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गहरी रात को भेदती ट्रेन अपनी पूरी रफ़्तार से भागी जा रही थी. खेत-खलिहान और वन-अरण्य सब अंधेरे में डूबकर पीछे छूटते जा रहे थे. कूपे की काफ़ी लाइट्स बंद हो चुकी थी, पर जया की आंखों में दूर-दूर तक नींद का नामोनिशान नहीं था. रह रहकर उसका कलेजा मुंह को आ जाता. मन में यही आ रहा था, काश! कुछ ऐसा हो जाता, जो उसे बनारस न जाना पड़ता. हमेशा बनारस जाने के ख़्याल से ही उसके पूरे शरीर में ईर्ष्या की इतनी तेज़ लहर उठती कि उसका तन-मन जला जाती. उसने देखा सामने की बर्थ पर सुनील सो चुके थे. नीचे दोनों बच्चे शाश्वत और सिद्धि भी सो चुके थे.
इस बार दीवाली पर उसे बनारस अपनी जेठानी दूर्वा के यहां जाना पड़ रहा था. उसकी सास वसुधा बीमार थीं. उनकी इच्छा थी कि दीवाली इस बार दोनों भाई बनारस में एक साथ मनाएं. सुनील तो मां की इच्छा पर जाने के लिए तुरंत तैयार हो गया था, लेकिन जया ने सुनते ही शाश्वत और सिद्धि की पढ़ाई का बहाना ढूंढ़ने की कोशिश की थी, लेकिन सुनील ने सख़्ती से कह दिया था, “मां के कहने पर हम हर हालत में बनारस जाएंगे. बच्चों की दीवाली की छुट्टियां तो हैं ही.”
जया न जाने का और कोई बहाना सोच नहीं पाई थी. दस वर्षीय शाश्वत और आठ वर्षीय सिद्धि तो एक साथ चहक कर बोले थे, “हां मम्मी, ताईजी के यहां जाना है. बहुत अच्छी हैं ताईजी.” सुनकर आगबबूला हो गई थी जया.
“ठीक है तुम जाओ. मेरा मन नहीं है.”
सुनील को ग़ुस्सा आ गया था, “तुम्हें चलना है तो चलो. मैं बच्चों को ले जाऊंगा. बैठी रहना अकेले घर में.”
सुनील का ग़ुस्सा देखकर जया ने बुझे मन से अपनी तैयारी की थी और अब न चाहते हुए भी विगत स्वयं को बार-बार दोहराने लगा था.
उसके विवाह के समय अनिल और सुनील एक साथ ही बनारस में रहते थे. जया को याद है जब उसने गृहप्रवेश किया था, चारों तरफ़ दूर्वा, दूर्वा की पुकार थी. पहले उसने इसे सामान्य रूप से लेने की कोशिश की, लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते रहे उसके दिल में दूर्वा के प्रति ईर्ष्या ने ऐसी जगह बनाई कि आज भी इतने सालों बाद वह भावना उसी जगह ठहर गई थी.
उसे याद है सुनील ने उसे कहा था, “जया, भाभी ने इस घर के हर सदस्य के लिए बहुत किया है. उनका दिल कभी न दुखाना. पिताजी के अंतिम समय में जितनी सेवा की है भाभी ने, कोई नहीं भुला पाएगा कभी.” वसुधा भी हर बात में दूर्वा से सलाह लेती थीं. दूर्वा ने जया को भी बहुत स्नेह दिया, लेकिन सुनील के मुंह से दूर्वा की तारीफ़ सुन वह नारी सुलभ ईर्ष्या से भर उठती. सुनील जब भी जया के लिए कुछ लाता, दूर्वा के लिए भी ज़रूर कुछ होता. दूर्वा की हर बात में जया को दिखावा लगने लगा, वह सोचने लगी इस औरत ने सबको अपनी मीठी बातों में फंसा रखा है.
वह दूर्वा से बहुत कटती चली गई. छुट्टी के दिन दूर्वा सब बच्चों के सिर में तेल लगाने बैठ जाती तो सुनील को भी आवाज देती, “सोनू, तुम भी आ जाओ.”
जया जल जाती. एक बार तो सुनील से कहा भी, “तुम क्या बच्चे हो जो उनसे तेल लगवाने बैठ जाते हो.”
सुनील हंसता, “और क्या, उनके लिए तो अभी भी बच्चा ही हूं.”
जया ने कहा था, “तुम्हारे बालों में तेल मैं भी लगा सकती हूं, मुझे क्यों नहीं कहते इतना ही शौक है तो.”
“यह भी कोई बात है, अगली बार तुम लगा देना.”
जया का मायका लखनऊ में था. ये सारी बातें उसने अपनी मम्मी को बताईं थी, तो उन्होंने उसे दूर्वा से दूर रहने की ही सलाह दी.
जया को ट्रेन में अपनी बर्थ पर करवटें बदलते हुए याद आ रहा था. एक बार सुनील को तेज़ बुख़ार था, उसे हॉस्पिटल में एडमिट करना पड़ा था. सबके बार-बार कहने पर भी दूर्वा ने न रात को आराम किया न दिन में. बस घर और हॉस्पिटल के चक्कर ही काटती रही थी दूर्वा. जया के मन में अब तक तो सिर्फ़ ईर्ष्या थी, लेकिन अब उसकी बेचैनी और तड़प देखकर जया के मन में जो शक उभर आया उसे वह अब तक निकाल नहीं पाई थी. जब उसने अपनी मम्मी को सुनील की बीमारी में दूर्वा की बेचैनी बताई, तो उन्होंने झट से कहा था, “देवर से इतना लगाव? कोई बात तो ज़रूर है. ऐसे थोड़े ही कोई किसी के लिए इतना परेशान होता है.”
और फिर जया ने दूर्वा से इतनी दूरी रखनी शुरू कर दी कि सुनील ने चुपचाप दिल्ली ट्रांसफर करवाने में ही सबकी भलाई समझी थी. दिल्ली जाने के बाद सुनील ही बनारस आता रहा था. जया इन दो सालों में एक बार भी नहीं आई थी. जया को लेकर सबने एक चुप्पी ओढ़ ली थी और अब वसुधा बीमार थीं और न चाहते हुए भी वह बनारस जा रही थी.
बनारस पहुंचकर शाश्वत और सिद्धि तो वसुधा और दूर्वा से चिपट गए. दूर्वा के दोनों बेटे वेदांत और दिव्यांशु सुनील को देखकर चाचा-चाचा करते चहक उठे. जया सबसे अलग-थलग खड़ी थी. दूर्वा ने उसे गले लगाते हुए कहा, “यहां से जाकर तुम तो सबको भूल गई जया.” जया कुछ बोली नहीं. जया को छोड़कर सब एक-दूसरे से मिलकर ख़ुश थे. वसुधा दिल की मरीज थीं. इस समय वह अपनी बीमारी भूलकर बच्चों को गले लगाए बैठी थीं. अनिल हंसा, “देखा सुनील, इस समय मां बीमार लग रही हैं?”
सुनील हंसा, “भाभी की देखरेख में मां बीमार रह भी नहीं सकती ज़्यादा दिन.” कहकर सबको अपने लाए उपहार देने लगा. फिर सब नहा-धोकर फ्री हुए तो दूर्वा ने कहा, “सब आ जाओ नाश्ता करने. मैं गरम-गरम बना रही हूं. सोनू, जया सब आ जाओ.” सुलग उठी जया, घर में सुनील को सोनू कोई नहीं कहता है. इसे पता नहीं क्या पड़ी है इतना प्यार दिखाने की और अनिल भैया, क्या इन्हें भी बुरा नहीं लगता दूर्वा का सोनू-सोनू करना.
अपनी पसंद का नाश्ता देखकर सुनील हंस पड़ा, “वाह भाभी, मटर की कचौरी और आलू की सब्ज़ी! आप कभी नहीं भूलती मेरी पसंद.” जया को बहुत गंभीर देखकर वसुधा ने कहा, “क्या बात है जया, तबीयत तो ठीक है?”
“कुछ नहीं मां, सफ़र की थकान है. ट्रेन में भी रातभर नींद नहीं आई.” दूर्वा ने स्नेह भरे स्वर से कहा, “तुम नाश्ता करके आराम कर लो जया, थोड़ा सो लोगी तो ठीक लगेगा.”
नाश्ता करके चारों बच्चे मस्ती करने लगे. वसुधा बेटों के साथ बातों में व्यस्त हो गई. जया अनिच्छा से दूर्वा का किचन में हाथ बंटाने लगी, लेकिन दूर्वा ने उसे ज़बरदस्ती आराम करने भेज दिया. दूर्वा का मन जया से बहुत सी बातें करने का होता, लेकिन जया का रुखा-सूखा रवैय्या देखकर वह मन ही मन आहत रहती. दूर्वा ने इतने सालों में जया से अच्छे संबंध रखने की अपनी तरफ़ से बहुत कोशिश की थी, लेकिन जया की बेरुखी का कारण वह कभी समझ नहीं पाई. अब सब जया का स्वभाव ऐसा ही समझकर चुप रहते थे. दूर्वा अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी और उसके माता-पिता भी अब इस दुनिया में नहीं थे.
अगले दिन दीवाली थी. शाम को सुनील ने जया से कहा, “जाओ भाभी के साथ मार्केट जाकर देख लो क्या-क्या लाना है. बच्चों को हम लोग देख लेंगे.” अनिल ने भी अकेले में दूर्वा से कहा, “जाओ, सुनील, जया और बच्चों के लिए जया की पसंद से ही कुछ ख़रीद लेना.”
दोनों बाज़ार चली गईं, रास्ते में दूर्वा ने पूछा, “जया, दशाश्वमेध घाट चलोगी? तुम्हें वहां अच्छा लगता है न?”
“नहीं भाभी, अभी मन नहीं है.”
“चलो आई हो, तो विश्वनाथ मंदिर में दर्शन कर लेते हैं.”
“नहीं भाभी, फिर कभी.” दूर्वा चुप हो गई. हमेशा जया में छोटी बहन ढूंढ़ने की कोशिश अधूरी ही रह जाती थी. जया के साथ हंसने-बोलने का बहुत मन था, लेकिन जया की ख़ामोशी देखकर बस शॉपिंग करना शुरू किया. जया की पसंद से सुनील और बच्चों के लिए कपड़े ख़रीद लिए तो दूर्वा ने कहा, “अब अपने लिए एक साड़ी भी ले लो.”
“भाभी, रहने दो. मन नहीं है.”
दूर्वा के बहुत कहने पर भी जया ने अपने लिए कुछ नहीं लिया. दोनों घर लौट आई तो वसुधा ने कहा,
“दूर्वा, जया की साड़ी कहां है?”
“मां, बहुत कहा पर उसने नहीं ली, कहा मन नहीं है.”
वसुधा को बुरा लगा, “इसमें मन की क्या बात है? त्योहार है, अगर बड़े दिलवा रहे हैं, तो उसे तो ख़ुश होना चाहिए. पता नहीं उसके दिमाग़ में क्या चलता रहता है.”
“अभी तो ये लोग दो-तीन दिन यहां हैं. बाद में दिलवा दूंगी. मां, आप परेशान न हों.”
वसुधा जानती थीं जया के दिल में दूर्वा के लिए ज़रा भी प्यार और सम्मान नहीं है, लेकिन कुछ बोलने पर बात और न बढ़ जाए इसलिए चुप रहती थीं.
दीवाली का पूजन पूरे घर ने, जया को छोड़कर ख़ुशी-ख़ुशी किया. सुनील तो वेदांत और दिव्यांशु के साथ उनकी उम्र का ही बन जाता था. उसने बच्चों के साथ बहुत मस्ती की. सुनील अनिल से सात साल छोटा था. सुनील ने बच्चों के साथ मिलकर बहुत पटाखे छुड़ाए. जया अलग एक रूम में बैठी रही. वह मन ही मन वापस जाने का समय गिन रही थी. दूर्वा की उपस्थिति भी वह अपने आसपास सहन नहीं कर पाती थी. शक की एक भावना ने उसके मन पर ऐसा पर्दा डाल रखा था जहां से दूर्वा का स्नेह, अपनापन उसके दिल को छू भी नहीं पाता था. डिनर सबने साथ किया, सुनील दूर्वा के बनाए पकवानों की तारीफ़ जी खोलकर करता रहा.
बच्चे सब एक रूम में सो गए. सुनील-जया का बेडरूप तो आज भी वैसा ही था जो पहली मंजिल पर था. वसुधा और अनिल के बेडरूम नीचे ही थे. सुनील सो चुका था, लेकिन जया को नींद नहीं आ रही थी. उसे तेज़ सिरदर्द महसूस होने लगा. फर्स्टएड बॉक्स नीचे किचन में ही था, उसी में कोई सिरदर्द की दवाई होगी, यह सोचकर वह धीरे-धीरे उठकर नीचे किचन तक जाने लगी. दूर्वा के बेडरूम के दरवाज़े से हल्की रोशनी बाहर आ रही थी. रात के दो बजे थे. अंदर से अनिल और दूर्वा की आवाज़ें आ रही थीं. साथ ही साथ दूर्वा की सिसकियां भी कानों में पड़ी, तो जया ने धीरे से दरवाज़े पर कान लगा दिए.
अनिल गंभीर स्वर में दूर्वा को कह रहा था, “उसे तुम्हारे स्नेह की कोई कद्र नहीं है. पता नहीं क्यों तुमसे इतनी खिंची-खिंची रहती है. सबके साथ हंसती-बोलती, तो कितना अच्छा रहता. सुनील और मां भी मन ही मन तुम्हारा अपमान देखकर दुखी हो जाते हैं. मैंने कभी कुछ कहा नहीं, लेकिन मेरा अंदाज़ा है जया शायद सुनील के प्रति तुम्हारा लगाव सहन नहीं कर पाती है. जब तुम सोनू-सोनू करती हो, तो कभी जया का चेहरा देखा है उस समय?”
दूर्वा की सिसकियों में बंधी आवाज़ गूंजी, “जब हमारी शादी हुई थी मां ने मुझे एक ही बात कही थी, सुनील को अपना बेटा समझना, कभी उससे नाराज़ मत होना. वो कोई ग़लती भी करे, तो उसे माफ़ कर देना. तुम्हारे स्नेह से दोनों भाइयों में भी प्यार बना रहेगा और वो दिन और आज का दिन, मैंने हमेशा अपने आप को तीन बेटों की मां समझा है और मुझे इस बारे में किसी को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है.”
बाहर खड़ी जया को अपने ऊपर बहुत शर्म आई. उसे आत्मग्लानि हुई. वह इतने सालों से क्या सोच रही है और दूर्वा के दिल में सुनील के लिए अपने बेटे जैसा स्नेह है. यह क्या किया उसने, कैसे माफ़ी मांगे वह. दूर्वा के निश्छल, निर्मल व पावन स्नेह के प्रति उसका मन श्रद्धा से भर उठा. उसने हमेशा दूर्वा का दिल दुखाया है, सोचती हुई वह चुपचाप अपने बेड पर जाकर लेट गई. दवाई लेना भी वह भूल चुकी थी. पछतावा उसकी आंखों से आंसुओं के रूप में बह निकला. पूरी रात उसे अपना एक-एक व्यवहार याद आता रहा. नहीं, अभी भी वह सब संभाल सकती है. बेकार के शक में पड़कर वह इन रिश्तों के बीच पनपती छोटी-छोटी ख़ुशियों को क्यों अनदेखा करती रही, जो इंसान को सच्चा सुख देती हैं.
सुबह उसने सबसे पहले बिस्तर छोड़ दिया. दूर्वा जब फ्रेश होकर किचन में पहुंची तो हैरान हो गई, जया उसके लिए चाय बना रही थी. दूर्वा ने कहा, “जया, इतनी जल्दी उठ गई? ठीक से सोई नहीं?” जया ने हंसते हुए कहा, “बस, आपकी चाय बनाने का मन हो गया भाभी.” दूर्वा हैरान सी जया का मुंह देखने लगी. जया ने कहा, “आज आप आराम करेंगी, नाश्ता मैं बना रही हूं.” फिर कुछ सोचकर हंसते हुए बोली, “नहीं, आप ही कुछ बनाना अपने सोनू की पसंद का. मेरे हाथ का तो वहां रोज़ ही खाते हैं. मैं बाकी काम कर लेती हूं.” कहकर जया उसके हाथ में चाय का कप देकर किचन से निकल गई. उसका मन हल्का हो गया था. दिल और दिमाग़ पर छाई धुंध दूर्वा के स्नेह से छंट गई थी. आज सुबह के सूरज की चमकती किरणों ने उसके दिल के हर कोने को चमका दिया था. अभिभूत हो गई थी दूर्वा, कुछ न समझ आने वाले अंदाज़ में वह जया को जाते देखती रही.
#शेयर 🙏
" #शादी_करोगे_मुझसे?"
आँखें, जो पतले काजल में कुछ और खूबसूरत लगने लगती थीं, शशि के चेहरे पर फिक्स करते हुए नीतू ने सीधा सवाल किया।
"नही", शशि ने बिना कोई हिचक दिखाए जवाब दिया।
"पक्का?"
"ह्म्म्म...पक्का"
"पर क्यों? क्या मैं तुम्हें पसंद नहीं?"
"नहीं, वो बात नहीं है...पर तुम तो जानती हो तुम्हारे पापा नहीं मानेंगे।"
"तो हम भाग जाते हैं ना?"
"बिल्कुल नहीं। प्रेम में ये फिल्मी हरकतें ठीक नही"
"फाइन...तो मैं किसी और से शादी कर रही हूंँ और अगले संडे लड़के वाले मुझे देखने आ रहे है।"
आँसू और गुस्सा नीतू के चेहरे पर एक साथ आ गए थे।
"गुस्सा तो ठीक है पर आँसू मत गिराओ, मेकअप खराब हो जाएगा, और हाँ...लड़के वालों के सामने साड़ी में जाना, उसमें खूबसूरती बढ़ जाती है तुम्हारी।" शशि ने माहौल हल्का ही रखने की कोशिश की।
"हुँह...मैं किसी भी कपड़े में जाऊं..तुम्हें क्या?"
नीतू का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था। "खैर, मुझे देर हो रही मुझे तो जाना होगा।" नीतू को बात खत्म करने की जल्दी थी।
"ओके, पर दूल्हे राजा की फ़ोटो तो दिखाओ"
"मैंने खुद नहीं देखा...वैसे भी तुम्हें क्या फर्क पड़ता है! घर वालों ने देखा होगा तो ठीक ही होगा। है ना?"
उसने अपना पर्स उठाया और पलट कर वापस देखे बिना तेज़ी से बाहर की तरफ बढ़ चली। ..…......................................
आज इतवार का वो दिन था, घर का हर सदस्य बिजी दिख रहा था, आखिर लड़के वाले आधे घंटे में पहुँचने वाले थे।
"दीदी लड़के वाले आ गये...जल्दी से नीचे आ जाओ।"
छोटी बहन ने नीचे से आवाज़ दी। नीतू के मन में अजीब सी कश्मकश थी, मोबाइल उठाया और सोचा कि एक आखिरी बार कॉल कर ले शशि को, क्या पता अभी भी बिगड़ी बात संवर जाए...कि तभी शशि के नम्बर से मैसेज ब्लिंक हुआ..."All the Best"
जाने क्यों मैसेज देखकर उसकी आँखों में फिर से आंसू आ गये। रही सही उम्मीद भी बुझ गयी। उसका नंबर डिलीट करके मोबाइल एक तरफ रख दिया।
"जल्दी करो बेटा।" नीचे से आवाज़ आयी।
नीचे, छोटी बहन ने चाय की ट्रे उसको देते हुए कहा "आज पीली साड़ी में तो तुम 'विवाह' वाली 'अमृता राव' लग रही हो।"
अपने ही परिचित कमरे में उसे कुछ अनजान लोगों के बीच में बैठा दिया गया, जहां हर कोई उसको अपने आने तरीके से देख रहा था। क्या करती हो? क्या क्या शौक हैं? क्या क्या बना लेती हो ?
जितने लोग, उससे ज्यादा सवाल।
"देखिये भाई साहब, बिटिया तो हमें बहुत पसंद है...बस लड़का-लड़की एक दूसरे को देख ले तो ..."
उसने कनखियों से सामने बैठे लड़के को देखा जो सीधे उसी की तरफ ही देख रहा था। सकपकाकर नीतू ने नजरें नीचे कर ली। ढंग से देख भी न पाई। ऐसे कैसे किसी अंजान आदमी के साथ जिंदगी की राह पर बढ़ चले। उसकी आंखें फिर से छलकने को आतुर थीं।
"सॉरी पापा , मैं थोड़ा लेट हो गया ...कुछ ज्यादा ही ट्रैफिक था आज" कमरे में दाखिल होते हुए किसी की नई आवाज गूंजी।
"ये तो उसी की आवाज़ थी।" एक झटके से नीतू ने सर उठाकर इधर उधर देखा।
"लीजिये भाई साब, आ गया लड़का!"
नजरें मिली तो सामने ब्लैक शर्ट में खड़ा शशि मुस्कुरा रहा था...वही जानी पहचानी स्माइल जो नीतू को जान से ज्यादा प्यारी थी।
"तुम!"
नीतू को भरोसा नहीं हो रहा था की वो उसके सामने खड़ा था। कलेजे में ठंडक पड़ना क्या होता है वो आज समझ रही थी।
"जी मैडम, मैं" शशि थोड़ा झुककर पोज़ देता हुए बोला। उसके होठों पर अभी भी शरारती मुस्कान थी।
"बेटा, ये सबका प्लान था, कि तुम्हें सरप्राइज दें।"
शशि की माँ ने नीतू को गले लगाते हुए कहा।
"सरप्राइज़ड कम, शॉक में ज्यादा लग रही है नीतू" शशि केे बड़े भाई ने मुस्कुराते हुए कहा।
" वो बिल्कुल उसके सामने खड़ा होकर, उसकी आँखों में आँखें डाल के पूछ रहा था।"
"आइये" उसने भी आंखों घूरते हुए पीछे आने का इशारा किया।
किचन में पहले तो दो तीन मिनट सन्नाटा रहा ...फिर उसका गुस्सा फूट पड़ा।
"तुम ना...दुष्ट हो...बता नहीं सकते थे?"
"अरे तुम्हें तो खुश होना चाहिए ...इतनी मेहनत से सरप्राइज प्लान किया और तुम रो रही! वैसे पीली साड़ी में तो गज़ब ढा रही हो मोहतरमा।"
"ज्यादा मस्का मारने की जरूरत नहीं है।" नीतू ने गैस की नॉब धीरे करते हुए कहा।
"सॉरी'"
"मुझे तुमसे बात ही नहीं करनी है।" नीतू लड़ने के पूरे मूड में थी।
"सॉरी बोल तो रहा।"
लड़के ने मासूमियत से अपने दोनों कान पकड़ते हुए कहा।
4-5 सेकंड तक वो उसको ऐसे ही देखती रही । फिर अपने आप ही उसके सीने से जा लगी।
बहुत देर से रोककर रखे आंसू शशि की शर्ट भिगो रहे थे।
#शेयर 🙏
विवाह के दो वर्ष हुए थे जब सुहानी गर्भवती होने पर अपने घर पंजाब जा रही थी ...पति शहर से बाहर थे ...
जिस रिश्ते के भाई को स्टेशन से ट्रेन मे बिठाने को कहा था वो लेट होती ट्रेन की वजह से रुकने में मूड में नहीं था इसीलिए समान सहित प्लेटफॉर्म पर बनी बेंच पर बिठा कर चला गया ....
गाड़ी को पांचवे प्लेटफार्म पर आना था ...
गर्भवती सुहानी को सातवाँ माह चल रहा था. सामान अधिक होने से एक कुली से बात कर ली....
बेहद दुबला पतला बुजुर्ग...पेट पालने की विवशता उसकी आँखों में थी ...एक याचना के साथ सामान उठाने को आतुर ....
सुहानी ने उसे पंद्रह रुपये में तय कर लिया और टेक लगा कर बैठ गई.... तकरीबन डेढ़ घंटे बाद गाडी आने की घोषणा हुई ...लेकिन वो बुजुर्ग कुली कहीं नहीं दिखा ...
कोई दूसरा कुली भी खाली नज़र नही आ रहा था.....ट्रेन छूटने पर वापस घर जाना भी संभव नही था ...
रात के साढ़े बारह बज चुके थे ..सुहानी का मन घबराने लगा ...
तभी वो बुजुर्ग दूर से भाग कर आता हुआ दिखाई दिया .... बोला चिंता न करो बिटिया हम चढ़ा देंगे गाडी में ...भागने से उसकी साँस फूल रही थी ..उसने लपक कर सामान उठाया ...और आने का इशारा किया
सीढ़ी चढ़ कर पुल से पार जाना था कयोकि अचानक ट्रेन ने प्लेटफार्म चेंज करा था जो अब नौ नम्बर पर आ रही थी
वो साँस फूलने से धीरे धीरे चल रहा था और सुहानी भी तेज चलने हालत में न थी
गाडी ने सीटी दे दी
भाग कर अपना स्लीपर कोच का डब्बा ढूंढा ....
डिब्बा प्लेटफार्म खत्म होने के बाद इंजिन के पास था। वहां प्लेटफार्म की लाईट भी नहीं थी और वहां से चढ़ना भी बहुत मुश्किल था ....
सुहानी पलटकर उसे आते हुए देख ट्रेन मे चढ़ गई...तुरंत ट्रेन रेंगने लगी ...कुली अभी दौड़ ही रहा था ...
हिम्मत करके उसने एक एक सामान रेलगाड़ी के पायदान के पास रख दिया ।
अब आगे बिलकुल अन्धेरा था ..
जब तक सुहानी ने हडबडाये कांपते हाथों से दस का और पांच का का नोट निकाला ...
तब तक कुली की हथेली दूर हो चुकी थी...
उसकी दौड़ने की रफ़्तार तेज हुई ..
मगर साथ ही ट्रेन की रफ़्तार भी ....
वो बेबसी से उसकी दूर होती खाली हथेली देखती रही ...
और फिर उसका हाथ जोड़ना नमस्ते
और आशीर्वाद की मुद्रा में ....
उसकी गरीबी ...
उसका पेट ....
उसकी मेहनत ...
उसका सहयोग ...
सब एक साथ सुहानी की आँखों में कौंध गए ..
उस घटना के बाद सुहानी डिलीवरी के बाद दुबारा स्टेशन पर उस बुजुर्ग कुली को खोजती रही मगर वो कभी दुबारा नही मिला ...
आज वो जगह जगह दान आदि करती है मगर आज तक कोई भी दान वो कर्जा नहीं उतार पाया उस रात उस बुजुर्ग की कर्मठ हथेली ने किया था ...
सच है कुछ कर्ज कभी नही उतारे जा सकते......!!
#शेयर 🙏
गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षित जागरूक करने का प्रयास जारी हैं। आज दूसरे सेंटर पर बच्चियों को निःशुल्क शिक्षित जागरूक करने का प्रयास ✍️
#बेटी #बेटी_बचाओ_बेटी_पढ़ाओ ✍️ ✍️
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