Vinay Kumar
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KOLKATA 700074
KOLKATA 700014
I write on arts and I paint too.
पटना कलम
मैंने १९९४ में एक लेख लिखा था द टाइम्स ऑफ़ इंडिया में ;Why revive Patna Qalam.
पटना कलम एक ख़ास समय की उपज थी। जो कुछ कंपनी शैली और कुछ मुग़ल शैली और कुछ अपनी स्थानीयता के समन्वय से उपजी थी। भले ही ये एक ख़ास ज़रूरत के तहत बनारस कलम और लखनऊ कलम की तरह सामने आयी थी पर पर उसने एक ख़ास शैली तो विकसित की थी . ये परंपरागत कला बनते बनते रह गई।
पटना क़लम हमारा गौरवमय अतीत है उसे सहेजने और उससे सीखकर समकालीन कला यानी आधुनिक कलाओं में और आगे जाने की ज़रूरत है।
विसुअलआर्ट्स काफ़ी प्रोग्रेसिव है अन्य कलाओं की तुलना में । गुफा चित्र, अजंता एलोरा के चित्र, पट चित्र , मूर्तिशिल्प, टेराकोटा, मेटल कास्टिंग, मुग़ल पेंटिंग्स , पहाड़ी पेंटिंग्स , कंपनी पेंटिंग्स, केरल के मातनचेरी के म्युरल्स, तंजोर शैली, राजपूत शैली, वाश पेंटिंग्स और फिर मॉडर्न आर्ट्स , अमूर्तन , प्रिंटमेकिंग से लेकर एशियाई कला के आइकन सुबोध गुप्ता तक.
काफ़ी आगे बढ़ गई कला अब. अपनी पुरानी शैलियों को एप्रिसिएट करना सीखें , उनके एलीमेंट्स को ग्रहण करें , उन्हें सहेजें।
पटना कलम पर कार्यशालाएँ पटना कलम की विशेषताओं को जानने में रोल प्ले करेगा। पर उसके रिवाइवल की बात करना हमारी सीमाओं को दर्शाता है .
विज़ुअल आर्ट्स की दुनिया बहुत आगे बढ़ चुकी है भाई. थोड़ा कुएँ से बाहर आकर देखें तो पता चलेगा ।
थोड़ा उमाशंकर पाठक , मुरारी झा , अरविंद सिंह, नरेश कुमार , रंजिता , सचीन्द्रनाथझा , रवींद्र दास, नरेंद्रपाल सिंह , संजय कुमार, अरुण पंडित, अशोक कुमार , अनिल बिहारी, मिलन दास, अमरेश कुमार, भुनेश्वर भास्कर, आदर्श सिन्हाशत्रुघ्न ठाकुर , प्रभाकर आलोक, अभिजीत पाठक , राजेश राम , शिखा सिन्हा , उमेश कुमार की कला को देखिए , एक लंबी फ़ेहरिस्त है, जिनकी कला पटना कलम की परंपरा को आगे बढ़ाती हुई दिखती है यानी वे वह रच रहे हैं जो वो देख रहे हैं एक विशिष्ट नज़र से. एक विशिष्ट समय में.
Please do come.
श्याम शर्मा के अद्भुत प्रिंट
श्याम शर्मा के चित्रों की प्रदर्शनी पिछले दिनों दिल्ली के हैबिटाट सेंटर के विजुअल आर्ट गैलेरी में शुरू हुयी है। श्याम शर्मा छापाकला में देश में एक सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। यूं तो छापाकला (प्रिंट मेंकिग) में ही देश में बहुत कम कलाकार हैं। छापाकला के बहुत कम सक्रिय केन्द्र देश में बचे हैं। इनका बाजार भी अपेक्षाकृत कम है फलतः बहुत कम कलाकार छापाकला में आना चाहते हैं। ऐसे में श्याम शर्मा ने छापाकला में लगभग पचास वर्ष समर्पित कर दिए, वह भी एक माध्यम वुडकट में काम नहीं किया बल्कि छापाकला के अधिकतर माध्यमों को अपनाया, सृजन किए और उनके नए आयाम ढूंढ़े। अकेले काष्ठ छापाकला (वुडकट) में जितना सत्यान्वेषी तरीकों से सृजन किया, वह देश में अद्वितीय है।
अस्सी के दशक के श्याम शर्मा और आज के श्याम शर्मा में कोई फर्क नहीं है। वही अदम्य ऊर्जा, शक्ति व उत्साह वाले श्याम शर्मा। वही हँसकर, स्नेह दिखाते श्याम शर्मा। किसी भी युवा कलाकार के लिए अपने कलानुशासन और प्रतिबद्धता से आज भी सम्मोहित कर लेनेवाले श्याम शर्मा, आज भी सिर्फ और सिर्फ सृजन के एकांतिक राग में व्यस्त हैं। मिट्टी के ब्लॉक और प्लास्टर के ब्लॉक बनाकर प्रिंट निकालना, यह सिर्फ और सिर्फ श्याम शर्मा के वश की ही बात है।
श्यामजी अपने माध्यम और रूपाकारों के साथ खेलते हैं, खेल। उसका सुख लेते हैं। रंगों के साथ, स्पेस के साथ, फार्म के साथ कन्टेन्ट के साथ, सभी के साथ खेल, गम्भीरता व एकाग्रता के साथ उनका यह खेल बाल-सुलभ है। कोई भी दर्शक उस सौन्दर्यानुभूति के खेल से रसास्वादन कर सकता है। श्याम शर्मा की श्रृंखलाओं पर अब बात करें - प्रारम्भ में इन्होंने ‘अंडरग्राउंड नेचर’ श्रृंखला पर काम किया। दरअसल श्री श्याम शर्मा को प्रकृति शुरू से आकर्षित करती रही है। इसलिए इनकी कृतियों में प्रकृति, प्रकृति की रचनाएं, प्रकृति के फार्म सभी कुछ इनके कैनवास पर जादुई ढंग से अभिव्यक्त होती रही हैं। अंडरग्राउंड नेचर में लकड़ी के रूपाकारों को एवं खास स्पेस में संयोजित कर सुपरिचित रूपाकार में ढालकर धरती और व्योम के सौन्दर्य को प्रिंट किया है। इनके देशज रंगो के इस्तेमाल से शर्माजी का प्रकृति से जुड़ाव परिलक्षित करती है। ‘अर्थ एंड स्पेश’ श्रृंखला में श्यामजी का अमूर्तन से मूर्तन की तरफ शिफ्ट नजर आता है। यह श्रृंखला अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थी जिसमें चिड़िया, धरती, चट्टान को लेकर परम्यूटेशन और कॉम्बिनेशन के जरिए बेहतर स्पेस बैलेन्स वाले प्रिन्ट्स किए। जीवन, उसकी कोमलता, उसका खुरदुरापन सभी को उनके प्रिण्ट्स में महसूस किया जा सकता है। उसमें उनका सफेद स्पेस के प्रति प्रेम भी दीखता है। ये उनके खूबसूरत प्रिण्ट्स माने जाते हैं। बाद में उन्होंने ‘फूलों का जन्म‘ श्रृंखला में भी काफी प्रिण्ट किए। भीनबेटका के गुफा चित्रों का इनपर काफी प्रभाव पड़ा। जिसके कारण वृहताकार मानव आकृतियों का उन्होंने सृजन किया। इसी तरह इनकी कला पर फिनिस (फिनलैंड की यात्रा के दौरान) कलाकारों का भी प्रभाव देखा जा सकता है। ओला, जरीन, सुखी जैसे कलाकारों से ये प्रभावित भी हुए है। इस तरह उनके छापा चित्रों में रंगों का दबाव बढ़ा पर आकृतियाँ सरलतर होती गयी। इनके चित्रों में व्यंग्य का भी प्रवेश 1975 के बाद होता है। श्यामजी थियेटर में भी व्यंग्य को अपनाते हैं। टीन की तलवार जैसा नाटक मंचित करते हैं। उनके व्यंग्यपरक चित्रों में वेजीटेरीयन लायन, 1994 (वुड प्रिन्ट), न्यू क्रिटिसिज्म (वुड प्रिंट) 1994, ग्रेट एक्सपेक्टेशन (वुड प्रिन्ट) 1965, म्यूटेबल इमेजिनेशन (वुड प्रिन्ट) 1995, इनोसेन्ट स्नेक, इन्टलेकचुअल आउल, पैकिंग कल्चर प्रमुख हैं। वे दरअसल अपने परिवेश खासतौर पर राजनीतिक परिवेश के प्रभाव में रच रहे थे। श्यामजी की एक महत्त्वपूर्ण श्रृंखला है प्रकृति का स्पंदन, जिसमें प्रकृति के द्वारा रचित आकृतियों का उत्स ढूंढने की कोशिश करते हैं।
ये अधिकतर श्रृंखलाएं वुडकट प्रिन्ट थीं। पर वुडकट श्यामजी को कब तक बांधे रखती। श्यामजी ने एक नवीन प्रयोग किया। मिट्टी के ब्लॉक बनवाये और मिक्स्ड मीडिया में छापे लिये। कभी इस्लाम का प्रभाव, तो कभी बुद्ध का चित्रण तो कभी हिन्दू दर्शन। श्यामजी ने वेा सबकुछ रचा है जो मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए जरूरी समझा। उनके चित्रों में धरती, आकाश, चिड़िया, कीड़े, चीटियां, अपनी बुश्शर्ट, अपनी परंपरा, अपनी संस्कृति सभी कुछ हैं। आकांक्षा बस एक ही है कि मानवीय जीवन कैसे बेहतर हो, कैसे हम अंधेरे से उजाले में आ सकें, चाहे माध्यम जो हो। तमसो मा ज्योतिर्गमय। श्याम शर्मा के चित्रों का मूल यही है। श्याम शर्मा दरअसल तकनीक के कलाकार हैं। जहां पहले टूल्स हैं, इनके हाथ, शायद सृजन के सर्वप्रथम टूल भी यही थे। श्यामजी प्रोडक्शन के बजाय सृजन में ज्यादा विश्वास करते हैं। यही कारण है कि उनका स्टूडियो, स्टूडियो है कारखाना नहीं। वे बगैर किसी सहायक के खुद रचते हैं। कला के घोर बाजारीकरण के दौर में, जहां कला की दुनिया में संवेदनशीलता बची रहेगी और शायद इसी वजह से श्याम शर्मा जैसे कलाकार, जो निजी दीर्घाओं, कला समीक्षकों और कलाकारों के चल रहे नेक्सस से अलग रहकर सृजन कर रहे हैं, ही इस देश की कला के सच्चे संवाहक होंगे। स्कूली शिक्षा के लिए वे बाद में बरेली आ गए। वहां उनके पिता रहते थे। उनका एक प्रिंरटिंग प्रेस था। छापाकारी से श्याम शर्मा का यहां पहला प्रत्यक्ष परिचय हुआ। बरेली में ही लखनऊ आर्ट कॉलेज के कुछ छात्र-कलाकारों से परिचय हुआ। फलतः पिता की इच्छा के विरूद्ध श्याम शर्मा ने लखनऊ आर्ट कॉलेज में दाखिला लिया। जहाँ सुधीर खास्तगीर, जयकृष्ण अग्रवाल के सान्निध्य में कला की शिक्षा पायी। छापाकला की औपचारिक शिक्षा ली। हालांकि उसके निमित्त इन्हें बड़ौदा भी जाना पड़ा क्योंकि लखनऊ में प्रिटमेकिंग की पूरी सुविधा नहीं थी। लखनऊ में ही पढ़ाई के चैथे वर्ष में युवा श्याम शर्मा ने अपने वुडकट (काष्ठछापा) प्रिन्ट की एक प्रदर्शनी लगायी जिसका कैटलाग दिनकर कौशिक ने लिखा था। यह याद करते हुए श्याम शर्मा की आँखें नम हो जाती हैं। यह अपने गुरूओं के प्रति श्यामजी का समर्पण भाव था, यह ठीक वैसे है जैसे जब रजा मुंबई जाते हैं तो जे.जे. कॉलेज ऑफ आर्ट्स के अपने दिवंगत गुरू की पत्नी के पैर पकड़ कर दंडवत हो जाते हैं। उनकी यही विनम्रता उन्हें श्रेष्ठ बनाती है। उसके बाद श्याम शर्मा ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। राष्ट्रीय स्तर के उपरान्त अमरीकी, कैरो (मिस्त्र) मैसिडोनिया, ओमान, जापान, नीदरलैंड, सिचेल्स, टर्की जैसे देशों में वहाँ के त्रिनाले, बिनाले कला उत्सवों में भागीदारी की है। लखनऊ के बाद श्याम शर्मा पटना कॉलेज ऑफ आर्ट्स एवं क्राफ्ट में असिस्टेंट प्रोफसर नियुक्त हुए और यहीं से प्रिसिपल के रूप में सेवानिवृत हुए। श्याम शर्मा सुरूचिपूर्ण कलाकृतियों के लिए जाने जाते हैं। उनके वैयक्तिक अनुभव कागज और कैनवास पर आकर निवैंयक्तिक हो जाते हैं। उनका सृजन विशुद्ध कला का अन्यतम उदाहरण है। श्याम शर्मा के चित्रों से गुजरना वैसे ही है जैसे किशोरी अमोनकर या पंडित जसराज के आलाप को सुनना। इसलिए श्यामजी की कृतियां सांगीतिक ज्यादा है। श्यामजी अपनी कलाकृतियों को ठुमरी की तरह मानते हैं। आरोह और अवरोह। सुरूचिपूर्ण निनाद। कभी क्रांति गीत तो कभी कथात्मक। कभी अंधेरा तो कभी अंधेरों में उजाले की किरण, ठहरकर सांस लेने जैसा। रंगों का सीमित उपयोग। पर धीरे-धीरे रंगों का मोह छूटता गया। श्यामजी ने हाल में एक और दो रंगों में प्रिन्ट लिये। लोक तत्त्वों और अमूर्तन का सौन्दर्यात्मक सुख एक साथ श्याम शर्मा के चित्रों में लिया जा सकता है। उन्होंने अपने कलाजीवन की शुरूआत वुडकट टेक्सचर से की जो काफी आकर्षक होते थे। उसमें आकार, डेप्थ, सभी को विभिन्न आकारों में संयोजित किया। फिर उनहोंने ट्रंक के सेक्शन के प्रिंट फिर फ्लैट लकड़ी के गे्रडिएशन पर काम किया। इस तरह श्याम शर्मा विविधताओं से भरे लालित्यपूर्ण रचनाओं के कलाकार रहे है जिनके चित्रों से गुजरना एक अद्भुत अनुभव होता है।
ए. रामचन्द्रन की कलाः आधुनिकतावाद को खारिज करती एक सौन्दर्य-दृष्टि
रामचन्द्रन के चित्रों से गुजरना भारतीय वाङमय से गुजरने जैसा है। रामचन्द्रन के चित्रों को देखना भारतीयता का हिंसावलोकन करना है। रामचन्द्रन के चित्रों का अवलोकन भारतीय समाज के विकास का अवलोकन है। आप भारतीय सौन्दर्य-दृष्टि से भी परिचित होते हैं यानी समय और समाज के बदलाव के साथ-साथ रामचन्द्रन की कला भी विकसित होती नजर आती है। बदलाव का स्पन्दन रामचन्द्रन के कैनवस, प्रिण्ट और मूर्तिकला पर महसूस किया जा सकता है।
समकालीन भारतीय कला जिस तरह से पाश्चात्य कला की पिछलग्गू रही है और जिस तरह से तथाकथित एक अत्यन्त छोटे-से, औपनिवेशिक भारत के अवशेष, अंग्रेजों के आज भी मानसिक रूप से गुलाम अंगे्रजी बोलनेवाले कला समीक्षकों, कला दीर्घा के मालिकों ने भारतीय कला के घिनौने व बकवास परिदृश्य को भारतीय कला के रूप में दुनिया के सामने रखने की कोशिश की है उस निरर्थक आधुनिकतावाद को खारिज करती सौन्दर्य-दृष्टि है, रामचन्द्रन की कला। रामचन्द्रन की कलात्मक परिपक्वता के तार्किक कारण हैं, रामचन्द्रन की पारिवारिक और उनकी अकादमिक पृष्ठभूमि।
केरल के एक सुदूर कस्बे अट्टिगल में 1935 में जन्मे रामचन्द्रन के किशोरावस्था में शास्त्रीय संगीत की दस वर्षो तक औपचारिक शिक्षा ग्रहण की। बचपन में कृष्णस्वामी मन्दिर के भित्तिचित्रों ने इनके मानस पर गहरा असर किया। बाद में आपने मलयामल साहित्य में केरल विश्वविद्यालय से एम.ए. किया। उसके बाद साहित्यिक और शास्त्रीय गायन के क्षेत्र में काफी सक्रिय रहे। तिरूवन्तपुरम आकाशवाणी के लिए गाया भी। केरल विश्वविद्यालय के एक स्कॉलरशिप पर कला भवन शान्तिनिकेतन में नामांकन कराया और फाइन आर्ट की यह पढ़ाई 1961 में समाप्त हुई। यहाँ उन्होंने एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य किया और वह था, कला भवन के लिए मातनचेरी महल के कुमारसम्भव म्यूरल की कॉपी करना। इसके साथ इन्होंने केरल की सुदूर यात्राएँ कीं तथा वहाँ के म्यूरल पेंटग्स का सर्वे व डाक्यूमेंटेशन का काम किया। इस अध्यन का प्रभाव रामचन्द्रन की समग्र कला पर दिखता है। साहित्य और संगीत के अध्ययन के उनके व्यक्तित्व को समग्रता प्रदान की। मलयाली साहित्य के अध्ययन ने उन्हें तार्किक बनाया। इनके देखने, अवशोषण और रचनात्मक उद्गार में औरों से भिन्न दृष्टि इसी कारण बनी।
कला भवन, शान्तिनिकेतन इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा कि उनकी कला दृष्टि को बनाने में नन्दलाल बोस, रामकिंकर बैज जैसे कला आचार्यो ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। रामकिंकर बैज की वजह से इनकी दिलचस्पी सन्थालों के प्रति, आदिवासियों के प्रति बढ़ी। उन्होंने रामचन्द्रन को वह दृष्टि दी जो देशी सौन्दर्य के अवलोकन के लिए जरूरी थी। आदिवासियों में सौन्दर्य का मतलब था विशुद्ध भारतीय सौन्दर्य। रामचन्द्रन ने न सिर्फ देखा बल्कि उसकी नित नवीन व्यवस्था अपने चित्रों में करते रहे। चाहे वे झील हों या राजस्थान के सुदूर गाँवों के ग्रामीण। समकालीन भारतीय कला में भारतीय तत्त्वों का निषेध है। चाहे सुबोध गुप्ता हों या शिल्पा गुप्ता, जीतीश कलात हों या रियाज कोमू या कृष्णाचारी बोस हों सभी पाश्चात्य सौन्दर्यमुखी चित्रकार हैं।
रामचन्द्रन के विगत लगभग चार दशकों की कला-यात्रा पर एक विहंगम दृष्टि डाली जाए तो पाएँगे कि इनकी कला में सत्त विकास का एक ग्राफ दिखता है सत्त विकास के कारण यह सदैव परिवर्तनगामी रही है। साठ के दशक में यानी शान्तिनिकेतन छोड़ने और जामिया मिलिया इस्लामिया में आने के बाद इन्होंने अपने को विशुद्धतावादी बनाने का यत्न किया। एनाटॉमी, गेस्चर, ह्यूमन बाडी, मैन एण्ड सीटेड फीगर, होमेज आदि चित्रों के जरिए उन्होंने एनॉटॉमी, मानव शरीर के सौष्ठव, मांसपेशियाँ पर मास्टरी हासिल की। इसके साथ उस उम्र की स्वाभाविक जिज्ञासाओं के लिए कैनवास पर लगातार प्रयोग किए। रेखाओं, रंगों, आकृतियों, स्पेस सभी के साथ। स्त्री-पुरूष सम्बन्ध, माननीय सम्बन्ध को समझने का प्रयास किया। स्केवेंजर वूमन का पोट्रेट अभिजात्यवर्ग का सुधी दर्शक शायद एप्रीशिएट नहीं कर सकता था, पर रामचन्द्रन ने किया। उन्होंने ईसा को, गाँधी को चित्रित किया। लास्ट सपर को पुनः चित्रित किया। रामचन्द्रन के इस समय के अधिकतर चित्र हिंसा के विरूद्ध थे। एन काउण्टर, काली पूजा, मशीन, रिजरेक्शन ऐसे ही चित्र हैं। यह रामचन्द्रन का सामाजिक सरोकारों से राष्ट्रीय सरोकारों से जुड़ाव व उनके रचनात्मक/प्रतिक्रियाओं का प्रतिफलन था। ज्ञातव्य है कि उस दशक में भारत ने दो महत्त्वपूर्ण युद्ध भारत-चीन और भारत-पाक युद्ध को झेला था। रामचन्द्रन की रचनात्मक अभिव्यक्ति की पृष्ठभूमि में यह तात्कालिक परिवेश कहीं महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा था। इस समय रामचन्द्रन ने कुछ प्रिण्टमेकिंग (एचिंग) भी किया। इन कृतियों में द लवर्स, लास्ट सपर, स्केवेंजर वूमन का पोर्टेªट, क्रूसिफिकेशन, द क्राईस्ट महत्त्वपूर्ण हैं।
सत्तर के दशक में रामचन्द्रन की कला थोड़ी आगे बढ़ती है। यादवों का अन्त न्यूक्लिअर रागिनी, द चेज, ऑडिएन्स, सीलिंग जैसे समसामयिक विषयों का प्रवेश होता है। शहरी जीवन की भागमभाग, आतंक हिंसा उनके पसन्दीदा विषय रहे। पर सत्तर के दशक के अन्तिम वर्षों में परिवर्तन आने लगता है मिथकीय विषयों, नायकों नायिकाओं का प्रवेश होता है। जो अस्सी के दशक में परिपक्व होता है।
गान्धारी, अभिसारिका नायिका, विरहिणी नायिका जैसे नायिका श्रृंखला के चित्र, मिनिएचर श्रृंखला, द फ्लाई, द डाइंग बहादुरशाह जफर, बास्को डी गामा, सीटेड वूमन, मदर टेरेसा जैसे चित्रों के जरिए रामचन्द्रन का क्रमिक शिफ्ट दिखता है। इनके जरिए रामचन्द्रन सत्यान्वेषी तरीकों का इस्तेमाल करके ऐतिहासिक विषयों का समकालीन बनाते हैं। पर मिथकीय चरित्रों का कैनवस पर उभरना जातीय स्मृति का रंगीन अंकन माना जाना चाहिए।
अस्सी के दशक का उत्तरार्ध रामचन्द्रन का नया प्रवेश है। आँधी, ययाति, ऊषा, मध्याह्न, सन्ध्या डांसिंग वूमन, नीयर लोटस पौंड, ऑरेंज लोटस पौंड, लोटस पौंड के जरिए रामचन्द्रन भारतीय मिथ में प्रवेश कर जाते हैं। ये चित्र काल के लिए आघात की तरह हैं। अपनी चित्रभाषा दृश्यता, स्वप्नशीलता और उत्कृष्ट व उदात्त रंग-योजना के कारण भारतीय कला दर्शकों को अभिभूत कर जाते हैं। ये मिथकीय आख्यान लोक जड़ो से गहरे जुडे़ होने के कारण संवादपरक भी हैं।
नब्बे के दशक में रामचन्द्रन का सम्पूर्ण कला व्यक्तित्व निखर जाता है। अपनी खास सांगीतिक चित्र शैली को रामचन्द्रन आविष्कृत करते हैं। इस चित्र शैली में भारतीय सौन्दर्य परम्परा, भारतीयता, भारतीय विचारधारा की गूँज-अनुगूँज जादुई ढंग से सुनाई पड़ती है। रामचन्द्रन ने ययाति, उर्वशी, गान्धारी कुन्ती, कूर्मावतार, रामदेव, मानसरोवर, ऊषा, सन्ध्या सभी का पुनराविष्कार किया है। ये चरित्र संवादपरक है।
रामचन्द्रन की समूची कला यात्रा को देखें तो पाते हैं कि उनकी संवेदनशीलता लगातार विस्तार पाती रही है। न्यूक्लियर रागिनी का 1975 में सृजन हुआ जिसका विस्तार हम जेनेसिस ऑफ कुरूक्षेत्र (2005) में पाते हैं। हिरोशिमा में न्यूक्लियर विस्फोट, बंगाल में नक्सलवादी हिंसा और पोखरन न्यूक्लियर विस्फोट के बाद न्यूक्लियर रागिनी का विकास हुआ। उक्त चित्र में एक रागिनी नायिका का एक आईना दिखाया जा रहा है। जिसमें उसके खूबसूरत चेहरे के बजाय चेहरे का कंकाल ही दिख रहा है। यह आण्विक युग की सच्चाई दिखाता है। इसकी जड़ें तलाशने रामचन्द्रन जा पहुँचते हैं कुरूक्षेत्र। जिसमें वे कुन्ती और गान्धारी के जरिए, चैपड के जरिए महाभारत के युद्ध की जड़ें तलाशने का प्रयास करते हैं।
मानसरोवर श्रृंखला (1997), कमल सरोवर श्रृंखला में कमल वाले तालाबों का अद्भुत चित्रण रामचन्द्रन ने किया है। ये दरअसल रामचन्द्रन के बचपन की स्मृतियाँ हैं जिसने उन्हें सम्मोहित कर रखा है। उनके केरल के कस्बे अट्टिगल की स्मृतियाँ हैं। जिसका प्रसव मानसरोवर श्रृंखला में परिपक्व रूप में हुआ पाते हैं। जिस पर मिथकीय आवरण भी दिखता है। कमल का सरोवर में अलग-अलग काल में अलग रूप दिखता है। कृष्ण के बाँसुरी के साथ सरोवर में उड़ते कीटों का अद्भुत चित्रण है यहाँ। कीट के बहाने सरोवर और कमल की अद्भुत सौन्दर्यपरक व्याख्या का अन्यतम उदाहरण है यह।
प्रकृति से रामचन्द्रन का लगाव अनायास नहीं है। बंगाल और केरल की प्राकृतिक छटा का असर होना ही था। चाहे महुआ हो या कदम्ब, पलाश हो या कंचन उसकी पत्तियाँ, उसके फल, उनसे लगे फूल और बेल-बूटे सभी अपने बाह्य और अन्तरजगत की सुन्दरता के साथ कैनवास पर मौजूद होते हैं। रामचन्द्रन का एक रूप और है, आदिवासी चरित्रों को मिथकीय चरित्रों में अभिव्यक्त करना। राजस्थान से रामचन्द्रन का गहरा जुड़ाव रहा है। हरेक यात्राओं में उन्होंने भीलों का, भील कन्याओं, मजदूरों का रेखांकन किया है। ‘हन्ना और उसकी बकरियाँ‘ ऐसे चित्रों में प्रमुख हैं। हन्ना उन्हीं भील लड़कियों में एक थी जिनके लिए रामचन्द्रन स्नेह से मुक्त हो पाने की असमर्थता जताते हैं (रूपिका चावला एक निबन्ध में) ‘कूर्मावतार के साथ सविता‘ बनेश्वर मेला के मार्ग पर ‘नागन्धा पर पुनर्जन्म, सुखा का व्यक्ति चित्र, रत्नी का व्यक्ति चित्र, कमला का व्यक्ति चित्र, लोगर का व्यक्ति चित्र, अहल्या पीले में, युवा दुल्हन के रूप में सोल्की, जमुना/हन्ना और अमलताश, एक नयनी, सुन्दरी का व्यक्ति चित्र ऐसे ही प्रमुख चित्र हैं।
भीलों और सन्थालों के चित्रण के साथ रामचन्द्रन के चित्रों में आम आदमी स्थापित होता है। भीलों की ओर ध्यान आकृष्ट करने में रामचन्द्रन के चित्रों की भूमिका अहम रही है। यह आम आदमी सुबोध गुप्ता के आम आदमी से एकदम भिन्न है। सुबोध का आदमी जहाँ अभिजात्य वर्ग के बीच एक गुलाम हिन्दुस्तानी की तरह अभिव्यक्त होता है वहीं रामचन्द्रन का आम आदमी अपनी गरिमा का पुनः स्थापन पाता है। एक कला समीक्षक ने सही लिखा है कि वे समकालीन कला में उपेक्षित और वंचित जनों की सुधियों के कलाकार हैं।
रामचन्द्रन के अधिकतर चित्र तैल माध्यम से सृजित हैं। इसके साथ इन्होंने जल रंग और मूर्तिशिल्प में भी कार्य किया है। जल रंगों में भी रामचन्द्रन का सौन्दर्य-बोध पूरी शक्ति के साथ अभिव्यक्त होता है। गीत गोविन्द पर आधारित मानसरोवर श्रृंखला (1997), अज्ञात की मिथकीय यात्रा (1996), इन्कारनेशन श्रृंखला (1995), कदम्ब का पेड़ और नन्दी साँड़ (1995), नागलिंग का पेड़ (1995), बाकर्स एट लिलि पौंड (1995), नागदा में मत्स्य अवतार (1996), मत्स्य अवतार (1996), बनेश्वर मेला से सम्बन्धित चित्र (1998), रामदेव (1998), तूतीनामा श्रृंखला (1999), कमल का चुनना (2002) से लेकर ध्यान चित्र श्रृंखला (2007) तक रामचन्द्रन के जलरंगों का विस्तार है।
चित्रकार रामचन्द्रन की रचनात्मकता का विस्तार विगत वर्षो में मूर्तिशिल्प और इन्स्टॉलेशन में भी हुआ है। गर्ल विथ वाटर लिलिज, इन ट्रान्स, दल गर्ल विथ प्लांट एण्ड इन्सेक्ट्स, ब्राइड ट्वायलेट (2004), जेनेसिस ऑफ कुरूक्षेत्र (2005), बहुरूपी (2006) इनके महत्त्वपूर्ण मूर्तिशिल्प हैं। जेनेसिस आफ कुरूक्षेत्र के बहाने महाभारत के उत्स ढॅूढ़ने का प्रयास करते हैं रामचन्द्रन, तो बहुरूपी तक आते-आते रामचन्द्रन की सम्पूर्ण कला दृष्टि एक उच्चतम शिखर तक पहुँच जाती है यानी ध्यानस्थ रामचन्द्रन, बकरी में तो कभी स्त्री के पैरों के नीचे, कभी आईना दिखाते तो कभी मुखलिंग के रूप में रामचन्द्रन सभी जगह मौजूद होते हैं, एक समवेत् दृष्टि के साथ।
वर्तमान समकालीन कला में पश्चिम से आक्रांत भारतीय कलाकारों के मध्य रामचन्द्रन हमेशा ऐसे प्रकाश स्तम्भ की तरह रहेंगे जो अपने सृजन में कलात्मक व प्रगतिशील मानवीय मूल्यों के कारण सबसे अलग हैं।
प्रो बी एन गोस्वामी का जाना भारतीय कला इतिहास के लिए बहुत दुखद क्षण है . पहाड़ी कला य़ा यूँ कहें भारतीय कलाओं पर उनका लेखन एक स्कूल की तरह है . उनके इलष्ट्रेटेड व्याख्यान तो सम्मोहित करने वाले होते थे . मैं जब भी उनसे मिला मुझे उन्होने अपने बड़े होने का अहसास कभी भी नहीं होने दिया . बिहार को हमेशा याद किया .
उनका बिहार कनेक्सन भी था . अपने करियर की शुरुआत उन्होने बिहार से ही की थी . अपने भारतीय प्रशासनिक सेवा के शुरुआती वर्ष बिहार मे ही गुजारे थे. बाद मे इस्तीफा देकर वे कला इतिहास के सहायक प्रोफेसर बने .
उनका निधन भारतीय कला इतिहास के लिए अपूरणीय क्षति है . विनम्र श्रद्धांजलि .
Vinay kumar संगमन २५ में विनय कुमार का वक्तव्य
यह वो पत्र है जो मैने 1989 मे कलाकारों की संस्था प्राची के गठन के लिए लिखा था . जिसके बाद हमने नन्दलाल बसु कला दीर्घा की स्थापना की ओर कैनवस पत्रिका छापी . तब हम सब टीनएजर ही थे .
I have reached 700 followers! Thank you for your continued support. I could not have done it without each of you. 🙏🤗🎉
सीतामढ़ी डायरी
सीतांमढ़ी का सांस्कृतिक परिदृष्य उपेक्षित सा रहा है . खासकर यहां की कलायें ; म्यूरल , मिथिला चित्रकला , सिक्की , टेराकोटा, कभी कभार घुमने के क्रम मे जो मुझे दिखा , वो मैने लिखा . मिथिला की कला का विस्तार यहां मिलता है। खासकर चौरौत और सुरसंड के इलाके में . सीतामढ़ी के अल्प प्रवास के दौरान मुझे इन्हें देखने का अवसर मिला . झलक देख लें . विस्तार से तो अलग से लिखूँगा .
सुरसंड के कोरियाही ग्राम मे युवा चित्रकार तृप्ता झा से मिला . उन्होने अपने चित्र दिखाये .
कोरियाही ग्राम की ही मुक्ता , अनिसा , आयुषी , आरती , काजल , मेघा , सुप्रिया जैसी युवा चित्रकारों ने सीतामढ़ी को मुख्य धारा में लाने की कोशिश की है . सुदूर में रहकर काम करना आसान नहीं है . इसी तरह सिक्की मे शैल देवी , चमेली देवी , मीना देवी ,चन्द्रकला देवी , रूबी देवी जैसी कलाकार जैसा जीती हैं वो ही रचती हैं .
थोड़ा आप भी देखें .
आनन्दी प्रसाद बादल बिहार के महत्वपूर्ण कलाकार हैं . बिहार के सबसे बुजुर्ग कलाकार ज़िनका एक भी दिन ऐसा नही बीतता है जब कई पेंटिंग रच नहीं लेते . आप बादल हैं ; हमेशा बरसने वाले . उपेन्द्र महारथी ने सही लिखा है कि बादल अपने नाम की सार्थकता सिद्ध कर कला जगत को अपनी प्रतिभा के प्रभाव से रससिक्त कर रहे हैं . कला जगत को अपना सबकुछ अर्पण कर दिया . गांधी वाद की परम्परा के अकेले चित्रकार हैं बिहार में .
आपने टेंपरा , वाश , जल रंग , तैल रंग , सभी माध्यमों मे आपने काम किया है . रंगों के साथ खेलते हुये रच देते हैं कला की एक गंभीर दुनिया . कभी लोक चित्रों का प्रभाव तो कभी समकालीन कला भाषा का उपयोग .
नेचर , सौंदर्य , मदर एंड चाइल्ड , नेचर एंड वूमन , ट्रायीब , शंकर , फैमिली , शकुंतला , कोरोना , मगध सब विषय आम लोगो के हैं इनके यहां .
रही बात शबीह - चित्रण की तो बिहार के श्रेष्ठ कलाकार आज भी हैं . ज्ञान बांटने में कभी पीछे नहीं रहे .
आज वे 95वें वर्ष मे प्रवेश कर रहे हैं . इस उम्र में भी युवाओं सा उत्साह लेकर सृजनरत बादल जी से अभी भी ढेर सारी काव्यात्मक और लालित्यपूर्ण कलाकृतियों की अपेक्षा है .
Rare mural on a mud wall found in Betahi village in Sitamarhi district of Bihar. It is a house of late Parikshan lohar.
अपनी - अपनी क्रिएटिव इकोलॉजी ; लेट्स टूगेदर
प्रकृति से ही कला उद्भूत हुयी है। हम जब भी किसी जिज्ञासा से, परेशानी से , द्वंद्व से जूझते हैं, उनका उत्तर चाहते हैं , हम प्रकृति के पास जाते हैं। वही हमारा उद्गम स्थल है , वही हमारा अंत है , हमारे सभी सवालो का जवाब उनमे ही छिपा है। कला विज्ञानं साहित्य सभी पहले से ही इकोलॉजी पर आसन्न संकट पार पाने की कोशिश कर रहे हैं। पर हमारी घोर इकोलॉजिकल विरोधी गतिविधियों के कारण प्रकृति ने जवाब देना शुरू कर दिया है। हमारी धरती टिपिंग पॉइंट पर खड़ी है चाहे बात भारतीय मानसून में परिवर्तन का हो या अमेजॉन वर्षा वनों का नष्ट होना हो या पर्माफ्रॉस्ट गलन से होनेवाले परमफ्रॉस्ट लॉस का हो या प्रवाल भित्तियों का नष्ट होना हो या ग्रीनलैंड में बर्फ का पिघलना हो या सदी की त्रासदी कोरोना वायरस से उत्पन्न महामारी हो। ये वैश्विक खतरे हैं जिनके प्रति हम उदासीन हैं एक व्यक्ति होने के नाते। ये सही है कि कई प्रश्नो के लिए अंतर्राष्ट्रीय कोशिशों कि जरुरत है, कोशिशें हो भी रही हैं पर जब इसका शिकार एक व्यक्ति होता है तो जवाब भी वैयक्तिक होने और देने कि जरुरत है। कोरोना के असर से आज भी दुनिया उबरी नहीं है। सबके साथ कलाकार भी शिकार हुए हैं बल्कि ज्यादा हुए हैं। कलाकार इसपर रेस्पोंद भी कर रहे हैं। ऐसा ही एक छोटा किन्तु महत्वपूर्ण रेस्पोंस है , लेट्स टुगेदर।
पेड़ पौधे, वन , मिटटी के कारण हम क्रियेटिव हैं और हम क्रियेटिव अभिव्यक्ति करते रहते है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की मुहरें हों , ऋग्वेद कि ऋचाएं हों, सनातन मिथ में पीपल का वृक्ष हो, बौद्ध का बोधि वृक्ष हो , इस्लाम का बोलता वृक्ष हो सुबोध गुप्ता का पेड़ हो, गुलाम मोहम्मद शेख का पीपल हो , अनिंदिता दत्ता की क्ले पर्फॉर्मन्सेस हों , अजय शर्मा की परफॉर्मेंस हों, नरेश कुमार की ब्लैक राइस से जुड़े आर्टवर्क्स हों , जर्मन कलाकार एंसलम कीफर की सीधे मिटटी से किये जानेवाले राजनितिक महत्व की कृतियां हों या वॉटर दे मारिया का अर्थ रूम हो या डाक्यूमेंट -१३ में प्रदर्शित क्लेयर पेंटेकोस्ट का सॉइल अर्ग हो या सभी किस्म की टेराकोटा और सेरामिक हों हर जागर धरती है , मिटटी है, पर्यावरण है और इकोलॉजी है।
ऐसे में ओपन स्टूडियो / लेट्स टुगेदर नामक बिहार की युवा कलाकारों की प्रदर्शनी एक सुखद अनुभूति कराती है। महामारी से जूझती दुनिया में कलाकारों की रस्ते अवरुद्ध है। सारे सपोर्ट सिस्टम समाप्त हैं। आर्ट पैरामीटर और मृण्मय कलेक्टिव की संयुक्त प्रयास से ३० सितम्बर से ८ अगस्त तक पटना से २५ किलोमीटर दूर बिहटा की गाओं सिकंदरपुर में प्रकृति से सीधे मटेरियल लेकर कलाकृति रचने की लालित्यपूर्ण कोशिश की गयी। रमाकांत भगत , नीतीश कुमार , नितेश कुमार रजक , राकेश कुमुद , अजित कुमार, धनञ्जय कुमार , विक्की कुमार , प्रमोद कुमार सबने अपनी अपनी रचनात्मक इकोलॉजी को रचा।
नीतीश कुमार शांतिनिकेतन से प्रशिक्षित हैं। शुरू से नैचुरली उपलब्ध सामग्रियों का उपयोग कर वे कला की दुनिया रचते हैं। यहाँ उन्होंने एक पुराने कुएं और बांस की सुखी टहनियों की सहारे एक तिलस्म रच दिया जो हमारे क्लिष्ट इकोसिस्टम को दर्शाता हैं। इसके पूर्व उनकी बोधगया बिएन्नाले में रचित टहनियों और साइकिल , पटना आर्टिस्ट रेजीडेंसी में गलियों की पुराणी इमारत की ईंटों की डस्ट से इंस्टॉलेशन रचा था। त्रिपुरा विश्वविद्यालय से मास्टर्स रमाकांत भगत का फ्रेम प्रकृति को कलाकार की फ्रेम से देखने की अद्भुत कोशिश हैं। प्रकृति का साक्षात् दर्शन ही वास्तविक सौन्दर्यानुभूति हैं कुछ ऐसा ही महसूस हुआ।रमाकांत की उच्च शिक्षा त्रिपुरा से हुयी है जहाँ नेचर से तथा बांस से काम की प्रचरता है यह प्रभाव रमाकांत की पहल में दीखता है राकेश कुमुद भी शांतिनिकेतन से प्रशिक्षित हैं , उनके बांस और रस्सी से बने गए ख़ातियानुमा आर्टिस्टिक एक्सप्रेशन गुरुदेव की द्वारा स्थापित प्रकृति में रहने की परंपरा की अनुरूप ही हैं। खैड़ागढ़ से मास्टर्स मुकेश कुमार का खलिहान से इकट्ठा किये गए खर पतवारों से निर्मित मानवाकृति प्रकृति और कोरोना की मार झेलता , आपको सहज अपने से जोड़ लेता है। पटना आर्ट कॉलेज से स्नातक प्रमोद कुमार ने सी सॉ की जरिए ये दिखने की कोशिश की है की नैचुरली उगे , अस्तव्यस्त प्राकृतिक सिस्टम व्यवस्थित पर हमेशा से भारी है। रचनात्मकता हो या की इकोलॉजी , उसमे आर्डर में होना डाइवर्सिटी की विरुद्ध है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से मास्टर्स विक्की कुमार का बांस की सहायता से क्षैतिज सीढ़ीनुमा नेचुरल और आकर्षक वास्तुविदीय संरचना उपस्थित करता है। इसी तरह जम्मिया से मास्टर्स धनञ्जय कुमार की कृति एक संवाद का स्पेस अभिव्यक्त करता है। अजित कुमार की कृति वर्तमान भौतिकवादी समाज की सीधी - सीधी रेखा की विपरीत प्रकृति की सर्पीली चाल को दर्शाती है। जहाँ मस्ती है। नितेश कुमार रजक की कृति मौली य़ानी कच्चे धागे से रचित एक अद्भूत बोलता बिंब उपस्थित करता है. एक बेलंनाकार विरल से सघन और फिर विरल होने का एहसास . प्रकृति से उद्भव और उसीमे विलीन होने का फलसफा . आपको थोड़ा विचलित भी कर देगी .
लेट्स टूगेदर वर्तमान में महामारी जनित कला जड़ता को खत्म करता , एक सुखद प्रयास और अहसास है।
पटना की महत्वपूर्ण इमारतें
कदम ए रसूल मस्जिद
पिछले दिनों कार्यवश पटना सिटी के पूर्वी छोर पर जाने का मौका मिला। दीदारगंज के आप करीब हों , यक्षिणी की याद न आये , और इतिहास आपको दस्तक न देने लगे ऐसा नहीं हो सकता है। मौर्यकालीन ही क्या प्राचीन कला और क्लासिकल आर्ट की प्रतिनिधि कलाकृति है यक्षिणी। दीदारगंज जा पहुंचे। मुख्य सड़क से लगभग एक किलोमीटर अंदर गंगा के तट पर मिली थी मूर्ति। फिर उसे उठाकर लोगों ने उसे कदम ए रसूल मस्जिद में रखवा दिया गया। वहीँ देखने को मिला कदम ए रसूल मस्जिद। उत्सुकतावश जानकारी लेने जब अंदर गया तो वहां मो अरमान से भेंट हुयी उन्होंने हमें मस्जिद अंदर से देखने का न्योता दिया। उत्तरमुग़लकालीन वास्तुशिल्प का नायाब उदहारण है यह मस्जिद इसका निर्माण हज़रत सैय्यद शाह मुहम्मद नूर नुक्से के द्वारा कराया गया th। कदम ए रसूल का मतलब है पैगम्बर मोहम्मद साहेब के पैरों की छाप। कहते हैं की बहुत जगहों पर मक्का से लौटनेवाले लोग पत्थरों पर पैगम्बर साहेब की छाप को साथ लेकर आय। मस्जिद की भीतर तक़ में रखे कदम की निशान आप देख सकते हों। स्थानीय निवासी जन सहयोग से मस्जिद का जीर्णोद्धार कार्य किया जा रहा है दिल्ली , कटक , गौर ( लखनौती ) बहराइच , अहमदाबाद और पटना में ये खास मस्जिद हैं। इनके आर्च वास्तुशिल्प का अद्भुत उदहारण प्रस्तुत करती हैं। अगर आपकी दिलचस्पी इतिहास में है तो दोनों का अवलोकन किया जाना अपेक्षित है।
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