Kundlini Jagran & YOGA
Contact information, map and directions, contact form, opening hours, services, ratings, photos, videos and announcements from Kundlini Jagran & YOGA, Medical and health, Sirsa.
==============================
कुंडलिनी योग :: चक्र -नाड़ियाँ और विधियाँ
==============================
कुंडलिनी शक्ति समस्त ब्रह्मांड में परिव्याप्त सार्वभौमिक शक्ति है जो प्रसुप्तावस्था में प्रत्येक जीव में विद्यमान रहती है। इसको प्रतीक रूप से साढ़े तीन कुंडल लगाए सर्प जो मूलाधार चक्र में सो रहा है के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। तीन कुंडल प्रकृति के तीन गुणों के परिचायक हैं। ये हैं सत्व (परिशुद्धता), रजस (क्रियाशीतता और वासना) तथा तमस (जड़ता और अंधकार)। अर्द्ध कुंडल इन गुणों के प्रभाव (विकृति) का परिचायक है। कुंडलिनी योग के अभ्यास से सुप्त कुंडलिनी को जाग्रत कर इसे सुषम्ना में स्थित चक्रों का भेंदन कराते हुए सहस्रार तक ले जाया जाता है।
नाड़ी : नाड़ी सूक्ष्म शरीर की वाहिकाएँ हैं जिनसे होकर प्राणों का प्रवाह होता है। इन्हें खुली आँखों से नहीं देखा जा सकता। परंतु ये अंत:प्राज्ञिक दृष्टि से देखी जा सकती हैं। कुल मिलाकर बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं जिनमें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना सबसे महत्वपूर्ण हैं। इड़ा और पिंगला नाड़ी मेरुदंड के दोनों ओर स्थित sympathetic और para sympathetic system के तद्नुरूप हैं। इड़ा का प्रवाह बाई नासिका से होता है तथा इसकी प्रकृति शीतल है। पिंगला दाहिनी नासिका से प्रवाहित होती है तथा इसकी प्रकृति गरम है। इड़ा में तमस की प्रबलता होती है, जबकि पिंगला में रजस प्रभावशाली होता है। इड़ा का अधिष्ठाता देवता चंद्रमा और पिंगला का सूर्य है।
यदि आप ध्यान से अपनी श्वांस का अवलोकन करेंगे तो पाएँगे कि कभी बाई नासिका से श्वांस चलता है तो कभी दाहिनी नासिका से और कभी-कभी दोनों नासिकाओं से श्वांस का प्रावाह चलता रहता है। इंड़ा नाड़ी जब क्रियाशील रहती है तो श्वांस बाई नासिका से प्रवाहित होता है। उस समय व्यक्ति को साधारण कार्य करना चाहिए। शांत चित्त से जो सहज कार्य किए किए जा सकते हैं उन्हीं में उस समय व्यक्ति को लगना चाहिए।
दाहिनीं नासिका से जब श्वांस चलती है तो उस समय पिंगला नाड़ी क्रियाशील रहती है। उस समय व्यक्ति को कठिन कार्य- जैसे व्यायाम, खाना, स्नान और परिश्रम वाले कार्य करना चाहिए। इसी समय सोना भी चाहिए। क्योंकि पिंगला की क्रियाशीलता में भोजन शीघ्र पचता है और गहरी नींद आती है। स्वरयोग इड़ा और पिंगला के विषय में विस्तृत जानकारी देते हुए स्वरों को परिवर्तित करने, रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त करने के विषय में गहन मार्गदर्शन होता है। दोनों नासिका से साँस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है।
सुषुम्ना नाड़ी : सभी नाड़ियों में श्रेष्ठ सुषुम्ना नाड़ी है। मूलाधार (Basal plexus) से आरंभ होकर यह सिर के सर्वोच्च स्थान पर अवस्थित सहस्रार तक आती है। सभी चक्र सुषुम्ना में ही विद्यमान हैं। इड़ा को गंगा, पिंगला को यमुना और सुषुम्ना को सरस्वती कहा गया है। इन तीन नाड़ियों का पहला मिलन केंद्र मूलाधार कहलाता है। इसलिए मूलाधार को मुक्तत्रिवेणी (जहाँ से तीनों अलग-अलग होती हैं) और आज्ञाचक्र को युक्त त्रिवेणी (जहाँ तीनों आपस में मिल जाती हैं) कहते हैं।
चक्र : मेरुरज्जु (spinal card) में प्राणों के प्रवाह के लिए सूक्ष्म नाड़ी है जिसे सुषुम्ना कहा गया है। इसमें अनेक केंद्र हैं। जिसे चक्र अथवा पदम कहा जाता है। कई नाड़ियों के एक स्थान पर मिलने से इन चक्रों अथवा केंद्रों का निर्माण होता है। गुह्य रूप से इसे कमल के रूप में चित्रित किया गया है जिसमें अनेक दल हैं। ये दल एक नाड़ी विशेष के परिचायक हैं तथा इनका अपना एक विशिष्ट स्पंदन होता है जिसे एक विशेष बीजाक्षर के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। इस प्रकार प्रत्येक चक्र में दलों की एक निश्चित संख्या, विशिष्ट रंग, इष्ट देवता, तन्मात्रा (सूक्ष्मतत्व) और स्पंदन का प्रतिनिधित्व करने वाला एक बीजाक्षर हुआ करता है। कुंडलिनी जब चक्रों का भेदन करती है तो उस में शक्ति का संचार हो उठता है, मानों कमल पुष्प प्रस्फुटित हो गया और उस चक्र की गुप्त शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं।
(नोट :- मूलत: सात चक्र होते हैं:- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार)
कुंडलिनी योग का अभ्यास : सेवा और भक्ति के द्वारा साधक को सर्वप्रथम अपनी चित्तशुद्धि करनी चाहिए। आसन, प्राणायाम, बंध, मुद्रा और हठयोग की क्रियाओं के अभ्यास से नाड़ी शुद्धि करना भी आवश्यक है। साधक को श्रद्धा, भक्ति, गुरुसेवा, विनम्रता, शुद्धता, अनासक्ति, करुणा, प्रेरणा, विवेक, मानसिक शांति, आत्मसंयम, निर्भरता, धैर्य और संलग्नता जैसे सद्गुणों का विकास करना चाहिए। उसे एक के बाद दूसरे चक्र पर ध्यान करना आवश्यक है। जैसा कि पूर्व पृष्ठों में बताया गया है उसे एक सप्ताह तक मूलाधारचक्र और फिर एक सप्ताह तक क्रमश: स्वाधिष्ठान इत्यादि चक्रों पर ध्यान करना चाहिए।
विभिन्न विधियाँ : कुंडलिनी जागरण की विभिन्न विधियाँ हैं। राजयोग में ध्यान-धारणा के द्वारा कुंडलिनी जाग्रत होती है, जब कि भक्त से, ज्ञानी, चिंतन, मनन और ज्ञान से तथा कर्मयोगी मानवता की नि:स्वार्थ सेवा से कुंडलिनी जागरण करता है।
कुंडलिनी अध्यात्मिक प्रगति मापने का बैरोमीटर है। साधना का चाहे कोई मार्ग क्यों न हो, कुंडलिनी अवश्य जाग्रत होती है। साधना में प्रगति के साध कुंडलिनी सुषम्ना नाड़ी में अवश्य चढ़ती है। कुंडलिनी का सुषुम्ना में ऊपर चढ़ने का अर्थ है चेतना में अधिकाधिक विस्तार। प्रत्येक केंद्र प्रयोगी को प्रकृति के किसी न किसी पक्ष पर नियंत्रण प्रदान करता है। उसे शक्ति और आनंद की प्राप्ति होती है। कुंडलिनी जागरण के लिए कुंडलिनी प्राणायाम, अत्यन्त प्रभावशाली सिद्ध होते हैं। कुंडलिनी जब मूलाधार का भेदन करती है तो व्यक्ति अपने निम्नस्वरूप से ऊपर उठ जाता है। अनाहत चक्र के भेदन से योगी वासनाओं (सूक्ष्म कामना) से मुक्त हो जाता है और जब कुंडलिनी आज्ञाचक्र का भेदन कर लेती है तो योगी को आत्मज्ञान हो जाता है। उसे परमानंद अनुभव होता है।................................................................हर-हर महादेव
श्री हनुमान रक्षा शाबर कवच
=======================
हनुमान जी के कुछ सिद्ध मन्त्रों के प्रयोगहनुमान जी की किसी भी मंत्रजप से पहले निचे दिए कवच को सिद्ध करले |
उनके किसी भी मंत्रजप से पूर्व स्वयं की रक्षा के लिए इस कवच को पड़कर अपने छाती पर फूक मारें फिर आप उनके किसी भी मंत्र का अनुष्ठान कर सकते है ।
हनुमान जी के किसी भी मंत्र की साधना के पहले हनुमान जी को चोला चढ़ाएं । रक्षा के लिए गुरु से प्राप्त किसी भी हनुमन्मंत्र का उपयोग कर सकते हैं।
रक्षा-कारक शाबर मन्त्र {कवच }:-
“श्रीरामचन्द्र-दूत हनुमान !
तेरी चोकी – लोहे का खीला, भूत का मारूँ पूत ।
डाकिन का करु दाण्डीया । हम हनुमान साध्या ।
मुडदां बाँधु । मसाण बाँधु । बाँधु नगर की नाई ।
भूत बाँधु ।पलित बाँधु । उघ मतवा ताव से तप ।
घाट पन्थ की रक्षा – राजा रामचन्द्र जी करे ।
बावन वीर, चोसठ जोगणी बाँधु ।
हमारा बाँधा पाछा फिरे, तो वीर की आज्ञा फिरे ।
नूरी चमार की कुण्ड मां पड़े । तू ही पीछा फिरे, तो माता अञ्जनी का दूध पीयाहराम करे ।स्फुरो मन्त्र,ईश्वरी वाचा ।"
विधिः- उक्त मन्त्र का प्रयोग कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को ही करें । प्रयोग हनुमान् जी के मन्दिर में करें । पहले धूप-दीप-अगरबत्ती-फल-फूल इत्यादि से पूजन करें । सिन्दूर लगाएँ, भोग हेतु गेहूँ के आटे का एक बड़ा रोट बनाये । उसमें गुड़ व घृत मिलाए । साथ ही इलायची-जायफल-बादाम-पिस्ते इत्यादि भी डाले तथा इसका भोग लगाए ।
भोग लगाने के बाद मन्दिर में ही हनुमान् जी के समक्ष बैठकर उक्त मन्त्र का १२५ बार जप करें । जप के अन्त में हनुमान् जी के पैर के नीचे जो तेल मिश्रित सिंदूर होता है, उसे साधक अँगुली से लेकर स्वयं अपने मस्तक पर लगाए । इसके बाद फिर किसी दूसरे दिन मंगलवार या शनिवार को उसी समय उपरोक्तानुसार पूजा कर, काले डोरे में २१ मन्त्र पढ़े और पढ़कर गाँठ लगाए , इसी प्रकार 21 गांठ लगाये तथा डोरे को गले में धारण करे ।
मांस-मदिरा का सेवन न करे । इससे सभी प्रकार के वाद-विवाद में जीत होती है । मनोवाञ्छित कार्य पूरे होते हैं तथा शरीर की सुरक्षा होती है ।
इसी प्रकार गण्डा मंगलवार को बनाकर छोटे बच्चों और बड़ों को भी नजर, तंत्र मंत्र, टोटके आदि से सुरक्षा हेतु पहनाया जा सकता है।
वैसे इसी चतुर्दशी को देवी पूजन कर उपरोक्त पूजन कर नवरात्री के प्रथम या द्वितीय मंगलवार को उपरोक्त गण्डा बनाकर धारण करें तो अति उत्तम होगा।
अन्य किसी जानकारी, समस्या समाधान, कुंडली विश्लेषण हेतु सम्पर्क कर सकते हैं।
।।जय श्री राम।।
+918930610632(whats app only)**
::::::::::::::::कुंडलिनी शक्ति विशेषांक :::::::::::::::
=================================
कुंडलिनी तंत्र और गृहस्थ जीवन
=================================
कुंडलिनी साधना विश्व की एकमात्र साधना है जो मोक्ष देती है ,इसलिए यही साधना सभी योगियों तांत्रिकों ,मनीषियों ,ऋषियों की मूल साधना रही है |यह साधना शुरू में योग आधारित रही |बाद में कुछ इस तरह की परिस्थितियां बनी की सामान्य जन के लिए यह साधना कठिन होती गई |तब हमारे मनीषियों योगियों ने इसकी तकनीकियों में परिवर्तन कर इसे गृहस्थों के अनुकूल बनाया |तात्कालिक परिस्थिति के आधार पर कुंडलिनी साधना दो प्रकार की बन गई |एक प्राणायाम और योग मुद्राओं वाली -- जिसमे शक्ति चालिनी मुद्रा ,उद्दयान बांध तथा कुम्भक प्राणायाम का वीर्य के ओज परिवर्तन में विशेष महत्त्व प्रतिपादित किया गया |ऐसी साधना प्रक्रिया अविवाहित ,विधुर अथवा सन्यासियों के लिए विशेष महत्वपूर्ण रही |यह निवृत्त्मार्गी साधना उनके लिए उपयुक्त नहीं रही जो गृहस्थास्रम में रहकर परिवारीजनों के कर्तव्यकर्म पूर्ण करते हुए साधना रत रहना चाहते थे |गृहस्थ बिना स्त्री के नहीं चलता और संन्यास स्त्री के रहते नहीं चलता |परन्तु जहाँ तक साधना के विकास का प्रश्न है अथवा आत्मोत्थान का प्रश्न है ,क्या गृहस्थ और क्या सन्यासी ,क्या स्त्री क्या पुरुष ,सभी सामान अधिकार रखते हैं और आवश्यकता अनुभव करते हैं |ऐसे प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थों के लिए स्त्री के साथ ही साधनारत होने का मार्ग भी ऋषियों ने खोज निकाला |निवृत्त मार्ग में जो कार्य शक्तिचालिनी मुद्रा ने किया वह कार्य वह कार्य प्रवृत्ति मार्ग में सम्भोग मुद्रा से किया गया ,शेष बांध और कुम्भक अपने अपने स्थानों और कार्यों में यथावत रहे |रमण मुद्रा को अधिक टिकाऊ बनाने के लिए ऋषियों ने विभिन्न प्रकार की काम मुद्राएँ ,बाजीकरण विधियाँ तथा तांत्रिक औषधियां खोज डाली |इस प्रकार वीर्य को उर्ध्वागति देने के लिए जहाँ सन्यासी लोग भस्रिका का प्रयोग करते थे वहां प्रवृत्ति मार्गी तांत्रिक दीर्घ सम्भोग का उपयोग करने लगे |इस प्रकार कुंडलिनी साधना का दूसरा प्रकार रमण मुद्राओं वाला बन गया |सम्भोग के कारण इस साधना में पुरुष और स्त्री का बराबर का हाथ रहा |रमण एक तकनिकी क्रिया है ,जिसमे जनन ta**ra का उपयोग होता है ,इस कारण रमण साधना तांत्रिक कहलाई |
जनन ta**ra के विषय में हमारी संस्कृति प्रारम्भ से ही गुप्त बनाई गई ,क्योकि असभ्य संस्कृतियों वाले आदिवासी कुछ भी गुप्त नहीं रखते थे |अतः सभ्य संस्कृति वालों ने जनन तंत्र सम्बन्धी विषय को गुप्त घोषित कर दिया |इस प्रकार रमण साधना हमारे घरों में गुप्त साधना हो गई |उसे यहाँ तक गुप्त बनाने का प्रयत्न किया गया की सामान्य हवन यज्ञ में ॐ प्रजापतये स्वाहा को भी मौन आहुति देने का विधान बना दिया ,व्हूंकी प्रजापति [ प्रजा वर्धन वाला ब्रह्मा की शक्ति ]का कार्य सम्भोग से संपन्न होता है वह सभ्य संस्कृति वाले सबके सम्मुख कैसे बोले|वास्तव में यज्ञ में साड़ी आहुतियाँ सारे मंत्र जोर जोर से बोलते बोलते प्रजापति स्वाहा बोलते समय मौन हो जाना तांत्रिक साधना की पुष्टि करता है |जहाँ हवं यज्ञ सांसारिक सुख -आनंद ,वैभव ,और परिवार के विकास के लिए किया जाता है वहां प्रजापति आहुति पूरे जोर शोर से दि जाती है ,वहां मौन आहुति का विधान नहीं है ,चूंकि परिवार की वृद्धि के लिए तो वीर्य की अधोगति में ही रमण यज्ञ की पूर्णता है |किन्तु जहाँ आध्यात्मिक उन्नति के लिए यज्ञ हो तो प्रजापति आहुति मौन हो जाती है | यज्ञ का एक अर्थ सम्भोग भी है |जब व्यक्ति सम्भोग यज्ञ द्वारा कुंडलिनी साधना में रत होता है तो उस वीर्य को उर्ध्व गति करनी होती है |परन्तु प्रजा वर्धन का कार्य वीर्य की अधोगति करने पर ही संपन्न होता है |अतः सम्पूर्ण यज्ञ क्रिया ,सम्पूर्ण रमण क्रिया पूरे जोर शोर के साथ उस बिंदु तक चलती रहेगी जब तक की स्खलन बिंदु न आ जाए |ज्योही वह बिंदु आये ,सम्भोग यज्ञ में कुम्भक प्राणायाम करके मूल बंध सहित वज्रोली मुद्रा की जाए तो वीर्य की उर्ध्वागति हो जाती है ,अतः एक क्षण के लिए वह सम्भोग यज्ञ प्रजापति के बिंदु पर मौन हो जाएगा |ज्योही वह स्थिति समाप्त हो जाए ,यज्ञ कार्य आगे बढाया जा सकता है |
रमण साधना को गुप्त घोषित किये जाने के कारण कुंडलिनी ta**ra परम गुप्त बन गया क्योकि प्रजावर्धन से कहीं अधिक सूक्ष्म क्रियाये ओज वर्धन की हैं |प्रजावर्धन के लिए स्खलन में ही सम्भोग की पूर्णता है ,जबकि ओज वर्धन के लिए स्खलित हो जाना भ्रष्ट संभोग है |वीर्य से तेज निर्मित होने तक की सम्पूर्ण प्रक्रिया सम्भोग के अंतर्गत आती है और सम्भोग रत दम्पति के ऊपर प्रकाश वलय चमकाना ही ऐसे रमण की पूर्णता है |इस पूर्णता में भी स्खलन नहीं है ,पाठक ध्यान दें |
तंत्र की शुरुआत भारतीय ऋषियों योगियों द्वारा ही की गई और इसके आदि गुरु और प्रवर्तक महा योगी महेश्वर अर्थात शिव शंकर हैं |चूंकि यह खुद गृहस्थ थे अतः इन्होने मोक्ष का मार्ग कुंडलिनी साधना गृहस्थों के लिए अनुकूल बनाया और इसमें तकनिकी आदि का समावेश किया ,इसे तन से ,विस्तारित होने से ,तकनिकी प्रयोग से तंत्र नाम दिया गया क्योकि इसकी क्रियाविधीन में अनेकानेक तकनीकियों का उपयोग हुआ |कुंडलिनी साधना सदैव से मूल साधना और मोक्ष का एकमात्र मार्ग रहा है जो ऋषियों योगियों द्वारा किया जाता था |गृहस्थों के लिए इसका विशिष्ट रूप महेश्वर और अन्य योगियों द्वारा विक्सित किया गया |यह योग साधना से बिलकुल उलटा चलता था ,यद्यपि इसमें भी यौगिक क्रियाएं बंध ,मुद्रा आदि सम्मिलित थी |इसमें सृष्टि की ऊर्जा अर्थात काम का उपयोग किया गया और आधार मूलाधार को बनाया गया |इस कुंडलिनी साधना को जो काम आधारित था बाद में बौद्धों ,कापालिकों ,तत्पश्चात कॉलों आदि द्वारा अपनाया गया और अनेक सुधार भी हुए और अनेक विकृति भी उत्पन्न हुई |
ध्यान देने की बात है की मूल कुंडलिनी ta**ra में वीर्य स्खलन की मनाही है जिससे ओज और तेज निर्मित हो किन्तु बाद के भ्रष्ट भोगियों और तथाकथित तांत्रिकों ने स्खलन को भी धार्मिक आधार दे दिया जिससे उन्हें खुले भोग की अनुमति मिल जाए |इन्होने ऐसे ऐसे शास्त्रों की रचना की जिनमे महेश्वर अथवा शिव का नाम लेकर इन्होने लिख दिया की वीर्य पात करके देवी देवता को चढ़ाया जाए |सोचने वाली बात है की वीर्य के उर्ध्वा होने से ही ओज ,तेज का निर्माण होता है और चक्र जागरण होता है ,जबकि पात से तो शक्ति जाती है ,ऐसे में पात से कैसे कुंडलिनी जागेगी अथवा कैसे चक्र जागेगा और कैसे शक्ति या सिद्धि मिलेगी |यह तो भोग का माध्यम हो गया |आज बहुतायत ऐसे ही भ्रष्ट तांत्रिक मिलते हैं और इनका सहारा या प्रमाण वाही लिखे भ्रष्ट शास्त्र होते हैं |वास्तविक तंत्र साधना तो कुंडलिनी साधना ही है जो गृहस्थों के अनुकूल बनाई और गयी जिसका अपहरण कर उसे विकृत कर दिया गया |हम क्रमशः अपने पेज पर इसके बारे में लिखने का प्रयत्न कर रहे हैं ताकि भारतीय जन मानस को अपनी मूल विद्या के व्बारे में जानकारी प्राप्त हो सके और वह साधना कर उन्नति कर सके साथ ही अपना भौतिक जीवन भी सुखी बना सके ,इसके बाद उसे अंततः मिक्ष भी मिल सके | में ]].......................................................................हर-हर महादेव
कुंडलिनी जागरण के नियम
---------------------------------
१. सर्वप्रथम स्वयं को शुद्ध और पवित्र करें |शुद्धता और पवित्रता आहार और व्यवहार से आती है |आहार अर्थात सात्विक और सुपाच्य भोजन तथा उपवास |व्यवहार अर्थात अपने आचरण को शुद्ध रखते हुए सत्य बोलना और सभी से विनम्रतापूर्वक मिलन |
२. स्वयं की दिनचर्या में सुधार करते हुए जल्दी उठना और समय पर सोना |प्रातः और संध्या को प्रार्थना -संध्यावंदन करते हुए नियमित प्राणायाम ,धारणा और ध्यान का अभ्यास करना |
३, कुंडलिनी जागरण के लिए कुंडलिनी प्राणायाम अत्यंत प्रभावशाली सिद्ध होते हैं |अपने मन और मष्तिष्क को नियंत्रण में रखकर कुंडलिनी योग का लगातार अभ्यास किया जाए तो ६ से १२ माह में कुंडलिनी जागरण संभव होने लग सकती है |लेकिन यह सब किसी योग्य गुरु के सानिध्य में ही संभव होता है |
संयम और सम्यक नियमों का पालन करते हुए लगातार ध्यान करने से धीरे धीरे कुंडलिनी जाग्रत होने लगती है और जब यह जाग्रत हो जाती है तो व्यक्ति पहले जैसा नहीं रह जाता |वह दिव्य पुरुष बन जाता है |
जब कुंडलिनी जाग्रत होने लगती है तो पहले व्यक्ति को उसके मूलाधार चक्र में स्पंदन का अनुभव होने लगता है |फिर वह कुंडलिनी तेजी से ऊपर उठती है और अगले चक्र पर जाकर रूकती है |उसके बाद साधना जारी रहने पर फिर ऊपर उठने लग जाती है और अगले चक्र तक पहुचती है |जिस चक्र पर यह रूकती है उसके व् उसके नीचे के चक्रों में स्थित नकारात्मक ऊर्जा को हमेशा के लिए नष्ट कर चक्र को स्वच्छ और स्वस्थ कर देती है |
कुंडलिनी के जाग्रत होने पर व्यक्ति सांसारिक विषय भोगों से दूर होने लगता है और उसका रुझान अध्यात्म ,पवित्रता ,शुद्धता के साथ रहस्य जानने की और होने लगता है |कुंडलिनी जागरण से शारीरिक और मानसिक ऊर्जा बढ़ जाती है और व्यक्ति खुद में शक्ति और सिद्धि का अनुभव करने लगता है |कुंडलिनी जागरण के प्रारम्भिक काल में हूँ हूँ की गर्जना सुनाई दे सकती है |आँखों के सामने पहले काला ,फिर पीला और बाद में नीला रंग दिखाई दे सकता है |साधक को अपना शरीर गुबारे की तरह हवा में उठता अथवा हल्का लग सकता है |वह गेंद की तरह अपने स्थान पर ऊपर नीचे उठता गिरता महसूस कर सकता है |ऐसा लग सकता है की गर्दन का भाग ऊपर उठ रहा है |उसे सर में शिखा के स्थान पर चींटियाँ चलने का अनुभव हो सकता है |सर के उपरी भाग पर दबाव महसूस हो सकता है |सर पर प्रकाश अथवा ऊर्जा आती महसूस हो सकती है |रीढ़ में कम्पन महसूस हो सकता है |
विशेष - उपरोक्त प्रक्रिया एक सामान्य ज्ञान है जो योग पर आधारित है ,जबकि पूर्ण ज्ञान गुरु सानिध्य में ही संभव है |तंत्र द्वारा कुंडलिनी जागरण हेतु कुछ भिन्न प्रक्रियाएं भी अपनाई जाती हैं जो अत्यंत गोपनीय और कठिन होती है ,उनका ज्ञान गुरु ही कराता है |..............................................................................हर-हर महादेव
::::::::::::::::कुंडलिनी शक्ति विशेषांक :::::::::::::::
=================================[[ भाग - ४ ]]
कुंडलिनी तंत्र
=======================[[ भाग - २]]
कुंडलिनी ta**ra अत्यंत सरल ,स्पष्ट ,प्रत्येक गृहस्थ के उपयुक्त क्रियात्मक विषय है ,जिसे हमारे दार्शनिक व्याख्याकारों ने अत्यंत जटिल और उलझा हुआ बनाकर इस स्थिति तक पहुंचा दिया है की जन साधारण उसे अगम्य ,अपार और मुक्त पुरुषों के मतलब का समझ कर उससे अलग -थलग बना रहने को बाध्य हो गया है |
कुंडलिनी ta**ra प्रक्रिया वर्षों पूर्व महेश्वर रूद्र [शिव शंकर ]द्वारा "आत्म यज्ञ संस्कृति "के रूप में प्रारम्भ की गई थी जो शनैः शनैः लुप्तप्राय हो गई और इस संस्कृति के अवशेष रूप शिवलिंग तथा अर्धनारीश्वर मूर्ती एवं प्राचीन मंदिरों के ध्वन्शावशेष को हम लकीर के फ़कीर बने पूजते रह गए |उसी प्राचीन आत्मयज्ञ संस्कृति को पुनः जनमानस के सामने लाने का प्रयत्न मैंने किया है |चूंकि यह संस्कृति किसी भी धर्म या संस्कृति की बपौती नहीं है ,अतः प्रत्येक व्यक्ति के काम की है |इस साधना में व्यक्ति अपनी पत्नी को संतुष्ट रखने की ऐसी कला सीख जाता है की वह जंगल में रहने वाले अवधूत पति के साथ भी पार्वती के सामान पूर्ण प्रसन्न रहते हुए ,गृहस्थी के सुख को इतना बढाती है की सारे अभाव उसी में समाहित हो जाते हैं |प्रत्येक व्यक्ति ऐसी गृहणी की कामना करता है परन्तु कितने पति ऐसे हैं जो अपनी पत्नी को इतना सम्मानपूर्ण प्रेम दे पाते हैं की वह पति में रम जाए ? यदि पत्नी इतनी नहीं रमती तो निश्चय ही आपका रमण अधूरा रहेगा |पत्नी को ऐसी रमणी बनाना पति का कर्त्तव्य है |
अन्य तांत्रिक प्रक्रियाओं में परिस्थिति अनुसार पत्नी के अलावा अन्य साधिकाओं से रमण की बातें मिलती हैं ,परन्तु इस प्रक्रिया में विशेष रूप से एक ही साधिका के साथ रहने की विशेषताओं का उल्लेख किया गया है और अपनी साधना के साथ साथ पत्नी के साधना स्तर को उठाने की बात की है |जहाँ अन्य तंत्रों में नारी को मात्र भैरवी अथवा एक साधन के रूप में उपयोग करने की बात है वहीँ इस प्रक्रिया में नारी साधन नहीं ,स्वयं साधिका बनती है ,और वह मात्र संतानोत्पन्न करने वाली पत्नी न होकर साधक की शक्ति धर्म पत्नी बनती है |सांसारिक भोग के दृष्टिकोण से यदि इस साधना विधि पर विचार करें तो आप पायेंगे की ,सेक्स और काम में तो व्यक्ति फंसा हुआ ही है ,उसे घृणित काम से उबारकर अपनी ऊर्जा को संचित रखते हुए ,स्वस्थ काम का आनंद लाभ देने में यह क्रियाएं बड़ी उत्तम हैं |आध्यात्मिक स्तर पर यह साधना प्रक्रिया व्यक्ति को ऐसी काम तुष्टि प्रदान करती है की साधक सम्भोग की लालसा से मुक्त होकर लम्बे समय तक सच्चे अर्थों में ब्रह्मचारी रह पाता है और धारणा और ध्यान के अभ्यासों से आत्मा को बंधन मुक्त करने में सक्षम बनता है |
बहुत से व्यक्ति इस प्रक्रिया को असंभव कहते हैं |यह वाही लोग हैं जिन्होंने प्रक्रिया विधि या इसके बारे में मात्र पढ़ा है और अनुमान लगाया है ,स्वयं क्रियात्मक रूप से करके नहीं परखा |यदि एक दो बार क्रियात्मक भी किया तो इन्द्रिय संयम न होने के कारण स्खलित हो गए |ऐसे कच्चे मन के व्यक्ति जो स्वयं इन्द्रिय के दासत्व से मुक्त न हो सके ,वे इस प्रक्रिया को कैसे सभी व्यक्तियों के लिए असंभव कह सकते हैं |क्षमता रहित व्यक्तियों के लिए तंत्र बहुत सि प्राकृतिक चिकित्साओं ,यौगिक अभ्यासों और औषधियों आदि की व्यवस्था करता है |काम कला विलास ही व्यक्ति को पूर्ण पुरुष बनाता है |ऐसा व्यक्ति ही कुंडलिनी के षड्चक्र भेदन में निपुण हो सकता है |कुछ लोगों की धारणा है की योगी और पूर्ण काम व्यक्ति को सांसारिक कार्यकलापों में रमने की आवश्यकता नहीं है |यह लोग योगेश्वर कृष्ण की बातें याद करें |राजा जनक को याद करें ,राजा भर्तृहरि को याद करें ,महेश्वर शिव शंकर को याद करें और उनकी कार्य प्रणाली को समझें |यह सभी महँ योगी और कुंडलिनी साधक थे किन्तु सभी गृहस्थ थे |अधूरी और भ्रामक धारणा पाले व्यक्तियों से मेरी प्रार्थना है की वे अपने अतीत को समझें ,वर्त्तमान का प्रयोग करें और भविष्य के लिए साधना रत हों |टीका टिपण्णी में समय नष्ट न करें |.........................................................................हर-हर महादेव
Click here to claim your Sponsored Listing.
Category
Website
Address
Xtrim Fitness Care Equitas Small Finance Bank Janta Bhawan Road Sirsa
Sirsa, 125055
Sirsa
Krishna accupressure therapy center and ayurvedic treatment Bhadra Hanumangarh Rajasthan helpline no.9079225692
Satguru Pharmacy V. P. O Lakarwali Sirsa
Sirsa, 125201
satguru Pharmacy all medicines available veterinary and human