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तिला संक्राइत के हार्दिक शुभकामना
💐विश्वकर्मा पूजा के हार्दिक शुभकामना💐
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शीर्षक :-"एक चुटकी ज़हर रोजाना"
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कथा
आरती नामक एक युवती का विवाह हुआ और वह अपने पति और सास के साथ अपने ससुराल में रहने लगी। कुछ ही दिनों बाद आरती को आभास होने लगा कि उसकी सास के साथ पटरी नहीं बैठ रही है। सास पुराने ख़यालों की थी और बहू नए विचारों वाली।
आरती और उसकी सास का आये दिन झगडा होने लगा।
दिन बीते, महीने बीते. साल भी बीत गया. न तो सास टीका-टिप्पणी करना छोड़ती और न आरती जवाब देना। हालात बद से बदतर होने लगे। आरती को अब अपनी सास से पूरी तरह नफरत हो चुकी थी. आरती के लिए उस समय स्थिति और बुरी हो जाती जब उसे भारतीय परम्पराओं के अनुसार दूसरों के सामने अपनी सास को सम्मान देना पड़ता। अब वह किसी भी तरह सास से छुटकारा पाने की सोचने लगी.
एक दिन जब आरती का अपनी सास से झगडा हुआ और पति भी अपनी माँ का पक्ष लेने लगा तो वह नाराज़ होकर मायके चली आई।
आरती के पिता आयुर्वेद के डॉक्टर थे. उसने रो-रो कर अपनी व्यथा पिता को सुनाई और बोली – “आप मुझे कोई जहरीली दवा दे दीजिये जो मैं जाकर उस बुढ़िया को पिला दूँ नहीं तो मैं अब ससुराल नहीं जाऊँगी…”
बेटी का दुःख समझते हुए पिता ने आरती के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा – “बेटी, अगर तुम अपनी सास को ज़हर खिला कर मार दोगी तो तुम्हें पुलिस पकड़ ले जाएगी और साथ ही मुझे भी क्योंकि वो ज़हर मैं तुम्हें दूंगा. इसलिए ऐसा करना ठीक नहीं होगा.”
लेकिन आरती जिद पर अड़ गई – “आपको मुझे ज़हर देना ही होगा ….
अब मैं किसी भी कीमत पर उसका मुँह देखना नहीं चाहती !”
कुछ सोचकर पिता बोले – “ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी। लेकिन मैं तुम्हें जेल जाते हुए भी नहीं देख सकता इसलिए जैसे मैं कहूँ वैसे तुम्हें करना होगा ! मंजूर हो तो बोलो ?”
“क्या करना होगा ?”, आरती ने पूछा.
पिता ने एक पुडिया में ज़हर का पाउडर बाँधकर आरती के हाथ में देते हुए कहा – “तुम्हें इस पुडिया में से सिर्फ एक चुटकी ज़हर रोज़ अपनी सास के भोजन में मिलाना है।
कम मात्रा होने से वह एकदम से नहीं मरेगी बल्कि धीरे-धीरे आंतरिक रूप से कमजोर होकर 5 से 6 महीनों में मर जाएगी. लोग समझेंगे कि वह स्वाभाविक मौत मर गई.”
पिता ने आगे कहा -“लेकिन तुम्हें बेहद सावधान रहना होगा ताकि तुम्हारे पति को बिलकुल भी शक न होने पाए वरना हम दोनों को जेल जाना पड़ेगा ! इसके लिए तुम आज के बाद अपनी सास से बिलकुल भी झगडा नहीं करोगी बल्कि उसकी सेवा करोगी।
यदि वह तुम पर कोई टीका टिप्पणी करती है तो तुम चुपचाप सुन लोगी, बिलकुल भी प्रत्युत्तर नहीं दोगी ! बोलो कर पाओगी ये सब ?”
आरती ने सोचा, छ: महीनों की ही तो बात है, फिर तो छुटकारा मिल ही जाएगा. उसने पिता की बात मान ली और ज़हर की पुडिया लेकर ससुराल चली आई.
ससुराल आते ही अगले ही दिन से आरती ने सास के भोजन में एक चुटकी ज़हर रोजाना मिलाना शुरू कर दिया।
साथ ही उसके प्रति अपना बर्ताव भी बदल लिया. अब वह सास के किसी भी ताने का जवाब नहीं देती बल्कि क्रोध को पीकर मुस्कुराते हुए सुन लेती।
रोज़ उसके पैर दबाती और उसकी हर बात का ख़याल रखती।
सास से पूछ-पूछ कर उसकी पसंद का खाना बनाती, उसकी हर आज्ञा का पालन करती।
कुछ हफ्ते बीतते बीतते सास के स्वभाव में भी परिवर्तन आना शुरू हो गया. बहू की ओर से अपने तानों का प्रत्युत्तर न पाकर उसके ताने अब कम हो चले थे बल्कि वह कभी कभी बहू की सेवा के बदले आशीष भी देने लगी थी।
धीरे-धीरे चार महीने बीत गए. आरती नियमित रूप से सास को रोज़ एक चुटकी ज़हर देती आ रही थी।
किन्तु उस घर का माहौल अब एकदम से बदल चुका था. सास बहू का झगडा पुरानी बात हो चुकी थी. पहले जो सास आरती को गालियाँ देते नहीं थकती थी, अब वही आस-पड़ोस वालों के आगे आरती की तारीफों के पुल बाँधने लगी थी।
बहू को साथ बिठाकर खाना खिलाती और सोने से पहले भी जब तक बहू से चार प्यार भरी बातें न कर ले, उसे नींद नही आती थी।
छठा महीना आते आते आरती को लगने लगा कि उसकी सास उसे बिलकुल अपनी बेटी की तरह मानने लगी हैं। उसे भी अपनी सास में माँ की छवि नज़र आने लगी थी।
जब वह सोचती कि उसके दिए ज़हर से उसकी सास कुछ ही दिनों में मर जाएगी तो वह परेशान हो जाती थी।
इसी ऊहापोह में एक दिन वह अपने पिता के घर दोबारा जा पहुंची और बोली – “पिताजी, मुझे उस ज़हर के असर को ख़त्म करने की दवा दीजिये क्योंकि अब मैं अपनी सास को मारना नहीं चाहती … !
वो बहुत अच्छी हैं और अब मैं उन्हें अपनी माँ की तरह चाहने लगी हूँ!”
पिता ठठाकर हँस पड़े और बोले – “ज़हर ? कैसा ज़हर ? मैंने तो तुम्हें ज़हर के नाम पर हाजमे का चूर्ण दिया था … हा हा हा !!!”
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"बेटी को सही रास्ता दिखाये,
माँ बाप का पूर्ण फर्ज अदा करे👏"
माँ उच्चैठ दुर्गा भगवती स्थान:-
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मिथिला के अनेक शक्तिपीठों में एक प्रमुख पीठ है - उच्चैठ कामना भगवती स्थान। नेपाल और बिहार की सीमा पर बेनीपट्टी अनुमंडल से पांच किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित यह शक्तिपीठ थुम्हानी नदी के किनारे उच्चैठ नामक गांव में स्थित है जहां समस्त मनोकामना पूर्ण करने वाली जगत जननी, देवी छिन्नमस्तिका स्वयम् विराजित हैं।विगत में यहां घना जंगल हुआ करता था, जिस कारण ये वनदुर्गा भी कहलाती हैं। मंदिर में अवस्थित काले रंग की शिला पर उत्कीर्ण छिन्नमस्तिका की मूर्ति अनुमानतः चैथी-छठवीं शताब्दी के आसपास की है।सिंह पर सवार छिन्नमस्तिका वनदुर्गा भगवती की मूर्ति करीब ढाई फीट की कलात्मक प्रतिमा जोगदा,चक्र,शंख एवं पद्य को धारण की हुई है।चरण में मछली की प्रतिमा भी है। उच्चैठ स्थित वनदुर्गा की भगवती 51 शक्ति पीठों में शामिल है।महामाया देवी के संबध में प्रकाशित पुस्तकों में वर्णित तथ्यों के अनुसार भारत के कुल 51 शक्ति पीठों में उच्चैठ की भगवती वनदुर्गा सतरहवें स्थान पर है। मंदिर से सटे सरोवर के पूर्व श्मशान है, जहां आज भी तन्त्र-साधक साधना में लीन रहते हैं। वह अगोचर शक्ति या कहें अव्यक्त ऊर्जा इस पीठ के कण-कण में व्याप्त है।लोक मान्यता है कि उच्चैठ भगवती से जो भी भक्त श्रद्घा पूर्वक मांगा जाता है मां उसे अवश्य पूरा करती हैं। इसलिए इन्हें दुर्गा के नवम रूप सिद्घिदात्री और कामना पूर्ति दुर्गा के रूप में भी लोग पूजते हैं। किवदंती कथा है कि जनकपुर यात्रा के दौरान भगवान श्री राम भी भगवती से आर्शिवाद लेना नहीं भुले थे।किवदंती है कि पांडव पुत्र के अज्ञातवास के दौरान पांडव पुत्रों ने भी वनदुर्गा भगवती की पूजा कर आर्शिवाद प्राप्त किया था।माना जाता है कि उच्चैठ भगवती स्थान में ब्रह्य,अर्जून,राम,इंद्र सहित कई देवताओं ने भी यहां पूजा की है।वहीं महाकविकालीदास,गोनूझा,महर्षिकपिल,कणाद,गौतम,जेमिनी,पुंडरिक,लोमस सहित कई ऋषि-मुनियों ने आर्शिवाद लिया है।
उच्चैठ भगवती मंदिर, बेनीपट्टी स्थान का इतिहास और विशेषता।
इस शक्तिपीठ से विश्व-कवि कालिदास की वृहद् स्मृतियां जुड़ी हुई हैं। काली या कालिया को कालीदास बनाने वाली उच्चैठ चतुर्भुजा की प्रसिद्धि व आस्था न केवल मिथिलांचल, बल्कि नेपाल में भी है। जिस स्थान पर रहकर कालिदास ने देवी की साधना की थी, वह कालिदास-डीह के नाम से जानी जाती है। यहां पूजन के लिए आनेवाले लोगों में जिनके घर पढ़ाई करनेवाले बच्चे होते हैं, वे कालीदास डीह से मिट्टी ले जाकर बच्चों के पढ़नेवाले कमरे या अपने पूजास्थल पर रखते हैं।
जनश्रुतिओं, लोक-कथाओं एवं पौराणिक तथ्यों के आधार पर कालीदास का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था। वह आरंभ में अनपढ़ और मुर्ख थे। काशी-नरेश विक्रमादित्य की पुत्री विद्योत्तमा परम विदुषी एवं अनिंद्य सुन्दरी थी। विद्योत्तमा ने प्रतिज्ञा की थी कि जो पुरुष उसे शास्त्रार्थ में पराजित करेगा, वह उसी से विवाह करेगी। कितने ही विद्वान विद्योत्तमा से विवाह की लालसा लेकर आते, पर शास्त्रार्थ में उससे हार जाते। इस बात से कुण्ठित होकर कुछ विद्वानों ने साजिशन कालिदास को विद्योत्तमा के समक्ष प्रस्तुत कर ये कहा कि यह एक प्रकाण्ड विद्वान हैं, जोकि आपसे मौन शास्त्रार्थ के इच्छुक हैं। उन सबों ने महामूर्ख कालीदास को पहले ही मुंह खोलने से मना कर रखा था। विद्योत्तमा शास्त्रार्थ के लिए तैयार हो गई। उसने कालीदास की ओर अपनी हथेली करके पांचों ऊंगलियां खोल कर दिखाई अर्थात् यह शरीर पंचतत्व निर्मित है। मुर्ख कालीदास को लगा कि विद्योत्तमा उन्हें थप्पड़ दिखा रही है, उसने तुरन्त ही उसे मुट्ठी को मुक्के की शक्ल में बांधकर दिखाया ... विद्वान पण्डितों ने तत्काल विद्योत्तमा से कहा कि ये कह रहे हैं कि - भले ही शरीर पंचतत्व से निर्मित है, परन्तु मन के अधीन और मन द्वारा संचालित है। इस प्रकार कुछ और प्रतिप्रश्न और प्रतिउत्तरों के पश्चात विद्वानों ने कालीदास को विजयी घोषित कर दिया। विवाह सम्पन्न हो गया ... किन्तु विवाह उपरान्त विद्योत्तमा फौरन ही समझ गई कि उसके साथ धोखा हुआ है, कालीदास मूर्ख और निरक्षर है। तब उसने कुपित होकर कालीदास को यह कहकर कि - ऐसे मूर्ख का मैं मुख भी नहीं देखना चाहती, धिक्कारते हुए अपमानित करके घर से निकाल दिया। दुःख, लज्जा, पीड़ा और आघात से दग्ध होकर कालीदास आधी रात को उसी समय वहां से चल दिए। चलते-चलते वह घने वन में जा पहुंचे ... जहां अवस्थित एक गुरुकुल पर उनकी निगाह गई। गुरुकुल से पूर्व दिशा में उच्चैठ छिन्नमस्तिका भगवती का मंदिर और मंदिर तथा पाठशाला के बीच थुम्हानी नदी ... पत्नी द्वारा ठुकराया गया, भूखा प्यासा, थका हारा मुसाफिर वहीं ठहर गया और उस विद्यालय के आवासीय छात्रों के लिए खाना बनाने का कार्य करने लगे।भाद्रपद मास में नदी में भयंकर बाढ़ आई और नदी का बहाव इतना ज्यादा था की मंदिर में संध्या दीप जलाने का कार्य जो की छात्र किया करते थे , वो सब जाने में असमर्थ हो गए , कालिदास को महामूर्ख जान उसे आदेश दिया गया की आज शाम वो दीप जल कर आये और मंदिर निशानी लगा कर आये ताकि ये तथ्य हो सके की वो मंदिर में पंहुचा था। कालिदास झट से नदी में कूद पड़े और किसी तरह तैरते डूबते मंदिर पहुंच कर दीप जलाये और पूजा अर्चना किये। अब निशान लगाने के लिए कालिदास कुछ नहीं था तो जले दीप के कालिख को ही हाथ पर लगाकर निशान लगाने लगा किन्तु पुरे मंदिर में हर जगह कुछ न कुछ निशान था, सिर्फ माँ भगवती का चेहरा की साफ़ था, मुर्ख कालिदास ने वो कालिख माता के मुखमंडल पर ही लगा दिया, तभी माता प्रकट हुई और बोली रे मुर्ख कालिदास तुम्हे इतने बड़े मंदिर में कोई और जगह नहीं मिली , और इस बाढ़ और घनघोर बारिश में जीवन जोखिम में दाल कर आये, ये मूर्खता हो या भक्ति लेकिन तुम्हे एक वरदान देना चाहती हूँ। कालिदास ने अपनी और अपनी पत्नी की आपबीती सुनाई कैसे उसकी मूर्खता के कारण उसकी पत्नी ने तिरस्कृत किया , फिर देवी ने वरदान किया की आज साड़ी रात तुम जो भी पुस्तक स्पर्श करोगे तुम्हे कंठस्थ हो जाएगा।ऐसा कहकर माता अंतर्ध्यान हो गयीं। कालीदास उफनाई हुई थुम्हानी नदी को तैरकर वापस गुरुकुल में आए, जहां वह दिन में शिक्षार्थियों के लिए खाना बनाने का काम करते थे और सारी रात विद्यार्थियों की समस्त पुस्तकों को बारी-बारी से स्पर्श करते रहे। भगवती के वरदान से वही मुर्ख कालिदास विश्व पटल पर अद्वितीय विद्वान बनकर उभरे एवं कुमारसंभवम, मेघदूतम, रघुवंशम समेत अनेक अमर काव्यग्रंथों की रचना की। मंदिर से कुछ ही दूरी पर अवस्थित कालिदास-डीह (डीह का शाब्दिक अर्थ है - निवास-स्थान) जहां रहकर कालिदास ने बाद में अनेक ग्रंथों की रचना की थी, में आज भी कालिदास के जीवन और ग्रन्थ-सम्बन्धित अनेक चित्र व मूर्तियां उत्कीर्णित हैं। कालान्तर में गुरुकुलों के विलुप्त होने के बाद संस्कृत गुरुकुल तो अब यहां नहीं रहा, पर एक स्कूल अभी भी यहां चलता है। नगर के कोलाहल से दूर प्रकृति की शान्त गोद में अवस्थित कालिदास डीह पर आज भी प्रतिदिन भजन, कीर्तन एवं आख्यानों के आयोजन होते रहते हैं। वैसे तो अंग्रेजों ने हम पर और हमारे देश पर बहुत अत्याचार किये, पर कहीं न कहीं उनके शाषण-तन्त्र में एक अनुशासन, एक कठोरता भी थी और इसी वजह से कोई देखवैया या दावा करने वाला नहीं होने के बावजूद यह डीह आज भी सरकारी रूप से कालीदास के नाम पर ही है। हुआ यूं कि अंग्रेजी राज में जब जमीन की नाप-जोख कर बही खाते में जमीन मालिक के नाम चढ़ाए जा रहे थे, तो इस जमीन पर दावे के लिए कोई आगे नहीं आया। पूछताछ करने पर पता चला कि जमीन कालीदास की है जो विगत में यहां रहते थे, तब बेईमानी वाली बंदरबांट या सरकारी जमीन घोषित करने की बजाय अंग्रेज अधिकारियों ने जमीन को कालिदास के नाम पर ही रहने दिया, जो कि अब तक भी है।यूँ तो उच्चैठ मंदिर में प्रतिदिन हज़ारों की संख्या में भक्त आते हैं, प्रतिदिन यहाँ भजन, कीर्तन का आयोजन होता है, प्रति रविवार को विशेष रूप से पुरे मंदिर की सफाई , देवी को वस्त्र आदि बदला जाता है लेकिन आश्विन नवरात्रा में यहाँ का विशेष उत्सव दर्शनीय है। दूर दूर से अष्टमी और नवमी को लोग आते हैं
उच्चैठ देवी स्थान कैसे पहुचें।
उच्चैठ देवी स्थान बेनीपट्टी से ४ किलोमीटर पर स्थित है। निकटतम रेलवे स्टेशन है मधुबनी। सड़क द्वारा ये चारो दिशाओं से जुड़ी हुई है। अगर अपनी गाड़ी न हो तो बस के द्वारा भी आगमन हो सकता है। बस/सड़क का रूट इस प्रकार है।
1. पश्चिम दिशा से :- सीतामढ़ी-पुपरी भाया बेनी पट्टी उच्चैठ ।
2. दक्षिण दिशा से :- दरभंगा भाया रहिका, बेनीपट्टी, उच्चैठ ।
3. पूर्व दिशा से :- लौकही, राजनगर, मधुबनी, बेनीपट्टी, उच्चैठ ।
4. उत्तर दिशा से :- नेपाल तराई से जयनगर, रहिका, बेनीपट्टी, उच्चैठ ।
5 . उत्तर पश्चिम दिशा से :- मघवापुर, साहरघाट उमगाँव, बेनीपट्टी, उच्चैठ
"अद्भुत मिथिला" मासिक पत्रिका
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अपार हर्ष के साथ सुचित क रहल छी जे "अद्भुत मिथिला" मासिक पत्रिका , अतिशीघ्र अपन मासिक पत्रिका अपने लोकनि के लेल प्रस्तुत कर जा रहल अछि !!
आ संगहि समस्त लेखक/रचनाकार स आग्रह जे कमेंट बॉक्स में अपन रचना भेजी तथा फ़ेसबुक पेज ("अद्भुत मिथिला) आ समूह ("लेखक/writer" ) स जुरी !!
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"माता वाणेश्वरी भगवती स्थान"
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दरभंगा स 30 किलोमीटर दूर "मनीगाछी प्रखंड" के भंडारिसम गांव में वाणेश्वरी भगवती मंदिर स्थित हैं। देवी वाणेश्वरी के बारे में कहा जाता है यहां सच्चे मन से पूजा के बाद जो कुछ मांग जाती है वह पूरी हो जाती है|
ऐसे पहुंचें मंदिर : मनीगाछी स्टेशन से चार किमी दक्षिण भंडारिसम गांव से पश्चिम से अवस्थित है यह मंदिर।
दरभंगा जंक्शन से रेल व सड़क मार्ग से मनीगाछी पहुंचना सुलभ है। इनकी दूरी करीब 25 किमी है। यहां से मंदिर तक जाने के लिए सवारी मिल जाती है।
मनीगाछी : प्रखंड के भंडारिसम गांव में अवस्थित वाणेश्वरी भगवती मंदिर का दूर- दूर तक में काफी महत्व है। इस शक्ति स्थल के बारे में भक्तगण कई तरह की कथाएं कहते हैं। शारदीय नवरात्रा में दुर्गा के नवरूपों की विधिवत वैदिक विधि से पूजा की जाती है।
इतिहास : गांव के वाण झा की बेटी को भगवती बनने की कहानी यहां सुनने को मिलती है। तालाब में स्वप्न के बाद मिली वाण की पुत्री के समय की जानकारी अद्यतन अप्राप्त है।
लेकिन, मनोकामना पूर्ति होने पर महारानी ने 1912 में वर्तमान मंदिर का निर्माण कराया। वर्षों से तंत्र साधना का यह केंद्र रहा है। प्राय: किसी बेटी को भगवती बनने की यह एक अनोखा इतिहास है।
विशेषता : भंडारिसम गांव का ऐतिहासिक डीह श्रद्धालुओं को आकर्षित कर लेती है। यहां सालों भर दूर दूर से भक्तगण आते रहते हैं। इन्हें देवी पर अटूट विश्वास है कि यहां से कोई खाली हाथ नहीं लौटते।
वास्तुकला : सौ साल से अधिक बीत जाने व कई भूकंप को देख चुके इस मंदिर का वस्तुकला मध्यम कोटि का है। हां, मंदिर की नक्काशी ही इस प्रकार की है जिससे आनेवाले, बैठने के बाद यहां से उठना नहीं चाहते।
यह सिद्ध स्थल के रूप में प्रचलित है। देवी के दरबार से कोई व्यक्ति खाली वापस नहीं होते। फलत: निर्जन स्थान मंदिर रहते हुए भी सालों भर श्रद्धालु यहां आते रहते हैं। तंत्र साधना के लिए उपयुक्त स्थल है|
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💐वक्रतुंड महाकाय सूर्य कोटी समप्रभ👏💐
💐निर्विघ्नं कुरुमे देव सर्व कार्येशु सर्वदा👏💐
★अर्थ :- घुमावदार सूंड वाले , विशाल शरीर काय , करोड़ सूर्य के समान महान प्रतिभाशाली........मेरे प्रभु👏हमेशा मेरे सारे कार्य बिना बिघ्न के पूरे करें👏👏
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सब गोटे के गणेश पुजा के शुभकामना
श्री कृष्ण जन्मोत्सव की बधाई गीत
प्यारा सा विडियो श्री कृष्ण जी का
सुन्दर सन कजरी मैथिली ठाकुर के आवाज में
मैथिल पुत्र प्रदीप जी के सबस सुन्दर रचना रजनी पल्लवी जी के सुमधुर स्वर में
स्वर कोकिला रंजना झा के आवाज में इ सुन्दर सन गीत जरुर सुनी
Dil Ke bat Dil Se दिलके बात दिलसे मैथिली गीत | स्वर : सन्नू कुमार
सीता राम विवाह वर्णन | मंगल आजु जनकपुर | स्वर : पूनम मिश्रा
मिथिला के शान उदित नारायण जी के मिथिलावासी स निवेदन।।
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