Dr.Vijay Pandit
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हिंदी की गूंज पत्रिका टोक्यो , जापान का वार्षिक सम्मान समारोह हिंदी भवन, दिल्ली में भव्य रूप से आयोजित किया गया जिसमें समस्त भारत व विदेशों से अनेक जानीमानी साहित्यिक व सामाजिक विभूतियों की गरिमामयी उपस्थिति रही। आयोजन में वर्षो बाद पुराने दोस्तों से मिलना हुआ इसका श्रेय आदरणीय रमा शर्मा जी का जाता है।
'जापान हिन्दी भूषण सम्मान' प्रदान करने के लिए जापान से प्रकाशित होने वाली 'हिन्दी की गूंज' पत्रिका की संपादक डॉ रमा पूर्णिमा शर्मा, अजय शर्मा जी और अमरीका से प्रमुख हिन्दी सेवी और समाजसेवी इंद्रजीत शर्मा जी का हृदय से आभारी हूँ ।
एक बेहतरीन आयोजन के लिए हिन्दी की गूंज पत्रिका परिवार को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
दिनांक 24, 25, 26 नंवबर 2023 को चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय मेरठ के बृहस्पति भवन में होने वाले तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय 'मेरठ लिटरेचर फेस्टिवल' में आप सभी का हार्दिक स्वागत है ..
बेहतरीन कवरेज के लिए धन्यवाद जनवाणी ...
साक्षात्कार के लिए धन्यवाद एस एस डोगरा जी: वरिष्ठ पत्रकार ... दिल्ली
साहित्य सम्मेलनों से वसुद्धैव कुटुम्बकम् का संदेश विश्वभर में फैलाना ही मेरा लक्ष्य: डॉ विजय प साहित्य साहित्य सम्मेलनों से वसुद्धैव कुटुम्बकम् का संदेश विश्वभर में फैलाना ही मेरा लक्ष्य: डॉ विजय पंडित By एसएस...
चलो फिर एक नई शुरुआत करें
भूल सब शिकवे गिले
गले मिलें मोहब्बत से
प्रीत का दीया एक रोशन करते चलें।।
#विजयपंडित
हम सभी शुद्ध प्राणवायु, फल, फूल, औषधि प्रदाता सच्चे मित्र वृक्षों व सभी पेड़, पौधे, वनस्पतियों को सदैव नमन करें जो हमारे जीवन से लेकर मृत्यु तक हमारा साथ निभातें हैं ।
दोस्तों.. प्रकृति से सदैव जुड़े रहिए प्रकृति में समाहित पंचतत्वों का सम्मान, संवर्धन और संरक्षण कीजिए .. यकीन मानिए एक सच्चे मित्र की तरह प्रकृति आपके साथ कभी भी कुछ गलत नहीं होने देगी।
प्रत्येक वृक्ष एक 'आक्सीजन प्लांट' की तरह काम करता है लेकिन कृत्रिम आक्सीजन की जगह शुद्ध प्राणवायु सभी को नि:शुल्क उपलब्ध कराता है, श्राद्ध पक्ष में अपने प्रियजनों की स्मृति में एक पौधा अवश्य रोपित कीजिए और उसकी समुचित देखभाल भी करें ।
अगर सभी ऐसा करते हैं अपने प्रियजनों की स्मृति में रोपित किया गया पौधा समुचित देखभाल से वृक्ष बन सभी को फल फूल, औषधी, शीतल छांव, शुद्ध प्राणवायु, प्रदूषणमुक्त वातावरण, परिंदो को प्राकृतिक आवास उपलब्ध करायेगा ।
हमारा प्रत्येक कदम हरियाली सहेजने की ओर ...
डा विजय पंडित
मेरठ, उत्तर प्रदेश
भारत
+918006634266 भारत
+9779829422803 नेपाल
#डाविजयपंडित #पर्यावरण #पौधारोपण #मेरठ
सिर्फ पौधे रोपित करना ही काफी नहीं है रोपित किए गए पौधों को वृक्ष बनने के प्रक्रिया में उनको चाहिए समुचित देखभाल, समय पर खाद पानी और हम रखते हैं इन सभी बातों का विशेष खयाल ।
हमारा प्रत्येक कदम हरियाली सहेजने की ओर ..
ग्रीन केयर सोसायटी
मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत
#डाविजयपंडित #मेरठ #पर्यावरण #पौधारोपण
हिंदी कल्चरल सेंटर टोकियो , जापान से प्रकाशित होने वाली अंतरराष्ट्रीय पत्रिका , "हिंदी की गूँज" में प्रकाशित एक रचना ..
#डाविजयपंडित
मेरा ननिहाल : यादों के झरोखे से ..
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अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है जब पूरी दुनियाँ कोरोना के प्रकोप से भयभीत होकर अधिकतर समय घरों में ही क़ैद रहने के लिए मजबूर हो गई थी, कोरोना से पहले सभी को शिकायत थी कि व्यस्त जीवन में समय ही नहीं है कि कुछ पल अपने, अपनों, सपनों के लिए निकाला जाएँ ,
लेकिन एक वायरस के कारण सभी घरों में एक तरह से क़ैद हो गए, इस कारण से तो सभी के पास समय ही समय था।
इसी खाली समय में अपने पुराने बेफिक्र बचपन वाले दिन बहुत याद आते रहे, जब हम सभी हर साल गर्मियों की छुट्टियों में अपने नानी के गांव लखावटी जिला बुलंदशहर जाते थे, उस समय मैं दस - बारह साल का था,
हम पाँचों बहन भाई अपनी मम्मी के साथ अपना बोरिया बिस्तर लेकर ननिहाल पहुंच जाते थे हम सभी सरकारी / प्राईवेट 'बस' द्धारा गाँव के मुख्य मार्ग पर अमरसिंह कृषि पीजी कॉलेज तो कभी प्राईमरी स्कूल पर उतरते थे
वहां से हमारा दल कॉलेज के खेल के मैदान (जिसे सब फील्ड कहते थे) पार कर कच्चे रास्ते से गांव पहुंच जाते और गांव शुरू होते ही भैया राम राम , चाचा , ताऊ , मामा, बाबा , बी बी राम राम शुरू हो जाती थी।
इन्ही सब के बीच हम अपने दलबल के साथ घर पहुंच जाते घर पहुंचते ही हमारी मम्मी, नानी और मौसी , चाची आदि सभी का गले मिलकर झूठमूट रोने का क्रम चलता था और हम बच्चे डरे सहमे एक कोने में खड़े सोचते ये हो क्या हो रहा हैं।
खैर इस अजीब से मेलमिलाप के बाद सभी अंदर पहुंचते और खातिरदारी शुरू हो जाती, लेकिन हमें आज तक ये पता नहीं चला कि ये गले मिलकर ज़ोर ज़ोर से रोने का कारण क्या था।
ननिहाल में नाना जी उत्तर प्रदेश सरकार स्वास्थ विभाग के परिवार नियोजन प्रकोष्ठ में सेवारत थे गांव में नाना जी को सभी गांव वाले मुंशी जी कहते थे .. उनके पास एक साईकिल थी जिस पर सवार होकर वे सुबह ही एक झोला लेकर अपने काम पर चले जाते थे।
नाना जी के मुँह में एक भी दांत नहीं था वे जब खाना खाते थे तो उनकी आँखे बंद हो जाती थी हम सभी का नाना जी को खाना खाते समय देखना मनोरंजन में शामिल था।
एक मामा विवाहित थे वो सरकारी स्कूल में मास्टर जी थे उनके परिवार में मामी और चार बच्चे थे जोकि सभी कालेज में पढ़ते थे, दूसरे छोटे मामा अविवाहित थे और एक अविवाहित मौसी थी मामा और मौसी भी कालेज में पढ़ते थे।
मम्मी के दो चाचा जिनके घर नाना जी के घर के बराबर में ही थे, इन दोनों परिवारों में भी कुल मिलकर दस बच्चे और बड़े भी थे
ननिहाल में नाना जी का दो मंजिला घर था, उस समय फर्श कच्चा और घर पर सीमेंट प्लास्टर भी नहीं हुआ था तो दिवार की दरारों में बहुत सारी पीली सी ततैया रहती थी हम सभी बस उन्ही के काटने से डरा करते थे,
घर में एक हैंडपंप था जो हमारे कद से भी ऊंचा था जिसे हम उछल उछल कर चलाते थे हैंडपंप के बराबर में तुलसी और छोटा सा पूजा स्थल था और पूजा स्थल के बराबर में एक बरोसी थी जिसमे जलते हुए उपलों पर एक मिटटी की बड़ी सी हँडिया में दूध औटता रहता था जो भी मेहमान आता उसी में से गुलाबी सा दूध दिया जाता था।
उस समय घर में चाय नहीं बनती थी अगर कोई शहरी बाबू घर में आता था और चाय की मांग करता तो पास की दुकान से पच्चीस पैसे का ब्रुकब्रांड कम्पनी की चाय पत्ती का पाउच लाते थे , चाय पत्ती का ये पाउच कागज़ का बना होता था।
उस समय गाँव में बिजली नहीं आती थी वैसे बिजली के खम्बे - तार आदि लगे हुए थे लेकिन बिजली स्थाई रूप से पूरे गाँव की गायब रहती थी इसी का लाभ उठा कर गाँव में कुछ साहसी लोग अक्सर बिजली के तारों पर कपड़े भी सुखा दिया करते थे,
नानी के घर में तीन भैस, तीन चार कटिया, दो बैल जिनमे एक को सभी बधिया कहा करते थे दूसरा बैल काले सफेद रंग का उसका नाम बादल रखा था वह सबको बहुत सींग मारता था सब उसी से डरते थे, ये सभी दिन में तो घर के पास बाड़े में घने नीम के वृक्षों तले बंधे रहते थे सुबह शाम पानी पिलाने के लिए घर में लाते थे।
रात्रि में घर मेंं पास ही बांध दिया जाता था, बाड़ा बहुत बड़ा और घने नीम के पेड़ों से हमेशा हराभरा रहता था
इन्ही नीम के विशाल वृक्षों के नीचे तीनों घरों के दर्जनों पशु रहते थे।
बाड़े में एक बेरी का पेड़ भी था जिस पर खूब बड़े बड़े मीठे बेर लगते थे।
बाड़े में ही पशुओ को खिलाने वाले भूसा के बौंगे और चूल्हे में ईंधन के रूप में जलने वाले उपले रखने वाले बिटौड़े भी थे जिन पर सीताफल , तोरई , लौकी आदि की बेल हमें हर बार मिलती थी।
तीनों घरों के बीच में ही एक विशाल राजसी दिखने वाली बैठक थी जिसकी छत करीब बीस फुट ऊंची थी, जिसे सभी 'दुकड़िया' कहते थे जिसमे एक बहुत बड़ा हॉल , दो कमरे थे, सात दरवाज़े , बारह रोशनदान थे , बैठक के बरामदे में दो हरा चारा काटने की हाथों से चलने वाली मशीने भी लगी हुई थी।
इन मशीनों के लकड़ी के हत्थे पर हम बालक बड़ों की नज़र बचते ही झूलने का प्रयास करते थे इसी प्रयास में सभी बालकों को अनेकों बार मार भी पड़ती थी
हमारी तरह ही हमारी दूसरी मौसी भी अपने चार बच्चो के साथ हर बार ननिहाल आती थी।
एक बार मौसी की छोटी बेटी जिसका नाम डॉली हैं वह चारा काटने वाली मशीन पर झूल रही थी तो मशीन के गंडासे में आकर उसकी अंगूठा और ऊँगली कट कर अलग हो गयी थी ,
उस समय कुल मिला कर हम एक घर में पन्द्रह बच्चे हो जाते थे धमाचौकड़ी का अंदाज़ा भी लगाया जा सकता हैं और बड़े के लिए हम बच्चों की रखवाली करना भी एक चुनौती पूर्ण कार्य होता था।
ननिहाल में सुबह हमारी आंखे उस समय खुलती थी जब नानी दही बिलो रही होती थी हमें उठा कर बेला भरके दही हमें देती वो दही भी गुलाबी होती थी हम दही खा पी कर फिर सो जाते,
फिर जैसे ही कानों में सुनाई पड़ती की मामा खेतों पर जा रहे हैं क्योकि खेत पर ट्यूबवैल चलेगा तो सभी बच्चे उछल कर अपने अपने कपडे लेकर मामा की पीछे पीछे ट्यूबवैल की तरफ दौड़ लगा देते ,
खेत और ट्यूबवैल ज्यादा दूर नहीं थे बस ट्यूबवैल चलती और हम सभी बच्चे पानी की हौज में कूद पड़ते और फिर छपाक छैया करते समय का पता नहीं चलता था।
टयूबवेल पर एक दुमई (दो मूहं वाला सांप) भी रहता था जो अपने बिल से निकल कर आराम से धूप में लेटा रहता था, हमें उसका कोई ड़र नहीं था सब कहते थे कि ये हमारे देवता हैं और रक्षा करने के लिए यहां रहतें हैं।
हम सभी पानी में से तब निकलते थे जब या तो बिजली चली जाती थी या फिर घर से मौसी या मम्मी में से कोई डंडा लेकर नहीं आती थी,
ट्यूबवैल से हम सभी को खदेड़ कर घर लाया जाता, फिर खाने का दौर चलता था ,खाना चूल्हे पर बनता था कौन बच्चा कितनी रोटी, मक्खन, देसी घी, दही खा गया कुछ पता नहीं चलता होड़ मचती कौन ज्यादा खायेगा।
भोजन के बाद दोपहरी में छोटे बच्चों को डरा धमका कर सुला दिया जाता लेकिन जो बड़े थे कभी बाड़े, कभी दुकड़िया, कभी छत का चक्कर लगाते, इन्ही में से किसी एक को ततैया भी काट लेती और मुँह सुजा देती तो वह भी मनोरंजन का एक और साधन हो जाता था और अगर किसी की पिटाई हो रही है तो बाक़ी बालक मुँह दबा कर उसकी मखौल उड़ाते ,
बस इसी तरह शाम हो जाती शाम को फिर सभी एक बार फिर खेतों पर जाते थे।
दिन ढलने पर घर की कच्ची छत पर खुले में पानी का छिड़काव कर खाट - पलंग बिछ जाते थे एक लाइन से दस पन्द्रह बिस्तर लगते ,
उस समय की एक और बात मुझे याद आती हैं जब शाम को चूल्हा जलता था तो अक्सर एक दुसरे के घर से जलता हुआ उपला (जिसे आंच / करसी कहते थे) ले जाते थे उससे अपना चूल्हा जलाते थे,
मिट्टी के तेल की डिबिया या लालटैन की रौशनी में रात के खाने का एक लम्बा दौर चलता था नानी और मौसी मिलकर खाना चूल्हे पर ही बनाती थी।
रात्रि के भोजन के बाद सभी बच्चे थक हार कर छत पर खुली और ताज़ा हवा में अपने अपने बिस्तर कब्ज़ा लेते एक बिस्तर पर दो - तीन या जितने आ जाये उतने सैट हो जाते,
इतने में नानी या मौसी दूध लेकर आती सभी को एक एक गिलास भर के दूध और गुड देकर कहती की अब सब शांति के साथ सो जाओ,
इस समय तक सभी छोटे बड़े अपने अपने बिस्तर पर होते थे और फिर किस्से कहानियों का एक लम्बा दौर चलता था इन्ही किस्से कहानियों के बीच कौन सा बच्चा कब और किसके बिस्तर पर सो गया ये पता ही नहीं चलता था।
ननिहाल में हर रविवार के दिन घर पर एक नाई आते थे जिनका नाम हनीफ़ था उन्हें हम सभी बच्चे मामा कहते थे, वो बैठक के बरामदे में बैठ कर बड़ों की हज़ामत बनाते और जिस के भी बाल बड़े होते उन बच्चों की कटिंग भी करके जातें थे
हनीफ मामा एक दो बच्चों को गंजा (टकला) भी कर देते थे और गंजी चाँद पर टोला मार भाग जाने का आनंद अलग ही था वो भी एक और मनोरंजन का साधन बन जाता था।
लगभग यही दिनचर्या हर रोज की रहती थी फर्क सिर्फ इतना होता कि दिन में किसकी पिटाई होती है ये रोज की नई शैतानियों पर निर्भर करता था।
उस समय खूब बारिश होती थी और गांव की बसावट कुछ इस तरह थी कि बारिश के समय गांव का सारा पानी कच्चे रास्तों से बहते हुए खेतों के पास पीली मिट्टी की खदान (पीर खदान) थी उसमे जमा हो जाता था
मौसी और अन्य इसी पीर खदान से ही पीली मिट्टी खोद कर घर ले जाती थी जोकि हाथों को धोने और चूल्हे को , घर और छत को इसी पीली मिट्टी से लीपा जाता था।
इन्ही दिनों में गेहूं की फसल तैयार होती थी उस समय मशीन से गेंहू निकालने का साधन सभी के पास नहीं थे ऐसे में खेतों पर गेहूं की कटाई कर फैला देते और उस पर अपने बैलों की जोड़ी को गोल दायरे में चलाते रहते थे जिसे 'दांय' चलाना कहते थे,
हालांकि कुछ समय बाद बैलों से ही चलने वाली मशीन आ गयी थी जिसमे बहुत सारे नुकीले दाँतें बने होते थे, हफ़्तों ऐसा करने पर गेहूं के बाल भूसा में बदल जाते फिर उसी भूसे को बरसा कर गेहूं और भूसे को अलग कर लेते थे, गेंहू निकालने की इस लम्बी और थका देने वाली प्रक्रिया हमने देखा और एक किसान के संघर्ष को महसूस किया।
उस समय न टीवी था और ना ही स्मार्ट फोन लेकिन समय का पता ही नहीं चलता था कब दो महीने बीत जाते थे, ननिहाल में दिन भर घर में आने जाने वालों का मेला सा लगा रहता था,
पूरे गाँव में सभी , चाहे वह किसी भी जाति के क्यों न हो हो सभी बाबा, नानी , नाना , मामा , मौसी थे आपस में प्रेम , सहयोग, सम्मान और भाईचारा बेमिसाल था
बचपन में जिन मामा, मौसी और उनके बच्चों के साथ मस्ती में महीनों बिताते थे आज उन्ही से मिले हुए और बात किये हुए किसी से पच्चीस साल और किसी से बीस साल हो गए हर कोई अपने जीवन में शायद बहुत बड़े और बेहद व्यस्त हो गए हैं
फेसबुक पर तो सभी हैं अब तो एक दूसरे को वहीं देख लेते हैं , हालांकि कुछ ने तो ब्लॉक कर रखा है, अब रिश्ते फेसबुक की लाइक कमेंट पर निर्भर हो गए है।
लेकिन आज भी जब अपनी गाड़ियों में घूमते, देश विदेश की सैर करते हुए कभी न कभी तो अपने बचपन की बातों को, उन पलों को याद तो ज़रूर करतें होंगे, आज जब गाँव से निकल कर सभी ने शहरों में आलीशान मकान बना लिए हैं।
गांव में भी अब पक्के शानदार मकान हो गए हैं बेशक आज सड़कें , खड़ंजे , बिजली , टीवी , एसी और सभी के पास स्मार्ट फोन सहित अन्य अत्याधुनिक सुख सुविधाएँ तो आ गयी लेकिन रिश्तों में दूरियां , हर आदमी बहुत बड़ा हो गया है अपने आप में व्यस्त हो गया, आधुनिकता की इस दौड़ में वीरान होते गांवों में जल भराव, प्लास्टिक पालिथीन के साथ कचरे की दुर्गंध सहित अन्य सामाजिक बुराईयों ने अपनी जगह बना ली है।
शायद बचपन की वो बातें, यादें, हरियाली, अपनापन, परस्पर प्रेम और नानी के किस्से कहानियां समय के साथ कहीं खो गया लगता हैं।
बचपन में गांवों में बेशक आज के जैसी अत्याधुनिक सुख सुविधाएँ नहीं थी लेकिन शुद्ध पर्यावरण , हरा भरा वातावरण , शुद्ध और बिना रासायनिक खाद/ कीटनाशकों के शुद्ध जैविक साग - सब्जियां , खेत खलिहान, बाग़ बगीचों के बीच एक यादगार स्वस्थ जीवन था।
आज इतने वर्ष बीत गए देश विदेश की यात्राएं की लेकिन बचपन में जो यादगार पल ननिहाल में बिताए थे उनकी एक सुखद सौंधी महक आज भी यादों में रचीबसी हैं ।
डॉ विजय पंडित
मेरठ , उत्तर प्रदेश, भारत
संपर्क सूत्र +918006634266 भारत
00977 9829422803 नेपाल
#डाविजयपंडित
मेरठ लिटरेरी फेस्टिवल
24, 25, 26 नंवबर 2023
चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत
आयोजक : डा विजय पंडित
Email: [email protected]
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