Ajay Vyas
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Vadodara
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भारत की एक बहादुर कौम राजपूत,सन् 1840 में काबुल में युद्ध में 8000 पठान मिलकर भी
1200 राजपूतो का मुकाबला 1 घंटे भी नही कर पाये।
वही इतिहासकारो का कहना था की चित्तोड की तीसरी लड़ाई जो 8000 राजपूतो और 60000 मुगलो के मध्य हुयी थी , वहा अगर राजपूत 15000 होते तो अकबर भी जिंदा बचकर नहीं जाता।
"इस युद्ध में 48000 सैनिक मारे गए थे जिसमे 8000
राजपूत और 40000 मुग़ल थे वही 10000 के करीब
घायल थे"।
और दूसरी तरफ गिररी सुमेल की लड़ाई में 15000 राजपूत, 80000 तुर्को से लडे थे, इस पर घबराकर शेर शाह सूरी ने कहा था "मुट्टी भर बाजरे (मारवाड़) की खातिर हिन्दुस्तान की सल्लनत खो बैठता "।
उस युद्ध से पहले जोधपुर महाराजा मालदेव जी नहीं गए
होते तो शेर शाह ये बोलने के लिए जीवित भी नही रहता।
इस देश के इतिहासकारो ने और स्कूल कॉलेजो की किताबो मे आजतक सिर्फ वो ही लडाई पढाई जाती है, जिसमे हम कमजोर रहे। वरना बप्पा रावल और राणा सांगा जैसे योद्धाओ का नाम तक सुनकर मुगल की औरतो के गर्भ गिर जाया करते थे।
रावत रत्न सिंह चुंडावत की रानी हाडा का त्यागपढाया नही गया, जिन्होने अपना सिर काटकर दे दिया था।
पाली के आउवा के ठाकुर खुशहाल सिंह को नही पढाया जाता, जिन्होंने एक अंग्रेज के अफसर का सिर काटकर किले पर लटका दिया था।
जिसकी याद मे आज भी वहां पर मेला लगता है। दिलीप सिंह जूदेव जी के बारे मे नही पढ़ाया जाता, जिनके कारण एक लाख आदिवासियों ने फिर से सनातन धर्म अपनाया था।
महाराजा अनंगपाल सिंह तोमर
महाराणा प्रताप सिंह
महाराजा रामशाह सिंह तोमर
वीर राजे शिवाजी
राजा विक्रमाद्तिया
वीर पृथ्वीराजसिंह चौहान
हमीर देव चौहान
भंजिदल जडेजा
राव चंद्रसेन
वीरमदेव मेड़ता
बाप्पा रावल
नागभट प्रतिहार(पढियार)
मिहिरभोज प्रतिहार(पढियार)
राणा सांगा
राणा कुम्भा
रानी दुर्गावती
रानी पद्मनी
रानी कर्मावती
भक्तिमति मीरा मेड़तनी
वीर जयमल मेड़तिया
कुँवर शालिवाहन सिंह तोमर
वीर छत्रशाल बुंदेला
दुर्गादास राठौर
कुँवर बलभद्र सिंह तोमर
मालदेव राठौर
बाबू वीर कुँवर सिंह
महाराणा राजसिंह
विरमदेव सोनिगरा
राजा भोज
राजा हर्षवर्धन बैस
बन्दा सिंह बहादुर
राऊ बज्जर सिंह राठौड़
इन जैसे महान योद्धाओं को नही पढ़ाया/बताया जाता है, जिनके नाम के स्मरण मात्र से ही शत्रुओं के शरीर में आज भी कंपकंपी शुरू हो जाती है।
जय हिंद 🙏
राणा सांगा का इतिहास
जन्म: 12 April 1482 चित्तौरगढ़
मृत्यु: 30 जनवरी, 1528 माण्डलगढ (भीलवाड़ा)
पिता: राणा रायमल
जीवनसंगी: रानी कर्णावती
बच्चे: उदय सिंह, भोजराज , रतन सिंह, विक्रमादित्य सिंह
राष्ट्रीयता: भारतीय
धर्म : हिन्दू
महाराणा कुम्भा के बाद महाराणा संग्रामसिंह जो कि सांगा के नाम से प्रसिद्ध है. मेवाड़ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक हुआ. उसने अपने शक्ति के बल पर मेवाड़ सम्राज्य का विस्तार किया एवं राजपूताना के सभी नरेशों को अपने अधीन संगठित किया.
रायमल की मृत्यु के बाद 1509 में राणा सांगा मेवाड़ का महाराणा बना. सांगा ने अन्य राजपूत सरदारों के साथ शक्ति को संगठित किया
इन्होने पड़ोसी राज्य गुजरात के शासक महमूद से भी संघर्ष किया. कुम्भाकालीन गौरव प्राप्त करने की दृष्टि से मुस्लिम शक्तियों के के विरुद्ध संघर्ष करना जरुरी था. सांगा का गुजरात के बादशाह से 1520 में संघर्ष हुआ था. जिसमें सांगा विजयी रहे थे.
इसी प्रकार मालवा के सुलतान महमूद खिलजी को भी सांगा ने परास्त कर जेल में कैद कर दिया. बाद में अच्छा व्यवहार करने की शर्त पर उसे रिहा कर दिया. राणा सांगा ने अपनी शक्ति को संगठित कर दिल्ली सल्तनत के अधीनस्थ मेवाड़ के निकटवर्ती भागों को अपने राज्य में मिलाना शुरू कर दिया.
सन 1517 में दिल्ली के सुलतान इब्राहीम लोदी व सांगा में खतौली का युद्ध हुआ, जिसमे सुलतान बुरी तरह पराजित हुआ. पराजय के बाद सुलतान को सांगा ने बाड़ी के युद्ध में और पराजित किया. स्थानीय साहित्य में उल्लेख मिलता है कि राणा सांगा ने कई बार दिल्ली, मांडू और गुजरात के सुल्तानों को पराजित किया था.
राणा सांगा के युद्ध और उपलब्धियाँ
पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहीम लोदी को परास्त कर दिल्ली सल्तनत पर बाबर ने अधिकार कर लिया. उसके लिए असली चुनौती सांगा ही थे. क्योकिं उस समय राणा सांगा ही एकमात्र ऐसें व्यक्ति थे जो दिल्ली पर शासन स्थापित करने की क्षमता रखते थे.
उस समय शक्ति का केंद्र मेवाड़ बन गया. सभी पडौसी राज्य राणा सांगा की शक्ति को मान्यता देने लगे थे. कर्नल टॉड के अनुसार 7 उच्च श्रेणी के राजा, 9 राव व 104 सरदार सदैव उनकी सेवा में उपस्थित रहते थे.
बाबर और राणा सांगा के मध्य सता की स्थापना को लेकर संघर्ष निश्चिन्त था. बाबर ने प्रारम्भ में धौलपुर व कालवी पर अधिकार कर लिया. बयाना पर सांगा का अधिकार था.
सांगा ने बयाना के युद्ध में मुगलों को बुरी तरह पराजित किया था. मुग़ल सैनिकों ने सांगा के शौर्य के किस्से बाबर व अन्य सैनिकों को बताये. इससे बाबर की सेना का मनोबल टूटा.
राणा सांगा और बाबर के मध्य खानवा का युद्ध
सन 1527 में बाबर व राणा सांगा के मध्य खानवा का युद्ध हुआ. राणा के प्रहार से मुग़ल सेना प्रारम्भ में विचलित होने लगी. बाबर ने राजपूतों के पाश्र्व भाग पर आक्रमण कर दिया. इसी बिच तीर लगने से राणा घायल हो गया. राणा को बेहोश अवस्था में युद्ध के मैदान से हटा दिया.
होश आने पर राणा सांगा ने पुनः बाबर से लड़ने की इच्छा प्रकट की, लेकिन सामंतो ने खानवा में हुए विनाश की बात कहकर, ऐसा नही करने की सलाह दी.
तभी सांगा ने प्रतिज्ञा की ” कि जब तक वह बाबर को हरा नही देगा, वापिस चित्तोड़ नही जाएगा” राणा सांगा ने जनवरी 1528 में बाबर के विरुद्ध चंदेरी के मोदिनिराय की सहायता के लिए प्रस्थान किया. लेकिन कालपी से थोड़ा दूर स्वास्थ्य खराब होने के कारण 30 जनवरी 1528 को इनका देहांत हो गया.
महाराणा सांगा अंतिम हिन्दू सम्राट था जिसने अपने नेतृत्व में सभी राजपूत शासकों को को विदेशी आक्रमणों से सुरक्षा करने और उनसे वीरतापूर्ण मुकाबला करने के लिए संगठित किया.
राणा सांगा का व्यक्तित्व और इतिहास में स्थान
महाराणा के नेतृत्व में 108 राजा महाराजा लड़ते थे. उन्होंने सदैव निरंतर युद्ध, शौर्य और पराक्रम से देश की रक्षा की. इसी भावना से प्रेरित होकर जनता ने भी महाराणा का पूरा साथ दिया.
राणा सांगा ने इसी प्रेरणा से दिल्ली, मांडू और गुजरात के शासकों को हराया ही नही बल्कि उन्हें बंदी बनाकर छोड़ दिया.
राजपूताने के सभी राजा व बाहरी राजा भी राणा सांगा की अधीनता व मेवाड़ के गौरव के कारण उसके झंडे के नीचे लड़ना अपना गौरव समझते थे. ‘राणा सांगा’ के शरीर पर 80 घाव तथा युद्ध में एक हाथ और पैर क्षतिग्रस्त होने पर भी उनका शरीर वज्र की तरह मजबूत था.
उन्होंने हिम्मत मर्दानगी और वीरता को अपनाकर अपने आप को अमर बना दिया. हरबिलास शारदा लिखते है कि ‘मेवाड़ के महाराणाओं में राणा सांगा सर्वाधिक प्रतापी शासक हुए. उन्होंने अपने पुरुषार्थ के द्वारा मेवाड़ को उन्नति के शिखर पर पहुचाया.
इतना होने पर भी अनतः “राणा सांगा” विदेशी शत्रु की कुटिल चाल और युद्ध कौशल को नही समझ पाये और युद्ध की नवीन तकनीक को नही अपना सके. इसका शत्रु ने लाभ उठाया.
यह पानी की बोतल, नाइक गुलाब सिंह (वीर चक्र मरणोपरांत, 13 कुमाऊं रेजिमेंट) की है। इसपर पड़े गोलियों के निशान शत्रु की फायरिंग का घनत्व बता रहे हैं जो युद्ध की भीषणता को समझाने में पर्याप्त हैं। नवंबर 1962 में लद्दाख में रेज़ांगला की लड़ाई में चीनी मशीन गन की स्थिति पर गुलाब सिंह ने सीधे हमला किया। इस लड़ाई में उस दिन अमर होने वाले 114 भारतीय सैनिकों में से एक नाइक गुलाब सिंह भी थे जो हरियाणा रेवाड़ी के मनेठी गाँव में पैदा हुए थे। इस टुकड़ी के 120 वीरों की वजह से ही आज लद्दाख भारत का हिस्सा बना हुआ है।
मेजर-जनरल इयान कार्डोज़ो अपनी पुस्तक "परम वीर, अवर हीरोज इन बैटल" में लिखते हैं:
जब रेज़ांग ला को बाद में बर्फ हटने के बाद फिर से देखा गया तो खाइयों में मृत जवान पाए गए जिनकी उँगलियाँ अभी भी अपने हथियारों के ट्रिगर पर थी ... इस कंपनी का हर एक आदमी कई गोलियों या छर्रों के घावों के साथ अपनी ट्रेंच में मृत पाया गया। मोर्टार मैन के हाथ में अभी भी बम था। मेडिकल अर्दली के हाथों में एक सिरिंज और पट्टी थी जब चीनी गोली ने उसे मारा ...। सात मोर्टार को छोड़कर सभी को एक्टिव किया जा चुका था और बाकी सभी मोर्टार पिन निकाल दागे जाने के लिए तैयार थे। यह संसार का सबसे भीषण लास्ट स्टैंड वारफेयर था जहाँ 120 वीरों ने वीरता से लड़ते हुए 1300 चीनी सैनिकों को मार डाला था और लद्दाख को चीन द्वारा कब्जाने के मसूबों पर पानी फेर दिया।
स्वतंत्रता की कीमत चुकानी होती है, यह मुफ़्त में नहीं मिलती ...
राष्ट्र प्रथम Repost
बचपन
पेरिया और चिन्ना मारुधु, मुकिया पलानीअप्पन सेरवई के बेटे, मुकुलम के मूल निवासी थे, नारिकुडी के पास, जो अरुप्पुकोट्टई से 18 मील दूर था। उनकी मां आनंदायी उर्फ पोन्नाथल शिवगंगई के पास पुदुपट्टी की रहने वाली थीं। दोनों भाइयों का जन्म मुकुलम में क्रमशः वर्ष १७४८ और १७५३ में हुआ था। पहले बेटे का नाम वेल्लई मरुधु उर्फ पेरिया मरुधु और दूसरे बेटे का नाम चिन्ना मरुधु रखा गया।
विद्रोह
1772 में, मुहम्मद अली खान वालजाह , ( आरकोट के नवाब ) ने मुथुवदुगनाथ थेवर को करों का भुगतान करने से इनकार करने पर मार डाला था। हालाँकि मारुधु पंडियार और रानी वेलुनाचियार बच गए, और गोपाल नायक के साथ विरुपाक्षीपुरम में 8 साल तक रहे। इस समय के बाद, पांडियार के नेतृत्व में राज्यों के एक गठबंधन ने शिवगंगई पर हमला किया और इसे 1789 में वापस ले लिया। दोनों मारुथु पांडियार को राज्य में उच्च स्थान दिए गए थे।
वे वायुगतिकी और शिल्प कौशल में अच्छे थे और कहा जाता है कि उन्होंने वलारी का आविष्कार किया था , जो बुमेरांग का एक प्रकार था ।
मौत
मरुधु पांडियार ने भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ युद्ध की योजना बनाई । उन्होंने वेलुनाचियार को सुरक्षा दी जो अस्थायी रूप से युद्ध की अराजकता से शरण मांग रहे थे। वे युद्ध के नेता शिवगंगई और उनके परिवार के कई सदस्यों के साथ, चोलपुरम में पकड़ लिए गए और तिरुप्पत्तूर में मारे गए। उन्हें 24 अक्टूबर 1801 को तिरुपुथुर के किले में फांसी दी गई थी , जो अब शिवगंगा जिला, तमिलनाडु है। मारुथु पडियार का दफन शिवगंगई में स्थित है।
सम्मान
मारुथु ब्रदर्स वायुगतिकी में अच्छे हैं और उन्होंने भाले और वालारी के कई रूपों का आविष्कार किया । उन्होंने उपनिवेशवाद के प्रारंभिक चरण के दौरान भारत में गुरिल्ला युद्ध रणनीति की भी स्थापना की। अक्टूबर 2004 में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया गया था। हर साल लोग अक्टूबर में कालयारकोविल मंदिर में मारुथु पांडियार गुरु पूजा करते हैं।
स्थानीय तमिल लोग भी उनकी पूजा कर रहे हैं और मलेशिया में बटु दुआ मरिअम्मन मंदिर, सुंगई पेटानी, केदा में समर्पित और स्थित एक मंदिर है।
1959 में उनके जीवन के बारे में एक फिल्म बनाई गई थी: शिवगंगई सीमाई ।
मल्लमा नायक बेदार कोली (चालुक्य राजवंश)
रानी मल्लम्मा जिन्हें " योद्धा रानी " के तौर पर याद किया जाता है , कर्नाटक के बेलवाड़ी सूबे की रानी थी और ऐसी योद्धा थी जिसने अंग्रेजों और महाराज छत्रपति शिवाजी जिससे पूरा मुगल साम्राज्य भय खाता था, उनसे भिड़ने का साहस किया और अचंभे की बात ये है कि शायद ही चंद लोग उनके नाम से परिचित हों !
रानी मलम्मा इतिहास की पहली शासक थी जिसने महिलाओं की अलग युद्ध बटालियन तैयार की जो युद्ध कौशल में निपुण थी । साड़ी पहने और हाथ में तलवार लिए अपने घोड़े के साथ युद्ध करती रानी स्वयं देवी दुर्गा के समान इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने महाराज शिवाजी की जीवनी में रानी मलम्म्मा और महाराज शिवाजी के बीच हुवे लंबे समय के युद्ध का जिक्र किया है जिसमें रानी मलम्मा के पति लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए और रानी अपनी महिला बटालियन के साथ लड़ती रही थी । कई किताबों में रानी और महाराज के बीच युद्ध का जिक्र है जिसमें रानी ने महाराज को हराया था लेकिन ये बात थोड़ी बढ़ा चढ़ा कर कही नज़र आती है क्यों कि बाद में संधि हो गई थी। और रानी को ससम्मान उनका राज्य लौटा दिया गया था ।
खुद महाराज शिवाजी रानी की वीरता और साहस से अचंभित हुए थे और रानी ने अपनी महिला योद्दा के साथ मराठा सैनिकों की बदसलूकी की शिकायत शिवाजी महाराज से की थी और इस पर महाराज ने अपने सैनिक को दंडित किया था ।
बाल विवाह, कानूनी लड़ाई और कुरीतियों से लड़ते हुए कैसे बनी देश की पहली प्रैक्टिसिंग महिला डॉक्टर!
यह 1880 का दशक था, जब औरतों को बोलने तक का अधिकार नहीं मिलता था! पर ऐसे समय में भी एक बेबाक और दृढ संकल्पी महिला ने वह कर दिखाया, जो कोई सोच भी नहीं सकता था। मात्र 11 वर्ष की उम्र में शादी के बंधन में बांध जाने वाली रुक्माबाई राउत (Rukhmabai Raut) ने अपने पति भिकाजी के ‘वैवाहिक अधिकार’ के दावे के खिलाफ एक प्रतिष्ठित कोर्ट में केस लड़ा। यही केस आगे चलकर, साल 1891 में ‘सहमति की आयु अधिनियम’ का आधार बना।
इसके बाद वे मेडिसिन की पढ़ाई करने के लिए लंदन चली गयी और फिर भारत वापिस आकर अपनी प्रैक्टिस शुरू की। साल 1894 में वे भारत की पहली प्रैक्टिसिंग महिला डॉक्टर बन गयी।
रुक्माबाई का जन्म साल 22 नवम्बर,1864 को बम्बई (अब मुंबई) में हुआ था। उनकी माँ का नाम जयंतीबाई था। उनकी माँ की शादी भी 14 वर्ष की उम्र में हो गयी थी – 15 वर्ष की उम्र में उन्होंने रुक्माबाई को जन्म दिया और 17 वर्ष की उम्र में विधवा हो गयीं। इसके सात साल बाद जयंतीबाई ने डॉ. सखाराम अर्जुन से दूसरी शादी की। सखाराम मुंबई के ग्रांट मेडिकल कॉलेज में बॉटनी के प्रोफेसर भी थे और साथ ही एक समाज सुधारक व शिक्षा के समर्थक थे।
डॉ रुक्माबाई राउत
समाज के दबाब के चलते जयंतीबाई ने अपनी बेटी रुक्माबाई की शादी मात्र 11 साल की उम्र में दादाजी भिकाजी से कर दी, जो उस समय 19 वर्ष के थे। उस समय के प्रचलित रिवाज के अनुसार, रुक्माबाई शादी के बाद अपने पति के साथ न रहकर अपनी माँ के साथ ही रहीं। इस दौरान उन्होंने अपने सौतेले पिता के कहने पर अपनी पढ़ाई जारी रखी, जो कि उस समय समाज के नियम-कानूनों के खिलाफ था।
जल्द ही, रुक्माबाई को पता चला कि उनके पति का चरित्र संदेहपूर्ण है और उसे शिक्षा की भी कोई कदर नहीं है। और भिकाजी के बिल्कुल विपरीत, इतने वर्षों में रुक्माबाई एक बुद्धिमान और सभ्य महिला के रूप में उभरी थीं। एक घुटन भरे रिश्ते में रहने के डर से रुक्माबाई ने फैसला किया कि वे ऐसे व्यक्ति के साथ विवाह के बंधन में नहीं रहना चाहती।
मार्च, 1884 में रुक्माबाई स्कूल में ही पढ़ रहीं थीं, जब भिकाजी ने उन्हें अपने साथ आकर रहने के लिए कहा। पर उन्होंने मना कर दिया! तब भिकाजी ने बॉम्बे हाई कोर्ट में ‘एक पति का अपनी पत्नी के ऊपर वैवाहिक अधिकार’ का हवाला देते हुए पेटिशन फाइल कर दी। सीधे शब्दों में, वे चाहते थे कि कोर्ट रुक्माबाई को आदेश दे कि वह उनके साथ आकर रहे।
लेकिन युवा रुक्माबाई ने बहुत दृढ़ता से ऐसा करने से मना कर दिया। ऐसे में कोर्ट ने उन्हें केवल दो विकल्प दिए-
एक- या तो वे अपने पति के घर जाकर उसके साथ रहें या फिर जेल जाकर सजा भुगतें। पर रुक्माबाई अपने फैसले पर अडिग रहीं। उन्होंने कहा कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं, लेकिन ऐसी शादी में नहीं रहेंगी, जिसमें उनकी सहमती ही नहीं ली गयी है। उनका तर्क था कि उन्हें उस शादी में रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, जो तब हुई थी जब वे इसके लिए सहमति देने में असमर्थ थीं। उनका यह तर्क उस जमाने में अनसुना और अकल्पनीय था।
इस तर्क ने, 19वीं सदी में न केवल बॉम्बे बल्कि भारत के सबसे प्रसिद्द अदालती मामलों में से एक मामले को शुरू किया। 1880 के दशक में इस एक केस ने ब्रिटिश प्रेस का ध्यान भी आकर्षित किया और फिर बाल-विवाह और स्त्रियों के अधिकार जैसे मुद्दे भी सामने आये। बेहरामजी मलाबरी और रामाबाई रानडे समेत भारतीय समाज-सुधारकों के एक समूह ने इस मामले को सबके सामने लाने के लिए ‘रुक्माबाई रक्षा समिति’ का गठन किया।
सामाज-सुधारक, शिक्षा अग्रणी और महिलाओं के मुक्ति के लिए लड़ने वाली, पंडिता रमाबाई ने क्रोध में लिखा,
“यह सरकार महिलाओं की शिक्षा और आज़ादी की वकालत तो करती है! पर जब एक महिला किसीकी ‘दासी होने’ से इंकार करती है, तो वही सरकार अपने क़ानून का हवाला देकर, उसे एक बार फिर बेड़ियाँ पहनने पर मजबूर कर देती है।”
रुक्माबाई ने भी ‘द हिन्दू लेडी’ के उपनाम से ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के लिए दो सामयिक लेख लिखे। नारीवादी दृष्टिकोण के साथ ये दोनों लेख बाल-विवाह, विधवा जीवन और समाज में महिलाओं की स्थिति के विषय पर थे। 26 जून, 1885 को रुक्माबाई द्वारा टाइम्स ऑफ़ इंडिया को लिखे गए एक लेख का अंश यहाँ है, जिसे बाद में जया सागड़े द्वारा ‘भारत में बाल विवाह’ किताब में पुन: प्रस्तुत किया गया,
“बाल विवाह की इस कुरीति ने मेरे जीवन की खुशियों को बर्बाद कर दिया। यह प्रथा हमेशा मेरे और उन सभी चीज़ों के बीच आयी, जिन्हें मैंने सबसे ऊपर रखा- शिक्षा और मानसिक चिंतन। मेरी कोई गलती न होने के बावजूद मुझे समाज से बहिष्कार का सामना करना पड़ा। मेरी अपनी अज्ञानी बहनों से ऊपर उठने की मेरी भावना पर संदेह कर मुझ पर गलत आरोप लगाये गए।”
साल 1888 में भिकाजी रुक्माबाई के साथ अपनी शादी को खत्म करने के बदले में मुआवजे के लिए मान गए। नतीजतन दोनों पार्टियां एक समझौता करने के लिए मान गयी और रुक्माबाई कारावास से बच गयीं। उन्होंने सभी जगह से मिलने वाले वित्तीय सहायता के प्रस्तावों को मना कर दिया और स्वयं क़ानूनी लागतों का भुगतान किया। हालांकि, यह मामला कोर्ट के बाहर सुलझ गया, लेकिन फिर भी यह केस ब्रिटिश भारत में विवाह के लिए महिलाओं की उम्र, सहमति और उनकी पसंद जैसे मुद्दों को उठाने वाले प्रामाणिक केस के तौर पर उभर कर आया!
आखिरकार, रुक्माबाई अपनी आगे की पढ़ाई करने के लिए आज़ाद हो गयी और उन्होंने डॉक्टर बनने का फैसला किया।बॉम्बे के कामा अस्पताल के ब्रिटिश डायरेक्टर ईडिथ पेचेई फिपसन ने उनका समर्थन किया और उनके सुझाव पर रुक्माबाई ने इंग्लिश भाषा का कोर्स किया और और लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन फॉर विमेन से अध्ययन करने के लिए 1889 में इंग्लैंड चली गयीं। उन्होंने 1894 में स्नातक की डिग्री हासिल करने से पहले एडिनबर्ग, ग्लास्गो और ब्रसेल्स में भी पढ़ाई की।
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद रुक्माबाई अपने देश लौट आयीं और उन्होंने सूरत में चीफ मेडिकल ऑफिसर का पदभार संभाला। इसी के साथ एक डॉक्टर के रूप में शुरू हुआ उनके 35 साल के करियर का सफर। इसके दौरान भी वे बाल-विवाह और पर्दा-प्रथा के खिलाफ लिखती रहीं। उन्होंने कभी भी शादी नहीं की और साल 1955 में 91 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गयी। अपनी मृत्यु तक वे समाज सुधार के कार्य में सक्रिय रहीं।
डॉ. रुक्माबाई को भारत की पहली अभ्यास करने वाली महिला डॉक्टर होने का ख़िताब प्राप्त है। हालांकि आनंदी गोपाल जोशी डॉक्टर के रूप में शिक्षा प्राप्त करने वाली पहली भारतीय महिला थीं, लेकिन उन्होंने कभी भी प्रैक्टिस नहीं की। अपनी शिक्षा के बाद वे टुबरक्लोसिस की बीमारी के साथ भारत लौटीं। इसी के चलते अपनी आसमयिक मौत के कारण वे कभी भी डॉक्टर के रूप में अभ्यास नहीं कर पायीं।
ब्रिटिश भारत में महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाले प्रेरक लोगों में से रुक्माबाई एक थीं। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव करने वाले सामाजिक सम्मेलनों और रीति-रिवाजों के प्रति उनकी अवज्ञा ने 1880 के रूढ़िवादी भारतीय समाज में बहुत से लोगों को हिलाकर रख दिया और उनकी इस लड़ाई ने ही 1891 में पारित होने वाले ‘सहमति की आयु अधिनियम’ का नेतृत्व किया। उन्होंने असाधारण साहस और दृढ़ संकल्प के साथ कई वर्षों तक अपमान सहन किया। रुक्माबाई आनेवाले सालों में कई अन्य महिलाओं को डॉक्टर बनने और सामाजिक कार्य करने के लिए प्रेरणा देती रहीं।
फिल्म निर्देशक अनंत महादेवन ने उनके जीवन व चरित्र से प्रभावित होकर, उनके जीवन पर आधारित फिल्म ‘रुक्माबाई भीमराव राउत’ बनायीं है। इस फिल्म में सशक्त और बेबाक रुक्माबाई का किरदार तनिष्ठा चटर्जी ने निभाया है।
मूल लेख: संचारी पाल
राष्ट्रवीर दुर्गादास राठौर की रोमांचक गाथा
आगरा में ताजमहल के निकट पुरानी मंडी चौराहे पर वीर दुर्गादास राठौर की घोड़े पर सवार प्रतिमा स्थापित है। आज 22 नवंबर को इनकी पुण्य तिथि है।
आगरा। वीर शिरोमणि दुर्गादास राठौर का नाम मेवाड़ ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण हिन्दुस्तान के इतिहास में त्याग, बलिदान, देश-भक्ति व स्वामिभक्ति के लिये स्वर्ण अक्षरों में अमर है। आगरा में ताजमहल के निकट पुरानी मंडी चौराहे पर वीर दुर्गादास राठौर की घोड़े पर सवार प्रतिमा स्थापित है। 13 अगस्त को उनका जन्मदिवस और 22नवंबर को पुण्य तिथि है।
महाराजा जसवंत सिंह ने सेना में शामिल किया
मारवाड़ की स्वतन्त्रता के लिये वर्षों तक संघर्ष करने वाले वीर पुरुष दुर्गा दास राठौर का जन्म जोधपुर के एक छोटे से गाँव सलवां कलां में आसकरन जी राठौर के घर 13 अगस्त, सन् 1638 (श्रावण शुक्ला चतुर्दशी सम्वत् 1695) में हुआ था। इनके पिता आसकरन जी जोधपुर नरेश महाराजा जसवन्त सिंह की सेना में थे। अपने पिता की भाँति बालक दुर्गादास में भी वीरता के गुण कूट-कूट कर भरे थे। एक बार जोधपुर राज्य की सेना के कुछ ऊँट चरते हुये आकरन के खेत में घुस गये। बालक दुर्गादास के विरोध करने पर चरवाहों ने कोई ध्यान नहीं दिया तो वीर युवा दुर्गादास आग-बबूला हो गये और तलवार निकालकर एक ही पल में ऊँट की गर्दन उड़ा दी। बालक की इस वीरता की खबर जब जोधपुर नरेश महाराजा जसवन्त सिंह को लगी तो वे उस वीर बालक को देखने के लिये उतावले हो उठे। उन्होंने अपने सैनिकों को दुर्गादास को दरबार में लाने का हुक्म दिया। अपने दरबार में उस वीर बालक की निडरता एवं निर्भीकता देखकर महाराजा अचंभित रह गये। स्वयं आसकरन जी ने जब अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भीकता से स्वीकारते देखा तो वे भी दाँतों तले उँगली दबाने लगे। परिचय पूछने पर महाराजा को मालूम हुआ कि यह वीर बालक आसकरन का पुत्र है, तो महाराजा ने दुर्गादास राठौर को अपने पास बुलाकर पीठ थपथपाई और इनाम के रूप में तलवार भेंट कर उन्हें अपनी सेना में भर्ती कर लिया।
अजीत सिंह को सुरक्षित बचाया
उस समय महाराजा जसवन्त सिंह दिल्ली के मुगल बादशाह औरंगजेब की सेना में प्रधान सेनापति थे। फिर भी औरंगजेब की नीयत जोधपुर राज्य के लिये ठीक नहीं थी और वे हमेशा जोधपुर राज्य को हड़पने के लिये मौके की तलाश में रहते थे। सम्वत् 1731 में गुजरात में मुगल सल्तनत के खिलाफ विद्रोह को दबाने हेतु जसवन्त सिंह जी को भेजा गया। इस विद्रोह को दबाने के बाद महाराजा जसवन्त सिह जी काबुल में पठानों के विद्रोह को दबाने हेतु चल दिये, और वीर दुर्गादास राठौर की सहायता से पठानों का विद्रोह शान्त करने के साथ ही महाराजा वीरगति को प्राप्त हो गये। वीरगति प्राप्त करने से पूर्व महाराजा जसवन्त सिंह जी ने वीर दुर्गादास राठौर से अपनी पत्नी के होने वाली सन्तान की रक्षा का वचन लिया था। उस समय उनके कोई पुत्र नहीं था और उनकी दोनों पत्नियाँ गर्भवती थीं। दोनों पत्नियों ने एक-एक पुत्र को जन्म दिया। एक पुत्र जन्म के तुरन्त बाद परलोक सिधार गया। वहीं दूसरे पुत्र अजीत सिंह को रास्ते का कांटा समझकर औरंगजेब ने हत्या की ठान ली। औरंगजेब की इस कुनीयत को स्वामिभक्त वीर दुर्गादास राठौर ने भांप लिया और योजनाबद्ध तरीके से अजीत सिंह को दिल्ली से निकाल लाये। वीर दुर्गादास राठौर ने अजीत सिंह की गोपनीय तरीके से पूर्ण पालन-पोषण की समुचित व्यवस्था की।
औरंगजेब का लालच नहीं डिगा सका
अजीत सिंह के बड़े होकर गद्दी पर बैठाने तक की लम्बी अवधि में उन्होंने जोधपुर की गद्दी को बचाने के लिये औरंगजेब के द्वारा संचालित तमाम षड्यंत्रों के खिलाफ लोहा लेते हुये कई लड़ाईयाँ लड़ी। इस बीच करीब 25 वर्षों के संघर्ष के दौरान औरंगजेब का बल या अपार धन का लालच वीर दुर्गादास राठौर को नहीं डिगा सका और अपनी वीरता के बल पर जोधपुर की गद्दी को सुरक्षित रखने में वीर दुर्गादास राठौर सफल रहे। पच्चीस वर्ष की अवस्था में सन् 1708 में अजीत सिंह को जोधपुर की गद्दी पर बिठाकर ही उन्होंने न केवल चैन की सांस ली बल्कि राजा जसवन्त सिंह को दिया गया वचन पूर्ण किया।
उज्जैन में गुजारे अंतिम दिन
जीवन के अन्तिम दिनों में वे स्वेच्छा से मारवाड़ छोड़कर उज्जैन चले गये। वहीं क्षिप्रा नदी के किनारे उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम दिन गुजारे। दिनांक 22 नवम्बर सन् 1718 (माघशीर्ष शुक्ल एकादशी सम्वत् 1775) में उनका निधन हो गया। उनका अन्तिम संस्कार उनकी इच्छा के अनुसार क्षिप्रा नदी के तट पर ही किया गया।
भारत सरकार ने जारी किए सिक्के
वीर शिरोमणि राष्ट्रवीर दुर्गादास राठौर हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिये वीरता, देशप्रेम, बलिदान, त्याग व स्वामिभक्ति के प्रेरणा व आदर्श बने रहेंगे। राष्ट्रवीर दुर्गादास राठौर के सम्मान में भारत सरकार द्वारा 16 अगस्त 1988 को 60 पैसे का टिकिट जारी किया गया। वहीं 25 अगस्त 2003 को विभिन्न धनराशि के उनके चित्र सहित सिक्के जारी किए, जो कि सार्वजनिक एवं चाल-चलन में प्रचलित हैं। आज उनकी पुण्य तिथि के उपलक्ष्य में हम उन्हे कोटि-कोटि नमन करते हैं।
झलकारी बाई एक आदर्श वीरांगना थी। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की लिखी ये पंक्तियां उनकी वीरता का बखूबी वर्णन करती हैं।
जाकर रण में ललकारी थी,
वह तो झांसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।
ऐसी महान वीरांगना महिला जिसे पूरे भारतवासियों को गर्व महसूस होता है, ऐसी झांसी की झलकारी 'झलकारी बाई' का जन्म बुंदेलखंड के एक गांव में 22 नवंबर को एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सदोवा उर्फ मूलचंद कोली और माता जमुनाबाई उर्फ धनिया था।
झलकारी बचपन से ही साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी। बचपन से ही झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं की देख-रेख और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में झलकारी की मुठभेड़ एक बाघ से हो गई थी और उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी से उस जानवर को मार डाला था। वह एक वीर साहसी महिला थी। एक अन्य अवसर पर जब गांव के एक व्यवसायी पर डकैतों के एक गिरोह ने हमला किया तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था। उनकी इस बहादुरी से खुश होकर गांव वालों ने उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक पूरन कोरी से करवा दिया, जो बहुत बहादुर था।
झलकारी का विवाह झांसी की सेना में सिपाही रहे पूरन कोली नामक युवक के साथ हुआ। पूरे गांव वालों ने झलकारी बाई के विवाह में भरपूर सहयोग दिया। विवाह पश्चात वह पूरन के साथ झांसी आ गई। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में वे महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं, इस कारण शत्रु को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं।
सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजी सेना से रानी लक्ष्मीबाई के घिर जाने पर झलकारी बाई ने बड़ी सूझबूझ, स्वामीभक्ति और राष्ट्रीयता का परिचय दिया था। रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अपने अंतिम समय अंग्रेजों के हाथों पकड़ी गईं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया। उस युद्ध के दौरान एक गोला झलकारी को भी लगा और 'जय भवानी' कहती हुई वे जमीन पर गिर पड़ीं। ऐसी महान वीरांगना थीं झलकारी बाई। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है।
झलकारी बाई के सम्मान में सन् 2001 में डाक टिकट भी जारी किया गया। भारत की संपूर्ण आजादी के सपने को पूरा करने के लिए प्राणों का बलिदान करने वाली वीरांगना झलकारी बाई का नाम आज भी इतिहास के पन्नों में अपनी आभा बिखेरता है। उनका निधन 4 अप्रैल 1857 को झांसी में हुआ था।
रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में रहीं और महिला शाखा में दुर्गा दल की सेनापति रह चुकी ऐसी महान वीरांगना झलकारी बाई ने सन् 1857 की जंग-ए-आजादी का एक ऐसा नाम, जिसके हौसले और बहादुरी ने भारत के इतिहास को गौरवान्वित किया है।
रानी रुदाबाई जिसने सुल्तान बेघारा के सीने को फाड़ा
Rani Rudabai
गुजरात से कर्णावती के राजा थे, राणा वीर सिंह वाघेला (सोलंकी), इस राज्य ने कई तुर्क हमले झेले थे पर कामयाबी किसी को नहीं मिली, सुल्तान बेघारा ने सन् 1497 पाटण राज्य पर हमला किया राणा वीर सिंह वाघेला के पराक्रम के सामने सुल्तान बेघारा की 40000 से अधिक संख्या की फौज 2 घंटे से ज्यादा टिक नहीं पाई, सुल्तान बेघारा जान बचाकर भागा। असल में कहते हंै सुलतान बेघारा की नजर रानी रुदाबाई पर थी, वो रानी को युद्ध में जीतकर अपने हरम में रखना चाहता था। सुलतान ने कुछ वक्त बाद फिर हमला किया। राज्य का एक साहूकार इस बार सुलतान बेघारा से जा मिला, और राज्य की सारी गुप्त सूचनाएं सुलतान को दे दी, इस बार युद्ध में राणा वीर सिंह वाघेला को सुलतान ने छल से हरा दिया।
जिससे राणा वीर सिंह उस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। सुलतान बेघारा रानी रुदाबाई को लाने हेतु राणा जी के महल की ओर 10000 से अधिक लश्कर लेकर पंहुचा, रानी रूदा बाई के पास शाह ने अपने दूत के जरिये निकाह प्रस्ताव रखा। रानी रुदाबाई ने महल के ऊपर छावणी बनाई थी जिसमें 2500 धनुर्धारी वीरांगनाये थी, जो रानी रूदा बाई का इशारा पाते ही लश्कर पर हमला करने को तैयार थी, सुलतान बेघारा को महल द्वार के अन्दर आने का न्यौता दिया गया। सुल्तान बेघारा जैसे ही वो दुर्ग के अंदर आया राणी ने समय न गंवाते हुए सुल्तान बेघारा के सीने में खंजर उतार दिया और उधर छावनी से तीरों की वर्षा होने लगी, जिससे शाह का लश्कर बचकर वापस नहीं जा पाया।
सुलतान बेघारा का सीना फाड़कर रानी रुदाबाई ने कलेजा निकाल कर कर्णावती शहर के बीचोबीच लटकवा दिया। और उसके सर को धड से अलग करके पाटण राज्य के बीच टंगवा दिया साथ ही यह चेतावनी भी दी की कोई भी आक्रांता भारतवर्ष पर या हिन्दू नारी पर बुरी नजर डालेगा तो उसका यही हाल होगा। इस युद्ध के बाद रानी रुदाबाई ने राजपाठ सुरक्षित हाथों में सौंपकर कर जल समाधि ले ली, ताकि कोई भी तुर्क आक्रांता उन्हें अपवित्र न कर पाए। ये देश नमन करता है रानी रुदाबाई को ऐसे ही कोई क्षत्रिय और क्षत्राणी नहीं होता, हमारे पूर्वज और विरांगानाये ऐसा कर्म कर भारत का मान रखा है और धर्म बचाया है।
राजकुमारी जायमती जिनका इतिहास 19वी सदी में दबा दिया गया
यह ऐसी राजकुमारी जो किसी भी डर के आगे नहीं झुकीं अंत मे अपने प्राण त्याग दिए।
असम राज्य पर अहोम राजाओं का शासन था और राज्य सन् 1671 से 1681 तक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। कई राजाओं के प्रधान सेवकों की अकुशलता ने राज्य में परेशानियों को बढ़ा दिया था। यह वह समय था जब लोरा राजा और उनके प्रधानमंत्री लालुकास्ला बोरफूकन ने राजगद्दी हासिल करने के लालच में अपने कई उत्तराधिकारियों को मरवा दिया था। राजकुमार गोडापानी, जो जॉयमती के पति थे, उनकी हत्या की साजिश भी रची जा चुकी थी।
जब लोरा राजा और उनके सिपाही उन्हें पकड़ने आए, राजकुमार गोडापानी बचकर निकल गए और नागा हिल्स पहुंच गए। इसी समय लोरा राजा ने पत्नी जॉयमती को पकड़ लिया। जॉयमती को इस उम्मीद में पकड़ा गया था कि वह डर के मारे अपने पति के बारे में राजा को बता देंगी। कई दिनों तक राजकुमारी को 14 दिनों तक इसी मैदान पर टॉचर्र किया गया। कहते हैं कि उन्हें उन्हें कंटीलें तार के साथ एक कांटे से साथ बांध दिया गया था फिर भी राजकुमारी जॉयमती किसी भी डर के आगे नहीं झुकीं और उन्होंने अपने पति के बारे में कोई भी सूचना राजा को नहीं दी। राजकुमारी दो बच्चों 14 साल के लाई और 12 साल के लेशाई की मां थीं और घटना के समय गर्भवती थीं। 14 दिनों तक प्रताड़ना झेलने के बाद उन्होंने 27 मार्च 1680 को दम तोड़ दिया। राजकुमारी जॉयमती को आज भी सती का दर्जा मिला हुआ है। आज भी असम के हर निवासी के दिल में उनके लिए सर्वोच्च सम्मान है।
असम के लोकगीतों, नाटकों और स्थानीय फिल्मों में जॉयमती की कहानी सुनने को या देखने को मिल जाएगी। असम में हर वर्ष 27 मार्च को सती जॉयमती दिवस मनाया जाता है। हालांकि अभी तक असम में या फिर भारत के दूसरे हिस्सों में उनकी वीरता के बारे स्कूल की किताबों में पढ़ाया नहीं जाता है। सन. 1935 में एक फिल्म भी उन पर बनी थी जिसमें अडियू हांदिक ने जॉयमती का किरदार निभाया था।
आज भी मौजूद हैं राजकुमारी की यादें
जिस जगह पर राजा ने जॉयमती को प्रताड़ना दी थी, वहां पर इस समय जॉयसागर नाम से एक तालाब बना है. उनके बड़े बेटे लाई जिन्हें रुद्र सिंघा के नाम से जाना गया, उन्होंने मांग की याद में यह तालाब बनवाया था. यह अहोम राजाओं की तरफ से बनवाए गए सभी तालाबों में सबसे बड़ा है। दो किलोमीटर लंबी पाइपलाइन से कभी शाही महल में पानी की सप्लाई की जाती थी।
महान योद्धा, शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह की जयंती पर कोटिश: नमन।ब्रिटिश सेना को अपने साम्राज्य की पवित्र धरती पर कदम न रखने देने वाले इस वीर की शौर्यगाथा भावी पीढ़ियों को देश सेवा के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की प्रेरणा देती रहेगी।
80 वर्ष की उम्र में अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिलाने वाले प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महानायक बाबू कुँवर सिंह जी की जयंती पर शत-शत नमन।
10 नवंबर, छत्रपति शिवाजी द्वारा अफजल खान का वध....
इतिहास का वो युद्ध, जब शिवाजी ने अफजल खान के धोखे को दी थी मात
यह घटना महाराष्ट्र के इतिहास की एक रोमांचक घटना है। अफजल खान, जो बेहद लंबा और शक्तिशाली था, जिसे छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपनी बुद्धि के बल से मार गिराया था।
आदिल शाह बीजापुर के राजा थे। उस समय छत्रपति शिवाजी महाराज ने बीजापुर के सभी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। 1659 में छत्रपति शिवाजी महाराज बीजापुर के राजा आदिलशाह के लिए संकट थे। वे समझ गए कि यदि छत्रपति शिवाजी महाराज को समाप्त नहीं किया गया तो वे हमारे लिए खतरनाक हो सकते हैं। इससे पहले भी उसने शिवाजी महाराज को मारने की कई बार कोशिश की थी, लेकिन वह इसमें सफल नहीं हुए थे। अंत में उसने छत्रपति महाराज को मारने के लिए अफजल खान को भेजा। वह दिन था 10 नवंबर 1659, बता दें कि अफजल खान एक अच्छा रणनीतिकार था। उसने पहले छत्रपति शिवाजी महाराज के बड़े भाई संभाजी राजे को मार डाला था।
उसने अपनी सेना के साथ रास्ते में आने वाले सभी गांवों और मंदिरों को नष्ट कर दिया और फिर वहां छत्रपति शिवाजी महाराज को बुलाया। अफजल ने छत्रपति से कहा, 'मुझे आपसे डर लग रहा है, मैं वहां नहीं आ रहा हूं, आप ही प्रतापगढ़ आ जाइए'। अफजल खान प्रतापगढ़ की तलहटी में पहुंचा और वहां उनसे मिलने की व्यवस्था की। भव्य छत्र का निर्माण किया गया। छत्रपति शिवाजी महाराज प्रतापगढ़ के किले में थे, किसी भी सेना का वहां तक पहुंचना मुश्किल था।
अफजल खान ने छत्रपति शिवाजी महाराज से मिलने का संदेश भेजा। छत्रपति शिवाजी महाराज उनके घातक स्वभाव से वाकिफ थे। किसी के पास यात्रा के लिए कोई हथियार नहीं होगा और शामियाने के बाहर इंतजार करने के लिए दोनों पक्षों के 10 अंगरक्षकों में से एक अंगरक्षक होगा।
यात्रा के दौरान अफजल खान जल्द ही छत्र पर पहुंच गया, छत्र बहुत बड़ा था। दोनों ने निहत्थे मिलने का निर्णय लिया। हालांकि, अफजल खान ने खंजर को अपने कोट के अंदर छिपा रखा था। छत्रपति शिवाजी महाराज को अंदाजा हो गया था कि अफजल खां कोई साजिश के तले घात लगाकर हमला करेगा। इसलिए उन्होंने भी अपने कुर्ते के नीचे कवच पहन रखा था और अपनी मुट्ठी में बाघ के पंजे छुपा रखे थे जो आसानी से दिखाई नहीं देते थे। ऐसे में छत्रपति शिवाजी राजे बिना किसी डर के अफजल खां के खेमे में पहुंच गए। शिवाजी को देखकर, अफजल खान ने उसे गले लगाने के लिए अपने हाथ फैलाए और कहा, "आओ शिवाजी हमारे आलिंगन में आओ"। अफजल खान ने उन्हें अपनी बाहों में लेने की कोशिश की और फिर छिपे हुए खंजर से छत्रपति शिवाजी महाराज की पीठ पर वार किया और फिर उन्हें अपनी बाहों में पकड़ने की कोशिश की। वहीं छत्रपति शिवाजी महाराज पहले से ही सावधान थे, ऐसे में जैसे ही अफजल खान ने वार किया तब छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपनी मुट्ठी से बाघ के पंजे निकाल कर उसके पेट में घुसा दिए और उसकी अंतड़ियां निकाल कर उसे मार डाला। इस तरह शिवाजी महाराज ने अपनी चतुराई से अफजल खां का वध कर दिया।
अफजल खान चिल्लाया "दगा दगा" उसकी आवाज सुनकर बाहर खड़ा सैय्यद अंदर आया। अफजल खान को मरा हुआ देखकर उसने छत्रपति शिवाजी पर छड़ी से हमला करने की कोशिश की। ऐसा कहा जाता है कि "शिव को एक आत्मा के रूप में बचाया गया था"। झाड़ी में छिपे हुए सभी मावलों ने अफजल खान की सेना पर हमला कर उन्हें खदेड़ दिया। इस युद्ध को इतिहास में प्रतापगढ़ युद्ध के नाम से जाना जाता है।
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