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अनेक प्रकार के योगों में एक "गृहस्थ योग"' भी है।
गंभीरतापूर्वक इसके ऊपर जितना ही विचार किया जाता है, यह उतना ही अधिक महत्त्वपूर्ण, सर्व सुलभ तथा स्वल्प श्रमसाध्य है। इतना होते हुए भी इससे प्राप्त होने वाली जो सिद्धि है, वह अन्य किसी भी योग से कम नहीं, वरन् अधिक ही है। गृहस्थाश्रम अन्य तीनों आश्रमों की पुष्टि और वृद्धि करने वाला है।
दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास यह तीनों ही आश्रम, गृहस्थाश्रम को व्यवस्थित और सुख-शांतिमय बनाने के लिए हैं।
ब्रह्मचारी इसलिए ब्रह्मचर्य का पालन करता है कि उसका भावी गृहस्थ जीवन शक्तिपूर्ण - समृद्ध हो । वानप्रस्थ और संन्यासी लोग, लोकहित की साधना करते हैं, संसार को अधिक सुख-शांतिमय बनाने का प्रयत्न करते हैं। यह 'लोक' और 'संसार' क्या है ?
दूसरे शब्दों में गृहस्थाश्रम ही है। तीनों आश्रम एक ओर और गृहस्थ आश्रम दूसरी ओर - यह दोनों पलड़े बराबर हैं। यदि गृहस्थाश्रम की व्यवस्था बिगड़ जाए तो अन्य तीनों आश्रमों की मृत्यु ही समझिये ।
गृहस्थ धर्म का पालन करना धर्मशास्त्रों के अनुसार मनुष्य का आवश्यक कर्तव्य है। आत्मोन्नति करने के लिए गृहस्थ धर्म एक प्राकृतिक,स्वाभाविक, आवश्यक और सर्वसुलभ योग है।
गृहस्थ धर्म एक प्रकार की योग साधना है, जिससे आत्मिक उन्नति होती है, स्वर्ग मिलता है, मुक्ति प्राप्त होती है और ब्रह्म निर्वाण की सिद्धि मिलती है। प्राचीन समय में अधिकांश ऋषि गृहस्थ थे। वशिष्ठ जी के सौ पुत्र थे, अत्रिजी की स्त्री अनुसूया थीं, गौतम की पत्नी अहिल्या थी, जमदग्नि के पुत्र परशुराम थे, च्यवन की स्त्री सुकन्या थी, याज्ञवल्क्य की दो स्त्री - गार्गी और मैत्रेयी थी, लोमश के पुत्र श्रृंगी ऋषि थे। वृद्धावस्था में संन्यास लिया हो तो यह बात दूसरी है परंतु प्राचीन काल में जितने भी ऋषि हुए हैं, वे प्रायः सभी गृहस्थ रहे हैं। गृहस्थ में ही उन्होंने तप किये हैं और ब्रह्म निर्वाण पाया है। योगिराज कृष्ण और योगेश्वर शंकर दोनों को ही हम गृहस्थ रूप में देखते हैं। प्राचीन काल में बाल रखाने, नंगे बदन रहने, खड़ाऊ पहनने, मृगछाला बिछाने का आम रिवाज था । घनी आबादी होने के कारण छोटे गाँव और छोटी कुटियाँ होती थीं। इन चिह्नों के आधार पर गृहस्थ ऋषियों को गृहत्यागी मानना अपने अज्ञान का प्रदर्शन करना है।
आत्मोन्नति करने के लिए गृहस्थ धर्म एक प्राकृतिक,स्वाभाविक, आवश्यक और सर्वसुलभ योग है।
जब तक लड़का अकेला रहता है, तब उसकी आत्म-भावना का दायरा छोटा रहता है । वह अपने ही खाने, पहनने, पढ़ने, खेलने तथा प्रसन्न रहने की बात सोचता है। उसका कार्य क्षेत्र अपने आप तक ही सीमित रहता है। जब विवाह हो जाता है तो यह दायरा बढ़ता है, वह अपनी पत्नी की सुख-सुविधाओं के बारे में सोचने लगता है। अपने सुख और मर्जी पर प्रतिबंध लगाकर पत्नी की आवश्यकताएँ पूरी करता है; उसकी सेवा, सहायता और प्रसन्नता में अपनी शक्तियों को खर्च करता है । कहने का तात्पर्य यह कि आत्मभाव की सीमा बढ़ती है, एक से बढ़कर दो तक आत्मीयता फैलती है। इसके बाद एक छोटे शिशु का जन्म होता है। इस बालक की सेवा-सहायता और पालन-पोषण में निःस्वार्थ भाव से इतना मनोयोग लगता है कि अपनी निजी सुख-सुविधाओं का ध्यान मनुष्य भूल जाता है और बच्चे की सुविधा का ध्यान रखता है। इस प्रकार यह सीमा दो से बढ़कर तीन होती है । क्रमशः यह मर्यादा बढ़ती है। पिता कोई मधुर मिष्ठान्न लाता है तो उसे खुद नहीं खाता, वरन् बच्चों को बाँट देता है, खुद कठिनाई में रहकर भी बालकों की तंदुरुस्ती, शिक्षा और प्रसन्नता का ध्यान रखता है। दिन-दिन खुदगर्जी के ऊपर अंकुश लगता जाता है, आत्म-संयम सीखता जाता है और स्त्री, पुत्र, संबंधी, परिजन आदि में अपनी आत्मीयता बढ़ाता जाता है । क्रमशः आत्मोन्नति की ओर बढ़ता जाता है।
As explained by Ankit Karia
*कब्ज (constipation) को दूर करने के कुछ आसान उपाय* :-
कब्ज, पाचन तंत्र की उस स्थिति को कहते हैं जिसमें कोई व्यक्ति का मल बहुत कडा हो जाता है तथा मलत्याग में कठिनाई होती है। कब्ज अमाशय की स्वाभाविक परिवर्तन की वह अवस्था है, जिसमें मल निष्कासन की मात्रा कम हो जाती है, मल कड़ा हो जाता है, उसकी आवृति घट जाती है या मल निष्कासन के समय अत्यधिक बल का प्रयोग करना पड़ता है। सामान्य आवृति और अमाशय की गति व्यक्ति विशेष पर निर्भर करती है। (एक सप्ताह में 3 से 12 बार मल निष्कासन की प्रक्रिया सामान्य मानी जाती है।
आओ, जानें कि कब्ज के क्या हैं कारण और निदान।
कब्ज के लक्षण ( कैसे पहचानें कब्ज )
1. पेट में हवा भरना, (गैस बनना)
2. पेट में दर्द या भारीपन,
3. सिरदर्द,
4. भूख में कमी,
5. जीभ पर अन्न कणों का जमा होना या मुंह का स्वाद बिगड़ना। चक्कर आना, टांगों में दर्द होना, बुखार, नींद-सी छाई रहना और धड़कन का बढ़ जाना।
6. अगर रोजाना ढंग से पेट साफ नहीं होता।
7. हमेशा ऐसा लगता रहे कि पेट से मल पूरी तरह से बाहर नहीं निकला है।
8. बार-बार टॉइलेट जाएं, मगर फिर भी मोशन आने का अंदेशा बना रहे। इसे सीधे तौर पर कब्ज नहीं कहा जाता, मगर यह कब्ज का ही एक रूप यानी उदर विकार ( पेट साफ न होने की बीमार) है।
कब्ज के कारण :-
1. नाभि का ऊपर की तरफ खिसक जाना।
2. बहुत ज्यादा मानसिक तनाव में रहना।
3. तला-भुना, मसालेदार गरिष्ठ भोजन करना।
4. एलोपैथिक दवाओं का ज्यादा सेवन करना।
5. खाने का समय नियमित न होना।
6. टॉइलेट जाने की जरूरत महसूस होने पर भी तमाम वजहों से उसे टालते रहना।
7. अधिक सेक्स करने की वजह से नाभि अपनी जगह से खिसक जाती है, इसकी वजह से शरीर कमजोर होने से तमाम विकार उत्पन्न हो जाते हैं। इस वजह से कब्ज भी हो जाता है।
8. स्मोकिंग या तंबाकू के दूसरे तरीकों से सेवन के कारण। नशीली दवाओं के सेवन से। कोल्ड ड्रिंक या शराब जरूरत से ज्यादा पीने की वजह से।
9. जितनी भूख लगी है, उससे कम खाना खाना।
10. कम रेशायुक्त भोजन का सेवन करना
11. शरीर में पानी का कम होना
12. कम चलना या काम करना
13. कुछ खास दवाओं का सेवन करना
14. बड़ी आंत में घाव या चोट के कारण यानि बड़ी आंत में कैंसर
15. थायरॉयड हार्मोन का कम बनना
16. कैल्सियम और पोटैशियम की कम मात्रा
17. मधुमेह के रोगियों में पाचन संबंधी समस्या
18. कंपवाद (पार्किंसन बीमारी)
नुकसान-
इससे वायु प्रकोप और रक्त विकार होता है। सिरदर्द, अनिद्रा, चक्कर और भूख न लगने की शिकायत भी रहती है। कब्ज बने रहने से ब्लड प्रेशर भी शुरू हो जाता है। बड़ी आँत में मल जमा रहने से उसमें सड़ांध लग जाती है, जिससे आँतों में सूजन और दाँतों में सड़न जैसे रोग भी उत्पन्न होते है। सड़ांध बनी रहने से मसूड़े भी कमजोर होने लगते हैं। कब्ज से आँते कमजोर और दुर्गंधयुक्त हो जाती है। ज्यादा समय कब्ज रहने वाली कब्ज हमारी पेनक्रियाज, किडनी और मूत्राशाय पर गंभीर असर डालने लगती है।
*कब्ज का इलाज :*
1. रेशायुक्त भोजन का अत्यधित सेवन करना, जैसे साबूत अनाज
2. ताजा फल और सब्जियों का अत्यधिक सेवन करना
3. पर्याप्त मात्रा में पानी पीना
4. वसा युक्त भोजन का सेवेन कम करना
कंट्रोल पावर-
सर्वप्रथम तीन दिन तक भोजन त्यागकर सिर्फ घी मिली खिचड़ी खाएँ। इसके बाद चाय, कॉफी, धूम्रपान व मादक वस्तुओं से परहेज तो करें ही साथ ही गरिष्ठ, बासी व बाजारू खाद्य पदार्थों का सेवन न करें। रोज रात्रि में हरड़ और अजवाइन का बारीक चूर्ण एक चम्मच फाँककर एक गिलास कुनकुना पानी पीने से कब्ज दूर होकर पेट साफ रहेगा। बेड-टी को छोड़कर बेड-वाटर लेने की आदत डालें। पानी लेने के बाद पेट का व्यायाम करें।
योग पैकेज- सूर्य नमस्कार, नौकासन, पवनमुक्तासन, अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, वक्रासन धनुरासन और भुजंगासन में से किसी दो का चयन कर इसे नियमित करें। इसके अलावा कुछ और योग क्रियाएँ करें। कब्ज के लिए योग में कुंजल कर्म और शंख प्रक्षालन का प्रावधान भी है, जिसे योग चिकित्सक की सलाह अनुसार करें।
*घरेलू उपायों को अपनाएं कब्ज के लिए*
1. पके टमाटर का रस एक कप पीने से पुरानी से पुरानी कब्ज दूर होती है और आंतों को ताकत भी मिलती है।
2. रात में सोते समय 1 से 2 चम्मच अलसी के बीज ताजा पानी से निगल लें। आंतों की खुश्की दूर होकर मल साफ होगा।
3. 2 अंजीर को रात को पानी में भिगोकर सुबह चबाकर पानी पीने से पेट साफ हो जाता है।
4. गाजर के रस का रोजाना सेवन करने से कोष्ठबद्धता (कब्ज) ठीक हो जाती है। ऐसे व्यक्ति अर्श (बवासीर) रोग से सुरक्षित रहते हैं।
5. गिलोय का बारीक चूर्ण को गुड़ के साथ बराबर की मात्रा में मिलाकर 2 चम्मच सोते समय सेवन करने से कब्ज का रोग दूर हो जाता है।
6. अजवायन 10 ग्राम, त्रिफला 10 ग्राम और सेंधानमक 10 ग्राम को बराबर मात्रा में लेकर कूटकर चूर्ण बना लें। रोजाना 3 से 5 ग्राम इस चूर्ण को हल्के गर्म पानी के साथ सेवन करने से काफी पुरानी कब्ज समाप्त हो जाती है।
7. थूहर के दूध में कालीमिर्च, लौंग या पीपल भिगोकर सुखा लें। कब्ज से परेशान व्यक्ति को कालीमिर्च या लौंग खिला देने से पेट बिल्कुल साफ हो जाता है।
8. सोते समय 1 चम्मच साबुत मेथी दाने को पानी के साथ पीने से कब्ज दूर होगी।
9. 4 चम्मच सौंफ 1 गिलास पानी में उबालें। जब आधा पानी रह जाये तो छानकर पीने से कब्ज दूर हो जायेगा।
गैस :
——
1. 10 पिसी हुई कालीमिर्च को फांककर, ऊपर से गर्म पानी में नीबू निचोड़कर सुबह-शाम पीते रहने से गैस बनना बंद हो जाती है।
2. चुकन्दर को खाने से पेट की गैस दूर होती है।
3. 6 ग्राम अजवाइन में लगभग 2 ग्राम कालानमक को मिलाकर फंकी देकर गर्म पानी पिलाने से गैस मिटती है।
4. पेट में गैस बनने पर सुबह 4 कली लहसुन की खाये इससे पाचन शक्ति बढ़ती है और गैस दूर होती है।
इनसे ठीक रहेगा पेट
फल : मौसमी, संतरा, नाशपाती, तरबूज, खरबूजा, आड़ू, अनानास, कीन्नू, अमरूद, पपीता व रसभरी, अनार।
सब्जियां : आलू, बंदगोभी, फूलगोभी, मटर, शिमला मिर्च, तोरी, टिंडा, लौकी, परमल, गाजर, मैथी, मूली, खीरा, ककड़ी, पालक, नींबू, सरसों और बथुआ।
अनाज : रोटी बनाने के लिए गेहूं के आटे में 5 प्रतिशत तक काले चने का आटा या चोकर मिलाकर प्रयोग करें।
*कुछ विशिष्त प्रयोग*
खाने में ऐसी चीजें ले, जिनसे पेट स्वयं ही साफ हो जाय।
• नमक – छोटी हरड और काल नमक समान मात्रा में मिलाकर पीस लें। नित्य रात को इसकी दो चाय की चम्मच गर्म पानी से लेने से दस्त साफ आता हैं।
• ईसबगोल – दो चाय चम्मच ईसबगोल 6 घण्टे पानी में भिगोकर इतनी ही मिश्री मिलाकर जल से लेने से दस्त साफ आता हैं। केवल मिश्री और ईसबगोल मिला कर बिना भिगोये भी ले सकते हैं।
• चना – कब्ज वालों के लिए चना उपकारी है। इसे भिगो कर खाना श्रेष्ठ है। यदि भीगा हुआ चना न पचे तो चने उबालकर नमक अदरक मिलाकर खाना चाहिए। चेने के आटे की रोटी खाने से कब्ज दूर होती है। यह पौष्िटक भी है। केवल चने के आटे की रोटी अच्छी नहीं लगे तो गेहूं और चने मिलाकर रोटी बनाकर खाना भी लाभदायक हैं। एक या दो मुटठी चने रात को भिगो दें। प्रात: जीरा और सौंठ पीसकर चनों पर डालकर खायें। घण्टे भर बाद चने भिगोये गये पानी को भी पी लें। इससे कब्ज दूर होगी।
• बेल – पका हुआ बेल का गूदा पानी में मसल कर मिलाकर शर्बत बनाकर पीना कब्ज के लिए बहुत लाभदायक हैं। यह आँतों का सारा मल बाहर निकाल देता है।
• नीबू – नीम्बू का रस गर्म पानी के साथ रात्रि में लेने से दस्त खुलकर आता हैं। नीम्बू का रस और शक्कर प्रत्येक 12 ग्राम एक गिलास पानी में मिलाकर रात को पीने से कुछ ही दिनों में पुरानी से पुरानी कब्ज दूर हो जाती है।
• नारंगी – सुबह नाश्ते में नारंगी का रस कई दिन तक पीते रहने से मल प्राकृतिक रूप से आने लगता है। यह पाचन शक्ति बढ़ाती हैं।
• मैथी – के पत्तों की सब्जी खाने से कब्ज दूर हो जाती है।
• गेहूं के पौधों (गेहूँ के जवारे) का रस लेने से कब्ज नहीं रहती है।
• धनियाँ – सोते समय आधा चम्मच पिसी हुई सौंफ की फंकी गर्म पानी से लेने से कब्ज दूर होती है।
• दालचीनी – सोंठ, इलायची जरा सी मिला कर खाते रहने से लाभ होता है।
• टमाटर
*इनसे करें परहेज*
फल : चीकू, केला, सेब, अंगूर, शरीफा, लीची।
सब्जियां : अरबी, भिंडी, कचालू, रतालू, बैंगन, जमीकंद, चुकंदर।
दालें : राजमा, सफेद छोले, साबुत उड़द, चने, सोयाबीन, लोबिया (खास तौर पर रात के वक्त इन्हें खाने से परहेज करें)। पनीर, घी से बचें।
उधर कल्प चूर्ण उदर कल्प चूर्ण एक चम्मच सुबह-शाम
दिव्य चूर्ण एक चम्मच सुबह-शाम खाना खाने के बाद गुनगुने पानी से दिव्य शुद्धि चूर्ण एक चम्मच खाना खाने के बाद सुबह शाम गुनगुने पानी से स्वादिष्ट विरेचन चूर्ण आधा से एक चम्मच, रात को गुनगुने पानी से।
त्रिफला चूर्ण आधा से एक चम्मच, रात को गुनगुने पानी से।
त्रिफला रस दो चम्मच पानी के ले
बिल्वादि चूर्ण एक चम्मच, गुनगुने पानी से।
केस्टॅर ऑयल (अरंड का तेल) दो छोटे चम्मच। इसमें थोड़ा सा गुनगुना पानी या दूध मिला लें।
गुलकंद एक-एक चम्मच सुबह-शाम दूध से।
हरितकी चूर्ण एक चम्मच रात के समय।
अंकित कारिया जी के द्वारा लिखा गया है-
*चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना (निरोध) 'योग' है।*
चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना ही 'योग' है। योग संकल्प की साधना है। यह अपनी इन्द्रियों को वश में कर चेतन आत्मा से संयुक्त होने का विज्ञान है। यह हिन्दू, मुस्लिम, जैन, ईसाई में भेद नहीं करता। यह न शास्त्र है, न धर्म ग्रन्थ। यह एक अनुशासन है मनुष्य के शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि को पूर्ण अनुशासित करने वाला विज्ञान है। चित्त वासनाओं का पुंज है। अनेक जन्मों के कर्म-संस्कार इसमें विद्यमान हैं जिससे हमेशा इसमें वासना की तरंगें उठती रहती हैं। चैतन्य आत्मा इससे परे है।
जब तक महासमुद्र में तरंगें उठती रहती हैं तब तक चन्द्रमा का बिम्ब उसमें स्पष्ट दिखाई नहीं देता इसी प्रकार चित्त में वासना की तरंगों के निरन्तर उठते रहने से आत्म-ज्योति का बोध नहीं होता (योग नहीं होता)। इसलिए पतंजलि कहते हैं कि चित्त की वृत्तियों का सर्वथा रुक जाना ही 'योग' है, इसी से चैतन्य आत्मा का ज्ञान होगा तथा इसी ज्ञान से मोक्ष होगा। ये चित्त की वृत्तियाँ बहिर्मुखी हैं जो सदा संसार की ओर ही भागती हैं इसलिए मन सदा चंचल बना रहता है। इन वृत्तियों की तरंगों को सर्वथा रोक देने से ही योग हो जाता है, अन्य कुछ करना नहीं पड़ता। बुद्धि और मन चित्त की ही अवस्थाएँ है।
इस चित्त-वृत्ति निरोध को 'अमनी-अवस्था' भी कहते हैं। कबीर ने इसे 'सुरति' कहा है। इसके स्थिर होने पर साधक केवल साक्षी या दृष्टा मात्र रह जाता है, वासनाएँ सभी छूट जाती हैं। यही आत्म-ज्ञान की स्थिति है। पतंजलि ने बहुत ही संक्षेप में समस्त योग का सार एक ही सूत्र में रख दिया कि 'चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।' यही सारभूत सत्य है।
स्वास्थ्य और योग
अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरं ।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥१॥
वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरं ।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥२॥
वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥३॥
गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरं ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥४॥
करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरं ।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥५॥
गुञ्जा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा ।
सलिलं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥६॥
गोपी मधुरा लीला मधुरा युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरं।
दृष्टं मधुरं सृष्टं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥७॥
गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा ।
दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपते रखिलं मधुरं ॥८॥
- श्रीवल्लभाचार्य कृत
Tomorrow ramrakshastrotra mantra chanting will done at 0800 hrs on this page.
कमर दर्द की समस्या से आज सब परेशान है। इसका प्राथमिक कारण व्यायाम और योगाभ्यास से दूरी तथा द्वितीयक कारण कोलेस्ट्रॉल एवं यूरिक एसिड बढ़ाने वाले आहार का सेवन है।
Kids are getting ready
ऋषि-मुनियों की भाषा संस्कृत
शब्द-ब्रह्म के अनुसार संसार में जितनी भी सूक्ष्म व स्थूल वस्तुएँ हैं, वे सब ध्वनि से ही उत्पन्न हुई हैं। योग सूत्रों का यह मानना है कि इस संसार में पचास मूल ध्वनियाँ हैं, शेष ध्वनियाँ इन्हीं पचास मूल ध्वनियों से निकली हैं। मूल ध्वनियों को मात्रिक कहते हैं।
इन मात्रिकाओं को ऋषि-मुनियों ने अपनी ध्यानावस्था में सुना और फिर वाक्-तत्त्व (Phonetic-Principle) के आधार पर एक भाषा का निर्माण किया, जिसे उन्होंने 'संस्कृत' (अतिशोधित) नाम दिया।
संस्कृत एक ऐसी भाषा है जिसमें मनुष्य के कंठ, दंत, जिह्वा, ओष्ठ व तालू से निकलनेवाली सभी ध्वनियों को ज्यों का त्यों शब्दों में लिखा जा सकता है। विश्व की अन्य किसी और भाषा में ऐसा करना संभव नहीं है। संस्कृत भाषा में ५१ वर्ण हैं जिन्हें ब्राह्मी लिपि में लिखा जाता है। अन्य भाषाओं की अपेक्षा संस्कृत में यह क्षमता है कि इसमें जैसा बोला जाता है, वैसा ही उसे लिखा जाता है। यह क्षमता इस भाषा की वैज्ञानिक आधार पर बनी वर्णमाला के कारण है।
जब कोई संस्कृत का शुद्ध उच्चारण करता है तो उस मनुष्य के शरीर पर एक अनुकूल प्रभाव पड़ता है। यही नहीं, जो इस भाषा के शुद्ध उच्चारण को सुनते हैं, उन पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि पुराणों में लिखा है कि जो व्यक्ति वेद-पुराणों, रामायण व गीता के मूल पाठों का श्रवण करता था, उसका भी कल्याण हो जाता था। शायद यही कारण था कि पाश्चात्य गायिका 'मैडम मडोना' ने संस्कृत के उच्चारण को सीखने के लिए एक अल्प अवधि कोर्स बनारस में किया। मडोना का कहना था कि इस भाषा के शुद्ध उच्चारण को सीखने के बाद उसने ऐसा महसूस किया कि संस्कृत शिक्षण के बाद उसे सुननेवाले अधिक प्रभावित हुए।
खेद है कि आज संस्कृत एक जीवित भाषा नहीं है। गुप्तकाल के दौरान संस्कृत समस्त भारत की राष्ट्रीय भाषा थी, पर कालांतर में इसका लोप हो गया। एक सर्वे के अनुसार, देश में संस्कृत बोलने व समझनेवाले मात्र छह-सात हजार ही लोग हैं। संस्कृत भाषा को जीवित बनाने के लिए जर्मनी में कई शोध हुए हैं। पर आज आवश्यकता इस बात की है कि ऐसे शोध भारत में भी होने चाहिए। संस्कृत संबंधी एक आश्चर्यजनक बात यह है कि अमेरिका में रह रहे भारतीयों ने न्यू जर्सी शहर में संस्कृत की एक संस्था खोली है और वे वहाँ संस्कृत सीखते-सिखाते हैं।
चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रही हैं जल थल में,
स्वच्छ चांदनी बिछी हुई है अवनि और अंबरतल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित truno की नोको से,
मानो झीम रहे हैं तरु भी, मंद पवन के झोंको से।।
मैथलीशरण गुप्त
*ईश्वरप्रणिधानाद्वा* ॥ १॥ २३ ॥
पदार्थ :- (ईश्वर प्रणिधानात्) ईश्वर प्रणिधान से समाधि सम्पन्न होती है, (वा) अथवा ।
भावार्थ :- अथवा ईश्वर प्रणिधान अर्थात् दृढ़ ईश्वर निष्ठा से समाधि सम्पन्न होती है।
२४. *क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष*
ईश्वरः ||१|२४||
- पदार्थ :– (क्लेश, कर्म, विपाक, आशयैः) क्लेश, कर्म, कर्मफल तथा इच्छाओं से (अपरामृष्टः) रहित (पुरुष विशेष ईश्वरः) पुरुष विशेष ईश्वर है।
भावार्थ :- अविद्यादि क्लेशों, शुक्लाशुक्ल कर्मों, कर्मफल तथा इच्छाओं से रहित पुरुष विशेष ईश्वर है।
२५. *तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्* ॥१॥२५॥
पदार्थ :- (तत्र) उस ईश्वर में (निरतिशयं) अनन्त (सर्वज्ञ बीजम्) सर्वज्ञता का मूल है।
भावार्थ :- उस ईश्वर में अनन्त ज्ञान है अर्थात् ईश्वर सर्वज्ञ है ।
सर्वज्ञता सातिशय तथा निरतिशय है। ईश्वर की सर्वज्ञता निरतिशय है ।
२६. *स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्* ||१|२६||
पदार्थ :-(स) वह ईश्वर, (पूर्वेषाम्) पूर्वोत्पन्न लोगों का (अपि) भी (गुरु:) गुरु है । (कालेन्) काल के (अनवच्छेदात्) व्यवधान से रहित होने के कारण।
भावार्थ :-काल के व्यवधान से रहित होने के कारण, वह ईश्वर पूर्वोत्पन्न हुये लोगों का भी गुरु है ।
२७. *तस्य वाचकः प्रणवः* ॥ १॥२७॥
पदार्थ :- (तस्य) उस ईश्वर का, (वाचक:) वाचक (प्रणवः) प्रणव है ।
भावार्थ :- उस ईश्वर का अभिव्यक्ता प्रणव अर्थात् ओ३म् है ।
२८. *तज्जपस्तदर्यभावनम्* ॥ १॥ २८ ॥
पदार्थ :- (तत् जपः) उस प्रणव का जप (तदर्थ भावनम्) उसके अर्थ का चिन्तन सहित ईश्वर में निष्ठापूर्वक करना चाहिये ।
भावार्थ :- उस प्रणव अर्थात् ओ३म् का जप ओ३म् के अर्थचिन्तन सहित दृढ़ ईश्वरनिष्ठापूर्वक करना चाहिए।
२६. *ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च* ||१|२६||
पदार्थ :- (ततः) प्रणव के जप से (प्रत्यक् चेतनाधिगमः) चेतनस्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति तथा (अपि अन्तरायाभावः च) अन्तरायों का भी अभाव हो जाता है।
भावार्थ :- प्रणव अर्थात् ओ३म् का दृढ़ ईश्वरनिष्ठापूर्वक जप करने से अन्तरायों का अभाव होकर चेतनस्वरूप ब्रह्म को प्राप्ति हो जाती है ।
११. *भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्* ॥१॥१६॥
- पदार्थ :- (भव प्रत्यय) शरीर तथा शरीर प्राप्ति के हेतु विषयक ज्ञान मात्र शेष रहता है। (विदेह प्रकृतिलयानाम) विदेह तथा प्रकृतिलयसंज्ञक योगियों के लिये।
- भावार्थ :- पूर्व जन्म कृत साधन के प्रभाव से स्थूल शरीर के बन्धन से रहित होकर सूक्ष्म शरीर द्वारा स्थूल शरीर के बाहर रहने की क्षमता प्राप्त "महा विदेहा" स्थिति वाले विदेह संज्ञक योगी तथा सूक्ष्म विषय रूप मूल प्रकृति पर अधिकार करने में सक्षम प्रकृति लय संज्ञक योगी स्वभावतः भव प्रत्यय संज्ञक निर्बीज समाधि में समर्थ होते हैं। उनके लिये प्रारब्ध स्वरूप प्राप्त शरीर तथा जगत का ज्ञान मात्र ही भव प्रत्यय है। २०.
*श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्* ॥ १॥२०॥
पदार्थ :- (श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि, प्रज्ञा पूर्वक) श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि तथा प्रज्ञा पूर्वक, (इतरेषाम्) अन्यों को यह योग सम्पन्न होता है।
भावार्थ : 1 -भव प्रत्यय से भिन्न, उपाय प्रत्यय द्वारा उपासना योग को सम्पन्न करने वाले योगियों को यह परमेश्वर की उपासना रूपी योग, श्रद्धा अर्थात् सत्य को धारण करने विषयक उत्साह, वीर्य अर्थात् सामर्थ्य, स्मृति, चित्त के निरोध स्वरूप समाधि तथा विवेक ख्याति रूप प्रज्ञा द्वारा सम्पन्न होता है ।
उपाय प्रत्यय की दृष्टि से योगियों के तोन भेद हैं— अ :- मृदूपाय । आः -मध्यमोपाय । इ :- अघिमात्रोपाय |
२१. *तीव्र संवेगानामासन्नः* ॥ १॥ २१ ॥
पदार्थ :-- (तीव्र संवेगानाम्) तोव्र संवेग युक्त योगियों को यह उपासना योग (आसन्नः) शीघ्र सम्पन्न होता है।
भावार्थ :- तीव्र संवेग युक्त योगियों को यह उपासना योग शीघ्र सम्पन्न होता है ।
२२. *मृदुमध्य धिमात्रत्वासतोऽपि विशेषः* ॥ १॥२२॥
- पदार्थ :- (मृदु) मन्द गति से साधन परायण, (मध्य) मध्यम गति से सावन परायण तथा (अधिमानत्वात्) तीव्र गति से साधन परायणों में (ततः) संवेग की दृष्टि से उनमें (अपि) भी (विशेषः) विशेषता है।
भावार्थ :- मृदूपाय, म योपाय तथा अधिमात्रोपाय वालों में भी संवेग को दृष्टि से विशेषाविशेष का अन्तर है।
*पतंजलि मुनी कौन थे?*
संस्कृत व्याकरण,आयुर्वेद शास्त्र एवं योगसूत्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि :-
संस्कृत में पतंजलि शब्द का प्रयोग एक साथ कई विद्वानों के लिए प्रयोग में आता रहा है।कुछ ऐसे ही विद्वान् जिनके लिए पतंजलि शब्द का उल्लेख हुआ है निम्न हैं:
* ईसा 200 वर्ष पूर्व की अवधि में पाणिनी की अष्टाध्यायी नामक कृति पर टीका ग्रन्थ जिसे संस्कृत व्याकरण एवं भाषा की सर्वोत्तम कृति माना जाता है एवं महाभाष्य के नाम से जाना जाता है के रचियता भी पतंजलि को ही माना जाता है ।
*योग सूत्रों को संकलित कर योग अभ्यास के रूप में दैनिक जीवन में उतारने का श्रेय जिस महर्षि को जाता है तथा जिनपर छः दर्शनों में से साख्य दर्शन का विशेष प्रभाव रहा है उन्हें भी पतंजलि के नाम से जाना गया।इन्हें कश्मीर का मूल निवासी माना गया है।
*तमिल सिद्ध परम्परा में शैव सम्प्रदाय के 18 सिद्धों में से एक पतंजलि नामक सिद्ध हुए।
*आयुर्वेद संहिताओं में भी पतंजलि के योग सूत्रों का वर्णन आता है।
*पतंजलि को काशी नगरी में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी काल का बताया जाता है इनका जन्म तत्कालीन ‘गोनिया’ नामक स्थान में हुआ था पर कालान्तर में ये काशी स्थित नागकूप नामक स्थान में बस गए थे।नागपंचमी को आज भी काशी के वासी नाग के चित्र बाँटते हैं और कहते हैं कि ‘छोटे गुरु का….बड़े गुरु का नाग ले लो भाई…’अर्थात पतंजलि को शेष नाग का अवतार माना जाता है।
*पतंजलि को रसायन विद्या के विशिष्ट आचार्य के रूप में भी जाना जाता है।कहा जाता है कि रसशास्त्र के अनेक धातु योग,लौह भस्में आदि इन्हीं की देन हैं।
कुछ इतिहासकार पतंजलि को ईसा पूर्व 195-142 काल का मानते हैं तथा पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल की अवधि में इन्हें प्रख्यात चिकित्सक के नाम से जाना जाता था जिन्हें राजा भोज ने तन के साथ साथ मन का चिकित्सक भी माना।
आज भी कहा जाता है:
योगेन चित्तस्य पदेन वाचा मलं शारीरस्य च वैद्यकेन्।
योsपाकरोत्तम् प्रवरम मुनीनां प्रंजलि प्रांजलिनतोsस्मि।।
अर्थात चित्त की शुद्धि के लिए योग ,वाणी की शुद्धि के लिये व्याकरण और शरीर की शुद्धि के लिये वैदयकशास्त्र के ऋषि पतंजलि को प्रणाम।
अर्थात ऋषि पतंजलि का सीधा सम्बन्ध आयुर्वेद से है।ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में संस्कृत व्याकरण के महान ग्रन्थ ‘महाभाष्य’ के रचियता पतंजलि मूल रूप से काशी के निवासी थे जिन्हें पाणिनि के बाद सर्वश्रेष्ठ व्याकरण रचनाकार ऋषि माना गया।
सीधा अर्थ यह है कि भाषा की शुद्धि के लिए व्याकरण,मन की शुद्धि के लिए योग एवं शरीर की शुद्धि के लिये आयुर्वेद के साथ महर्षि पतंजलि का नाम जुड़ा है।
१२. *अभ्यासवंराग्याभ्यां तन्निरोधः* ॥१॥१२॥ -
पदार्थ :- (अभ्यासवैराग्याभ्यां) अभ्यास तथा वैराग्य से (तत् निरोधः) चित्त वृत्तियों का निरोध होता है।
भावार्थ :-अभ्यास तथा वैराग्य से चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है। 17
१३. *तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः* ॥ १॥१३॥
पदार्थ :- (तत्र) निरुद्धावस्था में (स्थिती) स्थित रहने का (यत्न:) प्रयत्न, (अभ्यासः) अभ्यास है।
भावार्थ :-चित्त के निरुद्धावस्था में स्थित रहने के लिए किये जाने वाले प्रयत्न का नाम अभ्यास है। र
१४. *स तु दीर्घकाल नंरन्तयं सत्कारासेवितो दृढभूमिः* ॥१॥१४॥
पदार्थ :-(सः) वह (तु) परन्तु (दीर्घकाल) दीर्घकाल तक (नरन्तर्य) निरन्तर (सत्कारा) आदर सहित (सेवितः) सेवन करने पर (दृढ़ भूमि:) स्थिति दृढ़ हो जाती है ।
भावार्थ:-चित्त को निरुद्धावस्था में रखने वाले यत्न अभ्यास का दीर्घकाल तक श्रद्धा सहित निरन्तर सेवन करने पर चित्त की निरुद्धावस्था रूपी स्थिति दृढ़ हो जाती है।
१५. *दृष्टानुअविकविषय वितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्* ||१|१५||
पदार्थ :-(दृष्ट आनुश्रदिक) देने और सुने हुये (विषय, विषय में (वितृष्णस्य) सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की (बशीकार संज्ञा) वशोकार अवस्था, (वैराग्यम्) वैराग्य है ।
भावार्थ :-देखे और सुने हुये विषय के प्रति आकर्षित न होकर विषय की सर्वथा उपेक्षा करने वाले चित्त की वशीकार स्थिति वैराग्य है ।
१६. *तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवं तृष्ण्यम्* ||१|१६||
पदार्थ :- (तत्) वैराग्य से (परम पुरुष ख्याते:) परमात्मा का ज्ञान तथा, (गुण वैतृष्ण्यम्) गुणों में अरुचि हो जाती है।
भावार्थ:-विषयों के प्रति वैराग्य होने पर परमात्मा का ज्ञान तथा प्रकृति के सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण और उनके कार्यों में विरक्ति हो जाती है।
योग दर्शनम् / समाधि पाद:
५. *वृत्तयः पञ्चतथ्यः क्लिष्टाविलष्टाः* ॥ १।५।।
पदार्थ :- (वृत्तयः) वृत्तियां, (पञ्चतय्यः) पांच प्रकार की हैं, (विलष्टाः) क्लिष्ट अर्थात् बाधक, (अक्लिष्टाः) अक्लिष्ट अर्थात् सहायक ।
भावार्थ :- वृत्तियां क्लिष्ट अर्थात बाधक अक्लिष्ट अर्थात् सहायक भेद से पांच प्रकार की हैं।
६.*प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः* ॥ १॥६॥
पदार्थ :--(प्रमाण) प्रमाण, (विपयय) विपर्यय, (विकल्प) विकल्प, (निद्रा) निद्रा तथा (स्मृतयः) स्मृति |
भावार्थ :- प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा तथा स्मृति ये चित्त की पांच वृत्तियां है ।
७. *प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि* ॥ १॥७॥
पदार्थ :- ( प्रत्यक्ष ) प्रत्यक्ष, (अनुमान ) अनुमान तथा (आगमा:) आगम, (प्रमाणानि) प्रमाण हैं।
भावार्थ :- इन्द्रिय जन्य ज्ञान प्रत्यक्ष है। अप्रत्यक्ष विषय का युक्ति और लक्षणों द्वारा ज्ञान अनुमान है। वेद, शास्त्र तथा आप्त पुरुषों के वाक्य आगम हैं। प्रत्यक्ष अनुमान तथा आगम प्रमाण हैं।
८. *विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद् पप्रतिष्ठम्* ॥१॥८॥
पर्दार्थ :-(विपर्ययः) विपरीत ज्ञान, (मिथ्या ज्ञानम्) मिथ्या ज्ञान, (अतद् रूप प्रतिष्ठम्) जो वस्तु के स्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं है अर्थात् वस्तु के स्वरूप से भिन्न है।
भावार्थ:- जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप से विपरीत अर्थात् भिन्न है वह विपर्यय अर्थात् विपरीत ज्ञान जो मिथ्या ज्ञान है।
६. *शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः* ॥ १॥३॥
पदार्थ :- (शब्द ज्ञानानुपाती) शब्द के द्वारा उत्पन्न ज्ञान (वस्तु शून्यः) वस्तु का अभाव (विकल्पः) विकल्प है।
भावार्थ :-पदार्थ के अभाव में केवल शब्द द्वारा पदार्थ की कल्पना करना विकल्प है।
१०. *अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिनिद्रा* ॥१॥१०॥
पदार्थ :- (अभाव प्रत्यय आलम्बना) अभाव के ज्ञान का आश्रय वाली (वृत्ति: निद्रा) वृत्ति निद्रा है।
भावार्थ :- ज्ञान के अभाव वाली वृत्ति का नाम निद्रा है।
निद्रावस्था में इन्द्रियां बाह्य ज्ञान ग्रहण नहीं करती हैं, तथा मन भी सङ्कल्पों से रहित होता है ।
११. *अनुभूतविषयासम्प्रमोष: स्मृतिः* ॥१॥११॥
पदार्थ :- (अनुभूत विषयासम्प्रमोषः) अनुभूत विषय का न छिपना अर्थात् पुनः स्मरण होना (स्मृतिः) स्मृति है।
भावार्थ :- अनुभूत विषय का पुनः स्मरण होना स्मृति है।
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ओ३म्
समाधि पादः
१. *अथ योगानुशासनम्* ॥ १॥ १॥
पदार्थ :- (अथ) आरम्भ करते हैं, (योग) योग (अनुशासनम्) शास्त्र |
भावार्थ :- योग शास्त्र आरम्भ करते हैं ।
२. *योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः* ॥ १॥२॥
पदार्थ :- (योगः) योग, (चित्तवृत्ति) चित्त की वृत्तियों का (निरोध:) रोकना है।
भावार्थ :- चित्त की वृत्तियों का निरोध अर्थात् रोकना योग है।
३. *तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्* ॥१॥३॥
पदार्थ :- (तदा) उस समय (द्रष्टुः) द्रष्टा (स्वरूपे) अपने स्वरूप में, (अवस्थानम्) स्थित होता है।
भावार्थ :- चित्त की वृत्तियों के निरुद्ध हो जाने पर द्रष्टा अर्थात् जीवात्मा अपने स्वरूप में स्थित होता है।
४. *वृत्तिसारूप्यमितरत्र* ॥ १॥४॥
पदार्थ :- (वृत्तिः) वृत्तियां, (सारूप्यम्) चित्त के स्वरूप के अनुरूप होती हैं, (इतर अत्र) भिन्न अवस्था में ।
भावार्थ :- निरुद्धावस्था से भिन्न अवस्था में चित्त की वृत्तियां चित्त के स्वरूप के अनुरूप होती हैं।
चित्त की शुद्धता के कारण योगी के चित्त की वृत्तियां सामान्य लोगों से सर्वथा भिन्न, शुद्ध स्वरूपवाली होती हैं।
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