Krishna ballabh lila sansthan vrindavan
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कृष्ण प्रिया किशोरी जी
*"मैं ना होता तो क्या होता" पर एक प्रसंग ।*
एक बार हनुमानजी ने प्रभु श्रीराम से कहा कि अशोक वाटिका में जिस समय रावण क्रोध में भरकर तलवार लेकर सीता माँ को मारने के लिए दौड़ा, तब मुझे लगा कि इसकी तलवार छीन कर इसका सिर काट लेना चाहिये, किन्तु अगले ही क्षण मैंने देखा कि मंदोदरी ने रावण का हाथ पकड़ लिया, यह देखकर मैं गदगद हो गया ! यदि मैं कूद पड़ता तो मुझे भ्रम हो जाता कि यदि मै न होता तो क्या होता ?
बहुधा हमको ऐसा ही भ्रम हो जाता है, मुझे भी लगता कि यदि मै न होता तो सीताजी को कौन बचाता ? परन्तु आज आपने उन्हें बचाया ही नहीं बल्कि बचाने का काम रावण की पत्नी को ही सौंप दिया। तब मै समझ गया कि आप जिससे जो कार्य लेना चाहते हैं, वह उसी से लेते हैं, किसी का कोई महत्व नहीं है !
आगे चलकर जब त्रिजटा ने कहा कि लंका में बंदर आया हुआ है और वह लंका जलायेगा तो मै बड़ी चिंता मे पड़ गया कि प्रभु ने तो लंका जलाने के लिए कहा ही नही है और त्रिजटा कह रही है तो मै क्या करुं ?
पर जब रावण के सैनिक तलवार लेकर मुझे मारने के लिये दौड़े तो मैंने अपने को बचाने की तनिक भी चेष्टा नहीं की, और जब विभीषण ने आकर कहा कि दूत को मारना अनीति है, तो मै समझ गया कि मुझे बचाने के लिये प्रभु ने यह उपाय कर दिया !
आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब हुई, जब रावण ने कहा कि बंदर को मारा नही जायेगा पर पूंछ मे कपड़ा लपेट कर घी डालकर आग लगाई जाये तो मैं गदगद् हो गया कि उस लंका वाली संत त्रिजटा की ही बात सच थी, वरना लंका को जलाने के लिए मै कहां से घी, तेल, कपड़ा लाता और कहां आग ढूंढता, पर वह प्रबन्ध भी आपने रावण से करा दिया, जब आप रावण से भी अपना काम करा लेते हैं तो मुझसे करा लेने में आश्चर्य की क्या बात है !
इसलिये हमेशा याद रखें कि संसार में जो कुछ भी हो रहा है वह सब ईश्वरीय विधान है, हम और आप तो केवल निमित्त मात्र हैं, इसीलिये कभी भी ये भ्रम न पालें कि...
*"मै न होता तो क्या होता ?"*
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*मनुष्य को जीवन में क्या करना चाहिए ???*
*मनुष्य को जीवन में कायिक और मानसिक उत्थान करना चाहिए । हर मानव का प्रथम कर्तव्य है कि वह अपने शरीर को निरोग रखते हुए मन को निरोग करने का सतत प्रयास किया करे । कहते हैं कि स्वस्थ सरीर से स्वस्थ मन का विकास होता है , इसका मुख्य कारण यह भी है कि यदि हम शरीर से निरोगी होंगे तो अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह समर्पित हो सकेंगे और यदि शरीर से रोगी रहेंगे तो हमारा ध्यान लक्ष्य से भटक कर शरीर में आ जायेगा । इसलिए सन्त जन कहते हैं कि पहले शरीर को रोगमुक्त बनाओ फिर मन को दोषमुक्त बनाओ । शरीर और मन दोनों को सतत अभ्यास से ही बचाया जाता है , आदिकाल में ऋषियों की आयु सीमा नहीं थी जैसे अत्रिऋषी ब्रम्हा जी के पुत्र हैं और त्रेतायुग में प्रभु श्री राम जी चित्रकूट धाम में मिले , और भी बहुत से ऋषि हैं तो इतना लंबा जीवन जीने के लिए हमें खानपान रहन सहन और मन को भी संतुलित करना होगा , इसलिए मनुष्य को सदैव सात्विक भोजन ही करना चाहिए क्योंकि इससे तन और मन दोनों ही निरोगी होते हैं ।।*
*जय श्री कृष्णा*🙏🙏