Narsingh Jyotish Matth
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समयसूचक AM और PM का उदगम
भारत ही था। पर हमें बचपन से यह रटवाया गया, विश्वास दिलवाया गया कि इन दो शब्दों AM और PM का मतलब होता है :
AM : एंटी मेरिडियन (ante meridian)
PM : पोस्ट मेरिडियन (post meridian)
एंटी यानि पहले, लेकिन किसके?
पोस्ट यानि बाद में, लेकिन किसके?
यह कभी साफ नहीं किया गया, क्योंकि यह चुराये गये शब्द का लघुतम रूप था।
अध्ययन करने से ज्ञात हुआ और हमारी प्राचीन संस्कृत भाषा ने इस संशय को अपनी आंधियों में उड़ा दिया और अब, सब कुछ साफ-साफ दृष्टिगत है।
कैसे?
देखिये...
AM = आरोहनम् मार्तण्डस्य Aarohanam Martandasya
PM = पतनम् मार्तण्डस्य Patanam Martandasya
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सूर्य, जो कि हर आकाशीय गणना का मूल है, उसीको गौण कर दिया। अंग्रेजी के ये शब्द संस्कृत के उस 'मतलब' को नहीं इंगित करते जो कि वास्तव में है।
आरोहणम् मार्तण्डस्य Arohanam Martandasaya यानि सूर्य का आरोहण (चढ़ाव)।
पतनम् मार्तण्डस्य Patanam Martandasaya यानि सूर्य का ढलाव।
दिन के बारह बजे के पहले सूर्य चढ़ता रहता है - 'आरोहनम मार्तण्डस्य' (AM)।
बारह के बाद सूर्य का अवसान/ ढलाव होता है - 'पतनम मार्तण्डस्य' (PM)।
पश्चिम के प्रभाव में रमे हुए और पश्चिमी शिक्षा पाए कुछ लोगों को भ्रम हुआ कि समस्त वैज्ञानिकता पश्चिम जगत की देन है।
सदियों से लोगों ने माया को ठग्नि कहा असत्य कहा नर्क का द्वार कहा मगर ये बात भूल गये कि जिस मुख से ये अनर्गल बातें कही वो मुख भी तो माया का ही है। माया एक ओर तांडव नृत्य है शिव की छाती पर चड कर तो वहीं दूसरी ओर माया नृत्य है शिव से मिलन कर संसार सर्जन का। माया भगति है माया की कोख में नौ महिना उल्टा लटके तब जाकर संसार देखा। माया वह माँ है जो अपने बच्चे को मारती है जब वो गलती करता है और फिर फिर मौके देती है मनुष्य तन देकर सत्य मार्ग पर चलने के। माया की भाषा हिंदी इंग्लिश फारसी या संस्कृत नहीं है माया की भाषा है मौन की भाषा। अस्तित्व की भाषा। यही माँ तुमको तुम्हारे परम पिता की खबर दे सकती है जिसकी छाती पर ये निरंतर नृत्य कर रही है। यह नृत्य प्रतिक है कि शिव का आधार पाकर शक्ति अपने अनंत रूपों में प्रकट हो रही है। माया ठग्नि नहीं माया माँ है और कभी कोई इससे विद्रोह करके इसको ठग्नि कह कर परम पिता तक नहीं पहुँचा ना पहुँच सकता है।
जय श्री गुरु महाराज जी की!!!🙏🙏🙏
कालिदास बोले :- माते पानी पिला दीजिए बड़ा पुण्य होगा.
स्त्री बोली :- बेटा मैं तुम्हें जानती नहीं. अपना परिचय दो।
मैं अवश्य पानी पिला दूंगी।
कालिदास ने कहा :- मैं पथिक हूँ, कृपया पानी पिला दें।
स्त्री बोली :- तुम पथिक कैसे हो सकते हो, पथिक तो केवल दो ही हैं सूर्य व चन्द्रमा, जो कभी रुकते नहीं हमेशा चलते रहते। तुम इनमें से कौन हो सत्य बताओ।
कालिदास ने कहा :- मैं मेहमान हूँ, कृपया पानी पिला दें।
स्त्री बोली :- तुम मेहमान कैसे हो सकते हो ? संसार में दो ही मेहमान हैं।
पहला धन और दूसरा यौवन। इन्हें जाने में समय नहीं लगता। सत्य बताओ कौन हो तुम ?
(अब तक के सारे तर्क से पराजित हताश तो हो ही चुके थे)
कालिदास बोले :- मैं सहनशील हूं। अब आप पानी पिला दें।
स्त्री ने कहा :- नहीं, सहनशील तो दो ही हैं। पहली, धरती जो पापी-पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है। उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है, दूसरे पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी मीठे फल देते हैं। तुम सहनशील नहीं। सच बताओ तुम कौन हो ?
(कालिदास लगभग मूर्च्छा की स्थिति में आ गए और तर्क-वितर्क से झल्लाकर बोले)
कालिदास बोले :- मैं हठी हूँ ।
स्त्री बोली :- फिर असत्य. हठी तो दो ही हैं- पहला नख और दूसरे केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं। सत्य कहें ब्राह्मण कौन हैं आप ?
(पूरी तरह अपमानित और पराजित हो चुके थे)
कालिदास ने कहा :- फिर तो मैं मूर्ख ही हूँ ।
स्त्री ने कहा :- नहीं तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो।
मूर्ख दो ही हैं। पहला राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है, और दूसरा दरबारी पंडित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए ग़लत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है।
(कुछ बोल न सकने की स्थिति में कालिदास वृद्धा के पैर पर गिर पड़े और पानी की याचना में गिड़गिड़ाने लगे)
वृद्धा ने कहा :- उठो वत्स ! (आवाज़ सुनकर कालिदास ने ऊपर देखा तो साक्षात माता सरस्वती वहां खड़ी थी, कालिदास पुनः नतमस्तक हो गए)
माता ने कहा :- शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार । तूने शिक्षा के बल पर प्राप्त मान और प्रतिष्ठा को ही अपनी उपलब्धि मान लिया और अहंकार कर बैठे इसलिए मुझे तुम्हारे चक्षु खोलने के लिए ये स्वांग करना पड़ा।
कालिदास को अपनी गलती समझ में आ गई और भरपेट पानी पीकर वे आगे चल पड़े।
शिक्षा :-
विद्वत्ता पर कभी घमण्ड न करें, यही घमण्ड विद्वत्ता को नष्ट कर देता है।
दो चीजों को कभी व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए.....
अन्न के कण को
"और"
आनंद के क्षण को...
(साभार)🚩🙏🇮🇳
कारक मारक प्रकरण में आज चर्चा करेगें किस लग्न के जातक के लिए कौन सा ग्रह कारक है और कौन सा ग्रह मारक है
।राशिचक्र का प्रथम राशि मेष है।यह एक अग्नितत्व राशि,चरसंज्ञक,क्रूर,पूर्वदिशा की द्योतक राशि है ।यदि कुण्डली मेष लग्न की हो तो जातक के प्रथम भाव में 1संख्या लिखा होगा।इस लग्न के जातक सामान्यतः साहसी,आत्मबल से युक्त,क्रोधी मिजाज एवं नेतृत्व क्षमता से युक्त होते है।इस राशि के स्वामी मंगल होते है।मेष लग्न में कौन से ग्रह कैसे होते है यह पूरा विवरण नीचे दिया जा रहा है।
👉मंगलः-मेष लग्न में लग्नेश मंगल होता अतः यह कारक ग्रह होता है।हालांकि मंगल अष्टमभाव का भी स्वामी होता है जो एक अशुभ भाव होता है किन्तु मंगल जबतक त्रिकभावों(6,8,12भावों)में प्लेस्ड न हो तबतक वह अशुभ नही होता।यदि मंगल लग्न में,या दशम भाव में हो तो रूचक नामक पंचम
हापुरूष योग होता है।ऐसा जातक राजा या राजा के तुल्य जीवन यापन करता है।उसके आगे पीछे अनुचर सदा आज्ञापालन के लिए तत्पर रहते है।आधुनिक युग में आई.ए.एस,पी.सी.एस जैसे प्रशासनिक पद या पुलिस और सेना में उच्च पद भी एसा मंगल दिला सकता है।
👉शुक्र:-मेष लग्न में शुक्र द्वितियभाव व सप्तमभाव के स्वामी होता है।दोनो ही भाव मारक भाव होते है अतः इस लग्न के लिए शुक्र कमजोर स्वास्थ्य,आयुक्षय,रोग ,कष्ट देता ही मिलता है।हालांकि शुक्र यदि अपनी राशि वृष में रहे तो जातक को अत्यन्त धनवान अवश्य बनाता है किन्तु गम्भीर स्वास्थ्य समस्यायें भी उत्पन्न करता है।इसी प्रकार सप्तमभाव में शुक्र सुन्दर पत्नी देता है।शुक्र की दशा महादशा मेषलग्न के लिए प्रबल मारक होने के कारण जीवन के लिए गम्भीर खतरा उत्पन्न करता है। चाहे वह जिस भाव में बैठे उसी भाव के सम्बन्धित क्षेत्रों में समस्यायें उत्पन्न करता है।नीचभंग या विपरीत राजयोग की स्थिति में शुक्र फल अवश्य देता है।
👉बुधः-मेष लग्न में बुध तृतीय तथा षष्ठ भाव का स्वामी होता है।दोनो ही भाव पापप्रभाव देते है।साथ ही बुध मंगल का प्रबल शत्रु ग्रह होता है।इसलिए बुध मेष लग्न के लिए प्रबल मारक ग्रह होता है।ऐसा बुध जिस भी भाव में बैठता है उसी भाव से सम्बन्धित समस्यायें उत्पन्न करता है ।यदि बुध त्रिक भाव में हो तो प्रबल मारकत्व दिखाता है।
👉चन्द्रमा:-चन्द्रमा मेष लग्न में चतुर्थ भाव का स्वामी होता है।चन्द्रमा मंगल का मित्र ग्रह है अतः चन्द्रमा मेष लग्न के लिए कारक ग्र होता है यदि पूर्णिमा के पास का चन्द्रमा शुभग्रहों से युत दृष्ट हो तो अत्यन्त शुभफल प्रदान करता है।
👉सूर्यः-मेष लग्न मे सूर्य पंचमभाव का स्वामी ग्रह होता है।यह लग्नेश मंगल का परम मित्र होता है।अतएव सूर्यमेष लग्न के जातकों के लिए योगकारक ग्रह होता है।सूर्य यदि उच्चराशि में,स्वगृही हो तो अपने दशान्तर्दशा में अत्यन्त शुभ फल प्रदान करता है।मेष लग्न में सूर्य यदि लग्न में बैठा हो तो जातक को उच्च प्रशासनिक पद दिलाता है।जातक जीवन में पूर्ण यश मान दिलाता है।यदि इसी लग्न में सूर्य नीचराशि में सप्तम भाव में हो तो मैरिज,पत्नी पार्टनरशिप,सन्तान से सम्बन्धित प्राब्लम देता है।अतः योगकारक ग्रहों की कुण्डली में स्थिति शुभ हो तभी शुभफल प्राप्त होता है।
👉गुरूः-मेष लग्न में गुरू भाग्येश होने के कारण अत्यन्त योगकारक ग्रह होता है।यदि कुण्डली में यह कहीं शुभ भाव में बलवान स्थिति में हो तो अत्यन्त शुभ होता है।चतुर्थ भाव में कर्क राशि का गुरू हंस नामक महापुरूष योग का निर्माण करता है।ऐसा गुरू जातक को प्रसिद्धि के शिखर तक ले जाता है।वह जातक जीवन में पूर्ण सुखों का भोग करता है।किन्तु यदि गुरू नीच शत्रु मे होकर त्रिक भावों मे हो तो पुरूष भाग्यहीन होता है।जीवन समस्याओं से घिरा होता है।
👉शनिः-मेष लग्न में शनि दशम व एकादश भाव का स्वामी होता है।हालाकि पापकेन्द्रेश होने के कारण शनि शुभ है किन्तु एकादश भाव का स्वामी होने के कारण पापी ग्रह भी माना जाता है।प्रायः दो अच्छेभावों का स्वामी होने के कारण शनि शुभ ग्रह माना गया है किन्तु लग्नेश मंगल के शत्रुग्रह होने के कारण शुभफल देने मे उदासीन होता है।अतः मेषलग्न में शनि को समग्रह माना जाता है।यदि शनि उच्चराशि में हो तो शुभफल प्रदान करता है किन्तु यदि यही शनि अशुभ भावों में पापग्रहों की युति दृष्टि में हो तो अत्यन्त अशुभ प्रभाव दिखलाता है।
कोई भी ग्रह जो किसी लग्न में योगकारक हो वह अपना शुभ फल अपनी दशान्तर्दशा में ही देता है।कुण्डली में योगकारक ग्रह यदि अशुभ भावों मे बैठ जाय तो वह मारक बन जाता है और अशुभ प्रभाव देता है।कुण्डली में योगकारक ग्रह अस्त हो जाय तो भी वह शुभफल नही दे पाता।किसी भी ग्रह के शुभ या अशुभ फल का पेडिक्शन करने से पूर्व उसकी अंशतुल्य क्षमता तथा षडबल अवश्य देखना
किसी भी समस्या के समाधान के लिये समय लेकर सम्पर्क करे.
WhatsApp : 9355630101
मनुष्य की #ज्ञानेन्द्रियां दो प्रकार से काम करतीं हैं, एक #अंर्तमुखी होकर दूसरा #बहिर्मुखी होकर परंतु साधारण अवस्था में मनुष्य को यह ज्ञान नहीं हो पाता कि उसकी ज्ञानेन्द्रियां अंर्तमुखी होकर भी काम करतीं हैं। ज्ञानेन्द्रियां जब अंर्तमुखी हो जातीं हैं तब ये #सूक्ष्म जगत में प्रवेश करतीं हैं साधारण अवस्था में बहिर्मुखी रहने पर इनकी #आसक्ति आजीवन स्थूल जगत में ही बनी रहती है। ईश्वर ने इस प्रकार की व्यवस्था सिर्फ मनुष्य के शरीर में ही की है अन्य किसी प्राणी में नहीं अतः मनुष्य योनि में ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है अन्य किसी योनि में नहीं। ज्ञानेन्द्रियों को अंतरमुखी बनाने के लिए साधना व अभ्यास की आवश्यकता होती है। साधना दो प्रकार की होती है।
1 निष्काम साधना 2 सकाम साधना।
निष्काम साधना का उद्देश्य सिर्फ ईश्वर से #साक्षात्कार एवं मोक्ष प्राप्ति होता है इसमें किसी प्रकार के #भौतिक #सुख संपत्ति की चाह या #फल की इच्छा नहीं होती, इसमें किसी प्रकार के फल परिणाम की इच्छा रहने पर साधना में सफलता नहीं मिलती। निष्काम साधना से ही ज्ञानेन्द्रियों को अंर्तमुखी बना सकते हैं अन्य किसी प्रकार से नहीं, साधना का माध्यम ध्यान होता है चित्त की वृत्तियों को सभी विषयों से हटाकर एक लक्ष्य पर केन्द्रित करने को ध्यान कहते हैं।
ध्यान के द्वारा हमारा शरीर सूक्ष्म उर्जा प्राप्त करता है इससे हमारे शरीर में स्थित सातों चक्र जाग्रत होने लगते हैं, साधारण अवस्था में ये चक्र #सुप्तावस्था में रहते हैं परंतु निरंतर ध्यान के अभ्यास से ये जाग्रत होने लगते हैं, इनके जाग्रत होने से ज्ञानेन्द्रियां सूक्ष्म जगत में प्रवेश करतीं हैं जिससे मनुष्य की स्थूल जगत में आसक्ति कम होने लगती है एवं सूक्ष्म जगत में बढने लगती है तथा #यथार्थ ज्ञान प्राप्त होने लगता है। साधना से सर्वप्रथम आत्मबल, आत्मबल से ज्ञान, ज्ञान से वैराग्य, वैराग्य से समाधि एवं समाधि से केवल्य अवस्था की प्राप्ति होती है केवल्य अवस्था में ही मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है। यहां वैराग्य का मतलब घर द्वार छोडक़र निर्जन स्थान में चले जाना नहीं है, स्थूल जगत में #आसक्ति समाप्त हो जाना ही वास्तविक वैराग्य है इस स्थिति में मनुष्य जो भी कार्य करता है वे ईश्वर को समर्पित #निष्काम भाव से होते हैं अतः इससे किसी प्रकार के कर्मफल नहीं बनते, ध्यान के लम्बे समय तक स्थिर रहने को समाधि कहते हैं, मन में सिर्फ ईश्वर का शेष बचना #केवल्य अवस्था कहलाती है //
जय माँ 👣👣
ऊँ नमःशिवाय🙏🌹🙏
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