Manto
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All About Saadat Hasan Manto's literature. He was a Pakistani writer, playwright, and author born in
दीवार पर आवेज़ां क्लाक टिक टिक कर रहा था। कैलेंडर का आख़िरी पत्ता जो डेढ़ मुरब्बा इंच काग़ज़ का एक टुकड़ा था, उसकी पतली उंगलियों में यूं काँप रहा था गोया सज़ाए मौत का क़ैदी फांसी के सामने खड़ा है।
क्लाक ने बारह बजाये, पहली ज़र्ब पर उंगलियां मुतहर्रिक हुईं और आख़िरी ज़र्ब पर काग़ज़ का वो टुकड़ा एक नन्ही सी गोली बना दिया गया। उंगलियों ने ये काम बड़ी बेरहमी से किया और जिस शख़्स की ये उंगलियां थीं और भी ज़्यादा बेरहमी से उस गोली को निगल गया।
उसके लबों पर एक तेज़ाबी मुस्कुराहट पैदा हुई और उसने ख़ाली कैलेंडर की तरफ़ फ़ातिहाना नज़रों से देखा और कहा, “मैं तुम्हें खा गया हूँ... बग़ैर चबाए निगल गया हूँ।”
इसके बाद एक ऐसे क़हक़हे का शोर बुलंद हुआ जिसमें उन तोपों की गूंज दब गई जो नए साल के आग़ाज़ पर कहीं दूर दाग़ी जा रही थीं।
जब तक इन तोपों का शोर जारी रहा, उसके सूखे हुए हलक़ से क़हक़हे आतिशीं लावे की तरह निकलते रहे, वो बेहद ख़ुश था। बेहद ख़ुश, यही वजह थी कि उस पर दीवानगी का आलम तारी था। उसकी मसर्रत आख़िरी दर्जा पर पहुंची हुई थी, वो सारे का सारा हंस रहा था। मगर उसकी आँखें रो रही थीं और जब उसकी आँखें हँसतीं तो आप उसके सिकुड़े लबों को देख कर यही समझते कि उस की रूह किसी निहायत ही सख़्त अ’ज़ाब में से गुज़र रही है।
دیوار پر آویزاں کلاک ٹِک ٹِک کررہاتھا۔ کیلنڈر کا آخری پتا جو ڈیڑھ مربع انچ کاغذ کا ایک ٹکڑا تھا، اس کی پتلی انگلیوں میں یوں کانپ رہا تھا گویا سزائے موت کا قیدی پھانسی کے سامنے کھڑا ہے۔
کلاک نے بارہ بجائے، پہلی ضرب پر انگلیاں متحرک ہوئیں اور آخری ضرب پر کاغذ کا وہ ٹکڑا ایک ننھی سی گولی بنا دیا گیا۔ انگلیوں نے یہ کام بڑی بے رحمی سے کیا اور جس شخص کی یہ انگلیاں تھیں اور بھی زیادہ بے رحمی سے اس گولی کو نگل گیا۔ اس کے لبوں پر ایک تیزابی مسکراہٹ پیدا ہوئی اور اس نے خالی کیلنڈر کی طرف فاتحانہ نظروں سے دیکھا اور کہا،’’میں تمہیں کھا گیا ہوں۔۔۔ بغیر چبائے نگل گیا ہوں۔‘‘
اس کے بعد ایک ایسے قہقہے کا شور بلند ہوا جس میں ان توپوں کی گونج دب گئی جو نئے سال کے آغاز پر کہیں دور داغی جارہی تھیں۔جب تک ان توپوں کا شور جاری رہا، اس کے سوکھے ہوئے حلق سے قہقہے آتشیں لاوے کی طرح نکلتے رہے، وہ بے حد خوش تھا، بے حد خوش، یہی وجہ تھی کہ اس پر دیوانگی کا عالم طاری تھا۔ اس کی مسرت آخری درجہ پر پہنچی ہوئی تھی، وہ سارے کا سارا ہنس رہا تھا۔ مگر اس کی آنکھیں رو رہی تھیں اور جب اس کی آنکھیں ہنستیں تو آپ اس کے سکڑے لبوں کو دیکھ کر یہی سمجھتے کہ اس کی روح کسی نہایت ہی سخت عذاب میں سے گزر رہی ہے۔
मैंने शायद पहली मर्तबा नूर जहाँ को फ़िल्म 'ख़ानदान' में देखा था। उस ज़माने में वो बेबी थी। हालाँकि पर्दे पर वो हर्गिज़ हर्गिज़ इस क़िस्म की चीज़ मालूम नहीं होती थी। उसके जिस्म में वो तमाम ख़ुतूत, वो तमाम क़ौसें मौजूद थीं जो एक जवान लड़की के जिस्म में हो सकती हैं और जिनकी वो ब वक़्त-ए-ज़रूरत नुमाइश कर सकती है।
नूर जहाँ उन दिनों फ़िल्मबीन लोगों के लिए एक फ़ित्ना थी, क़यामत थी। लेकिन मुझे उसकी शक्ल-ओ-सूरत में ऐसी कोई चीज़ नज़र न आई। एक फ़क़त उसकी आवाज़ क़यामतख़ेज़ थी। सहगल के बाद, मैं नूर जहाँ के गले से मुतास्सिर हुआ। इतनी साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ आवाज़, मुर्कियां इतनी वाज़िह, खरज इतना हमवार, पंचम इतना नोकीला! मैंने सोचा, अगर ये लड़की चाहे तो घंटों एक सुर पर खड़ी रह सकती है, उसी तरह, जिस तरह बाज़ीगर तने हुए रस्से पर बग़ैर किसी लग़्ज़िश के खड़े रहते हैं।
नूर जहाँ की आवाज़ में अब वो लोच, वो रस, वो बचपना और वो मासूमियत नहीं रही जो कि उसके गले की इम्तियाज़ी ख़ुसूसियत थी। लेकिन फिर भी नूर जहाँ, नूर जहाँ है। गो लता मंगेशकर की आवाज़ का जादू आज कल हर जगह चल रहा है। अगर कभी नूर जहाँ की आवाज़ फ़िज़ा में बुलंद हो तो कान उस से बे-एतिनाई नहीं बरत सकते।
नूर जहाँ के मुताल्लिक़ बहुत कम आदमी जानते हैं कि वो राग विद्या उतना ही जानती है जितना कि कोई उस्ताद। वो ठुमरी गाती है, ख़याल गाती है। ध्रुपद गाती है और ऐसा गाती है कि गाने का हक़ अदा करती है।
मौसीक़ी की तालीम तो उसने यक़ीनन हासिल की थी कि वो ऐसे घराने में पैदा हुई, जहाँ का माहौल ही ऐसा था। लेकिन एक चीज़ ख़ुदादाद भी होती है। मौसीक़ी के इल्म से किसी का सीना मामूर हो, मगर गले में रस न हो तो आप समझ सकते हैं कि ख़ाली खोली इल्म सुनने वालों पर क्या असर कर सकेगा।
नूर जहाँ के पास इल्म भी था और वो खुदा दाद चीज़ भी कि जिसे गला कहते हैं। ये दोनों चीज़ें मिल जाएं तो क़ियामत का बरपा होना लाज़िमी है।
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इस्तिब्दाद : अत्याचार
Saadat Hasan Manto
हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे न केवल यह समझें कि वे क्या पढ़ रहे हैं बल्कि उन्हें पढ़ने में मज़ा आए। वे लिखित सामग्री की व्याख्या कर सकें और उससे पाई गई सीख को स्कूल में, अपने दैनिक जीवन में और सीखने के अलग-अलग क्षेत्रों में प्रयोग कर सकें।
जिस तरह शुरुआती बालावस्था में नन्हे बच्चे अपने परिवार के सदस्यों से, और अपने आसपास से आदान-प्रदान करके खुद ही बोलना सीख जाते हैं, उसी तरह से यह देखा गया है कि जिन बच्चों को अपने घरों में लिखित माहौल मिलता है वे स्कूल में प्रवेश करने से पहले ही, खुद से कुछ हद तक लिखना-पढ़ना सीख जाते हैं। उदाहरण के तौर पर, वे पहचान लेते हैं कि लिखने-पढ़ने की प्रक्रिया एक अर्थपूर्ण प्रक्रिया है।
हम चाहते हैं कि हमारे विद्यार्थी इस बात को समझने लगें कि पढ़ते समय उनकी सोच कितनी महत्वपूर्ण हो जाती है। अध्यापकों के नाते हमारा फर्ज़ है कि हम विद्यार्थियों को इस बात का यकीन दिलाएँ कि उनकी सोच, उनके विचार और उनकी व्याख्याएँ भी मायने रखती हैं। जब वे पढ़ने वाले किसी पाठ या कहानी से जुड़ते हैं और अपने भीतर होने वाली उस बातचीत को गौर से सुनते हैं तो उनकी समझदारी में इज़ाफा होता है, उनका ज्ञान पुष्ट होता है, उनके पास एक अन्तर्दृष्टि विकसित होती है।
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