पदचिन्ह - The footprint
We request you to read following points:-
1. We publish our e-magazine on 14th
2. Please don't send personal messages.
3.
We start accepting submissions from 1st of every month for our next edition.
4. Follow our page and group to be updated.
वाराणसी नगर निगम क्षेत्र में रहने वाले जानते होंगे कि यहाँ के निगम और उसके अंतर्गत आने वाले क्षेत्र की हालत क्या है? एक तरफ केंद्र और राज्य सरकार बनारस के विकास को लेकर बड़े-बड़े पैकेज और योजनाएं बना रही है दूसरी तरफ स्थानीय निगम नाकारों सा बर्ताव कर रहा है। ना कोई जिम्मेदारी निभानी है, ना उसका कोई एहसास ही है। 2019 में उत्तर प्रदेश सरकार ने वाराणसी की बढ़ती आबादी और विकास को ध्यान में रखते हुए 79 गाँवों को निगम क्षेत्र में शामिल किया। इनमें से कई क्षेत्र ऐसे थे जो वाराणसी नगर की सीमा से बेहद सटे थे डाफी, सुसवाही, चितईपुर, करौंदी आदि ऐसे ही कुछ इलाके हैं। पिछले कई सालों से तेज़ी से बढ़ती आबादी वाले में इन क्षेत्रों में जलनिकासी की कोई व्यवस्था नहीं है। बारिश में स्थानीय आबादी को जल-जमाव की वजह से काफी परेशान भी होना पड़ता है। लेकिन दो वर्षों से निगम क्षेत्र में शामिल होने के बाद भी यहाँ की आबादी को निगम प्रशासन ने बेसुध छोड़कर रखा है। इस वर्ष जब स्थानीय लोगों को जल जमाव की दिक्कत से नए सिरे से जूझना पड़ा है तो उसने निगम और विधायकों पर दबाव बनाना शुरू किया है। विधायकों, नगर निगम और जिला प्रशासन ने बिना किसी जनमत के समस्या समाधान के लिए बीएचयू में नाली निर्माण का प्रस्ताव पास कर दिया है। इस बारे में बीएचयू से सलाह-मशविरा करने की बजाय अपना हुक़्क़मरानी फैसला सुना दिया है कि अगले हफ्ते से बीएचयू में नाली निर्माण का कार्य शुरू कर दिया जाएगा। दरअसल विधायक, निगम और जिला प्रशासन शायद यह भूल गया है कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय संसद के द्वारा पारित एक्ट के तहत राष्ट्रीय महत्व का संस्थान है। बीएचयू एक स्वायत्त विश्वविद्यालय है। जिला प्रशासन और वाराणसी नगर निगम शायद यह भूल गया है कि बीएचयू उसके फैसलों के अनुसार चलने को बाध्य नहीं है। जिला प्रशासन, नगर निगम और उन सारे विधायकों जिन्हें बीएचयू की स्वायत्तता का एहसास खत्म हो चला है, आइये हम बीएचयू के लोग मिलकर उन्हें सम्मिलित प्रयासों से बनें इस विश्वविद्यालय की सम्मिलित शक्ति का एहसास कराते हैं।
बीएचयू की स्वायत्तता, बीएचयू की सुंदरता, बीएचयू की स्वच्छता, बीएचयू की स्वतंत्रता को बचाना, महामना की बगिया को निर्मल बनाए रखने के संकल्प को निभाना हम सब पूर्व एवं वर्तमान बीएचयू वासियों की नैतिक जिम्मेदारी है।
बीएचयू से जुड़े विद्यार्थी एवं यहां के सभी अंतःवासी बीएचयू परिसर में वाराणसी नगर निगम, जिला प्रशासन, वाराणसी स्मार्ट सिटी लिमिटेड, वीडीए आदि संस्थाओं के ऐसे किसी भी अवैध निर्माण की सख्त मुख़ालफ़त करते हैं।
Please send your submissions by tomorrow
#पता_नहीं_जी_कौन_सा_नशा_करता_है
प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक व नेता राम मनोहर लोहिया ने कभी कहा था कि लोकतांत्रिक चुनाव के जरिए हेरफेर होते रहना चाहिए । जनता को सत्ता परिवर्तन तवे पर चढ़ी रोटी की तरह पलटते हुए करते रहना चाहिए । दरअसल चिंतकों और नेताओं से यही गलती हो जाती है । वे हमेशा जनता को ही संबोधित करते हैं । अपने मातहतों और अनुयायियों को बताना शायद भूल जाते हैं या फिर उनके अनुयाई अपने नेता को इतनी गंभीरता से कभी लेते ही नहीं ।
अभी-अभी बीते दिनों बिहार में चुनाव खत्म हुए । एक बार फिर से जनता की नाराजगी और सत्ता परिवर्तन की लहर के बावजूद नीतीश कुमार भाजपा की मदद और कृपा दृष्टि से सत्तासीन हो गए । आपको लग रहा होगा कि बिहार की राजनीति का जिक्र हो रहा है और जयप्रकाश नारायण की जगह मैं लोहिया पर क्यों अटका पड़ा हूं ? तो बात कुल इतनी सी है कि बात चाहे जयप्रकाश नारायण की हो या राम मनोहर लोहिया की , जब सुनना या मानना ही नहीं तो क्या फर्क पड़ता है ? वैसे तो मुझे भी बिहार की राजनीति में ऐसी कोई खास दिलचस्पी नहीं है , क्योंकि पूरी दुनिया में राजनीति लगभग एक ही जैसे ही होती है और आगे भी चलती रहती है ।सत्ता की प्राप्ति और सत्ता में बने रहना यही दो मुख्य पुरुषार्थ हैं , जिसे सभी राजनेता साधते हैं ।
सुशासन का दंभ भरने वाले नीतीश कुमार एक चूके हुए कारतूस की तरह होकर रह गए हैं । वैसे तो बात न किसी खास राजनेता की है , न राजनैतिक गठबंधनों की और ना ही नेताओं द्वारा किए जाने वाले इरादतन गैरजिम्मेदाराना व्यवहार की । बात है बिहार में बढ़ते अपराध की । बात है प्रभावी कानून व्यवस्था की । बात है शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में बुनियादी सुधार की । बात है नए रोजगार सृजन के लिए इच्छाशक्ति की । बात है बिहारी अस्मिता को भावनात्मक पटल से निकालकर वास्तविक धरातल पर स्थापित करने की और बात है लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखते हुए अपने लोगों के सुख दुख में शामिल होने की ।
आजकल नीतीश कुमार बात बात में किसी सस्ता नशा करने वाले नशेड़ी की तरह गुस्सा हो जाते हैं । उनकी नजर में वे जो भी कर रहे हैं अथवा उनकी सरकार जो भी कर रही है , वह हर मामले में पर्याप्त है । और यह कोई उनका व्यवहार परिवर्तन नहीं है । शुरू से नीतीश कुमार ऐसा ही करते और मानते भी रहे हैं । नीतीश कुमार की राजनीति अमरबेल की तरह है , न जड़ , न तने , न पत्ते , बस किसी बड़े पेड़ पर लत्तर की भांति लटक जाओ और फिर उसे पूरी तरह अपने आगोश में ले लो । साथ ही दूसरे पेड़ पर लटकने का विकल्प भी खुला रखो । विक्रम बेताल की तरह सुमो-नीकु की जोड़ी बिहार में काम करती रही । एक गाने के बोल हैं ना , जो आजकल आम लोगों की जुबान पर चढ़े हुए हैं :-
"पता नहीं जी कौन सा नशा करता है ?
यार मेरा हर एक से वफा करता है ।।
छुप छुप के बेवफाई वाले दिन चले गए ,
आंखों में आंखें डाल कर दगा करता है ।।"
नीतीश पाला बदलने में माहिर नेता रहे हैं । अजी छोड़िए , नीतीश ही क्यों ? वह नेता ही कैसा जो पाला न बदल सके । वह तो नीतीश बाबू के साथ चौचक तगड़ा वाला राजयोग जुड़ा हुआ है , जिससे उनको हर बार दैवीय संयोग से यह शुभ अवसर उपलब्ध हो जाता है , जिसके लिए बाकी नेता तरसते रहते हैं और लार टपकाते रहते हैं । रह गई असल बात और वह है बिहार के जनता की बदहाली । बिहार के जनता की हालत वैसे प्रेमिका की तरह हो गई है जिसका प्रेमी नशे की हालत में आकर हाथ मरोड़ कर पूछता है काहे डर रही हो ? और चाहते हुए भी वह न कुछ कह पाती है और ना दामन से हाथ ही छुड़ा पाती है । वैसे बेचारी बिहार की जनता को यह भी नहीं पता कि हाथ किस से छुड़ाना है ? गर छुड़ा भी लिया तो किसे पकड़ाना है ? दरअसल उसे यही नहीं पता निपटना किससे और कैसे है ? मूल समस्या क्या है ? और कौन से बदलाव कैसे करने हैं ?
©️पंकज
Please like and share our page and posts too. Your comments and suggestions will encourage us. https://www.facebook.com/indinewsbihar/videos/817209539118622/
*दंगों की आग में झुलसा एक शांतिप्रिय देश*
*©मृत्युंजय बघेल*
यूरोप के सबसे शांत देशों में शुमार स्वीडन में अगस्त के आखिरी सप्ताह में कुरान जलाए जाने की ख़बर के बाद दंगे भड़क गए। बड़ी संख्या में मुस्लिम शरणार्थी माल्मो शहर की सड़कों पर आ गए और जो कुछ भी उन्हें शहर में दिखा, सबकुछ जला डाला। जलाते समय शायद वे यह भूल गए की स्वीडन वही देश है जिसने सीरिया संकट के समय उनका साथ दिया था।
*हिंसा का तात्कालिक कारण*
स्वीडिश अख़बार 'आफटोनब्लेट' के रिपोर्ट के मुताबिक स्वीडन की राष्ट्रवादी पार्टी स्टैम कुर्स के नेता रैसमस पालुदन को माल्मो शहर में 'नॉर्डिक देशों में इस्लामीकरण' विषय पर आयोजित एक सेमिनार में हिस्सा लेना था। स्थानीय प्रशासन ने कानून व्यवस्था को ध्यान में रखकर यह अनुमति देने से इंकार कर दिया। बहुसंख्यक आबादी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर यह चोट अच्छी नहीं लगी और पालुदन के नेतृत्व में माल्मो शहर में जबरन घुसने का प्रयास किया गया। पुलिस ने सख्ती दिखाते हुए रैसमस पालुदन एवं उसके समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी ने आग में घी का काम किया। कुछ समर्थक जोश में आ गए और बिना सोचे समझे उन्होंने कुरान की कुछ प्रतियाँ जला दीं।
किसी भी धर्मनिरपेक्ष देश में किसी भी व्यक्ति को दूसरे धर्म के देवी देवताओं, धार्मिक प्रथाओं एवं धर्म ग्रंथों का अपमान नहीं करना चाहिए। कोई अगर ऐसा करता है तो उसे दंड भी मिलना चाहिए। स्वीडन की सरकार ने भी पलुदान पर तुरंत एक्शन लिया और उसके स्वीडन में प्रवेश पर 2 साल का प्रतिबंध लगा दिया।
*मुस्लिम प्रतिक्रिया:*
देश, काल एवं परिस्थितियाँ चाहे जो भी हों परंतु मुस्लिम समाज में उत्पन्न होती कट्टरपंथी सोच बदलने का नाम नहीं ले रही है। विश्व के किसी कोने में भी दंगा हो तो प्राय: एक पक्ष मुस्लिम ज़रूर होता है। भारत में हिंदू-मुस्लिम, वर्मा में बौद्ध-मुस्लिम, यूरोपीय देशों में ईसाई-मुस्लिम दंगे इसके उदाहरण हैं। स्वीडन में जो हुआ वह ना तो अपनी तरह का पहला मामला था और ना ही अंतिम। अगस्त के महीने में भारत के बैंगलोर शहर में एक ऐसा ही दंगा हुआ जिसका कारण एक विवादित पोस्टर को बताया गया जिसे कांग्रेस पार्टी के एक दलित विधायक के भतीजे ने फ़ेसबुक पर शेयर किया था। 2015 में फ्रांस की प्रतिष्ठित पत्रिका 'शार्ली-आब्दो' ने एक कार्टून प्रकाशित किया था जो कथित तौर पर मोहम्मद साहब का अपमान करने के उद्देश्य से प्रकाशित किया गया था। यह बात मुस्लिम कट्टरपंथियों और आतंकवादी संगठनों को अच्छी नहीं लगी फलस्वरूप पत्रिका के दफ्तर पर आतंकवादी हमला हुआ और पत्रिका के संपादक सहित 12 पत्रकारों को मौत के घाट उतार दिया गया। अभी हाल में ही यह मामला फिर से तूल पकड़ा जब पत्रिका ने उसी तस्वीर को फिर से प्रकाशित किया। यह तस्वीर उस समय प्रकाशित हुई जब मामले के 14 दोषियों को एक दिन बाद ही कोर्ट में पेश होना था। तस्वीर के छपने से एक बार फिर विवाद उठ खड़ा हुआ है। पत्रिका का कहना है कि पाठकों की मांग पर ऐसा किया गया जबकि राष्ट्रपति इमैनुअल माइक्रोन ने इसे प्रेस की आजादी कहा।
*नार्डिक देशों की समस्या:*
उत्तरी यूरोप के डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन, आइसलैंड, ग्रीनलैंड, फिनलैंड और पोलैंड को सम्मिलित रूप से नॉर्डिक देश कहा जाता है। 2015 में सीरिया में गृहयुद्ध की स्थिति थी। बहुत बड़ी संख्या में लोगों का पलायन हुआ। कोई भी देश इन शरणार्थियों को अपने यहाँ शरण देने को तैयार नहीं था। तभी सीरिया के एक 3 वर्ष के बालक एलन कुर्दी की समुद्र में तैरती लाश की तस्वीर वायरल हुई। एलन के माता-पिता सीरियाई मूल के थे और यूरोप में शरण लेने की कोशिश कर रहे थे पर दुर्भाग्य से जहाज़ भूमध्य सागर में डूब गया। इस घटना के बाद शरणार्थियों के मुद्दे पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के बाद यूरोपीय देशों ने अपने दरवाजे शरणार्थियों के लिए खोल दिए। हालांकि पोलैंड एकमात्र ऐसा नॉर्डिक देश था, जिसने मुस्लिम शरणार्थियों को अपने देश में जगह नहीं दी और आज भी वह अपने रुख पर क़ायम है। स्वीडन में तो शरणार्थियों का अभूतपूर्व स्वागत हुआ। सरकार ने हर संभव प्रयास किया कि इन शरणार्थियों का जीवन खुशहाल हो सके।
धीरे-धीरे देश के बहुसंख्यकों में यह अवधारणा बनने लगी कि यह शरणार्थी उनके टैक्स के पैसों पर पल रहे हैं और उनका ही हक़ छीन रहे हैं। साथ ही साथ बड़े पैमाने पर धर्मांतरण की कोशिश भी कर रहे हैं, जिससे पूरे इलाके का इस्लामीकरण किया जा सके। रैसमस पालुदन जैसे कुछ नेता अपनी राजनीति चमकाने के लिए बहुसंख्यक आबादी के दिल में इस्लामीकरण का यह डर फ़ैलाना चाह रहे थे जिससे मतों का ध्रुवीकरण हो और सत्ता कि मलाई चाटी जा सके।
शरणार्थियों ने शहर को जलाकर बहुसंख्यक आबादी के डर को सच साबित कर दिया जो एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। दंगे आज नहीं तो कल ख़त्म हो जाएंगे परंतु इससे समाज में जो कटुता बढ़ेगी उसे पाटने में बहुत लंबा समय लग जाएगा।
*राजनीति में युवा*
*©सुयज्ञ राय*
ज़रा विचारिये कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी आबादी युवाओं की राजनीति में क्या भूमिका होगी? क्या भारत अपने "डेमोग्राफिक डिविडेंड" का फ़ायदा उठाने में समर्थ होगा? क्या युवा देश, प्रौढ़ एवं जर्जर हो चुकी राजनीतिक व्यवस्था द्वारा संचालित होने को अभिशप्त होगा? क्या युवा उर्जा का इस्तेमाल ट्रोलिंग में किया जायेगा? ऐस ही कुछ सवाल हैं जो आज के लाखों युवाओं के सामने मुँह बाये खड़े हैं।
आखिर युवा राजनीति को अपना कैरियर क्यों नहीं बना पाते या शुरुआती कॉलेज के दौर में सक्रिय और प्रभावी युवा नेता शिथिल क्यों हो जाते है? इसके कारणों की पड़ताल करना आवश्यक है। हमारे देश में लोकतंत्र होने के बावजूद भी राजनीति में युवाओं के प्रवेश की सबसे बड़ी समस्या एंट्री पॉइंट की है। वंशवाद, जो युवाओं के राजनीति में प्रवेश की राह में रोड़ा अटकाये है। हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष बने राहुल गांधी की क्या योग्यता थी? वह अयोग्यता का ही प्रमाण था कि पुनः अध्यक्ष उनकी माता स्वयं ही बन गयी। वंशवाद लोकतंत्र के बुनियादी ढांचे को कमज़ोर करता है। कांग्रेस इस देश में वंशवाद और परिवारवाद का जनक रही है जो वर्तमान सत्ता में भी दूसरे पायदान पर है। सच तो यह है कि आज देश की तमाम पार्टियाँ किसी-न-किसी परिवार या व्यक्ति की जेब में है। ऐसी कोई भी पार्टी नहीं है जिसको यह बीमारी न लगी हो। परिवारवाद और वंशवाद ने देश के युवाओं को एक तरह से जकड़े रखा है। यह एक ऐसा दीमक है जो देश को भीतर ही भीतर खोखला किये जा रहा है।
आज़ाद हिंदुस्तान की राजनीति के सत्तर साल के सफ़र में नेताओं की जो दो खेपें तैयार हुई हैं उसमें पहली खेप स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े नेताओं की थी जबकि दूसरी खेप जेपी-लोहिया के समाजवादी विचारों से प्रेरित होकर तैयार हुई। स्वतंत्रता आन्दोलन से पैदा हुए नेताओं की राजनीति सिद्धांतों पर आधारित हुआ करती थी, लोकजीवन में मर्यादा बरक़रार था। अस्सी के दशक में हुए समाजवादी आन्दोलन ने छात्र नेताओं को राष्ट्रीय राजनीति में आने का मौका दिया। पर विडंबना ही है कि इस आन्दोलन से भी जो नेता पैदा हुए उन नेताओं ने भी छात्र राजनीति का गला घोंटा।
दूसरी बड़ी समस्या व्यक्तिवाद की है। राजनीति में प्रवेश के लिए यह भी प्रतिरोध खड़ा करता है। पिछले कुछ वर्षों में पार्टियों के चरित्र में व्यक्ति की भूमिका बढ़ी है। संसदीय प्रणाली को आधार बनाकर चलने वाले लोकतंत्र में व्यक्तिवाद जहाँ एक तरफ़ संघीय भावना के ख़िलाफ़ है, वहीँ दूसरी ओर राजनीति में अंधश्रद्धा को भी बढ़ावा देता है। पर्सनालिटी कल्चर की वज़ह से कुछ युवा स्वतः राजनीति से दूरी बना लेते हैं। यह व्यक्तिवाद संगठनों के लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रियाओं को सीधे-सीधे प्रभावित करता है। इस प्रकार वंशवाद, परिवारवाद, और व्यक्तिवाद लोकतंत्र के बुनियाद पर ख़तरा है जो प्रतिभावान, सक्षम, और योग्य युवाओं को राजनीति में आने के अवसर से वंचित करता है। धन-बल और रसूखदार आदमी चाहे कितना भी भ्रष्ट और अनैतिक हो, ऐसे पार्टियों में आसानी से जगह पा लेता है। इन्हें संगठन में ऊंचे पद मिल जाते हैं, और अगर उस ख़ास परिवार / व्यक्ति के वफादार रहे तो सरकार में मंत्री भी बन जाते हैं। आज सभी छोटी-बड़ी पार्टियों के निर्णय प्रक्रियाओं में आंतरिक लोकतंत्र का नितांत अभाव है। पार्टियों के सांगठनिक चुनाव पाखंड और खानापूर्ति भर हैं। स्थापित दलों में ऐसा कम ही है, जहाँ 35 वर्ष से कम उम्र के युवा को पार्टी में शीर्ष नेतृत्व मिला हो। यही कारण है कि दूसरे क्षेत्रों में अच्छा कर रहे युवा राजनीति को गले लगाना नहीं चाहता। यह युवाओं के लिए राजनीति का चुनाव करने की आदर्श स्थिति नहीं है। आज देश में ऐसी कोई भी पार्टी नहीं है जिसमें युवाओं के लिए उचित स्थान हो। राजनीति से कटे युवाओं का राज्य से भी मोहभंग हो गया है। कुछ युवा यक़ीनन राजनीति में दख़ल देना चाहते हैं, परन्तु इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार, अपराध, महंगे होते चुनाव, पारदर्शिता का अभाव, अनुशासन की कमी, नैतिकता का गिरता स्तर और आंतरिक लोकतंत्र का न होना इसे काजल की कोठरी बनाता है। अभाव, असुरक्षा और अपमान युवा और राजनीति के बीच खाई बनाते हैं।
सीएसडीएस-लोकनीति द्वारा किये गए एक सर्वे में रोचक तथ्य सामने आये थे। इस सर्वे के मुताबिक़ 46% युवा राजनीति में किसी भी प्रकार की रुचि नहीं रखते। जबकि देश के 75 प्रतिशत यानी तीन-चौथाई युवा किसी भी चुनावी गतिविधियों में शामिल नहीं होते हैं। सर्वे की मानें तो 2013 के बाद से विरोध प्रदर्शनों में छात्रों की भागीदारी में कमी आयी है। 2013 में 24 प्रतिशत छात्र विरोध में शामिल होते थे, जो 2016 में घटकर 13% हो गए। डिग्री कॉलेजों में पढ़ रहे केवल 26% प्रतिशत छात्र-छात्राएँ वहाँ के किसी भी छात्र संगठनों की गतिविधियों से जुड़े हैं, जबकि 46% इनका समर्थन करते हैं। आधे से अधिक छात्र कैंपस के राजनैतिक परिदृश्य से पूरी तरह गायब हैं।
युवाओं की भागीदारी के बिना यथास्थिति में बदलाव की आशा बेमानी होगी। पिछले छः दशकों में जो भी देशव्यापी सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन हुए हैं, चाहे वह 1967 का भाषा आंदोलन हो, सम्पूर्ण क्रांति हो, असम का छात्र आंदोलन हो, या एन्टी करप्शन मूवमेंट हो, उसमें युवाओं की भागीदारी रही हो। युवाओं को ट्रोल और भीड़ बनने के बजाये राजनीति का विकल्प बनना होगा। सर्जन और निर्माण से जुड़ना होगा। राजनीति को युगधर्म मानते हुए जीवन पद्धति का हिस्सा बनाना होगा और उस मार्ग पर चलना होगा। इन्हें अपने कन्धों पर राष्ट्र-राज्य के संचालन की जिम्मेदारी लेनी होगी। युवाओं को राजनीति की मुख्यधारा में लाना और निर्णय प्रक्रिया में भागीदार बनाना आज की ज़रूरत है। अन्यथा आबादी का एक बड़ा तबका चुनाव मशीन बन कर रह गए पार्टियों के कल-पुर्जे बनकर रह जाएंगे, ट्रोलिंग का काम करेंगे और उन्माद पैदा करेंगें। उनकी ऊर्जा, जिंदाबाद-मुर्दाबाद करने में जाती रहेगी।
मुख्यधारा कि राजनीति का असर छात्र राजनीति पर भी हुआ है। वे सारे दुर्गुण जो राष्ट्रीय राजनीति में हैं, छात्र राजनीति में समा चुके हैं। वर्तमान में कुछ ही छात्र संगठनों का स्वतंत्र अस्तित्व है, शेष सारे किसी न किसी पार्टियों द्वारा पोषित हैं। यही कारण है कि 1980 के बाद से इस देश में कोई भी छात्र आंदोलन खड़ा नहीं हो सका है। यूएनडीपी की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत जैसे देश में युवाओं की सक्रिय राजनीति में भागीदारी के अवसर बेहद सीमित हैं। युवा टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के मामले में कुशल हैं। इसे औज़ार बनाकर समाज में असरकारी बदलाव लाये जा सकते हैं। युवा दो समुदाय के बीच की दीवार को ख़त्म कर सकता है। इसकी भूमिका शांति बहाल करने में हो सकती है। चाहे तो युवाशक्ति संगठित होकर अहिंसक आंदोलन का रुख अख़्तियार कर सकती है। शिक्षित, समर्थ युवा राष्ट्र के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक प्रगति के वाहक हो सकते हैं जो राष्ट्र की नींव को मज़बूत करने के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता के प्रहरी भी बन सकते हैं।
विश्वविद्यालयों में होने वाले छात्र संघ चुनाव जो कि युवा राजनीति की नर्सरी थी उन्हें भी दमन करने के प्रयास होते रहते हैं एवं कई ऐसे राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय हैं जहाँ पर युवा राजनीति के लिए कोई मंच भी प्रदान नहीं किया गया है जो युवा राजनीत को सीमित ही नहीं करते हैं बल्कि एक स्वस्थ लोकतंत्र की नींव को भी पाटते हैं। विडंबना यह है कि जहाँ पर छात्र संघ की राजनीति के लिए मौका दिया गया है वहाँ पर लिंगदोह कमेटी की बातों का भी पूरा ध्यान नहीं दिया जाता है जिससे चुनाव में होने वाले ख़र्च एवं जोड़-तोड़ की राजनीति में भी धनबल बाहुबल एवं सत्ता का प्रभाव साफ़ प्रदर्शित होता है। इसका दुष्परिणाम यह है कि आज युवा नेतृत्व जो एक स्वच्छ और स्वस्थ मानसिकता रखता है वह राजनीति को गन्दा दलदल मात्र मानकर अपनी दूरी बनाए रखता है। आज आवश्यकता है कि युवा राजनीति को अवसर प्रदान किया जाए जिसमें नेपोटिजम आधरित संगठन न हो, बल्कि योग्यता आधरित रचनात्मक निर्माण हो, जो निमार्ण उज्ज्वल राष्ट्र की भावी भवितव्य का शिरोधार्य हो और जो आदर्श युवा राजनीति का हस्ताक्षर बने।
*हिंदी भाषा एवं पत्रकारिता*
*©विमलेन्द्र द्विवेदी*
'हिंदी' मानव के बुद्धि, कौशल, विवेक, चिंतन, आचार-व्यवहार तथा संस्कृति की भाषा है। राजाराम मोहनराय ने हिन्दी को 'मुक्तिदायिनी' , बंकिम चंद्र चटर्जी ने इसे 'एक्य बंधन' का आधार, तथा दयानंद सरस्वती ने इसे 'सर्वस्व' कहा है। मलिक मोहम्मद जायसी के अनुसार हिन्दी सभी भाषाओं में वरेण्य है।
भाषा अभिव्यक्ति का साधन मात्र है। भाषा वह साधन है जो मानव को मानवता से मिलाती हैं। अपने देश के वृहद क्षेत्र में बोली और समझी जाने वाली भाषा हिन्दी है। यह हमारा सौभाग्य है कि हमारे पूर्वजों द्वारा संरक्षित, परिवर्धित, पोषित एवं संस्कारित हिन्दी भाषा हमें प्राप्त हुई है। क्या हम और हमारी पीढ़ी के लोग इसके संवर्धन एवं संरक्षण में भूमिका निभा रहे हैं? जिस तीव्रता के साथ हिन्दी भाषा के संवाद एवं व्यवहार में अन्य भाषाओं को मिश्रित कर इसे द्विगुणित दुषित किया जा रहा है, वह दिन दूर नहीं जब हमें गंगा कि तरह इसे भी संरक्षण देना पड़ जाएगा।
आधुनिकता के इस दौर में लगातार हिन्दी के लेखों, कहानियों, कविताओं, उपन्यासों आदि में नई वाली हिन्दी के नाम पर पाठक वर्ग को कुछ भी परोसा जा रहा है। सर्वदा से सरल रही हिन्दी को और सरल करने के नाम पर और आम बोलचाल की भाषा के नाम पर इसे सुदृढ़ करने के बजाए इसे कमजोर किया जा रहा है। रेणु जी जैसे तमाम उपन्यासकारों ने आंचलिक कथाओं को पोषित हिन्दी में लिख कर नवीन विधा को प्रसारित किया।
स्वतंत्रता पश्चात 14 सितंबर 1949 को हिन्दी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ। जिसके उपलक्ष्य में 14 सितंबर को हमारे देश में हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। अन्य दिवसों की तरह हिन्दी भी एक दिवस में सिमटती चली गई। हिन्दी में कार्य करने में सबसे बड़ी बाधा मनोवैज्ञानिक संकोच है। अंग्रेज़ी में कार्य करने में लोग गर्व का अनुभव करते हैं। जहाँ नई पीढ़ी के युवा उपन्यासकार अपने उपन्यासों पर बनते फ़िल्म को सर्वोच्च सफलता मानते हैं वहीं एक नए लेखक भगवंत अनमोल की उपन्यास 'जिंदगी 50-50' को कर्नाटक विश्वविद्यालय के एम ए हिन्दी पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। इससे बड़ी उपलब्धि किसी समकालीन युवा लेखक के लिए क्या हो सकती है?
हिंदी पत्रकारिता ने भी आधुनिकता कि होड़ में हिन्दी के साथ अन्याय ही किया है। पत्रकारिता अपने पाठकों या दर्शकों से दो माध्यम से जुड़ती है-विषय और भाषा। विषय का प्रस्तुतीकरण तथा विवेचन भाषा पर ही अवलंबित है। इस प्रकार भाषा का महत्त्व द्वि गुणित हो जाता है। पत्रिकाएँ, समाचार पत्र इत्यादि अपने उद्देश्य में कितना सफल हुए इसे जानने का आधार अंततोगत्वा उसकी भाषा ही होती है। तीव्रता के साथ आज पत्र-पत्रिकाओं, समाचार पत्रों और दृश्य एवं श्रव्य माध्यमों में हिन्दी भाषा के होने का डंका पीटते हुए उसमें अन्य भाषा मिश्रित कर हिन्दी को दूषित किया जा रहा है। किसी समय में समाचार पत्रों एवं संचार के अन्य माध्यमों में सही और शुद्ध भाषा के प्रयोग पर इतना अधिक ध्यान दिया जाता था कि छोटी-छोटी गलतियों पर लोग आलोचना करते थे। अब के परिवेश में हिन्दी को 'हिंग्लिश' या 'हिंग्रेजी' में प्रसारित एवं उसे स्वीकृत भी किया जा रहा है। 'हींग्लिश' एवं 'हींग्रेजी' की भाषा हिन्दी ही कही जानी चाहिए। यह शैली मात्र है। शायद यही वज़ह है कि मिलावट ही उसका जीवन है, क्योंकि मिलावट के बगैर संचार संभव नहीं।
संसार में अनेक ऐसे राष्ट्र हैं जो भौगोलिक तथा जनसंख्या कि तुलना में भारत से बहुत छोटे होते हुए भी अभिव्यक्ति एवं संवाद के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी-अपनी राजभाषा में सफलतापूर्वक कार्य कर रहे हैं। उन्हें अंग्रेज़ी भाषा अपने बंधन में कभी नहीं बाँध सकी। फ्रांस, जर्मनी, जापान और इजराइल इस बात के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। यह सब वहाँ के निवासियों की सांस्कृतिक एकता एवं भाषाई जागरूकता का परिणाम ही तो है।
अपने धर्म, दर्शन और विचार की उत्कृष्टता को यदि हम अपनी भाषा हिन्दी में लिपिबद्ध करें तो वह दिन दूर नहीं जब पूरी दुनिया हिन्दी के पीछे व्यग्र हो जाएगी। वह दिन अत्यंत समीप है जब तुलसी के राम, सूर के कृष्ण और कबीर की भीनी चदरिया के रहस्य को व्याख्यायित करने वाली हिन्दी विश्व भर में श्रेष्ठ होगी। इसी में प्रौद्योगिकी अंतरिक्ष सम्बंध रहस्य का प्रकाशन होगा तथा हिन्दी विश्व मंच पर प्रतिष्ठित होगी।
यह लेख डॉ अर्जुन तिवारी के विचारों से प्रभावित है।
We are ready with the fifth edition of our e-magazine पदचिह्न. You can read the fifth edition by clicking on the below link.
https://drive.google.com/file/d/15VLI5z_lV3LMIjUs3PQ6T5_Us2sOqWnf/view?usp=drivesdk
Don't hesitate! Just send your art. We will give space.
*युद्ध इंसान से उसका इंसान छीन लेता है*
*©विवेक*
युद्ध है ही क्या? विकल्प या संकल्प! क्या सरहद पर मरना बहादुरी का काम है? बस चंद मेडल, खूबसूरत मॉन्यूमेंट-कब्रों और चंद पल के संस्मरण के लिए अपने दुश्मनों को मारना क्या गर्व महसूस कराता है? एक-दूसरे पर बंदूक ताने, खून से लीपे-पुते, दर्द-वेदना से कहराते हुए, नींद-चैन को ताक पर रखे, मधुर पंछियों के मधुर गीतों से दूर, तनाव लिए एयर-ड्रोम एयर-क्राफ्ट के हवाई हमले करते हुए और बचने की कोशिश में कठोर ग्रेनाइट की चट्टानों को कुरेचते, खोदते हुए, कटीली झाड़ियों से भरा सुरंग में छिपने जाते हुए, फिर बंदूक में कांपते हुए गोली टटोलते हुए निशाना साधना और दुश्मनों का मरना और बचना तय करना, एक-दूसरे की सीमा में घुसपैठ करना, कातिलाना हमला करना और बचना। नाजियों द्वारा उनके यहूदी कैदियों को मारकर गिनने की तरह अपने दुश्मनों को अज्ञात नागरिकों-सा सांख्यिकीय नंबर से सूचित करना, आधार कार्ड की तरह टोल-मटोल कर ना हिलने-डुलने पर आत्म संतुष्टि के लिए पुनः गोलियों से छलनी करना, महाभारत के कुरुक्षेत्र की तरह रक्त की नदियाँ बहाना जिससे ख़ुद की भी प्यास तक नहीं बुझ सकती, एक दूसरे पर बारिश की बूंदों की तरह बम-बारूद बरसाना जिससे नवनिर्मित हरी घास के भी प्रफुल्लित होने की संभावना नहीं होती।
क्या यह बहादुरी और प्रतिष्ठा कि बात है? नहीं ऐसा तो मुझे नहीं लगता। यह अवश्य पूर्ण रूप से कायरता और नीचता दिखाता है। क्या हमारे दुश्मन भी हमारे बारे में ऐसा सब कुछ नहीं सोचते होंगे? अवश्य सोचेंगे आखिरकार वे भी तो अपने सरहद पर लड़ कर ख़ुद को बहादुर और गर्व का अनुभव होंगे, जबकि दोनों का नर्क में जाना तय है और आखरी मुलाकात नर्क में ही होगी और ईश्वर दोनों से पूछेंगे क्या तुमने महाभारत से कुछ नहीं सीखा युद्ध की परिणति क्या होती है? उसके बाद भी तुमने बम-बारूद न्यूक्लियर-रिएक्टर परमाणु बनाए, वह भी युद्ध के लिए दो-दो बार परमाणु बरसाए की नई फ़सल उगेगी, पर क्या हुआ लाखों-करोड़ों लोग बेघर हुए, अपाहिज विकलांग हुए, कई जेनरेशन तबाह हो गए फिर भी कुछ नहीं सीखे। प्रथम विश्व युद्ध से मन नहीं भरा तो आत्मविश्वास के लिए दूसरा विश्व युद्ध किया, क्या अब तुम्हें एक दूसरे के हाथों मर-कर आत्म संतुष्टि मिली, क्या तुम्हारे देश में शांति हुई, भ्रष्टाचार मिटी, हर किसी को रोटी कपड़ा मकान की उत्तम ज़रूरत मुकम्मल हुई, जवाब है नहीं, तो आखिरकार युद्ध क्यों किए, क्या सोचे ईश्वर तुम्हें स्वर्ग दिखाएगा, आओ देखो ये सभी तुम्हारे युद्ध के पूर्वजों को, देखो कैसे अपनी पाप की सजा काट रहे हैं। तुम क्या सोचे सरहद के लोगों के आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे, नहीं असल में तुम अपने सरहद के राजाओ या नेताओं, मिनिस्टरों के आजादी के अंदर अपनी गुलामी से लड़ रहे थे। इन्हें देखो, इसने ही आमेर किले में रखे दुनिया के सबसे बड़े चक्के के तोप जयबाण से सिर्फ़ एक बार गोला फेंका और उसकी भयावहता देखकर सभी कांप गए थे। शायद इन्हें पश्चाताप हुआ होगा भी, उसने फिर दोबारा उपयोग नहीं की, फिर भी अभी तक नरक की सजा काट रहे हैं और तुम तो गलती पर गलती किए जा रहे हो, पश्चाताप तो दूर की बात है। मैं चाहता हूँ मेरी आंखों ने वहाँ जो देखा है, उसे दुनिया में और कोई कभी ना देखें, उस तबाही के मंज़र को याद कर आज भी मैं थर्रा जाता हूँ, कचोट खाने लगती है। उस कैंपस में मौत वाले गैस-चेंबर्सौं को काफ़ी इंजीनियरों द्वारा बनाया गया था, मुझे अफ़सोस है कि बुद्धिजीवी शिक्षक बनकर काबिल और कुशल डॉक्टर की तरह हमारे विजय गाथा को (एक दूसरे की देशों में) इंजेक्शन में भरकर वहाँ के बच्चों को युद्ध का ज़हर दे रहे हैं। प्रशिक्षित नर्सें बच्चों को मारने में सहायक बन रही थीं, वकील हमारे बहादुरों की वकालत कर पैसा ऐंठ रहें है।
युद्ध में मैं प्रबुद्ध राक्षस, कुशल मनोरोगी और काबिल पागल बन चुका था, उससे तो बेहतर किसी बाद बाढ़ पीड़ित का राहत दल-कर्मी या गोताखोर बन लोगों की जान बचाने में बहादुरी दिखाते हुए मरते तो मुझे थोड़ी चैन मिली होती, मुझे अफ़सोस है कि महाभारत के युद्ध के परिणाम से कुछ नहीं सीखा, सम्राट अशोक ने कलिंग में हुई हानि का एहसास होते ही कभी युद्ध ना करने का संकल्प लिया और बुध विचारक बन गया। शांति अमन से सम्राट बनना स्वीकार किया फिर उसने युद्ध की अपेक्षा शांति अमन से ही बेहतरी से शासन किया और जनता द्वारा पूजा भी गया। फिर भी हम लोगों ने कुछ नहीं सीखा कि युद्ध की परिणति क्या होगी?
प्रश्न और अफसोस, वाणी की स्वतंत्रता नहीं, बल्कि विश्व-बंधुत्व के लिए है, बुद्धि के अजीर्ण से पीड़ित उन लोगों से है? आख़िर हमने किस नैतिकता कि निरीक्षण कर तुम्हें अपना शत्रु माना, क्या तुम्हारे हमारे ऊपर चढ़ाई का आईडिया तुम्हारा था या असामाजिक बुरे तत्वों का था? क्या यह हद दर्जे की नाइंसाफी नहीं है? हम में से अधिकांश पात्र बेकार कारणों की मूर्खतापूर्ण खोज में युद्ध कर मौत के घाट उतरे, जैसे अधिकांश ने एक व्यर्थ की विवाद पर जान गवायाँ। हमने एक बार भी नहीं सोचा कि तुम्हारी सरकार भी बिल्कुल मेरी तरह होगी, क्या सरहदवासी और उनके मालिक (मंत्री) तुम्हारे परिवार को वह सभी इज्जत, मुआवजा दे पाएगी भी या नहीं?
देखो-देखो इन जुलूस-वादियों, नारे-बाजों, कैंडल-मार्चौं को, क्या सच में हम लोगों से ज़्यादा ग़म, गुस्से और आक्रोश के कठिन दौर से गुजर रहे हैं या अपने अंदर छुपे भड़ास या डिप्रेशन को दूर भगाने के लिए चिल्ला रहे हैं। क्या ये सभी वाकई में हमारे लिए लड़ रहे हैं, अगर लड़ भी रहे हैं तो क्या इससे कोई फ़र्क़ पड़ने वाला है। हाँ बच्चे मैं समझ सकता हूँ तुम्हारे इस दर्द को जो अभी भी ताज़ा ज़ख़्म है, मैं यहाँ 14-18, 39-45, 65, 71, 99 सभी युद्धों को देख रह हूँ, अब तो ऐसा लगता है मेरी संवेदनाएँ भी कठुआ गई है, मन में नई चिंता उभर रही है कि कहीं मुक्त बाज़ार संस्कृति तो नहीं इन संवेदना पर कब्जा कर लिया है।
कोई किसी को संसाधन के तौर पर उपयोग करना चाह रहा है तो, कोई संसाधन का उपयोग कर रहा, कोई इकोनामिक कॉरिडोर तो, कोई सागर पर प्रभुत्व करना चाह रहा, तो कोई परंपरागत शत्रुऔं से निबटने के लिए तो, कोई अपनी टेरीटरी बढ़ा़ने के लिए तो, कोई अपना प्रभुत्व सबो पर क़ायम करने के लिए युद्ध करवा रहा। असल में युद्ध करने वाला बुरा होता है या करवाने वाला। युद्ध करवाने वाला कोई व्यक्ति विशेष नहीं होता है, बल्कि कोई व्यक्तिपरक सोच या आईडिया होता है। यह विचारधाराएँ ही है जो सभी युद्धों का कारण है, तुम्हें क्या लगता है, क्या तुम्हारे देश बुरे थे या तुम्हारे लोग बुरे थे जो मेरे हाथों मारे गए। नहीं-नहीं तुम्हारी आईडियोलॉजी के वज़ह से तुम मारे गए। हर कोई अपने आईडियोलॉजी को सर्वश्रेष्ठ ठहराने के लिए युद्ध करते या कराते हैं। तुम्हें क्या लगता है, हम अपने देश के लिए लड़ते हैं, ऐसा कर देश की सेवा कर रहे हैं। नहीं-नहीं हम असल में अपने आईडियोलॉजी के लिए लड़ते हैं और ऐसा कर अपने देश के बुरे लोगों को अन्य देशों के बुरे लोगों से बचाते हैं। कहीं तुमने सुना है कि एक बुरे लोग शहीद हुए हैं या कोई मंत्री शहीद हुए हैं, नहीं ना, असल में गलतफहमियाँ की हवा से अपनी हीन भावना सहलाने वाले लोग ही युद्ध का कारण है। अगर युद्ध करना उचित होता तो हम एक दूसरे पर युद्ध का दोष क्यों मढ़ते, क्यों इस दोष को किसी एक्स वाई जेड, abc, 123 संगठन द्वारा ठहराकर अपना बचाव करते। क्या युद्ध ही उचितथा, क्या समझौतावादी माता मर चुकी थी। युद्ध इंसान से उसका इंसान छीन लेता है। युद्ध तो युद्ध है उसका स्वभाव ही उग्र है, उस आग की तरह जिसकी कोई सरहद नहीं होती। युद्ध में जिन्हें मारा, चाहे वह सिपाही ही क्यों ना हो, वे थे अच्छे इंसान ही, हमने इंसान को दुश्मन समझ कर (मान कर) मारा जो, डी के चार अक्षर ड्रेस ड्रिल, डिसिप्लिन, ड्यूटी पकड़ युद्ध लड़ते हैं, आख़िर मरने और मारनेवाले तो एक ही अद्वौत थे, कोई द्वौत तो है नहीं इसमें।
Send your artwork.We are accepting submissions for next edition.
*तीन दशक से बेबस बिहार*
©️परितोष कुमार शाही
बिहार में पिछले तीन दशकों से सत्ता कि बागडोर लालू-राबड़ी और नीतीश के जिम्मे रही है। 1990 से 2005 तक लालू-राबड़ी की सरकार रही और 2005 से अभी तक नीतीश कुमार यहाँ के सत्ताधीश हैं। जितना समय इन सबको मिला वह बिहार को सबसे पिछड़े राज्य के दर्जे से मुक्त कराने के लिए, पर्याप्त था। लेकिन इनकी अदूरदर्शिता और भ्रष्टाचार में संलिप्तता के कारण बिहार आज भी मूलभूत सुविधाओं से काफ़ी दूर है और बड़ी शर्म की बात है बिहार आज भी पूरे देश में सभी पैमानों पर निचले स्थान पर काबिज है।
*प्रथम भाग-1999-2005 (लालू-राबड़ी शासन)*
नीतीश ने लालू-राबड़ी के 15 साल के शासन को जंगलराज कहा था। यह बात अलग है कि बिहार का हाल आज भी कमोबेश वही है। बातें सिर्फ़ नाम देने की नहीं है, लालू-राबड़ी के जंगल-राज के खिलाफ अभियान छेड़कर ही नीतीश बीजेपी के साथ मिलकर बिहार की सत्ता पर काबिज होने में कामयाब हुए थे।
कुछ उदाहरण से समझते हैं, आख़िर क्यों 1990-2005 के काल को जंगल-राज कहा जाता है।
_किडनैपिंग बन गया था उद्योग_
जंगलराज से मतलब नेताओं, नौकरशाहों, व्यापारियों, अपराधियों के आपराधिक सांठगांठ से है। लालू-राबड़ी के शासन में भी ऐसे ही नेक्सस बने थे। बिहार का चप्पा-चप्पा अपहरण, हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती, रंगदारी, भ्रष्टाचार आदि घटनाओं से लबरेज था। उस समय जो पार्टियाँ विपक्ष में थीं, उन्होंने यहाँ तक बोल दिया था कि लालू-राबड़ी शासन में किडनैपिंग को बिहार में उद्योग का दर्जा मिल गया है। खासकर डॉक्टर, इंजीनियर और बिजनेसमैन अपहरणकर्ताओं के निशाने पर रहते थे। दिनदहाड़े इन्हें उठा लिया जाता था। ऐसी घटनाएँ इस 15 साल में रोज़ ही होती थीं। _द टाइम्स ऑफ इंडिया_ की ओर से तब करवाये गए एक सर्वे के मुताबिक पता चला था कि 1992 से 2004 के बीच बिहार में कुल 32085 मामले अपहरण के आए थे। बहुत सारे ऐसे भी मामले आए थे जिनमें फिरौती की रक़म लेकर भी बंधकों को मार दिया जाता था। पुलिस प्रशासन की तो खैर बात ही छोड़ दी जाए तो बेहतर है। बिहार पुलिस की वेबसाइट के मुताबिक साल 2000 से 2005 की इस अवधि में 18189 हत्याएँ हुई। इस आंकड़े को ध्यान में रखकर इस बात का अंदाजा कोई भी लगा सकता है कि 15 सालों में 50000 से ज़्यादा लोग मौत के घाट उतार दिए गए। हैरान करने वाली बात यह है कि सिर्फ़ घोषित अपराधी मर्डर नहीं किया करते थे, बल्कि सांसदों-विधायकों के इशारे पर भी हत्याएँ होती थीं। सिवान के सांसद शहाबुद्दीन की करतूतों को भला कौन भूल सकता है? इसके अलावा बिहार जातीय हिंसा कि आग में पूरी तरह झुलस रहा था, अनेक जातीय संगठनों ने बिहार की धरती को रक्तरंजित कर दिया था।
_जाति की राजनीति_
लालू यादव को सामाजिक न्याय के प्रतीक पुरुष के रूप में देखा जाता था। दलित और कमजोर वर्ग के एक मुकम्मल आवाज़ के रूप में लालू यादव ने अपने को स्थापित किया था। लेकिन सच्चाई यह भी है कि उन्होंने दलितों और कमजोर वर्ग के लोगों को आवाज़ देने के लिए कई जातियों पर ज़ुल्म भी किया। लालू पर जाति की राजनीति को परवान चढ़ाने का भी आरोप लगता रहा है। लालू के द्वारा ही दो नारे दिए गए थे जो जातीय घृणा से प्रेरित थे, पहला _हमको परवल बहुत पसंद है_ दूसरा _भूराबाल साफ़ करो_। परवल का मतलब पूरा पाण्डेय यानी ब्राह्मण, राजपूत, वैश्य और लाला तथा भूरा का मतलब भूमिहार और राजपूत था। बाल से ब्राह्मण और लाला जाति का तात्पर्य था।
_बिहार में विकास की स्थिति जर्जर_
बात अगर विकास की हो तो लालू और राबड़ी के शासनकाल में स्थिति ऐसी भयावह हो गई थी कि क्या कहने। नए उद्योग-धंधे लगने की बात तो दूर, पहले से चल रहे उद्योग भी बंद हो गए थे। रोजगार के लिए लोगों को दूर दराज तथा दूसरे राज्यों का रुख करना पड़ा। शिक्षा कि हालत ऐसे बद से बद्तर कर दी गए कि आज भी बिहार इससे पूरी तरह नहीं उबर पा रहा है। लालू कहा करते थे डॉक्टर इंजीनियर तो अमीरों के बच्चे बनते हैं, गरीब का बच्चा तो चरवाहा बनता है। इसीलिए लालू ने चरवाहा विद्यालय खोल दिया। इन चरवाहा विद्यालयों का मकसद क्या था? इनमें कौन-सी पढ़ाई की जानी थी? इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। हाँ इसके लिए जो फंड दिया गया था, उसमें भ्रष्टाचार भरपूर हुआ। इस हालात ने बिहार के युवाओं को राज्य से बाहर जाने पर मजबूर कर दिया। सड़क की स्थिति भी भयावह थी। उस समय एक कहावत मशहूर हो गई थी बिहार की सड़कों में गड्ढे है या गड्ढों में सड़कें हैं, पता ही नहीं चलता।
आज के समय में लालू ख़ुद भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हैं और चुनाव भी नहीं लड़ सकते, इसीलिए अपने दोनों बेटों को राजनीति के मैदान में उतार दिया है। कुल मिलाकर कहा जाए तो लालू राबड़ी के शासन में बिहार में बिल्कुल हताशा-निराशा कि स्थिति बनी हुई थी। भ्रष्टाचार अपने चरम पर था, अपराधियों का बोलबाला था। बिहार की धरती रक्तरंजित थी।
*दूसरा भाग (2005-2020) नीतीश-सुमो शासन*-
घोर हताशा और निराशा के बाद बिहार ने 2005 में नया नेतृत्व पाया जिससे बहुत सारी अपेक्षाएँ थीं। जैसे कि कानून का राज हो, शिक्षा व्यवस्था सुदृढ़ हो, भ्रष्टाचार का अंत हो, सामाजिक न्याय हो, अपराधियों को सजा मिले, सड़क की अच्छी सुविधा हो, हर घर को बिजली मिले, गरीब परिवार को शौचालय मिले, गरीब परिवार के बच्चों को कुपोषण का सामना न करना पड़े, अस्पताल का निर्माण हो, गरीबों को मुफ़्त इलाज़ की सुविधा मिले, रोजगार का अवसर युवाओं को मिले इत्यादि। बिहार की जनता ने इस सरकार से ढेर सारी उम्मीदें पाल रखीं थीं। नीतीश सरकार ने आते ही कुछ कुख्यात अपराधियों को जेल में डाला, जो कि पिछले सरकार में कानून को अपने पैर की जूती भी नहीं समझते थे। सड़क की मरम्मत का कार्य भी शुरू करवाया। इस तरह से पहले पांच साल में जो कुछ थोड़ा अच्छे काम भी किया इस सरकार ने, लोगों को बहुत लगा। बात बस यही थी कि जहाँ बहुत दिन से कोई काम न हुआ हो कोई आकर थोड़ा भी कर दे तो लगता है कि यह काम पहले कभी हुआ ही नहीं था या कोई और इसे कर ही नहीं सकता था। बस इसी बात को नीतीश कुमार ने भांप लिया और बिहार की कुर्सी पर कैसे बहुत दिन तक रहा जा सकता है, इसका उपाय ढूँढ लिया।
बिहार की शिक्षा व्यवस्था कि अगर बात की जाए तो आज भी इस में कोई सुधार होता नहीं नज़र आ रहा है, आए दिन कोई न कोई घोटाला सामने आता है। कभी टॉपर घोटाला तो कभी कोई और। ये घटनाएँ बिहार की अस्मिता पर एक गहरा सवाल छोड़ जाती हैं।
कोरोना ने तो जैसे बिहार के सुशासन की तो पोल खोल कर ही रख दी है। नीतीश सरकार की अदूरदर्शिता के कारण बिहार मूलभूत स्वास्थ्य ढाँचे के मानकों से कोसों दूर है। इस वज़ह से टेस्टिंग, ट्रेसिंग और ट्रीटमेंट में कोई भी तालमेल नज़र ही नहीं आ रहा है। बिहार में पहला कोरोना केस 22 मार्च 2020 को मुंगेर जिले में मिला था और अभी तक बिहार में लगभग 40000 कंफर्म केस आ चुके हैं। हालात यह है कि अकेले पटना शहर में लगभग 90 कंटेंटमेंट जोन बन गए हैं, जिसमें 6000 से अधिक लोग संक्रमित हैं। कुप्रबंधन के चलते मामले लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। कोविड-19 ने बिहार की संस्थाओं और नीतिगत खामियों की पोल खोलकर रख दी है। सबसे ज़्यादा कुव्यवस्था स्वास्थ्य विभाग में है। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि स्वास्थ्य व्यवस्था कि मूल्यहीन सोच के चलते आज कोरोना बिहार के लिए एक अभिशाप बन गया है।
प्रदेश की लगभग 33% आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे है। अस्पताल और स्वास्थ्य सुविधाएँ तो इन्हें भी चाहिए। समाज के हर वर्ग की इस वक़्त यह पहली ज़रूरत है। लेकिन बिहार में हम पाते हैं कि राज्य को कम से कम 40 मेडिकल कॉलेजों की ज़रूरत है और यहाँ सिर्फ़ 9 है। जनसंख्या के अनुपात और घनत्व के हिसाब से राज्य में 3314 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होने चाहिए लेकिन हैं सिर्फ़ 533 केंद्र। बिहार में जनसंख्या और डॉक्टर का अनुपात देखें तो हम पाते हैं कि लगभग 45000 व्यक्तियों पर एक डॉक्टर है, जबकि डब्ल्यूएचओ ने हज़ार व्यक्तियों पर एक डॉक्टर की बात कही है बिहार स्वास्थ्य पर सबसे कम प्रति वर्ष व्यक्ति ₹491 ख़र्च करता है जो कि भारत की औसत व्यय ₹1300 की तुलना में आधे से भी कम है। बिहार में मात्र 2500 कार्यरत डॉक्टर हैं जबकि निर्धारित रिक्तियाँ लगभग 15000 है। वहीं 10000 लोगों पर सरकारी अस्पताल में सिर्फ़ एक बिस्तर है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की रिपोर्ट बताती है कि बिहार के स्वास्थ्य केंद्र में 54 फीसदी नर्सों, 30 फीसदी एमएनएस और 93 फीसदी विशेषज्ञ डाक्टरों की कमी है।
प्रदेश में जेडीयू और बीजेपी की गठबंधन सरकार है। बिहार सरकार ने केंद्र से 100 वेंटिलेटर, 10 लाख एन-95 मास्क, 500000 पीपीई कीट मांगी थी अप्रैल में। जिसकी जगह पर लगभग 70 दिन के बाद बिहार को 100 वेंटीलेटर, महज़ 50, 000 मास्क और 4000 पीपीई किट मिली। शायद यही वज़ह रही होगी जिसके कारण बिहार की अशिक्षित महिलाओं ने कोरोना माई की पूजा करके उन्हें मनाने की कोशिश की। सरकार नहीं तो शायद कोरोना माई ही मान जाए। 4 महीने में अपनी खामियों को दुरुस्त करने के बजाय सरकार के मुखिया 90 दिनों तक अपने घर में ही बैठे रहे। अब जब समय आया है कोरोना से लड़ने का तो वे चुनाव की तैयारी में जुट गए हैं। कुव्यवस्था का आलम यह है कि पिछले सप्ताह एक वेंटिलेटर युक्त अस्पताल बनवाया गया वह भी मुख्यमंत्री आवास में, बिहार शायद पहला राज्य होगा जहाँ मुख्यमंत्री आवास पर इस तरह का कोई अस्पताल बनाया गया है। बिहार के विश्वस्तरीय डॉक्टर, पॉलिसी मेकर्स, उद्योगपति और वैज्ञानिक देश-विदेश के अनेक संस्थाओं में अपने हुनर का लोहा मनवा चुके हैं। अभी भी वक़्त है बिहार सरकार तुरंत उनलोगों से संवाद क़ायम करे और सभी व्यवस्था को ठीक करने में उनसे सहयोग मांगें। ठीक-ठीक कहा जाय तो जिस डबल इंजन सरकार की बात जदयू और बीजेपी के नेता करते हैं वह बात पूरी तरह से निरर्थक है। दोनों इंजन बिहार के लिए फेल ही साबित हुए हैं।
पिछले तीन दशकों के बिहार को अगर आंका जाए तो एक बात सामने आती है कि बिहार एक दूरदर्शी नेतृत्व को तरस रहा है। यहाँ की जनता को अब एक नया और युवा नेतृत्व की ज़रूरत है जो जनता कि सेवा करने को अपना मूल कर्तव्य समझे वरना सब तो इसे उपभोग की वस्तु ही समझते हैं। इनको सेवा कि जगह मेवा नज़र आता है। अपने को पेश तो ऐसे करते हैं लगता है हम हैं तभी बिहार है, हम नहीं रहेंगे तो बिहार ही नहीं बचेगा।
बिहार के युवाओं को आगे आना होगा और इन खोखले वादों का उचित जवाब देना होगा। जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर जमाना चलता है। इस कथन को सार्थक करना होगा।
Click here to claim your Sponsored Listing.
Videos (show all)
Category
Contact the business
Telephone
Website
Address
Varanasi
221005
Varanasi
Plz follow and share the page we provide you full English grammar Material that help in your stud
Sh. 9/132A4G, Airport Road
Varanasi, 221003
Adya Publications is home to scholarly articles being published in scientific journals. All the journals are blind peer reviewed and open access. Authors with manuscript ready can ...
Varanasi, 221005
Our motto-"FROM FEELINGS TO EXPRESSION"clearly descibes its objective.We provide a platform where th
Institute Of Science, Banaras Hindu University
Varanasi, 221005
The Journal of Scientific Research (JSR) is a more than 50 years old journal published by Institute of Science, Banaras Hindu University, Varanasi, India. The JSR is listed in UGC-...
Varanasi, 221001
The leading Publisher and Distributors of Sanskrit and Ayurveda Books
Today's India News
Varanasi, 221003
"Today's India News: Where Every Headline Speaks the Truth"