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फ़िल्म देखने से पहले इसे पढ़ लें।
चोलों का इतिहास कितना पुराना?
अशोक के शिलालेखों में इनका नाम दर्ज है, यानी अशोक से भी पहले दक्षिण भारत में चोल थे, अपने धुर प्रतिद्वंद्वी चेरों और पांड्यो के साथ। मेगस्थनीज पाण्ड्य राज्य के बारे में बताता है कि हेराक्लीज(कृष्ण) की पुत्री का यहाँ शासन था अर्थात मातृ सत्ता यहाँ शुरू से थी। संगमयुग के बाद बीच में बौद्ध और जैन धर्मी कलभ्र शासकों का भी मामूली जिक्र मिलता है उसपे फिर कभी।
अमूमन ये जानिए कि
चोल=तमिल क्षेत्र
चेर=केरल
पाण्ड्य= सुदूर दक्षिण तट कन्याकुमारी/मदुरै का क्षेत्र
पहली सदी ई0 पू0 कलिंग राजा खारवेल के शिलालेख में 113 साल पुराने तमिल संघ का जिक्र है(यही संगम युग है, अर्थात तब भी ये शक्तिशाली बने रहे इसका महत्वपूर्ण सबूत है ये)।
संगम साहित्य में चोलों की महान शक्ति का जिक्र है, जिसमें चोल राजा करिकाल(190 ई0) जो बाद के आने वाले साम्राज्यवादी चोलों से पहले ही समुद्र का अधिपति बन चुका था(समुद्री जहाजी बेड़े)। रोम साम्राज्य से इन तीनों राजवंशों का सामुद्रिक व्यापारिक संबंध था(दक्षिण भारत से पहली सदी के आसपास के अनगिनत रोमन सिक्के और रोमन शराब की सुराही एम्फोरा खुदाई में मिले हैं)।
कुछ शताब्दियों तक मुख्य राजनीति से ओझल होने के बाद 850 ई0 में विजयालय नाम के शासक ने चोलों को फिर से महत्वपूर्ण बना दिया, जो अबतक पल्लवों के सामंत बनकर शासन कर रहे थे("पल्लव राजवँश" संगमयुग के बाद तीसरी सदी ई0 से ही तमिल क्षेत्र के सबसे बड़े शासक बन चुके थे)। विजयालय का नाती परांतक प्रथम ने पाण्ड्य शासन के मदुरा को जीतकर दक्षिण भारत का सिरमौर शासक बन गया। पल्लवों का शासन भी अंतिम रूप से खत्म कर दिया। फिर भी अभी दक्कन वाले महाराष्ट्र में राष्ट्रकूट और मैसूर में गंग शासकों का बोलबाला बना रहा।
फिर कुछ दशकों में आता है चोल राजा राजराज महान, सबसे शक्तिशाली चोल राजा जिसने लंका विजय शुरू किया, लंका में चोल राज्य बनाया, मालदीव को भी जीता। नौसेना के वर्चस्व का एक नया युग चल पड़ा, जिसमें सबसे भारी थे चोल। इसने राष्ट्रकूटों, गंगो और पश्चिमी तट और आंध्रा के चालुक्यों को भी हराया। उपाधि थी:- चोल मार्तण्ड, चोलेन्द्रसिंह।
राजराज का उत्तराधिकारी हुआ राजेन्द्र प्रथम, ये तो अपने पिता से भी एक कदम आगे निकला। पूरे लंका को जीतकर वहाँ के राजा को तमिल राज्य में लाकर बंदीगृह में रखा, जहाँ 12 वर्ष बाद उसकी मृत्यु हुई। इसने आंध्र से बढ़कर कलिंग को भी जीत लिया फिर वहाँ से बढ़ते हुये चोल सेना ने उसके पुत्र विक्रमचोल के नेतृत्व में बिहार-बंगाल के पाल राजा महिपाल को हराया। फिर गंगा नदी से पवित्र जल भरकर तमिल क्षेत्र में मंगवाया और गँगाइकोंड तालाब बनवाया, साथ ही "गँगाइकोंड" की उपाधि भी लगवाई। गँगाइकोंडचोलपुरम नाम की नई राजधानी भी बनवा लिया।
अब बारी थी अपनी नौसेना का जलवा दिखाने का, अपनी शक्तिशाली नौसेना के बल पर उसने मलय प्रायद्वीप, जावा, सुमात्रा के भागों पर विजय पताका फहराते हुये वहाँ के शैलेन्द्र वंशी शासक विजयोतुंग वर्मन को बंदी बना लिया, विजयोतुंग वर्मन उसकी अधीनता में शासन करने का वचन दिए तब जाकर उसे राज्य वपास लौटाया गया। चोलों द्वारा चीन से मैत्री और व्यापारिक संबंध बनाते हुये राजदूत भेजे गये।
इस बड़े अभियान के दौरान दक्षिण भारतीय चोल साम्राज्य में पाण्ड्य और चेरों ने विद्रोह शुरू कर दिया, लंका में भी विरोध के स्वर उठने लगे, राजेंद्र ने यहाँ पर युवराज राजाधिराज को नेतृत्व दिया। फिर चोल सेना ने जिस बर्बरतापूर्वक इन विद्रोहों को दबाया उसकी मिसालें दी जाती हैं।
राजराज प्रथम और राजेंद्र प्रथम की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ भी बेजोड़ थीं वो फिर कभी।
-अंकित जायसवाल
ये एक कालजयी तस्वीर है इस तस्वीर से टीपू सुल्तान के वालिद मैसूर के सुल्तान हैदर अली की ताकत और जुर्रत का अंदाज़ा लगाईये की किस तरह उन्होने ने दक्षिण भारत में अंग्रेज़ों को उनकी औक़ात पर रखा था, हैदर अली ने जिस शख्स की गर्दन पर तलवार रखी हुई है वो अंग्रेज़ अधिकारी है जो हैदर अली से जान की भीख मांग रहा है और पीछे अंग्रेज़ों के वफादार आरकोट के नवाब मोहम्मद अली बेबस खड़े हैं
Indian muslim history
जोहार ....
झारखण्ड वीरों की भूमि है, पराक्रमियों की धरती है, इस पवित्र भूमि पर 1857 क्रांति से 90 साल पहले विद्रोह की मशाल जली थी, 1767 में धधकी क्रांति की मशाल देश आजाद होने तक जलती रही.....
हमारे वीर सपूतों को शत्-शत् नमन् है , हूल जोहार.....
इतिहास जानो अपने वीर आदिवासी भील पुरखो का ओर मार खाने के बजाए मारना शिखो ★1818 में आदिवासी भील इलाकों से गुजरने का परमिट शुल्क 20 हजार पाउंड:- निमाड़ के भीलों ने फरवरी 1818 में मद्रास के ब्रिटिश कमांडर इन चीफ से अपने इलाके से गुजरने के लिए 20 हजार पाउंड की मांग की थी. ब्रिटिश कंपनी ने यह मांग नहीं मानी. जब अंग्रेज सैनिकों का कारवां घाटियों के बीचोबीच से गुजर रहा था तो भीलों ने चारों तरफ से घेर लिया. जोरदार लड़ाई हुई और बंदूकों के कारण 70 से 80 भील मारे गए. उन्हें पीछे हटना पड़ा.तस्वीर: परमिट शुल्क नहीं देने पर खैबर पास में आदिवासियों और ब्रिटिश सेना की मुठभेड़ | स्रोत: द इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज, 29 अप्रैल 1865
12,000 हज़ार साल पहले इंसान तीन समुदाय में विभाजित हो गए. पहले ने तय किया वह वही करेंगे जो वे करते आ रहे हैं यानी शिकार कर अपना जीवन व्यतीत करेंगे.
दूसरे ने पशुपालन को अपनाकर खानाबदोश बन गए और तीसरे इंसानी गुट ने कृषि को अपनाकर आधुनिक युग, विज्ञान, तकनीक, भुखमरी और कुपोषण की नींव रखी.
प्रथम समुदाय के ही एक व्यक्ति की मृत्यु इसी महीने 23 अगस्त हो ब्राज़ील के जंगल हो गयी जिसे दुनिया LAST MAN OF HOLES के नाम से जानती है.
दुनिया उसका नाम नही जानती ना ही उसकी भाषा या संस्कृति के बारे में कोई जानकारी है. कारण वो अपने समुदाय का आखिरी बचा हुआ व्यक्ति था जिसने बाहरी दुनिया से कभी संपर्क साधने की कोशिश नही की.
लास्ट मैन ऑफ होल्स TANARU जनजाति से था, इस जनजाति के लोगों को 1970 से 1990 के बीच नरसंहार कर धीरे धीरे मिटा दिया गया. ब्राज़ील की सरकार ने तनारू जनजाति को लुप्त घोषित कर दिया लेकिन 1996 में अमेज़न के जंगलों से मिली कुछ तस्वीरों के आधार पर पता चला इस जनजाति का एक व्यक्ति जीवित है जो अपने जनजाति इलाके में अकेला रह रहा है.
ब्राज़ील सरकार ने संपर्क बनाने की कोशिश की, लेकिन लास्ट मैन ऑफ होल्स ने अपनी रक्षा में धनुष बाण से हमला कर दिया. वो हमला नही दरसअल अपनी जल जंगल जमीन के रक्षा के लिए किया गया प्रयास था.
लास्ट मैन ऑफ होल्स अकेले जंगल में शिकार कर जीवन व्यतीत करता, फल फूल वनस्पतियों के सहारे जिंदगी गुजर रहा था, जहां भी रहता वहां एक गड्ढा खोद देता. इसी कारण दुनिया ने उसका नाम लास्ट मैन ऑफ होल्स रखा.
23 अगस्त को लास्ट मैन ऑफ होल्स की लाश उसके बनाए झूले पर मिली उसने अपने शरीर को पत्तों से ढक दिया था. जानकारों का कहना है लाश भले 23 तारीख को मिली पर मौत जुलाई माह में हुई और उसे जानकारी हो गयी थी उसकी मौत नजदीक आने वाली है इसलिए उसने अपना अंतिम संस्कार खुद किया. अपने झूले पास भी उसने एक बड़ा गड्ढा खोदकर रखा था.
लास्ट मैन ऑफ होल्स आधुनिक दुनिया का व्यक्ति नही था लेकिन उसकी दुनिया को उजाड़ने वाले हम आधुनिक युग के लोग ही हैं. हमने उसके पूरे समुदाय को खत्म किया उसकी संस्कृति भाषा और सभ्यता को मिटा दिया. इसके बावजूद उस इंसान ने आधुनिक दुनिया के आगे भिखारी बनने से इंकार कर दिया.
आदिवासी भले जंगल में रहते है, शिकार कर अपना जीवन व्यतीत करते हैं, जंगलों में पाए जाने वाली वनस्पतियों पर निर्भर रहते हैं, इसी कारण उनके समुदाय में भुखमरी कुपोषण या गरीबी नही है.
हम आधुनिक इंसानों ने कृषि के बल नई सभ्यता बनाई, कृषि कर के बल पर बड़े बड़े साम्राज्य स्थापित किए, कृषि कर से धर्म का उदय हुआ, राजा महाराजा और संत पुरोहित पलने लगे. हिंसा लूटमार, भुखमरी, कुपोषण और गरीबी का उदय हुआ.
हम कृषि वालों ने आदिवासियों को उजाड़कर अपने महानगरों के घरों में नौकर बनाकर उनसे अपने टॉयलेट साफ कराते हैं, झाड़ू पोछा कराते हैं, उन पर तरह तरह की हिंसा करते हैं, उनके दांत तोड़ देते हैं.
लास्ट मैन ऑफ होल अपनी शर्तों पर जीया, आज़ाद जीया, आज़ाद होकर मृत्यु को पाया. उसने हमारी आधुनिक सभ्यता को लात मारकर साबित कर दिया हम 10,000 सालों से गलत रास्ते पर हैं.
— क्रान्ति कुमार
"मेरे ज़हन में अक्सर ये ख्याल आता है की परवरदिगार की बनायी हुयी इस दुनिया में, जहाँ इतने लोग रहते हैं, मुझे सब पर हुकूमत करने के लिए चुना गया है। इसलिए ये मुझे अपना फ़र्ज़ जान पड़ता है की मैं कुछ ऐसा करूँ जिससे हर इंसान का भला हो। अगर मैं अपना पूरा ख़ज़ाना भी बाँट दूँ या अपनी सारी ज़मीन भी दान कर दूँ तो भी मैं पूरी अवाम का भला नहीं कर पाउँगा। इसलिए मैंने तय किया है की मैं खाने की चीज़ों को सस्ता करवाऊंगा क्यूंकि इसका फायदा हर इंसान तक पहुंचेगा।"
~ सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी
और इस तरह, सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के दौर में 11 ग्राम चांदी के एक सिक्के के एवज़ में 85 किलो गेंहू मिला करता था। खाने की चीज़ों के ऐसे कम दाम उनकी हुकूमत के ख़त्म होने तक क़ायम रहे। बारिश हो या ना हो, फ़सल अच्छी हो या ख़राब हो जाये, खाने की चीज़ों के दाम रत्ती भर भी नहीं बढ़ते थे।
अलाउद्दीन ख़िलजी के दौर के इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी ने इस बारे में लिखा है- "बूढ़े-पुराने और समझदार लोग ऐसी कम कीमतों पर हैरत करते थे और इसे दुनिया के अजूबों में से एक मानते थे।"
सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी के गुज़र जाने के दसियों बरस बाद भी लोग उनके दौर को ये कह कर हसरत से याद करते रहे की मरहूम सुल्तान के वक़्त में रोटी की इतनी क़ीमत नहीं थी और ज़िन्दगी बसर करना इतना मुश्किल नहीं था।
(सोर्स- शेख नसीरुद्दीन चिराग़-ए-देहली की लिखी किताब "ख़ैर-उल-मजालिस")
Caption ✍️
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Rani Durgavati was an exemplary young ruler.
She fought 51 Gallant wars against many Invaders Including the mughals 3 times But never lost a single battle.
Our Women were also hero But our history books never tell you about This.
Genghis Khan's father died when he was in his early teens. He was to be the successor after his father but as he was young, the tribe did not obey him. Temujin's family was left stranded in the steppes.By 1206, Temujin became the leader of a Mongol confederation and was given the title of 'Genghis Khan,' which means 'oceanic' ruler or 'universal' ruler.
In a span of just 25 years, his horsemen conquered a larger area and greater population than the Romans did in four centuries. To the millions of people conquered by his hordes, Genghis Khan was evil incarnate; in Mongolia and Central Asia, however, he was widely revered.
His armies created the largest land empire the world has ever seen—the Mongol Empire. When he was not busy subjugating the nations across Asia, he spent his time with women. He had six wives and around five hundred concubines. Geneticists estimate that sixteen million males (0.5% of the Earth’s male population) are genetically linked to Genghis Khan. This means he fathered hundreds of children during his lifetime.
He died on August 18, 1227, at the age of 65. But there are a plethora of mysteries surrounding the death of Genghis Khan. One story suggests that he died from injuries sustained after falling from his horse. Another story suggests he succumbed to blood loss after being castrated by a Tangut princess. The most widespread one is that he died while putting down a revolt in the Chinese kingdom of Xi Xia empire. As per the request of Genghis Khan, he was buried in an unmarked grave. As Khan wanted his death to be a secret, all those who set their eyes on the funeral processions were slaughtered by his heirs. His final resting place remains unknown.
Mughal Harem & Harka Bai: इस हिंदू बेगम के आगे झुकते थे मुगल मुग़ल हरम की महिलाओं का दरबार और राजकाज में दखल नहीं होता था, पर हरखा बाई अपवाद थीं
8 अगस्त 1857 को पटना में तीसरा ट्रायल होता है जिसमे औसफ़ हुसैन और छेदी ग्वाला को फांसी पर लटका दिया जाता है, शेख़ नबी बख़्श, रहमत अली व दिलावर को आजीवन कारावास की सज़ा होती है और ख़्वाजा आमिर जान को 14 साल की जेल होती है।
इससे पहले पटना में अंग्रेज़ी हुकूमत ने 7 जुलाई, 1857 को पीर अली के साथ घासिटा, खलीफ़ा, गुलाम अब्बास, नंदू लाल उर्फ सिपाही, जुम्मन, मदुवा, काजिल खान, रमजानी, पीर बख्श, वाहिद अली, गुलाम अली, महमूद अकबर और असरार अली को बीच सड़क पर फांसी पर लटका दिया था।
वहीं 13 जुलाई 1857 को दूसरा ट्रायल होता है जिसमे डोमेन, कल्लू खान और पैग़म्बर बख़्श को फांसी पर लटका दिया जाता है, अशरफ़ अली को 14 साल की जेल होती है।
इन तमाम लोगों पर इलज़ाम था के इन्होने 3 जुलाई 1857 को पटना में पीर अली की क़यादत में बग़ावत का झंडा बुलंद किया था।
(1754 में अली वर्दी खान और 1757 में नवाब सेराजुद्दौला और 1783 से 1799 तक टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के खिलाफ जिस जंग की शुरुआत की थी
उसी को 1803 में शाह अब्दुल अजीज मोहद्दिस देहलवी र. ने आज़ादी की तहरीक को चलाया और उसी तहरीक के साये तले आजादी की जंग 1831 में उनके शागिर्दों ख़ास तौर पर सैय्यद अहमद शहीद रायबरेली ने लड़ी उसके बाद 1857 में इसी तहरीक के जरिए आजादी का दूसरा दौर शुरू हुआ जिसमें शुरू से आखिर तक मुसलमानों ने कायदाना किरदार अदा करने के साथ साथ देश वासियों को भी इस जंगे आजादी में अपने साथ शामिल रखा, और इस तरह 1754 में जिस तहरीक की शुरुआत हुई थी बिला आखिर उसी के नतीजे 1947 में ये मुल्क आजाद हुआ,)
(1754 से 1947 तक कुर्बानी की एक मुसलसल दास्तान है जिसे हमारे बुज़ुर्गों ने अपने लहू से रक़म किया है.)
#बिहार
ब्रिटिश राज की शुरुआत से ही भारतीयों ने इसका विरोध किया था. 1757 में प्लासी में शाही सेनाओं की हार और 1764 में बक्सर ने विदेशी औपनिवेशिक शक्ति के खिलाफ प्रतिरोध को समाप्त नहीं किया. किसान और आम लोग राज के खिलाफ उठ खड़े हुए.
अक्सर यह माना जाता है, या 'औपनिवेशिक बुद्धिजीवियों' ने हमें यह विश्वास दिलाने में धोखा दिया है कि अंग्रेज राजनीतिक रूप से खंडित भारतीय उपमहाद्वीप में एक राष्ट्र की चेतना के साथ पहुंचे और जहां हिंदू और मुस्लिम हमेशा से संघर्षरत थे.
राज के प्रारंभिक काल के ऐतिहासिक तथ्य इन मान्यताओं के पूर्णतः उलट हैं. प्लासी और बक्सर की लड़ाई के बाद, राज बंगाल के प्रत्यक्ष प्रशासनिक नियंत्रण में था. इस प्रकार, अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के निर्मम शोषण का दौर शुरू हुआ.
अंग्रेजों ने भारतीयों को मौत के घाट उतारते हुए अपने उद्योगों के के लिए भारत को लूटा. 1770 तक, उनकी आर्थिक नीतियों ने मानव इतिहास में सबसे खराब अकालों में से एक को जन्म दिया. बंगाल की कुल आबादी के लगभग एक तिहाई लोगों की मृत्यु हो गई जबकि वॉरेन हेस्टिंग्स ने पिछले वर्षों की तुलना में अधिक राजस्व हासिल करने के लिए राज को बधाई दी थी.
ऐसी परिस्थितियों में, मुसलमानों और हिंदुओं के धार्मिक पुरुषों, फकीरों और संन्यासियों ने दमनकारी शासन को देश से बाहर निकालने के लिए खुद को तैयार किया. आज किसी के लिए यह आश्चर्य की बात हो सकती है लेकिन इन फकीरों और संन्यासियों के नेता एक मुस्लिम सूफी मजनू शाह थे,जो उत्तर प्रदेश में कानपुर के पास मकनपुर के रहने वाले थे.
अब, आज कौन विश्वास करेगा कि हजारों हिंदू संन्यासी, राजपूत और मुस्लिम फकीरों ने बंगाल में अंग्रेजों के खिलाफ हाथ मिलाया था और नेता एक गैर-बंगाली भाषी कानपुर का मुस्लिम था?
राज के फूट डालो और राज करो की नीति को लागू करने से पहले भारत ऐसा दिखता था. हिंदी/उर्दू भाषी क्षेत्र के एक मुसलमान ने अंग्रेजों के खिलाफ बंगाल में हिंदुओं और मुसलमानों की एक सेना का नेतृत्व किया, जिसमें देश के हर हिस्से से योद्धा थे. अंग्रेजों के खिलाफ इस सशस्त्र प्रतिरोध का नेतृत्व भवानी पाठक, देवी चौधरी और मूसा शाह ने किया था, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण नेता जिसका अन्य सभी सम्मान करते थे, वह थे मजनू शाह.
मजनू शाह मकनपुर (यूपी) में एक सूफी दरगाह शाह मदार के मुरीद थे. बक्सर की लड़ाई के बाद वह अपने समर्थकों के साथ बीरभूम पहुंचे. नवाब असदुज्जमां खान की पत्नी लाल बीबी और हमीदुद्दीन, एक पीर (धार्मिक नेता) ने उन्हें अंग्रेजों से लड़ने के लिए भौतिक और आध्यात्मिक समर्थन दिया.
हमीदुद्दीन ने मजनू से कहा, "जाओ और संन्यासियों के साथ मिलो, उनके साथ हथियार उठाओ, फिरिंगियों (अंग्रेजों) से चावल और पैसे छीनो और भूखे लोगों में बांटो."
संन्यासियों और फकीरों ने अपने खजाने और वफादार जमींदारों पर हमला करके ब्रिटिश राज को सच में डरा दिया. कई लड़ाइयों में उन्होंने अंग्रेजों को काफी नुक्सान पहुंचाया. 1766 में एक ब्रिटिश अधिकारी, मर्टल, मोरंग में फकीरों द्वारा छापे के दौरान मारा गया था, 1769 में एक युद्ध के दौरान लेफ्टिनेंट कीथ मारा गया था, 18773 में कैप्टन एडवर्ड्स और सार्जेंट मेजर डगलस मारे गए थे. इनके अलावा कई सिपाहियों और अंग्रेजी वफादारों को भी मार दिया गया था. 1766 से 1800 तक की लड़ाई के दौरान मारे गए.
1787 में अपनी मृत्यु तक मजनू शाह ने अंग्रेजों के बीच आतंक फैलाए रखा. अंग्रेजी सेना ने उसे मारने के लिए अपने सर्वश्रेष्ठ अधिकारियों को तैनात किया था, लेकिन हर बार दुश्मन सेना को काफी नुक्सान पहुंचाने के बाद मजनू युद्ध के मैदान को छोड़ देता था.
लगभग दो दशकों तक बंगाल, बिहार और ओडिशा में अंग्रेज अधिकारियों ने अपने जिलों में मजनू की गतिविधियों पर रिपोर्ट दी. 1770 में, वह लगभग 2,000 समर्थकों के साथ मालदा में एक सूफी दरगाह पहुंचे. उनके आदमी रॉकेट और बंदूकों से लैस थे.
उनके लोगों ने लेफ्टिनेंट फेलथम के साथ लड़ाई की लेकिन उन्हें पीछे हटना पड़ा. वहां से वे राजशाही और फिर दिनाजपुर चले गए. मजनू अपने आदमियों के साथ अंग्रेज़ों के ख़ज़ाने पर धावा बोलते रहे और आगे भी समर्थन जुटाते रहे.
1776 में, मजनू ने फिर से दिनाजपुर पर हमला किया. उनके साथ राजपूत सैनिक भी थे. लेफ्टिनेंट रॉबर्टसन ने पीछे से मजनू और उसके आदमियों पर हमला किया और उन्हें चौंका दिया. रॉबर्टसन ने उल्लेख किया कि वह स्वयं भारतीयों की वीरता से चकित थे. इस अचानक हुए हमले ने फकीरों और संन्यासियों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया.
1783 में, जब मजनू ने मैमनसिंह के जिला मुख्यालय पर हमला किया, तो अंग्रेज और भी चिंतित हो गए. अगले तीन वर्षों में, लेफ्टिनेंट क्रो, लेफ्टिनेंट आइंस्ली और लेफ्टिनेंट ब्रेनन जैसे कई अंग्रेजी अधिकारियों को मजनू को मारने या पकड़ने के लिए तैनात किया गया था, लेकिन सभी असफल रहे. फकीरों और संन्यासियों के छापे नहीं रुक सके.
दिसंबर, 1786 में दिनाजपुर में छापेमारी के दौरान मजनू घोड़े से गिर गए. घायल मजनू को उसके गृहनगर मकनपुर ले जाया गया जहां उन्होंने अंतिम सांस ली. जिस स्थान पर उसे दफ़नाया गया, उस स्थान पर एक तीर्थ बनाया गया था.
मजनू शाह की कहानी बताती है कि भारत में हिंदू-मुस्लिम या हिंदी-बंगाली का विभाजन कितना नया है।
(1754 से 1947 तक कुर्बानी की एक मुसलसल दास्तान है जिसे हमारे बुज़ुर्गों ने अपने लहू से रक़म किया है.)
5 जनवरी, 1946 को हिंदुस्तान टाइम्स ने अपने पहले पन्ने पर INA के कैप्टन शाह नवाज, कैप्टन पीके सहगल और कैप्टन जीएस ढिल्लों की इस तस्वीर को प्रकाशित किया था। इन सभी का देश को आज़ाद करवाने में एक बड़ा योगदान था। लेकिन बहुत कम इतिहास की किताबों में उनके नामों और स्वतंत्रता के लिए युद्ध में किए गए कार्यों के बारे में लिखा है। कैप्टन शाह नवाज का सुपरस्टार शाहरुख खान के साथ भी एक कनेक्शन है। कई ख़बरों के अनुसार शाह नवाज एक्टर शाहरुख खान की मां लतीफ फातिमा के लिए पिता के समान थे। 1940 के दशक के अंत में, खान की मां फातिमा और उनका परिवार दिल्ली में एक दुर्घटना में शामिल था। इसी इलाके में मौजूद शाह नवाज उन्हें अस्पताल ले गए।
उसके बाद लंबे समय तक शाह नवाज, फातिमा के परिवार के संपर्क में रहे। यहां तक कि उन्हें अपनाया भी। ख़बरों के अनुसार फातिमा की मीर ताज मोहम्मद खान के साथ शादी भी शाह नवाज के बंगले में हुई थी।
इतिहासकार Trevor Royle अपनी किताब The Last Days of the Raj में लिखते हैं राष्ट्रध्वज का आखिरी प्रारूप जिसमे अशोक चक्र बीच में और ऊपर केसरिय बीच में सफेद और नीचे हरा रंग है वह बदरुद्दीन और पत्नी सुरैया तैयब जी ने तैयार किया था,यही तिरंगा आजादी के पहली शाम को जवाहर लाल नेहरू की कार पर लहरा रहा था।
बदरुद्दीन फैज़ तैयब जी (1907-1995) Indian Civil Service के सीनियर ऑफीसर थे, 1962 से 1965 अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के Vice Chancellor भी रहे 1948 में डिप्लोमेट रहते हुए उन्होने ब्रुसेल्स में भारतीय दूतावास की शुरूआत की बदरुद्दीन तैयब जी टोक्यो, तेहरान और जकार्ता में भी भारत के राजदूत नियुक्त हुए।
22 जुलाई 1947 के दिन इनके द्वारा तैयार किये गए ध्वज के प्रारूप को Constitution Assembly द्वारा राष्ट्रधव्ज के रूप में मान्याता दी गई तब से लेकर आज तक हमारा तिरंगा शान से लहरा रहा है।
भारत के राष्ट्रधव्ज रूप देने वाले बदरुद्दीन-सुरैया तैयब जी को सलाम...
Shoaib Gazi
अपने साहस और बहादुरी से अंग्रेजों के हौंसले पस्त करने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के विश्वास पात्रों में से एक बांदा स्टेट के नवाब अली बहादुर (द्वितीय) भी थे। उनका और लक्ष्मीबाई का रिश्ता भाई-बहन का था। वे लक्ष्मीबाई के मुंहबोले भाई थे। अंग्रेजों के साथ हुई आखरी लड़ाई में उनका ये मुस्लिम भाई उनके साथ ही था और इतना ही नहीं उनका अंतिम संस्कार भी इसी भाई ने किया था !
अंग्रेजों से लड़ाई के दौरान ग्वालियर के महाराजा सिंधिया, झांसी की रानी के खिलाफ थे, जबकि तात्या टोपे और बांदा के नवाब उनके साथ थे।
बांदा स्टेट के नवाब अली बहादुर (द्वितीय), बाजीराव पेशवा और मस्तानी के वंशज थे। उनके परदादा कृष्णाजी राव पंवार बाजीराव पेशवा के पुत्र थे।
– झांसी की रानी तात्या टोपे और नवाब अली बहादुर पर बहुत भरोसा करती थीं। नवाब अली बहादुर के वंशज इंदौर निवासी जुबेर बहादुर जोश के मुताबिक़ महारानी लक्ष्मीबाई और नवाब अली बहादुर का रिश्ता भाई बहन का था वे उन्हें राखी बांधती थीं।
अंग्रेजों से हुई आखरी लड़ाई में भी वे महारानी के साथ थे। शहादत के बाद उन्होंने ही महारानी का अंतिम संस्कार किया था।
– इस लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने उन्हें कैद कर महू भेज दिया था। बाद में उन्हें इंदौर में नजरबंद रखा गया।
इसके बाद महाराजा बनारस के दबाव में अंग्रेजों ने उन्हें बनारस भेज दिया था, जहां उनका देहांत हो गया।
– जोश के अनुसार महारानी
लक्ष्मीबाई और नवाब बहादुर के भाई-बहन के संबंध की परंपरा आज भी झांसी के कई हिन्दू-मुस्लिम परिवार निभा रहे हैं!
वहां कई हिन्दू बहनें मुस्लिम भाइयों को आज भी राखी बांधती हैं।
लक्ष्मीबाई का जन्म मोरोपन्त तांबे और भागीरथीबाई के घर वाराणसी जिले के भदैनी में हुआ था। बचपन में उन्हें मनु कहा जाता था। मोरोपन्त मराठा बाजीराव के दरबार में पदस्थ थे। मनु का विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ था। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। अपने पुत्र की मृत्यु के बाद उन्होंने दामोदर राव को गोद लिया था। कुछ समय बाद ही राजा गंगाधर राव की भी मृत्यु हो गई थी। झांसी को कमजोर होता देख पड़ोसी राज्यों ने आक्रमण कर दिया, लेकिन वे रानी के सामने टिक नहीं पाए। बाद में ब्रिटिश सेना का मुकाबला करते हुए वे शहीद हुई थीं !
History
इतिहासकार Trevor Royle अपनी किताब The Last Days of the Raj में लिखते हैं राष्ट्रध्वज का आखिरी प्रारूप जिसमे अशोक चक्र बीच में और ऊपर केसरिय बीच में सफेद और नीचे हरा रंग है वह बदरुद्दीन और पत्नी सुरैया तैयब जी ने तैयार किया था,यही तिरंगा आजादी के पहली शाम को जवाहर लाल नेहरू की कार पर लहरा रहा था।
बदरुद्दीन फैज़ तैयब जी (1907-1995) Indian Civil Service के सीनियर ऑफीसर थे, 1962 से 1965 अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के Vice Chancellor भी रहे 1948 में डिप्लोमेट रहते हुए उन्होने ब्रुसेल्स में भारतीय दूतावास की शुरूआत की बदरुद्दीन तैयब जी टोक्यो, तेहरान और जकार्ता में भी भारत के राजदूत नियुक्त हुए।
22 जुलाई 1947 के दिन इनके द्वारा तैयार किये गए ध्वज के प्रारूप को Constitution Assembly द्वारा राष्ट्रधव्ज के रूप में मान्याता दी गई तब से लेकर आज तक हमारा तिरंगा शान से लहरा रहा है।
भारत के राष्ट्रधव्ज रूप देने वाले बदरुद्दीन-सुरैया तैयब जी को सलाम...
- Shoib Ghazi
Nand kumar trial
भारत की पहली फांसी किस मामले में हुई थी? महाराजा नंदकुमार को वारेन हेस्टिंग्स ने एक झूठे मुक़दमे में फांसी पर चढ़ा दिया था.
ANGLO-MYSORE WARS
FIRST ANGLO-MYSORE WAR (1767-1769)
• The English were confident of their military strength after their success in Bengal. They concluded a treaty with the Nizam of Hyderabad (1766) persuading him to give them the Northern Circars (region) in lieu of which they said they would protect the Nizam from Haidar Ali. Haidar already had territorial disputes with the Nawab of Arcot and differences with the Marathas.
• The Nizam, the Marathas, and the English allied together against Haidar Ali. Haidar Ali with his diplomatic skill turned the Nizam into an ally and paid the Marathas to turn them neutral.
• The war concluded with the Treaty of Madras which provided for the exchange of prisoners and mutual restitution of conquests. Haidar Ali was promised the help of the English in case he was attacked by any other power.
Second Anglo-Mysore War (1780-1784)
• Haidar Ali accused the English of breach of faith and non-observance of the Treaty of Madras when in 1771 he was attacked by the Marathas, and the English failed to come to his aid.
• Haidar forged an anti-English alliance with the Marathas and the Nizam but the English detached both the Marathas and the Nizam from Haidar’s side.
• Haidar faced the English boldly only to suffer a defeat at Porto Novo in November 1781 but he regrouped his forces and defeated the English and captured their commander.
• The war was carried on by Tipu Sultan after the death of Haidar in 1782.
• Fed up with an inconclusive war, both sides opted for peace, negotiating the Treaty of Mangalore (March, 1784) under which each party gave back the territories it had taken from the other.
Third Anglo-Mysore War (1790-1792)
• In April 1790, Tipu declared war against Travancore for the restoration of his rights and the English, siding with Travancore, attacked Tipu.
• With support from Nizam and Marathas, Tipu was defeated. Under the Treaty of Seringapatam, nearly half of the Mysore’s territory was taken over by the victors. Besides, war damage of three crore rupees was also taken from Tipu.
Fourth Anglo-Mysore War (1799)
• Lord Wellesley, an imperialist to the core was concerned about Tipu’s growing friendship with the French and aimed at annihilating Tipu’s independent existence or force him to submission through the system of Subsidiary Alliance.
• The war began on April 17, 1799 and ended on May 4, 1799 with the fall of Seringapatam. The English was again helped by the Marathas and the Nizam.
• The new state of Mysore was handed over to the old Hindu dynasty (Wodeyars) under a minor ruler Krishnaraja III, who accepted the subsidiary alliance.
नासा में मेरी यात्रा के समय मैं वॉलॉप्स फ्लाइट फैसिलिटी में गया यहां मैंने रिसेप्शन लॉबी में एक युद्ध के दृश्य को दर्शाते हुए एक पेंटिंग को देखा और पेंटिंग ने मेरी आंखो को पकड़ लिया क्योंकि रॉकेट को लॉन्च करने वाले पक्ष के लोग गोरे (अंग्रेज ) नहीं थे, बल्कि दक्षिण एशिया में पाए जाने वाले नस्लीय विशेषताओं के साथ गहरे रंग के थे। यह टीपू सुल्तान की सेना थी जो अंग्रेजों से लड़ रही थी। यही टीपू सुल्तान के अपने देश में भुला दिए गए लेकिन ग्रह के दूसरी ओर उनको यहाँ याद रख्खा गया है
-डॉ.ए पी जे अब्दुल कलाम लिखते है अपनी किताब Wings of fire में
सन 1757 है प्लासी का मैदान जंग के लिए तैयार है एक तरफ नवाब सिराजुद्दौला ग़ाज़ी की 33 हज़ार फौज है दूसरी तरफ ब्रिटिश की 3 हज़ार फौज है। नवाब सिराजुद्दौला ग़ाज़ी का फूफा "मीर जाफर राफ्ज़ी" नवाब की फौज का सिपहसालार है जंग का बिगुल बजता है दोनों फौजें एक दूसरे से भिड़ जाती हैं। आखिर इतनी जुर्रत ब्रिटिश फौज में कहां से आ जाती है कि नवाब की 33 हज़ार फौज के सामने 3 हज़ार की फौज लेकर मैदाने जंग में उतर सके?
जवाब है.. नवाब की फौज का सिपहसालार मीर जाफर राफ्ज़ी पहले ही ब्रिटिश कमांडर के हाथों बिक चुका होता है ऐन मैदाने जंग में 30 हज़ार की फौज को लेकर ब्रिटिश फौज से मिल जाता है अब नवाब के पास 3 हज़ार वफादार फौजियों का एक दस्ता रह जाता है और ब्रिटिश फौज की तादाद 33 हज़ार हो जाती है।
फिर वही होता है जो होना ही था, नवाब और उनके वफादार सिपाही जान पर खेल कर लड़ते हैं एक एक सिपाही गर्दन कटवा देता है और नवाब सिराजुद्दौला ग़ाज़ी अपने वफादार दस्ते के साथ ही शहीद होकर मालिके हक़ीक़ी से जा मिलते हैं.. इन्नालिल्लाहि व इन्ना इलैयही राजिऊन
इसी के साथ ही हिन्दुस्तान में दाखिल होने के लिए अंग्रेज़ों को रास्ता मिलता है धीरे धीरे तमाम हिन्दुस्तान ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के कब्ज़े में आ जाता है।
यह कोई फिल्म की स्टोरी नहीं राफ्ज़ी बैक्टीरिया की गद्दारी का वो बाब है जिसे हमने सकूते बग़दाद से लेकर मुर्शिदाबाद होते हुए मैसूर तक भुगता है और हम हिन्दुस्तानी इसे कभी नहीं भूल सकते। राफ्ज़ी बैक्टीरिया की मुसलमानों से गद्दारी इनके DNA में शुरू से रही है क्योंकि बिल आखिर नुत्फा तो इब्ने सबा यहूदी का ही था।
जोहार....
Aurangzeb's policy towards Muharram practices :
Emperor Aurangzeb did not attempt to ban the gatherings of Muharram altogether, nor was his restrictions an indication of an anti Shia outlook. Rather, the Emperor attempted to curb the unethical and often violent rivalries associated with religious festivals which were often a hazardous affair in medieval India attracting the rift-raft of society as well as banditry.
Riots, banditry, and destruction of property during Muharram became so frequent that Aurangzeb ultimately banned processions.
For example, Jean De Thevenot, a French traveller to India reported that Muharram festivals were so wild in Golkonda in 1667 with both Hindus and Muslims partaking, that violence was standard.
In 1669 at Burhanpur, Muharram left 50 dead and 100 wounded. During Muharram the Tabut processions also provoked rivalries and fighting between the group of mourners.
These incidents would also be noted during the colonial period. Muharram processions continued to result in violence which was a constant issue for the colonialists. However, during the colonial period the violence was rather aggravated by sectarianism, rather then rivalries participating during the Muharram processions. In fact in Uttar Pradesh, Muharram processions were banned in the year 1909 due to outbreaks of sectarian trouble. These violent outbreaks were frequently recorded in police records as some of the worst civil violence of the decade north of India.
A member of the British Raj felt that such violence would benefit the colonialists in order to justify their rule and ambitions :
"Many of my countrymen, full of virtuous indignation at the outrages which often occur during the processions of the Muharram, particularly when these happen to take place at the same time with some religious processions of the Hindoos, are very anxious that our government should interpose its authority to put down both. But these processions and occasional outrages are really sources of great strength to us; they show at once the necessity for the interposition of an impartial tribunal and a disposition on the part of the rulers to interpose impartiality".
Despite Aurangzeb's restrictions on the Muharram processions, Shia Muslims continued to be enrolled into the Timurid-Mughal nobility, occupying high posts. An often cited episode informs us that when a Sunni noble from Bukhara questioned Aurangzeb's policy in providing Shia Muslims positions of esteem within the state apparatus, the emperor responded in the following manner :
"What has religion got to do with earthly affairs? To you is your religion, for me is my religion".
Further it is to be noted that all the important Shia centres in Delhi were developed during his reign, which indicates that Aurangzeb's policy regarding Muharram was not one of sectarian bigotry, but rather for the interest of the general public.
Note : Aurangzeb also limited festivities on Eid Ul Adha, Eid ul Fitr, as well as Diwali to ensure public security and welfare.
References :
The Making of the Awadh Culture : Madhu Trivedi
Aurangzeb : Audrey Truschke
The Lives and Times of Great Mughals : Abraham Eraly
Shi'a Islam in Colonial India, Religion, Community and Sectarianism : Justin Jones
क्या आपको पता है मैसूर के सुल्तान हैदर अली और उनके बेटे शहीद टीपू सुल्तान की खुद की जल सेना थी और ये पहली सल्तनत थी जिसकी खुद की नेवी फोर्स थी।
1763 में हैदर अली और टीपू सुल्तान ने मालाबार तट पर अपने पहले जंगी बेड़े की स्थापना की थी जिसकी कमान सौंपी गई थी अली राजा कुन्ही को, हिंद महासागर में तैनात ये जंगी बेड़ा उस वक़्त के घातक और आधुनिक हथियारों से लैस था इस के ज़रिये हैदर अली ने कई वो द्वीप जीत लिये जिन तक मुग़्लो की पहुंच नामुमकिन थी क्यों मुग़लो के पास कोई जल सैना नहीं थी।
1763 में ही सुल्तान हैदर अली और बेटे टीपू सुल्तान ने अली राजा के कमांड में लक्षद्वीप और मालदीव पर भी कब्ज़ा कर लिया था इस जीत की खुश खबरी देने नेवी कमांडर अलीराजा मैसुर पहुंचा और सुल्तान के सामने मालदीव के सुल्तान हसन अज़ीज़ उद्दीन
को पेश किया जिनको की अली राजा ने गिरप्तारी के बाद अंधा कर दिया था कमांडर अली राजा के इस वहशीआना अमल पर हैदर अली आग बबूला हो गए और कमांडर अली राजा को अपने ओहदे से तुरंत सस्पेंड कर उनसे नेवी की कमांडरी वापस ली और मालदीव के सुल्तान हसन अज़ीज उद्दीन को उनका राज पाट वापस देकर बाइज़्ज़त वापस भेज दिया
1786 में, टीपू सुल्तान ने अपने वालिद के नक़्शे क़दम पर चलते हुए, 72 तोपों के 20 युद्धपोत और 62 तोपों के 20 फ़्रिगेट्स से मिलकर एक और नौसेना बनाने का फैसला किया। वर्ष 1790 में, उन्होंने कमालुद्दीन को अपना मीर बहार नियुक्त किया और जमालबाद और मजीदाबाद में बड़े पैमाने पर Dockyard स्थापित किये। टीपू सुल्तान के बोर्ड ऑफ एडमिरलिटी में मीर याम की सेवा में 11 कमांडर शामिल थे। एक मीर याम ने 30 एडमिरल्स को कमांड किया और उनमें से प्रत्येक के पास दो जहाज थे। जहाज़ बनते वक़्त टीपू सुल्तान ने ये हुक्म दिया की जहाज़ो के फ्लोर तांबे का हो जिससे जहाज़ की उम्र ज़्यादा होगी टीपू सुल्तान को ये आईडिया फ्रेंच एडमिरल सैफ्रन ने दिया था।
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