Shabdveni
"किस्सागोई तो हर खून में है... हमनें भी कुछ शब्दों को तराशा है!"
समस्या यह है कि हमें लगता है कि हमारे पास समय है। #बुद्ध
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खुदा की इतनी बड़ी कायनात में इक शख़्स मिला... - बशीर बद्र
Voice Over: Meenakshi Shukla
#बशीर
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लोग करते क्या हैं? - रघुवीर सहाय #रघुवीर
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना #
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स्टोरीलाइन:
एक बेवा औरत और उसकी दो जवान यतीम बेटियाँ। जवान बेटियों के लिए बेवा को उम्मीद है कि वह भी किसी दिन अपनी बच्चियों के लिए चौथी का जोड़ा तैयार करेगी। उसकी यह उम्मीद एक वक़्त परवान भी चढ़ती है, जब उसका भतीजा नौकरी के सिलसिले में उसके पास आ कर कुछ दिन के लिए ठहरता है। लेकिन जब यह उम्मीद टूटती है तो चौथी का वह जोड़ा जिसे वह अपनी जवान बेटी के लिए तैयार करने के सपने देखती थी वह बेटी के कफ़न में बदल जाता है।
"चौथी का जोड़ा" | इस्मत चुग़ताई | "Chauthi ka Joda" by Ismat Chugtai | Story | SHABDVENI | "चौथी का जोड़ा" | इस्मत चुग़ताई | "Chauthi ka Joda" by Ismat Chugtai | Story | SHABDVENI | Meenakshi Shukla | "एक बेवा औरत और उसकी दो जवान यतीम बेट...
इस बार हमारे "SHABDVENI YOUTUBE LIVE" में "कवि व लेखक मुकेश कुमार सिन्हा जी" होंगे। मुकेश जी बेगुसराय, बिहार से हैं। वर्तमान सम्प्रति : केंद्रीय राज्य मंत्री, भारत सरकार, के साथ सम्बद्ध है और लोधी गार्डन, नई दिल्ली में रहते हैं। इन्होंने गणित में बीएससी किया है।
लेखन में काफ़ी सक्रिय हैं। अब तक इनके दो संग्रह : हमिंगबर्ड और ... है न ! कविता-संग्रह (हिन्दयुग्म प्रकाशन) और लप्रेक : लाल फ्रॉक वाली लड़की (बोधि प्रकाशन) से आ चुकी है। इन्होंने संपादन में: कारवां - साझा कविता संग्रह (हिन्दयुग्म), शतरंग साझा कविता संग्रह (समर प्रकाशन)
सह- संपादन: कस्तूरी, पगडंडियाँ, गुलमोहर, तुहिन, गूँज व 100कदम (साझा कविता संग्रह) (हिन्दयुग्म) (350 से अधिक रचनाकारों की कवितायेँ शामिल) की हैं।
मुकेश जी का ब्लॉग: जिंदगी की राहें (http://jindagikeerahen.blogspot.in/)
(सौ श्रेष्ठ हिंदी ब्लॉग्स में शामिल), (दस लाख से ज्यादा ट्रेफिक) है। गूँज अभिव्यक्ति दिल की(http://goonjabhivyaktidilki.blogspot.in/)
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तो, आप भी ज़रूर आइयेगा "03सितम्बर, रविवार, शाम 05 बजे" !
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मुकेश कुमार सिन्हा
#शब्दवेणी #रिश्ते
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Lihaaf- Ismat Chughtai | लिहाफ़ - इस्मत चुग़ताई की चर्चित विवादित कहानी | Hindi Stories | Shabdveni
"Lihaaf" is a 1942 Urdu short story written by Ismat Chughtai. Published in the Urdu literary journal Adab-i-Latif, it led to much controversy, uproar and an obscenity trial, where Ismat had to defend herself in the Lahore Court.
Ismat Chugtai's 'Lihaaf', is tongue and cheek narration of a Begum's discreet affair with her handmaidan. 'Lihaaf' caused quite a storm both in Book stores and is courts when Ismat was tired for obscenity!
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लिहाफ एक उर्दू लघु कहानी है जिसने इस्मत चुगताई को अपने विवादों के लिए लोकप्रिय बना दिया। क्योंकि इसे नारीवादी कार्य (नारीवाद - पुरुषों पर नहीं बल्कि सामाजिक संरचनाओं पर हमला। इसमें 'कामुकता' व्यक्त करने की स्वतंत्रता भी शामिल है जो समाज के अनुसार सही नहीं है) के रूप में ब्रांड किया गया था और प्रतिबंधित कर दिया गया था।
एक भयानक स्मृति
यह कहानी एक अनाम कथावाचक की 'भयानक' स्मृति है जो उसके बचपन के दौरान घटी थी। जब वह सर्दियों में खुद को ढकने के लिए रजाई लेती है तो उसकी यादें ताज़ा हो जाती हैं।
लेकिन इस लघु कहानी को एक छोटी लड़की ने अपने दृष्टिकोण से सुनाया है और कहानी में किसी भी तरह की अश्लील भाषा का इस्तेमाल नहीं किया गया है। इस्मत की यही दलील थी कि मामला सुलझ गया, कहानी मशहूर हो गई और उन्हें शोहरत मिली.
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#शब्दवेणी #इस्मत_चुगताई #लिहाफ #सुभद्रा_कुमारी_चौहान #देव #उपासक
Lihaaf- Ismat Chughtai | लिहाफ़ - इस्मत चुग़ताई की चर्चित विवादित कहानी | Hindi Stories | Shabdveni Lihaaf- Ismat Chughtai | लिहाफ़ - इस्मत चुग़ताई की चर्चित विवादित कहानी | Hindi Stories | Shabdveni "Lihaaf" is a 1942 Urdu short story written by Ismat Ch...
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#ईश्वर #पत्तियां
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A love story of Kargil soldier!✨✨
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अगर एक लड़की भागती है
तो यह हमेशा जरूरी नहीं है
कि कोई लड़का भी भागा होगा
©️ आलोक धन्वा
#कविता #लड़की
अमीबा
है न...! (कविता-संग्रह)
©️ मुकेश कुमार सिन्हा
प्रस्तुति: मीनाक्षी शुक्ला
#मुकेश_कुमार_सिन्हा #है_न #कविता_संग्रह #हिंदीसाहित्य #हिंदीकविता #हिंदीशायरी #हिंदी #अमीबा
बहुत बहुत धन्यवाद आपका मंच!🌻🙏
कुछ कविता!
लेकिन फ़िर भी कहूंगा
मर जाना
कविता करने से
बेहतर विकल्प नहीं है।
©️ भास्कर कविश
Recitation by: Meenakshi Shukla
सिर्फ़ एक बंदा काफ़ी हैं...
कुछ दिन पहले ही टीवी खोलते बापू जी चेहरा दिखा... ठिठक कर वहीं रूक गई। प्रोमो चल रहा था "एक बंदा काफ़ी है"
मुझे तसल्ली से ये पूरी फिल्म देखनी थी। पर, हमारे जैसे को ये तसल्ली भी मिलती... ख़ैर, तीन टुकड़ों में पूरी फ़िल्म ख़त्म की... दो दिनों में!
हमारे बिहार में भी अन्य राज्यों की तरह ही बाबाओं का बड़ा क्रेज़ रहता है। सन् 2012-13 के दरम्यान की बात, भगवान मंदिरों की शोभा में योगदान दे रहे थे... बाकी का कार्यभार बाबाओं ने ले रखा था। अंधभक्ति लोगों के दिलों से होकर आश्रम, भजन-कीर्तन घरों में तस्वीर रखने से लेकर बाबाओं के मन्दिर तक बनने शुरु हो गए थे। बाबा भी इतने मस्त हुए कि भगवान को ही आँख दिखाने पर अमादा हो उठे।
हमारे दियाद में एक परिवार रहता था, जो बापू जी का बड़ा भक्त! चाचा पंजाब गए कमाने और ले आए बापू जी को और पूरे परिवार को बांट दिया। अब पूरा परिवार दिन रात रटे... बापू! देवता को उठाया... बापू को बिठाया! जब बापू को पुलिस ने उठाया... खबरें तो दावानल की तरह फैली, परन्तु परिवार की साधना भक्ति में एक भी बाधा अबतक नहीं आई। अभी पिछले साल ही मायके होकर आई.. शाम को हाल चाल लेने गई... अब तो बच्चे भी बड़े हो गए हैं, हमें बिठाया और कहने लगी चाची, "बइठो बेटा... साँझ हो गइल पूजा आरती करी के आवे छिये!" चाची के साथ बच्चे भी सुर में सुर मिलाते हुए दिखे... अंधश्रद्धा!
अभी जहां रहती हूं, बालकनी से सामने वाले बिल्डिंग की एक अपार्टमेंट में बाबा की बड़ी तस्वीर दिखती रहती है, जाने क्यूं हर बार मन खिन्न हुआ जाता है।
'मनोज बाजपेई' हमेशा से मुझे प्रभावित करते रहे हैं। इस फिल्म के साधारण क़िरदार को कितने सशक्त ढंग से निभाया है कि तारीफ़ में शब्द कम पड़े। अधिकतर सीन कोर्टरूम के है, पर कहीं भी बोझिल नहीं करती। कोर्टरूम का एक सीन जब लड़की कहती हैं कि बाबा ने मेरे सलवार में हाथ डाला... आपकी रूहें कांप जायेगी! अंतिम सीन कोर्टरूम का जिसमें फाइनल जस्टिस से पहले मनोज बाजपेई जी का वक्तव्य आपके रोंगटे खड़े कर देता है... रावण को मृत्यु के बाद भी मोक्ष नहीं मिलता... किसीको ये अधिकार नहीं कि आपके द्वारा किए गए सामाजिक सरोकार के बहुत बहुत अच्छे कार्य आपको कुछ भी करने की अनुमति देता है... स्त्री का अपमान, उसकी अनुमति के बिना छूना... महत्वपूर्ण था, नाबालिक लड़की के निजी अंगों को छूना भी बलात्कार की श्रेणी में रखा गया है।
फ़िल्म देखते हुए सोच रही थी कि चाची फ़िल्म देखने के बाद भी क्या इतनी ही श्रद्धा से भक्ति करेंगी? बेटी तो उसके भी है...!
©️ Meenakshi Shukla
https://youtu.be/HxhC3qBWpR8
कैसी लगी विडियो और कवर पेज... ज़रूर कमेंट करें!🌻
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ईद मुबारक/Eid Mubarak/ केदारनाथ अग्रवाल #shorts #shabdveni #meenakshi_shukla #eid
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Ku Bol Nhi Pati | Meenakshi | Poem and Kahaniyan | Hindi poetry If you are interested in performing Poetry/Storytelling/ Shayari..!You can go through the registration link below: you can Whattsapp your queries to -- 7678...
. "बदलाव... एक प्रक्रिया है, जो आजीवन चलता रहता है!
अपने आपको बहुत ही बोल्ड.. (आजकल का आधुनिक शब्द ) प्रस्तुत करने के लिए कलम को सम्मान देना सीखना चाहिए.. न कि शब्दों के साथ उसकी शालीनता का गला घोंटना चाहिये। किसी भी विषय को प्रस्तुत करने से पहले सार्वजनिक मर्यादा भी आवश्यक होती है.. जैसे आप भरे बाजार में शौच नहीं कर सकते। स्वयं को शीशे के सामने खड़े होकर देखना चाहिए.. कपड़ों के साथ।
अर्धसत्य लेखन किसी भी मापदंड पर खरा नहीं उतरता। और, एक बात वो साहित्य तो बिल्कुल भी नहीं होता। सत् संगति आपको उत्तम बनाती है। आप जैसा सोचते है और जैसा ग्रहण करते हैं.. आप धीरे-धीरे वैसे ही बनते चले जाते हैं।
याद रहें!
पृथ्वी का जन्म भी घटना स्वरूप ही हुआ था।"
यदा कदा ऐसे पोस्ट आँखों के सामने आ ही जाते हैं। ख़ासकर, सही चीजों को भी लिखने के लिए शरीर के निजी अंगों के भी तस्वीर कला के नाम पर प्रस्तुत किया जाता है, ध्यान रहे कि यहां स्त्री-पुरुष दोनों के ही होते हैं। इन सबको पढ़ते हुए कई बार ये ख़्याल आया कि इनके शब्दों की मर्यादा... इसे रहने देते हैं!
बोल्डनेस... के नाम पर शरीर के निजी अंगों के अलावा कुछ भी नहीं मिला। क्या आपको लगता है.. ये बदलाव की ओर उन्मुख है या पतन की ओर जा रहे है। ये जो हर जगह अपने आपको साबित करते फिरते हैं.. क्या साबित करना होता है इनको! और, उम्र.. अभी-अभी पैदा हुए हैं। सारा ज्ञान पूर्वजन्म से ही सीख कर आये हैं।
अभिमन्यु से भी अधिक फास्ट.. फास्टफूड का जमाना है!
सिर्फ.. रोना.. लड़कियों के लिए दया.. सारे आदमी गलत... 'आदमी और औरत' इससे ऊपर सोच ही नहीं जाती।
अगर, किसी लड़की के साथ घटना हो गई.. चाहे कोई भी उम्र हो.. सबसे अधिक समाज में आदमी की तुलना से अधिक औरत ही उसको अपने हाव भाव और भी कई तरह से उसका जीना मुश्किल कर देती है। पूरी जिंदगी उसे याद दिलाती रहती है। अगर, हो सके तो उस आदमी को भी पूरी जिंदगी उसके कुकर्म याद दिलवाना.. ये नहीं हो पाता है।
जो गलत है.. वो गलत ही रहेगा! हर युग.. हर काल में घटनाएं होती रहेंगी। जो दोषी होंगे.. किसी-न किसी विधि जरूर जायेंगे।
सबसे जरूरी.. शुरूआत स्वस्थ समाज के लिए घर से कीजिये। बच्चों को हर तरह की जानकारी जरूर दें और साथ ही, मर्यादित रहना भी और अपने डर से निपटना और आत्मरक्षा के गुर .. सजगता.. और भी बहुत कुछ.. आजकल सबको पता है।
परन्तु, बोल्डनेस के नाम पर अश्लीलता नहीं!
किसी को अगर मेरी बातों से ठेस पहुंची हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ!
🙏
©️Meenakshi Shukla
#बदलाव #अश्लीलता
आजकल कंगन पहन रही वो... कहती हैं अनादर नहीं किया कभी रस्मों का ... लेकिन, अपनी भी सहूलियत को नज़रंदाज़ नहीं कर सकती...!
🌻🌻
#चूड़ियाँ #कंगन #इश्क़ #शब्द_और_मैं #प्रेम_और_मोह
note: कोरोना काल में लिखा था...
अभी रात को जैसे ही खाने बैठे बिल्कुल से हिल गई धरती... खाना-वाना छोड़ बच्चों को लिया भागी नीचे.. तो पता चला इतने दिनों में कि बिल्डिंग में और भी लोग हैं.. भूकंप की तीव्रता 4.6 थी.. एक तो लॉकडाउन.. अत्यंत संक्रमित रोग 'कोरोना' का डर.. दूसरा भूकंप... और भी कई परेशानियां.. फिर भी उम्मीद है कि हम रहेंगे.. फिर से मुस्कुरायेंगे... हैं न!
"आमतौर पर ऐसा ही होता है जब भी कोई चीज जीवन में परेशान करती हो या तंग करती हो तो वहां से निकलने के एक सौ एक बहाने ले आते है जीवन में या यूं कहें ढूंढ ढूंढ के तरीकों को लाते हैं और फिर आजमाते हैं क्योंकि हमें हर हाल में उन से निकलना होता है... कुछ ऐसा ही होता है मानव-स्वभाव...
इधर कुछ दिनों से मुझे अपने डिनर सेट की बड़ी याद आ रही थी जो मायके में ही रह गई थी... मैं सोच रही थी कि इस बार जब भी जाऊंगी हालात ठीक होने पर... उसे लेकर आऊंगी ऐसे तो हमारे घर में अधिकतर स्टील के बर्तन यूज होते हैं कभी-कभार तांबे के भी.. मेरी शादी में पापा के दोस्त ने गिफ्ट किया था डिनर सेट.. काफी चर्चित हुए थे पापा बता रहे थे... वह 'बोन चाइना' का फाइन सेट है काफी महंगा मिलता है.. मैं भी बड़ी खुश हुई सोचा बाद में ले जाऊंगी अच्छा इंप्रेशन पड़ेगा...
लेकिन, 'बोन चाइना' थोड़ा खटक गया.. जिस तरह के हालात आजकल देश में चल रहे है.. 'कोरोना' का भी तो सारा श्रेय चीन को ही जाता है... उसपर आजकल सीमा विवाद का मुद्दा छाया हुआ है.. बार-बार चीन 1962 की हार याद दिलाता है... अब तो विश्वास भी होने लगा है कि पहले चीन ने 'बायोलॉजिकल हथियार' बनाये और अब अपनी विस्तारवादी नीति को बढ़ावा दे रहा है.. खैर, भारत अब अपने सीमा विवाद और आंतरिक मुद्दों को सुलझाने और निपटाने में सक्षम हैं... 1962 का भारत और आज के भारत में फर्क है.. 'हिन्दी-चीनी भाई भाई' जैसी कोई बात नहीं है.. भारत के अंदरूनी मसलें पर भले ही कितने विवाद हो परंतु , बाह्य मसलों पर एकजुटता हैं और हमसबके रगों में देशभक्ति और राष्ट्रीयता दौड़ती है
अब तो आये दिन चीनी सामानों का उपयोग न करने पर जोर दिया जा रहा है... चीनी बाजारों ने अच्छा-खासा भारत में अपने पैर पसार रखे है.. चीनी नकल करने में बहुत आगे हैं आप कुछ भी सामान बनाओ... चीनी उसे बेहद कम लागत में बनाकर हुबहू तैयार कर लेते हैं और अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेच देते हैं जिससे अच्छा खासा मुनाफा हो जाता है और वह समान बहुत सस्ते और टिकाऊ भी होते हैं... चीनी सामान में ही नहीं हमारे डिजिटल दुनिया में भी पूरी तरह घुस गए हैं इसका अच्छा उदाहरण 'टिक टॉक' से भला और क्या होगा.. हम कितनी भी कोशिश कर ले तुरंत हम अपने जीवन से इन चीजों को नहीं निकाल सकते.. समय लगेगा... क्योंकि, निम्न से लेकर मध्यमवर्गीय लोग तक भी दो पैसे बचाने के लिए हमेशा सस्ती और टिकाऊ चीजें खरीदते हैं जो उसे आसानी से मिल जाता है भारत में बनी चीजें थोड़ी महंगी होती हैं अब धीरे-धीरे हो सकता है स्वदेशी अपनाएंगे... इसका एक कारण हमने अपने भारतीय बाजारों में चीनियों को घुसपैठ करने दिया तभी वह आए... हमने उपयोग किया तभी बिके... वह विक्रेता रहे और हम उपभोक्ता बने रहे..
तो हम बात कर रहे थे 'बोन चाइना' की.. मैंने उत्सुकतावश नेट सर्फिंग किया तो जो मैंने पाया वह चौंकाने वाला था.. 'बोन चाइना' दरअसल गाय और भैंस की हड्डियों से बनाया गया बर्तन होता है... चीनी मिट्टी तक के तो बर्तन समझ में आते थे लेकिन 'बोन चाइना'... भगवान का शुक्र है कि वह अभी वही पड़ा है.. भले ही स्टील के बर्तनों में खाने से ना तो हमें कुछ लाभ मिलता है ना ही कुछ हमारा नुकसान होता है मगर खुशी इस बात की है जाने अनजाने हमसे भूल तो नहीं हुई है... गाय माता जो हमारे धर्म के पहचान है उस पाप से बचे रहे... उसके बाद, मैंने अपने घर में कप और कुछ बर्तन चेक किए... अच्छा है, जो साधारण चीनी मिट्टी से ही बने हैं... 'बोन चाइना' से बने बर्तन वह हल्के पारदर्शी होते हैं
अधिक दुःख इस बात का हुआ कि अब यह हमारे भारत में भी बनता है वह भी बहुत बड़े पैमाने पर.. जब तक लोग खाते नहीं है खरीदते नहीं है तो बनता कैसे है...??
चीनी सामानों का तो हम जो भी है उसका उपयोग धीरे-धीरे हमारे दैनिक जीवन से चला भी जाएगा.. लेकिन, जो हमारे देश में हो रहा है उसका क्या...?? आप भी जरूर सोचियेगा.. नेट सर्फिंग कीजिएगा तो पता चलेगा कि यह 'बोन चाइना' क्या है...??
धन्यवाद🙏🙏
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©️ Meenakshi Shukla #लेखन #शब्द_और_मैं #विचार
#शब्द_और_मैं #प्रेम_और_मोह #लेखन #उदासी #मर्ज #विचार
कल रात सोचा था अब कुछ दिन पोस्ट नहीं करूँगा, लेकिन आज सुबह पर्सनल फेसबुक अकाउंट की मेमोरी में ये पोस्ट दिखा, तो सोचा ये सभी को पढ़ना ज़रूर चाहिए.
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#सावित्री_बाई_फुले 🙏
आज भारत की औरतों का जन्मदिन है। क्या आप जानते हैं?
दो साड़ी लेकर जाती थीं। रास्ते में कुछ लोग उन पर गोबर फेंक देते थे। गोबर फेंकने वाले ब्राह्मणों का मानना था कि शूद्र-अतिशूद्रो को पढ़ने का अधिकार नहीं है। घर से जो साड़ी पहनकर निकलती थीं वो दुर्गंध से भर जाती थी। स्कूल पहुँच कर दूसरी साड़ी पहन लेती थीं। फिर लड़कियों को पढ़ाने लगती थीं। यह घटना 1 जनवरी 1848 के आस-पास की है। इसी दिन सावित्री बाई फुले ने पुणे शहर के भिड़ेवाडी में लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला था। आज उनका जन्मदिन है। आज के दिन भारत की सभी महिलाओं और पुरुषों को उनके सम्मान में उन्हीं की तरह का टीका लगाना चाहिए। क्योंकि इस महिला ने स्त्रियों को ही नहीं मर्दों को भी उनकी जड़ता और मूर्खता से आज़ाद किया है।
इस साल दो जनवरी को केरल में अलग-अलग दावों के अनुसार तीस से पचास लाख औरतें छह सौ किमी रास्ते पर दीवार बन कर खड़ी थीं। 1848 में सावित्री बाई अकेले ही भारत की करोड़ों औरतों के लिए दीवार बन कर खड़ी हो गई थीं। केरल की इस दीवार की नींव सावित्री बाई ने अकेले डाली थी। अपने पति ज्येतिबा फुले और सगुणाबाई से मिलकर।इनकी जीवनी से गुज़रिए आप गर्व से भर जाएँगे। सावित्री बाई की तस्वीर हर स्कूल में होनी चाहिए चाहे वह सरकारी हो या प्राइवेट। दुनिया के इतिहास में ऐसे महिला नहीं हुई। जिस ब्राह्मणवाद ने उन पर गोबर फेंके, उनके पति ज्योति बा को पढ़ने से पिता को इतना धमकाया कि पिता ने बेटे को घर से ही निकाल दिया। उस सावित्री बाई ने एक ब्राह्मण की जान बचाई जब उससे एक महिला गर्भवती हो गई। गाँव के लोग दोनों को मार रहे थे। सावित्री बाई पहुँच गईं और दोनों को बचा लिया।
सावित्री बाई ने पहला स्कूल नहीं खोला, पहली अध्यापिका नहीं बनीं बल्कि भारत में औरतें अब वैसी नहीं दिखेंगी जैसी दिखती आई हैं, इसका पहला जीता जागता मौलिक चार्टर बन गईं। उन्होंने भारत की मरी हुई और मार दी गई औरतों को दोबारा से जन्म दिया। मर्दों का चोर समाज पुणे की विधवाओं को गर्भवती कर आत्महत्या के लिए छोड़ जाता था। सावित्री बाई ने ऐसी गर्भवती विधवाओं के लिए जो किया है उसकी मिसाल दुनिया में शायद ही हो। “1892 में उन्होंने महिला सेवा मंडल के रूप में पुणे की विधवा स्त्रियों के आर्थिक विकास के लिए देश का पहला महिला संगठन बनाया। इस संगठन में हर 15 दिनों में सावित्रीबाई स्वयं सभी गरीब दलित और विधवा स्त्रियों से चर्चा करतीं, उनकी समस्या सुनती और उसे दूर करने का उपाय भी सुझाती।” मैंने यह हिस्सा फार्वर्ड प्रेस में सुजाता पारमिता के लेख से लिया है । सुजाता ने सावित्रीबाई फुले का जीवन-वृत विस्तार से लिखा है। आप उसे पढ़िए और शिक्षक हैं तो क्लास रूम में पढ़ कर सुनाइये। ये हिस्सा ज़ोर ज़ोर से पढ़िए।
“फुले दम्पत्ति ने 28 जनवरी 1853 में अपने पड़ोसी मित्र और आंदोलन के साथी उस्मान शेख के घर में बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की। जिसकी पूरी जिम्मेदारी सावित्रीबाई ने सम्भाली वहां सभी बेसहारा गर्भवती स्त्रियों को बगैर किसी सवाल के शामिल कर उनकी देखभाल की जाती उनकी प्रसूति कर बच्चों की परवरिश की जाती जिसके लिए वहीं पालना घर भी बनाया गया। यह समस्या कितनी विकराल थी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मात्र 4 सालों के अंदर ही 100 से अधिक विधवा स्त्रियों ने इस गृह में बच्चों को जन्म दिया।”
दुनिया में लगातार विकसित और मुखर हो रही नारीवादी सोच की ऐसी ठोस बुनियाद सावित्रीबाई और उनके पति ज्योतिबा ने मिलकर डाली। दोनों ऑक्सफ़ोर्ड नहीं गए थे। बल्कि कुप्रथाओं को पहचाना, विरोध किया और समाधान पेश किया। मैंने कुछ नया नहीं लिखा है। जो लिखा था उसे ही पेश किया है। बल्कि कम लिखा है। इसलिए लिखा है ताकि हम सावित्रीबाई फुले को सिर्फ डाक टिकटों के लिए याद न करें। याद करें तो इस बात के लिए कि उस समय का समाज कितना घटिया और निर्दयी था, उस अंधविश्वासी समाज में कोई तार्किक और सह्रदयी एक महिला भी थी जिसका नाम सावित्री बाई फुले था।
Courtesy Ravish Kumar
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और, तुम उसे बताती हो कि कैसे मैं भी तुम्हें समझ नहीं पाया... by Deepak Shankar Jorwal | Shabdveni | और, तुम उसे बताती हो कि कैसे मैं भी तुम्हें समझ नहीं पाया... by Deepak Shankar Jorwal | Shabdveni | ...
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POSITIVE सफ़र (Article)
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बहुत अधिक लोग नहीं थे.. छिटपुट कतारें लगी थी। सामान्यतः 'दो गज दूरी है जरूरी' जैसा भी कुछ नज़र नहीं आ रहा था। कुछ महिलाएं इधर उधर साड़ी के आँचल से मुंह ढापे सुविधानुसार व्यवस्थित थी। बदले में उनके ही परिवार का कोई सदस्य पारी का इंतजार करने में लगा था, जिनमें से कुछ के मास्क ही सही ढ़ंग से लगे थे.. बाकियों के नथुने फड़क रहे थे.. हॉस्पिटल के बीच में लगे पीपल के पेड़ से सांसें खींचते हुए.. हां, सही में! आजकल सांसें बिक रही है तो जब.. जहाँ भी मौका लगे खींच लेना चाहिए। वैसे भी, इतनी मगजमारी कौन करें कालाबाजारी में.. सांसों की जमाखोरी हो तो अलग बात है!
अब तो, धूप भी सीधे माथे पर पड़ने लगी थी। पूर्णिमा ने आँखें उठाकर ऊपर देखा तो पलकें बरबस झिलमिलाने लगी। पूर्णिमा दो कदम पीछे हट गई। टीन शेड में बने चबूतरे पर बैठने का सोचा.. फिर संक्रमण के डर से वहीं खड़ी रह गई और, कबूतरों के प्रातः और दैनिक क्रियाकलाप देखकर आ रहे विचार को भी त्याग दिया।
पता नहीं.. और, कितनी देर यहाँ लगेगी! अपने पौने दो साल के बेटे को अभी-अभी सुला कर आई थी। लम्बी सांस लेते हुए फिर एक बार पूर्णिमा ने आगे बढ़कर देवर की ओर देखा.. वो भी कतार में खड़ा था। भीड़ इकट्ठी हो रही थी। कुछ वैक्सिनेशन के लिए, तो कुछ कोरोना जाँच के लिए आए थे।
सबकुछ ठीक था। अभी कुछ दिन पहले ही.. यहीं कोई पाँच-छह दिन से कुछ अधिक ही कमज़ोरी महसूस होने लगी थी.. तीन-चार बार तो चक्कर से गिरने जैसी हालत हो गई थी.. पूर्णिमा ने अंदाजा लगाया शायद, अधिक गरमी के कारण ऐसा हो रहा होगा.. फिर पैंतीस से चालीस तक रोटियां सेंकने के कारण भी हो सकता है। संयुक्त परिवार के अपने फायदे और नुकसान भी हैं.. गलती से अगर बड़े हो गए तो हर हाल में बड़पन्न साबित करते रहना होता है। जाने क्यों..?? बहुरानी का तमगा मिलते ही नौकरी शुरु हो जाती है, बिना पगार वाली और साथ में रानी का सरनेम भी मिल जाता है.. अधिकतर की यहीं समस्या रहती है।
बीस जो विष जैसा पिछले साल से अटका पड़ा था बहुतों के कंठ में.. इक्कीस तक उगलने की उम्मीद थी। दुर्भाग्य.., पूर्णिमा ने अपने कंठ को एकबार सहलाया। गले में दर्द और खराश हो गई थी.. रात से खाने में भी परेशानी होने लगी थी। इधर, पिछले कुछ दिनों से लगातार हालात खराब होते जा रहे थे। बाजार जाने के सारे रास्ते बंद हो चुके थे। कई सारे घरों में कोरोना फैल चुका था। कई लोग तो वैक्सिनेशन करवाने के बाद भी कोरोना की चपेट में आ गए थे। पेट भरने के लिए जरूरत के सामान के लिए किसी ना किसी को तो घर से बाहर जाना ही होता था। जाने किसके हाथ यह बीमारी पूर्णिमा के घर में घुस गई।
बाकी, ससुराल की देहरी में जाने के बाद पूर्णिमा दरवाजे तक भी बड़ी मुश्किल से आती हैं। कब सुबह से रात हो जाती है.. इसका हिसाब तो घड़ी के पास भी नहीं है। अरसा बीत चुका.. शादी के बाद कभी आराम भी मिला हो। बीमार होने पर भी उठकर काम करना पड़ता है। बड़े बेटे के समय कुछ आराम रहा था। छोटे के पैदा होने के तीसरे दिन ही घर आते ही कपड़े धोने पड़े थे और छठी पूजा होते-होते घर के सारे काम.. बुरी तरह से थक जाती थी पुर्णिमा।
'पूर्णिमा देवी'.. तभी सरकारी कंपाउंडर चिल्लाया।
अपना नाम सुनते ही पूर्णिमा जल्दी-जल्दी में आगे पहुंची कई सारे लोग पीछे हट गए। नाक में लंबी सी टेस्ट की किट डाली.. पूर्णिमा को एक बार तो लगा चक्कर ही आ जाएगा। फिर से पूर्णिमा अपनी जगह पर आकर खड़ी हो गई।
भगवान करें कोरोना हो ही जाए.. कुछ दिन इसी बहाने आराम से सो सकूंगी। फिर, अपने बच्चे का ख्याल आते ही सिहर उठी.. न भगवान.. ऐसा कभी नहीं करना। रोज खबरों में आ रहा है.. जाने कितने लोग मर रहे हैं। कहीं मुझे कुछ हो गया तो मेरे बच्चों को कौन देखेगा..?? आज सुबह ही अखबार में खबर छपी थी कि कोरोना का कोई भी लक्षण नहीं था, लेकिन रिपोर्ट पॉजिटिव आई.. और तो और अच्छा भला देखते ही देखते गुजर गया। माथे पर पसीने की बूंदें सघन हो उठी। फिर, छोटा बच्चा तो मेरे बिना रह भी नहीं पाता.. क्या करूंगी मैं?? और, किसी की हालत गंभीर हो गई तो लाखों रूपये का इंतजाम कहाँ से होगा??
घर में घुप्प शान्ति छा गई.. काम कौन करेगा?? अपने पेट तक ही सीमित बात तो नहीं थी, जो खाना बनाया और खा लिए.. सो गए। यहां तो घर में चार-चार लोग पॉजिटिव आए थे और सारे काम करने वाले। जितने आराम करने वाले थे.. सब सुरक्षित थे। उससे भी बड़ी समस्या पूर्णिमा भी पॉजिटिव आई थी। हॉस्पिटल से जैसे ही खबर आई.. सब अलग-अलग कैद हो गए। जब तक रिपोर्ट नहीं आई थी.. सबकुछ सामान्य ही था। रिपोर्ट आने के बाद शरीर में अधिक दर्द और कमजोरी भी महसूस होने लगी थी। पूर्णिमा को इतनी भी हिम्मत नहीं हो रही थी कि किसी को आवाज़ दे कर एक गिलास पानी दे जाने को कहें..शाम होते-होते आदतन सबके पेट मरोड़ने लगे थे। बेटा भी अलग तंग करने लगा था। पूर्णिमा लेटे-लेटे ही सिसकने लगी। कमरे में अजीब सी मुर्दानी भयाहवता छा गई थी.. ऐसा लगने लगा कि सामने ही चौखट पर बहुपाश लिए कर्म का लेखा जोखा का फाइनल टच देने स्वयं दंडाधिकारी पधारे हैं। बच्चा लगातार रोए जा रहा था.. बार-बार पूर्णिमा की साड़ी खींच रहा था। पूर्णिमा कहीं दूर बेहोशी में जैसे जा रही थी.. आवाज़ भी मध्यम आने लगी थी.. जैसे कानों में सीटी बज रही हो। तभी जोर-जोर से दरवाजे पीटने की आवाज आने लगी.. कुछ तेज आवाजें थप्प-थप्प से कानों के अंतिम द्वार से खींचने की बलजोर कोशिश करने लगे.. हड़बड़ाकर पूर्णिमा लम्बी सांस लेते हुए उठकर बैठ गई और अपने रोते हुए बच्चे को अपने अंक में समेट लिया।
'ठीक हो..' दरवाज़े पर घर के लोग खड़े थे।
'हाँ.. पूर्णिमा ने अपनी साड़ी ठीक की और पल्लू से चेहरे पर आए पसीने को पोंछने लगी।
'दिन का खाना बनाकर पूर्णिमा हॉस्पिटल गई थी चेकअप के लिए। सासू मां ने फटाफट खाना गर्म किया। बाकी सदस्यों ने मिलकर देवर, ननद और श्वसुर (पापा) जी सबने खाने की प्लेट लगाई और सब के कमरे के बाहर रख आए। पूर्णिमा को बड़ी शर्म आई।
आने वाले 14 दिन सबके लिए बहुत ही कठिन होने वाला था.. जो पॉजिटिव थे उनके लिए भी और जो नेगेटिव थे उनके लिए भी। अगले दिन सुबह सुबह से गर्म पानी के गरारे, स्टीम, काढ़ा, स्वाद लगे न लगे भरपेट खाना, गर्म पानी, दवाई, योगा और सबसे जरूरी सकारात्मक सोच.. सब शुरु हो गया। रूटीन चेकअप के लिए दिनभर में तीन चार बार कॉल आते। स्वास्थ्य कर्मियों ने पूर्णिमा को अपने साथ बच्चे को रखने से पूरी तरह मना कर दिया। लेकिन, बच्चा माँं के अलावा कोई संभाल भी नहीं सकता। वो पूर्णिमा के साथ ही रहा। तीन दिन तो सब सामान्य ही रहा, थोड़ी बहुत कमजोरी, खांसी-खराश सबको हो रही थी। पर, घर में सब के सहयोग से कोरोना का हाय-तौबा वाला टीवी शो नहीं हुआ था। वह अलग बात थी कि पड़ोसी और मोहल्ले वाले दूर दूर रहते थे लेकिन, कान उनके पूर्णिमा के घर की ओर ही होते थे। चौथे दिन आइसोलेशन में रहते हुए पूर्णिमा की सांसें चढ़ने लगी। डॉक्टरों ने परामर्श दिया कि हमेशा मास्क लगाए रहने के कारण भी ऐसा हो सकता है। आप जब सारी सावधानी बरत रही है तो कमरे के अंदर आप हमेशा मास्क लगाकर न रहें। पूर्णिमा ने जी कहकर फोन रख दिया। समस्या बच्चे को लेकर थी, उसकी वजह से पूर्णिमा एक पल भी मास्क नहीं हटाती। हालांकि, सारी दवाईयां बच्चे की भी चल रही थी। लेकिन, डर भी लगा रहता था। छठवें दिन बच्चे को बुखार, खांसी दोनों हो गया। सारा दिन कमरे में बंद अजीब हालत हो गई थी। ऐसा लग रहा था, मानों पूर्णिमा को काले पानी की सजा मिली हो। कमरे के बाहर बड़ा बेटा रोता चिल्लाता रहता.. मम्मी आपके पास जाना जाता। आप मेरे लिए खाना नहीं बनाते.. मुझे प्यार नहीं करते। अन्दर कमरे में पूर्णिमा का गला रूंध जाता। कई बार समझाने पर भी नहीं समझता। आज ग्यारह दिन हो गए थे। सब की हालत स्थिर थी।
वनवास के जैसे दिन कट रहे थे। पूर्णिमा का मन करता.. भाग कर जाए और सबके लिए अदरक वाली चाय बना कर ले आए। अपने बेटे को जोर से गले लगा कर ढेर सारा प्यार करें। सबके लिए मनपसंद खाना बनाएं। ढ़ेर सारी बातें करें। पूरे घर को फिर से करीने से सजा दें।
रिपोर्ट नेगेटिव आ गई। भगवान की कृपा से और परिवार के सहयोग से हॉस्पिटल तक जाने की नौबत नहीं आई। हॉस्पिटल से लौटते समय पूर्णिमा सोच रही थी.. ऐसे आराम से तो घर की रोजगारी भली। एक गिलास पानी तक के लिए किसी पर आश्रित होने से अच्छा है... अच्छा यानि कि अच्छे स्वास्थ्य का बनें रहना। जब तक स्वयं को समय और प्रेम नहीं देंगे तो दूसरों की सहायता तो दूर खुद भी अपंगता के शिकार हो जायेंगे।
अमूमन, मध्यमवर्गीय परिवारों की स्थिति ऐसी ही होती है। स्वच्छ रहें, स्वस्थ रहें, अधिक समाचारों और नकारात्मक विचारों से दूर रहें। हमेशा सहयोग की भावना जरूर रखें और समय पड़ने पर मदद भी करें।
©️Meenakshi Shukla
Note: अगस्त,2020 में लिखा था, कोरोना होने के बाद।
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माघी पूर्णिमा (संस्मरण)
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"अंधेरे मुंह उठकर अपने महिलाओं की टोली के साथ चल पड़ती थी। लगभग ढ़ाई-तीन कोस का लंबा सफर तय करना पड़ता था। वैसे तो, नानी सारे पूर्णिमा, एकादशी, चतुर्थी का ध्यान रखा करती थी... लेकिन, माघी पूर्णिमा... उनके लिए उत्सव जैसा था। क्या मजाल कि गंगा मैया में डुबकी लगाए और पूजा किए बिना कुछ खा लें या फ़िर और किसी को खाने भी दें। उस समय, अधिक साधन नहीं हुआ करते थे। नानी अधिकतर लक्ष्मीपुर के लिए निकलती... नारायणपुर दूर पड़ता था। नानी की नातिन जब थोड़ी थोड़ी बड़ी हुई तो नानी उसे भी ले जाया करती। गंगा में नहाने से अधिक नातिन को घाट के किनारे लगे तरह तरह के खाने वाले दुकान... मनिहारे समान की दुकान ललचाती। जिसके लालच में ढ़ाई तीन कोस भी उछल कूद कर आ जाती। नानी के नहाने के बाद बुदबुदाते हुए सूर्य को अर्घ्य देना... पूजा करना सब अच्छा लगता था। उसके बाद, नातिन के नथुने में पकौड़ी से लेकर बताशे की घुसती खुशबू... सब खिलाती नानी उसे। एक बार तो ज़िद पकड़ कर बैठ गई कि बाला (कंगन) लेना है, उस नीले बाले में बहुत ही सुन्दर सुन्दर सुनहले तार जुड़े थे... पूरे दो रुपए और तीस पैसे के थे। नानी के पास केवल एक रुपए पचासी पैसे... बड़ी मोल मोलाई के बाद मनिहारा वाला मान गया। उस दिन बस बताशे ही मिले। घर पहुंचने के बाद जाने किस बात पर नातिन को बड़ी डांट पड़ी... पिटाई भी हुई। मतलब, स्कूल जाने वाले बच्चे फालतू चीजें नहीं पहना करते, ऐसा मामा का कहना था। और, पांच -छह साल की नातिन को अच्छे से याद है कि बाला पहनकर घर आते ही गोल मटोल गोरी गुड़िया रानी को बाला दिखाकर रुला ही दिया था, जो गुड़िया रानी की मां को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा था। तो, बालेे की किस्मत तभी ही लिख दी गई थी।
नानी का स्वभाव बड़ा अक्खड़ वाला हुआ करता था। किसी से भी प्यार से बात नहीं करती थी, अपनी नातिन से भी नहीं। लेकिन, जब कोई ना हो तो अकेले में खूब प्यार करती और कभी-कभी तो बाजार ले जाकर चुपके से जो-जो नातिन कहती जाती है वह सब खिलाती। नातिन को हमेशा अपने पापा-मम्मी की बड़ी याद आती थी। पर, खेलकूद में अक्सर भूल जाती। नाना नानी के प्यार में उसे सुध ही नहीं रहती कि मम्मी के पास भी जाना है। ऐसा करते-करते कितनी बड़ी भी हो गई। फिर पता चला... उसकी बहन आने वाली है। उस समय वह अपने पापा मम्मी के पास गई और बहन भी आई... आते ही छठवें दिन उसकी तबीयत खराब हुई और पता नहीं कहां चली गई। अबकि, बार जब नातिन के पापा मम्मी उसे लेकर आए तो फिर उसे छोड़ कर चले गए... नानी के पास। इससे पहले भी नातिन की और दो बहन ऐसे ही गुजर गई थी। नानी की बड़ी बेटी को कोई औलाद ही नहीं हुई। क्योंकि उसके पति गुजर गए। शादी के 8 साल के बाद ऐसा होना और एक भी बच्चा नहीं... नानी के माथे पर हमेशा शूल सी लटकती रहती। बेटी चाहे कितनी भी अच्छी क्यों ना हो... चाहे विधवा ही क्यों ना हो जाए... थोड़े दिन ही अच्छी लगती है। मां के अलावा अक्सर सबको खटकने लगती है। ले दे के नानी के पास दोनों बेटियों के संसार में एक दबे रंग की नातिन ही थी। नानी के पोतियों का जन्मदिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था। ऐसा नहीं था कि वो खुश नहीं होती थी या उसे प्यार नहीं करती... लेकिन, अक्खड़ स्वभाव उसके अंदर का कभी जाता ही नहीं था। जाने किस बात का गुस्सा लिए फिरती। नातिन को कोने में पकड़ कर बैठ जाती थी। हां, नातिन का जन्मदिन कभी नहीं मनाया जाता। बुरा तो लगता ही था नातिन को... फिर खेलने में भूल जाती थी। एक दिन नानी की नातिन को किसी ने काली कह दिया... नानी लड़ने चली गई और नातिन रोने। उसके बाद तो आए दिन नातिन को नाम के अलावा ढेर सारे उपनाम उसे बुलाया जाता।काली... कालीचरण तो आम बात थी। अब नातिन ने भी लड़ना सीख लिया था। कई बार तो दूसरों को पीट के मुंह से खून निकल कर आ जाती। नानी बेचारी सबसे लड़ती फिरती। और, नातिन मजे में घूमती रहती।
अब बड़ी होती भी नातिन घर में भी सब से लड़ जाती। मुझे यह क्यों नहीं खाने मिला... ऐसे कपड़े क्यों नहीं मिले... खूब झगड़े होते... बेचारी नानी, नातिन के चलते गांव-घर लड़ती। नाना के गुजरने के बाद, नानी ने लड़ना छोड़ दिया। अब, किसी के कुछ कहने पर ख़ूब रोती।
तीन साल पहले जब नानी की हालत गंभीर हो गई तो नातिन मिलने गई नानी से... संयोग से माघी पूर्णिमा था। अब तक नानी ने कुछ मुंह में नहीं लिया था। संज्ञाशून्य अवस्था में भी नानी को याद था कि आज माघी पूर्णिमा है। नातिन ने गंगाजल और तुलसी का दल देकर नानी को आखरी विदाई दी।
मामी कह रही थी, नानी को कुछ भी हो जाए... मरते दम तक माघी पूर्णिमा न भूली, नातिन का जन्म जो हुआ था। नातिन के आँखों से आँसू झरने लगे। नानी, नातिन का जन्मदिन हमेशा मनाती रही... इस डर से भी कि उनकी बेटियों के बागिये का एक फूल तो आबाद रहें!
©️Meenakshi Shukla
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