Rudraksha , Gems & Bhojpatras

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08/08/2023

लक्ष्मण रेखा के बारे में तो हम सभी जानते हैं, पर क्या आप जानते हैं कि इसका असली नाम, "सोमतिती विद्या" है!
यह भारत की प्राचीन विद्याओं में से है जिसका अंतिम प्रयोग महाभारत युद्ध में हुआ था।
महर्षि श्रृंगी कहते हैं कि एक वेदमन्त्र है-
सोमंब्रही वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव
ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति।
यह वेदमंत्र है उस सोमना कृतिक यंत्र का, जिसे पृथ्वी और बृहस्पति के मध्य कहीं अंतरिक्ष में स्थापित किया जाता है। वह यंत्र जल,वायु और अग्नि के परमाणुओं को अपने अंदर सोखता है, और फिर एक खास प्रकार से अग्नि और विद्युत के परमाणुओं को वापस बाहर की तरफ धकेलता है।
जब महर्षि भारद्वाज ऋषि-मुनियों के साथ भ्रमण करते हुए वशिष्ठ आश्रम पहुंचे तो उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से पूछा "राजकुमारों की शिक्षा दीक्षा कहाँ तक पहुंची है"?
महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि यह जो ब्रह्मचारी राम है-इसने आग्नेयास्त्र वरुणास्त्र ब्रह्मास्त्र का संधान करना सीख लिया है।और यह धनुर्वेद में पारंगत हुआ है। वहीं वो लक्ष्मणजी के लिए कहते हैं कि महर्षि विश्वामित्र के द्वारा, ब्रह्मचारी लक्ष्मण
एक दुर्लभ सोमतिती विद्या सीख रहा है।
उस समय पृथ्वी पर चार गुरुकुलों में वह विद्या सिखाई जाती थी। महर्षि विश्वामित्र के गुरुकुल में, महर्षि वशिष्ठ के गुरुकुल में, महर्षि भारद्वाज के यहां और उदालक गोत्र के आचार्य शिकामकेतु के गुरुकुल में।
श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि लक्ष्मण उस विद्या में पारंगत था। एक अन्य ब्रह्मचारी "वर्णित" भी उस विद्या का अच्छा जानकार था।
इसके मंत्र को सिद्ध करने से उस सोमना कृतिक यंत्र में जिसने अग्नि के वायु के जल के परमाणु सोख लिए हैं उन परमाणुओं में आकाशीय विद्युत मिलाकर उसका पात बनाया जाता है, फिर उस यंत्र की मदद से लेज़र बीम जैसी किरणों द्वारा पृथ्वी पर गोलाकार रेखा खींच दें।
उसके अंदर जो भी रहेगा वह सुरक्षित रहेगा,लेकिन बाहर से अंदर अगर कोई जबर्दस्ती प्रवेश करना चाहे तो उसे अग्नि और विद्युत का ऐसा झटका लगेगा कि वहीं राख बनकर उड़ जाएगा।
ब्रह्मचारी लक्ष्मण इस विद्या के इतने पारंगत हो गए थे कि कालांतर में यह विद्या सोमतिती न कहकर लक्ष्मण रेखा कहलाई जाने लगी।
महर्षि दधीचि,महर्षि शांडिल्य भी इस विद्या को जानते थे,श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण इस विद्या को जानने वाले अंतिम थे।
उन्होंने कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में मैदान के चारों तरफ यह रेखा खींच दी थी, ताकि युद्ध में जितने भी भयंकर अस्त्र शस्त्र चलें उनकी अग्नि उनका ताप युद्धक्षेत्र से बाहर जाकर दूसरे प्राणियों को संतप्त न करे।

31/07/2023
06/03/2022

राधासहस्रनामस्तोत्रम्
श्रीशिव उवाच -
अथातः संप्रवक्ष्यामि राधानामसहस्रकम् ।
शृणुनारद भद्रं ते गोपनीयं प्रयत्नतः ॥ १॥
प्रातः सायं निशीथेवा पठितव्यं मुमुक्षुभिः ।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा यो जपेत्सुसमाहितः ॥ २॥
सवैष्णवो विशुद्धात्मा जायते नात्र संशयः ।
बहु किं पठनादस्य भवेद्विष्णुसमः पुमान् ॥ ३॥
मासैकपठनादस्य भवेत्सर्वार्थसिद्धिदः ।
मासद्वयेन देवर्षे भवेद्वै वैष्णवोत्तमः ॥ ४॥
सोऽम्बरीषः स प्रह्लाद उद्धवः स युधिष्ठिरः ।
सभीष्म अर्जुनश्चैव स्तवराजं पठेत्तु यः ॥ ५॥
अथ किं बहुनोक्तेन वर्णनेन पुनः पुनः ।
यद्यदिष्टतमं लोके तत्तदाप्नोति साधकः ॥ ६॥
रहस्यं कथयाम्यद्य यद्वै नामसहस्रकम् ।
इदमेव पुरा पृष्टः कृष्ण उद्धवमूचिवान् ॥ ७॥
अथ स्तोत्रम् ।
ॐ श्रीराधाराधिकाऽऽराध्या राधाकृष्णशिवादिभिः ।
गोपिका गोपराज्ञी च गोपानन्दविधायिनी ॥ ८॥
गोपपूज्या गोपहृष्टा गोपगोपीभिरावृता ।
गोपाह्लादकरी गोपी गोपागोपशिवङ्करी ॥ ९॥
सुन्दरी सुन्दराकारा सुन्दरोत्तमवन्दिता ।
सुन्दरानन्दसंहृष्टा सुन्दरी बहुभाविनी ॥ १०॥
सौन्दर्यनिलयारामाभिरामा बहुमानिता ।
श्यामा श्यामप्रियाऽश्यामा श्यामाभिवन्दिता नवा ॥ ११॥
ललिता ललिताचारा ललिताचारशालिनी ।
कृष्णा कृष्णकृपाकर्त्री कृष्णानन्दपरायणा ॥ १२॥
कृष्णप्रिया कृष्णपूज्या कृष्णाकर्षणकारिणी ।
कृष्णाराध्या कृष्णवन्द्या कृत्स्नवर्त्मनिबुद्धिदा ॥ १३॥
कृष्णपूजनसर्वस्वा कृष्णदर्शनतत्परा ।
श्रीकृष्णपदसर्वस्वा कृष्णकृष्णेतिवादिनी ॥ १४॥
श्रीकृष्णकान्तसक्ता च कृष्णप्रेमविवर्द्धिनी ॥ १५॥
विशेषा च विशेषज्ञा बल्लवी वल्लभार्चिता ।
बल्लवीनाञ्चहार्दज्ञा बल्लवीनांसुखावहा ॥ १६॥
रासमण्डलमध्यस्था रासकेलिकलोत्सुका ।
श्रीकृष्णालिङ्गितभुजा रासक्रीडाभिनन्दिनी ॥ १७॥
वृषभानुसुताराधा वृषभानुसुखप्रदा ।
वृषभानुसुतादेवी कीर्त्यानन्दप्रदायिनी ॥ १८॥
वृषभानुसुता तन्वी वृषभानोः कुलध्वजा ।
सर्वागमप्रिया सर्वाचारतत्परमानसा ॥ १९॥
प्रजासञ्जीवनी जीवनौषधीं परमामृता ।
प्रजासेव्या प्रजावन्द्या व्रजमानुषमुक्तिदा ॥ २०॥
सौदामिनी दामप्रिया तपोयुक्ता तपोनिधिः ।
तापसीगीतगुणका तापसानां गतिप्रिया ॥ २१॥
तपः कर्त्री तपोयुक्ता तपोमूर्तिस्तपोमयी ।
तपसां सिद्धिदा सिद्धा सिद्धाचारविचारिणी ॥ २२॥
सिद्धागमा च सिद्धाख्या सिद्धिदात्री सुखावहा ।
सुखदासुखसंहृष्टा सुखाकारासुखालया ॥ २३॥
सखिभिः सेवितासेव्या सेवकानां शिवङ्करी ।
सेविकासेवितपदा सेवकार्पितमानसा ॥ २४॥
मनोवेगा मनोरूपा मनोगतिविडम्बिनी ।
मनसःप्रेरिका माया मायामयविनाशिनी ॥ २५॥
मोक्षदा मोक्षमार्गज्ञा मोक्षमार्गप्रकाशिनी ।
मोक्षरूपा मोक्षगृहा कर्त्री मोक्षस्य जाह्नवी ॥ २६॥
जह्नुकन्या जलावासा जलाधीशा जलप्रिया ।
समुद्रगा विहङ्गाच गङ्गा शिवशिरः स्थिता ॥ २७॥
शिवरूपा शिवकरी शिवहृद्या शिवंवदा ।
शिवप्रिया शिवगतिः शिवमार्गरतिप्रदा ॥ २८॥
शिवाचारप्रिया गुर्वी गुप्तिर्गुप्तगतिर्नृणाम् ।
गुप्ता गुप्ततरा गोप्या गोप्यविद्भिः समर्चिता ॥ २९॥
गुप्तालया गुप्तरूपा गुप्तमार्गप्रवर्तिका ।
लक्ष्मीह्रीश्रीदयामूर्तिस्तुष्टिः पुष्टिः स्तुतिः प्रभा ॥ ३०॥
क्षमा मेधा सुधा विद्या शुद्धिर्बुद्धिधृतिर्गतिः ।
प्रचण्डचण्डमुण्डघ्नी रक्तबीजविनाशिनी ॥ ३१॥
मथुरा द्वारका काञ्ची माहिष्मत्यथ कौशिकी ।
अयोध्या कर्णिका काशीवासिनी कर्मवर्द्धिनी ॥ ३२॥
शान्ता शान्तिकरी पुष्टा शान्तविज्ञानदायिका ।
शान्तिरूपासदा साङ्गा साङ्गोपाङ्गगतिप्रिया ॥ ३३॥
मनोहरा मनोज्ञाच मनोवृत्तिप्रकाशिनी ।
मनःकान्तिभ्रमकरी भ्रामरी भ्रमकारिका ॥ ३४॥
जगद्भ्रमणधाराच जगतो मुक्तिकारिणी ।
जगन्माता जगद्धात्री जगज्जीवनजीविका ॥ ३५॥
जगन्मूर्तिर्जगद्देहा जगतां जीवनौषधी ।
जगतां बुद्धिसन्दात्री जगतां बुद्धिहारिणी ॥ ३६॥
माया मुद्रा महाविद्या महायोगीश्वरी मही ।
योगयुक्ता योगविद्या योगाङ्गायोगवल्लभा ॥ ३७॥
योगविद्येश्वरी योग्यायुक्ताहारासुखान्विता ।
योगैकसाध्या योगाद्या योगक्षेमप्रवाहिका ॥ ३८॥
वृन्दावनप्रिया वृन्दावृन्दावनविहारिणी ।
वृन्दावनकृतालास्या वृन्दावनवरार्चिता ॥ ३९॥
वृन्दावनस्थजन्तूनां सर्वतोभद्रकारिणी ।
वृन्दावनरसोत्कण्ठा वृन्दावनकृतालया ॥ ४०॥
वृन्दावनप्रभावज्ञा वृन्दावनसुपूजिता ।
वेणुवादरता वेणुनादिनी कलभाषिणी ॥ ४१॥
वेष्णवी विष्णुनिरता विष्णुमायावसुन्धरा ।
वसुदा वसुकृद्रामा विष्णुवामाङ्गवासिनी ॥ ४२॥
विष्णुभक्तैः सदा सेव्या विष्णुभक्तहितैषिणी ।
विष्णुविद्या विष्णुरूपा विश्वज्ञा च विवेकिनी ॥ ४३॥
विवेकदायिका साध्वी सम्यक्साधुजनार्चिता ।
सम्यग्ज्ञानपरा सम्यक् सम्यग्विद्याविशारदा ॥ ४४॥
सारदा शारदा साध्या शरत्पूर्णनिभानना ।
शराह्वया सदाह्लादकारिणी जयदा मता ॥ ४५॥
माता मातामही मन्त्रा मूर्तिर्वन्द्या पितामही ।
अर्थैश्वर्यकरी प्रज्ञा ब्राह्मीनारायणी दया ॥ ४६॥
पुण्यापुण्यविधानज्ञा पुण्यदेवद्विजार्चिता ।
पुण्यमूर्तिः पुण्यदेहा पुण्यग्रामनिवासिनी ॥ ४७॥
गोकुलस्य प्रिया देवी गोकुले सर्वनर्मदा ।
गोकुलाचारसर्वज्ञा गोकुलस्य सुखार्थिनी ॥ ४८॥
गोकुलीयैः सदा ध्येया गोकुलाय गतिप्रदा ।
गोकुलाचारविदुषी गोकुलाचारवर्णिनी ॥ ४९॥
सुरारिदमनी दिव्या सुरवृन्दविनाशिनी ।
दुष्टदानवसंहत्रीं कंसचाणूरमर्दिनी ॥ ५०॥
कुमारी कुलजा कुन्ती कुलस्त्री कुलपालिका ।
पाञ्चाली द्रौपदी सीता तारा शैब्याऽथ रुक्मिणी ॥ ५१॥
सत्यभामा तथा सत्या सत्यधर्मपरायणा ।
बृहतीच तथा स्थूला सूक्ष्मा ह्रस्वाच दीर्घिका ॥ ५२॥
यशोदादेवकी चित्तिरन्तःसंलग्नमानसा ।
रोहिणी कुब्जिका गुर्वी किशोरी षोडशाब्दिका ॥ ५३॥
चित्रिणी चित्रभावज्ञा चित्रकर्मकरी सदा ।
विचित्राभरणानन्दव्रजसौभाग्यवर्द्धिनी ॥ ५४॥
नन्दस्तुता नन्दप्रिया नन्दानन्दकरी मही ।
नन्दादिगोपैः प्रणता नन्दस्मरप्रभावती ॥ ५५॥
यमुनाकृतसङ्क्रीडा यमुनारूपधारिणी ।
यमुनायां सदास्नाता यमुनारामकारिणी ॥ ५६॥
गुणाढ्या गुणदा गुण्या त्रिगुणा गुणनिर्वृता ।
गुणान्विता गुणमयी गुणग्रामनिवासिनी ॥ ५७॥
गोपस्त्रीभिः परिवृता गोपकन्याविनोदिनी ।
गोपस्त्रीणां पराशक्तिः परमामृतवर्षिणी ॥ ५८॥
परमानन्दसन्तुष्टा ब्रह्मानन्दमयीश्वरी ।
ब्रह्मानन्दप्रिया ब्रह्मवादिनी ब्राह्मणप्रिया ॥ ५९॥
सरस्वती त्रिवेणी च पुष्करा पुष्करालया ।
त्रयीमयी स्मृतिमयी वेदमार्गविभूषणा ॥ ६०॥
वेदमार्गरतावेदवेद्या विद्वत्सुपूजिता ।
पुराणगीतगुणिका पुराणव्रतशोभना ॥ ६१॥
पुराणातिपुराणाम्बा पुराणपरमार्थदा ।
भूता भूतप्रिया भूतग्रामपालनमानसा ॥ ६२॥
भूतवर्गधरा भूतपोषणव्रतपालिका ।
भूतानन्दकरी भूतमाता धात्री धृतिः क्रिया ॥ ६३॥
भूतप्राणप्रिया भूतरक्षिका भूतदर्पहा ।
शर्वाणी सर्वदा सार्वी सर्वमोहविधायिनी ॥ ६४॥
सर्वसङ्कटसंहर्त्री सर्वसिद्धिसमन्विता ।
सर्वाधारा सर्वमयी सर्वरूपा सदानवा ॥ ६५॥
सर्वशक्तिः परं ज्योतिः सर्वशस्त्रप्रणाशिका ।
रागिणी रागजननी रागभूमिर्दृढव्रता ॥ ६६॥
रागवश्या वीतरागा सर्वरागानुरागिणी ।
धर्मदा धर्मधारा च धनदा धान्यदा शुचिः ॥ ६७॥
भोगमुक्तिव्रताधारा भोगमुक्तिस्वरूपिणी ।
पाननी पावनगुणा पामराणां च पावनी ॥ ६८॥
पावनश्राविणी शश्वत्पावनश्रवणात्मिका ।
पार्वती पर्वतसुता पर्वतेषु विहारिणी ॥ ६९॥
श्रीकृष्णान्वेषणपरा कृष्णदर्शनलालसा ।
तत्त्वात्मिका तत्त्वभावा तत्त्वानां तत्त्ववर्धिनी ॥ ७०॥
तत्त्वानुरागिणी बाला तत्त्वाकर्षणकारिणी ।
तत्त्वोत्पत्तिविधानज्ञा तत्त्वानां नाशकारिणी ॥ ७१॥
तत्त्वविद्भिः सदा ध्याता तत्त्वविन्मोक्षदायिका ।
तत्वविद्विघ्नशमनी तत्त्वविद्याधिकारिका ॥ ७२॥
तत्त्ववित्प्रदसर्वस्वा तत्त्ववित्प्राणरक्षिका ।
शङ्खिनी शङ्खहस्ता च शङ्खनादकरी प्रिया ॥ ७३॥
चक्रिणी चक्रवृत्तिज्ञा दुष्टचक्रक्षयङ्करी ।
शूलिनी शूलहस्ता च भक्ताशूलकरी सदा ॥ ७४॥
गदनिगदसंहर्त्री अगदङ्कारजीविनी ।
सदाचाररता साध्वी सदाचारप्रकाशिनी ॥ ७५॥
सदाचाराऽसदाचारदूरकर्त्री सदार्तिहा ।
सदाचारविशेषा च सदाचारप्रमाणिका ॥ ७६॥
सङ्केतनिरता लोला सङ्केतसुसमाहिता ।
सङ्केतस्वामिनी श्यामा सङ्केतप्रीतिदा शुभा ॥ ७७॥
सुसङ्केतकृतक्रीडा सङ्केतकृतनिश्चया ।
रामारामागता रामप्रिया दुःखादिभञ्जिका ॥ ७८॥
पद्मा पद्ममुखी पद्मवासिनी पद्मभूषणा ।
पद्मालया पद्महस्ता पद्माक्षी पद्मिनी पुरी ॥ ७९॥
पद्मवर्णा पद्मगर्भा पद्मानाम्नी महानिधिः ।
रुक्माङ्गपारुक्मपर्णा रुक्मदात्री च निर्भया ॥ ८०॥
रुक्माधारारुक्मरुक्मा रुक्मिणी रुक्मप्रीतिदा ।
कामिनी कामभूः काम्या कमनीया कुटुम्बिनी ॥ ८१॥
कमनीयस्वभावाढ्या करुणाकारिणी कुरुः ।
कामरूपा काम्यमाना कामदेवकृपाधरा ॥ ८२॥
कालकर्त्री कला कल्या कलिनी कुलभामिनी ।
तुलसी च तुला तन्द्रा तोतला तारका ध्वनिः ॥ ८३॥
तनुका तालवद्दीर्धा तारिणी तामसी नवा ।
रम्भा तिलोत्तमा रम्या रमणीया वसुन्धरा ॥ ८४॥
कोकिला कलनिर्ह्रादा कलकण्ठी कलासुधा ।
सुधापानमहानन्दा शुद्धाचारपरायणा ॥ ८५॥
सुधासमुद्रलहरी सुधासिन्धुनिवासिनी ।
सुधामयी सुधामूर्तिः सुधाकान्तिः सुधाह्वया ॥ ८६॥
सुधीभिर्वन्दिता शुद्धा शुद्धाङ्गी शुद्धकर्मदा ।
शुद्धमार्गरता शुद्धकारिका भक्तवत्सला ॥ ८७॥
भक्तागमनसाकाझी भक्तकीर्ति विधायिनी ।
सुषुम्नाच सुषामा च सुषमा परमा मता ॥ ८८॥
इडा चेड्या महद्भिः सा सूर्यवाहा सुशर्मदा ।
चन्द्रादित्यकला ज्योतिः सूर्यचन्द्रसुकुण्डला ॥ ८९॥
सूर्यमण्डलमध्यस्था चन्द्रमण्डलमानिता ।
सूर्याग्निधाम्नी सर्वेषां धाम्नी धात्री धरित्रिणी ॥ ९०॥
लज्जालज्जावती लज्जापूरिणी क्लेशनाशिनी ।
नानारूपधरा नानाव्याधिनाशनतत्परा ॥ ९१॥
नानागमरहस्यज्ञा नानासाधनसाधिका ।
नानामन्त्रविधानज्ञा नानामन्त्रस्वरूपिणी ॥ ९२॥
नानाभूषणभूषाङ्गी नानावस्त्वर्थगामिनी ।
नानानाट्यकलाभिज्ञा नानाश्लाघार्थज्ञापिका ॥ ९३॥
नानाकर्मकरी नानाकर्ममार्गविधायिका ।
तीर्थनाम्नी भीतिहरातीर्थश्रवणशोधिता ॥ ९४॥
तीर्थस्थितालङ्करणा तीर्थाश्रितसुखोन्मुखी ।
निरञ्जना निरालम्बा निराधारा निराश्रया ॥ ९५॥
निरीहा निस्पृहा नारी निर्द्वन्द्वा निरहङ्कृतिः ।
निर्गुणागुणसंयुक्ता निर्भ्रमा भ्रमवर्जिता ॥ ९६॥
गरुडासनगामीया गारुडी गरुडार्चिता ।
गरुडस्कन्धसंस्थाना गरुडार्तिविनाशिनी ॥ ९७॥
भावपूजकसर्वस्वा भावनिन्दकनाशिनी ।
भावानुगाच भाव्यज्ञा भावाभावस्वरूपिणी ॥ ९८॥
भूताभूतभविष्यादिज्ञानकर्त्री भवार्तिहा ।
चार्वङ्गी चतुरा चित्या चञ्चला चञ्चरीध्वनिः ॥ ९९॥
चामुण्डा चारुचरणा चिरचारणमोदिता ।
वामनी वर्तुलमुखी वृत्तिर्वृत्तान्तसेविता ॥ १००॥
प्रकृत्तिकारिणी प्राप्तिः प्राची प्राणाशुरक्षिणी ।
प्राणप्रतिष्ठा प्राकाम्या परमाणुप्रमाणिका ॥ १०१॥
परमा परमोत्कृष्टा परमाण्वी पराशरा ।
परभागवतैर्ध्याता परभागवताभिधा ॥ १०२॥
श्रीभागवतहार्दिक्या श्रीभागवतमानसा ।
श्रीभागवतनिष्ठाच श्रीभागवतभाविता ॥ १०३॥
श्रीभागवतसंविज्ज्ञा श्रीभागवतभाषिता ।
सावित्री श्रीसचिद्रूपासवितुः सुगतिप्रदा ॥ १०४॥
सवित्राराधितपदा सच्चिन्मण्डलमण्डिता ।
कल्पान्तस्थापिनी कल्पकल्पिता कल्पनाकुला ॥ १०५॥
कल्पकल्पायुषः कल्पकरी कल्पप्रभञ्जिका ।
मन्वन्तरप्रिया मन्वी मन्वन्तरमनुप्रिया ॥ १०६॥
शतरूपा शतगुणा शताक्षी च शकुन्तिनी ।
सहस्राक्षी दशशतभुजार्पितमहायुधा ॥ १०७॥
सहस्रशिरसी मातासहस्रचरणैर्युता ।
सहस्रदलपद्मान्तर्बद्धपद्मासनार्चिता ॥ १०८॥
षट्कोणयन्त्रनिलया षट्कोणस्थापितप्रभा ।
त्रिकोणगृहमध्यस्था त्रिकोणे पूजिता शुभा ॥ १०९॥
तुरीया चत्वरातन्त्री तन्त्रीस्वरविडम्बिनी ।
तन्त्रगीता तन्त्रसेव्या तन्त्रोक्ता तान्त्रिकी स्मृतिः ॥ ११०॥
तन्त्रविद्या स्वतन्त्राच परतन्त्रप्रिया नदी ।
स्मृतिसंस्कारजननी संस्कृतिः संस्कृता पुरा ॥ १११॥
सन्ध्याध्यानरतिः शङ्का शक्तिः सर्वेषु जन्तुषु ।
सौम्या सोमानना सौम्यमार्गबुद्धिप्रदा नृणाम् ॥ ११२॥
सौम्यागमकरी शुद्धा सौम्यवार्ताविधायिनी ।
सौम्यमूर्तिः सौम्यदेहा सौम्याचारविशेषिका ॥ ११३॥
सौम्याराध्या सौम्ययुक्ता सौम्यपूजकपुत्रिणी ।
गुर्वी गुरुविधा गौरी गोरोचनविभूषणा ॥ ११४॥
गुरुभक्ता गुरुकुला गुरुज्ञाना गुरुस्पृहा ।
गुरुतालविशेषज्ञा गुरुपूज्या गुहालया ॥ ११५॥
सामज्ञा सामगासामविदितस्वार्थसाधना ।
शची सरस्वती दिव्यारुन्धती प्रमदोत्तमा ॥ ११६॥
जयदा जित्वरा याम्या जयजाप्या जपान्तिका ।
हविष्याहुतिभोक्त्री च हविर्धानी मुनिप्रिया ॥ ११७॥
होत्री होमक्रिया होमसन्तुष्टा होमवत्सला ।
यजुः प्रिया यजुर्माता यजुर्वेदप्रणालिका ॥ ११८॥
यजुर्वेदाभिलाषा च यजुर्वेदकृपाकरी ।
ऋचां सारार्थविदुषी ऋग्यजुः सामगायनी ॥ ११९॥
सामदानमितानन्दा सामगेया च सामगा ।
सामसामप्रिया सिद्धिः समाधिनिरतप्रिया ॥ १२०॥
समाधिशास्त्रश्रवणा समाधिर्व्याधिनाशिनी ।
विजया विश्वमाता च जयन्ती वीरबाहुका ॥ १२१॥
शत्रुघ्नी शाम्बरी सेनाक्षौहिणी दलहारिणी ।
मञ्जीरपदका कण्ठेहारमाला कराङ्कुशा ॥ १२२॥
भुजाङ्गदा गदहरा गदपीडाक्षयङ्करी ।
शङ्खचक्रगदाखड्गनिकुरुम्बानि बिभ्रती ॥ १२५॥
गोपिनी द्रावणकरी द्रवणाख्या सुसंस्कृतिः ।
वीरभूमिर्वीरजनी वीरपालनमानसा ॥ १२४॥
वीराकृतिर्वीरमुखी वीरविद्याविशारदा ।
वीरावीरवती वीरवर्णिनी वीरसुन्दरी ॥ १२५॥
क्रोधिनी क्रोधसंविग्ना क्रोधवश्यकरी प्रभा ।
गोमती गोधना गङ्गा गोवर्धनगिरिप्रिया ॥ १२६॥
गोवर्धनधरा शक्तिः गोपालनपरव्रता ।
हैयङ्गवीनरसिका रसोत्कृष्टारसायना ॥ १२७॥
विरागिणी विरागाच पूर्णवैराग्यदायिनी ।
सरागा वीतरागाच विरागा रागसंयुता ॥ १२८॥
वैराग्यजननी साक्षात् कृष्णभक्तिशरीरभृत् ।
वैराग्याङ्गविधेः कर्त्री वैराग्यसुखसागरा ॥ १२९॥
मृत्युदा पापिवृन्दानामायुर्दा धर्मधारिणाम् ।
सुभङ्गदा हि दुष्टानां शिष्टानां ज्ञानभक्तिदा ॥ १३०॥
भयदा प्रेतभूतानां साधूनामभयप्रदा ।
शिवदा शिवकर्तॄणां पामराणां क्षयङ्करी ॥ १३१॥
योगिनांयोगदारूपधारणाध्यानतत्परा ।
बहिर्मुखानामशुभङ्करिका वाग्विलासिनी ॥ १३२॥
यशोदा च यशोरूपा यशसांवृद्धिदा मुखी ।
लोकवेदविधिप्रौढा लोकवेदप्रलोभिनी ॥ १३३॥
लोकवेदरता लोकवेदाचारप्रवाहिका ।
लोकवेदमया भर्त्री लोकवेदशुभप्रिया ॥ १३४॥
लोकवेदैः पूज्यतमा लोकवेदव्रतस्तुता ।
छाया संज्ञानुसूर्याचब्रह्माणीच मदालसा ॥ १३५॥
महाह्रदा महावापी परिखाच महाखनिः ।
प्राकारवलया चैव योगपद्मधरा गया ॥ १३६॥
काशाभा काशिका काशी काश्मीरचन्दनार्चिता ।
वंशीकरप्रियावंशी वंशीवादनहर्षिता ॥ १३७॥
वंशीकरा कृष्णवंशी वंशीनादविमोहिता ।
वंशीरूपरवाकारी वंशीरागमनोहरा ॥ १३८॥
वंशीनादेन संहृष्टा वंशीध्वन्यनुकारिणी ।
वंशीवश्योर्वशीभ्राता वंशीवंशनिपालिका ॥ १३९॥
श्रुतिस्मृतिप्रिया प्रह्वा श्रुतिस्मृत्यर्थरूपिणी ।
श्रुतिस्मृतिसदाचारा श्रुतिस्मृत्यर्थवाचिका ॥ १४०॥
श्रुतिस्मृतिरता कान्ता श्रुतिस्मृत्यर्थपूरणा ।
श्रुतिः स्मृतिस्तथा तुष्टिः पुष्टिः कर्तुर्महाबला ॥ १४१॥
प्रह्लादिनी जगन्माता प्रह्लादभक्तिवर्द्धिनी ।
हिरण्यकशिपुच्छेत्त्री प्रह्लादानन्दकारिणी ॥ १४२॥
हिरण्याक्षवधोद्युक्ता वाराही प्रीतिमानसा ।
राक्षसानां क्षयकरी देवतानां जयावहा ॥ १४३॥
बलिप्रिया सदा स्वेक्ष्या बलिनां बलदा बला ।
बलासुरहरावल्ली बलिभुग्बलघातिनी ॥ १४४॥
राजनीतिः क्रियारूपाराज्यहा राज्यभक्षणा ।
राजराजैः स्तुता स्तुत्या स्तवनीयगुणा सती ॥ १४५॥
षडूर्मिहरिणी षड्भा षड्गुणा त्रिगुणालया ।
निष्कामधर्मनिरता सकामा कामनिर्मला ॥ १४६॥
आर्या दाक्षिण्यरूपा च दक्षिणा यज्ञपावनी ।
दक्षिणागमविद्या च दक्षिणानां वशंवदा ॥ १४७॥
मुद्रा मुद्राप्रिया मुद्राविधानज्ञा मुदान्विता ।
निष्कलङ्का कलाधारा सूर्यचन्द्राग्निलोचना ॥ १४८॥
दुर्गा दुर्गगतिर्दुर्गासुरमारणपण्डिता ।
त्वगस्थिमांसरुधिरस्नायुमज्जादिशक्तिदा ॥ १४९॥
ग्रहरूपा ग्रहमयी विग्रहा ग्रहिका निशा ।
ग्रहणा ग्राहिणी ग्रामग्राहिणी ग्रामवल्लभा ॥ १५०॥
ग्रामाचारपरापूज्या ग्रामशर्माधिदायिनी ।
सुभद्रा भद्रकाली च भद्रमार्गप्रवर्तिका ॥ १५१॥
भद्रासना भद्रमतिर्भद्राङ्गा भद्रकारिणी ।
पृथिव्यप्तेजसां रूपा चाद्याकाशस्वरूपिणी ॥ १५२॥
काव्यशक्तिः कवित्वज्ञा कविरूपा कविप्रिया ।
शिवा शिवङ्करी कम्बुकण्ठी सर्वाङ्गसुन्दरी ॥ १५३॥
भक्तोद्गीता भक्तकाम्या भक्तसर्वस्वदा सती ।
रजो रजोयुता रक्ता रजसःशुद्धिसाधिका ॥ १५४॥
सत्त्वा च सत्त्वसम्पन्ना सत्त्वगुण्या गुणालया ।
सात्विकीसत्त्वसम्पूर्णा सत्त्ववृत्तान्तवृत्तिदा ।
सत्त्वाहारा सत्त्वयोनिः सत्त्ववर्णाधिनन्दिनी ॥ १५५॥
सर्वशास्त्रमयी विद्या सर्वदेवमयी प्रभा ।
सर्ववर्णमयी शय्या सर्वाभरणभूषिता ॥ १५६॥
सर्वसामर्थ्यदात्रीच सर्वमङ्गलमालिनी ।
सर्वाश्रयासार्वभौमा सर्वरूपागमप्रभा ॥ १५७॥
गान्धर्वी किन्नरी देवी मोहकर्त्री सुबुद्धिदा ।
लज्जाशीला त्रपाशीला शीलसन्तोषसंयुता ॥ १५८॥
कामाक्षी कामिनी काम्या कमनीयवपुर्धरा ।
कामरूपा सिद्धिरूपा सिद्धैर्वन्द्या सुसिद्धिदा ॥ १५९॥
श्रीविद्या त्रिजटा देवी लक्ष्मीर्नीलसरस्वती ।
पीताम्बरा तथाद्या च सर्वविद्यामयीश्वरी ॥ १६०॥
व्यक्ताऽव्यक्ताऽनेकमूर्तिः सर्वतीर्थफलाधिका ।
श्रीरूपा श्रीस्तुता श्राव्या श्रवणात्पापनाशिनी ॥ १६१॥
सर्वधर्मवदान्याच निन्दानिन्दकनाशिनी ।
श्रीप्रसादकरी श्रद्धामेधारूपासुशर्मदा ॥ १६२॥
गोपी गिरिसुता गुर्वी गौरी गौः सर्वतोमुखी ।
चतुर्भुजा दशभुजा चतुर्वर्गफलप्रदा ॥ १६३॥
चर्मण्वती वेदवती चतुराचातुरी कला ।
षोडशाधिसहस्राणां स्त्रीणां मध्ये तुवन्दिता ॥ १६४॥
नवमी पञ्चमीभूता षष्ठी षष्ठी च सप्तमी ।
अमाच पूर्णिमा पूर्णा शिवरात्रिः प्रभावती ॥ १६५॥
चतुःषष्टिकलायुक्ता षोडशी त्रिपुरेश्वरी ।
सर्वप्राणमयी वन्द्या दृढबन्धविमुक्तिदा ॥ १६६॥
सर्वाधारा सर्वदेवी सर्वाराध्या समालिका ।
मन्त्रबीजरहस्यादिसर्वविद्याप्रकाशिनी ॥ १६७॥
सर्ववर्णमयीन्द्राणी जपजाप्यपरा च सा ।
श्रीधरी श्रीधरावन्द्या श्रीधरप्राणवल्लभा ॥ १६८॥
श्रीराधा (श्री) कृष्णहृदया श्रीधरप्राणजीवनी ।
श्रीधरस्य प्रतापादिशा(ज्ञा) पिकाखिलकारणम् ॥ १६९॥
सर्वानुस्यूतशक्तिश्च बृहद्वृन्दवनालया ।
इतीदं राधिकादेव्या दिव्यं नामसहस्रकम् ।
मया सम्यक्तया प्रोक्तमृषे त्वद्धितकाम्यया ॥ १७०॥
यः पठेत् प्रातरुत्थाय शुचिस्तद्गतमानसः ।
स भवेत्सर्वसम्पूर्णः शुभाचारः परात्परः ॥ १७१॥
प्रज्ञाचक्षुर्लभेदृष्टिं नेत्ररोगैर्न पीड्यते ।
मूकोवाचं लभेत्सर्वलक्षणैः संयुतां शुभाम् ॥ १७२॥
प्रातःकालेऽथ सायाह्ने निशीथे यः पठेत्स्तवम् ।
श्रीराधाकृष्णसाक्षात्कारोजायते सुनिश्चितम् ॥ १७३॥
वैष्णवेषु भवेद्धन्यस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः ।
धर्मकर्तृषुधर्मीशः पठेद्यः स्तोत्रमुत्तमम् ॥ १७४॥
स योगी परमोत्कृष्टः स ऋषिः सर्ववेदवित् ।
स ज्ञानी स च भक्तस्तु स कर्मसकलार्थवित् ॥ १७५॥
स इन्द्रः स हरिर्ब्रह्मा स रुद्रो ब्रह्मरूपवित् ।
सशेषः स मुनिर्व्यासो दत्तात्रेयः सदाशिवः ॥ १७६॥
प्रातरुत्थाय योऽधीते नाम्नां दशशतीमिमाम् ।
सर्वतीर्थेषु यत्स्नानं सर्वलोकेषु यद्धितम् ॥ १७७॥
सर्ववेदेषु यत्सर्वं सर्वस्मृतिषु यत्फलम् ।
पुराणेषु च शास्त्रेषु तथा गीतप्रहेलिषु ॥ १७८॥
यत्सारं यच्च हार्दं तु या शक्तिः सर्पदस्युहृत् ।
तत्सर्वमिदमाख्यातं नातः किञ्चित्परं मुने ॥ १७९॥
धन्यं यशस्यमायुष्यं श्रीकृष्णप्रेमवर्द्धनम् ।
इदमेकं मया दृष्टं राधानामसहस्रकम् ॥ १८०॥
सर्वपापप्रशमनमकालमृत्युनाशनम् ।
सर्वमाङ्गल्यदमिदं पठितव्यं मुमुक्षुभिः ॥ १८१॥
सर्वागमप्रियं ह्येतत् सर्वपापप्रणाशनम् ।
सर्ववेदशिरोभागे सर्वाधिव्याधिशान्तिकृत् ॥ १८२॥
भावुकं भव्यसाधूनां तारक तत्त्वमीक्षताम् ।
मारकं सर्वदुष्टानामिदमेव हि निर्मितम् ॥ १८३॥
एतस्य पठनात्सद्योमुक्तिः स्यादनपायिनी ।
भक्तिरप्यस्य श्रीकृष्णे राधया सहिते भवेत् ॥ १८४॥
कृष्णवश्यकरं सम्यक् ज्ञानविज्ञानवर्द्धनम् ।
बहु किं पठनादस्य मासैकेन महामुने ॥ १८५॥
भक्तियुक्तोलभेज्ज्ञानं श्रद्धावांश्चेन्मुनिः पठेत् ।
आयुरारोग्यमैश्वर्यं ज्ञानं वैराग्यसंयुतम् ॥ १८६॥
यद्यदिष्टतमंलोके तत्तदाप्नोत्यसंशयम् ।
महतां सङ्गतिकरं महद्भाग्योदयप्रदम् ॥ १८७॥
महतां हि सदा सेव्यमिदमेव ह्युदाहृतम् ।
वेदशास्त्रपुराणेभ्य इदमेव समुद्धृतम् ॥ १८८॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन राधानामसहस्रकम् ।
भूताष्टम्याममायां च सङ्क्रान्तौ व्यतिपातके ॥ १८९॥
सूर्यचन्द्रोपरागेच पठितव्यं शुभेप्सुभिः ।
पठ्यमानमिदं स्तोत्रं श्रद्धया यः शृणोतिच ॥ १९०॥
सर्वाभीष्टेन संयुक्तो जायते राधिकाज्ञया ।
एकादश्यां महारात्रौ द्वादश्यां ग्रहपर्वणि ॥ १९१॥
पठतां शृण्वतां पुंसां तेषां मुक्तिर्न दुर्लभा ।
हिक्कारोगस्तथा छर्दिर्मूत्रकृच्छूं तथा ज्वरः ॥ १९२॥
अतीसारस्तधा शूलं आमवातादयोपि च ।
अन्ये च बहवो रोगाः सन्निपातमुखा ऋषे ॥ १९३॥
शान्तिं प्रयान्ति ते सर्वे स्तोत्रस्यास्य प्रभावतः ।
स्तोत्रस्य पठनादस्य प्रह्लादः सिद्धतां गतः ॥ १९४॥
युधिष्ठिरोऽध भीष्मश्च जामदग्न्योद्धवौ तथा ।
हरिश्चन्द्राम्बरीषौ च ब्रह्मपुत्रास्तथाऽनघाः ॥ १९५॥
एते सिद्धिं गताः सर्वे सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ।
श्रीराधायाः प्रसादेन सर्वानुग्रहणे क्षमाः ॥ १९६॥
तस्मात्सदेयमेवात्र पूजनीया मुहुर्मुहुः ।
अथास्यसाधनं वक्ष्ये उभयोः प्रीतिवर्द्धनम् ॥ १९७॥
प्रातरुत्थाय कर्त्तव्यं साधकेन शुभेच्छुना ।
प्रक्षाल्य हस्तौ पादौ च त्रिराचम्य शुचिः पुमान् ॥ १९८॥
जलाशये तथा नद्यां देवखाते ह्रदे तथा ।
कूपे गृहे स्वकीये वा स्नायाद्वै विधिपूर्वकम् ॥ १९९॥
सदाचारं ततः कृत्वा पुष्पधूपादिचन्दनैः ।
पुस्तकं तु प्रपूज्याथ मन्त्रराजमुदीरयेत् ॥ २००॥
अथ मन्त्रं प्रवक्ष्यामि विष्णुभक्तिकरं नृणाम् ।
तारं रमानाथसैवतगः यदि मुदीर्य च ॥ २०१॥
पपञ्चमो भगाद्याश्च भक्तिं देहि ततः परम् ।
देहि देहि ततः पश्चात्तारं तत्र पुनर्वदेत् ॥ २०२॥
संप्रोक्तो मन्त्रराजोऽयं श्रीराधाया ऋषे तव ।
दशवारमसौ मन्त्रो जप्यश्च प्रथमं मुदा ॥ २०३॥
ततः सहस्रनामेदं पठितव्यं मुने त्वया ।
एककालस्य पठनाद्विष्णुभक्तो भवेद्यदि ॥ २०४॥
द्वित्रिकालस्य पठनाद्भक्तिः स्यादनपायिनी ।
एकोऽद्वयात्मको मन्त्रस्त्रिषु लोकेषु दुर्लभः ॥ २०५॥
गोपनीयः प्रयत्नेन कृष्णस्य पदमिच्छता ।
एकोऽद्वयात्मको मन्त्रस्तुभ्यमुक्तो मया मने ।
तस्मात्त्वयाऽपि धूर्तेभ्यः सन देयः कदाचन ॥ २०६॥
इदं खलाय पशवे वेदानां निन्दकाय च ।
अश्रद्धायातिमूर्खाय परस्त्रीलम्पटायच ॥ २०७॥
दुराचाराय मूढाय गीलायाव्रतरूपिणे ।
निर्दयायातिह्रस्वाय नास्तिकायात्मघातिने ॥ २०८॥
नैव देयं स्तोत्रमिदन्न प्रकाश्यं सुदुर्लभम् ।
ददातीदं य एतेभ्यः शिवहास निगद्यते ॥ २०९॥
भक्ताय भक्तियुक्ताय सर्वभूतदयालवे ।
शमदमादियुक्ताय स्वच्छान्तःकरणाय च ॥ २१०॥
गुरुपूजापरायाथ श्रद्धाचारयुताय च ।
चिद्विलग्नाय योग्याय मुद्रामालाधराय च ॥ २११॥
जितक्रोधाय शान्ताय विष्णुव्रतपराय च ।
अन्यैरपि गुणैः शश्वत् तितिक्षाक्षान्तिरार्जवैः ॥ २१२॥
युक्ताय साधकायाथ देयं स्तोत्रमिदं मुदा ।
नन्वीदृशाय भक्ताय यो ददाति शुभं त्विदम् ॥ २१३॥
स वै पुण्यतमो लोके तत्परो नैव कश्चन ।
तस्मान्मुनेऽत्र विख्यातं मया त्वद्धितकाम्यया ॥ २१४॥
इदं पठस्वच शृणु यदीच्छसि हरिं प्रभुम् ।
एतस्य पठनाद्देवः कृष्णस्ते संप्रसीदति ॥ २१५॥
अथ किं बहुनोक्तेन वर्णनेन पुनः पुनः ।
वशयेद्राधिकाकृष्णौ नित्यं पाठकरः पुमान् ॥ २१६॥
इति रुद्रयामलतः कृतं श्रीराधासहस्रनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

06/03/2022

श्रीराधाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्
अथास्याः सम्प्रवक्ष्यामि नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ।
यस्य सङ्कीर्तनादेव श्रीकृष्णं वशयेद्ध्रुवम् ॥ १॥
राधिका सुन्दरी गोपी कृष्णसङ्गमकारिणी ।
चञ्चलाक्षी कुरङ्गाक्षी गान्धर्वी वृषभानुजा ॥ २॥
वीणापाणिः स्मितमुखी रक्ताशोकलतालया ।
गोवर्धनचरी गोपी गोपीवेषमनोहरा ॥ ३॥
चन्द्रावली-सपत्नी च दर्पणस्था कलावती ।
कृपावती सुप्रतीका तरुणी हृदयङ्गमा ॥ ४॥
कृष्णप्रिया कृष्णसखी विपरीतरतिप्रिया ।
प्रवीणा सुरतप्रीता चन्द्रास्या चारुविग्रहा ॥ ५॥
केकराक्षा हरेः कान्ता महालक्ष्मी सुकेशिनी ।
सङ्केतवटसंस्थाना कमनीया च कामिनी ॥ ६॥
वृषभानुसुता राधा किशोरी ललिता लता ।
विद्युद्वल्ली काञ्चनाभा कुमारी मुग्धवेशिनी ॥ ७॥
केशिनी केशवसखी नवनीतैकविक्रया ।
षोडशाब्दा कलापूर्णा जारिणी जारसङ्गिनी ॥ ८॥
हर्षिणी वर्षिणी वीरा धीरा धाराधरा धृतिः ।
यौवनस्था वनस्था च मधुरा मधुराकृति ॥ ९॥
वृषभानुपुरावासा मानलीलाविशारदा ।
दानलीला दानदात्री दण्डहस्ता भ्रुवोन्नता ॥ १०॥
सुस्तनी मधुरास्या च बिम्बोष्ठी पञ्चमस्वरा ।
सङ्गीतकुशला सेव्या कृष्णवश्यत्वकारिणी ॥ ११॥
तारिणी हारिणी ह्रीला शीला लीला ललामिका ।
गोपाली दधिविक्रेत्री प्रौढा मुग्धा च मध्यका ॥ १२॥
स्वाधीनपका चोक्ता खण्डिता याऽभिसारिका ।
रसिका रसिनी रस्या रसनास्त्रैकशेवधिः ॥ १३॥
पालिका लालिका लज्जा लालसा ललनामणिः ।
बहुरूपा सुरूपा च सुप्रसन्ना महामतिः ॥ १४॥
मरालगमना मत्ता मन्त्रिणी मन्त्रनायिका ।
मन्त्रराजैकसंसेव्या मन्त्रराजैकसिद्धिदा ॥ १५॥
अष्टादशाक्षरफला अष्टाक्षरनिषेविता ।
इत्येतद्राधिकादेव्या नाम्नामष्टोत्तरशतम् ॥ १६॥
कीर्तयेत्प्रातरुत्थाय कृष्णवश्यत्वसिद्धये ।
एकैकनामोच्चारेण वशी भवति केशवः ॥ १७॥
वदने चैव कण्ठे च बाह्वोरुरसि चोदरे ।
पादयोश्च क्रमेणास्या न्यसेन्मन्त्रान्पृथक्पृथक् ॥ १८॥
॥ ॐ तत्सत् ॥
इत्यूर्ध्वाम्नाये राधाष्टोत्तरशतनामकथनं नाम प्रथमः पटलः ॥

06/03/2022

राधाषोडशनामवर्णनम्
श्रीनारायण उवाच ।
राधा रासेश्वरी रासवासिनी रसिकेश्वरी ।
कृष्णप्राणाधिका कृष्णप्रिया कृष्णस्वरूपिणी ॥ १॥
कृष्णवामाङ्गसम्भूता परमान्दरूपिणी ।
कृष्णा वृन्दावनी वृन्दा वृन्दावनविनोदिनी ॥ २॥
चन्द्रावली चन्द्रकान्ता शतचन्द्रप्रभानना ।
नामान्येतानि साराणि तेषामभ्यन्तराणि च ॥ ३॥
राधेत्येवं च संसिद्धौ राकारो दानवाचकः ।
स्वयं निर्वाणदात्री या सा राधा परिकीर्तिता ॥ ४॥
रासेसेश्वरस्य पत्नीयं तेन रासेश्वरी स्मृता ।
रासे च वासो यस्याश्च तेन सा रासवासिनी ॥ ५॥
सर्वासां रसिकानां च देवीनामीश्वरी परा ।
प्रवदन्ति पुरा सन्तस्तेन तां रसिकेश्वरीम् ॥ ६॥
प्राणाधिका प्रेयसी सा कृष्णस्य परमात्मनः ।
कृष्णप्राणाधिका सा च कृष्णेन परिकीर्तिता ॥ ७॥
कृष्णास्यातिप्रिया कान्ता कृष्णो वास्याः प्रियः सदा ।
सर्वैर्देवगणैरुक्ता तेन कृष्णप्रिया स्मृता ॥ ८॥
कृष्णरूपं संनिधातुं या शक्ता चावलीलया ।
सर्वांशैः कृष्णसदृशी तेन कृष्णस्वरूपिणी ॥ ९॥
वामाङ्गार्धेन कृष्णस्य या सम्भूता परा सती ।
कृष्णवामाङ्गसम्भूता तेन कृष्णेन कीर्तिता ॥ १०॥
परमानन्दराशिश्च स्वयं मूर्तिमती सती ।
श्रुतिभिः कीर्तिता तेन परमानन्दरूपिणी ॥ ११॥
कृषिर्मोक्षार्थवचनो न एतोत्कृष्टवाचकः ।
आकारो दातृवचनस्तेन कृष्णा प्रकीर्तिता ॥ १२॥
अस्ति वृन्दावनं यस्यास्तेन वृन्दावनी स्मृता ।
वृन्दावनस्याधिदेवी तेन वाथ प्रकीर्तिता ॥ १३॥
सङ्घःसखीनां वृन्दः स्यादकारोऽप्यस्तिवाचकः ।
सखिवृन्दोऽस्ति यस्याश्च सा वृन्दा परिकीर्तिता ॥ १४॥
वृन्दावने विनोदश्च सोऽस्या ह्यस्ति च तत्र वै ।
वेदा वदन्ति तां तेन वृन्दावनविनोदिनीम् ॥ १५॥
नखचन्द्रावली वक्त्रचन्द्रोऽस्ति यत्र संततम् ।
तेन चन्द्रवली सा च कृष्णेन परिकीर्तिता ॥ १६॥
कान्तिरस्ति चन्द्रतुल्या सदा यस्या दिवानिशम् ।
सा चन्द्रकान्ता हर्षेण हरिणा परिकीर्तिता ॥ १७॥
शरच्चन्द्रप्रभा यस्स्याश्चाननेऽस्ति दिवानिशम् ।
मुनिना कीर्तीता तेन शरच्चन्द्रप्रभानना ॥ १८॥
इदं षोडशनामोक्तमर्थव्याख्यानसंयुतम् ॥
नारायणेन यद्दत्तं ब्रह्मणे नाभिपङ्कजे।
ब्रह्मणा च पुरा दत्तं धर्माय जनकाय मे ॥ १९॥
धर्मेण कृपया दत्तं मह्यमादित्यपर्वणि ।
पुष्करे च महातीर्थे पुण्याहे देवसंसदि॥
राधाप्रभावप्रस्तावे सुप्रसन्नेन चेतसा ॥ २०॥
इदं स्तोत्रं महापुण्यं तुभ्यं दत्तं मया मुने ।
निन्दकायावैष्णवाय न दातव्यं महामुने ॥ २१॥
यावज्जीवमिदं स्तोत्रं त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः ।
राधामाधवयोः पादपद्मे भक्तिर्भवेदिह ॥ २२॥
अन्ते लभेत्तयोर्दास्यं शश्वत्सहचरो भवेत् ।
अणिमादिकसिधिं च सम्प्राप्य नित्यविग्रहम् ॥ २३॥
व्रतदानोपवाइश्च सर्वैर्नियमपूर्वकैः ।
चतुर्णां चैव वेदानां पाठैः सर्वार्थसंयुतैः ॥ २४॥
सर्वेषां यज्ञतीर्थानां करणैर्विधिवोधितः ।
प्रदक्षिणेन भुमेश्च कृत्स्नाया एव सप्तधा ॥ २५॥
शरणागतरक्षायामज्ञानां ज्ञानदानतः ।
देवानां वैष्णवानां च दर्शनेनापि यत् फलम् ॥ २६॥
तदेव स्तोत्रपाठस्य कलां नार्हति षोडशीम् ।
स्तोत्रस्यास्य प्रभावेण जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ॥ २७॥
इति श्रीब्रह्मवैवर्ते श्रीनारायणकृतं राधाषोडशनाम वर्णनम् ॥

06/03/2022

श्रीमद्राधाष्टकम्
निकुञ्जे मञ्जूषद्विविधमृदुपुष्पैकनिचयैः
समाकीर्णं दान्तं सुमणिजटितं केलिशयनम् ।
हृदि प्रादुर्भूतोद्भटविरहभावैः सपदि यत्
करे कृत्वा पत्रव्यजनमुपविशन्तीं हृदि भजे ॥ १॥
विदित्वा गोपीशं श्रमविहितनिद्रं हृदि भिया
रणत्कारैर्भूयान्न खलु गतनिद्रः परमिति ।
द्वितीयेन स्तब्धाचलनचपलं कङ्कणचयं
वितन्वन्तीं मन्दं व्यजनमथ राधां हृदि भजे ॥ २॥
विधायाच्छैः पुष्पैर्विविधरचनां चारुमृदुलां
पदप्रान्तालम्बां स्वकरकमलाभ्यां पुनरसौ ।
स्थितं स्वप्राणानां प्रियतममनन्यं निजपुरो-
ऽवगत्यातन्वन्तीमुरसि वनमालां हृदि भजे ॥ ३॥
पुरा रासारम्भे शरदमलरात्रिष्वपि हरि-
प्रभावाद्युल्लीढस्मरणकृतचिन्ताशतयुताम् ।
हृदि प्रादुर्भूतं बहिरपि समुद्वीक्षितुमिव
स्वतो वारं वारं विकसितदृगब्जां हृदि भजे ॥ ४॥
विचिन्वन्तीं नाथं निरतिशयलीलाकृतिरतं
प्रपश्यन्तीं चिह्नं चरणयुगसम्भूतमतुलम् ।
प्रकुर्वन्तीं मूर्धन्यहह पदरेणूत्करमपि
प्रियां गोपीशस्य प्रणतनिजनाथां हृदि भजे ॥ ५॥
निजप्राणाधीशप्रसभमिलनानन्दविकस-
त्समस्ताङ्गप्रेमोद्गतमतनुरोमावलिमपि ।
स्फुरत्सीत्कारान्तःस्थितसभयभावैकनयनां
पुनः पश्चात्तप्तामतुलरसपात्रं हृदि भजे ॥ ६॥
लसद्गोपीनाथाननकमलसंयोजितमुखां
मुखाम्भोधिप्रादुर्भवदमृतपानैकचतुराम् ।
परीरम्भप्राप्तप्रियतमशरीरैक्यरसिकां
तृतीयार्थप्राप्तिप्रकटहरिसिद्धिं हृदि भजे ॥ ७॥
न मे वाञ्छ्यो मोक्षः श्रुतिषु चतुरात्मा निगदितो
न शास्त्रीया भक्तिर्न पुनरपि विज्ञानमपि मे ।
कदाचिन्मां स्वामिन्यहह मयि दासे कृपयतु
स्वतः स्वाचार्याणां चरणशरणे दीनकरुणा ॥ ८॥
इति श्रीमद्राधाष्टकं सम्पूर्णम् ।

06/03/2022

॥ राधाकल्याणम् ॥
॥ श्रीः॥
यस्याःप्रसादलेशेन वर्धन्ते सर्वसम्पदः ।
नमस्तस्यै पराम्बायै देव्यै मङ्गलमूर्तये ॥
कन्यार्थी च वटुः कन्याप्यनुरूपवरार्थिनी ।
सीताविवाहसर्गं तु पठेत्प्रातः प्रयत्नतः ॥
रमया तु रकारस्स्यात् आकारस्त्वादिगोपिका ।
धकारो धरया हि स्यादकारो विरजानदी ॥
॥ श्रीः॥
शुभमस्तु ।
श्रीराधाकल्याणम् ।
ब्रह्मवैवर्तपुराणात् सङ्ग्रहीतम्
एकदा कृष्णसहितो नन्दो वृन्दावनं ययौ ।
तत्रोपवनभाण्डीरे चारयामास गोधनम् ॥ १॥
सरस्सु स्वादु तोयं च पाययामास तत्पपौ ।
उवास वृक्षमूले च बलं कृत्वा स्ववक्षासि ॥ २॥
एतस्मिन्नन्तरे कृष्णः मायामानुषविग्रहः ।
चकार माययाऽकस्मात् मेघाच्छन्नं नभो मुने ॥ ३॥
मेघावृतं नभो दृष्ट्वा श्यामलं काननान्तरम् ।
झञ्झावातं मेघशब्दं वज्रशब्दं च दारुणम् ॥ ४॥
वृष्टिधारा अतिस्थूला कम्पमानान् च पादपान् ।
दृष्ट्वैव पतितस्कन्धान् नन्दो भयमवाप ह ॥ ५॥
कथं यास्यामि गोवत्सान् विहाय स्वाश्रमं बत ।
गृहं यदि न यास्यामि भविता बालकस्य किम् ॥ ६॥
एवं नन्दे प्रवदति रुरोद श्रीहरिस्तदा ।
पयोभिया हरिश्चैव पितुः कण्ठं दधार सः ॥ ७॥
एतस्मिन्नन्तरे राधा जगाम श्रीकृष्णसन्निधिम् ।
गमनं कुर्वती राजहंसखञ्जनगञ्जनम् ॥ ८॥
शरत्पार्वणचन्द्राभा मुष्टवक्त्रमनोहरा ।
शरन्मध्याह्नपद्मानां शोभामोचनलोचना ॥ ९॥
परितस्तारकापक्ष्मविचित्रकज्जलोज्ज्वला ।
खगेन्द्रचञ्चुचारुश्रीसङ्गनाशकनासिका ॥ १०॥
तन्मध्यस्थलशोभार्हस्थूलमुक्ताफलोज्ज्वला ।
कबरीवेषसंयुक्ता मालतीमाल्यवेष्टिता ॥ ११॥
ग्रीष्ममध्याह्नमार्तण्डप्रभामुष्टककुण्डला ।
पक्वबिम्बफलानां च श्रीमुष्टाधरयुग्मका ॥ १२॥
मुक्तापङ्क्तिप्रभातैकदन्तपङ्क्तिसमुज्ज्वला ।
ईषत्प्रफुल्लकुन्दानां सुप्रभानाशकस्मिता ॥ १३॥
कस्तूरीबिन्दुसंयुक्तसिन्दूरबिन्दुभूषिता ।
कपालं मल्लिकायुक्तं बिभ्रती श्रीयुतं सती ॥ १४॥
सुचारुवर्तुलाकारकपोलपुलकान्विता ।
मणिरत्नेन्द्रसाराणां हारोरःस्थलभूषिता ॥ १५॥
सुचारुश्रीफलयुगकठिनस्तनसङ्गता ।
पत्रावलीश्रिया युक्ता दीप्ता सद्रत्नतेजसा ॥ १६॥
सुचारुवर्तुलाकारमुदरं सुमनोहरम् ।
विचित्रत्रिवलीयुक्तं निम्ननाभिं च बिभ्रती ॥ १७॥
सद्रत्नसाररचितमेखलाजालभूषिता ।
कामास्त्रसारभ्रूभङ्गयोगीन्द्रचित्तमोहिनी ॥ १८॥
कठिनश्रोणियुगलं धरणीधरनिन्दितम् ।
स्थलपद्मप्रभामुष्टचरणं दधती मुदा ॥ १९॥
रत्नभूषणसंयुक्तं यावकद्रवसंयुतम् ।
मणीन्द्रशोभासंमुष्टसालक्तकपुनर्भवम् ॥ २०॥
सद्रत्नसाररचितक्वणन्मञ्जरिरञ्जिता ।
रत्नकङ्कणकेयूरचारुशङ्खविभूषिता ॥ २१॥
रत्नाङ्गुलीयनिकरवह्निशुद्धांशुकोज्ज्वला ।
चारुचम्पकपुष्पाणां प्रभामुष्टकलेवरा ॥ २२॥
सहस्रदलसंयुक्तक्रीडाकमलमुज्ज्वलम् ।
श्रीमुखश्रीदर्शनार्थं बिभ्रती रत्नदर्पणम् ॥ २३॥
दृष्ट्वा तां निर्जने नन्दो विस्मयं परमं ययौ ।
चन्द्रकोटिप्रभामुष्टां भासयन्तीं दिशो दश ॥ २४॥
ननाम तां साश्रुनेत्रः भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।
जानामि त्वां गर्गमुखात् पद्माधिकप्रियां हरेः ॥ २५॥
जानामीमं महाविष्णोः परं निर्गुणमच्युतम् ।
तथापि मोहितोऽहं च मानवो विष्णुमायया ॥ २६॥
गृहाण प्राणनाथं च गच्छ भद्रे यथासुखम् ।
पश्चाद्दास्यसि मत्पुत्रं कृत्वा पूर्णमनोरथम् ॥ २७॥
इत्युक्तवा प्रददौ तस्यै रुदन्तं बलकं भिया ।
जग्राह बालकं राधा जहास मधुरं सुखात् ॥ २८॥
उवाच नन्दं सा यत्नात् न प्रकाश्यं रहस्यकम् ।
अहं दृष्टा त्वया नन्द कति जन्मफलोदयात् ॥ २९॥
प्राज्ञस्त्वं गर्गवचनात् सर्वं जानासि कारणम् ।
अकथ्यमावयोर्गोप्यं चरितं गोकुले व्रज ॥ ३०॥
वरं वृणु व्रजेश त्वं यत्ते मनसि वाञ्छितम् ।
ददामि लीलया तुभ्यं देवानामपि दुर्लभम् ॥ ३१॥
राधिकावचनं श्रत्वा तामुवाच व्रजेश्वरः ।
युवयोश्चरणे भक्तिं देहि नान्यत्र मे स्मृहा ॥ ३२॥
युवयोः सन्निधौ वासं दास्यसि त्वं सुदुर्लभम् ।
आवाभ्यां देहि जगतामम्बिके परमेश्वरि ॥ ३३॥
श्रुत्वा नन्दस्य वचनमुवाच परमेश्वरी ।
दास्यामि दास्यमतुलमिदानीं भक्तिरस्तु ते ॥ ३४॥
आवयोश्चरणाम्भोजे युवयोश्च दिवानिशम् ।
प्रफुल्लहृदये शश्वत् स्मृतिरस्तु सुदुर्लभा ॥ ३५॥
एवमुक्ता तु सा नन्दं कृत्वा कृष्णं स्ववक्षसि ।
दूरं निनाय श्रीकृष्णं बाहुभ्यां च यथेप्सितम् ॥ ३६॥
एतस्मिन्नन्तरे राधा मायासद्रत्नमण्डपम् ।
ददर्श रत्नकलशशतेन च समन्वितम् ॥ ३७॥
सा देवी मण्डपं दृष्ट्वा जगामाभ्यन्तरं मुदा ।
ददर्श तत्र ताम्बूलं कर्पूरादिसमन्वितम् ॥ ३८॥
पुरुषं कमनीयं च किशोरं श्यामसुन्दरम् ।
कोटिकन्दर्पलीलाभं चन्दनेन विभूषितम् ॥ ३९॥
शयानं पुष्पशय्यायां सस्मितं सुमनोहरम् ।
पीतवस्त्रपरीधानं प्रसन्नवदनेक्षणम् ॥ ४०॥
मणीन्द्रसारनिर्माणं क्वणन्मञ्जीररञ्जितम् ।
सद्रत्नसारनिर्माणकेयूरवलयान्वितम् ॥ ४१॥
मणीन्द्रकुण्डलाभ्यां च गण्डस्थलविराजितम् ।
कौस्तुभेन मणीन्द्रेण वक्षस्थलसमुज्ज्वलम् ॥ ४२॥
शरत्पार्वणचन्द्राभप्रभामुष्टमुखोज्ज्वलम् ।
शरत्प्रफुल्लकमलप्रभामोचनलोचनम् ॥ ४३॥
मालतीमाल्यसंश्लिष्टशिखिपिच्छसुशोभितम् ।
त्रिभङ्गचूडां बिभ्रन्तं पश्यन्तं रत्नमन्दिरम् ॥ ४४॥
क्रोडं बालकशून्यं च दृष्ट्वा तं नवयौवनम् ।
सर्वस्मृतिस्वरूपा सा तथापि विस्मयं ययौ ॥ ४५॥
रूपं रासेश्वरी दृष्ट्वा मुमोह सुमनोहरम् ।
कामात् चक्षुश्चकोराभ्यां मुखचन्द्रं पपौ मुदा ॥ ४६॥
निमेषरहिता राधा नवसङ्गमलालसा ।
पुलकाङ्कितसर्वाङ्गी सस्मिता मदनातुरा ॥ ४७॥
तामुवाच हरिस्तत्र स्मेराननसरोरुहाम् ।
नवसङ्गमयोग्यां च पश्यन्तीं वक्त्रचक्षुषा ॥ ४८॥
श्रीकृष्ण उवाच ।
राधे स्मरसि गोलोकवृत्तान्तं सुरसंसदि ।
अद्य पूर्णं करिष्यामि स्वीकृतं यत्पुरा प्रिये ॥ ४९॥
त्वं मे प्राणाधिका राधे प्रेयसी च वरानने ।
यथा त्वं च तथाहं च भेदो हि नावयोर्धुवम् ॥ ५०॥
यथा क्षीरे च धावल्यं यथाग्नौ दाहिका सति ।
यथा पृथिव्यां गन्धश्च तथाहं त्वयि सन्ततम् ॥ ५१॥
विना मृदा घटं कर्तुं विना स्वर्णेन कुण्डलम् ।
कुलालः स्वर्णकारश्च न हि शक्तः कदाचन ॥ ५२॥
तथा त्वया विना सृष्टिमहं कर्तुं न च क्षमः ।
सृष्टेराधारभूता त्वं बीजरूपोऽहमच्युतः ॥ ५३॥
कृष्णं वदन्ति मां लोकास्त्वयैव रहितं यदा ।
श्रीकृष्णं च तदा तेऽपि त्वयैव सहितं परम् ॥ ५४॥
त्वं च श्रीः त्वं च सम्पत्तिस्त्वमाधारस्वरूपिणी ।
त्वं स्त्री पुमानहं राधे इति वेदेषु निर्णयः ॥ ५५॥
सर्वशक्तिस्वरूपासि सर्वरूपोऽहमक्षरः ।
ममाङ्गजस्वरूपा त्वं मूलप्रकृतिरीश्वरी ॥ ५६॥
शक्त्या बुध्या च ज्ञानेन मया तुल्या वरानने ।
रा शब्दं कुर्वतस्त्रस्तो ददामि भक्तिमुत्तमाम् ॥ ५७॥
धाशब्दं कुर्वतः पश्चाद्यामि श्रवणलोभतः ।
तिष्ठ भद्रे क्षणं भद्रं करिष्यामि तव प्रिये ॥ ५८॥
त्वन्मनोरथपूर्णस्य स्वयं कालस्समागतः ।
एतस्मिन्नन्तरे ब्रह्माऽऽजगाम पुरतो हरेः ॥ ५९॥
मालाकमण्डलुधरः ईषत्स्मेरचतुर्मुखः ।
गत्वा ननाम तं कृष्णं प्रतुष्टाव यथागमम् ॥ ६०॥
साश्रुनेत्रः पुलकितः भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।
स्तुत्वा नत्वा जगद्धाता जगाम हरिसन्निधिम् ॥ ६१॥
पुनर्नत्वा प्रभुं भक्त्या जगाम राधिकान्तिकम् ।
मूर्ध्ना ननाम भक्त्या च मातुस्तच्चरणाम्बुजे ॥ ६२॥
चकार सम्भ्रमेणैव जटाजालेन वेष्टितम् ।
कमण्डलुजलेनैव शीघ्रं प्रक्षालितं मुदा ॥ ६३॥
यथागमं प्रतुष्टाव पुटाञ्जलियुतः पुनः ।
हे मातस्त्वत्पदाम्भोजं दृष्टं कृष्णप्रसादतः ॥ ६४॥
सुदुर्लभं च सर्वेषां भारते च विशेषतः ।
षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तप्तं मया पुरा ॥ ६५॥
भास्करे पुष्करे तीर्थे कृष्णस्य परमात्मनः ।
आजगाम वरं दातुं वरदाता हरिः स्वयम् ॥ ६६॥
वरं वृणीष्व इत्युक्ते स्वाभीष्टं च वृतं मुदा ।
राधिकाचरणाम्भोजं सर्वेषामपि दुर्लभम् ॥ ६७॥
हे गुणातीत मे शीघ्रमधुनैव प्रदर्शय ।
मयेत्युक्तो हरिरयमुवाच मां तपस्विनम् ॥ ६८॥
दर्शयिष्यामि काले च वत्सेदानीं क्षमेति च ।
न हीश्वराज्ञा विफला तेन दृष्टं पदाम्बुजम् ॥ ६९॥
सर्वेषां वाञ्छितं मातः गोलोके भारतेऽधुना ।
सर्वा देव्यः प्रकृत्यंशाः जन्याः प्राकृतिका धुवम् ॥ ७०॥
त्वं कृष्णाङ्गार्धसम्भूता तुल्या कृष्णेन सर्वतः ।
श्रीकृष्णस्त्वन्मयं राधा त्वं राधा वा हरिः स्वयम् ॥ ७१॥
न हि वेदेषु मे दृष्टः इति केन निरूपितम् ।
ब्रह्माण्डाद्बहिरूर्ध्वं च गोलोकोऽस्ति यथाम्बिके ॥ ७२॥
वैकुण्ठश्चाप्यजन्यश्च त्वमजन्या तथाम्बिके ।
यथा समस्तब्रह्माण्डे श्रीकृष्णांशांशजीविनः ॥ ७३॥
तथा शक्तिस्वरूपा त्वं तेषु सर्वेषु संस्थिता ।
पुरुषाश्च हरेरंशाः त्वदंशा निखिलाः स्त्रियः ॥ ७४॥
आत्मना देहरूपा त्वमस्याधारस्त्वमेव हि ।
अस्यानुप्राणैस्त्वं मातस्त्वत्प्राणैरयमीश्वरः ॥ ७५॥
किमहो निर्मितः केन हेतुना शिल्पकारिणा ।
नित्योऽयं च तथा कृष्णस्त्वं च नित्या तथाम्बिके ॥ ७६॥
अस्यांशा त्वं त्वदंशो वाप्ययं केन निरूपितः ।
अहं विधाता जगतां देवानां जनकः स्वयम् ॥ ७७॥
तं पठित्वा गुरुमुखात् भवन्त्येव बुधा जनाः ।
गुणानां वास्तवानां ते शतांशं वक्तुमक्षमः ॥ ७८॥
वेदो वा पण्डितो वान्यः को वा त्वां स्तोतुमीश्वरः ।
स्तवानां जनकं ज्ञानं बुद्धिर्ज्ञानाम्बिका सदा ॥ ७९॥
त्वं बुद्धेर्जननी मातः को वा त्वां स्तोतुमीश्वरः ।
यद्वस्तु दृष्टं सर्वेषां तद्धि वक्तुं बुधः क्षमः ॥ ८०॥
यददृष्टाश्रुतं वस्तु तन्निर्वक्तुं च कः क्षमः ।
अहं महेशोऽनन्तश्च स्तोतुं त्वां कोऽपि न क्षमः ॥ ८१॥
सरस्वती च वेदाश्च क्षमः कः स्तोतुमीश्वरः ।
यथागमं यथोक्तं च न मां निन्दितुमहसि ॥ ८२॥
ईश्वराणामीश्वरस्य योग्यायोग्ये समा कृपा ।
जनस्य प्रतिपाल्यस्य क्षणे दोषः क्षणे गुणः ॥ ८३॥
जननी जनको यो वा सर्वं क्षमति स्नेहतः ।
इत्युक्त्वा जगतां धाता तस्थौ च पुरतस्तयोः ॥ ८४॥
प्राणम्य चरणाम्भोजं सर्वेषां वन्द्यमीप्सितम् ।
ब्रह्मणः स्तवनं श्रुत्वा तमुवाच ह राधिका ॥ ८५॥
वरं वृणु विधातस्त्वं यत्ते मनसि वर्तते ।
राधिकावचनं श्रत्वा तामुवाच जगद्विधिः ॥ ८६॥
वरं च युवयोः पादपद्मभक्तिं च देहि मे ।
इत्युक्ते विधिना राधा तूर्णमोमित्युवाच ह ॥ ८७॥
पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम् ॥ ८८॥
हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः ।
उत्थाय शयनात्कृष्णः उवास वह्निसन्निधौ ॥ ८९॥
ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकः स्वयम् ॥ ९०॥
कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणम् ।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ॥ ९१॥
प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधिः ॥ ९२॥
वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ॥ ९३॥
श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजाप्रतिः ।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन् पाठयामास राधिकाम् ॥ ९४॥
पारिजातप्रसुनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्धारा ददौ मुदा ॥ ९५॥
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम् ॥ ९६॥
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः ।
तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ॥ ९७॥
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः ।
पाठयामास वेदोक्तान् पञ्च मन्त्रांश्च नारद ॥ ९८॥
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः ।
कन्यकां च यथा तातो भक्त्या तस्थौ हरेः पुरः ॥ ९९॥
एतस्मिन्नन्तरे देवाः सानन्दपुलकोद्गमाः ।
दुन्दुभिं वादयामासुः चानकं मुरजादिकम् ॥ १००॥
पारिजातप्रसूनानां पुष्पवृष्टिर्बभुव ह ।
जगुर्गन्धर्वप्रवराः ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ १०१॥
इति ब्रह्मवैवर्तपुराणात् सण्ग्रहीतं श्रीराधाकल्याणं समाप्तम् ॥

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