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20/04/2022

75 दिनों तक चलने वाले इस महा उत्सव को मनाने के लिए जहां विभिन्‍न जातियों के लोग सहयोग करते हैं वहीं विभिन्‍न रस्मों के साथ इसे संपन्ना कराने में कम से कम 20 हजार लोगों की सहभागिता होती है। विशाल चित्रकोट जलप्रपात अगर बस्तर का पर्याय है तो 610 वर्षों से मनाया जा रहा दशहरा बस्तरवासियों का सबसे बड़ा उत्सव है।
यहां, रामायण और राजा राम की जीत से कोई लेना-देना नहीं है।
बस्तर दशहरा सभी जनजातियों, उनके महाराजा और उनके देवी-देवताओं के बारे में है।
यह दुनिया का सबसे लंबा त्योहार भी है, जिसे 75 दिनों तक मनाया जाता है।
बस्तर दशहरा श्रावण (जुलाई के अंत) के महीने में अमावस्या के साथ शुरू होता है और अश्विन (अक्टूबर) के महीने में शुक्ल पक्ष के तेरहवें दिन समाप्त होता है।
यद्यपि पूरी अवधि के दौरान 12 मुख्य कार्यक्रम होते हैं, पिछले दस दिन, नवरात्रि के साथ अतिव्यापी, सबसे दिलचस्प और उत्सवपूर्ण होते हैं।

रथ परंपरा के साथ बस्तर के इस अनूठे दशहरे का शुभारंभ भूतपूर्व चक्रकोट राज्य में हुआ था। चालुक्य नरेश पुरुषोत्तम देव के शासनकाल में उन दिनों चक्रकोट की राजधानी बड़ेडोंगर थी। चक्रकोट एक स्वतंत्र राज्य था। राजा पुरूषोत्तम देव भगवान जगन्नाथ के परम भक्त थे। बस्तर इतिहास के अनुसार वर्ष 1408 के कुछ समय पश्चात राजा पुरषोत्तम देव ने जगन्नाथपुरी की पदयात्रा की थी। वहां भगवान जगन्नााथ की कृपा से उन्हें रथपति की उपाधि दी गई थी। उपाधि के साथ उन्हें 16 पहियों वाला विशाल रथ भी भेंट किया गया था।
आने वाले कुछ दिनों में हम बस्तर दशहरा से जुडी सभी रस्मों के बारे में जानेंगे

18/04/2022

****आस्था का आलोक पर्व: “गौरी गौरा”****

जोहर - जोहर मोर गउरी गउरा हो , सेवरी लागंव मैं तोर,
गउरी गउरा के मड़वा छवाऐंव ओ , झूले ओ परेवना के हंसा |
हंसा चरथे मोर मूंगा अउ मोती ओ , फोले चना के दारे ,
जोहर जोहर मोर ठाकुर दइया , सेवरी लागंव मैं तोर,
ठाकुर देवता ल आवत सुनतेंव ओ , अंगना बटोरि लेतेंव खोर ||
बईठक देतेंव मैं चंदन पिढुलिया ओ , मांड़ी ले धोई तेंव गोड़ औ,
कांचा दूध म पइंया ल पखारंव ओ , डंडा सरन लागंव तोर |

छत्तीसगढ़ के लोक समाज में शिव के विभिन्न रूप सहज श्रद्धा और विश्वास के साथ पूजित हैं । इन लोकरूपों में बूढ़ादेव , बड़ादेव व गौरा प्रमुख हैं । गौरी - गौरा का पर्व वस्तुतः लोक द्वारा सम्पन्न शिव - पार्वती अर्थात् सत्यम् शिवम सुन्दरम की भावना को जगाया जाता है । उनके विवाह के लिए वो सारी तैयारियाँ और औपचारिकताएँ पूरी की जाती हैं जो सामान्यतः विवाह के लिए आवश्यक हैं । गंड़वा बाजा की अह्लादकारी गूंज और ग्रामीण महिलाओं के कंठों से झरते लोकगीत एक अलौकिक आनंद का सृजन करते हैं । अपने गृह कार्यों से मुक्त होकर ये महिलायें ' फूल कुचरने ' की ये क्रिया के साथ गौरी गौरा के प्रति अपनी लोक आस्था और लोक विश्वास को अभिव्यक्ति देते हैं । जिसका केन्द्र होता है गौरा गुड़ी |
गौरी गौरा पर्व के संबंध में यह किवंदती प्रचलित है । कहा जाता है कि प्राचीन समय में एक गोंड़ दंपत्ति ने पार्वती की तपस्या कर पार्वती को अपनी पुत्री के रूप में पाने की कामना की । पर पार्वती अपने पति भोले शंकर से विलग नहीं होना चाहती थी । जैसा कि यह उनके पूर्व जन्म की कथाओं में भी प्रमाणित है । इसके लिए उन्हें बड़े दुख झेलने पड़े हैं । अतः पार्वती चिन्ता में पड़ गई । पार्वती करे तो करे क्या ? उनकी इस विषम स्थिति को देखकर भोले शंकर मुस्कुराए और उन्होंने उस गोंड़ दंपत्ति को वर देने के लिए संकेत कर दिया । तब से कहा जाता है कि गौरी को वरने के लिए ही गौरा के रूप में शंकर जी का लोक अवतरण होता है । जिसे ग्रामीण समाज प्रतिवर्ष लोकपर्व के रूप में मनाता है । गौरी गौरा शिव व पार्वती का लोक अवतरण ही है । विवाह मंडप के लिए महिलाएं चबूतरे का सृजन करती हैं

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