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तारीख़ का सही इल्म और सही शऊर नई नस्ल की मुनासिब तरक्क़ी के लिए ज़रूरी हैं
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मौलाना मुहम्मद इलियास कंधालवी رح
゚viral
77 Happy Independence Day 🇮🇳
आज़ादी का ये जश्न मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी के बिना अधूरा है......
ऐसे कई लोग थे जिन्होंने आज़ादी की जंग में हिस्सा लिया लेकिन उन्हें इतिहास के पन्नों में कहीं दफ़न कर दिया गया हैं
मौलवी सैयद अलाउद्दीन हैदर
मौलाना सैयद हसरत मोहानी
मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी
मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद
मौलाना हुसैन अहमद मदनी
मौलाना शौकत अली
मौलाना हबीबुर्रहमान लुधयानवी
मौलाना अब्दुल मजीद दरियाबादी
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान
हकीम अजमल ख़ान
शेर अली अफरीदी
इनायतुल्ला खान माश़रिकी
सैयद अता उल्लाह शाह बुखारी
आज़ादी का जज़्बा रखने वाले ऐसे कई मुस्लिम फ्रीडम फाइटर को हम दिल से सलाम करते है....
🇮🇳
Fateh Makkah .
11 जनवरी 630 ई को मक्का मुकर्रम को अल्लाह के रसूल अलैहिस्सलाम ने फ़तह किया
यह फ़तह बग़ैर खून रेज़ी के अंजाम दी गई थी और इसमें कुछ आम ऐलान भी कराये गये थे जैसे की आज चार इंसान को छोड़ कर सब को अमान दिया जाएगा।नाही किसी का माल ज़ब्त किया जाएगा और नाही किसी को मारा जाएगा
Maulana habiburrehman ludhyanvi | kranikari | Biography | Freedom fighter | Indian |
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#क्रांतिकारी
BADSHAHI.
STORY OF HAZRAT ESA (AS)
Hazrat esa ka aasman par uthaya jane wala waqiya
Maulana Abdul Majid Daryabadi رح | Tafseer e Majidi | Quran | 1857 Revolution |
TAJ MAHAL KI DASTAN || HISTORY OF TAJ MAHAL || MUGHAL ARCHITECTURE || H.M.AHMED
INSAANI TARIKH HUAMN HISTORY By H.M.AHMED
https://youtu.be/pr6bKn9r-ig
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INSAANI TARIKH | HUAMN HISTORY
By H.M.AHMED
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DR.A.P.J.ABDUL KALAM.
❤️
Allama Yusuf Al Qardawi
رحمۃاللہ علیہ
Inna lillahi wa inna ilaihi rajioon.
Maulana Syed Abul Ala Maududi Rh Biography timeline 👇
जब एक खटिया के लिए तरस गया था अंतिम मुग़ल बादशाह
कितना है बदनसीब ' ज़फर ' दफ्न के लिए , दो ग़ज़ ज़मीन भी न मिली कू - ए - यार में
ये पंक्तियां अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह द्वितीय द्वारा लिखी एक मशहूर ग़ज़ल की हैं । जिस समय उन्होंने ये पंक्तियां लिखी होंगी , उस समय शायद उन्हें यह एहसास भी नहीं होगा कि भविष्य में ये हक़ीक़त में बदलने वाली हैं । जब 1837 में बहादुरशाह द्वितीय दिल्ली के लाल किले के तख्त़ पर बैठे तो न तो उनके पास हुकूमत करने के लिए कोई इलाका था और न कोई रुतबा । इलाके का आखिरी टुकड़ा तो साठ - सत्तर बरस पहले ही उनके खानदान के कब्जे़ से निकल चुका था । अब तो उनकी सत्ता सिर्फ दिल्ली के लाल किले तक सीमित थी और उनकी गुज़र - बसर अंग्रेजों से मिलने वाली पेंशन से होती थी । उनका तख़ल्लुस था ‘ ज़फ़र ' , जिसका मतलब था विजय , कामयाबी । लेकिन मुग़लों की विजयों और कामयाबियों के किस्से तो डेढ़ सौ साल पीछे छूट गए थे । अब तो बाक़ी बचा था , पराजय और अपमान का गर्दगुबार , जिसमें मुग़लिया वैभव खो गया था । इसके बावजूद उस समय हिंदुस्तान की जनता के दिल में मुग़ल वंश के इस वारिस के प्रति सम्मान का भाव बाक़ी था । इसलिए जब 1857 का महासंग्राम हुआ तो विद्रोहियों ने दिल्ली आकर बहादुरशाह को अपना नेता माना , पर बूढ़े बहादुरशाह में न हौसला था और न वह क़ाबिलियत । जल्दी ही अंग्रेज फ़ौजों ने दिल्ली से विद्रोहियों को भगा दिया और मज़बूर बहादुरशाह को लाल किले से भागकर दिल्ली में ही हुमायूं के मकबरे में शरण लेनी पड़ी । अंग्रेजों की घुड़सवार सेना का कमांडर हडसन , बहादुरशाह को पकड़ने और राजपरिवार को नेस्तनाबूद करने के लिए बेताब था
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अलाउद्दीन ख़िलजी की मंडी बाज़ार व्यवस्था
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तेरहवीं सदी की शुरुआत में अलाउद्दीन ख़िलजी के शासनकाल के दौरान चंगेज खां और हलाकू खां के वंशजों अमीर बेग , तरगी , तरतक , कुबक और इकबालमन्दा ने एक के बाद एक दिल्ली सल्तनत पर कई आक्रमण किए माना जाता है कि उस समय अगर दिल्ली के तख्त पर अलाउद्दीन ख़िलजी ना होता तो हिन्दुस्तान का वही हश्र होता जो मध्य एशिया में अन्य कई देशों का हुआ यानी भारी विनाश
मंडी बाज़ार व्यवस्था
अलाउद्दीन के जीवन काल में बहुत सारी ऐसी कहानियां और इतिहास है जिसे थोड़ - मरोड़ के पेश किया जाता है पर कुछ ऐसी अलाउद्दीन की नीतियां थी जिसे इतिहासकार ज़्यादातर सही ही लिखते है जैसे के अलाउद्दीन की मंडी बाज़ार व्यवस्था उसने किस तरह आपने शासन काल में अपने सैनिकों के लिए एक नीति आपनाई थी जो आगे चल कर मुनफखोरीयों (भ्रष्टाचार) पर पूर्ण रोक कि वजह बनी थी
मंडी बाज़ार की व्यवस्था
गल्ला मंडी में भाव की स्थिरता अलाउद्दीन की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी जब तक वह जीवित रहा , इन मूल्यों में तनिक भी वृद्धि नहीं हुई कीमतें कम या नीचे कर दी गई थीं । बरनी के मत से सहमत होना कठिन है कि ये उसके पूर्ववर्ती और परवर्ती शासकों के काल में विद्यमान कीमतों की तुलना में सबसे नीचे थीं । बल्बन के समय गेहूँ अधिक सस्ता था और फिरोज़शाह तुग़लुक के समय भी मूल्य अलाउद्दीन के समय के मूल्य - स्तर पर आ गए थे इब्राहीम लोदी के समय कीमतें लगभग उतनी ही थीं । अलाउद्दीन के समय में कीमतों का सस्तापन उतने महत्व की बात नहीं है जितना कि बाजार में निश्चित कीमतों की स्थिरता है । इसे उसके राज्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि कहा जा सकता है । कीमतें निश्चित करके सुल्तान ने अनाज का बाजार और सरकारी अनाज - विक्रयालय स्थापित किए । यहाँ से जनता व दुकानदार अन्न आदि खरीद सकते थे । अनाज - बाजार में दो प्रकार के व्यापारी थे । प्रथम वे जिनकी दिल्ली में स्थायी दुकाने थीं । दूसरे काफिले वाले व्यापारी थे जो नगर में अनाज लाते थे और उसे दुकानदारों तथा जनता को बेचते थे । अलाउद्दीन के नवीन आदेशों के परिणामस्वरूप व्यापारियों को अधिक मुनाफाखोरी का अवसर नहीं मिलता था उत्पादन मूल्य उत्पादकों की लागत से अधिक मुनाफाखोरी का अवसर नहीं मिलता था ।
शहना व्यवस्था
लोगो को बाजार के शहना अफ़सर के पास अपने नाम दर्ज कराने पड़ते थे । अनाज - व्यापार के शहना मलिक क़बूल ने घुमक्कड़ व्यापारियों (कारवाँ या बंजारा ) के नेताओं को पकड़ लिया और उन्हें दिल्ली के बाजार में नियमित रूप से अनाज लाकर निश्चित दरों पर बेचने के लिए राजी किया। उन्हें शहना के प्रत्यक्ष नियंत्रण में यमुना नदी के तट के ग्रामों में अपने परिवार सहित बसने का आदेश दिया गया । सामान्य समय में इन व्यापारियों ने बाजार में पूरा अनाज लाने के करारनामों पर सामूहिक और व्यक्तिगत रूप से हस्ताक्षर किए । इस काल में सरकारी गोदाम छूने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी क्योंकि बाजार में अनाज मुक्त रूप से उपलब्ध था । अलाउद्दीन ने घुमक्कड़ व्यापारियों के हितों का ध्यान रखते हुए उन्हें आसानी से अनाज उपलब्ध कराने के लिए भी कदम उठाए । दोआब और दिल्ली के आसपास के प्रदेशों के समस्त दंडाधिकारियों तथा राजस्व इकट्ठा करने वाले अधिकारियों (शहनागान और मुतसरिफान ) को आदेश दिया कि वे सुल्तान को इस आशय का लिखित करार दें कि वे कृषकों से उनकी उपज का 50 प्रतिशत भू - राजस्व वसूल करतें हैं। इस प्रकार सारा उपलब्ध अनाज बाजार में आता था और उसे भंडार गृहों में रखा जाता था। सुल्तान ने काला बाज़ारी( मुनाफाखोरी) पर पूर्ण रोक लगा दी।
अन्न - भंडार व्यवस्था
मौसम के आकस्मिक परिवर्तनों का सामना करने के लिए अलाउद्दीन ने शासकीय अन्न - भंडार बनाए । ये पूरी तरह भरे रहते थे । बरनी कहता है कि शायद ही कोई ऐसा मोहल्ला था जहाँ खाद्यान्नों को भरे दो या तीन सरकारी भंडार नहीं थे । इन गोदामों का अनाज केवल प्रातकालीन स्थितियों में निकाला जाता था । वर्षा की कमी या अन्य किसी कारण से यदि नष्ट हो जाए या यातायात के किसी संकट के कारण राजधानी में अनाज न आ पाए तो इन गोदामों से अनाज निकालकर घुमक्कड़ व्यापारियों को अनाज मंडी में बेचने के लिए दिया जाता था । ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं कि अलाउद्दीन ने राशन - व्यवस्था भी लागू की थी । अकाल के समय प्रत्येक घर को आधा मन अनाज प्रतिदिन दिया जाता था । नगर के संपन्न व्यक्तियों को उनकी आवश्यकता की पूर्ति के लिए निश्चित मात्रा में अनाज दिया जाता था यह व्यवस्था केवल अकाल के समय लागू की जाती थी अन्यथा अनुकूल मौसम में लोग इच्छानुसार अनाज खरीद सकते थे । बरनी लिखता है कि अनावृष्टि के समय दरिद्र और असहाय लोग बाजारों में एकत्र हो जाते थे . और कभी - कभी कुचलकर मर भी जाते थे । किंतु ऐसा होने पर अधिकारी शहना को दंड दिया जाता था । इस प्रकार राशन की पद्धति अलाउद्दीन की नई सूझ थी और बरनी कहता है कि वर्ण की अनियमितता होने पर भी दिल्ली में अकाल नहीं पड़ा । किंतु कहीं जगह राशन की मोहर की व्यवस्था नहीं थी । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि जो व्यक्ति बाजार जाता था उसे निर्धारित मात्रा में अनाज मिलता था ।
TARIKH - HISTORY
हिन्द में इस्लाम आने के असली असबाब
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सोचने और सवाल करने से ही ग़ुलामी की बेड़ियाँ टूटती हैं और नये रास्ते हमवार होते है
हम देखते है के बहुत सारी किताबों में लिखा होता है के दीन ए इस्लाम के बानी (Founder) अल्लाह के रसूल (अलैहिस्सलाम) है मतलब के इस्लाम पहली बार (610 ई०) में ही आया था। लेकिन जब हम इसके ताल्लुक से क़ुरआन से जानकारी हासिल करते है तो हमें यह मालूम होता है के इस्लाम तो जब से दुनिया बनी है तब से ही है
जब अल्लाह ने हरज़त आदम (अलैहिस्सलाम) को दुनिया मे भेजा था तो उन्हें भी ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए दीन ए इस्लाम ही दिया गया था और आगे आने वाले पैग़म्बर जैसे हज़रत नूह (अलैहिस्सलाम), हज़रत यूनुस (अलैहिस्सलाम ) , हज़रत इब्राहिम (अलैहिस्सलाम) , हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) और हज़रत ईसा (अलैहिस्सलाम) सब के सब पैग़म्बर एक ही दीन लाये थे । और सारे पैग़म्बरों की शरीयत (इस्लामी कानून) वक़्त और हालात से अलग अलग थी पर सब में नमाज़ , रोज़ा, और ज़कात फ़र्ज़ थी ।
इसी तरह अल्लाह के रसूल (अलैहिस्सलाम) को भी दीन ए इस्लाम ही दिया गया था अल्लाह के रसूल (अलैहिस्सलाम) की शरीयत में भी नमाज़ , रोज़ा , ज़कात फ़र्ज़ है और कुछ चीज़े हराम कर दी गई है जो पहले उम्मतों में हलाल की हुई थी इसलिए यह शरीयत अलग है क्योंकि अल्लाह के रसूल (अलैहिस्सलाम) आख़री पैग़म्बर है और क़ुरआन ख़ुदा की भेजी हुई आख़री किताब हैं जिसमें साफ साफ और खोल खोल कर बता दि गई हिदायतें है। दुनिया मे उस वक़्त इस्लाम कोई नया दीन नहीं था और इसी तरह हिन्द में भी इस्लाम कोई नया नही था
हिन्द में मोहम्मद बिन क़ासिम का आना
हिन्दुस्तान में इस्लाम किस तरह आया और कैसे आया इस बारे में तारीख़दान (Historian) बताते है के मोहम्मद बिन क़ासिम के ही साथ हिन्द में इस्लाम आया है पर मोहम्मद बिन क़ासिम (712 ई०) में आये थे और हम जब मोहम्मद बिन क़ासिम की तारीख़ पढ़ते है तो हमें मालूम होता है के वो सिंध में क्यों आये थे और क्या वजह रही थी उनकी आने की जब तारीख़दान अरब की तारीख़ के बारे में लिखते है के उस वक़्त अरबों का बादशाह (वलीद बिन अब्दुल मलिक) था जो बहुत ही ज़ालिम था उनका सबसे वफादार आदमी कूफ़ा का गवर्नर हज्जाज बिन यूसुफ था। उसने बहुत सारे साहबों को कत्ल भी कराया था। मक्का पर चढ़ाई भी की थी । हज्जाज बिन यूसुफ की भी एक अलग दास्तान है और उसका भतीजा और दामाद मोहम्मद बिन क़ासिम था
जब अहले बैत (सादात) पर हज्जाज बिन यूसुफ की तरफ से तशद्दुद करा जा रहा था तो वहां के अहले बैत अरब से निकल बग़दाद के रास्ते सिन्ध के राजा दाहिर के पास जा पहुँचे सादात का पीछा कर ने के लिए मोहम्मद बिन क़ासिम को भेजा और बंदी बना कर लाने का हुकुम भी दिया और मोहम्मद बिन क़ासिम ने वहां पर ज़ुल्म की इन्तिहा कर डाली आज भी हम वहां के रहने वाले (सिंधियों) और (सादात) से पूछे तो वो बतायगे के हमारे बुजुर्गों पर क्या ज़ुल्म हुआ था मोहम्मद बिन क़ासिम की जानिब से
जो वाक़या मोहम्मद बिन क़ासिम से जोड़ा जाता है वो इस तरह बयान किया जाता हैं
यह ख़त अबुल हसन की बेटी नाहिद ने सिंध से एक सफेद रुमाल पर अपने खून से हज्जाज बिन यूसुफ के लिए लिखा था, और क़ासिद से कहा था…
“अगर हज्जाज बिन युसुफ़ का खून मुंजमिद हो गया हो तो मेरा ये खत पेश कर देना वरना इसकी जरूरत नहीं है।
इस ख़त को पढ़ने के बाद 17 साल की उम्र के मुहम्मद बिन कासिम की सिपहसालारी में मुजाहिदीन-ए-इस्लाम ने सिंध को रौंद डाला था, और क़ौम के बच्चों और औरतों के साथ साथ सालों से ज़ालिम हुक्मरानों के हाथों पिसती सिंध की अवाम को निजात दिलाई थी, और राजा दाहिर को दिखा दिया था कि अभी मुजाहिदीन-ए-इस्लाम की तलवारे कुंद नहीं हुई हैं।
यह वाक़या सिरे से झूठा है अगर ऐसा होता तो जब अरब का बादशाह (सुलैमान बिन अब्दुल मलिक) बना तो उन्होंने मोहम्मद बिन क़ासिम को बुलवा कर ज़िंदान (जेल) में क्यों डाल दिया इस बात से यह ज़ाहिर हो जाता है के मोहम्मद बिन क़ासिम उनको बचाने के लिए नही आये थे, वो तो उन अहले बैत (सादात) को पकड़ने आये थे जो हज्जाज बिन यूसुफ के ज़ुल्म से भागे थे। मोहम्मद बिन क़ासिम की वजह से हिन्द में इस्लाम नही आया था ।
तारीख़दान इस बात पर मुतफ़िक़ है और तारीख़ी किताबें जैसे (तारीख़े बग़दाद) और (तारीख़े याक़ूबी) के हवाले से सिंध के (पांच अफ़राद) अल्लाह के रसूल (अलैहिस्सलाम) के हाथ पर ईमान ला चुके थे। इस्लाम तो सिंध में अल्लाह के रसूल (अलैहिस्सलाम) के वक़्त में ही आ गया था
हिन्द में इस्लाम
इस्लाम हिन्दुस्तान में उस वक़्त ही आ गया था जब अल्लाह के रसूल (अलैहिस्सलाम) ने हिजरत कि थी हम देखते हैं के गुजरात के शहर भावनगर के गांव घोघा में एक मस्ज़िद बनी हैं जिसे बेहरवाड़ा मस्ज़िद या जूनी मस्ज़िद के नाम से जाना जाता हैं जिसका रुख़ बैतूल मुक़दस की तरफ है
जिसे तारीख़दान ने अपनी राय के मुताबिक कहाँ हैं के अरब के लोग (620 - 22 ई०) के वक़्त आ चुके थे।
हम सब ज़्यादतर चैरामन जुमा मस्ज़िद के बारे में भी जानते ही है के वहां मालिक बिन दीनार जो ताजिर थे जो ( 629 ई०) के क़रीब हिन्दुस्तान के दक्षिण हिस्से में आये थे और वहां के राजा चैरामन पेरूमल ने उनके कारोबार और उनके अखलाक़ से मुत्तासिर होकर अल्लाह के रसूल (अलैहिस्सलाम) के हाथ पर ईमान लाये थे। और उनकी जनता ने भी इस्लाम क़ुबूल किया और नमाज़ पढ़ने के लिए मस्ज़िद बनाई गई ओर दक्षिण हिन्दुस्तान के मुसलमानों का मरकज़ बनाया।
सूफी , सुल्तान और मुग़ल
ज़्यादातर यह भी देखने मे आता है के हिन्द में जो सूफी आये उन्ही के बदौलत इस्लाम की तालीमात सही तरह से फैली यह सही है पर इसका यह मतलब हरगिज़ नही है के हिन्द में इस्लाम की तालीमात से लोग वाबस्ता नही थे। कुछ लोग सुल्तानों और मुग़लों को भी इस्लाम लाने वाले मानते है
हिन्दुस्तान में मोहम्मद बिन क़ासिम , सूफी , सुल्तानों और मुग़लों की वजह से इस्लाम हिन्दुस्तान में नही आया था बल्कि इस्लाम तो अल्लाह के रसूल (अलैहिस्सलाम) के वक़्त ही हिन्द में आ गया था और पूरी तालीमात के साथ आया था ।
Mulk ki Taqseem.
Pairokar
हिन्दुस्तान की वो क़दीम मस्ज़िद जिसका रुख़ है ( बैतूल मुक़द्दस)
" मेरे अरब को आई ठंडी हवा जहां से
मेरा वतन वही हैं ' मेरा वतन वही हैं "
अरब के लोगों का हिंदुस्तान से कारोबार का रिश्ता हज़ारों साल से रहा हैं कुछ अरब के लोग ज़मीन के रास्ते से आया करते थे और कुछ समुद्र के रास्ते से हिंदुस्तान में कारोबार किया करते थे । यह बात हमे ज़्यादा देखने में आती हैं के लोग बोलते हैं के अरबी लोग दक्षिण हिंदुस्तान में ही कारोबार किया करते हैं पर यह बात मुक़म्मल तौर से दुरुस्त नही हैं ,जब अरब में इस्लाम का शुरू का दौर था तब भी हिंदुस्तान में अरबी मुसलमान लोगों का आना जाना था इस बात की गवाई गुजरात की जूनी मस्ज़िद देती हैं अरबी लोग का सिर्फ दक्षिण में ही नहीं हिंदुस्तान के हर हिस्से में आना जाना था
गुजरात के शहर भावनगर के गांव घोघा में हिन्दुस्तान की लगभग 1443 साल पुरानी मस्ज़िद आज भी मौजूद हैं जिसे बेहरवाड़ा मस्ज़िद या जूनी मस्ज़िद के नाम से जानते हैं
अगर उसकी बनावट को देखे तो उसका रुख़ बैतुल-मुक़द्दस जरुशाल्म की तरफ हैं , पर इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता हैं के गुजरात से मक्का और बैतुल मुक़द्दस का रुख़ ज़्यादा मुख़्तलिफ़ नही हैं
अगर हम इस्लामिक इतिहासकारों की नज़र से देखे तो जूना मस्ज़िद का रुख़ बैतूल मक़द्दस की तरह कैसे हो गया
वो यूँ है कि अल्लाह ने पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल०) हिजरत से पहले मक़ामे इब्राहिम पर खड़े हो कर नमाज़ अदा किया करते थे अगर हम मक़ामे इब्राहिम से देखे तो दोनों क़िबले की तरफ रुख़ हो जाया करता हैं पर जो हुकुम दे रखे थे उसके मुताबिक़ हिजरत के बाद भी मुहम्मद ( सल्ल०) बैतुल मुक़द्दस की तरफ ही मुँह करके नमाज़ अदा किया करते थे उसके बाद जो हुकुम मक्का की तरफ रुख करने को दिया ये हुकुम अरबी महीने रजब या शाबान सन 2 हिजरी में उतरा गया था। जो इस तरह बयान किया गया है क़ुरआन में
पहले जिस तरफ़ तुम रुख़ करते थे, उसको तो हमने सिर्फ़ ये देखने के लिये क़िबला मुक़र्रर किया था कि कौन रसूल की पैरवी करता है और कौन उलटा फिर जाता है। ये मामला था तो बड़ा सख़्त, लेकिन उन लोगों के लिये कुछ भी सख़्त साबित न हुआ, जिन्हें अल्लाह की हिदायत हासिल थी। अल्लाह तुम्हारे इस ईमान को हरगिज़ अकारथ न करेगा, यक़ीन जानो कि वो लोगों के लिये बहुत ही मेहरबान और रहमवाला है।
ये तुम्हारे मुँह का बार-बार आसमान की तरफ़ उठना हम देख रहे हैं। लो, हम उसी क़िबले की तरफ़ तुम्हें फेरे देते हैं जिसे तुम पसन्द करते हो। मस्जिदे-हराम काबा की तरफ़ रुख़ फेर दो। अब जहाँ कहीं भी तुम हो, उसी मस्जिदे-हराम की तरफ़ मुँह करके नमाज़ पढ़ा करो। (क़ुरआन, सूरह बक़रह)
ये वो असल हुक्म जो क़िबला बदलने के बारे में दिया गया हैं
इस बात से यह साफ़ ज़ाहिर हो जाता है के यह जूनी मस्ज़िद उसी वक़्त की बनी होगी जब अल्लाह ने यही हुकुम था के बैतुल मुक़द्दस की ही तरफ रुख करके नमाज़ पढ़ा करों
इस मस्जिद की तामीर बहुत ही पुरानी हैं मस्जिद को (610 - 623 ई०) के दौर का बना हुआ माना जाता हैं मस्ज़िद में एक साथ 25 लोग नमाज़ अदा कर सकते है इसमे 12 पिलर्स है जिससे मस्जिद की छत टिकी हुई है इस क़दीम मस्ज़िद में सबसे पुराना अरबी शिलालेख आज भी मौजूद हैं , मस्ज़िद के मेहराब पर अरबी में नक्काशी उसी दौर की हैं पर इस बात का अभी तक नही पता चला के वो कौनसे सहाबा थे जो उस वक़्त हिंदुस्तान आये थे। क्योंकि केरल की जो मस्ज़िद हैं चेराना जुमा मस्ज़िद उसके बारे में बहुत ज़्यादा मालूमात है अभी भी हमारे इल्म और किताबों में मौजूद है जिसे (625 ई०) की बनी हुई माना जाता हैं
लेकिन जूना मस्ज़िद के बारे में मुक़म्मल तौर से बात वाज़े नही हुई हैं के इसका क़िबला मक्का है या बैतूल मक़द्दस हैं क्योंकि उस वक़्त क़िबला का रुख़ देखने के लिए कोई चीज़ मयस्सर ना थी हो सकता है के ये मस्ज़िद हिजरत के बाद ही बनी हो और इसका किबला मक्का ही हो । पुरातात्विक विभाग का कहना हैं के ये मस्जिद हिजरत से पहले कि ही बनी हुई हैं इसका वक़्त 610 से 622 ई का बताया जाता है
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हिन्दुस्तान का वो संघर्ष जिसमें झलकती थी एकता और अखंडता झलक
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" रिसालत "
हमने किसी बस्ती को बैग़र इसके हलाक़ नहीं किया कि उसमे कोई डराने वाला (पैग़म्बर) नही भेजा हो। और नसीहत का हक़ अदा करने वाले मौजूद थे। और हम ज़ालिम ना थे
(क़ुरआन: 26 , 208 ,209)
नबी पर किसी ऐसे काम में रुकावट नहीं है जो अल्लाह ने उसके लिये मुक़र्रर कर दिया हो। यही अल्लाह की सुन्नत उन सब नबियों के मामले में रही है जो पहले गुज़र चुके हैं और अल्लाह का हुक्म एक बिलकुल तय किया हुआ फ़ैसला होता है। (क़ुरआन : 33 ,38)
ये बात तुम्हें उनसे साफ़ कह देनी चाहिये, क्योंकि तुम्हारी तरफ़ और तुमसे पहले गुज़रे हुए तमाम नबियों की तरफ़ ये वहि भेजी जा चुकी है कि अगर तुमने शिर्क किया तो तुम्हारा अमल बरबाद हो जाएगा और तुम घाटे में रहोगे।
(क़ुरआन : 39 ,65)
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