Marwadi in Assam

Friends, I created this page for Marwari brothers who live in Assam. So that everyone can stay c***e

22/01/2024

राम रतन धन प्रिय मोहे और रतन ना चाहे

#आयोध्या

17/01/2024

पूनरासर बालाजी के दिव्य दर्शन

13/01/2024

Happy bihu বিহু

#বিহু #অসম

16/09/2023

मारवाड़ी सम्मेलन गुवाहाटी Gulab Chand Kataria Himanta Biswa Sarma Rubika Liyakt Bharat24.com

08/01/2023

म्हारो राजस्थान
#राजस्थानी

#राजस्थानी_मांगे_राजभासा

19/08/2022

कामाख्या मंदिर देवधूनी

02/08/2022

समाज मे इस तरह आपस मे लड़ना ओर मारना मरना । समाज को कमज़ोर करता है । समाज मे सभी आपस मे सहयोग करे ओर मजबूत करे ।
सौजन्य दैनिक पूर्वोदय, गुवाहाटी

Photos from Marwadi in Assam's post 24/07/2022

घणा_गौरव_री_बात_है✌️
बीकानेर री धरती रा लाल
मायड़_भाषा रा लूंठा हेताळु,सरल सुभाव रा धणी ,
नुवी पीढ़ी रा आदर्श
Pankaj Ojha भाई साहब ने 23जुलाई रा फ्रांस माय भारत_गौरव_अवॉर्ड सु सम्मान सारू नामित होवण पर घणी मोकळी बधाई अर शुभकामनावा 💐

07/01/2022

मारवाड़ी समाज का व्यक्ति जिस भी राज्य में स्थान पर जाता है उसकी संस्कृति और उसी स्थान की उन्नति के लिए कार्य करता है लेकिन राजनीतिक चंद गुंडे अपनी सत्ता बनाने के चक्कर में हर कोई उनको परेशान करता है इसके लिए सभी मारवाड़ी ओ को एक बार में एक साथ आकर के आवाज उठाने चाहिए और ज्यादा से ज्यादा इस वीडियो को शेयर करना चाहिए

20/11/2021

MISSING and help

Bimla Devi Toshniwal W/o Nemchand Toshniwal is missing from 12.00 today afternoon.

Resident: Bora Road, Babu Patty, Sivasagar.

Contact No. 97060 5707

Marwadi in Assam 20/11/2021

Guwahati मे भुकम्प आया किस किस को पता चला?

Marwadi in Assam Friends, I created this page for Marwari brothers who live in Assam. So that everyone can stay c***e

Photos from Marwadi in Assam's post 20/11/2021

Congratulations assam Police
Assam Police DGPAssamPolice
Himanta Biswa Sarma Assam Khabar News18 Assam & NE CMO Assam https://www.policefoundationindia.org/images/resources/pdf/IPF_Survey_Report_on_Indian_Police_2021.pdf

19/11/2021

गुवाहाटी (विभास) ज्वेलरी का बिजनेस हमेशा से ही विश्वास पर होता आया है, लेकिन गुवाहाटी में असली-नकली एल गोपाल सोना के साथ- साथ चांदी की खरीद-बिक्री में भी घालमेल कर रहा हैं। इस ठगी को जांचने और रोकने का लोगों के पास कोई तरीका नहीं है। हालत ये है कि गुवाहाटी का यह प्रतिष्ठान 45 फीसदी से लेकर 65 फीसदी तक की शुद्धता की ही चांदी मंगवा रहा है और ग्राहकों से उसकी कीमत 100 फीसदी की लेता हैं। उसके ऊपर से मेकिंग चार्ज अलग से लिया जा रहा है। चांदी की मेकिंग से जुड़े लोगों ने हो बताया कि इस प्रतिष्ठान के मालिक राजकोट, आगरा व मुंबई से 45 से 65 प्रतिशत का माल तैयार करवाते हैं। पायल में 35 प्रतिशत से अधिक शुद्धता का माल मंगवाते ही नहीं है। 65 प्रतिशत की पायल तो गिनती की ही रखते हैं, जो परंपरागत डिजाइन वाली होती हैं। शुद्ध चांदी के अलावा जो 20 से 35 प्रतिशत अधिक राशि वसूल की जाती है, वो भी उस दिन के चांदी के भाव से ली जाती है। यानी कि ग्राहक से खोट या मिलावट का पैसा भी चांदी के भाव से वसूल किया जा रहा है। सोने-चांदी की शुद्धता पर कोई कंट्रोल नहीं है। गुवाहाटी में सोने-चांदी की शुद्धता जांचने के लिए कोई भी ग्राहक लैब तक नहीं पहुंच पा रहा है। कंट्रोलिंग के लिए भी सरकारी स्तर पर जो एजेंसी है, वह भी किसी स्तर पर इन पर लगाम लगाने में नाकामयाब है। उल्लेखनीय है की जितनी फैंसी डिजाइन, उतनी हो अशुद्ध चांदी होता है। चांदी

की शुद्धता जांचने के 1 ग्राहक के पास कोई पैमाना नहीं होता है। व्यापारी बताते हैं कि ग्राहक केवल एक ही बात का ध्यान रखें कि जितना फैंसी डिजाइन का आयटम होगा, शुद्धता की गारंटी उतनी ही कम होगी चांदी मैं केडियम, कॉपर व अन्य धातुओं की मिलावट की जाती है। मजे की बात यह है की नग व मीना भी सोने-चांदी के भाव से बेचे जा रहे हैं। वहीं सोने-चांदी के छोटे आयटम में शुद्धता की कोई गारंटी ही नहीं होती है लॉंग, बिछिया, बालियों में 35 प्रतिशत से 45 प्रतिशत से अधिक शुद्धता बहुत कम मिलती है। इसके अलावा ग्राहक को उसमें लगे नग व मीना में भी उगा जाता है। उसका वजन भी चांदी के भाव से किया जाता है। जबकि, यह प्रतिष्ठान नग व माना का वजन अलग करवाते हैं। यानि खुद नग का पैसा नहीं देते हैं ग्राहक से लेते हैं। ग्राहकों को बताते चलें कि शुद्ध चांदी काफी नरम होती है. इसे फाइन सिल्वर कहा जाता है। कुछ वस्तुएं सिल्वर प्लेटेड (चांदी की पतली परत चढ़ी हुई) होने के कारण चांदी जैसी दिखती हैं। ऐसे ही सिल्चर प्लेटेड सिक्के वह चांदी की सिल्ली (बार) को धनतेरस के अवसर पर ग्राहकों को बेच कर यह असली नकली प्रतिष्ठान करोड़ों के वारे न्यारे कर रहा है। मालूम हो कि कुछ वर्षों पूर्व असली-नकली प्रतिष्ठान के मालिक साइकल पर घूम-घूम कर चांदी के आभूषण और सिक्के बेचा करते थे। कुछ वर्षों में ही ऐसा कौन-सा अलादीन का चिराग इनके हाथ लग गया कि रातों-रात आलीशान ज्वेलरी के शोरूम और आलीशान आशियाना बना

लौंग, बिछिया, बालियों में खाद ही खाद

बैठे हैं। सीधी-सी बात है असली-नकली का खेल खेल कर लोगों को अब तक उगी का शिकार बनाया और आज भी बना रहे हैं। सरकारी विभाग की उदासीनता कि यह जाती-जागती मिसाल है। मजे की बात यह है कि ये लोग अपने आपको सरकारी बैल्यूवर भी बताते हैं। अगर ऐसे लोग वैल्यूएशन करेंगे, तो कैसा करेंगे आप जान सकते हैं। बहरहाल ऐसे में हमें चांदी खरीदते समय काफी सावधानी बरतनी चाहिए। आपको बता दे कि चांदी को ग्राम या आँस में मापा जाता है। एक औंस करीब 31.10 ग्राम के बराबर होता है। आमतौर पर चांदी के गहनों की रीसेल वैल्यू 90 फीसदी के आसपास होती है, क्योंकि इसमें मेकिंग चार्ज भी शामिल होता है। सोने की तरह चांदी की भी हॉलमार्किंग होती है। चांदी में शुद्धता के लिए फीसदी की आधार माना जाता है। चांदी के बार पर शुद्धता लिखी होती है। जैसे 99.9 फीसदी या 95 फीसदी लिखी होती है। सबसे अच्छी चांदी स्टलिंग चांदी के रूप में बेची जाती है। इसमें 92.5 फीसदी चांदी होती है। इसलिए इस पर 925 या 925 की मुहर लगी होती है। सिक्कों में 90 फीसदी तक चांदी होती है। मगर गुवाहाटी का यह असली-नकली एल गोपाल प्रतिष्ठान महज 45 फीसदी चांदी के ही सिक्के बाजार में बेच कर लोगों को ठग रहा है और शान से कहता है कि सरकारी विभाग हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं। उनके भी बाल-बच्चे हैं। हमारे भी हैं। सब साथ साथ है। सबका साथ, सबका विकास।

संभार दैनिक विकसित भारत समाचार

18/11/2021

Himanta Biswa Sarma व्यापारियों की संरक्षण की व्यवस्था करे महोदय कोई भी घुस जाता है और धमकी दे देता है. ऐसे कब तक सहन करे.

सभी व्यापारी समाज से यह कहना चाहता हूँ कोई भी दुकान में घुस जाता है और धमकी देता है इसका मुख्य कारण यह है कि किसी दूसरे के साथ बुरा होता है तो हम चुपचाप तमाशा देते रहते हैं इसीलिए सभी व्यापारी एक बने और किसी के साथ भी पूरा हो तो उसका विरोध करें

और अगर किसी व्यक्ति के साथ में बुरा बहुत उसके लिए कानून व्यवस्था को भी संज्ञान लेना चाहिए
Jorhat Police

17/04/2021

20 लोग अचानक आपकी दुकान में आ जाए और आपको इस प्रकार धमकाने लगे तो आप क्या करोगे कुछ नहीं कर सकते क्योंकि आप में एकता नहीं है तो आपको वही बोलना पड़ेगा जो आपको वह लोग बोलने को मजबूर करेंगे !
पसीने से जिन्होंने इस व्यापारिक जमीन को बंजर से उपजाऊ बनाया उनके साथ ऐसा व्यवहार अच्छी बात नहीं है
फेमस होने के लिए कोई कुछ भी करेगा
😠😠😠😠😠😠😠

07/03/2021

That's why I love modi ji

26/02/2021

Cm live from guwahati

10/02/2021

पूर्वी भारत में मारवाडि़यों का प्रवेश प्रायः 300 वर्ष पूर्व ही हो गया था, जिसमें बिहार ( झारखण्ड के साथ) , असम, अविभाजित बंगाल (उडिसा को लेकर), और कलकत्ता इनका केन्द्र बना रहता । एक प्रकार से कोलकाता को मारवाड़ीयों का 'मिनी राजस्थान' भी कहा जा सकता है। स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी थी, कि कलकत्ता एक प्रकार से मारवाड़ियों का काशी तीर्थ बन चुका था। इस हरी-भरी धरती को अपना बना लेने वाला यह समाज अपने आप में एक उदाहरण तो है ही, साथ ही साथ यहाँ के सुख-दुःख में भी बराबर का साथ रहा है, चाहे वह अकाल की घटना हो या बाढ़ की हर पल इस समाज ने अग्रणी भूमिका अदा की है। एक सबसे बड़ी बात मुझे देखने को मिली की अहिन्दी भाषी प्रन्तों में मारवाड़ी समाज ने हिन्दी का एक प्रकार से लालन-पोषण ही किया। इसका सबसे बड़ा कारण था, इन प्रन्तों हिन्दी भाषा-भाषी के लिये किसी प्रकार की शिक्षण व्यवस्था का न होना, जगह-जगह हिन्दी का पोषण करने हेतु स्कूल-विद्यालय-पुस्तकालय की स्थापना के साथ-साथ हिन्दी समाचार पत्रों के प्रकाशन में इस प्रवासी समाज के योगदान को इंकार करना किसी भी प्रकार से संभव नहीं है। पिछले दिनों जब समाज विकास में 'मारवाड़ी समाज के धरोहर' का प्रकाशन का निर्णय लिया तो, विभिन्न प्रन्तों से काफी आंकड़े प्राप्त हुए, जिसके विवरणों को आगे देने का प्रयास करूंगा, पाया कि इस समाज ने जो भी जनोपयोगी कार्य किये वे समस्त मानवजाति के लिये तो किये ही, साथ ही साथ स्थानीय साहित्य,भाषा, संस्कृति के विकास में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यह बात मेरे लिख देने से या कह देने से प्रमाणित नहीं हो जाती, कोई भी यह जानना जरूर चाहेगा कि, यह बात कैसे प्रमाणित की जाय? इसका एक छोटा सा उदाहरण असम में "रूपकंवर ज्योतिप्रसाद अग्रवाला" का ही देना चाहूगां, असम में एक दिन का राजकीय छुट्टी प्रति वर्ष मनाई जाती है, इनके नाम से और इस दिन समुचा असमिया समाज दिनभर सांस्कृतिक कार्यक्रम करते हैं, एकप्रकार से "रूपकंवर ज्योतिप्रसाद अग्रवाला" को असम का रविन्द्रनाथ ठाकुर कहा जा सकता है। एक समय था जब समाज के लोग न सिर्फ अपने समाज के विकास की बात सोचते थे, वे स्थानीय साहित्य,भाषा, संस्कृति के विकास में भी अपना महत्वपूर्ण दिया है। आज की पीढ़ी में यह बात देखने को नहीं मिलती, जो काम मारवाड़ी समाज ने किये उनके आंकडों का एक दस्तावेज यदि बनाया जाय तो यह ज्यादा उपयोगी होगा। मारवाड़ी शब्द की परिभाषा: जहाँ तक मेरा मानना है, 'मारवाड़ी' - शब्द न कोई विशेष जाति, न धर्म और न ही किसी प्रान्त को द्योतक है। जैसे पंजाबी, बंगाली, गुजराती आदि कहने पर अहसास होता है। राजस्थान व हरियाणा के लोगों को इनकी भाषा-बोली, पहनाव- संस्कृति में एकरूपता के चलते इन्हें देश के अन्य प्रन्तों में, विदेशों में भी मारवाड़ी शब्द से सम्बोधित किया जाने लगा। (इस बात पर आगे चर्चा करूगाँ कि, कब से और कैसे इस समाज को 'मारवाड़ी' शब्द से संबोधित किया जाने लगा, और इसके पीछे क्या कारण थे।) अब यह प्रश्न स्वभाविक तौर पर हो सकता है, कि तब मारवाड़ी किस प्रान्त के हैं? एक पाठक ने रायपुर से ई- मेल कर, मुझसे प्रश्न किया कि - "मारवाड़ी से तात्पर्य सीधे रूप में राजस्थानी से माना जाता है, मारवाड़ी सम्मेलन भी अपने संविधान में राजस्थानी संस्कृति की बात करती है, तो फिर हरियाणा के प्रवासी लोगों को देश के अन्य हिस्सों में मारवाड़ी शब्द से क्यों सम्बोधित किया जाता है?" इसका सटिक उत्तर अभी तक मेरे पास नहीं है, हाँ यह बात तो सही है कि जहाँ एक तरफ राजस्थान व हरियाणा के लोगों को देश के अन्य भागों में मारवाड़ी कह कर संबोधित किया जाता है, वहीं राजस्थानी व हरियाण्वी अपने मूल प्रान्त के अन्दर अपने आपको मारवाड़ी नहीं मानते। इसका कारण क्या है इस पर हम बाद में विचार करगें। यहाँ एक महत्वपूर्ण बात ओर है, जिसपर भी गौर करने की बात है कि, हिन्दू, जैन, ब्राह्मण समाज, माहेश्वरी, ओसवाल, राजपूत जाट, बनिया, आदि सभी को देश-विदेश के समस्त हिस्सों में मारवाड़ी कहा जाता है, परन्तु राजस्थान, हरियाणा के मुसलमानों को मारवाड़ी शब्द से संबोधित नहीं किया जाता है और ( कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय तो ) न ही वे अपने आपको संबंधित रखना पसंद करते हैं । वैसे तो अभी तक इस शब्द की सही व्याख्या नहीं हो पाई है, फिर भी कई विद्वानों ने इसकी व्याख्या करने का प्रयास किया है। जिसमें मारवाड़ के सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री गौरीशंकर हीरा चन्द जी ओझा ने लिखा है, 'मारवाड़' शब्द देशवाची और मारवाड़ी शब्द लोकभाषा एवं संस्कृतिवाची है। राजपुताना के लोगों को हिन्दूस्तान में मारवाड़ी ही कहते हैं। जयपुर के प्रसिद्ध इतिहासज्ञ तथा पुरातत्ववेत्ता पुरोहित श्री हरि नारायण जी ने लिखा है - " राजपूताना से बाहर जाने वाले लोग अपने पहनावे, रहन-सहन, व्यवहार और व्यापार आदि में समानता के कारण राजस्थान से बाहर कलकत्ता, मुंबई आदि भारत के सभी स्थानों में मारवाड़ी कहे जाते हैं, भले ही वे राजस्थान में जोधपुर, बीकानेर अथवा जयपुर के या अन्य किसी राज्य (राजस्थानी रियासत वाले #) के निवासी क्यों न हों। डॉ.डी.के.टकनेत ने अपनी पुस्तक "मारवाड़ी समाज" में बालचन्द मोदी का हवाला देकर लिखा है कि " मारवाड़ शब्द संस्कृत के 'मरुवर' का अपभ्रंश है एवं प्राचीन काल में यह मरू प्रदेश कहलाता था। इसकी व्याख्या श्री मोदी के अनुसार 'माड' जैसलमेर का दूसरा नाम था और 'वाड' मेवाड़ का अंतिम अंश। इन दोनों शब्दों को मिलाकर मारवाड़ शब्द बना और इसी शब्द से 'मारवाड़ी' शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है। जब यहा बात लिखी गई थी उन दिनों राजस्थान में कई अलग-अलग रियासतें भी थी, जिसे बाद मेम राजस्थान में विलय कर दिया गया। क्रमशः - शम्भु चौधरी

23/01/2021
19/01/2021

वण्डोली है यही¸ यहीं पर
है समाधि सेनापति की।
महातीर्थ की यही वेदिका
यही अमर–रेखा स्मृति की
एक बार आलोकित कर हा
यहीं हुआ था सूर्य अस्त।
चला यहीं से तिमिर हो गया
अन्धकार–मय जग समस्त
आज यहीं इस सिद्ध पीठ पर
फूल चढ़ाने आया हूँ।
आज यहीं पावन समाधि पर
दीप जलाने आया हूँ

10/01/2021

जय श्री श्याम

08/01/2021

Marwadi Power

06/01/2021

अपने बचपन से कहानी सुननी है प्यासा कौवा आज उस कहानी को हकीकत में अपनी आंखों से देख ले

04/01/2021

Cradit #रतनशाह
आस्ट्रेलिया की मीडियाकास्ट कम्पनी को मारवाड़ी समाज पर एक टेलीचित्र तैयार करना था। इस सिलसिले में शोधकर्ता एवं लेखक श्री कीथ एडम भारत आये हुए थे। टेलीचित्र के प्रोड्यूसर डायरेक्टर श्री बिथवन सिरो एवं उनकी कैमरा टीम भी साथ थी। जो टेलीचित्र उन्होंने तैयार किया, वह आजकल डिस्कवरी चैनल पर दिखाया जा रहा है। चूंकि टेलीचित्र मारवाड़ी समाज पर तैयार होना था- उन्होंने मेरे साथ कई बैठकें कीं। उन्होंने अमेरिकी विश्वविद्यालयों से प्रकाशित कुछ शोधपत्रों को पढ़ा था। टिमबर्ग की पुस्तक 'मारवाड़ी समाज-व्यवसाय से उद्योग में` का भी अध्ययन किया था। पर कहने लगे कि बातें स्पष्ट नहीं हो पा रही हैं। मारवाड़ी शब्द का आशय किसी समाज से है या समूह से, यह जाति है या मात्र एक वर्ग है! कोई व्यक्ति मारवाड़ी है, यह कैसे पहचाना जाता है? उसके कर्म से या उस क्षेत्र से, जहां से वह आया है, या उसकी भाषा और संस्कृति से! मारवाड़ी समाज द्वारा व्यापार एवं उद्योग के क्षेत्र में की गई उल्लेखनीय प्रगति के कारणों की व्याख्या करते हुए टिमबर्ग तथा टकनेत आदि लेखकों ने साहसिकता, संयुक्त परिवार प्रणाली, नैतिकता, मितव्ययिता, व्यावहारिकता और व्यापारिक प्रशिक्षण, धार्मिक और जाति भावना सरीखे गुणों की तरफ ध्यान आकर्षित किया है। परंतु श्री कीथ का प्रश्न था कि ये सभी गुण इसी जाति में क्यों आये- इसके पीछे क्या कारण रहे हैं- क्या इस पर कोई शोध हुआ है? मैंने कहा- प्रथम कारण था, हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की सहोदरा गणेश्वरी सभ्यता जो कि शेखावाटी तथा मारवाड़ की धरती पर फली-फूली थी। सिंधु घाटी के नगरों में तांबे के जो बर्तन और औजार मिले हैं, वे खेतड़ी तथा सिंघाना स्थित खानों से निकाले गये तांबे से बनाये जाते थे। भारतीय इतिहास की सोवियत विशेषज्ञ ए. कोरोत्सकाया लिखती हैं कि प्राचीन काल से ही अनेक सार्थ मार्ग राजस्थान से होकर गुजरते थे और ऊंटों की लम्बी कतारें लम्बी दूरियां तय करती थीं। इनसे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण कारण रहा था राजस्थानी भाषा का साहित्य। पौ फटने से बहुत पहले ही घर की औरतों को चक्की पीसने, दही बिलौने, कुएं से पानी निकालने जैसे कई श्रम-साध्य कार्य करने पड़ते थे। श्रम की थकान का पता नहीं चले, इसलिये वे राजस्थानी लोक-काव्य को सरस धुनों में गाती थीं। यह सब सोये हुए बच्चों के कानों में स्वत: जाता रहता था। वह सब उसके खून में रच-बस जाता था। इसी तरह रात में बच्चों को सुलाने के लिए भी मां और दादी लोरियां सुनाती थीं- 'जणणी जणै तो दोय जण, कै दाता के शूर।` बच्चों को साहसिकता का पाठ अलग से पढ़ाने की जरूरत नहीं होती थी। यह उनको घूंटी में ही मिलते थे। ये ही बातें उनके जीवन की प्रवृत्ति बन जाती थी। इसी कारण युद्ध और व्यापार के क्षेत्र में वहां के लोगों ने नये कीर्तिमान स्थापित किये। श्री कीथ ने पूछा- क्या आज के मारवाड़ी परिवारों में भी बच्चों को इस तरह की लोरियां सुनाई जाती हैं? यदि नहीं तो आगामी सदी के व्यापार और उद्योग क्षेत्र में इनका वर्चस्व कायम रह सकेगा? मुझे संदेह है, पर चाहता हूं कि मेरा संदेह गलत हो। चूंकि हम बीसवीं सदी पार कर चुके हैं, मारवाड़ियों से सम्बन्धित यह विषय गंभीर चर्चा की अपेक्षा रखता है।
मारवाड़ी समाज और भ्रान्तियां :
सही है कि मारवाड़ी समाज के इतिहास में औद्योगिक घरानों और कोलकाता शहर का अहम् स्थान है। पर सही यह भी है कि जिस किसी ने भी मारवाड़ी समाज पर लिखने की कोशिश की, ये दोनों मुद्दे उसके लेखन पर इस कदर हावी हो गये कि वह विस्तार से अन्य कुछ देख भी नहीं पाया। वरना यह भी तो लिखा जाना चाहिये था कि कोलकाता के महाजाति सदन की दीवारों पर लगे हुए क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता संग्रामियों के सौ से भी अधिक तैल-चित्रों में बीस-बाईस चित्र मारवाड़ी समाज के लोगों के भी हैं। ये वे लोग थे, जिन्होंने शचीन्द्र सान्याल से लेकर रासबिहारी बोस तक को गोला-बारूद उपलब्ध कराया था, रोडा हथियार कांड में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और सन १९४७ तक हर आंदोलन में जेल के सींखचों के भीतर रह कर भी आजादी की जंग लड़ी थी। सुप्रसिद्ध विचारक राममनोहर लोहिया को इसी समाज ने पैदा किया था और इसी समाज की साहसिक पुत्री थी इन्दु जैन, जिन्होंने कोलकाता की प्रथम महिला स्वतंत्रता सेनानी के रूप में गिरताराी दी थी। मारवाड़ी समाज के इतिहास में कानून विशेषज्ञ हरबिलास शाारदा, सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ एवं संपादक पंडित झाबरमल्ल शर्मा, प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. दौलतसिंह कोठारी का जिक्र भी आना चाहिये। नोबल पुरस्कार की तैयारी करने वाले डॉ. सी.वी. रमन को वैज्ञानिक उपकरणों के लिए और शांति निकेतन हेतु धन इकट्ठा करने के लिए स्वयं मंच पर उतरते को उद्धत कविगुरु टैगोर को जरूरी धनराशि मुहैया कराने वाले घनश्याम दास बिड़ला मारवाड़ी थे। शांतिनिकेतन का हिन्दी भवन, वनस्थली का महिला विद्यापीठ, कोलकाता की भारतीय भाषा परिषद मारवाड़ी समाज के लोगों की ही देन हैं। रूपकंवर सतीी कांड के विरुद्ध बंगाल का पहला प्रतिवाद जुलूस मारवाड़ी समाज के युवकों ने ही निकाला था। मात्र बड़ाबाजार में ही नहीं, धर्मतल्ला तक की सड़कों पर खुद की भाषा राजस्थानी की संवैधानिक मान्यता के लिए मारवाड़ियों ने सड़क पर जुलूस निकाले हैं।
ये सब तथ्य जब लेखों में उभरकर नहीं आते हैं, तो मारवाड़ी समाज मात्र औद्योगिक समूह बनकर रह जाता है। इतर समाज के लोग मानने लगते हैं कि इस समाज के पास भाषा, साहित्य, संस्कृति ओर कला के स्तर पर कुछ भी नहीं है। पैसा कमाना ही इसका कर्म है, धर्म है।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार निशीध रंजन रे इकोनोमिक टाइम्स के किसी विशेषांक के लिए एक लेख भेज रहे थे, जिसमें इसी तरह की अवधारणा थी। परंतु एक निजी मुलाकात में जब उनसे मारवाड़ी समाज के ऐतिहासिक और सामाजिक सन्दर्भों में बात हुई तो उन्होंने खुद के पास उपलब्ध जानकारियों को अधूरा माना। उन्होंने लेख का अन्त इस वाक्य से किया- It will be absorbing interest to know and ascertain the origin & nature of the forces of physical, environmental and otherwise, which marked out the Marwari as an uncommon community in India.

परिभाषा
टिमबर्ग के शोध का एक विशेष विषय था। इसलिए उन्होंने अपनी पुस्तक का नाम From Traders to Industrialist दिया। पर मारवाड़ी को मात्र व्यापारी मानने की भ्रांति को इससे अनजाने में ही सहारा मिला। मारवाड़ नाम से प्रकाशित बहुत मंहगी, चिकने कागजों पर परिवारों तथा व्यक्तियों के बहुरंगी चित्रों के साथ छपने वाली पत्रिका ने अपने प्रवेशांक में मारवाड़ी की परिभाषा देते हुए मारवाड़ी समाज की प्रगति यात्रा को किसान से उद्योगपति होने का करिश्मा बता दिया ाहै। गलती पुख्ता होती गई, जब अमेरिका के कुछ विश्वविद्यालयों में मारवाड़ी समाज की औद्योगिक प्रगति पर तैयार किये गये मोनोग्रास् को ही मारवाड़ी समाज का इतिहास माने जाने लगा। खुद मारवाड़ी समाज के कुछ लोगों ने कर्म की समानता को मारवाड़ी होने की पहचान बताना चालू कर दिया। रही सही कमी पांचवें दशक के रूसी विचारक डाइकोव ने कर दी, जिसने पूरे मारवाड़ी समाज को बुर्जुवा की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। श्री द्विजेन्द्र त्रिपाठी ने लिखा- मारवाड़ी समुदाय नहीं, समूह है। अन्य किसी के लिए क्या कहें, अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन इसको सम्पूर्ण रूप से परिभाषित नहीं कर पाया था। सन् १९५८ में छपे नये संविधान में इसे ठीक ढंग से परिभाषित किया गया। 'राजस्थान, हरियाणा, मालवा तथा उसके निकटवर्ती भू-भागों के रहन-सहन, भाषा तथा संस्कृति वाले सभी लोग जो स्वयं अथवा उनके पूर्वज देश या विदेश के किसी भू-भाग में बसे हों, मारवाड़ी हैं। यह परिभाषा आज तक मानक रूप में स्वीकार्य है।
मारवाड़ी शब्द को लेकर भी अजीब उलझन पैदा की जाती है। किसी से आप पूछते हैं कि आप कहां से आये हैं, तो स्वाभाविक है कि व्यक्ति अपने शहर या प्रांत का नाम बतायेगा। पर आप पूछें कि आप कौन हैं, तो वह अपनी भाषा के आधार पर खुद का परिचय देगा। मसलन कर्नाटक का व्यक्ति कहेंगा, वह कन्नड़ हैं। आन्ध्र का कहेगा, वह तेलगु है। इसी तरह राजपूताने के विभिन्न इलाकों से आने वाले व्यक्ति मारवाड़ी इसलिए कहलाये कि उनकी भाषा मारवाड़ी थी। वे अपने आप को मारवाड़ी कहते थे। जहां तक मारवाड़ और मारवाड़ी शब्द के सम्बन्ध का प्रश्न है, यह सही है कि मारवाड़ से आने वाले लोग मारवाड़ी कहलाने के अधिकारी हैं। कहा जाता है कि बंगाल में पहले-पहल मारवाड़ के लोग ही आये थे। वे चाहे सन् १५६४ में सुलेमान किरानी की सहायता के लिए भेजी गई अकबर की फौज के राजपूती सिपाही हों, चाहे टोडरमल और राजा मानसिंह के साथ सन् १५८५ से सन् १६०५ तक आई मुगल फौज की रसद व्यवस्था करने वाले कारिन्दें। बंगाल के संदर्भ में कहा जाता है कि ये लोग मारवाड़ से आये थ, सो मारवाड़ी कहलाये। पर देश का कोई ऐसा प्रान्त नहीं हैं, जहां मारवाड़ी नहीं गया हो या आज भी नहीं बसा हो। इन बसे हुए लोगों में एक बहुत बड़ी संख्या ऐसी है, जिसका मारवाड़ से कोई ताल्लुक नहीं है। प्रश्न उठता है कि वे मारवाड़ी क्यों कहलाये? उत्तर बहुत स्पष्ट है। वे सभी लोग मारवाड़ी बोलते थे। और जहां भी गये,, उन्होंने अपना परिचय मारवाड़ी के नाम से दिया। इसीलिए राजस्थान से आने वाला हर व्यक्ति मारवाड़ी कहलाया। चार सौ वर्ष पहले राजस्थान और राजस्थानी शब्द नहीं बने थे। अत: खुद के परिचय के लिए राजस्थानी शब्द की जगह मारवाड़ी शब्द का प्रयोग किया गया। सन् १९६१ की जनगणना का आकड़ा देखने पर हैरानी होती है। इसके अनुसार राजस्थानी बोलने वालों की संख्या केवल १.४९ करोड़ आंकी गई, जिसमें आन्ध्र में ५.७ लाख, मध्य-प्रदेश में १६.११ लाख, महाराष्ट्र में ६.२९ लाख, कर्नाटक में ३.०५ लाख, बंगाल में ३.७२ लाख और दिल्ली में २.९२ लाख हैं। संख्या निश्चित रूप से कम है। पर कुछ बातें काफी स्पष्ट हैं। चूंकि आन्ध्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश में बसे लाखों व्यक्ति केवल व्यवसायी नहीं हैं, वे जीवन के हर क्षेत्र में कार्यरत हैं। ये लोग केवल मारवाड़ से नहीं, बल्कि राजस्थान के अन्य जनपद से भी आये हैं।
उद्यमशीलता की पृष्ठभूमि
इन बातों को ध्यान में रखते हुए मारवाड़ी समाज की विभिन्न प्रवृत्तियां एवं आर्थिक समृद्धि के इतिहास का अध्ययन किया जाये तो कुछ नये तथ्य सामने आते हैं। हमें इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होगा कि अंग्रेजी राज के पहले तक भारतवर्ष बहुत ही समृद्ध देश रहा है। यहां पाई जाने वाली विभिन्न तरह की जलवायु, उर्वरा मिट्टी, नदी और पहाड़, सपाट मैदान इसके प्रमुख कारण थे। ग्रीक, कुशाण, हूण, मंगोल सभी लोग समृद्धि के कारण यहां आये थे और इसीलिए पुर्तगीज डच, फ्रेंच तथा अंग्रेज लोगों ने यहां कोठियां बना कर व्यापार करने की मंजूरी ली थी। जाहिर है, केवल राजसत्ता ही नहीं, यहां के व्यापारियों के व्यापारिक मार्गों का इतिहास भी बहुत रोमांचक रहा है, महत्त्वपूर्ण रहा है। यह अलग बात है कि इस पर अधिक लिखा नहीं गया है। सही है कि व्यापार के बड़े केन्द्र बंदरगाह हुआ करते थे। परन्तु चीन, काबुल, कश्मीर, कंधार आदि का माल गुजरात के बंदरगाहों तक पहुंचाने के लिए जो महत्त्वपूर्ण मार्ग थे, वे राजस्थान से होकर गुजरते थे। इसीलिए यहां के निवासियों की व्यापार-पटुता आज भी शोध-कर्त्ताओं के लिए अध्ययन का विषय बनी हुई है। मुगल शासन के प्रारम्भ काल मंे जब इन मार्गों पर सुरक्षा की अच्छी व्यवस्था थी, तो उत्तर में कश्मीर और काबुल तथा दक्षिण में मालाबार तक इन्होंने अपनी शाखायें खोली। पंजाब और बिहार में तो इनका व्यापार पहले से ही था। स्वयं सेठ लोग शेखावाटी में रहेू ओर वहीं से लाखों रुपये की हुंडिया भुनाते रहे, लाखों रुपये की इंश्योरेंश भी लेते रहे, ताकि छोटे व्यापारियों को कार्य करने में ज्यादा नुकसान का डर नहीं रहे।
शायद यह पहली जाती है, जिसने व्यापार को गति प्रदान करने के लिए व्यापारिक लिपि मुड़िया ईजाद ही नहीं की, उसका व्यापारिक स्तर पर प्रयोग भी किया। पढ़ने के लिए बारहखड़ी सिखाते थे तो व्यापार-पटु होने के लिए स्कूल में रोजमर्रा की महारणी संख्याओं की गिनती एवं जोड़-भाग कंठस्थ करवाया जाता था। महाजनी की पुस्तक उस समय कम्प्यूटर थी। मात्र अंगुलियों पर मुश्किल से मुश्किल व्यापारिक सौदे का हिसाब कर दिया जाता था। अफीम का बहुत बड़ा व्यापार होता था। रोजमर्रा के भाव की जानकरी जरूरी थी और डाक व्यवस्था नहीं थी तो इन लोगों ने चिलका डाक ईजाद की थी- बड़ी पहाड़ियों पर शीशा का प्रयोग कर के सही भाव पहुंचा दिये जाते थे। इन बातों का प्रभाव वहां की कला-संस्कृति, भाषा-वास्तुशिल्प पर भी पड़ा। श्रीमती कोरोत्सकारया लिखती हैं कि राजस्थान जैसे नगर भारत में कहीं नहीं मिले। ये नगर जिनमें अधिकांशत: वैदेशिक व्यापार से मालामाल हुए व्यापारी और महाजन रहते थे, बहुत बातों में इटली के पुनर्जागरण कालीन नगरों की याद दिलाते हैं। जर्मन विद्वान रायटर आस्कर लिखते हैं कि भारत के और सभी नगरों की अपेक्षा संभवत: वे ही अपनी संरचना में और आवासीय भवनों की भव्यता में इतालवी नगरों से सबसे ज्यादा साम्य रखते हैं। कहने का तात्पर्य है कि राजस्थान के बाहर जो मारवाड़ी समाज गया, उसकी यह पृष्ठभूमि रही है। ऐसा ही नहीं है कि यहां के सभी लोग समृद्ध थे, परन्तु मध्यम वर्ग के लोगों में भी विकास की गहरी संभावनाएं थी और जब उनको १८२० के बाद व्यापार के अवसर मिले तो समाज के कुछ समृद्ध लोगों की तरह वे खुद भी बड़ी संख्या में समृद्ध बनने में सफल सिद्ध रहे।
मारवाड़ से आए हुए जगत सेठ की समृद्धि से बहुत लोग परिचित हैं। बंगाल के वस्त्र उद्योग एवं समुद्री व्यापार से होने वाली आय, सिक्के ढालने का मिला हुआ एकाधिकार उनकी आर्थिक प्रगति के प्रमुख कारण थे। धन इतना था कि डच सरकार समझ नहीं पाई कि इतने पैमाने पर रुपयों का लेन-देन उस समय की डच कम्पनी किस सरकार या बैंक के साथ कर रही है! कोई एक घराना इतना धनाढ्य हो सकता है, यह विश्वास के बाहर की चीज थी। इसीलिए तो दिल्ली के बादशाह ने उन्हें जगत सेठ का खिताब दिया था।
गुजरात तो बंगाल से भी बड़ा व्यापारिक केन्द्र था। प्रश्न यह उठता है कि उस समय दिल्ली एवं बंगाल में दोनों जगह शासन नवाबी-मुगलों का था, फिर सहूलियत ओर अधिकार एक मारवाड़ी को क्यों दिये गये? उस समय दक्षिणी प्रदेशों का सारा धन गोलकुंडा में आकर इकट्ठा होता था। सूरत मंडी में खोजा एवं बोरा लोगों को अधिकार दिये गये थे। बीरजी बोरा दुनिया का सबसे धनी व्यक्ति माना जाता था। गोलकुंडा में यह अधिकार मोहम्मद सईद आर्दितानी को था, जो बाद में हीरों की खानों का मालिक भी बन गया था। गोलकुंडा का ही नहीं,, वह दिल्ली का भी मीर जुमला बना। इस तथ्य का जिक्र मात्र इसलिए किया गया है कि मारवाड़ी जाति के लोग ही हैं, जो उस समय से आज तक व्यापार में कामयाबी प्राप्त करते रहे हैं। कोलकाता स्टॉक एक्सचेंज के पूर्व सभापति चिरंजीलाल झुंझुनवाला कहते थे- हम लोगों में 'सिक्स्थ सेंस` था। अफीम की तेजी-मंदी का अंदाज जितनी जल्दी मारवाड़ी व्यावसायियों को हुआ, उसकी कोई मिसाल नहीं है। बहुत धन कमाया अफीम के व्यापार में। बलदेवदास दूधवेवाला बताते थे कि जब वे स्टॉक एक्सचेंज में घुसते थे तो उन्हें गंध-सी आती थी कि ये शेयर घटेंगे और ये शेयर बढ़ेंगे। कहने की जरूरत नहीं है कि प्रथम महायुद्ध के समय शेयर बाजार में सेना की जरूरतों को पूरा करने के व्यापार में मारवाड़ी समाज ने अकूत दौलत कमाई। सुप्रसिद्ध अमेरिकी लेखक सेलिंग एस हरीसन ने अपनी पुस्तक 'इंडियाज मोस्ट डेंजरस डिकेड्स` में इसका कारण मारवाड़ी के सर्वदेशीय फैलाव को माना है। अन्य लोगों को व्यापारिक कार्यों में भुगतान के लिए सम्पर्क सूत्र खोजने पड़ते थे। पर इस जाति के लोग छोटे-छोटे गांव में भी मिल जाते थे, जिससे व्यापार करने में सहूलियत होती थी।
सर्वदेशीय फैलाव
एक प्रश्न यह भी उठता है कि यह जाति अपना स्थान छोड़ कर पूरे भारत में क्यों फैली? रण और व्यापार के मैदान इस जाति के कार्य के प्रमुख केन्द्र रहे हैं। बहुत पहले से ही ये लोग नदी के किनारे के शहरों एवं इससे सटे दूर-दराज के गांवों-कस्बों में सीमित संख्या में बाहर जाते रहते थे। खुर्जा, मिर्जापुर, भागलपुर, इंदौर आदि की व्यापारिक मंडियों में लोगों ने अपनी पहचान बना रखी थी। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मराठा और पिंडारियों की लूटपाट के कारण राजस्थान के व्यापारिक मार्ग सुरक्षित नहीं रहे, इसलिए इन लोगों को दूसरे स्थानों पर जाना पड़ा। सबसे बड़ा कारण १८२० में देशी रियासतों और ब्रिटिश सरकार के बीच हुई संधि थी, जिसके तहत वहां टैक्स की दरों में बढ़ोतरी और कोलकाता जैसी अंग्रेजी बस्तियों में व्यापार को ज्यादा सहज बना दिया गया था। सैंकड़ों और हजारों की संख्या में शेखावाटी से व्यापारियों के प्रवसन का यह सबसे बड़ा कारण था।
१८१३ में इंग्लैण्ड में पारित किये गये एक्ट के अंतर्गत वहां की प्राइवेट कंपनियों को अधिकार मिल गये कि वे भारत में व्यापार कर सकती हैं। अत: बड़ी संख्या में वहां की कम्पनियों ने कोलकाता में ऑफिस खोला। इन लोगों को एजेण्ट एवं बनियनों की जरूरत थी। इस तरह ये दोनों संयोग मिले और मारवाड़ी समाज के लोगों ने अपना कारोबार बढ़ाया। उस समय आई हुई अंग्रेजी कम्पनियों ने बंगाली और खत्री समाज के लोगों को प्रारम्भ में एजेण्ट तथा बनियन बनाया था। परन्तु व्यापार कुशल नहीं होने के कारण वे लोग संतोषजनक कार्य नहीं कर सके। जबकि मारवाड़भ् समाज के लोगों ने इसे बहुत सफलता के साथ सम्पन्न किया। यदि वे इसमें खरे नहीं उतरते तो निश्चित रूप से ब्रिटिश कम्पनियां मद्रास या सूरत को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाती और बंगाल राष्ट्र के आर्थिक मानचित्र में प्रथम स्थान प्राप्त नहीं कर सकता था। बंगाल को मारवाड़ी समाज की यह बहुत बड़ी देन है, जिसका सही मूल्यांकन नहीं किया गया। यह मूल्यांकन इसलिए नहीं हुआ कि व्यापारिक गतिविधियों में यह समाज जरूरत से ज्यादा खोया रहा और खुद की भाषा, साहित्य, संस्कृति, कला और इतिहास के प्रति उदासीनता की नींद में सोया रहा। इस स्थिति में भी शिक्षा-साहित्य सेवाओं तथा जन-कल्याण के कार्यों में जितना काम इस समाज ने किया है, वह अपने आप में शोध का कार्य है। उसे भी अब तक लिपिबद्ध कर के इतर समाज के समक्ष नहीं लाया गया है। इसीलिए आज इस समाज का युवा वर्ग अपने गौरवपूर्ण इतिहास के बारे में बहुत कुछ अनभिज्ञ है।
स्पष्ट है, मारवाड़ी समूह नहीं, समाज है। दो शताब्दी तक राष्ट्र के आर्थिक जगत में इसका सर्वोपरि स्थान रहा है। डॉ. हजारी की मोनोपाली रिपोर्ट से ले कर गीता पीरामल द्वारा तैयार की गई विभिन्न पुस्तकों और लेखों के अनुसार सन १९९० तक के प्रथम दस शीर्षस्थ व्यापारिक घरानों की पूंजी के ७० प्रतिशत भाग का मालिक मारवाड़ी समाज था। पर अब ऐसा नहीं है। सन् १९९८ में बिजनेस इंडिया ने देश के प्रथम ५० औद्योगिक घरानों का अध्ययन किया, यह देखने के लिए कि इनमें से कितने घराने इक्कीसवीं सदी में अपना वजूद कायम रख सकेंगे। इन पचास लोगों की सूची में मुश्किल से ८-१० नाम मारवाड़ी घरानों के हैं। इक्कीसवीं सदी में वजूद रख सकेंगे, ऐसे मात्र दस घराने हैं और मारवाड़ी समाज का तो केवल एक घराना! ध्यान में रखने की बात यह है कि यह सूची छ: वर्ष पुरानी हो चुकी है, जिसमें इन्फॉरमेशन टेक्नोलोजी उद्योग प्राय: शामिल ही नहीं है। आज यह सूची बने तो आठ-दस आई.टी. उद्योगों को शामिल करना पड़ेगा। तब निश्चित रूप से मारवाड़ी समाज का अनुपात और कम हो जायेगा। मारवाड़ी समाज के लिए यह चिंता का विषय है। अफसोस हे कि सामूहिक स्तर पर न कोई चिंतन है और नही चिंता। प्रसिद्ध विचारक एवं लेखक विल ड्यूरेट ने प्रव्रजनशील या प्रवासी जाति की विशेषताओं का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि ऐसी जातियों या समुदायों में पतन के लक्षण कोई डेढ़ सौ वर्षों में दिखलाई पड़ने लगते है और दो से ढाई सौ वर्षों में उनका पूर्ण पतन हो जाता है।
क्या मारवाड़ी समाज पतनोन्मुख है?
प्रोक्टर एंड गेंबल के पूर्व अधिकर्त्ता गुरुचरण दास ने मारवाड़ी समाज के संदर्भ में नोबल पुरस्कार प्राप्त जर्मन लेखक टॉमस मान की पुस्तक के हवाले से केनेडी और रॉकफेलर परिवार का उदाहरण दे कर कहा है कि किस तरह चार-पांच पीढ़ियों के बाद व्यापारिक घरानों का हा्रस होता है। शादियों-उत्सवों के खर्च, दिखावा, आरामतलब की जिंदगी उकने जीवन के अंग बन जाते हैं। मारवाड़ी समाज के साथ ऐसा ही कुछ हो रहा है। टैक्नीकल एवं वैज्ञानिक शिक्षा के अभाव की कमियां साफ नजर आने लगी हैं। समय रहते कुछ निर्णायक कदम नहीं उठाये गये, सोच और कर्म के स्तर पर कुछ बुनियादी तब्दीलियां नहीं हुई तो संभव है कि इतिहास ग्रंथों में दर्ज किया जाये कि बीसवीं सदी के ढलते-ढलते मारवाड़ी समाज की आर्थिक समृद्धि का सूरज भी ढलने लगा था।

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