5 June, the BSS - Haryana held a science talk on page.

20/02/2022

Birthday tribute To Great scientist
*Nicolaus_Copernicus*
19 फरवरी पर विशेष

*महान वैज्ञानिकों के जीवन से जुड़ी वो बातें जो उन्हें महान बनाती हैं। शायद हम उन बातों को जानने की इच्छा भी न रखते हों।*

(कोपरनिकस और ब्रूनो ने खगोलविज्ञान के लिए जो राह बनाई, उसी परम्परा में आगे चलकर टाइको ब्राहे, जोहांस केप्लर, गैलीलियो गैलिली और सर आइजक न्यूटन जैसे महान वैज्ञानिक हुए, इन सभी ने अपने तर्कसंगत चिंतन, प्रयोगों और अवलोकनों द्वारा खगोलविज्ञान को उत्कर्ष पर पहुंचा दिया)
पोलैंड में जन्में निकोलस कोपरनिकस (Nicolaus Copernicus, 19 फ़रवरी 1473 – 24 मई 1543) पोलिश खगोलशास्त्री व गणितज्ञ थे। उन्होंने यह क्रांतिकारी सिद्धान्त दिया था कि "पृथ्वी ब्रह्माण्ड के केन्द्र में नहीं बल्कि सूर्य ब्रह्मांड के केंद्र में है"।

निकोलस पहले यूरोपिय खगोलशास्त्री थे जिन्होंने पृथ्वी को ब्रह्माण्ड के केन्द्र से बाहर माना, यानी हीलियोसेंट्रिज्म मॉडल को लागू किया। इसके पहले पूरा यूरोप अरस्तू की अवधारणा पर विश्वास करता था। जिसमें पृथ्वी ब्रह्माण्ड का केन्द्र थी और सूर्य, तारे तथा दूसरे पिंड उसके गिर्द चक्कर लगाते थे।

1530 में कोपरनिकस की किताब द रिवोलूशन्स (De Revolutionibus) प्रकाशित हुई जिसमें उसने बताया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती हुई एक दिन में चक्कर पूरा करती है और एक साल में सूर्य का चक्कर पूरा करती है। कोपरनिकस ने तारों की स्थिति ज्ञात करने के लिए प्रूटेनिक टेबिल्स की रचना की जो अन्य खगोलविदों के बीच काफी लोकप्रिय हुई।

खगोलशास्त्री होने के साथ साथ कोपरनिकस गणितज्ञ, चिकित्सक, अनुवादक, कलाकार, न्यायाधीश, गवर्नर, सैन्य नेता और अर्थशास्त्री भी थे। उन्होंने मुद्रा पर शोध कर ग्रेशम के प्रसिद्ध नियम को स्थापित किया, जिसके अनुसार खराब मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। उन्होंने मुद्रा के संख्यात्मक सिद्धांत का फार्मूला दिया। कोपरनिकस के सुझावों ने पोलैंड की सरकार को मुद्रा के स्थायित्व में सहायता प्रदान की।

- ब्रह्मांड का केंद्र पृथ्वी नहीं बल्कि सूर्य है। पृथ्वी सहित सभी खगोलीय पिंड सूर्य के चारों ओर वृत्ताकर पथ में परिक्रमा करते हैं। इसलिए पृथ्वी ब्रह्मांड की केंद्र नहीं है, बल्कि वह केवल चन्द्रमा की कक्षा का केंद्र है।

- पृथ्वी स्थिर नहीं है, वह सूर्य की परिक्रमा करने के साथ-साथ अपने अक्ष को भी बदलता रहता है। इसलिए आकाश में हम जो भी गतियां (सूर्य और ग्रहों की) देखते हैं वह दरअसल पृथ्वी की निजी गति के कारण होती है।

कोपरनिकस ने अपने सूर्यकेंद्री मॉडल द्वारा सदियों पुराने भूकेंद्री मॉडल का खंडन कर दिया था। हालाँकि यह देखने के लिए कोपरनिकस जीवित नहीं रहे थे कि उनके सिद्धांत के प्रति चर्च की क्या प्रतिक्रिया रही।

जैसाकि हम जानते हैं कि अरस्तू-टॉलेमी मॉडल को धार्मिक रूप से भी अपना लिया गया था, इसलिए चर्च ने शीघ्र ही कोपरनिकस के सिद्धांत को प्रचारित तथा प्रसारित करने पर रोक लगा दी।

चर्च के साथ-साथ महान धर्म सुधारक मार्टिन लूथर ने भी सूर्य को केंद्र मानने का विरोध किया, उन्होनें कोपरनिकस पर आलोचनात्मक टिप्पणी करते हुए कहा कि, “यह बेवकूफ आदमी समूचे खगोलविज्ञान को उलट देना चाहता है। परंतु पवित्र धर्मग्रंथ से हमें यह पता चलता है कि जोशुआ ने पृथ्वी को स्थिर रहने का आदेश दिया, न कि सूर्य को।”
ऐसा भी नहीं था कि पूरा यूरोप धर्म का अंधभक्त था, कुछ विचारक कोपरनिकस के मॉडल के समर्थक भी थे। इन्हीं समर्थकों में से एक रोमन प्रचारक ज्योदार्न ब्रूनो भी थे।

ब्रूनो ने कोपरनिकस से भी एक कदम और आगे जाकर यह बताया कि पृथ्वी ही नहीं, सूर्य भी अपने अक्ष पर घूमता है तथा सूर्य एक सामान्य तारा है और ब्रह्मांड में अनगिनत तारे हैं। उन्होंने यहाँ तक कहा कि आकाश अनंत है, तथा हमारे सौरमंडल की तरह अनेक और भी सौरमंडल इस ब्रह्मांड में अस्तित्वमान हैं।

ब्रूनो बड़े निर्भीक और क्रांतिकारी विचार वाले व्यक्ति थे। उनको अपने विचारों के कारण काफी विरोध का सामना करना पड़ा। वास्तव में, वे अपने समय से बहुत आगे थे। प्रसिद्ध भारतीय खगोलविज्ञानी जयंत नार्लीकर के अनुसार, ‘विज्ञान का समाजशास्त्र हमें यह सिखाता है कि अपने समकालीनों से थोड़ा आगे रहना श्रेय और सम्मान कारण बनता है, मगर उनसे बहुत ज्यादा आगे रहना श्रेय और सम्मान से वंचित रहने का कारण भी बनता है। उन्हें अपने समकालीनों के उपहास का पात्र बनना पड़ता है।’

यही आर्यभट, कोपरनिकस और ब्रूनों के साथ भी हुआ। ब्रूनो ने अपने विचारों का जोर-शोर के साथ सम्पूर्ण रोम में प्रचार-प्रसार किया। ब्रूनो के विचार धर्म विरुद्ध थे, इसलिए उन्हें जीवन भर चर्च की कठोर यातनाएँ सहते रहना पड़ा। ब्रूनो ने अपने जीवन के लगभग 8 वर्ष जेल में बिताए, मगर उन्होंने कभी भी अपने विचारों के साथ समझौता नहीं किया।

उन्हें न हारता देखकर आख़िरकार रोमन धर्म न्यायाधिकरण ने उन्हें मृत्युदंड की सजा सुनाई। 17 फरवरी, 1600 को धार्मिक कट्टरपंथियों ने ब्रूनो को खूंटे से बांधकर जिंदा जला दिया गया! सम्भवत: कोपरनिकस को चर्च की इसी प्रतिक्रिया की आशंका थी, इसी कारण उन्होंने अपने सिद्धांत को उस समय सार्वजनिक किया जब वे मृत्युशैया पर थे।

कोपरनिकस को आधुनिक खगोलविज्ञान का जनक माना जाता है। जर्मन कवि वोल्फगांग गेटे के अनुसार, “कोपरनिकस के सिद्धांत ने मानव-चिंतन को जितना प्रभावित किया है, उतना किसी भी अन्य आविष्कार या विचार ने नहीं किया। बड़ी मुश्किल से जब यह पता चला था कि पृथ्वी गोल और स्वयं में परिपूर्ण हैं, तब कहा गया कि इसके ब्रह्मांड के केंद्र में होने के विशिष्ट अधिकार को तिलांजलि दे दो। मानव जाति के सामने इतनी बड़ी मांग संभवत: पहले कभी पेश नहीं की गई थी। इसे स्वीकार कर लेने से बहुत सारी बातें धुंध और धुएँ में विलीन हो गई हैं!”

कोपरनिकस और ब्रूनो ने खगोलविज्ञान के लिए जो राह बनाई, उसी परम्परा में आगे चलकर टाइको ब्राहे, जोहांस केप्लर, गैलीलियो गैलिली और सर आइजक न्यूटन जैसे महान वैज्ञानिक हुए, इन सभी ने अपने तर्कसंगत चिंतन, प्रयोगों और अवलोकनों द्वारा खगोलविज्ञान को उत्कर्ष पर पहुंचा दिया।

*आज इस इतिहास को हमें जानना चाहिए। नई पीढ़ी को इससे रूबरू करवाना चाहिए। तभी हम आज की युवा पीढ़ी को मानसिक तौर से वैज्ञानिक समझ वाला बना सकते हैं। नहीं तो, विज्ञान पढ़ने के बावजूद भी हम वैचारिक रूप से अवैज्ञानिक बातों को मानते हुए चल रहे होते हैं।*

15/02/2022

Birthday tribute to the father of scientific method, the father of observational astronomy and the father of science
The great scientist

20/01/2022

(20.01.1775 - 10.06.1836)
विद्युत धारा के विशेषज्ञ ऐन्द्रे एम्पीयर ( ) का जन्म सन् 1775 ई० में फ्रांस में हुआ था। इस वैज्ञानिक की भौतिकी तथा गणित में विशेष रुचि थी। सन् 1814 ई० में वे सांइस अकादमी के सदस्य चुने गये। यह सदस्यता उन्हें गणित की अपूर्व प्रतिभा के कारण प्राप्त हुई थी।

#एम्पीयर की दिलचस्पी विद्युत सम्बन्धी अध्ययनों में बहुत ज्यादा थी। वे अपनी प्रयोगशाला में विद्युत चालित खिलौनों पर कोई-न-कोई प्रयोग करते रहते थे। शुरू में उन्होंने इलैक्ट्रो डायनमो पर काम किया।

#एम्पीयर ने यह खोजा कि जब दो सामान्तर तारों में विद्युतधारा एक ही दिशा में बहती है तो उन तारों में आकर्षण होता है। इसी प्रकार यदि दो सामान्तर तारों में विद्युत धारा विपरीत दिशाओं में बढ़ती है तो इन दोनों तारों के बीच में प्रतिकर्षण होता है। उन्होंने सर्वप्रथम यह भी आविष्कार किया कि यदि किसी कुण्डली से विद्युत धारा गुजारी जाए तो वह कुण्डली चुम्बक बन जाती है। इस प्रकार की कुण्डली को सालीनाइड कहते हैं।

एम्पीयर के प्रयोगों से यह सिद्ध हो गया है कि विद्युत धाराओं का वही प्रभाव होता है जो चुम्बकों का होता है। उन्होंने एस्टेटिक नीडल का आविष्कार किया जो विद्युत धारा मापने के काम में आती है।

उन्होंने बताया कि पृथ्वी का चुम्बकत्व, पृथ्वी के केन्द्र से बहने वाली विद्युत धाराओं के कारण होता है। उन्हीं के प्रयोग पर आधारित विद्युत धारा की इकाई एम्पीयर आज प्रयोग की जाती है। एम्पीयर ने विद्युत धारा से सम्बन्धित बहुत से कार्य सम्पन्न किये। विद्युत के क्षेत्र में एम्पीयर ने अपने कार्यों से बहुत नाम कमाया। उनके नाम से प्रचलित एम्पीयर इकाई का कूलम्ब द्वारा दिये गये आवेश के साथ गहरा सम्बन्ध है। सन् 1836 ई० में इस महान् वैज्ञानिक की मृत्यु हो गई। उन्हें हम कभी नहीं भुला पायेंगे।

#एम्पीयर के नाम से सभी विद्यार्थी आरभिक कक्षाओं में ही अवगत हो जाते है। क्योंकि उन्हीं के नाम पर विद्युत धारा की इकाई ( A Unit Of Electric Current) प्रचलित है। विद्युत धारा की इकाई एम्पीयर सारी दुनिया में प्रयोग की जाती है तथा बच्चों को शुरू से ही पढ़ाई जाती है।

(विशेष आग्रह: विज्ञान का केवल सूचनात्मक ज्ञान काफी नहीं है, हमें अपनी सोचने की प्रक्रिया को भी वैज्ञानिक बनाना चाहिए। समाज मे हो रहे हर घटनाक्रम को हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखना व समझना चाहिए।)

Photos from Breakthrough Science Society-Haryana Chapter's post 23/12/2021

#अल्बर्ट_अब्राहम_माइकलसन FFRS,
HFRSE (19 दिसंबर, 1852-9 मई, 1931)

एक जर्मन मूल के अमेरिकी भौतिक विज्ञानी थे, जो प्रकाश की गति को मापने और विशेष रूप से "माइकलसन-मॉर्ले प्रयोग" के अपने काम के लिए जाने जाते थे। 1907 में उन्हें भौतिकी में नोबेल पुरस्कार मिला, वह विज्ञान में नोबेल पुरस्कार जीतने वाले पहले अमेरिकी बने। वह शिकागो विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग के संस्थापक और प्रथम प्रमुख थे।

माइकलसन जीवन भर प्रकाश से मोहित रहे। एक बार उनसे पूछा गया कि उन्होंने प्रकाश का अध्ययन क्यों किया, उन्होंने कहा, ''क्योंकि यह बहुत मज़ेदार है।''

1869 की शुरुआत में, यूनाइटेड स्टेट्स नेवी में एक अधिकारी के रूप में सेवा करते हुए, माइकलसन ने बेहतर प्रकाशिकी और एक लंबी बेसलाइन का उपयोग करके प्रकाश की गति को मापने के लिए लियोन फौकॉल्ट की घूर्णन-दर्पण पद्धति को दोहराने की योजना बनाना शुरू कर दिया।

उन्होंने 1878 में बड़े पैमाने पर कामचलाऊ उपकरणों का उपयोग करके कुछ प्रारंभिक माप किए, लगभग उसी समय जब उनका काम समुद्री पंचांग कार्यालय के निदेशक साइमन न्यूकॉम्ब के ध्यान में आया, जो पहले से ही अपने स्वयं के अध्ययन की योजना बनाने में उन्नत थे।

माइकलसन के औपचारिक प्रयोग जून और जुलाई 1879 में हुए। उन्होंने मशीनरी रखने के लिए नौसेना अकादमी की उत्तरी समुद्री दीवार के साथ एक फ्रेम बिल्डिंग का निर्माण किया।

माइकलसन ने अपने मापन में सहायता के लिए वाशिंगटन डीसी में न्यूकॉम्ब में शामिल होने से पहले 1879 में 299,910 ± 50 किमी/सेकेंड का अपना परिणाम प्रकाशित किया। इस प्रकार दोनों के बीच एक लंबा पेशेवर सहयोग और दोस्ती शुरू हुई।

साइमन न्यूकॉम्ब ने अपनी अधिक पर्याप्त रूप से वित्त पोषित परियोजना के साथ, 299,860 ± 30 किमी/सेकेंड का मूल्य प्राप्त किया, बस मिशेलसन के साथ स्थिरता के चरम किनारे पर। माइकलसन ने अपनी पद्धति को "परिष्कृत" करना जारी रखा और 1883 में 299,853 ± 60 किमी/सेकेंड का माप प्रकाशित किया, जो उनके गुरु के करीब था।

माइकलसन-मॉर्ले प्रयोग चमकदार ईथर के अस्तित्व का पता लगाने का एक प्रयास था, एक माना जाता है कि मध्यम पारगम्य स्थान जिसे प्रकाश तरंगों का वाहक माना जाता था। यह प्रयोग अप्रैल और जुलाई 1887 के बीच अमेरिकी भौतिकविदों अल्बर्ट ए. माइकलसन और एडवर्ड डब्ल्यू. मॉर्ले द्वारा किया गया था, जो अब ओहियो के क्लीवलैंड में केस वेस्टर्न रिजर्व विश्वविद्यालय है और उसी वर्ष नवंबर में प्रकाशित हुआ।

प्रयोग ने स्थिर ल्यूमिनिफेरस ईथर ("एथर विंड") के माध्यम से पदार्थ की सापेक्ष गति का पता लगाने के प्रयास में लंबवत दिशाओं में प्रकाश की गति की तुलना की। परिणाम नकारात्मक था, इसमें माइकलसन और मॉर्ले ने प्रकल्पित ईथर के माध्यम से गति की दिशा में प्रकाश की गति और समकोण पर गति के बीच कोई महत्वपूर्ण अंतर नहीं पाया। इस परिणाम को आम तौर पर तत्कालीन प्रचलित ईथर सिद्धांत के खिलाफ पहला मजबूत सबूत माना जाता है, साथ ही साथ अनुसंधान की एक लाइन की शुरुआत होती है जो अंततः विशेष सापेक्षता को जन्म देती है, जो एक स्थिर ईथर को नियंत्रित करती है। [ए 1] इस प्रयोग के, आइंस्टीन ने लिखा है, "यदि माइकलसन-मॉर्ले प्रयोग ने हमें गंभीरता में नहीं लाया होता, तो कोई भी सापेक्षता सिद्धांत को (आधे रास्ते) नहीं मानता।"

लगातार बढ़ती संवेदनशीलता के साथ माइकलसन-मॉर्ले प्रकार के प्रयोगों को कई बार दोहराया गया है। इनमें 1902 से 1905 तक के प्रयोग और 1920 के दशक में प्रयोगों की एक श्रृंखला शामिल है। हाल ही में, 2009 में, ऑप्टिकल रेज़ोनेटर प्रयोगों ने 10−17 के स्तर पर किसी भी ईथर हवा की अनुपस्थिति की पुष्टि की।

आइव्स-स्टिलवेल और कैनेडी-थॉर्नडाइक प्रयोगों के साथ, माइकलसन-मॉर्ले प्रकार के प्रयोग विशेष सापेक्षता सिद्धांत के मौलिक परीक्षणों में से एक हैं।

Photos from Breakthrough Science Society-Haryana Chapter's post 23/12/2021

Albert Abraham Michelson FFRS,
HFRSE (December 19, 1852 – May 9, 1931)

was a German-born American physicist known for his work on measuring the speed of light and especially for the Michelson–Morley experiment. In 1907 he received the Nobel Prize in Physics, becoming the first American to win the Nobel Prize in a science. He was the founder and the first head of the physics department of the University of Chicago.

Michelson was fascinated by light all his life. Once asked why he studied light, he said, ‘’because it’s so much fun.’’

As early as 1869, while serving as an officer in the United States Navy, Michelson started planning a repeat of the rotating-mirror method of Léon Foucault for measuring the speed of light, using improved optics and a longer baseline. He conducted some preliminary measurements using largely improvised equipment in 1878, about the same time that his work came to the attention of Simon Newcomb, director of the Nautical Almanac Office who was already advanced in planning his own study.

Michelson's formal experiments took place in June and July 1879. He constructed a frame building along the north sea wall of the Naval Academy to house the machinery.

Michelson published his result of 299,910 ± 50 km/s in 1879 before joining Newcomb in Washington DC to assist with his measurements there. Thus began a long professional collaboration and friendship between the two.
Simon Newcomb, with his more adequately funded project, obtained a value of 299,860 ± 30 km/s, just at the extreme edge of consistency with Michelson's. Michelson continued to "refine" his method and in 1883 published a measurement of 299,853 ± 60 km/s, rather closer to that of his mentor.

The Michelson–Morley experiment was an attempt to detect the existence of the luminiferous aether, a supposed medium permeating space that was thought to be the carrier of light waves. The experiment was performed between April and July 1887 by American physicists Albert A. Michelson and Edward W. Morley at what is now Case Western Reserve University in Cleveland, Ohio, and published in November of the same year.
The experiment compared the speed of light in perpendicular directions in an attempt to detect the relative motion of matter through the stationary luminiferous aether ("aether wind"). The result was negative, in that Michelson and Morley found no significant difference between the speed of light in the direction of movement through the presumed aether, and the speed at right angles. This result is generally considered to be the first strong evidence against the then-prevalent aether theory, as well as initiating a line of research that eventually led to special relativity, which rules out a stationary aether.[A 1] Of this experiment, Einstein wrote, "If the Michelson–Morley experiment had not brought us into serious embarrassment, no one would have regarded the relativity theory as a (halfway) redemption."

Michelson–Morley type experiments have been repeated many times with steadily increasing sensitivity. These include experiments from 1902 to 1905, and a series of experiments in the 1920s. More recently, in 2009, optical resonator experiments confirmed the absence of any aether wind at the 10−17 level.
Together with the Ives–Stilwell and Kennedy–Thorndike experiments, Michelson–Morley type experiments form one of the fundamental tests of special relativity theory.

05/12/2021

वर्नर कार्ल हाइजेनबर्ग
(जन्म: 5 दिसंबर 1901 - मृत्यु: 1 फरवरी 1976)
एक जर्मन सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी और क्वांटम यांत्रिकी के प्रमुख अग्रदूतों में से एक थे। उन्होंने 1925 में एक सफल पेपर में अपना काम प्रकाशित किया। मैक्स बॉर्न और पास्कुअल जॉर्डन के साथ पत्रों की बाद की श्रृंखला में, उसी वर्ष के दौरान, क्वांटम यांत्रिकी के इस मैट्रिक्स फॉर्मूलेशन को काफी हद तक विस्तृत किया गया था। उन्हें अनिश्चितता सिद्धांत (Uncertainty Principle) के लिए जाना जाता है, जिसे उन्होंने 1927 में प्रकाशित किया था। हाइजेनबर्ग को "क्वांटम यांत्रिकी के निर्माण के लिए" भौतिकी में 1932 के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
1927 में, कोपेनहेगन में, हाइजेनबर्ग ने क्वांटम यांत्रिकी की गणितीय नींव पर काम करते हुए अपने अनिश्चितता सिद्धांत को विकसित किया। 23 फरवरी को, हाइजेनबर्ग ने साथी भौतिक विज्ञानी वोल्फगैंग पॉली को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने सबसे पहले अपने नए सिद्धांत का वर्णन किया। सिद्धांत पर अपने पेपर में, हाइजेनबर्ग ने इसका वर्णन करने के लिए "Ungenauigkeit" (अपरिशुद्धता) शब्द का इस्तेमाल किया, अनिश्चितता नहीं।
अनिश्चितता के सिद्धांत के अनुसार, किसी भी सूक्ष्म कण की स्थिति और गति को एक ही समय में निर्धारित नहीं किया जा सकता है। यदि कोई सही-सही निर्धारित कर लेता है, तो दूसरा पूरी तरह से अनिश्चित हो जाता है।

21/11/2021

“Diabetes is a growing challenge in India with estimated 8.7% diabetic population in the age group of 20 and 70 years." says WHO. Experts opine that increased awareness can prevent or delay diabetes. So to reach out to the general public Breakthrough Science Society (BSS), Andhra Pradesh & Telangana are jointly organising an online webinar on the topic:

*Why we (Indians) are so sweet (Diabetic)?*

*Speaker* :
Parimal Misra, Ph. D, FRSB, FRSC,
Senior Professor and Chief Scientist,
Center for Innovation in Molecular and Pharmaceutical Sciences,
Dr. Reddy’s Institute of Life Sciences,
University of Hyderabad Campus,
Gachibowli, Hyderabad: 500046.

*Date & Time:*
21/11/2021 & 6:00 pm

*Register with the following link : https://forms.gle/ieuRitU4EHL5EfWRA

Regards,
*Breakthrough Science Society (BSS), Andhra Pradesh & Telangana.*
Contact: 9966625910 (Telangana)
9490476456 (Andhra Pradesh)

Online webinar on “Why we (Indians) are so sweet (Diabetic)?" 21/11/2021

“Diabetes is a growing challenge in India with estimated 8.7% diabetic population in the age group of 20 and 70 years." says WHO. Experts opine that increased awareness can prevent or delay diabetes. So to reach out to the general public Breakthrough Science Society (BSS), Andhra Pradesh & Telangana are jointly organising an online webinar on the topic:

*Why we (Indians) are so sweet (Diabetic)?*

*Speaker* :
Parimal Misra, Ph. D, FRSB, FRSC,
Senior Professor and Chief Scientist,
Center for Innovation in Molecular and Pharmaceutical Sciences,
Dr. Reddy’s Institute of Life Sciences,
University of Hyderabad Campus,
Gachibowli, Hyderabad: 500046.

*Date & Time:*
21/11/2021 & 6:00 pm

*Register with the following link : https://forms.gle/ieuRitU4EHL5EfWRA

Regards,
*Breakthrough Science Society (BSS), Andhra Pradesh & Telangana.*
Contact: 9966625910 (Telangana)
9490476456 (Andhra Pradesh)

Online webinar on “Why we (Indians) are so sweet (Diabetic)?" Organized By BREAKTHROUGH SCIENCE SOCIETY ORGANIZATION SPEAKER : Dr.Parimal Misra, Ph. D, FRSB, FRSC, Senior Professor and Chief Scientist, Center for Innovation in Molecular and Pharmaceutical Sciences, Dr. Reddy’s Institute of Life Sciences, University of Hyderabad Campus, Gachibowli, Hyderabad:...

15/11/2021

in short
जन्म: 7 नवम्बर 1888, तिरुचिरापल्ली, तमिलनाडु

सीवी रमन आधुनिक भारत के एक महान वैज्ञानिक थे, जिन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में अपना अति महत्वपूर्ण योगदान दिया और अपनी अनूठी खोजों से भारत को विज्ञान की दुनिया में अपनी एक अलग पहचान दिलवाई।

‘रमन प्रभाव’ (Raman Effect) सीवी रमन की अद्भुत और महत्वपूर्ण खोजों में से एक थी, जिसके लिए उन्हें साल 1930 में नोबेल पुरस्कार से भी नवाजा गया था।

वहीं अगर सीवी रमन ने यह खोज नहीं की होती तो शायद हमें कभी यह पता नहीं चल पाता कि ‘समुद्र के पानी का रंग नीला क्यों होता है, और इस खोज के माध्यम से ही लाइट के नेचर और बिहेवियर के बारे में भी यह पता चलता हैं कि जब कोई लाइट किसी भी पारदर्शी माध्यम जैसे कि सॉलिड, लिक्वड या गैस से होकर गुजरती है तो उसके नेचर और बिहेवियर में बदलाव आता है।

वास्तव में उनकी इन खोजों ने विज्ञान के क्षेत्र में भारत को एक नई दिशा प्रदान की, जिससे देश के विकास को भी बढ़ावा मिला। इसके साथ ही आपको यह भी बता दें कि सीवी रमन को देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न और लेनिन शांति पुरस्कार समेत विज्ञान के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण कामों के लिए तमाम पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।

दक्षिण भारत के तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली शहर में 7 नवम्बर 1888 को, भारत के महान वैज्ञानिक सीवी रमन एक साधारण से ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। वह चंद्रशेखर अय्यर और पार्वती अम्मल की दूसरी संतान थे। उनके पिता चंद्रशेखर अय्यर ए वी नरसिम्हाराव महाविद्यालय, विशाखापत्तनम, (आधुनिक आंध्र प्रदेश) में फिजिक्स और गणित के एक प्रख्यात प्रवक्ता थे।

वहीं उनके पिता को किताबों से बेहद लगाव था, उनके पिता को पढ़ना इतना पसंद था कि उन्होंने अपने घर में ही एक छोटी सी लाइब्रेरी भी बना ली थी, हालांकि आगे चलतक इसका फायदा सीवी रमन को मिला, इसके साथ ही वह पढ़ाई-लिखाई के माहौल में पले और बढ़े हुए, वहीं सीवी रमन ने छोटी उम्र से ही अंग्रेजी साहित्य और विज्ञान की किताबों से दोस्ती कर ली थी, और फिर बाद में उन्होंने विज्ञान और रिसर्च के क्षेत्र में कई कीर्तिमान स्थापित किए और भारत को विज्ञान के क्षेत्र में अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।

'रमन प्रभाव’ की खोज - the

‘रमन प्रभाव’ की खोज उनकी वो खोज थी, जिसने भारत को विज्ञान के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान दिलवाई। उन्होंने 28 फरवरी, साल 1928 को कड़ी मेहनत और काफी प्रयास के बाद ‘रमन प्रभाव’ की खोज की।

वहीं उन्होंने अगले ही दिन इसकी घोषणा कर दी थी। उनकी इस खोज से न सिर्फ इस बात का पता चला कि समुद्र का जल नीले रंग का क्यों होता है, बल्कि यह भी पता चला कि जब भी कोई लाइट किसी पारदर्शी माध्यम से होकर गुजरती है तो उसके नेचर और बिहेवियेर में चेंज आ जाता है।

प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका ‘नेचर’ ने इसे प्रकाशित किया। वहीं उनकी इस खोज को ‘रमन इफेक्ट’ (Raman effect) या ‘रमन प्रभाव’ का नाम दिया गया। इसके बाद वह एक महान वैज्ञानिक के तौर पर पहचाने जाने लगे और उनकी ख्याति पूरी दुनिया में फैल गई।

इसके बाद मार्च, साल 1928 में सीवी रमन ने गलोर स्थित साउथ इंडियन साइन्स एसोसिएशन में अपनी इस खोज पर स्पीच भी दी। इसके बाद दुनिया की कई लैब में उनकी इस खोज पर अन्वेषण होने लगे।

आपको बता दें कि उनकी इस खोज के द्धारा लेजर की खोज से अब रसायन उद्योग, और प्रदूषण की समस्या आदि में रसायन की मात्रा पता लगाने में भी मदद मिलती है। सीवी रमन एक विज्ञान के क्षेत्र में वाकई में यह एक अतुलनीय खोज थी।

वहीं उन्हें इस खोज के लिए साल 1930 में प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘ #नोबेल_पुरस्कार’ से भी नवाजा गया। वहीं सीवी रमन की इस महान खोज के लिए भारत सरकार ने 28 फरवरी के दिन को हर साल ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ के रुप में मनाने की भी घोषणा की।

वैज्ञानिक सीवी रमन की महान उपलब्धियां – CV Raman Awards

भारत के महान वैज्ञानिक चंद्रशेखर वेंकट रमन को विज्ञान के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए कई पुरुस्कारों से भी नवाजा गया, जिनके बारे में हम आपको नीचे बता रहे हैं-
◆ वैज्ञानिक सीवी रमन को साल 1924 में लन्दन की ‘रॉयल सोसाइटी’ का सदस्य बनाया गया।
◆ सीवी रमन ने 28 फ़रवरी 1928 को ‘रमन प्रभाव’ की खोज की थी, इसलिए इस दिन को भारत सरकार ने हर साल ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ के रूप में बनाने की घोषणा की थी।
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🔷 सीवी रमन ने भारतीय विज्ञान कांग्रेस की 16 वें सत्र की अध्यक्षता साल 1929 में की।

🔷 सीवी रमन को साल 1929 में उनके अलग-अलग प्रयोगों और खोजों के कई यूनिवर्सिटी से मानद उपाधि, नाइटहुड के साथ बहुत सारे पदक भी दिए गए।

🔷 साल 1930 में प्रकाश के प्रकीर्णन और ‘रमन प्रभाव’ जैसी महत्वपूर्ण खोज के लिए उन्हें उत्कृष्ठ और प्रतिष्ठित सम्मान नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। आपको बता दें कि वे इस पुरस्कार को पाने वाले पहले एशियाई भी थे।

🔷 विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए साल 1954 में उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से भी सम्मानित किया गया।

,🔷 साल 1957 में सीवी रमन को लेनिन शांति पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया।

13/11/2021

Science behind Magic
A show performed by
Mr Chanchal Ghosh
Breakthrough Science Society-Haryana Chapter

Photos from Breakthrough Science Society-Haryana Chapter's post 11/11/2021

at Rohtak
10 Nov 2021

11/11/2021
08/08/2021

*इंडिया मार्च फ़ॉर साइंस_हरियाणा*

पहला कार्यक्रम:
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*दिनांक: 9 अगस्त 2021*
*समय: प्रातः 11 बजे*
*स्थान: गेट न. 2 (के सामने), एमडीयू, रोहतक*

दूसरा कार्यक्रम: ऑनलाइन फेसबुक लाइव
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*दिनांक: 9 अगस्त 2021*
*समय: शाम 5 बजे*

लाइव सुनने के लिए लिंक
http://www.facebook.com/breakthrough.haryana

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*मुख्य मांगें:*
कोविड-19 महामारी का मुकाबला करने के लिए वैज्ञानिक सलाह के आधार पर कदम उठाए जाएँ।

संविधान के अनुच्छेद 51ए के अनुसार अवैज्ञानिक व रूढ़िवादी विचारों का प्रचार-प्रसार बंद करो और वैज्ञानिक सोच विकसित करो।

सुनिश्चित किया जाए कि शिक्षा प्रणाली अवैज्ञानिक विचारों को फैलाने का साधन न बनें।

केंद्रीय बजट का 10% और राज्य के बजट का 30% शिक्षा पर खर्च किया जाए।

वैज्ञानिक अनुसंधान पर देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 3% खर्च करो।

पीएचडी छात्रों की फेलोशिप अवधि डेढ़ साल बढ़ाई जाये।
▪▪▪▪▪▪▪
निवेदक
*हरीश कुमार*
कन्वीनर, इंडिया मार्च फ़ॉर साइंस
हरियाणा आर्गेनाईजिंग कमेटी
रोहतक
ईमेल: [email protected]

Webinar on 'Nobel Prize in Physics 2020' 01/11/2020

Dear friend,
This is to inform you that the Breakthrough Science Society (https://breakthroughindia.org) is organizing a webinar on the 'Nobel Prize in Physics 2020'. Here are the details.

For free registration: http://bit.ly/nobel-talk-2020

Date and time: November 1, 2020, Sunday, 4 PM (IST)

Title: "Of Black Holes and singularities"

Speaker: Prof. Jasjeet Singh Bagla
Dean - Academics and Professor of Physics
Indian Institute of Science Education and Research (IISER), Mohali

Abstract: The Nobel Prize for Physics for the year 2020 has been awarded for work related to black holes. One half of the prize has gone to Roger Penrose for theoretical work that shows that the formation of black holes is possible, indeed it is inevitable in some situations. The other half has been divided between Reinhard Genzel and Andrea Ghez for the discovery of a supermassive object at the center of our Galaxy. In this webinar, the development of ideas and observational evidence leading up to the award-winning work will be discussed, covering the specific contributions of award winners and their teams.

We are looking forward to having you in the webinar.

Thanks and regards,
BSS Team

Webinar on 'Nobel Prize in Physics 2020' Webinar on 'Nobel Prize in Physics 2020' Date and time: November 1, 2020, Sunday, 4 PM Title: "Of Black Holes and singularities" Speaker: Prof. Jasjeet Singh Bagla Dean - Academics and Professor of Physics Indian Institute of Science Education and Research (IISER), Mohali For any clarification: 8547...

Webinar on 'Life and works of Prof. Meghnad Saha' by Prof. Bikas Sinha 06/10/2020

https://youtu.be/wDwRejqh47Q
Webinar on 'Life and works of Prof. Meghnad Saha' by Prof. Bikas Sinha

Webinar on 'Life and works of Prof. Meghnad Saha' by Prof. Bikas Sinha

10/09/2020

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=101203428401343&id=100848225103530

साथियों,
15 सितंबर 2020 को शाम 7 बजे 'ब्रेकथू साइंस सोसाइटी' की अखिल भारतीय कमेटी द्वारा प्रकाशित विज्ञान और समाज विषयक हिंदी पत्रिका 'विज्ञान चेतना' का ऑनलाइन संस्करण अनावरण समारोह आयोजित किया जा रहा है जिसका उद्घाटन डॉ. सोमा मारला (प्रमुख वैज्ञानिक, जैव सूचना विज्ञान, आईसीएआर, एनबीपीजीआर, नई दिल्ली) द्वारा किया जाएगा। साथ ही "वैज्ञानिक विचारों के प्रसार में विज्ञान पत्रिका की भूमिका" विषय पर एक परिचर्चा का आयोजन भी किया गया है जिसमें डॉ. के एन झा (प्रिंसिपल, गवर्नमेंट पॉलिटेक्निक कॉलेज, अशोकनगर, मध्यप्रदेश) व श्री देबाशीष रॉय (उपाध्यक्ष, अखिल भारतीय कमेटी, ब्रेकथ्रू साइंस सोसाइटी) वक्ता के तौर पर रहेंगे। इस कार्यक्रम का सीधा प्रसारण "विज्ञान चेतना" फेसबुक पेज से किया जाएगा। आप सभी सादर आमंत्रित हैं।

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Trial for 5th June Program
Science talk on 5th June: Climate Change a threat to mankind

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