Vanvasi Kalyan Ashram West Bengal
North Bengal - Vanvasi Kalyan Ashram Uttar Bang ; South Bengal - Purvanchal Kalyan Ashram ; both affiliated to Akhil Bharatiya Vanvasi Kalyan Ashram.
পূর্বাচল কল্যাণ আশ্রম মকর সংক্রান্তি লিফলেট 2024
पूर्वांचल कल्याण आश्रम मकर संक्रान्ति पत्रक 2024
मैं और बालासाहेब अद्वैत की अनुभूति...
आज 26 दिसंबर.... वनवासी कल्याण आश्रम का स्थापना दिवस। कल्याण आश्रम के संस्थापक वनयोगी बालासाहब देशपांडे जी का भी आज जन्म दिवस है। इस अवसर पर बालासाहब जी की प्रेरक स्मृति को शत-शत नमन।
स्थापना दिवस के निमित्त कल्याण आश्रम के देशभर में कार्य कर रहे सभी कार्यकर्ता हितचिंतक और दानदाताओं को हार्दिक शुभकामनाएं।
अब जागो……जागो रे जागो वनवासी
अब जागो…..जागो भारतवासी।।
अब जाग..जागो रे जागो वनवासी. अब जागो..जागो भारतवासी ।। अब जागो……जागो रे जागो वनवासीअब जागो…..जागो भारतवासी ।। धृ..।।सरल सहज अपना जीवन है,निर्मल जल सम अपना मन है,किंतु सजगत...
कल्याण भवन, कोलकाता में सिलाई प्रशिक्षण प्राप्त कर स्वयं की टेलरिंग दुकान शुरू की - सोनाखाली, दक्षिण 24 परगना।
आत्मनिर्भरता की ओर एक कदम..🙏
डीलिस्टिंग
मुंबई में 26 नवंबर को संविधान दिवस के अवसर पर जनजाति सुरक्षा मंच द्वारा डीलिस्टिंग के लिए अभूतपूर्व आयोजन ...
अब तक की मुंबई की सबसे बड़़ी जनजाति रैली एवं जनसभा आयोजन...
स्वतंत्रता सेनानी लक्ष्मण नायक दक्षिण उड़ीसा में जनजातियों के अधिकारों के लिए कार्यरत थे। उनका जन्म 22 नवंबर 1899 को कोरापुट में मलकानगिरी के तेंटुलिगुमा में हुआ था। उनके पिता पदलम नायक थे, जो भूयान जनजाति से संबंध रखते थे।अंग्रेजी सरकार की बढ़ती दमनकारी नीतियाँ जब भारत के जंगलों तक भी पहुँच गयी और जंगल के दावेदारों से ही उन की संपत्ति पर लगान वसूला जाने लगा तो नायक ने अपने लोगों को एकजुट करने का अभियान शुरू कर दिया।
नायक ने अंग्रेज़ों के खिलाफ अपना एक क्रांतिकारी गुट तैयार किया। आम आदिवासियों के लिए वे एक नेता बनकर उभरे। उनके कार्यों की वजह से पुरे देश में उन्हें जाना जाने लगा। इसी के चलते कांग्रेस ने उन्हें अपने साथ शामिल करने के लिए पत्र लिखा।
महात्मा गाँधी के कहने पर उन्होंने 21 अगस्त 1942 को जुलूस का नेतृत्व किया और मलकानगिरी के मथिली पुलिस स्टेशन के सामने शांतिपूर्वक प्रदर्शन किया। पर पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध गोलीबारी की, जिसमें 5 क्रांतिकारियों की मौत हो गई और 17 से ज्यादा लोग घायल हो गए।
ब्रिटिश सरकार ने उनके बढ़ते प्रभाव को देख, उन्हें एक झूठे हत्या के आरोप में फंसा दिया। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फाँसी की सजा सुनाई गयी। 29 मार्च 1943 को बेरहमपुर जेल में उन्हें फाँसी दे दी गयी।
अपने अंतिम समय में उन्होंने बस इतना ही कहा था,
“यदि सूर्य सत्य है, और चंद्रमा भी है, तो यह भी उतना ही सच है कि भारत भी स्वतंत्र होगा।”
*महान स्वतंत्रता सेनानी वीर लक्ष्मण नायक जी की प्रेरक स्मृति को शत-शत नमन।*
Celebrate the feelings of Birsa Munda by participating in the role of tribal hero Birsa Munda in Dress Up Kids.
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17 नवम्बर, 1913
मानगढ़ के बलिदानियों को सादर नमन...
‘मानगढ़ धाम हत्याकांड’ जालियाँवाला बाग़ हत्याकांड से 6 साल पहले हुआ। तारीख़ थी 17 नवम्बर, 1913। मानगढ़ एक पहाड़ी का नाम है जहाँ यह घटना घटी थी।
गोविन्द गुरु, एक सामाजिक कार्यकर्त्ता थे तथा आदिवासियों में अलख जगाने का काम करते थे। उन्होंने एक 1890 में एक आन्दोलन शुरू किया जिसका उद्देश्य था आदिवासी-भील समुदाय को शाकाहार के प्रति जागरूक करना और आदिवासियों में फैले नशे की लत को दूर करना। इस आन्दोलन को नाम दिया गया ‘भगत आन्दोलन’। इस दौरान भगत आन्दोलन को मजबूती प्रदान करने के लिए गुजरात से संप-सभा जो एक धार्मिक संगठन था, उसनें भी सहयोग देना शुरू कर दिया। संप-सभा भीलों से कराई जा रही बेगारी के ख़िलाफ़ काम करता था। इस आन्दोलन से अलग-अलग गाँवों से पांच लाख आदिवासी-भील जुड़ गए थे।
मानगढ़ हत्याकांड का चित्ररूप
1903 में गोविन्द गुरु ने मानगढ़ को अपना ठिकाना चुना और वहां से अपना सामाजिक कार्य जारी रखा। 1910 तक आते-आते भीलों ने अंग्रेजों के सामने 33 मांगे रखी जो मुख्य रूप से अंग्रेजों द्वारा करवाई जा रही बंधुआ मज़दूरी और लगान से जुड़ी थी। अंग्रेज इनका शोषण करने में पीछे नहीं थे। इसी के विरोध में गोविन्द दुरु ने भगत आन्दोलन शुरू किया था। अंगेजों ने गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर लिया लेकिन आदिवासियों के भयंकर विरोध के चलते अंग्रेजों ने गोविन्द गुरु को रिहा कर दिया। इसका असर यह हुआ कि इन हुक्मरानों का जुल्म आदिवासियों पर और बढ़ गया। यहाँ तक कि उन पाठशालाओं को भी बंद करवाना शुरू कर दिया गया जहाँ आदिवासी बेगारी के विरोध की शिक्षा ले रहे थे।
मांगे ठुकराए जाने, खासकर बंधुआ मज़दूरी पर कुछ भी एक्शन न लेने की वजह से आदिवासी गुस्सा हो गए और घटना से एक महीने पहले मानगढ़ की इस पहाड़ी पर एकत्रित होना शुरू हो गए। ये लोग नारे के रूप में सामूहिक-रूप से एक गाना गाते थे - "ओ भुरेतिया नइ मानु रे, नइ मानु”। इस दौरान अंग्रेजो ने आख़िरी चाल और चली इसमें उन्होंने जुताई के बदले साल के सवा रुपये देने का वादा किया जिसें आदिवासियों ने ठुकरा दिया। तब अंग्रेजों ने 15 नवम्बर, 1913 तक पहाड़ी को खाली करने का आदेश दे डाला।
इन्ही दिनों एक घटना और घटी। हुआ यूँ कि गठरा और संतरामपुर गाँव के लोग गुजरात के थानेदार गुल मोहम्मद के अत्याचारों से परेशान थे। उससे निपटने के लिए गोविन्द गुरु के सबसे नज़दीकी सहयोगी पूंजा धीरजी पारघी ने कुछ लोगो के साथ मिलकर उसकी हत्या कर दी। एक ही समय इन दो घटनाओं, पहाड़ी पर जमा होना और गुल मोहम्मद की हत्या से अंग्रेजों को बहाना मिल गया।
मानगढ़ हिल
17 नवम्बर, 1913 को मेजर हैमिलटन ने अपने तीन अधिकारियों और उनकी सेनाओं के साथ मिलकर मानगढ़ पहाड़ी को चारो ओर से घेर लिया। उसके बाद जो हुआ वह दिखाता है कि शक्ति का होना, संवेदना के लिए कितना हानिकारक है। खच्चरों के ऊपर बंदूकें लगा उन्हें पहाड़ी के चक्कर लगवाए गए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग मरें। इस घटना में 1500 से भी ज्यादा लोग मारे गए और न जाने कितने ही घायल हुए। गोविन्द गुरु को फिर से जेल में डाल दिया गया। हालाँकि उनकी लोकप्रियता और जेल में अच्छे बर्ताव के कारण हैदराबाद जेल से रिहा कर दिया गया। उनके सहयोगी पूंजा धीरजी को काले-पानी की सजा मिली। इनके अलावा 900 अन्य लोगों की भी गिरफ़्तारी हुई।
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हमारे भगवान बिरसा
झारखंड के उलीहातू में 15 नवंबर 1875 को बिरसा मुंडा का जन्म हुआ। बृहस्पतिवार को जन्म होने के कारण उनका नाम बिरसा रखा गया। मात्र 25 वर्ष की आयु में बिरसा ने अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए देश के लिए प्राणों की आहुति दी। भगवान बिरसा मुंडा बचपन में कुशाग्र बुद्धि के बालक थे। अध्यापकों द्वारा बताई गई ज्ञानवर्धक बातों को वह सहज ही समझ लेते थे। कोई भी विषय उनके लिए कठिन नहीं था। इन्हीं गुणों के कारण आगे चलकर वह भगवान कहलाए जाने लगे थे।
जनजाति गौरव दिन के उपलक्ष्य में कृतज्ञ राष्ट्र जनजाति नायकों को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है। हम हैं क्योंकि उन्होंने अपने साहस, शौर्य एवं अतुलनीय बलिदान से इस भूमि को सींचा। जनजाति गौरव दिवस चिरायु हो। बिरसा मुंडा सहित सिद्धो-कान्हो, तिलका माँझी, टांट्या भील, राघोजी भांगरे, तलक्कल चंदू वीर, रघुनाथ मंडलोई, तीरथसिंह और रानी गाईदिन्ल्यू जैसे जनजाति स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को भी मान्यता देता है।
वनवासी समाज भूमि को माता के समान मानकर उसकी पूजा करता है। लेकिन उनकी निर्धनता का फायदा उठाकर ईसाईयों ने थोड़ा सा धन देकर उनकी जमीनें छीन ली जिसके कारण वनवासियों को जमींदारों के यहां गुलामी करनी पड़ी। मिशनरी वनवासियों को फंसा कर ईसाईयत का प्रचार कर रहे थे। वे जमींदारों के चंगुल से मुक्त करवाने की बात तो करते थे लेकिन वास्तव में वे भी जमींदारों के समान शोषक थे। बिरसा ने जमींदारों और मिशनरियों के खिलाफ संघर्ष किया। ईसाईयों का षड्यंत्र समझ में आने के कारण मुंडा समाज में ईसाइयों के खिलाफ तीव्र असंतोष पैदा हुआ। मुंडा सरदारों ने ईसाइयों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा। इस आंदोलन की चिंगारी से ही बिरसा मुंडा नाम के एक जननायक का जन्म हुआ। मिशन स्कूल में एक पादरी ने मुंडाओंं को बेईमान,असभ्य कहा था। 16 वर्षीय बिरसा ने इसे अपमान समझकर उसी पादरी को खरी-खोटी सुनाई थी। मुंडा लोग तुम्हारा सर्वनाश करेंगे इन शब्दों में बिरसा ने धर्म के ठेकेदारों को ललकारा था।
बिरसा मुंडा को बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के साथ सभी भारतीय 'बिरसा भगवान' कहकर याद करते हैं। बिरसा मुंडा एकमात्र ऐसे वनवासी नेता हैं जिनकी तस्वीर संसद भवन में लगी हुई है। बिरसा मुंडा सात्विक जीवन, परस्पर सहयोग और बंधुत्व को ही अपना धर्म मानते थे। वनवासी जन बिरसा मुंडा को इलाके के लोग "धरती के आबा" के नाम से पुकारते और पूजते थे।
1897 से 1900 के बीच बिरसा और अंग्रेजों के बीच युद्ध होते रहे। बिरसा ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। बिरसा गाँव-गाँव घूमकर वनवासियों को जागरूक करने लगे। उन्होंने यह समझाना शुरू किया कि चर्च मिशनरी व ब्रिटिश अलग-अलग नहीं हैं, दोनों ही एक हैं और हमारे शत्रु हैं। बिरसा ने मांग की थी कि ईसाई मिशनरियों पर प्रतिबंध लगाया जाए, ताकि वनवासियों के धर्मांतरण पर रोक लगे। बिरसा के विरूद्ध अंग्रेजों ने रिपोर्ट लगाई कि वनवासियों को ईसाई धर्म छोड़कर हिन्दू बनने के लिये प्रेरित कर रहा है। बिरसा वनवासियों के ऐसे विशाल जनसमूह का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो उनके संकेत मात्र पर मरने-मारने को तैयार थे। बिरसा की अनुपस्थिति में सुदूर क्षेत्रों से वनवासी उनके घर में पूजा करने आते थे। लोगों के हृदयों में बिरसा के प्रति अगाध श्रद्धा देखकर ब्रिटिश सरकार भयभीत थी। सन 1891 में ईसाईयत त्यागकर बिरसा मुंडा पुन: हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार जीवन व्यतीत करने लगे। बिरसा ने कहा कि मिशनरियों की बढ़ती शक्ति को रोकने के लिये ईसाई धर्म का बहिष्कार किया जाना चाहिए। तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर ने कहा कि 'जब तक बिरसा मुंडा कारावास में है, तब तक यह न समझें कि सबकुछ शांत है। वास्तव में बिरसा को बंदी बनाकर सरकार बारूद के ऐसे ढेर पर बैठे गई है, जिसे उसकी संग्राम की एक चिनगारी पल भर में जलाकर भस्म कर देगी।'
बिरसा ने 28 जनवरी, 1898 को चुटिया यात्रा निकाली, इस यात्रा के दौरान बिरसा ने प्रतिज्ञा की थी कि मुंडा वनवासी तुलसी की पूजा करेंगे। तभी से तुलसी का पौधा मुंडाओं के लिये पवित्र और पूजनीय बन गया। मुंडा वनवासी उड़ीसा में स्थित जगन्नाथपुरी को अपना पैतृक मंदिर मानते हैं।
स्वाधीनता संग्राम -1857 के बहुत पहले से ही वनवासी जनजाति योद्धाओं ने भी ब्रिटिशर्स का प्रतिकार करना प्रारंभ कर दिया था। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में वनवासियों की भूमिका अतुलनीय है। केंद्र सरकार ने 1988 में बिरसा मुंडा जयंती पर विशेष स्मारक डाक टिकट जारी किया।
*बिरसाईयत बिरसा भगवान*
बलि देना अर्थहीन और व्यर्थ की जीव हत्या है।
सभी जीवों पर दया और उनपर प्रेम करना चाहिए।
शराब नहीं पीना चाहिए।
पवित्र जनेऊ धारण करो और एक दिन काम छोड़कर 'सिंगबोंगा' का स्मरण करो।
जूठा, अखाद्य भोजन और दूसरे धर्मावलम्बी से विवाह मत करो।
धर्म, संस्कृति, परम्परा भूलने से समाज की पहचान मिटती है।
ईसाईयों के मोहजाल में मत फँसो।
#हमारे_भगवान_बिरसा
जनजाति अस्मिता के महानायक
15 नवंबर...
जनजाति गौरव दिवस के उपलक्ष्य मे भगवान बिरसा मुंडा के जीवन पर बनाई गई लघु फिल्म।
#हमारे_भगवान_बिरसा
जनजाति अस्मिता के महानायक 15 नवंबर...जनजाति गौरव दिवस के उपलक्ष्य मैं भगवान बिरसा मुंडा के जीवन पर मनाई गई लघु फिल्म।
भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी भगवान बिरसा मुंडा की जन्म जयंती के दिवस पर उनकी प्रेरक स्मृति को वंदन।
जनजातीय गौरव दिवस की सभी देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं। अपनी धर्म - संस्कृति - परंपरा की रक्षा के लिए भगवान बिरसा का बलिदान और समर्पण सदैव हम सबको प्रेरणा देता रहेगा।
#हमारे_भगवान_बिरसा
आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।
🙏🙏🙏
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध क्रांतिकारी राघोजी भांगरे जी की आज जन्म जयंती।
उनकी प्रेरक स्मृति को शत-शत वंदन..🙏
सिलाई प्रशिक्षण शिविर - पूर्वांचल कल्याण आश्रम सिलाई प्रशिक्षण शिविरपूर्वांचल कल्याण आश्रमकौशल विकास केंद्रप्रीतिलता छात्रीवास, गोसाबा
आइए स्व कार्तिक उरांव जी का जन्मशती वर्ष हम उत्सव के रूप में मनाए।
आज 29 अक्टूबर 2023 प्रख्यात जनजाति नेता स्वर्गीय कार्तिक उरांव जी का जन्म जयंती दिवस। जनजाति समाज की उन्नति के लिए संपूर्ण जीवन भर जिन्होंने समर्पित भाव से काम किया। ऐसे कार्तिक बाबू जी के जन्मशती वर्ष को भी आज से प्रारंभ हो रहा है।
जिन्होंने अपनी धर्म - संस्कृति - परंपरा को छोड़कर धर्मांतरण किया है, ऐसे जनजातियों के आरक्षण की सुविधा रद्द होनी चाहिए ऐसी मांग लेकर कार्तिक उरांव जी ने लंबा संघर्ष किया था। उनके जीवित होते हुए दुर्भाग्य से यह सपना साकार नहीं हो पाया। आज हम सब मिलकर कार्तिक जी के इस सपने को पूर्ण करने का संकल्प करना होगा।
कार्तिक जी का संपूर्ण जीवन ही समाज के लिए रहा। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी उन्होंने बाकी संपूर्ण जीवन केवल जनजाति समाज के विकास के लिए और इस समाज के विभिन्न समस्याओं को सुलझा कर एक सशक्त जनजाति समाज की निर्मिती के लिए व्यतीत किया था। उन्होंने काम तो जनजाति समाज के लिए किया लेकिन उनके कार्य का विस्तार संपूर्ण देश में हुआ था। इसीलिए संपूर्ण देश ने इस जन्मशती वर्ष को एक उत्सव के रूप में मनाना चाहिए।
जिन्होंने अपनी संस्कृति परंपरा छोड़कर अन्य धर्म का अवलंब किया है ऐसे व्यक्तियों को अनुसूचित जनजाति सूची से बाहर निकलना चाहिए ऐसी मांग उन्होंने की थी इस मांग को पूरा करने के लिए एक संघर्ष करना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
स्व कार्तिक उराँव जी के जन्म शताब्दी वर्ष के निमित्त विशेष डाक टिकट और सिक्का जारी करने की मांग अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम ने की है। कल्याण आश्रम के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री रामचन्द्र खराड़ी जी ने प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी से पत्र लिखकर यह मांग रखी है। पत्र में कार्तिक जी का जन्म शताब्दी वर्ष एक उत्सव के रूप में मनाने की अपील भी की है।
जन्मशती वर्ष के निमित्त स्वर्गीय कार्तिक उरांव जी की प्रेरक स्मृति को शत-शत नमन।
🙏🙏🙏
श्री शिव महापुराण कथा Playlist
(for all 7 days videos)
श्री शिव महापुराण कथा 2023 श्री शिव महापुराण कथा पुरुलिया में कॉलेज छात्रों हेतु छात्रावास निर्माण एवं सेवा कार्यों के विस्तार के लिए परम प.....
जनजाति शक्तिपीठ - 9
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डहानू की महालक्ष्मी माता
महाराष्ट्र के पालघर जिलेके डहानू के पास माता का एक प्रसिद्ध स्थान है महालक्ष्मी। ऊंची पहाड़ी पर बसा यह स्थान महालक्ष्मी मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह माता जनजाति समाज की कुलदेवी मानी जाती है। इस संपूर्ण क्षेत्र में वारली, कोंकणा समाज का बड़ी संख्या में निवास है, इसलिए हजारों श्रद्धालु महालक्ष्मी माता के दर्शन के लिए आते है।
कुलदेवी होने के कारण जनजाति समाज धान हो या अपने खेत मे तैयार की हुई सब्जी, इसे माता के चरणो मे जब तक नही चढायेगा तब तक उसका सेवन नही करेगा। सालों साल से यह प्रथा चलती आ रही है। जो कुछ मिलता है वह माता की कृपा से ही मिलता है इसी कारण माता के प्रति आस्था जताने के लिए यह प्रथा चली आ रही है।
महालक्ष्मी माता के काफी उत्सव होते हैं। जिसमें कोलि का सिंदूर, नन्या का सिंदूर, होलिका सिंदूर, पितृ बारस, वाघ बरस, आदि प्रमुख उत्सव होते है। लेकिन महालक्ष्मी माता का सबसे बड़ा उत्सव चैत्र पूर्णिमा से प्रारंभ होता है। यह संपूर्ण उत्सव 15 दिन तक चलता है। इसमें भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु श्रद्धा भाव से सम्मिलित होते हैं। 15 दिन इस उत्सव के निमित्त भव्य यात्रा का आयोजन होता है। पारंपरिक श्रद्धा के अनुसार इन 15 दिनों में विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है। यह मंदिर पहाड़ी पर होने के कारण मंदिर के ऊंची चोटी पर पारंपरिक ध्वज लगाने की विधि भी होती है। इन 15 दिनों में माता को विभिन्न अलंकारों से सजाया जाता है।
नवरात्रि में महालक्ष्मी माता मंदिर में विशेष उत्सव का माहौल होता है। विभिन्न प्रकार के धान लगाकर माता के सामने घटस्थापना की जाती है। यह उत्सव विजयादशमी यानी दशहरे तक चलता है। इन दस दिनों में हजारों श्रद्धालुओं की भीड़ माता के दर्शन के लिए आती है जिसमें महाराष्ट्र के साथ-साथ गुजरात से भी लाखों श्रद्धालु आते हैं।
कहां जाता है कि यह मंदिर पहले संपन्न अवस्था में था, लेकिन मुस्लिम शासकों ने इस पर हमला कर यहां का सोना, चांदी, हीरे सभी को लूट लिया था। इस मंदिर का चार बार जीर्णोद्धार हुआ है। आज आवागमन के साधन और विभिन्न सुविधाएं उपलब्ध होने के कारण भक्तों की संख्या भी काफी बढ़ी है। इस मंदिर की पूजा के परंपरागत अधिकार जनजाति समाज के पुजारी के पास हैं। महालक्ष्मी माता की कृपा से ही अपना जीवन सुखी एवं संपन्न रूप से चल रहा है, ऐसी यहां के जनजाति समाज की श्रद्धा है। महालक्ष्मी माता के विभिन्न उत्सवों के साथ-साथ अन्य प्रासंगिक समय पर भी माता के दर्शन करने के लिए जाने वालों की संख्या काफी बड़ी है।
महालक्ष्मी माता के चरणों में कोटि-कोटि वंदन।
#जनजाति_शक्तिपीठ
जनजाति शक्ति पीठ - 8
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गुजरात की अम्बा माता
गुजरात का अम्बाजी मंदिर बेहद प्राचीन है। बनासकांठा जिले में स्थित यह स्थान मां अम्बा-भवानी के शक्तिपीठों में से एक है। इस मंदिर के गर्भगृह में मां की कोई प्रतिमा स्थापित नहीं है। शक्ति के उपासकों के लिए यह मंदिर बहुत महत्व रखता है। यहां मां का एक श्रीयंत्र स्थापित है। इस श्रीयंत्र को कुछ इस प्रकार सजाया जाता है कि देखने वाले को लगे कि मां अम्बे यहां साक्षात विराजी हैं।
अंबाजी मंदिर की कथा सदियों पहले की है, जब देवी सती, भगवान शिव की पत्नी, ने अग्नि में कूदकर अपनी जान दे दी थी। अपनी पत्नी की मृत्यु से क्रोधित और निराश होकर शिव जलते शरीर को गोद में लेकर हर जगह घूमने लगे। जब भगवान विष्णु ने अपना दिव्य चक्र छोड़ा, तो माता सती के शरीर के टुकड़े अलग-अलग दिशाओं में जाकर गिर पड़े। उनका हृदय इसी जगह पर गिरा था, जहां अंबाजी मंदिर स्थापित है।
मां अम्बाजी मंदिर गुजरात-राजस्थान सीमा पर स्थित है। माना जाता है कि यह मंदिर लगभग बारह सौ साल पुराना है। इस मंदिर के जीर्णोद्धार का काम 1975 से शुरू हुआ था और तब से अब तक जारी है। श्वेत संगमरमर से निर्मित यह मंदिर बेहद भव्य है। मंदिर का शिखर एक सौ तीन फुट ऊंचा है। शिखर पर 358 स्वर्ण कलश सुसज्जित हैं।
मंदिर से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर गब्बर नामक पहाड़ है। इस पहाड़ पर भी देवी मां का प्राचीन मंदिर स्थापित है। माना जाता है यहां एक पत्थर पर मां के पदचिह्न बने हैं। पदचिह्नों के साथ-साथ मां के रथचिह्न भी बने हैं। अम्बाजी के दर्शन के उपरान्त श्रद्धालु गब्बर जरूर जाते हैं। हर साल भाद्रपदी पूर्णिमा के मौके पर यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु जमा होते हैं।
प्रत्येक माह पूर्णिमा और अष्टमी तिथि पर यहां मां की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। शक्तिस्वरूपा अम्बाजी देश के अत्यंत प्राचीन 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। नवरात्रि में यहां का वातावरण आकर्षक और शक्तिमय रहता है। नौ दिनों तक चलने वाले नवरात्रि पर्व में श्रद्धालु बड़ी संख्या में यहां माता के दर्शन के लिए आते हैं। इस समय मंदिर प्रांगण में गरबा करके शक्ति की आराधना की जाती है।
जनजाति समाज भी अंबा माता के दर्शन के लिए बड़ी संख्या में एकत्रित आता है। यह स्थान 51 शक्तिपीठों में से एक तो है ही, लेकिन जनजाति समाज के लिए भी यह एक महत्वपूर्ण शक्तिपीठ माना जाता है।
#जनजाति_शक्तिपीठ
जनजाति शक्ति पीठ 7
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हिडिम्बा माता
देश के भविष्य को सुरक्षित रखने के लिये पुत्र का बलिदान करने वाली माता हिडिम्बा इतिहास का अमर अध्याय है। माता के मन की विशालता और राष्ट्र कार्य के लिये उनका समर्पण पूजनीय है, वंदनीय है। राष्ट्र निर्माण में माता हिडिम्बा का त्याग, तपस्या और समर्पण अद्भुत और अनूठा है।
महाभारत काल में नागालैण्ड के दीमासा समाज की हिडिम्बा राजकुमारी का विवाह अज्ञातवास के समय पांडवों के महापराक्रमी भीम से हुआ था। प्राचीन समय में माता हिडिंबा अपने भाई हिडिंब के साथ रहती थीं जो राक्षस थे। हिडिंब बहुत बलवान था और उसकी बहन हिडिम्बा ने प्रण लिया था कि जो उनके भाई को पराजित करेगा वह उससे विवाह करेंगी। पांडव जब अज्ञातवास में थे तब भीम और हिडिम्ब में युद्ध हुआ था और इस युद्ध में हिडिम्ब मारा गया। इसके बाद हिडिम्बा ने भीम से विवाह किया। वैसे तो हिडिम्बा राक्षसी थी लेकिन भीम से विवाह होने के बाद वह मनुष्य रूप में आ गई। उनका एक बेटा भी हुआ जो घटोत्कच कहलाया।
माता हिडिम्बा ने बालक घटोत्कच को वीरोचित संस्कार दिये। वीर पुत्र घटोत्कच ने ही कर्ण द्वारा अर्जुन को भेदने के लिये उपयोग किये जाने वाले शस्त्रों के वार को अपने ऊपर ग्रहण कर लिया। युद्ध के इस प्रसंग ने परिणाम की दिशा ही बदल दी। घटोत्कच के बलिदान ने धर्मयुद्ध के विजय की सुनिश्चितता का मार्ग का आगे बढ़ाया। पुराण के उल्लेख अनुसार द्वापर युग में पुत्र घटोत्कच के वध के उपरांत माता हिडिम्बा कुरुक्षेत्र पहुंची थी। तो भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें सांत्वना देते हुए आग्रह किया था कि आप हिमगिरी जाकर साधना करें। इसलिए माता हिडिंबा हिमाचल प्रदेश के मनाली पहुंची वहां उन्होंने तपस्या की।
आज भी हिडिंबा माता मंदिर पर्यटन नगरी मनाली में है। यह प्राचीन गुफा-मंदिर है, जो हिडिम्बी देवी को समर्पित है। मंदिर में उकीर्ण एक अभिलेख के अनुसार मंदिर का निर्माण राजा बहादुर सिंह ने 1553 ई. में करवाया था। पैगोडा की शैली में निर्मित यह मंदिर अत्यंत सुंदर है व मनाली शहर के पास पहाड़ी पर स्थित है। नागालैंड का दीमासा समाज आज भी माता हिडिम्बा को अपनी आराध्या मानता है। हिडिम्बा दीमासा समाज की राजकन्या थी और श्रीकृष्ण के कहने पर वह तपस्या के लिए हिमाचल आयी थी ऐसा उनका मानना है। मनाली आने वाले श्रद्धालु माता हिडिम्बा और उनके पुत्र घटोत्कच का आशीर्वाद जरूर लेते हैं।
बेलपहाड़ी एवं झिलिमिलि चिकित्सा शिविर की अगली कड़ी में कल चश्मा वितरण का कार्य किया गया।
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About Vanvasi Kalyan Ashram
Vanavasi Kalyan Ashram is an Indian social welfare organization based in Jashpur, in the Chhattisgarh state of India. It focuses on the welfare activities of Janjatis, which is Scheduled Tribes in remote areas of Bharat (India), and has branches throughout the country. These branches focus on agriculture, healthcare, child education, and sports. It also works to create cultural awareness among janjatis thereby facilitating the idea of preservation of their tradition and customs followed in different groups.
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