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"एक चुटकी सिंदूर की कीमत
तुम क्या जानो आधुनिक बहनों"
छठवें वेतनमान के अनुसार यह मेरा पहला जॉब था। एक बहुत प्यारी सी, सुंदर सी लड़की मित्र बनी। मेरा पहला दिन ही था जब वह विवाह की शुभ सूचना के साथ मिठाई बांट रही थी। बातचीत हुई तो पता चला होनेवाला पति बचपन से सहपाठी, मित्र और प्रेमी रहा था। सीआरपीएफ में असिस्टेंट कमांडेंट के लिए सेलेक्ट हो जाने के बाद अब दोनों विवाह करने वाले थे।
वह रोज नयी नयी साड़ियाँ, ज्वैलरी, चूड़ियों आदि की शॉपिंग करती, कभी कभी हमें भी दिखाती। मैं तो कल्पना ही करती रह जाती थी कि उस जैसी रूपवती, कोमलांगी कन्या पूर्ण श्रृंगार में कैसी अप्सरा लगेगी। चटख रंगों की भारी बनारसी साड़ियाँ, मैचिंग की चूड़ियों के हैवी सैट, कुंदन की ज्वैलरी... उसकी पसंद देखते ही बनती थी।
उसके विवाह का दिन आ गया। पूरे स्टाफ को संयुक्त रूप से कार्ड द्वारा आमंत्रित किया गया था। कड़ाके की सर्दी और दूर की वेन्यू होने के कारण मैं विवाह में सम्मिलित नहीं हो सकी। अब प्रतीक्षा थी कब वह वापस आती है। उसके पति को अपनी ट्रेनिंग पर वापिस जाना था सो वह विवाह के दो दिन बाद ही ऑफिस आ गई। जैसा मेरा अनुमान था, मात्र दो ही दिन में वह पहले से इतनी अधिक सुंदर हो गई थी कि देखकर नजर उतारने का मन हो आया। सुनहरे बूटे वाली लाल हरी बनारसी साड़ी, मेंहदी लगी कलाइयों में हाथभर दर्जन चूड़ियाँ, सोने के कंगन, गले में मंगलसूत्र। सच कहूँ, लाल साड़ी पहने माँ लक्ष्मी का चित्र याद हो आया उसे देखकर।
पर शायद स्टाफ की सभी महिलाएं मेरी तरह पिछड़ी सोच की नहीं थीं। स्टाफ रूम में पहुंचते ही सहकर्मी महिलाओं ने मीठे मीठे व्यंग्य बाण छोड़ने शुरु कर दिए।
"आज तो पूरी क्रिसमस ट्री बनकर आई हो सोनिका।"
"बिल्कुल देहाती बहू लग रही हो बन्नो रानी।"
"थोड़ा ओवर लग रहा है। कुछ लाइट कलर के सिंथेटिक साड़ियां और सलवार सूट वगैरा नहीं लिए क्या तुमने?"
"इतनी बड़ी नगवाली बिंदी? और ये माँग तो गजब माथे से पीछे गरदन तक पूरी भरी है तुमने। डेली ऐसे ही भरोगी? वैस्टर्न के साथ तो बड़ा 'ऑड' लगेगा।"
"कोई नहीं। नयी नयी शादी में शौक होता है। कुछ दिनों में खुद हँसेगी ये अपना ये रूप देखकर।"
"तू तो स्मार्ट है यार। कैसे ये सब लाद रखा है? बड़ी गावठी लग रही है। मेरी बात सुन, हाथ में एक एक गोल्ड का कंगन डाल, माथे पर सिंदूर स्टिक से टचअप कर और बिंदी बिल्कुल नन्ही सी लगा। देख कितनी हैपनिंग लगेगी।"
अगले दिन, वही लड़की क्रीम कलर के गोल्डेन बॉर्डर वाले प्योर सिल्क के सूट में एक हाथ में गोल्ड ब्रेसलेट स्टाइल घड़ी दूसरे में गोल्डेन कंगन, माँग में सिंदूर स्टिक से नाममात्र का टचअप लगाकर वह भी बालों से कवर किया हुआ, माथे पर शिल्पा की आठ नंबर छोटी सी मैरून बिंदी। नो पायल, नो मंगलसूत्र। मिशन अकंप्लिश्ड।
बहुत सी लड़कियां, स्त्रियाँ स्वयं अपनी इच्छा से नहीं छोड़तीं सुहागचिन्ह धारण करना। उन्हें तो अहसास तक नहीं हो पाता कि आधुनिकता की आड़ में कितनी कुटिलतापूर्वक उन्हें उनके सबसे सुंदर, शिष्ट और गौरवमयी रूप से वंचित किया जा रहा है। वर्षों की, दशकों की कंडीशनिंग और ब्रेनवॉश की शिकार पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करने वाली उनकी सहकर्मी हिंदू महिलाएं ही उन्हें इतना अपमानित महसूस कराती हैं कि इस पियर प्रेशर से तंग आकर वे स्वयं ही विवाहित जीवन के सभी चिन्ह त्यागकर आधुनिका बन जाती हैं। हालांकि ऐसी महिलाओं की भी समाज में कमी नहीं जो सार्वजनिक जीवन में अविवाहित और कमउम्र दिखने के लिए स्वेच्छा से ही सुहाग चिन्हों का त्याग कर देती हैं।
और इसका भरपूर प्रतिदान भी उन्हें तब मिलता है जब उनके इर्दगिर्द मँडराने वाले या वर्कप्लेस पर विजिट करनेवाले ठरकी पुरुष सहकर्मी उन्हें "आप इतनी यंग एंड फ्रैश लगती हैं कि आपको देखकर लगता ही नहीं आपकी शादी हो चुकी है" जैसे कॉंप्लीमेंट देते हैं। कोई कहता है, "आपकी शादी नहीं हुई होती तो कसम से मैं आपको प्रपोज कर देता", "बड़े लकी हैं आपके हस्बैंड। कोई और ना बाजी मार ले इसलिए इतनी जल्दी शादी कर ली आपसे वरना आपको देखकर कौन कह सकता है आप मैरिड भी हो सकतीं हैं"। यह सुनकर मधु कैटभ के जाल में फँसती हुई स्त्रियों की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता। सचमुच मैं इतनी यंग और ब्यूटीफुल हूँ तो क्यों चूड़ी सिंदूर मंगलसूत्र बिंदी लादकर आंटीजी बनकर घूमूं? अब परंपराओं की डोर से कटकर स्वच्छंद उड़नेवाली यह पतंग कहाँ गिर पड़े, कौन लूट ले,क्या कहा जा सकता है!
गर्ल्स इंटर कॉलेज में वाइस प्रिंसिपल मेरी सुशिक्षित बुआ बिंदी, सिंदूर, चूड़ियों को पहनने से पहले श्रद्धा से आँखें बंदकर माथे से लगातीं थीं। अन्यथा तो यह तो कोई पगली देहातिन विवाहिता ही मान सकती है कि उसकी माँग का सिंदूर उसकी बिंदिया उसके बिछुए मंगलसूत्र उसके पति की विघ्न बाधाओं और अकाल मृत्यु तक से रक्षा करते हैं। जीवनभर पति का नाम तक मुँह से ना लेने वाली गँवार स्त्री भी सीधे सीधे यह नहीं कहती कि मेरा पति दीर्घायु हो, बल्कि कहती है, 'हे बीजासन माता, मेरी माँग का सिंदूर बनाए रखना"। अब यह क्या मूर्खता है यह समझना जरा जरा सी बात में तलाक लेने के लिए तत्पर, घरेलू हिंसा का आरोप लगाकर पुलिस में फँसा देने की धमकी देकर मैरिड लाइफ चला रहीं अति आत्मनिर्भर, उच्च शिक्षित अति आधुनिका क्रांतिकारी स्त्रियों के बस की बात तो नहीं।
"सुहागन के सर का ताज होता है चुटकी भर सिंदूर..."
#साभार #सनातन #सनातनविचार #परंपरा
मैं थांसूं दूर नहीं हूँ...
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा भी नहीं होती।
राजनीति की यह फितरत देखते हुए मैं स्मरण करता हूँ अपनी उन कक्षाओं का जिनमें हमें राजस्थान का एकीकरण पढ़ाया गया। निहायत उबाऊ कक्षाएं जिनमें न स्वयं शिक्षक आश्वस्त थे न ही सिलेबस कि कब पूर्व राजस्थान बना और कब वृहत्। सालों साल एकीकरण के चरण रटे (अब भी रट रहे हैं) और परीक्षाएं दे दी किन्तु सात चरणों से आगे कुछ न जान पाए।
स्नातक स्तर पर पहली बार ऐसे शिक्षक मिले जो बिना किताब के पढ़ाते थे। इतिहास में रुचि उत्पन्न हुई क्योंकि उनकी किस्सागोई गजब की थी। उनसे पढ़ा हुआ राजस्थान का एकीकरण अब भी याद है। इस दौरान दो चमत्कृत व्यक्तित्व जिन पर शिक्षक ने एकीकरण के अध्याय को केंद्रित किया वह थे, सरदार पटेल और वी पी मेनन। किस राजा की किस तरह नस दबाकर, डरा धमकाकर उन्होंने इतना मुश्किल कार्य संपन्न किया, वह कोई और कर ही नहीं सकते थे। पटेल सचमुच लौहपुरुष थे वरना निरंकुश राजे महाराजे कहीं वश में आने वाले थे?
इसी दौरान सुना जोधपुर के एकीकरण का वह वाकया। कैसे जोधपुर के देशद्रोही राजा ने जिन्ना के हाथों जोधपुर सौंपने का निर्णय ले लिया था और सरदार पटेल ने उन्हें धमकाकर विलय पत्र पर हस्ताक्षर करवाए। उन्होंने राजा से कहा, “अपनी हिंदू जनता को मुसलमानों के हाथों सौंपते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती? वीपी मेनन ने राजा की ओर पेन बढ़ाते हुए कहा, तलवारों और बंदूकों वाले दिन गए। चुपचाप विलय पत्र पर हस्ताक्षर करो। झेंपे हुए राजा ने हस्ताक्षर किए और जोधपुर का भारत में विलय हुआ।”
शब्द हुबहू नहीं शिक्षक के पर कहानी बिल्कुल यही। कहानी कितनी इंटरेस्टिंग है न? सिलेबस से इतर इतिहास नहीं पढ़ता तो मैं भी अपने विद्यार्थियों को यही कहानी सुनाता और अच्छे शिक्षक होने का खिताब भी लुटता।
मेरे साथ पढ़ने वाले सब लोगों को ये कहानियाँ याद होंगी। मुझसे पहले और बाद में उन शिक्षक ने कितने विद्यार्थियों की खेपें निकाली होंगी और जिस पुस्तक से शिक्षक ने पढ़ा उस पुस्तक ने ऐसे कितने शिक्षकों की खेपें निकाली होंगी! किसी जाति या समाज के प्रति जहर एकाएक नहीं घुलता, वह पीढ़ी दर पीढ़ी घुलता है, एक सोचा समझा एजेंडा चलता है, फिर वही दृढ़मूल होकर सच्चाई का रूप लेने लगता है।
इसी जहर के शिकार हुए अधिकांश राजे रजवाड़े और एक बहुआयामी व्यक्तित्व जो न केवल योग्य प्रशासक थे अपितु जबरदस्त आत्मविश्वासी, दृढ़निश्चयी और कूटनीतिज्ञ भी थे। पोलो के मैदान में उनके खेल का कोई सानी नहीं था तो विमान उड़ाना तो शौकभर के लिए सीख लिया और प्रेम किया तो घर बार तक त्याग दिया।
यहाँ बात की जा रही है जोधपुर के महराजा हणवंत सिंह जी की जिन्होंने 6 अप्रेल 1949 को मारवाड़ में एक प्रगतिशील कानून 'कास्तकारी व भूराजस्व अधिनियम' लागू किया। ये दोनों अधिनियम भारत के छः सौ रजवाड़ों में सबसे पहले लागू किये गए थे। इस अधिनियम के तहत मारवाड़ के लाखों किसान कास्तकार एक ही दिन में अपने खेतों के स्थायी खातेदार (बापीदार) बन गये। उन्हें इसके लिये कोई रक़म न तो सरकार को देनी पड़ी और न ही किसी जागीरदार को।
मारवाड़ का वह हीरो जो रियासतों के एकीकरण को लेकर सहसा विलेन की भूमिका में आ गए और सदा के लिए इसी रूप में स्थापित हो गए। क्योंकि असल पन्नों को न तो पलटा गया और न ही पलटने वालों पर गौर किया गया।
गाय की काली पूंछ को 'काली है' 'काली है' कहकर इतना प्रचारित किया गया कि उसके सफेद रंग की ओर किसी का ध्यान ही न जा पाए। एक पच्चीस वर्ष का युवक शासक अपनी प्रजा के बेहतर भविष्य के लिए यहाँ वहाँ भटककर वह हरसंभव प्रयास करता है जिससे मारवाड़ की प्रजा किसी निर्मोही की बेटी की तरह अपने शासक को यह कहकर न कोसे कि, “हमें किसके हाथों सौंप दिया?”
एक युवक जो भारत के तत्कालीन रियासती मामलों के सचिव को उसीके घर में गरजकर यह कहने का साहस रखता है कि, “अगर तुमने जोधपुर की जनता को भूखों मारा तो मैं तुम्हें मार दूँगा।”
जिन्होंने जिन्ना के ब्लैंक चैक ऑफर को ठुकराकर भारत को चुना, वे अचानक विलेन क्यों बन गए? दरअसल महाराजा की विलय को लेकर कुछ शर्तें थीं जो मारवाड़ की जनता के हितों से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हुई थी। 11 अगस्त 1947 की सुबह दिल्ली में वायसराय हाउस पहुँचकर उन्होने लॉर्ड माउंटबेटन और वीपी मेनन से उन शर्तों पर बात की जिनमें अकाल राहत के लिए खाद्य सामग्री और जोधपुर से कच्छ के बंदरगाह तक रेलवे लाइन का प्राथमिकता से निर्माण प्रमुख था। मेनन जी ऊँचे नीचे हुए तो महाराजा गरजे और फिर एक बदनाम कहानी निकलकर आई जिसको कुछ लोगों ने खूब भुनाया।
वो ज़हर देता तो सब की निगह में आ जाता, सो ये किया कि मुझे वक़्त पे दवाएँ न दीं।
किंतु यह प्रजा है न? यह धान के साथ लूण भी खाती है। वह अपने शासक को जानती थी।
इन फिजाओं को कुछ कुछ स्वयं बापजी (महाराजा) भी भांप चुके थे इसलिए उन्होंने जनतंत्र को शिरोधार्य कर प्रथम चुनावों में सक्रिय भागीदारी निभाने की सोची। 1952 के प्रथम चुनावों में बकायदा एक चेतावनी वाला व्यक्तव्य जारी किया गया, “यदि राजा चुनाव में काँग्रेस के खिलाफ खड़े हुए तो उन्हें अपने प्रिवीपर्स (हाथखर्च) और विशेषाधिकारों से हाथ धोना पड़ेगा।”
उक्त धमकी भरे वक्तव्य का जवाब जोधपुर महाराजा ने निर्भयता से दिया जो 7 दिसंबर, 1951 के अंग्रेजी दैनिक “हिंदुस्तान टाइम्स” में छपा...
“राजाओं के राजनीति में भाग लेने पर रोक टोक नहीं है। नरेशों को उन्हें दिए गए विशेषाधिकारों की रक्षा के लिए हायतौबा करने की क्या जरुरत है? जब रियासतें ही भारत के मानचित्र से मिटा दी गई, तो थोथे विशेषाधिकार केवल बच्चों के खिलौनों सा दिखावा है। सामन्ती शासन का युग समाप्त हो जाने के बाद आज स्वतंत्र भारत में भूतपूर्व नरेशों के सामने एक ही रास्ता है कि वे जनसाधारण की कोटि तक उठने की कोशिश करें।... एक निरर्थक आभूषण के रूप में जीवन बिताने की अपेक्षा उनके लिए यह कहीं ज्यादा अच्छा होगा कि राष्ट्र की जीवनधारा के साथ चलते हुए सच्चे अर्थ में जनसेवक और उसी आधार पर अपने बल की नींव डाले।”
1952 में हुए पहले आम चुनाव में महाराजा ने मारवाड़ में जनतंत्र की विजय पताका फहरा दी। महाराजा ने उस चुनाव में राजस्थान के 35 स्थानों पर अपने समर्थित प्रत्याशी विधानसभा चुनाव में उतारे जिनमें से 31 उम्मीदवार जीते। इस चुनाव में मारवाड़ के जोधपुर, जैसलमेर, सिरोही, पाली, जालोर, बाड़मेर की 26 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली।
जोधपुर में महाराजा ने 78.62 प्रतिशत वोट लेकर मुख्यमंत्री पदारूढ़ जयनारायण व्यास जी को हराया। यहाँ व्यास जी सिर्फ 21.38 फीसदी वोट पा सके। यही नहीं व्यास जी ने आहोर विधानसभा क्षेत्र से भी चुनाव लड़ा, जहाँ महाराजा ने एक जागीरदार को उतारा, वहाँ भी व्यास जी जीत नहीं पाये। जोधपुर-बी और जालोर-ए दो सीटों पर चुनाव लड़ने वाले व्यास जी दोनों ही जगह बुरी तरह हार गए। मारवाड़ की चारों लोकसभा सीटें जोधपुर, बाड़मेर- जालोर, सिरोही-पाली, नागौर-पाली भी काँग्रेस गंवा बैठी।
एलएस राठौड़ अपनी 'लाइफ एंड टाइम ऑफ महाराजा हनवंत सिंह' किताब में लिखते हैं, “महाराज हनवंत सिंह गजब के आकर्षण से मारवाड़ में जबरदस्त लोकप्रिय थे।”
एक युवक भारत भर में उभरती राजनीतिक कूटनीति पर अपनी प्रजा के प्रेम और उनके अटूट विश्वास के बल पर विराम चिह्न तो लगा देता है मगर उस विजय के सुख को अपनी आँखों से देखने के लिए जीवित नहीं रहते। अट्ठाइस की उम्र भी क्या उम्र रही होगी मगर बिल्लियों के भाग के छींके टूटे। आजाद भारत की राजनीति में भूचाल लाने वाले ये युवक महाराजा मारवाड़ की जमीन से ऊपर उड़े तो ऐसे उड़े कि फिर कभी मारवाड़ न लौटे। जिस विमान से कलाबाजियाँ दिखाकर उन्होंने वी पी मेनन की साँसें थमा दीं वही विमान (शायद) धोखा दे गया। (कुछ इस घटना को साजिश मानते हैं तो कुछ महज दुर्घटना)... जो भी हो, मारवाड़ की जनता जनतंत्र की अभूतपूर्व विजय का जश्न मना ही रही थी कि सबको भीषण आघात पहुँचा। मृत्यु शाश्वत सत्य है किंतु किसी विजेता की मृत्यु निश्चय ही मार्मिक तो होगी। विजय मिले पर नायक ही न रहे तो कैसी विजय और कैसा उल्लास। किलकारियाँ चित्कारों में बदल गई।
'मैं थांसूं दूर नहीं हूँ', का आश्वासन देकर दु:खद रूप से अपनी इहलीला समाप्त कर लेने वाले 'मारवाड़ धणी' के शोक में मारवाड़ के कई घरों में चूल्हे नहीं जले। पार्थिव देह को केश देने के लिए जोधपुर की सड़कों पर कतारें लग गई। उस समय की कई राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं के मुख पृष्ठ बताते हैं कि पाँच सौ से अधिक नाइयों ने दिन रात लगकर हजारों लोगों का केश कर्तन किया।
सिकंदर ने सच ही कहा, “साहस के साथ जीना और चिर प्रसिद्धि छोड़कर मरना सबसे खूबसूरत बात है।”
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