Osho the Buddha

Osho the Buddha

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16/02/2023

दोस्तों आपका स्वागत है, "Altitude camp" "ऐलटीट्यूड कैंप" गांव गुरयाली निकट रानीचौरी, चंबा, उत्तराखंड मे। होली के अवसर पर 3मार्च से 7मार्च, तक एक बार फिर बुद्ध वा ओशो के द्वारा बताए गए ध्यान प्रयोगों को करते हुए, अंतिम दिवस में होली के रंगों से खुद को सराबोर करते हुए इस 4 दिनों के कैंप का समापन करेंगे।
यह स्थान देवभूमि उत्तराखंड में देवदार, चीड़, बांज और बुरांश के घने जंगलों के बीच सुंदर शांत व प्राकृतिक माहौल में बसा है। यहां से विशाल हिमालय की कतार और बर्फ से ढकी चौटिया साफ दिखाई देती है।
यह स्थान ऋषिकेश से मात्र 65 कि मी, मसूरी से 55 कि मी, धनोल्टी से मात्र 28 कि मी, और कन्हताल, वा सुरकंडा देवी मंदिर 15 कि मी दूर है। और इसके निकट है मनोरम टिहरी झील जल क्रीड़ा के लिए परसिद्ध मात्र 16 कि मी। जंगल और पहाड़ी ट्रेकिंग बर्ड वाचिंग वा अन्य एक्टिविटीज कैंप के आसपास।
ठहरने की व्यवस्था सीमित होने के कारण अपना स्थान नीचे दिए गए नंबर पर फोन करके तुरंत सुरक्षित करें। 3 मार्च की शाम से 7 मार्च की दोपहर तक पैकेज ₹5000 या 1500 प्रति दिन।
स्वामी ध्यान नीरव
78768 01234
9216485995
Www.Altitudecamping.com
Location:-
https://maps.app.goo.gl/7DZpbPjKBGUNUSrS6

21/09/2022

गौतम बुद्ध बुद्धत्व प्राप्त होने से पूर्व जब वह ध्यान करने के लिये एक एकांत और सुंदर स्थान को खोजते पहाड़ियों की गोद में लहलहाते एक सुंदर सरोवर के निकट बैठकर ध्यान करने लगे,तभी..............

एक देवकन्या ने प्रकट होकर उनसे प्रश्न किया-

"श्रमण ! तुम्हें इन कमल पुष्पों की गंध लूटने का क्या अधिकार है ?"

गौतम ने उत्तर दिया-

"यह पुष्प तो अपनी गंध स्वयं लुटा रहे हैं। यह गंध स्वयं मेरे नासापुटों तक आ रही है।"

देवकन्या ने कहा-

"पर तुम तो श्रमण हो। तुम तो होश साधने के लिये ध्यान कर रहे हो। क्या तुम्हें यह अनुभव नहीं होता कि जब इनके खिलने में तुम्हारा कोई योगदान नहीं,तो फिर इनकी गंध लूटने का तुम्हें क्या अधिकार है ?"

तभी बुद्ध ने कुछ दूर सरोवर से कमल पुष्प तोड़ते एक व्यक्ति को इंगित करते हुये उस देवकन्या से कहा-

"तुम पुष्प तोड़ने वाले उस व्यक्ति से कुछ क्यों नहीं कहतीं ?"

देवकन्या ने उत्तर दिया-

वह तो मूढ़ और मूर्छित है। वह संवेदनाशून्य है। उसे पुष्पों की गंध का कुछ होश नहीं।"

कहते है,यह सुनकर बुद्ध निरुत्तर हो गये। उन्हें कुछ उत्तर देते नहीं बना।

पर जिस दिन वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुये,उन्होंने देवकन्या के प्रश्नों का मर्म समझा। वह खण्ड से अखण्ड हो गये। उनके ह्रदय सरोवर में ही सहस्त्रों कमल खिल उठे।

गंध फूलों से नहीं उनसे ही आने लगी। जड़ चेतन सभी पर उनका करुणा मेघ बरसने लगा। वह वृक्षों और पौधों को सींचने लगे। सब कुछ देने और लुटाने का भाव ही रह गया।

वह भिक्षुओ से कहते थे-

जिस गृहस्थ के घर भोजन करो,प्रतिदान में उसकी कृतज्ञता व्यक्त करते हुये उन्हें शांति और आनंद की बात बताओ जो तुम्हें ध्यान करने से मिला है।

भगवान् बुद्ध के साथ देव कन्या के चरणों में सादर नमन।
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18/08/2022

Altitude campus
This place is very beautiful in Himalayas surrounded by large trees of Pine and Devdar it is at 6500 fit hite, facing snow mountain range Nandadevi
It is situated at a distance of 7 km from Chamba
65 km from Rishikesh
50 km from Mussoorie
30 km from dhanolti
15 km from Tehri Lake/ Tehri dam
15 km from famous surkanda devi temple.

09/02/2022

झेन संत बोकोजू ने कहा है: 'मैं यही एक ध्यान जानता हूं। जब मैं भोजन करता हूं तो भोजन करता हूं। जब मैं चलता हूं तो चलता हूं। और जब मुझे नींद आती है तो मैं सो जाता हूं। जो भी होता है, होता है; उसमें मैं कभी हस्तक्षेप नहीं करता।'

इतना ही करने को है कि हस्तक्षेप न करो। और जो भी घटित होता हो उसे घटित होने दो। तुम सिर्फ वहां मौजूद रहो। यही चीज तुम्हें अवधानपूर्ण बनाएगी। और जब तुम्हें अवधान प्राप्त हो जाए तो यह विधि तुम्हारे हाथ में है: 'जहां कहीं भी तुम्हारा अवधान उतरे, उसी बिंदु पर, अनुभव।'

तुम अनुभव करने वाले को अनुभव करोगे। तुम स्वयं पर लौट आओगे। सब जगह से तुम प्रतिबिंबित होगे, सब जगह से तुम प्रतिध्वनित होगे। सारा अस्तित्व दर्पण बन जाएगा; तुम सब जगह प्रतिबिंबित होगे। पूरा अस्तित्व तुम्हें प्रतिबिंबित करेगा।

और केवल तभी तुम स्वयं को जान सकते हो, उसके पहले नहीं। जब तक समस्त अस्तित्व ही तुम्हारे लिए दर्पण न बन जाए, जब तक अस्तित्व का कण-कण तुम्हें प्रकट न करे, जब तक प्रत्येक संबंध तुम्हें विस्तृत न करे...। तुम इतने असीम हो कि छोटे दर्पणों से नहीं चलेगा। तुम अंतस में इतने विराट हो कि जब तक सारा अस्तित्व दर्पण न बने, तुम्हें झलक नहीं मिल पाएगी। जब समस्त अस्तित्व दर्पण बन जाता है, केवल तभी तुम प्रतिबिंबित हो सकते हो। तुम्हारे भीतर भगवत्ता विराजमान है।

और अस्तित्व को दर्पण बनाने की विधि है: अवधान पैदा करो, ज्यादा सावचेत बनो, और जहां कहीं तुम्हारा अवधान उतरे-जहां भी, जिस किसी विषय पर भी तुम्हारा ध्यान जाए-अचानक स्वयं को अनुभव करो।

यह संभव है। लेकिन अभी तो यह असंभव है, क्योंकि तुमने बुनियादी शर्त नहीं पूरी की है। तुम एक फूल को देख सकते हो; लेकिन वह अवधान नहीं है। अभी तो तुम फूल के चारों ओर बाहर-बाहर घूम रहे हो। तुमने भागते-भागते फूल को देखा है; तुम उसके साथ क्षण भर के लिए नहीं रहे हो। रुको, अवधान पैदा करो, सावचेत बनो; और समस्त जीवन ध्यानपूर्ण हो जाता है।

'जहां कहीं भी तुम्हारा अवधान उतरे, उसी बिंदु पर, अनुभव।'

बस, स्वयं को स्मरण करो।

इस विधि के सहयोगी होने का एक गहरा कारण है। तुम एक गेंद को दीवार पर मारो; गेंद वापस लौट आएगी। जब तुम किसी फूल या किसी चेहरे को देखते हो तो तुम्हारी कुछ ऊर्जा उस दिशा में गति कर रही है। तुम्हारा देखना ही ऊर्जा है। तुम्हें पता नहीं है कि जब तुम देखते हो तो तुम ऊर्जा दे रहे हो, थोड़ी ऊर्जा फेंक रहे हो। तुम्हारी ऊर्जा का, तुम्हारी जीवन-ऊर्जा का एक अंश फेंका जा रहा है। यही कारण है कि दिन भर रास्ते पर देखते-देखते तुम थक जाते हो। चलते हुए लोग, विज्ञापन, भीड़, दुकानें-इन्हें देखते-देखते तुम थकान अनुभव करते हो और आराम करने के लिए आंखें बंद कर लेना चाहते हो। क्या हुआ है? तुम इतने थके-मांदे क्यों हो रहे हो? तुम ऊर्जा फेंकते रहे हो।

बुद्ध और महावीर दोनों इस पर जोर देते थे कि उनके शिष्य चलते हुए ज्यादा दूर तक न देखें, जमीन पर दृष्टि रख कर चलें। बुद्ध कहते हैं कि तुम सिर्फ चार फीट आगे तक देख सकते हो। इधर-उधर कहीं मत देखो, सिर्फ अपनी राह को देखो जिस पर चल रहे हो। चार फीट आगे देखना काफी है; क्योंकि जब तुम चार फीट चल चुकोगे, तुम्हारी दृष्टि चार फीट आगे सरक जाएगी। उससे ज्यादा दूर मत देखो, क्योंकि तुम्हें अकारण अपनी ऊर्जा का अपव्यय नहीं करना है।

जब तुम देखते हो तो तुम थोड़ी ऊर्जा बाहर फेंकते हो। रुको, मौन प्रतीक्षा करो, उस ऊर्जा को वापस आने दो। और तुम चकित हो जाओगे; अगर तुम ऊर्जा को वापस आने देते हो तो तुम कभी थकोगे नहीं। इसे प्रयोग करो। कल सुबह इस विधि का प्रयोग करो। शांत हो जाओ, किसी चीज को देखो। शांत रहो, उसके बारे में विचार मत करो, और एक क्षण धैर्य से प्रतीक्षा करो। ऊर्जा वापस आएगी; असल में, तुम और भी प्राणवान हो जाओगे।

लोग निरंतर मुझसे पूछते हैं; मैं सतत पढ़ता रहता हूं, इसलिए वे पूछते हैं: 'आपकी आंखें अभी भी ठीक कैसे हैं? आप जितना पढ़ते हैं, आपको कब का चश्मा लग जाना चाहिए था।' तुम पढ़ सकते हो, लेकिन अगर तुम निर्विचार मौन होकर पढ़ो तो ऊर्जा वापस आ जाती है, वह व्यर्थ नहीं होती है। और तुम कभी थकान नहीं अनुभव करोगे। मैं जिंदगी भर रोज बारह घंटे पढ़ता रहा हूं, कभी-कभी अठारह घंटे भी; लेकिन मैंने थकावट कभी महसूस नहीं की। मैंने अपनी आंखों में कभी कोई अड़चन, कभी कोई थकान नहीं अनुभव की।

निर्विचार अवस्था में ऊर्जा लौट आती है; कोई बाधा नहीं पड़ती है। और अगर तुम वहां मौजूद हो तो तुम उसे पुनः आत्मसात कर लेते हो। और वह पुनः आत्मसात करना तुम्हें पुनरुज्जीवित कर देता है। सच तो यह है कि तुम्हारी आंखें थकने के बजाय ज्यादा शिथिल, ज्यादा प्राणवान, ज्यादा ऊर्जावान हो जाती हैं।

ओशो: दि बुक ऑफ सीक्रेट्स पुस्तक से

09/02/2022

।।बुद्ध धम्म और तार्किकता।।

प्रसिद्ध ब्रिटिश गणितज्ञ एवं दार्शनिक बर्ट्रैंड रसल द्वारा साउथ लन्दन ब्रांच की नेशनल सेकुलर सोसायटी के निमन्त्रण पर बैटरसी टाउन हाॅल के सभागार में 6 मार्च'1927 को एक क्रान्तिकारी व्याख्यान दिया गया जिसमें उन्होंने ईश्वर की सत्ता पर प्रश्न खड़ा कर दिया।

बर्ट्रैंड रसल ने सविस्तार व्याख्या की कि वे ईश्वर और अमरता के सिद्धान्त में विश्वास क्यों नहीं करते, वह क्यों नहीं मानते कि जीसस क्राइस्ट ही सर्वोत्तम व्यक्ति थे। अपने तर्कों से रसल ने यहाँ तक साबित कर दिया कि वह स्वयं को इसाई क्यों नहीं मानते। उन्होंने इसाइयत के सृष्टि निर्माण के सिद्धान्त और मिथकीय कथानकों की अपने तर्कों से धज्जियाँ उड़ा कर रख दीं तथा विकासवाद के डार्विन के सिद्धान्त का समर्थन किया। यहाँ तक, कि उन्होंने जीसस क्राइस्ट के ऐतिहासिक अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया। रसल कीअवधारणा थी कि धर्म का सारा ताना-बाना भय की मनोग्रन्थि पर खड़ा है।

कालान्तर में उनका वह विद्रोही व्याख्यान पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ- व्हाए आई एम नाॅट ए क्रिश्चियन (Why I am not a Christian)- मैं इसाई क्यों नहीं हूँ!

इस किताब ने लोकप्रियता के सारे कीर्तिमान तोड़ दिये। इसके संस्करण पर संस्करण छपने और बिकने लगे। इस पुस्तक की लोकप्रियता एवं अलोकप्रियता, इसकी प्रशंसा अथवा निन्दा का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके सम-शीर्षकों जैसी दर्जनों पुस्तकें लिखी गयीं:

1. मैं नास्तिक क्यों हूँ- भगत सिंह,1930
2. मैं रूढ़ीवादी क्यों हूँ (Why I am a Conservative)- आस्ट्रेलियाई अर्थशास्त्री फ्रेडरिक हयेक, 1960
3. मैं अभी भी इसाई क्यों हूँ- (Why I am still a Christian) हंस कुंग, 1987
4. मैं मुस्लिम क्यों नहीं हूँ (Why I am not a Muslim)- इब्न वराक, 1995
5. मैं हिन्दू क्यों नहीं हूँ (Why I am not a Hindu)- काँचा इलइया, 1996
6. मैं पंथनिरपेक्ष क्यों नहीं हूँ (Why I am not a secularist)- विलियम ई. कोन्नोली, 2000
7. मैं वेज्ञानिक क्यों नहीं हूँ (Why I am not a scientist)- जोनाथन एम. मार्क्स (2009)
8. मैं इसाई क्यों नहीं हूँ- रिचार्ड कैरियर
9. मैं कम्युनिस्ट क्यों नहीं हूँ- कैरल चापेक
10. मैं द्वैतवादी क्यों नहीं हूँ- जाॅन सियर्ले
11. मैंने ख़ुद को यहूदी होने से कैसे बचाया- श्लोमो सैन्ड (2014)
12. मैं इसाई क्यों हूँ- जाॅन स्टाॅट (2003)
13. मैं हिन्दू क्यों हूँ- शशि थुरूर (2018)
14. मैं ऑस्ट्रियाई अर्थशास्त्री क्यों नहीं हूँ- ब्रियान कैप्लान
15. मैं मूर्तिपूजक क्यों हूँ- वाँग चिन फू
16. मैं बौद्ध क्यों नहीं हूँ- इवान थाम्पसन

बर्ट्रैंड रसल ने बड़े साहस का परिचय दिया, बल्कि कहना चाहिये कि दुस्साहस का परिचय दिया कि स्वयं इसाई होते हुए इसाईयत के खिलाफ बिगुल बजा दिया।

धार्मिक दकियानूसी, अन्धविश्वास, पाखण्ड, भेदभाव के खिलाफ यह प्रमाणिक मुखर स्वर युद्ध के खिलाफ, भेदभाव के खिलाफ और समता, सौहार्द व शान्ति का पक्षधर था। उन्हें सन् 1950 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।

बर्ट्रैंड रसल के विद्रोही व्याख्यान जैसी घटना, लगभग वैसी ही घटना, भारत में हुई, जब 12 दिसम्बर' 1935 की तारीख के लिए लाहौर के जात-पात तोड़क मण्डल द्वारा डा. बी. आर. अम्बेडकर का मुख्य अतिथि के रूप में समय लिया गया। समिति के पदाधिकारियों ने डा. अम्बेडकर के द्वारा दिये जाने वाले व्याख्यान की अग्रिम प्रति की अपेक्षा की। व्याख्यान की अग्रिम प्रति डा. अम्बेडकर ने भेज दी। व्याख्यान पढ़ कर आयोजकों द्वारा उसमें कतिपय परिवर्तन की मांग की गयी। डा. अम्बेडकर ने कहा- व्याख्यान में एक अर्ध विराम का भी परिवर्तन नहीं करूँगा।

अन्ततः आयोजकों ने वह कार्यक्रम ही निरस्त कर दिया। कालान्तर में डा. अम्बेडकर का वह न दिया गया व्याख्यान प्रसिद्ध पुस्तक के रूप में आया- एन्हीलेशन ऑफ कास्ट सिस्टम- जातिभेद का मूलोच्छेद- जिसमें डा. अम्बेडकर ने धर्म के नाम पर चले आ रहे वर्णभेद तथा जातिवाद का जबरदस्त खण्डन किया। और जीवन के अन्तिम दिनों में उन्होंने अपने लाखों अनुयायियों के साथ जातिवादी धर्म त्याग कर समतावादी धम्म अंगीकार कर लिया- बुद्ध धम्म। इस घटना ने भारत में एक नवीन क्रान्ति को जन्म दिया।

भगवान बुद्ध के वचन डा. अम्बेडकर के हृदय पर अंकित हो गये:

न जच्चा होति वसलो, न जच्चा होति ब्राम्हणो।।
कम्मा होति वसलो, कम्मा होति ब्राम्हणो।।

- जन्म से कोई अछूत नहीं होता, न जन्म से कोई ब्राम्हण होता है। कर्म से कोई अछूत और कर्म से ही कोई ब्राम्हण होता है।

पश्चिम में धर्म के नाम पर चल रही दकियानूसी, पाखण्ड, आडम्बर का विद्रोह कोपर्निकस, जर्दानो ब्रूनो, गैलीलीयो ने बहुत पहले कर दिया था। धर्म को तर्क और विज्ञान से चुनौती मिलने लगी थी। जर्दानो ब्रूनों को रोम की बीच सड़क पर पादरियों ने सबके सामने जिन्दा जला दिषा क्योंकि उसने इसाई मान्यता के विरुद्ध कह दिया- धरती चपटी नहीं गोल है। गैलीलीयो को आजीवन उसके घर में कैद कर दिया गया क्योंकि बाइबिल की मान्यता के विरुद्ध उसने कह दिया- सूरज धरती का चक्कर नहीं लगाता, बल्कि धरती सूरज का चक्कर लगाती है। ये दोनों कोपर्निकस की बातों को सत्यापित कर रहे थे। शताब्दियों बाद पोप जाॅन पाॅल द्वितीय ने गैलीलीयो के साथ की गयी बर्बरता के लिए इसाइयत की तरफ से माफी मांगी, लेकिन भारत में अभी धरती शेषनाग के फण पर अथवा गाय की सींग पर टिकी है, जब गाय सींग बदलती है तो भूकम्प आता है...आदि-इत्यादि।

पश्चिम, जो अपने इसाई धर्म के पाखण्ड के प्रति विद्रोही रहा, जिसने तर्क और विवेचना को प्राथमिकता दी, वही पश्चिम बुद्ध धम्म के प्रति दीवाना हुआ है।

बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ वेस्टर्न आस्ट्रेलिया के स्पिरिचुअल डायरेक्टर भिक्खु अजान ब्रम्ह विवरण तार्किकता

"वर्ष 2005 में स्वीडेन की सरकार ने अपने देश के प्रत्येक हाई-स्कूल छात्र लिए एक प्रश्नतालिका भेजी। उसमें एक प्रश्न था- यदि तुम्हें धर्म का विकल्प दिया जाये तो तुम किस धर्म के अनुयायी होना चाहोगे? साठ प्रतिशत ने जवाब दिया - बुद्ध धम्म।"

यह युग विज्ञान, तकनीकि और तार्किकता का है। धर्म भी अब अन्ध आस्था और विश्वास का विषय नहीं रह गया है। वैज्ञानिकता, तकनीकि और तार्किकता से सम्पन्न नयी पीढ़ी को धर्म भी विज्ञान व तार्किकता की भाषा में चाहिये।

बुद्ध दुनिया के अकेले धर्म पुरुष हैं जो अपने कहे वचनों को भी मान लेने के लिए नहीं वरन परीक्षण करके स्वीकारने या नकारने की स्वतन्त्रता देते हैं। तथागत की इस उदारता ने ही दुनिया का मन मोह लिया है।

बड़े भावुक मन से एक दिन रोते हुए एक कविता उमड़ पड़ी थी:

हे तथागत!
आपने मुझे धोखा दिया!!

आपने कह दिय़ा-
मेरी भी बातों को
मान मत लेना,
जांचना-परखना,
परीक्षण करना ,
सोनार जैसे सोने को
आग में तपाता है,
ऐसे तपाना मेरे वचनों को,
तुम्हारी परीक्षण की कसौटी पर
खरा उतरे,
तब मानना मेरे वचनों को...

जब पहली बार सुना
कालाम सुत्त
आपकी वाणी में
तो मैं तो सम्मोहित हो गया
कि आप अपने अनुयायी को भी
कितनी स्वतंत्रता देते हैं!
उसे भी अपने वचनों को
आजमा कर देखने का
मौका देते हैं!!

और मेरी उम्र निकल गयी
आपके वचनों का
परीक्षण करते-करते...

आज पाता हूँ
कि आपने मुझे छल लिया है,
आपने मुझे धोखा दिया है
मेरे अहं को
परीक्षण का प्रलोभन देकर
आपने मुझे
अपना दास बना लिया!

इस अकिंचन की क्या क्षमता
कि आपके वचनों की
परीक्षा कर सके
मैं जितना
परीक्षा प्रवीण होता चला गया
उतना ही अनुत्तीर्ण होता चला गया
और एक दिन पाया
कि मेरा माथा
आपके चरणों में रखा है
और आँखों से
अविरल धारा बह रही है

आपने बड़े धोखे से
मुझे अपना भक्त बना लिया!

हे तथागत!
आपने मुझे धोखा दिया!!
आपने मुझे छल लिया!!!

तथापि यह भी सत्य है कि प्रेम और श्रद्धा अतर्क्य होती है। निदा फ़ाज़ली की गज़ल का एक शेर सदासामयिक है:

दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है।
सोच-समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला।

Photos from Osho the Buddha's post 08/02/2022

Repost :- यूँ तो भारत में सूर्य पूजा का प्रचलन सिन्धु घाटी की सभ्यता और वैदिक काल से ही है, परन्तु ईसा की प्रथम शताब्दी में, मध्य एशिया से भारत आए, कुषाण कबीलों ने इसे यहाँ विशेष रूप से लोकप्रिय बनाया। कुषाण सम्राट कनिष्ट की गणना भारत ही नहीं एशिया के महानतम शासकों में की जाती है। इसका साम्राज्य मध्य एशिया के आधुनिक उजबेकिस्तान तजाकिस्तान, चीन के आधुनिक सिक्यांग एवं कांसू प्रान्त से लेकर अफगानिस्तान, पाकिस्तान और समस्त उत्तर भारत में बिहार एवं उड़ीसा तक फैला था।

कनिष्क ने देवपुत्र शाहने शाही की उपाधि धारण की थी। भारत आने से पहले कुषाण ‘बैक्ट्रिया’ में शासन करते थे, जो कि उत्तरी अफगानिस्तान एवं दक्षिणी उजबेगकिस्तान एवं दक्षिणी तजाकिस्तान में स्थित था और यूनानी एवं ईरानी संस्कृति का एक केन्द्र था। कुषाण हिन्द-ईरानी समूह की भाषा बोलते थे और वे मुख्य रूप से मिहिर (सूर्य) के उपासक थे। सूर्य का एक पर्यायवाची ‘मिहिर’ है, जिसका अर्थ है, वह जो धरती को जल से सींचता है, समुद्रों से आर्द्रता खींचकर बादल बनाता है।

Kanishka's coin depicting Miiro
कुषाण सम्राट कनिष्क ने अपने सिक्कों पर, यूनानी भाषा और लिपि में मीरों (मिहिर) को उत्टंकित कराया था, जो इस बात का प्रतीक है कि ईरान के सौर सम्प्रदाय भारत में प्रवेश कर गया था।ईरान में मिथ्र या मिहिर पूजा अत्यन्त लोकप्रिय थी। भारत में सिक्कों पर सूर्य का अंकन किसी शासक द्वारा पहली बार हुआ था। सम्राट कनिष्क के सिक्के में सूर्यदेव बायीं और खड़े हैं। बांए हाथ में दण्ड है जो रश्ना सें बंधा है। कमर के चारों ओर तलवार लटकी है। सूर्य ईरानी राजसी वेशभूषा में है। पेशावर के पास शाह जी की ढेरी नामक स्थान पर कनिष्क द्वारा निमित एक बौद्ध स्तूप के अवशेषों से एक बक्सा प्राप्त हुआ जिसे ‘कनिष्कास कास्केट’ कहते हैं, इस पर सम्राट कनिष्क के साथ सूर्य एवं चन्द्र के चित्र का अंकन हुआ है। इस ‘कास्केट’ पर कनिष्क के संवत का प्रथम वर्ष अंकित है।

मथुरा के सग्रहांलय में लाल पत्थर की अनेक सूर्य प्रतिमांए रखी है, जो कुषाण काल (पहली से तीसरी शताब्बी ईसवीं) की है। इनमें भगवान सूर्य को चार घोड़ों के रथ में बैठे दिखाया गया है। वे कुर्सी पर बैठने की मुद्रा में पैर लटकाये हुये है। उनके दोनों हाथों में कमल की एक-एक कली है और उनके दोनों कन्धों पर सूर्य-पक्षी गरूड़ जैसे दो छीटे-2 पंख लगे हुए हैं। उनका शरीर ‘औदिच्यवेश’ अर्थात् ईरानी ढंग की पगड़ी, कामदानी के चोगें (लम्बा कोट) और सलवार से ढका है और वे ऊंचे ईरानी जूते पहने हैं। उनकी वेशभूषा बहुत कुछ, मथुरा से ही प्राप्त, सम्राट कनिष्क की सिरविहीन प्रतिमा जैसी है। भारत में ये सूर्य की सबसे प्राचीन मूर्तियां है। कुषाणों से पहली सूर्य की कोई प्रतिमा नहीं मिली है, भारत में उन्होंने ही सूर्य प्रतिमा की उपासना का चलन आरम्भ किया और उन्होंने ही सूर्य की वेशभूषा भी वैसी दी थी जैसी वो स्वयं धारण करते थे।

भारत में पहले सूर्य मन्दिर की स्थापना मुल्तान में हुई थी जिसे कुषाणों ने बसाया था। पुरातत्वेत्ता एं0 कनिघम का मानना है कि मुल्तान का सबसे पहला नाम कासाप्पुर था और उसका यह नाम कुषाणों से सम्बन्धित होने के कारण पड़ा। भविष्य, साम्व एवं वराह पुराण में वर्णन आता है कि भगवान कृष्ण के पुत्र साम्ब ने मुल्तान में पहले सूर्य मन्दिर की स्थापना की थी। किन्तु भारतीय ब्राह्मणों ने वहाँ पुरोहित का कार्य करने से मना कर दिया, तब नारद मुनि की सलाह पर साम्ब ने संकलदीप (सिन्ध) से मग ब्राह्मणों को बुलवाया, जिन्होंने वहाँ पुरोहित का कार्य किया। भविष्य पुराण के अनुसार मग ब्राह्मण जरसस्त के वंशज है, जिसके पिता स्वयं सूर्य थे और माता नक्षुभा ‘मिहिर’ गौत्र की थी। मग ब्राह्मणों के आदि पूर्वज जरसस्त का नाम, छठी शताब्दी ई0 पू0 में, ईरान में पारसी धर्म की स्थापना करने वाले जुरथुस्त से साम्य रखता है। प्रसिद्ध इतिहासकार डी0 आर0 भण्डारकर (1911 ई0) के अनुसार मग ब्राह्मणों ने सम्राट कनिष्क के समय में ही, सूर्य एवं अग्नि के उपासक पुरोहितों के रूप में, भारत में प्रवेश किया। उसके बाद ही उन्होंने कासाप्पुर (मुल्तान) में पहली सूर्य प्रतिमा की स्थापना की। इतिहासकार वी. ए. स्मिथ के अनुसार कनिष्क ढीले-ढाले रूप के ज़र्थुस्थ धर्म को मानता था, वह मिहिर (सूर्य) और अतर (अग्नि) के अतरिक्त अन्य भारतीय एवं यूनानी देवताओ उपासक था| अपने जीवन काल के अंतिम दिनों में बौद्ध धर्म में कथित धर्मान्तरण के बाद भी वह अपने पुराने देवताओ का सम्मान करता रहा|

दक्षिणी राजस्थान में स्थित प्राचीन भिनमाल नगर में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण काश्मीर के राजा कनक (सम्राट कनिष्क) ने कराया था। मारवाड़ एवं उत्तरी गुजरात कनिष्क के साम्राज्य का हिस्सा रहे थे। भिनमाल के जगस्वामी मन्दिर के अतिरिक्त कनिष्क ने वहाँ ‘करडा’ नामक झील का निर्माण भी कराया था। भिनमाल से सात कोस पूर्व ने कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनिष्क को दिया जाता है। कहते है कि भिनमाल के वर्तमान निवासी देवड़ा/देवरा लोग एवं श्रीमाली ब्राहमण कनक के साथ ही काश्मीर से आए थे। देवड़ा/देवरा, लोगों का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि उन्होंने जगस्वामी सूर्य मन्दिर बनाया था। राजा कनक से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें सम्राट कनिष्क की देवपुत्र उपाधि से जोड़ना गलत नहीं होगा। सातवी शताब्दी में यही भिनमाल नगर गुर्जर देश (आधुनिक राजस्थान में विस्तृत) की राजधानी बना। यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि एक कनिघंम ने आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट 1864 में कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की है और उसने माना है कि गुर्जरों के कसाना गौत्र के लोग कुषाणों के वर्तमान प्रतिनिधि है। उसकी बात का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि गुर्जरों का कसाना गोत्र क्षेत्र विस्तार एवं संख्याबल की दृष्टि से सबसे बड़ा है। कसाना गौत्र अफगानिस्तान से महाराष्ट्र तक फैला है और भारत में केवल गुर्जर जाति में मिलता है।

कनिष्क ने भारत में कार्तिकेय की पूजा को आरम्भ किया और उसे विशेष बढ़ावा दिया। उसने कार्तिकेय और उसके अन्य नामों-विशाख, महासेना, और स्कन्द का अंकन भी अपने सिक्कों पर करवाया। कनिष्क के बेटे सम्राट हुविष्क का चित्रण उसके सिक्को पर महासेन 'कार्तिकेय' के रूप में किया गया हैं|आधुनिक पंचाग में सूर्य षष्ठी एवं कार्तिकेय जयन्ती एक ही दिन पड़ती है, कोई चीज है प्रकृति में जिसने इन्हें एक साथ जोड़ा है-वह है सम्राट कनिष्क की आस्था। सूर्य षष्ठी के दिन सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क को भी याद किया जाना चाहिये और उन्हें भी श्रद्धांजलि दी जानी चाहिये।


सन्दर्भ

1. भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय संस्कृति के स्त्रोत, नई दिल्ली, 1991,
2. रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिका, खंड-1 मेरठ, 2006
3. ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864
4. के. सी.ओझा, दी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डिया, इलाहाबाद, 1968
5. डी. आर. भण्डारकर, फारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख), इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्ड X L 1911
6. जे.एम. कैम्पबैल, भिनमाल (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896
7. विन्सेंट ए. स्मिथ, दी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडिया, चोथा संस्करण, दिल्ली, 1990 - C/p and Edited

07/02/2022

अगर मैं नहीं नाचूँ तो पाँव मेरे रूठ जाते हैं।
अगर नाचूँ ज़रा खुल के तो घुंघरू टूट जाते है।

07/02/2022

।।स्तूप।।
-राजेश चन्द्रा-

मिस्र के पिरामिडों के बाद दुनिया की सबसे रहस्यमय आकृतियाँ स्तूप हैं जो अपने अन्दर बड़े रहस्य समेटे हुए हैं। स्तूप का हर अंग एक संकेत है। ठीक-ठीक अध्ययन किया जाए तो स्तूप सम्पूर्ण बुद्ध धम्म का प्रतीक अंकन होता है। एक समय ऐसा भी आता है जब धरती से धम्म विलुप्त हो जाता है लेकिन प्रतीक रूप में यह स्तूप विद्यमान रहते हैं। कोई प्रज्ञावान अनुभूति सम्पन्न व्यक्तित्व इन प्रतीकों से पुनः धम्म उद्घाटित करता है। इसकी आकृतियों में नाम-रूप, दो अतियां, तीन रत्न, चार अरिय सत्य, पंच स्कन्ध, पंचेन्द्रियाँ, षडायतन, सप्त बोध्यांग, अरिय अष्टांग मार्ग, नवलोक, दस पारमिताएं, एकादस निपात, द्वादशनिदान इत्यादि धम्म के समस्त संकेत प्रतीकित किये जाते हैं।

निरंजना नदी के तट पर सम्बोधि उपलब्धि के ठीक बाद भगवान बुद्ध को पहला भोजनदान कम्बोज के दो व्यापारी बन्धुओं तपस्सु और भल्लिक ने दिया था, बोधगया में, शहद खिलाया था। भगवान ने उन्हें उनके भोजनदान के अनुमोदनस्वरूप अपने सिर से तोड़ कर आठ बाल उपहार में दिये थे। वो व्यापारी बन्धु उन बालों को ले कर ब्रम्हदेश यानी बर्मा गये। वहाँ के राजा ने उन बालों पर एक स्तूप बनवाया। बर्मी भाषा में स्तूप को पगोडा कहते हैं। स्तूप को बौद्ध शब्दावली में चैत्य भी कहते हैं।

भगवान के काया में रहते हुए उनके केश धातुओं पर स्तूप बनने का यह प्राचीनतम साक्ष्य है। यंगोन में स्थापित वह स्तूप आज भी बर्मा का सबसे पूजनीय स्थल है।

स्तूप पालि भाषा में थूप लिखा मिलता है। थूप का शाब्दिक अर्थ मिट्टी का टीला होता है, लेकिन बुद्ध धातुओं से संलग्न थूप अर्थात स्तूप एक पूजनीय स्थान हो जाता है। आने वाली पीढ़ियों व काल के लिए यह इतिहास को संरक्षित करने का माध्यम भी है।

स्तूप के साथ सामान्य-सी अवधारणा यह है कि यह भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण अथवा अन्य अरहतों के परिनिर्वाण के उपरान्त उनके धातु अवशेषों यथा केश, नख, अस्थि, पात्र, चीवर इत्यादि को स्थापित कर निर्मित किये गये हैं अथवा किये जाते हैं, लेकिन वास्तव में ठीक-ठीक ऐसा ही है नहीं। यद्यपि कि भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के उपरान्त उनके धातु अवशेषों के आठ हिस्से किये थे जिन पर प्रथमतः आठ स्तूप बने थे।

वस्तुतः हुआ यह कि भगवान के अन्तिम संस्कार के उपरान्त उनके 'फूलों' को लेकर उनपर स्तूप बनाने की आकांक्षा में राजवंशों के बीच युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। चूंकि महापरिनिर्वाण कुशीनगर में हुआ था इसलिए भगवान के फूलों के लिए पहली दावेदारी कुशीनगर के मल्लों ने ही की, फिर पावा के मल्लों ने भी दावा किया। कपिलवस्तु के शाक्यों का सबसे प्रबल आग्रह था क्योंकि भगवान शाक्य वंश से थे। मगध सम्राट अजातशत्रु ने भी साग्रह दावा किया क्योंकि अजातशत्रु के पिता सम्राट बिम्बिसार भगवान के प्रति अत्यन्त श्रद्धालु थे। स्थिति विवाद व युद्ध जैसी हो गयी। तब द्रोण नामक ब्राह्मण ने हल निकाला। उसने सभी दावेदारों को शान्त किया। सबसे आह्वान किया कि भगवान आजीवन खन्तिवादी अर्थात शान्तिवादी रहे और आप लोग उनके ही नाम पर युद्ध के लिए अमादा हैं।

फिर द्रोण ने उपाय निकाला कि भगवान की अस्थियों के आठ हिस्से किये। आठ हिस्सों के वितरण के बाद पिप्पली के मौर्यों ने जब भगवान का महापरिनिर्वाण का समाचार सुना तो वे भी अस्थियों का आग्रह लेकर आए। तब तक अस्थियाँ वितरित हो चुकी थीं, तो उन्होंने भगवान की चिता की राख व अंगारों को संग्रहीत किया। उस पर ही स्तूप बनवाया, इसलिए उस स्तूप को अंगार चैत्य कहा जाता है। अंतिम संस्कार में प्रयुक्त बर्तनों को श्रद्धापूर्वक द्रोण ब्राह्मण ने स्वयं के लिए स्वीकार किया और उन पर भी एक स्तूप बनवाया। इस प्रकार आरम्भ में भगवान के धातु अवशेष निम्न में वितरित हुए जिन पर दस स्तूप बने:

1. मगध नरेश अजातशत्रु
2. वैशाली के लिच्छवि
3. कपिलवस्तु के शाक्य
4. अलकप्प के बुली
5. रामग्राम के कोलीय
6. वेठदीप के ब्राह्मण
7. पावा के मल्ल
8. कुशीनगर के मल्ल
9. पिप्पली के मौर्य (राख)
10. द्रोण ब्राम्हण (बर्तन)

आठ स्तूपों में अवस्थित पावन धातुओं में से सात स्तूपों से अवशेषों को उत्खनित करा कर महान सम्राट अशोक ने चौरासी हजार स्तूप अपने साम्राज्यान्तर्गत निर्मित कराए थे जो पूरे भारत सहित सुदूर अफगानिस्तान, चीन, कोरिया तक मिलते हैं। तथापि स्तूप सिर्फ निर्वाण, परिनिर्वाण या महापरिनिर्वाण के उपरान्त मात्र धातु अवशेषों पर ही नहीं निर्मित होते हैं बल्कि महान घटनाओं के स्मृतिस्वरूप भी बनते हैं।

पारम्परिक रूप से स्तूप आठ प्रकार के होते हैं:

1. पद्म स्तूप (पदुम छोटेन-Padum Choten), लुम्बिनी

2. बुद्धत्व स्तूप (छांगचुब छोटेन-Changchub Choten), बोधगया

3. धम्मचक्क पवत्तन स्तूप (ताशी गोमांग छोटेन-Tashi Gomang Choten), सारनाथ

4. अष्टप्रतिहार्य स्तूप (चोटुल छोटेन-Chotul Choten), श्रावस्ती

5. देवलोक अवतरण स्तूप (ल्हबाब छोटेन-Lhabab Choten), संकिसा

6. मैत्री स्तूप (इन्दुम छोटेन-Andum Choten), राजगृह

7. विजय स्तूप (नामग्याल छोटेन-Namgyal Choten), कौशाम्बी

8. निब्बान स्तूप (न्यंगदे छोटेन-Nyangday Choten), कुशीनगर

लद्दाखी और तिब्बती बुद्ध धम्म में स्तूपों को निर्मित करने की बड़ी समृद्ध परम्परा है।

1. पद्म स्तूप

पहली प्रकार का स्तूप 'पद्म स्तूप' कहलाता है। पद्म का अर्थ होता है कमल। ऐसा मिथक है कि जब सिद्धार्थ गौतम का जन्म हुआ तो जन्म लेते ही वे सात कदम चले थे और उनके कदमों के नीचे कमल के फूल प्रादुर्भूत हो गये थे। उसी घटना की स्मृति में निर्मित स्तूप को पद्म स्तूप कहते हैं। उसमें कमल के फूलों का अंकन विशिष्ट होता है। लद्दाख की भोट भाषा में उसे पदुम छोटेन(Padum Choten) कहते हैं। भोट भाषा में स्तूप को छोटेन कहते हैं। तिब्बती व लद्दाखी बौद्ध यह स्तूप लुम्बिनी में बनवाते हैं।

2. बुद्धत्व स्तूप

भगवान बोधगया में बोधिवृक्ष की छांव में बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। इस घटना की पृष्ठभूमि में 'बुद्धत्व स्तूप' निर्मित होता है। यह स्तूप बोधगया में बनाया जाता है। भोट भाषा में इसे छांगचुब छोटेन (Changchub Choten) कहते हैं।

3. धम्मचक्क पवत्तन स्तूप

नाम से ही स्पष्ट है कि यह स्तूप भगवान की पहली देशना, जिसे धम्मचक्क पवत्तन कहते हैं, की स्मृति में निर्मित किया जाता है। इसमें धम्म चक्र का अंकन अनिवार्यतः होता है। यह स्तूप सारनाथ में है। भोट भाषा में इसे ताशी गोमांग छोटेन (Tashi Gomang Choten) कहा जाता है।

4. अष्टप्रतिहार्य स्तूप

एकबार भगवान ने श्रावस्ती में आठ प्रतिहार्य अर्थात चमत्कार दिखाए थे। उस घटना की स्मृति में 'अष्टप्रतिहार्य स्तूप' निर्मित किये जाते हैं। इसमें अष्टमंगल का चित्रण होता है। यह स्तूप श्रावस्ती में निर्मित होता है। भोट भाषा में इसे चोटुल छोटेन (Chotul Choten) कहते हैं।

5. देवलोक अवतरण स्तूप

भगवान के 45 वर्षावासों में दो वर्षावास बड़े रहस्यमय हैं, जिनका विवरण भगवान की वाणी में ही मिल पाता है। एक वर्षावास भगवान ने कौशाम्बी के जंगलों में हाथी, बन्दर, तोता इत्यादि पशु-पक्षियों के साथ किया था और दूसरा देवलोक में अथवा तुषितलोक में। वहाँ अपनी माता महामाया को अभिधम्म की देशना देकर उन्हें धम्म में प्रतिष्ठित किया था। देवलोक में वर्षावास पूरा करने के उपरान्त उन्होंने संकिसा में अवतरण किया था। इसलिए संकिसा में 'देवलोक अवतरण स्तूप' निर्मित किया जाता है। भोट भाषा में इसे ल्हबाब छोटेन (Lhabab Choten) कहते हैं।

6. मैत्री स्तूप

भगवान ने धम्म की अभिवृद्धि के सात नियमों का उपदेश राजगृह, वर्तमान की राजगीर, में किया था। राजगीर में राजा बिम्बिसार की भगवान से प्रबल मैत्री थी। उन्होंने ही भगवान को पहला विहार दान किया था, बांसों का उपवन वेणुवन। वह मैत्री की स्मृति में निर्मित स्तूप को 'मैत्री स्तूप' कहते हैं। इस स्तूप में सतिया अर्थात स्वास्तिक के चिन्ह अंकित होते हैं। आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए स्वास्तिक चिन्हों को श्रीवत्स या नन्दावर्त कहते हैं जो कि अटूट मैत्री, मंगलमैत्री का प्रतीक होता है। भोट भाषा में इसे इन्दुम छोटेन (Andum Choten) कहते हैं। यह स्तूप राजगृह में निर्मित किया जाता है।

7. विजय स्तूप

स्तूप को स्मारक या मेमोरियल भी कहा जा सकता है। जरूरी नहीं है कि स्तूप में भगवान की पावन धातुएँ ही हों बल्कि किसी घटना विशेष की स्मृति स्वरूप भी स्तूप निर्मित किये जाते हैं।

भगवान ने कौशाम्बी के जंगलों में एक वर्षावास किया था और पशु-पक्षियों को सांकेतिक भाषा में उपदेश किया था। मुँह पर हाथ रखा बन्दर संकेत है कि बुरा मत बोलो। कान पर हाथ रखे हुए बन्दर का संकेत कि बुरा मत सुनो। आंख पर हाथ रखे हुए बन्दर का संकेत कि बुरा मत देखो। इन सांकेतिक उपदेशों ने ही चित्रात्मक यात्रा करते हुए भारत से चीन, वियतनाम होते हुए जापान के बुद्ध विहारों में जगह पायी। तीन बन्दरों की मूर्तियों से गांधीजी बेहद प्रभावित हुए। वे इन मूर्तियों को जापान से लाए और वे गाँधी जी के तीन बन्दरों के रूप में लोकप्रिय हो गये।

भगवान के सांकेतिक उपदेशों से पशु-पक्षियों ने तिर्यक योनि से मुक्त होने में विजय पायी। यह एक सम्भावित घटना है कि जिसकी स्मृति में 'विजय स्तूप' निर्मित किया जाता है। यह स्तूप कौशाम्बी में निर्मित किया जाता है। भोट भाषा में इसे नामग्याल छोटेन (Namgyal Choten) कहते हैं।

8. निब्बान स्तूप

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि यह स्तूप भगवान की महापरिनिर्वाण की स्मृति में निर्मित किया जाता है। निब्बान स्तूप कुशीनगर में निर्मित किया जाता है। भोट भाषा में इसे न्यंगदे छोटेन (Nyangday Choten) कहते हैं।

स्तूप की आकृति में सम्पूर्ण धम्म समावेशित होता है।

(लद्दाखी बुद्ध धम्म की काग्यु परम्परा के पूज्य लामा गेल्तसेन ने अनुगृहपूर्वक स्तूप के सम्बन्ध में भोट भाषा के शब्दार्थ बताए हैं।)

04/11/2021

“सर, क्या आप मुझे ईश्वर के बारे में बता सकते हैं ? क्या ईश्वर है ?" उन्होंने जवाब दिया :

ईश्वर का आविष्कार हमने किया है। विचार ने ईश्वर को रचा है; जिसका अर्थ है कि हमने अपनी मुसीबतों, हताशाओं, दुश्चिताओं और अकेलेपन से तंग आकर ईश्वर नाम की शै का आविष्कार कर लिया है। ईश्वर ने अपनी मूरत के अनुरूप हमें नहीं रचा है-काश, ऐसा होता! व्यक्तिगत है तौर पर मैं किसी भी चीज़ के बारे में कोई विश्वास नहीं रखता हूँ। वक्ता का सामना जो कुछ भी है, जो तथ्य है उससे होता है; प्रत्येक तथ्य, प्रत्येक विचार, प्रत्येक प्रतिक्रिया के स्वरूप का उसे बोध रहता है, उस सबके बारे में उसमें पूरी सजगता रहती है। यदि आप भय से, दुख से मुक्त हैं तो किसी भी ईश्वर की आवश्यकता नहीं है ।

जे. कृष्णमूर्ति : एक जीवनी, पृष्ठ संख्या : २३४.
Krishnamurti
J Krishnamurti Hindi जे कृष्णमूर्ति हिंदी

04/11/2021

#नालंदा_यूनिवर्सिटी

अभी तक के ज्ञात इतिहास की सबसे महान यूनिवर्सिटी ।

आज भले ही भारत शिक्षा के मामले में 191 देशों की लिस्ट में 145वें नम्बर पर हो लेकिन कभी यहीं भारत दुनियाँ के लिए ज्ञान का स्रोत हुआ करता था। आज सैकड़ो छात्रों पर केवल एक अध्यापक उपलब्ध होते हैं वहीं हजारों वर्ष पहले इस विश्वविद्यालय के वैभव के दिनों में इसमें 10,000 से अधिक छात्र और 2,000 शिक्षक शामिल थे यानी कि केवल 5 छात्रों पर एक अध्यापक ..। नालंदा में आठ अलग-अलग परिसर और 10 बुद्ध विहार थे, साथ ही कई अन्य मेडिटेशन हॉल और क्लासरूम थे। यहाँ एक पुस्तकालय 9 मंजिला इमारत में स्थित था, जिसमें 90 लाख पांडुलिपियों सहित लाखों किताबें रखी हुई थीं । यूनिवर्सिटी में सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, ईरान, ग्रीस, मंगोलिया समेत कई दूसरे देशो के स्टूडेंट्स भी पढ़ाई के लिए आते थे। और सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि उस दौर में यहां लिटरेचर, एस्ट्रोलॉजी, साइकोलॉजी, लॉ, एस्ट्रोनॉमी, साइंस, वारफेयर, इतिहास, मैथ्स, आर्किटेक्टर, भाषा विज्ञानं, इकोनॉमिक, मेडिसिन समेत कई विषय पढ़ाएं जाते थे।

इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी । केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी। इस यूनिवर्सटी में देश विदेश से पढ़ने वाले छात्रों के लिए छात्रावास की सुविधा भी थी ।
यूनिवर्सिटी में प्रवेश परीक्षा इतनी कठिन होती थी की केवल विलक्षण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे। यहां आज के विश्विद्यालयों की तरह छात्रों का अपना संघ होता था वे स्वयं इसकी व्यवस्था तथा चुनाव करते थे। छात्रों को किसी प्रकार की आर्थिक चिंता न थी। उनके लिए शिक्षा, भोजन, वस्त्र औषधि और उपचार सभी निःशुल्क थे। राज्य की ओर से विश्वविद्यालय को दो सौ गाँव दान में मिले थे, जिनसे प्राप्त आय और अनाज से उसका खर्च चलता था।

लगभग 800 सालों तक अस्तित्व में रहने के बाद इस विश्वविद्यालय को भूखे-नंगे,असभ्य,आदमखोरों की नजर लग गयी । 1193 में, नालंदा विश्वविद्यालय को बख्तियार खिलजी के अधीन तुर्क मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा बर्बाद कर दिया गया । फारसी इतिहासकार मिन्हाज-ए-सिराज ने अपनी किताब तबक़त-ए-नासिरी में लिखा है कि यूनिवर्सिटी को बर्बाद करते वक्त 1000 भिक्षुओं को जिंदा जलाया गया और 1000 भिक्षुओं के सर कलम कर दिए गए । पुस्तकालय को जला दिया गया, तत्कालीन इतिहासकारों ने लिखा है कि पुस्तकालय में किताबें लगभग 6 महीने तक जलती रहीं । और जलते हुए पांडुलिपियों के धुएं ने एक विशाल पर्वत का रूप ले लिया था ।
J P Udaiya

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मां काली से कैसे कृष्णमूर्ति ने छुटकारा पाया। और गुरु तोतापुरी का सहयोग अंतिम चरण तक पहुंचने के लिए।

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