Namoh Clinic
NAMOH AYURVEDIC CLINIC Dr ABHISHEK SAXENA
खून की कमी
(ANAEMIA)
परिचय :
खून की कमी हरी सब्जियां न खाने के कारण होती है इसकी वजह से भूख नहीं लगती है।
कारण :
हीमोग्लोबिन में लौह (आयरन) तत्व की कमी के कारण और पौष्टिक भोजन की कमी व हरी पत्तों वाली सब्जियों के न मिलने के कारण शरीर में खून की कमी हो जाती है। अगर शरीर को जरूरत के हिसाब से विटामिन वाला भोजन न मिले तो शरीर में खून की कमी के कारण रोग हो जाता है जिसे रक्तचाप (एनीमिया) रोग कहा जाता है।
लक्षण :
शरीर में कमजोरी उत्पन्न होना, चेहरे की चमक खत्म होना, काम में मन नहीं लगना, शरीर थका-थका रहना, भूख न लगना, पेट की सफाई न होना आदि इस रोग के मुख्य लक्षण हैं। स्त्रियों में खून की कमी के कारण `मासिक-धर्म´ समय से नहीं होता है और खून की कमी के कारण कभी-कभी `मासिक-धर्म´ रुक भी जाता है। खून की कमी बच्चों में हो जाने से बच्चे शारीरिक रूप से कमजोर हो जाते हैं जिसके कारण बच्चों के शरीर का विकास नहीं हो पाता। बच्चों का दिमाम इतना कमजोर हो जाता है कि उसकी याददास्त कमजोर हो जाती है जिसके कारण बच्चे पढाई में पिछड़ने लगते हैं। शरीर में खून की कमी होने से चेहरे का रंग पीला, सूजन, सांस लेने में कठिनाई तथा पैरों में सूजन आदि बीमारी हो जाती हैं।
उपचार :
टमाटर, पालक और गाजर का रस आधा-आधा कप प्रतिदिन 40 दिन तक पीने से खून की कमी के कारण हुए रोग में आराम मिलता है।
40 दिन तक फालसा खाने से खून की कमी दूर हो जाती है और यह शरीर में खून बनाने में भी सहायक होती है।
खून की कमी होने में फालसा खाने से खून बढ़ता है।
1 गिलास दूध और 1 कप आम के रस में 1 चम्मच शहद मिलाकर नियमित रूप से सुबह-शाम पीने से लाभ प्राप्त होगा।
300 मिलीलीटर आम का जूस प्रतिदिन पीने से खून की कमी दूर होती है।
नमों आयुर्वेद
डॉ अभिषेक सक्सेना
हेल्पलाइन - 7770992222
गृध्रसी (साइटिका)
(कुल्हे से पैर तक का दर्द)
(Sciatica)
परिचय :
गृध्रसी एक ऐसा रोग है जिसमें पहले रोगी के कूल्हे में दर्द होता है। फिर धीरे-धीरे यह दर्द नसों के द्वारा पूरे पैरों में उत्पन्न हो जाता है। इस रोग के कारण रोगी को उठने-बैठने तथा चलने-फिरने में कठिनाई हो जाती है।
भोजन तथा परहेज :
गृध्रसी रोग से पीड़ित रोगी को भोजन में ठंडे पदार्थ जैसे- दही, केला, मूली, अरबी तथा गैस बनाने वाले पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। इसके अलावा खट्टी चीजें जैसे-इमली, अचार, टमाटर, नींबू, संतरा आदि का सेवन भी इस रोग में हानिकारक है। इस रोग से पीड़ित रोगी को चने तथा उड़द की दाल का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए।
उपचार :
गृध्रसी रोग से पीड़ित रोगी को त्रिफला के काढ़े में 10 से 30 मिलीलीटर एरण्ड का तेल मिलाकर पिलाने से लाभ होता है।
नीम की जड़ का काढ़ा बनाकर पीने से और उसका लेप करने से गृध्रसी रोग में लाभ मिलता है।
20 ग्राम सम्भालू के पत्तों को 400 मिलीलीटर पानी में हल्की आग पर पकायें। चौथाई पानी बचने पर छानकर इस काढ़े को 11 दिन तक पीने से गृध्रसी रोग ठीक हो जाता है।
गृध्रसी रोग में उत्पन्न दर्द में सोंठ और पीपल से प्राप्त तेल की मालिश रोगी के पैरों पर करने से रोगी को बहुत आराम पहुंचता है।
सोंठ के साथ कायफल का काढ़ा बनाकर प्रतिदिन 3 से 4 बार सेवन करने से गृध्रसी रोग के रोगी को बहुत लाभ पहुंचता है।
हारसिंगार के पत्तों का धीमी आंच पर काढ़ा बनाकर गृध्रसी रोग से पीड़ित रोगी द्वारा सेवन करने से लाभ मिलता है।
बाल झड़ना
(गंजेपन का रोग)
परिचय :
सिर के बाल जब उड़ जाते हैं तो खोपड़ी खल्वाट (बालों रहित) हो जाती है जिसे गंज कहते हैं।
कारण :
गंजापन और बाल झड़ने के विभिन्न कारण होते हैं जो निम्नलिखित हैं- मानसिक कार्य अधिक करना, वंशानुगत (पीढ़ियों से चला आया गंजापन का रोग), भोजन में विटामिन्स की कमी, वृद्धावस्था (बुढ़ापा), रक्तविकार (खून की खराबी), सिर में दाद, फेवस (रूसी) आदि। कंघी या सिर की मालिश करते समय टूटे बाल हाथ में आते रहते हैं। धीरे-धीरे सिर में बाल नहीं के बराबर रह जाते हैं।
उपचार :
एक साल पुराने आम के अचार के तेल से रोजाना मालिश करें। इससे गंजेपन का रोग कम हो जाता है।
दही को तांबे के बर्तन से ही इतनी देर रगडे़ कि वह हरा हो जाए। इसे सिर में लगाने से गंजेपन की जगह बाल उगना शुरू हो जाते हैं।
5-5 ग्राम कबीला, कच्चा सुहागा तथा कम भुनी राई को एक साथ पीसकर सिर के गंजेपन पर सरसों के तेल में मिलाकर लेप करें। इससे गंजेपन का रोग मिट जाता है।
00 ग्राम झाऊ की जड़ छाया में सुखाकर दरदरा यानी मोटा-मोटा कूटकर 500 मिलीलीटर पानी में उबालें, 100 मिलीलीटर पानी रह जाने पर निथारकर 100 मिलीलीटर तिल के तेल में जलायें, फिर इसे ठंडा कर लेने के बाद बालों में लगाएं। इससे बालों का झड़ना भी कम हो जाता है।
मेथी के बीजों को बालों में लेप करने से बालों का झड़ना बन्द हो जाता है।
20 ग्राम सुहागा और 20 ग्राम कपूर दोनों को बारीक पीसकर पानी में घोलकर, बाल धोने से बालों का गिरना कम हो जाता है।
चुकन्दर के पत्ते का रस सिर में मालिश करने से गंजेपन का रोग मिट जाता है और नये बाल आना शुरू हो जाते हैं।
डॉ अभिषेक सक्सेना
नमों आयुर्वेद
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झाई, नीलिका
(FRACKLE OF FACE)
परिचय :
चेहरे पर या ज्यादातर गालों पर कभी-कभी काले-काले दाग हो जाते हैं जिन्हे झाईयां कहते हैं। यह रोग पुरूषों की तुलना मे स्त्रियों में ज्यादा होता है।
कारण :
ज्यादा चिन्ता या फिक्र करने से, गर्म हवा लगने से या पेट के खराब हो जाने के कारण चेहरे पर झाईयां निकल आती है।
लक्षण :
इस रोग में रोगी के चेहरे पर लाल, काले, सफेद या नीले रंग के दाग या धब्बे पैदा हो जाते हैं।
उपचार :
हल्दी को पीसकर आक के दूध में मिलाकर लगाने से नई और पुरानी हर प्रकार की चेहरे की झाईयां मिट जाती है।
40 मिलीलीटर हरीदूब (दूर्वा) की जड़ का काढ़ा सुबह और शाम पिलाने से त्वचा के सारे रोग मिट जाते हैं।
नीम के बीज को सिरके के साथ पीसकर चेहरे पर मलने से चेहरे की झाईयां दूर हो जाती है।
पुदीने की पत्तियों को पीसकर चेहरे पर लगाने से चेहरे के दाग-धब्बे, झाईयां आदि सब मिट जाते हैं और चेहरा चमक उठता है।
मंजीठ को शहद में मिलाकर चेहरे पर लगाने से चेहरे की झाईयां दूर हो जाती है।
किसी भी प्रकार के त्वचा के रोग में 10 से 20 मिलीलीटर परवल (परोर) के पत्तों के रस को गुरुची के साथ सुबह और शाम खाने से आराम आता है।
डॉ अभिषेक सक्सेना
नमों आयुर्वेद , भोपाल ।
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शरीर का सुन्न हो जाना
(Numbness Of Body)
परिचय :
अक्सर हम लोगों के बैठे रहने पर या लगातार खड़े रहने पर हमारे शरीर के अंग जैसे हाथ-पैर आदि सुन्न हो जाते हैं।
कारण :
शरीर के अंगों के सुन्न पड़ जाने का कारण वायु का कुपित होना माना जाता है। खून के दौरे में बाधा आने से भी अंगों में सुन्नता आ जाती है। ऐसा भी देखा गया है कि शरीर के किसी अंग को काफी मात्रा में शुद्ध वायु नहीं मिल पाती हैं तो भी शरीर का वह भाग सुन्न हो जाता है।
लक्षण :
जब शरीर को कोई अंग सुन्न हो जाता हैं तो उसमें हल्की झनझनाहट होती हैं। धीरे-धीरे वह स्थान सुन्न मालूम पड़ने लगता हैं। सुई चुभाने के बाद भी उस अंग में किसी प्रकार का दर्द मालूम नहीं पड़ता है।
उपचार :
सोंठ की एक छोटी गांठ औंर लहसुन की एक गांठ को सिल पर पीसकर लेप सा बना लें। फिर इस लेप को 8-10 दिनों तक शरीर के सुन्न पड़ गए अंग पर लगाने से आराम मिलता है।
10 बूंद लहसुन का रस, आधा चम्मच सोंठ और आधा चम्मच तुलसी का रस एकसाथ मिलाकर रोजाना सुबह-शाम लेने से सुन्न पड़ गए अंग ठीक हो जाते हैं।
बेल की जड़, त्रिकुटा तथा चित्रक को बराबर मात्रा में लेकर 500 मिलीलीटर दूध के साथ मिलाकर सेवन करने से शरीर का सुन्न होना दूर होता है।
दशमूल के काढ़े में पुष्कर की जड़ को मिलाकर पीने से शरीर का सुन्न होना दूर हो जाता है।
अमलतास के पत्तों को सुन्न पड़ गए अंगों पर बांधने से शरीर का सुन्न होना दूर हो जाता है।
10 मिलीलीटर नारियल के तेल में आधा चम्मच जायफल का तेल मिला लें। इस तेल की मालिश शरीर के सुन्न पड़ गए अंग पर करने से लाभ होता है।
डॉ अभिषेक सक्सेना
नमों आयुर्वेद , भोपाल
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टांसिल बढ़ना
(Tonsil Enlargment)
परिचय :
गले के प्रवेश द्वार के दोनों तरफ मांस की एक गांठ सी होती है, जो लसिका ग्रंथि के समान होती है जिसे टांसिल कहते हैं। गले में छोटे-छोटे गोल कृत (गोल आकार के) मांसल तन्तु टॉन्सिल कहलाते हैं। इनमें पैदा होने वाले शोथ (सूजन) को टाँन्सिलाइटिस कहा जाता है।
कारण :
मैदा, चावल, आलू, चीनी, ज्यादा ठंडा, ज्यादा खट्टी चीजों का जरूरत से ज्यादा प्रयोग करना टांसिल के बढ़ने का मुख्य कारण है। ये सारी चीजें अम्ल (गैस) बढ़ा देती है। जिससे कब्ज की शिकायत बढ़ जाती है। सर्दी लगने की वजह से भी टांसिल बढ़ जाते हैं। खून की अधिकता, मौसम का अचानक बदल जाना जैसे गर्म से अचानक ठंडा हो जाना, आतशक (गर्मी), हवा का बुखार, दूषित वातावरण में रहने से तथा खराब दूध पीने से भी टांसिल बढ़ जाते हैं।
लक्षण :
गले में सूजन, दर्द, बदबूदार सांस, जीभ पर मैल, सिर में दर्द, गर्दन के दोनों तरफ लसिका ग्रंथियों का बढ़ जाना और उन्हें दबाने से दर्द होना, सांस लेने में परेशानी होना, आवाज का बैठ जाना, हरदम बैचेनी होना और सुस्ती आदि के लक्षण दिखाई देते हैं। इस रोग के होते ही ठंड लगने के साथ बुखार भी आ जाता है, गले पर दर्द के मारे हाथ नहीं रखा जाता और थूक निगलने में तकलीफ महसूस होती है।
भोजन और परहेज :
इस रोग में दूध, रोटी, साबूदाना, खिचड़ी, तोरई और लौकी का पानी, नींबू का पानी, अनन्नास का रस, मौसंबी का रस और आंवले की चटनी का सेवन करना चाहिए।
भोजन में बिना नमक की उबली हुई सब्जियां खाने से टांसिल में जल्दी आराम आ जाता है। मिर्च-मसाले से बने भोजन, ज्यादा तेल की सब्जी, खट्टी चीजें और तेज पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। मूली, टमाटर, गाजर और पालक आदि सब्जियों का सेवन नहीं करना चाहिए।
उपचार :
लहसुन की एक गांठ को पीसकर पानी में मिलाकर गर्म करके उस पानी को छानकर गरारे करने से टांसिल के बढ़ने की बीमारी में लाभ मिलता है।
1 चम्मच अजवाइन को 1 गिलास पानी में डालकर उबाल लें। फिर इस पानी को ठंडा करके उससे कुल्ला और गरारे करने से आराम आता है।
टांसिल के बढ़ जाने पर अनन्नास का जूस गर्म करके पीने से लाभ होता है।
गले में टांसिल होने पर सिंघाड़े को पानी में उबालकर उसके पानी से कुल्ला करने से आराम आता है।
कालीमिर्च, कूट, सेंधानमक, पीपल, पाढ़ और केवरी मोथा को बराबर मात्रा में लेकर पीस लें और एक शीशी में भर लें। इसके बाद इसे शहद में मिलाकर बाहरी गालों और कंठ पर लेप करें।
कड़वी तोरई को चिलम में रखकर तम्बाकू की तरह उसका धुंआ गले में लेकर लार टपकाने से गले की सूजन दूर हो जाती है।
डॉ अभिषेक सक्सेना
नमों आयुर्वेद , भोपाल ।
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होंठ फटना
(Cracked Lips)
परिचय :
वायुमण्डल में नमी कम होने के कारण कभी-कभी होंठ फटने लगते हैं जिससे काफी तकलीफ महसूस होती है। यह परेशानी कभी-कभी शीतपित्त (ठंड़ी पित्त) दोष से होती है। इसलियें इसकी चिकित्सा में शीत-पित्त को उन्मूलित करने वाली औषधियों को भी ध्यान में रखना चाहिए।
उपचार :
खीरे का पानी लगाने से होंठों का फटना बन्द हो जाता है।
5 ग्राम मोम को 25 मिलीलीटर नारियल के गर्म तेल में डालकर घोट लें। इसे दिन में 3 बार होठों पर मलने से लाभ होता है।
होठों पर जब पपड़ी जम जाती है तो उनके उतरने पर बहुत दर्द होता है। इलायची को पीसकर मक्खन में मिलाकर कम से कम 7 दिन तक रोजाना 2 बार होंठों पर लगाने से लाभ होता है।
रात को सोते समय होंठों पर बादाम रोगन लगाकर सो जाएं। इससे सुबह उठने पर पपड़ी हट जायेगी और होंठ मुलायम रहेंगे तथा आगे से होंठों पर पपड़ी भी नहीं जमेगी। हमेशा ध्यान रखें कि होठों पर जमी हुई पपड़ी को नाखून या दांत से कभी नहीं नोंचे और मुंह से सांस न लें।
घी में थोड़ा सा नमक मिलाकर होंठों व नाभि पर लगाने से होंठ फटना बन्द हो जाते हैं।
वनस्पति घी को होंठों पर लगाने से होंठ फटना बन्द हो जाते हैं।
घी मे नमक मिलाकर रोजाना 2-3 बार नाभि पर लगाने से होंठों का फटना पूरी तरह से ठीक हो जाता है।
100 बार के धुले घी में कपूर मिलाकर होंठों पर लगाने से होंठों के जख्म ठीक हो जाते हैं।
डॉ अभिषेक सक्सेना
नमों आयुर्वेद , भोपाल ।
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पेट में वायु का बनना
(Gas In The Stomach)
परिचय :
पेट में गैस या वायु की बीमारी पेट की मंदाग्नि (पाचनशक्ति की कमजोरी या अपच) के कारण होती है। शरीर में रोग तीन भागों से होते हैं। पहला- शाखा, दूसरा-मर्म, अस्थि और संधि तथा तीसरा- कोष्ठ (आमाशय)। वायु या गैस की बीमारी कोष्ठ से पैदा होती है। जब वायु (गैस) कोष्ठ में चलती है, तो मल-मूत्र का अवरोध, हृदय (दिल की बीमारी) रोग, गुल्म (वायु का गोला) और बवासीर आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
कारण :
मनुष्य सेवन किया गया भोजन हजम नहीं कर पाता है तो उसका कुछ भाग शरीर के भीतर सड़ने लगता है। इस सड़न से गैस पैदा होती है। गैस बनने के अन्य कारण भी होते हैं, जैसे- ज्यादा व्यायाम करना, ज्यादा मैथुन करना, अधिक देर तक पढ़ना-लिखना, कूदना, तैरना, रात में जागना, बहुत परिश्रम करना, कटु, कषैला तथा तीखा भोजन खाना, लालमिर्च, इमली, अमचूर, प्याज, शराब, चाय, कॉफी, उड़द, मटर, कचालू, सूखी मछली, मैदे तथा बेसन की तली हुई चीजें, मावा, सूखे शाक व फल, मसूर, अरहर, मटर, लोबिया आदि की दालें खाने से भी पेट में गैस बन जाती है। इसके अतिरिक्त मूत्र (पेशाब), मल, वमन (उल्टी), छींक, डकार, आंसू, भूख, प्यास आदि को रोकने से भी गैस बनती है। आमाशय में वायु के बढ़ने से हृदय (दिल), नाभि, पेट के बाएं भाग तथा हाथ-पैरों में दर्द होने से गैस बन जाती है।
लक्षण :
रोगी की भूख कम हो जाती है। छाती और पेट में दर्द होने लगता है, बेचैनी बढ़ जाती है, मुंह और मल-द्वार से आवाज के साथ वायु निकलती रहती है। इससे गले तथा हृदय के आस-पास भी दर्द होने लगता है। सुस्ती, ऊंघना, बेहोशी, सिर में दर्द, आंतों में सूजन, नाभि में दर्द, कब्ज, सांस लेने में परेशानी, हृदय (दिल की बीमारी), जकड़न, पित्त का बढ़ जाना, पेट का फूलना, घबराहट, सुस्ती, थकावट, सिर में दर्द, कलेजे में दर्द और चक्कर आदि लक्षण होने लगते हैं।
भोजन तथा परहेज :
साग-सब्जी, फल और रेशेवाले खाद्य पदार्थो का सेवन करें। आटे की रोटी में चोकर मिलाकर खाएं। मूंग की दाल की खिचड़ी, मट्ठे के साथ और लौकी (घिया), तोरई, टिण्डे, पालक, मेथी आदि की सब्जी का, दही व मट्ठे का प्रयोग हितकर है। क्रोध (गुस्सा), ईर्ष्या (जलन) और प्यास के वेग को रोकना नहीं चाहिए। जैसे क्रोध आने पर ईश्वर के नाम का जाप करें। शारीरिक व्यायाम और पेट सम्बंधी योगासन करें। चावल, अरबी, फूल गोभी और अन्य वायु पैदा करने वाले पदार्थो का सेवन नहीं करना चाहिए। मिर्च, मसाले, भारी भोजन, मांस, मछली, अण्डे आदि का सेवन न करें।
उपचार :
अदरक का रस एक चम्मच, नींबू का रस आधा चम्मच और शहद को डालकर खाने से पेट की गैस में धीरे-धीरे लाभ होता है।
कच्ची गोभी व गाजर के रस को समान मात्रा में मिलाकर पीने से पेट में गैस नहीं रुकती है।
यदि पेट की नाभि अपने स्थान से हट जाती है तो पेट में गैस, दर्द और भूख नहीं लगती है। ऐसे में नाभि को सही बैठाने से और नाभि पर सरसों का तेल लगाने से लाभ होता है। यदि पेट में दर्द ज्यादा हो रहा हो तो रूई का फोया सरसों के तेल में भिगोकर नाभि पर रखकर पट्टी भी बांध सकते हैं।
आधे कप पानी में 2 लौंग डालकर पानी में उबाल लें। फिर ठण्डा करके पानी पीने से लाभ होगा।
2 लौंग पीसकर उबलते हुए आधा कप पानी में डालें। फिर कुछ ठण्डा होने हर रोज 3 बार सेवन करने से पेट की गैस में फायदा मिलेगा।
नमों आयुर्वेद
डॉ अभिषेक सक्सेना
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संग्रहणी
(SPRUE)
परिचय :
जब दस्त रोग से पीड़ित रोगी गर्म चीज खा लेता है तो रोगी संग्रहणी रोग का शिकार हो जाता है। इस रोग में भोजन को पचाने वाली अग्नि मंद हो जाती है और पाचनक्रिया बहुत बिगड़ जाती है। पाचनक्रिया खराब होने से रोगी के द्वारा खाया हुआ भोजन पच नहीं पाता। संग्रहणी रोग 3 प्रकार का होता है-
वातज संग्रहणी : जो व्यक्ति बादी वाली चीजे अधिक सेवन करता है अथवा मैथुन अधिक करता है उनकी वायु (गैस) कुपिट होकर पाचनक्रिया को बिगाड़ देती है।
पित्त की संग्रहणी : जो व्यक्ति अधिक मिर्च-मसालेदार भोजन करता है, गर्म चीजों का सेवन करता है, तीखी व खट्टी चीजों का सेवन करते हैं उसे नीले, पीले, पतले, कच्चे दस्त होते हैं।
कफ की संग्रहणी : चिकनी, तली हुई, भारी और ठण्डी चीजों का अधिक सेवन करने और सेवन करने के तुरंत बाद सो जाने के कारण खाया हुआ पदार्थ पूरी तरह से पच नहीं पाता। ऐसे में रोगी को दस्त के साथ आंव आने लगता है। इसके अतिरिक्त एक अन्य संग्रहणी भी होता है जिसे सन्निपातक संग्रहणी कहते हैं। इस संग्रहणी में ऊपर के तीनों लक्षण पाए जाते हैं।
कारण :
जब दस्त के रोग से पीड़ित रोगी खान-पान में सावधानी नहीं रखता तब जठराग्नि मंद होकर पाचनक्रिया खराब हो जाता है जिससे वसा (चर्बी) को पचाने की शक्ति समाप्त हो जाती है। इस तरह जब खाया हुआ पदार्थ ठीक से पच नहीं पाता है तो संग्रहणी रोग की उत्पत्ति होती है।
लक्षण :
कफ संग्रहणी में भोजन पूरी तरह से नहीं पच पाता, गला सूख जाता है, भूख और प्यास अधिक लगती है, कान, पसली, जांघ, पेडू आदि में दर्द रहता है। रोगी के मुंह का स्वाद बिगड़ जाता है, मिठाई खाने की अधिक इच्छा होती है तथा बार-बार दस्त लगता रहता है। पित्त की संग्रहणी में नीले, पीले और पानी की तरह पतले दस्त आते हैं रोगी को खट्टी डकारें आती है, छाती व गले में जलन होती है, खाना खाने का मन नहीं करता और प्यास अधिक लगती है। कफज संग्रहणी से पीड़ित रोगी को उल्टी आती है, बार-बार उबकाई आती है तथा खांसी के दौरे पड़ते रहते हैं। सन्निपातज संग्रहणी में सभी लक्षण दिखाई देते हैं। मल झागदार और शरीर कमजोर हो जाता है। जीभ, तालु, होंठ और गाल लाल हो जाता है। इस रोग में आहार के अनुपात में मल अधिक आता है। भोजन करने के तुरंत बाद ही तेज दस्त लग जाता है, खून की कमी हो जाती है, पेट में गड़गड़ाहट होती है, मुंह में छाले हो जाते हैं और कमर दर्द भी होता है।
भोजन तथा परहेज :
पुराने सांठी चावल, खीलों का मांड़, अरहर, मूंग, तथा मसूर की दाल का पानी, गाय का दूध, मक्खन, दही, घी, लस्सी, बकरी का दूध, तिल का तेल, केले का फूल, केला, सिंघाड़ा, नई बेलगिरी, अनार, कैथ, कसेरू, शहद, शराब, लस्सी, भांग, अफीम, जामुन, हर किस्म की छोटी मछली, हिरन व तीतर के मांस का सूप पीना रोगी के लिए बेहद लाभकारी होता है। संग्रहणी रोग से पीड़ित रोगी को सभी प्रकार के कषैला पदार्थ, बकायन, जायफल, मंजीठ, जीरा तथा कूड़े की छाल आदि लेना लाभकारी होता है।
गेहूं, लोबिया, उड़द, जौ, मटर, मकोय, पोई, बथुआ, सहजना, तूंबी, बेर, कच्चे तथा पके हुए आम, खीरा, ककड़ी, लहसुन, पान, सुपारी, कटेरी का फल, नारियल, पत्तों का साग, खटाई, मंगौड़ी, भारी अन्न, गन्ना, धान की खील, कांजी, दूध, दही का पानी, गुड़, कस्तूरी, गोमूत्र, धूप, धूम्रपान, पसीना निकालना, रात्रि का जागरण, परिश्रम करना, मल-मूत्र का वेग रोकना, अधिक पानी पीना, अधिक स्त्री संभोग करना आदि।
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अम्लता
(Acidity)
परिचय :
खून में 20 प्रतिशत अम्ल एसिड अर्थात तेजाब और 80 प्रतिशत क्षार ऐल्काई होता है। जब खून में अम्ल (तेजाब) की मात्रा बढ़ जाती है तो यह अम्ल भोजन पकाने अंग पाकस्थली को प्रभावित करके अम्लता रोग उत्पन्न करता है। अम्लता रोग से पीड़ित रोगी की छाती में जलन व दर्द होता है।
अम्लपित्त 2 प्रकार की होती है- ऊर्ध्वगामी और अधोगामी। ऊर्ध्वगामी अम्लपित्त में पेट का अपचा व गंदा द्रव्य उल्टी के द्वारा मुंह से बाहर निकल जाता है जबकि अधोगामी में पेट की गंदगी गुदा मार्ग से बाहर निकलता है।
ऊर्ध्वगामी अम्लपित्त की बीमारी में हरे, काले, पीले, नीले परंतु लाल रंग के अधिक निर्जल, मछली के धोवन के समान बहुत चिकने, कफ के साथ तीखा, कडुवा व क्षारीय रस वाली उल्टी होती है।
अधोगामी में जलन, मूर्च्छा, प्यास, भ्रम, उबकाई, मोह, मंदाग्नि (पाचनक्रिया का मंदा होना), पसीना और शरीर में पीलापर आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। अधोगामी अम्लपित्त में कड़वी, खट्टी डकारें आना, छाती और गले में जलन, जी मिचलाना, शरीर में भारीपन, अन्न का न पचना, अरूचि, सिर दर्द, हाथ-पैरों की जलन, शरीर का गर्म रहना, खुजली, चकत्ते आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं।
कारण :
अम्लपित्त रोग उत्पन्न होने के कई कारण होते हैं, जैसे- समय पर भोजन न करना, अधिक उपवास करना, बाहरी सड़ी-गली चीजों का सेवन करना, अधिक मिर्च-मसाले वाले भोजन करना, अधिक चाय पीना, कॉफी पीना, शराब पीना आदि। इस सभी कारणों से पाचनशक्ति कमजोरी हो जाती है जिससे वह भोजन को ठीक से नहीं पचा पाती और अम्लपित्त का रोग उत्पन्न हो जाता है।
लक्षण :
पेट से निकलने वाला अम्ल जब अधिक लार के साथ गले तक आ जाता है तो पेट में जलन व खट्टापन प्रतीत होता है। इस रोग से पीड़ित रोगी को छाती में जलन व गले में खट्टापन महसूस होता है। दोनों प्रकार के अम्लपित्त रोग में मंदाग्नि, कब्ज, भूख का कम लगना, पेशाब कम आना, पेट में गैस बनना, गले व छाती में जलन, चक्कर आना, हाथ-पैर, कमर व जोड़ों में दर्द होना, उल्टी होना, थकावट, भोजन का ठीक से न पचना, नींद का कम आना, अधिक आलस्य आना, भोजन करने के 1-2 घंटे बाद खट्टी उल्टी होना तथा अरूचि पैदा होना आदि लक्षण पैदा होता है। इस रोग में भोजन के बाद छाती और गले में जलन तथा खट्टी डकार के साथ खट्टा पानी मुंह में आता रहता है। बीड़ी-सिगरेट पीने वाले को अन्य लोगों की तुलना में रात में भारी भोजन करने से अम्लपित्त, शुगर, हृदय रोग, खांसी और दमा आदि बीमारी होने की अधिक संभावना रहती है।
भोजन और परहेज :
तोरई, टिण्डा, परवल, पालक, मेथी, मूली, आंवला, नारियल का पानी, पेठे का मुरब्बा, आंवले का मुरब्बा, अमरूद, पपीता आदि का सेवन करना अम्लपित्त के रोगियों के लिए लाभकारी होता है। पुराने शालि चावल, पुरानी जौ, पुराने गेहूं, बथुआ का साग, करेला, लौंग, केला, अंगूर, खजूर, चीनी, घी, मक्खन, सिंघाड़ा, खीरा, अनार, सत्तू, केले का फूल, चीनी, कैथ, कसेरू, दाख, पका पपीता, बेलफल, सेंधानमक, पेठे का मुरब्बा, नारियल का पानी, जंगली जानवरों का मांस व छोटी मछलियों का सूप पीना भी लाभकारी होता है। रात को भोजन अपने सामान्य भूख से थोड़ा कम ही करना चाहिए और भोजन करने के बाद थोड़ी देर घूमना चाहिए व ढीले कपड़े पहनकर सोना चाहिए।
चाय, कॉफी, अंडा, मछली, शराब, तले भोजन, खीर और हलवा का कम से कम सेवन करना चाहिए। बासी या ज्यादा समय से रखा हुआ खाना, मिर्च-मसालेदार खाना, भारी भोजन, मिठाइयां, लालमिर्च, खटाई, अधिक नमक आदि का सेवन कम मात्रा में करना चाहिए। गुड़, खट्टा और चरपरा रस, भारी और अम्ल द्रव्य, नयी फसल का अनाज नहीं खाना चाहिए। तिल का बीज, उड़द की दाल, कुल्थी के तेल में बना पदार्थ, दही, बकरी का दूध, कचौड़ी, पराठे, बेसन से बना पदार्थ, फूलगोभी, आलू, टमाटर, बैंगन आदि का कम से कम सेवन करना चाहिए। अम्लपित्त के रोग से पीड़ित रोगी को अधिक परिश्रम व अधिक स्त्री-प्रसंग से बचना चाहिए। मानसिक अंशाति, गुस्सा, दिन में सोना, रात को जागना और मल-मूत्र का वेग रोकना अम्लपित्त के रोगियों के लिए बहुत हानिकारक होता है।
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डॉ अभिषेक सक्सेना
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घबराहट या बेचैनी
(NERVOUSNESS)
परिचय :
मन अशान्त रहना, दिल की धड़कन बढ़ना, किसी भी स्थिति में शान्ति का अनुभव न करना, घबराहट होना, सोने, बैठने या करवट बदलते रहने से भी शान्ति न मिलना आदि घबराहट व बेचैनी कहलाता है। घबराहट स्नायुतंत्र पर दबाव पड़ने या कमजोरी के कारण होती है।
लक्षण :
बिना किसी कारण के ही घबराहट वाले इंसान को यह लगता है कि उसने किसी का कुछ चुरा लिया है या कोई गोपनीय अपराध कर दिया है। कोशिश करने पर भी रात में उसको जल्दी नींद नहीं आती है। ये सभी घबराहट के लक्षण हैं।
उपचार :
एक ग्राम गाय का घी, 4 ग्राम गाय का दूध और थोड़ी सी मिश्री मिलाकर उबालकर इसमें असगंध नागौरी लगभग 3 से 6 ग्राम मिलाकर सुबह-शाम खाने से मानसिक और शारीरिक कमजोरी दूर होती है और घबराहट की शिकायत दूर होती है।
हरे धनिये के पत्ते पीसकर शर्बत की तरह सुबह-शाम पीने से घबराहट खत्म होती है।
अर्जुन की पिसी छाल दो चम्मच, एक गिलास दूध और दो गिलास पानी मिलाकर उबालें और जब पानी जलकर केवल दूध बचे तो इसमें दो चम्मच चीनी मिलाकर छानकर नित्य एक बार हृदय रोगी को पिलाएं। इससे हृदय सम्बंधी रोग और घबराहट व बेचैनी दूर होती है।
सरपत के पत्तों को पीसकर पानी के साथ पिलाने से अधिक प्यास लगने के कारण उत्पन्न बेचैनी व घबराहट दूर होती है।
लगभग 60 ग्राम चना और 25 किशमिश नियमित रात में पानी में भिगोकर रख दें और सुबह खाली पेट चने व किशमिश खाएं। इससे घबराहट दूर होती है।
अंगूर खाने से घबराहट दूर हो जाती है।
कुशा अथवा डाभ की जड़ को 3 से 6 ग्राम की मात्रा में पीसकर दिन में 3 बार पिलाने से प्यास के कारण होने वाली घबराहट दूर होती है।
10 ग्राम आंवले के चूर्ण को इतनी ही मात्रा में मिश्री के साथ सुबह-शाम खाने से घबराहट समाप्त होती है।
इलायची के दानों को पीसकर खाने या शहद में मिलाकर चाटने से घबराहट व जी मिचलाना दूर होता है।
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डॉ अभिषेक सक्सेना
भोपाल
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खांसी
(COUGH)
परिचय :
खांसी का सम्बंध फेफड़ों तथा शरीर के उन अंगों से होता है जो सांस लेने में फेफड़ों को सहायता प्रदान करता है। खांसी का रोग किसी भी मौसम में हो सकता है लेकिन यह विशेष रूप से सर्दी के मौसम में होता है। एलोपैथी चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार खांसी की उत्पत्ति विशेष प्रकार के जीवाणुओं से होती है। यदि खांसी की चिकित्सा कराने में देर हो जाए तो खांसी क्षय रोग (टी.बी.) में बदल जाती है।
कारण :
खांसी होने के अनेक कारण हैं- खांसी वात, पित्त और कफ बिगड़ने के कारण होती है। श्वासनली की सूजन में धूल-धुंआ जाना, जल्दी-जल्दी खाने के कारण खाने-पीने की वस्तुएं अन्ननली में जाने की बजाय श्वासनली में चले जाना, रूक्ष पदार्थों का अधिक सेवन करना, मल-मूत्र या छींक आदि के वेग को रोकना। खट्टी, कषैली, तीव्र वस्तुओं का अधिक सेवन करना। अधिक परिश्रम, अधिक मैथुन, सर्दी लगना, ऋतु परिवर्तन, दूषित हवा, तेज वस्तुओं को सूंघना, फेफड़ों पर गर्मी और सर्दी का प्रभाव अथवा घाव व फुंसी होना आदि खांसी का मुख्य कारण है। गले में रहने वाली उदान वायु जब ऊपर की ओर विपरीत दिशा में जाती है तो प्राणवायु कफ में मिलकर हृदय में जमे हुए कफ को कंठ में ले आती है जिसके फलस्वरूप खांसी का जन्म होता है।
घी-तेल से बने खाद्य पदार्थों के सेवन के तुरन्त बाद पानी पी लेने से खांसी की उत्पत्ति होती है। छोटे बच्चे स्कूल के आस-पास मिलने वाले चूरन, चाट-चटनी व खट्टी-मीठी दूषित चीजें खाते हैं जिससे खांसी रोग हो जाता है।
मूंगफली, अखरोट, बादाम, चिलगोजे व पिस्ता आदि खाने के तुरन्त बाद पानी पीने से खांसी होती है। ठंड़े मौसम में ठंड़ी वायु के प्रकोप व ठंड़ी वस्तुओं के सेवन से खांसी उत्पन्न होती है। क्षय रोग व सांस के रोग (अस्थमा) में भी खांसी उत्पन्न होती है।
सर्दी के मौसम में कोल्ड ड्रिंक पीने से खांसी होती है। ठंड़े वातावरण में अधिक घूमने-फिरने, फर्श पर नंगे पांव चलने, बारिश में भीग जाने, गीले कपड़े पहनने आदि कारणों से सर्दी-जुकाम के साथ खांसी उत्पन्न होती है।
क्षय रोग में रोगी को देर तक खांसने के बाद थोड़ा सा बलगम निकलने पर आराम मिलता है। आंत्रिक ज्वर (टायफाइड), खसरा, इंफ्लुएंजा, निमोनिया, ब्रोंकाइटिस (श्वासनली की सूजन), फुफ्फुसावरण शोथ (प्लूरिसी) आदि रोगों में भी खांसी उत्पन्न होती है।
लक्षण :
खांसी एक ऐसा रोग है जो विभिन्न रोगों के लक्षणों के रूप में उत्पन्न होता है जैसे- बुखार या क्षय (टी.बी.) के साथ खांसी आना। खांसी के रोग में रोगी को बहुत पीड़ा होती है और खांसी उठने पर खांसते-खांसते रोगी के गले व पेट में दर्द होने लगता है। खांसी के कारण रोगी रात को नहीं सो पाता है और पूरी नींद नहीं सो पाने से रोगी का स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है।
खांसी होने से पहले मुंह व गले में कांटे जैसा महसूस होता है। गले में खुजली होती है तथा किसी वस्तु को निगलते समय गले में दर्द होता है। खांसी में रोगी को बार-बार खांसना पड़ता है। सूखी खांसी में खांसते-खांसते मुंह लाल हो जाता है परन्तु कफवाली खांसी में खांसने के बाद कफ निकलता है। बलगम सफेद, पीला, काला किसी भी रंग का हो सकता है।
खांसी पांच प्रकार की होती है :-
वातज खांसी (सूखी खांसी) : वातज खांसी में हृदय, कनपटी, पसली, पेट और सिर में दर्द होता है। चेहरे की चमक समाप्त हो जाती है, मुंह सूख जाता है, शरीर का आकर्षण नष्ट हो जाता है और गला बैठ जाता है। खांसी बढ़ जाने के साथ आवाज में परिवर्तन के साथ शुष्क खांसी होती है जिसमें कफ नहीं निकलता है।
पित्त की खांसी : पित्तज खांसी में वक्षस्थल, दाह, बुखार के साथ मुंह का सूखना, मुंह में कड़वापन, प्यास की अधिकता, पीली उल्टी, कटु स्राव, शरीर में दाह के साथ मुंह पर पीलापन आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। पित्त खांसी में रोगी की आवाज खराब हो जाती है।
कफ की खांसी : कफज खांसी में मुख में कफ चिपटता हुआ महसूस होता है। सिर में दर्द, भोजन में अरुचि, शरीर में भारीपन तथा खुजली, खांसने पर गाढ़ा कफ आदि निकलने के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। इसमें गर्मी से लाभ तथा सर्दी से हानि होती है।
उर:क्षत जन्य (क्षतज) खांसी : उर:क्षत जन्य खांसी में फेफड़ों में घाव होकर खांसी होने लगती है। अधिक मैथुन, अधिक भार उठाना, अधिक चलना अथवा शक्ति से अधिक परिश्रम करना आदि कारणों से ही उर:क्षत की उत्पत्ति होती है। आरम्भ में शुष्क खांसी और फिर कफ में रक्त आने लगता है। गले, हृदय आदि में दर्द का अनुभव, कभी-कभी सुई चुभने जैसी पीड़ा, जोड़ों में दर्द, बुखार, श्वास लेने में परेशानी, प्यास लगना और स्वर में परिवर्तन खांसी के वेग में कफ की घरघराहट आदि लक्षण दिखाई पड़ते हैं।
क्षय कास : क्षयकास में शरीर सूखने लगता है, अंगों में दर्द रहता है, बुखार उत्पन्न होने के साथ जलन व बेचैनी महसूस होती है। शुष्क खांसी में कफ गले में जमा हो जाता है। थूकने के अधिक प्रयत्न में कफ के साथ रक्त आने लगता है और शरीर पतला होने के साथ शक्ति नष्ट होने लगती है।
भोजन और परहेज :
खांसी में पसीना आना अच्छा होता है। नियम से एक ही बार भोजन करना, जौ की रोटी, गेहूं की रोटी, शालि चावल, पुराने चावल का भात, मूंग और कुल्थी की दाल, बिना छिल्के की उड़द की दाल, परवल, तरोई, टिण्डा बैंगन, सहजना, बथुआ, नरम मूली, केला, खरबूजा, गाय या बकरी का दूध, प्याज, लहसुन, बिजौरा, पुराना घी, मलाई, कैथ की चटनी, शहद, धान की खील, कालानमक, सफेद जीरा, कालीमिर्च, अदरक, छोटी इलायची, गर्म करके खूब ठंड़ा किया हुआ साफ पानी, बकरे का मांस, झींगुर आदि छोटी मछलियों का शोरबा तथा हिरन के मांस का शोरबा आदि खांसी के रोगियों के लिए लाभकारी है।
खांसी में नस्य गुदा में पिचकारी लगवाना, आग के सामने रहना, धुएं में रहना, धूप में चलना, मैथुन करना, दस्त रोग, कब्ज, सीने में जलन पैदा करने वाली वस्तुओं का सेवन करना, बाजरा, चना आदि रूखे अन्न खाना, विरुद्ध भोजन करना, मछली खाना, मल मूत्र आदि के वेग को रोकना, रात को जागना, व्यायाम करना, अधिक परिश्रम, फल या घी खाकर पानी पीना तथा अरबी, आलू, लालमिर्च, कन्द, सरसो, पोई, टमाटर, मूली, गाजर, पालक, शलजम, लौकी, गोभी का साग आदि का सेवन करना हानिकारक होता है।
सावधानी :
खांसी के रोगी को प्रतिदिन भोजन करने के एक घंटे बाद पानी पीने की आदत डालनी चाहिए। इससे खांसी से बचाव के साथ पाचनशक्ति मजबूत होती है। खांसी का वेग नहीं रोकना चाहिए क्योंकि इससे विभिन्न रोग हो सकते हैं- दमा का रोग, हृदय रोग, हिचकी, अरुचि, नेत्र रोग आदि।
उपचार :
एक बहेड़े का छिलका या छीले हुए अदरक का टुकड़ा रात को सोते समय मुंह में रखकर चूसने से गले में फंसे बलगम निकल जाता और सूखी खांसी दूर होती है।
5 ग्राम शहद में लहुसन का रस 2-3 बूंदे मिलाकर बच्चे को चटाने से खांसी दूर होती है।
थोड़ी सी फिटकरी को तवे पर भूनकर एक चुटकी फिटकरी को शहद के साथ दिन में 3 बार चाटने से खांसी में लाभ मिलता है।
एक चम्मच शहद में आंवले का चूर्ण मिलाकर चाटने से खांसी दूर होती है।
एक नींबू को पानी में उबालकर गिलास में इसका रस निचोड़ लें और इसमें 28 मिलीलीटर ग्लिसरीन व 84 मिलीलीटर शहद मिलाकर 1-1 चम्मच दिन में 4 बार पीएं। इससे खांसी व दमा में आराम मिलता है।
12 ग्राम शहद को दिन में 3 बार चाटने से कफ निकलकर खांसी ठीक होती है।
चुटकी भर लौंग को पीसकर शहद के साथ दिन में 3 से 4 बार चाटने से आराम मिलता है।
लाल इलायची भूनकर शहद में मिलाकर सेवन करने से खांसी में आराम मिलता है।
मुनक्का, खजूर, कालीमिर्च, बहेड़ा तथा पिप्पली सभी को समान मात्रा में लेकर कूट लें और यह 2 चुटकी चूर्ण शहद में मिलाकर सेवन करने से खांसी दूर होती है।
नमों आयुर्वेद
डॉ अभिषेक सक्सेना
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मूली (White Radish) के कई स्वास्थ्य लाभ हो सकते हैं। यहां कुछ मुख्य लाभ हैं:
विटामिन से भरपूर: मूली विटामिन C, विटामिन K, और विटामिन B का अच्छा स्रोत है, जो आपके शरीर के स्वस्थ रखने में मदद कर सकते हैं।
पाचन को सुधारना: मूली का सेवन पाचन को सुधार सकता है और अपचन, गैस, और एसिडिटी को कम करने में मदद कर सकता है।
कोलेस्ट्रॉल को कम करना: मूली में फाइबर की अच्छी मात्रा होती है, जिससे कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित करने में मदद हो सकती है।
ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करना: मूली में पोटैशियम की अच्छी मात्रा होती है, जो ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करने में मदद कर सकती है।
साइनसिटिस और नजला का इलाज: मूली में अन्टी-इन्फ्लेमेटरी गुण हो सकते हैं, जिससे साइनसिटिस और नजले का इलाज हो सकता है।
शरीर को ठंडक पहुंचाना: मूली में ठंडक प्रदान करने वाले तत्व हो सकते हैं, जो गर्मी में शरीर को ठंडक पहुंचाने में मदद कर सकते हैं।
मूत्र तंतु की सफाई: मूली का सेवन मूत्र तंतु को स्वस्थ रखने में मदद कर सकता है और मूत्र तंतु संबंधित समस्याओं को कम कर सकता है।
शरीर के लिए हानिकारक तत्वों को बाहर निकालना: मूली में अंटी-ऑक्सीडेंट्स होते हैं जो शरीर के लिए हानिकारक तत्वों को बाहर निकालने में मदद कर सकते हैं।
मूली को रोजाना खाने से पहले अपने चिकित्सक से परामर्श करें, विशेषकर यदि आपको कोई विशेष स्वास्थ्य समस्या है।
नमों आयुर्वेदिक क्लिनिक
डॉ अभिषेक सक्सेना
Helpline - 7770992222
च्यवनप्राश के विस्तृत लाभ:
1. **इम्यून सिस्टम को मजबूत करें:** च्यवनप्राश में शतावरी, आमला, और अन्य जड़ी-बूटियां होती हैं जो इम्यून सिस्टम को बढ़ावा देने में मदद करती हैं, जिससे रोगों के खिलाफ रक्षा होती है।
2. **ऊर्जा को बढ़ावा दें:** इसमें शक्कर, घी, और अन्य तत्व होते हैं जो ऊर्जा को बढ़ाने में सहायक होते हैं, विशेषकर थकान और कमजोरी के खिलाफ।
3. **डाइजेस्टिव सिस्टम को सुधारें:** च्यवनप्राश में पुदीना, सौंठ, और जीरा जैसे उपायुक्त तत्व होते हैं जो पाचन सिस्टम को स्वस्थ बनाए रखने में मदद करते हैं।
4. **शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार:** इसमें ब्राह्मी, अश्वगंधा, और जीतमामसी जैसी जड़ी-बूटियां होती हैं जो मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने में मदद कर सकती हैं।
5. **बालों और त्वचा को स्वस्थ रखें:** च्यवनप्राश में आमला, गुड़, और हल्दी जैसे तत्व होते हैं जो त्वचा और बालों के लिए फायदेमंद हो सकते हैं।
6. **रसायनिक तत्वों का स्राव बढ़ावा:** इसमें अमृत बिंदु, कांचनार गुग्गुल, और लौह ब्हास्मा जैसे तत्व होते हैं जो शरीर में रसायनिक स्राव को बढ़ा सकते हैं।
नमों क्लिनिक
डॉ अभिषेक सक्सेना , भोपाल
हेल्पलाइन - 7770992222
चेहरे पर झांई
(DARK FACIAL FRECKLE)
परिचय :
धूप में अनावृत होने के फलस्वरूप मेलेनिन के इकट्ठा हो जाने से चेहरे की त्वचा में पीलापन या भूरापन लिए हुए धब्बे हो जाते हैं जिसे चेहरे की झांई कहते हैं। चेहरे पर झांई होने से चेहरे का आकर्षण समाप्त हो जाता है।
उपचार :
संतरे के और नींबू के छिलके को बारीक पीसकर दूध में मिलाकर चेहरे पर लगाने से चेहरे पर निखार आ जाता है।
10-10 ग्राम संतरे का सूखा छिलका, अण्डे का छिलका, कतीरा, जौ, चना, मसूर, निसास्ता गंदन, बादाम की गिरी और खरबूजे की गिरी को पीसकर और छानकर इसे 2 चम्मच दूध या पानी में मिलाकर सोते समय चेहरे पर लगाएं। सुबह उठकर हल्के गर्म पानी से चेहरे को धोकर बादाम रोगन या चमेली का तेल लगाने से चेहरा सुंदर हो जाता है।
संतरे के छिलकों को सुखाकर पीस लें। फिर इसमें नारियल का तेल और थोड़ा सा गुलाबजल मिलाकर चेहरे पर लगाने से चेहरे की त्वचा बिल्कुल कोमल बनी रहती है।
3-3 चम्मच सोयाबीन और मसूर की दाल को रात को पानी में भिगों दें। सुबह दोनों को साथ में पीसकर कच्चे दूध में मिलाकर चेहरे पर लगाने से चेहरा चमक उठता है।
1 केला लेकर उसका गूदा अच्छी तरह से मसलकर लसलसा बनाकर उसके अन्दर 2 चम्मच गुलाबजल, 2 बूंद इत्र, खस-खस और 4 बूंद ग्लिसरीन की मिलाकर एक साफ शीशी में भरकर रख लें। अगर त्वचा सूखी हो तो मेकअप करने से पहले इसे चेहरे पर क्रीम की तरह लगाकर लेप करें। सूखने के बाद इसे गुनगुने पानी से धो लें। इस लेप को 7 से 20 दिन तक बनाकर रखा जा सकता है। अगर लेप के खराब होने की आशंका लगे तो उसके अन्दर थोड़ा गुलाबजल और मिलाकर रख देना चाहिए।
तुलसी के पत्तों को पीसकर और पानी में मिलाकर चेहरे पर लगाने से चेहरे की झाईयां दूर हो जाती हैं।
तुलसी के पत्तों को पीसकर उन पर नींबू को निचोड़कर चेहरे पर रोजाना लेप करने से त्वचा मुलायम और सुंदर होती है और चेहरे की सुंदरता बढ़ जाती है।
10-10 ग्राम हल्दी और तिल को पीसकर पानी में मिलाकर रात को सोते समय चेहरे पर लगाए और सुबह गर्म पानी से धो लें। इससे चेहरा चमक उठता है।
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