बिदेसिया
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बिदेसिया राउर आपन मंच बा. एगो साझा प्रयास बा. मकसद बा लोकरंग, लोकजीवन से जुड़ल लोक इतिहास सामने आवे. जे समृद्ध परंपरा रहल बा, ओकर दस्तावेजीकरन होखे.
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पांच मिनट का समय निकाल इस आडियो को सुन सकते हैं
यह आडियो करीब पांच छह मिनट का है. गंभीर रूप से बीमार, डेंगू पीड़ित मरीज के परिजन के साथ फर्जी डॉक्टर बन बड़े अस्पतालों में रैकेट चलानेवाले साइबर अपराधी का है. घटना चंडीगढ़ की है, जहां हमारे एक मित्र के भाई भर्ती हैं. सेक्टर 32 के मेडिकल कालेज एंड हास्पिटल में. तीन दिनों पहले उन्हें प्लाज्मा की जरूरत पड़ी. नंबर ग्रुप में और सोशल मीडिया में सर्कुलेट हुआ. प्लाज्मा देने को लोग सामने आये. मरीज को राहत मिली. अगले दिन मरीज के परिजन के उसी नंबर पर एक कॉल आया, जो नंबर प्लाज्मा की मदद के लिए सर्कुलेट किया गया था. कॉल आया कि मैं डॉक्टर बोल रहा हूं. इमरजेंसी वार्ड का हेड. आपके परिजन की हालत खराब है. अब बस थोड़ा वक्त है आपके पास. 25 प्रतिशत ही शरीर काम कर रहा है. इसे तुरंत दूसरे अस्पताल में ले जाना होगा. इसके इलाज में करीब 20 लाख का खर्च आएगा. दूसरे अस्पताल में अप्वाइंटमेंट, जरूरी मेडिसीन आदि लाइन अप किया जा रहा है. मरीज के परिजन ने कहा कि किसी तरह से जान बचाइए. दलाल ने कहा कि इस क्यूआर कोड पर अभी तुरंत भेजिए 20 हजार ताकि तुरंत अस्पताल से निकाल दूसरे अस्पताल में भेजा जा सके और वहां तुरंत इलाज शुरू हो सके. मरीज के परिजन ने यह बात तुरंत अपने एक भाई को बताई. जिस भाई को बात बताई, वह हमारे सहकर्मी हैं. हमने तुरंत सेक्टर 32 अस्पताल को फोन मिलाया. मरीज का हाल जानने को. वहां बताया गया कि स्थिति में सुधार जारी है. मरीज की हालत ठीक है, पहले से. ऐसी कोई बात नहीं, दूर दूर तक. फिर उस दलाल को फोन मिलाया गया. उसने फोन उठाया. उससे कहा गया कि कहां पैसा देना है. बोला क्यूआर कोड में. उससे कहा गया कि कैश देते हैं, कहां आ जाएं. वह तुरंत समझ गया कि उसका फर्जीवाड़ा समझ लिया गया है. उसने क्यूआर कोड डिलीट किया. फिर फोन उठाना भी बंद किया. उसका नंबर इस वीडियो में है. उसे फोन कर सकते हैं. यह हालत चंडीगढ़ की है, जो आधुनिक शहर है. पढ़े लिखे लोग ज्यादा रहते हैं. समझ सकते हैं कि छोटे शहरों में कितने तरीके के खेल अस्पतालों के आसपास ऐसे दलाल कर रहे होंगे. समझ सकते हैं कि साइबर फ्रॉड वाले रोजाना कितने तरीके निकाल रहे हैं पैसे ठगने के.
बिहार के साहित्यिक या बौद्धिक गलियारे में (बिहार कहें तो उसे बड़े लेवल पर पटना भी मानकर चलिए ) उन नामों पर कम चर्चा होती है, जो हिंदी या अंग्रेजी में तमाम संभावनाओं के बावजूद, अपनी क्षमता दिखाने के बाद अपनी मातृभाषा की ओर जा मुड़े. बिहार की हर लोकभाषा ऐसे एक से एक लोग मिलेंगे, लेकिन वे बिहार के बौद्धिक आतंक के शिकार होकर पहले दफन किये जा चुके हैं. (पटना में अल्बानिया,रूमानिया से लेकर अजरबैगान,शेतोलातिफे तक के रचनाकारों की जन्मशताब्दी,पुण्यतिथि,जयंती आदि मनाने का चलन रहा है लेकिन बिहार के लोकभाषाओं के रचनाकारों से प्राय: तौबा-तौबा का ही मामला ज्यादा रहता है.) ऐसे ही एक नाम है जयनाथ पति का. जयनाथ पति, यानी मगही के पहले उपन्यासकार. सिर्फ पहले उपन्यासकार नहीं बल्कि एक विलक्षण विद्वान. उनका जीवनकाल 1880-1939 तक रहा. वे भारतीय इतिहास व संस्कृति के अदभुत अध्येता व विद्वान थे. आजादी की लड़ाई के परवाने भी. जन्म हुआ था नवादा के शादीपुर गांव में. लालाजी थे. मगही से तो उनकी पहचान बता रहे हैं लेकिन जयनाथ पति एक साथ कई भाषाओं के जानकार और विद्वान थे.संस्कृत, अंग्रेजी, बंगला, लैटिन, फारसी, उर्दू, हिन्दी और मगही, सब पर एक समान पकड़. अंग्रेजी की दुनिया में उनकी अलग पहचान थी. आजादी से पहले अंग्रेजी में लिखकर देश भर में छानेवाले कुछ प्रमुख बिहारियों में उनका नाम शामिल था. और तो और, वह लिखने पढ़ने की दुनिया में इस तरह तल्लीन रहते थे कि उन्होंने अपने दोनों हाथों से लिखने का अभ्यास कर लिया था और एक साथ दोनों हाथों से लिखते भी थे. जयनाथ पति को एक अलग ख्याति मिली थी जब उन्होंने फारसी लोकगीतों और ऋग्वेद का अनुवाद किया था. वे भारतीय शास्त्रों के बड़े मर्मज्ञ मानेजाते थे लेकिन उनका मन अपनी मातृभाषा मगही में रमा रहता था तो आजादी से पहले ही वह मगही किताबें भी छापने लगे थे. आजादी की लड़ाई के दौरान हस्तलिखित अखबार भी निकालने लगे थे. और नवादा वाले तो उन्हें अच्छी तरह से जानते हैं. बारहवीं तक ही पढ़े थे जयनाथजी लेकिन उन्होंने शिक्षा में कोई कम योगदान नहीं दिया. उन्होंने नवादा में एंग्लो संस्कृत स्कूल की स्थापना की थी, जो आज भी है. जयनाथ पति ने होमरूल आंदोलन में अहम भूमिका निभायी, 1920 में गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन में नवादा कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने नेतृत्व किया. लेकिन इन सबके बाद जयनाथपति की एक बड़ी पहचान मगही के पहले उपन्यासकार के रूप में है. 1927 में उन्होंने पहले उपन्यास ‘सुनीता’ की रचना की. अब आप इसी से समझिए कि जब जयनाथजी ने मगही में उपन्यास लिखा तो इसकी समीक्षा जानेमाने भाषाविद् सुनीति कुमार चटर्जी ने ‘द मॉडर्न रिव्यू’ जैसे जर्नल में की. जयनाथ पति ने फिर अगले साल यानी 1928 में एक और मगही उपन्यास की रचना की. उसका नाम था— ‘फूल बहादुर’. तीसरा उपन्यास भी लिखा—‘गदहनीत’. तीनों उपन्यास कंटेंट के स्तर पर क्लासिक. सामाजिक रूढ़ियों और भ्रष्टाचार पर प्रहार करनेवाली रचना. मगही के प्रति उनकी दिवानगी देखिए कि जयनाथपति ने गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट 1935 का भी मगही अनुवाद ‘स्वराज’ शीर्षक से किया ताकि उनके लोग इसे जान सके. जयनाथ पति मगही के लिए बहुत कुछ करना चाहते थे. वह संगठन भी बनाये थे. मगही लोकसाहित्य पर भी किताब लिखे थे.
#बिहारनामा
निमिया के डाढ़ मइया
(एक गीत, अनेक बात)
एक ऐसा गीत, जिस पर शायद सबसे ज्यादा बार लेख लिखने का मौका मिला. सबसे ज्यादा बार लिखा.-बोला.अनेक सालों से हर नवरात्र में इस गीत का भाव और कथा जरूर साझा करता हूं. किसी न किसी माध्यम से. पहले अखबारों, पत्रिकाओं में या मेन स्ट्रीम मीडिया के अलग जंक्शनों पर लिखकर साझा किया करता था.पुरबिया इलाके के लोगों में से शायद ही कोई हो, जो इस गीत को ना सुना हो! अलग-अलग इलाके में बोल में थोड़े बदलाव होते हैं. पर, सबका आखिरी निष्कर्ष यही होता है कि लोक के गीत देवी-देवताओं को चमत्कारी,बलशाली वाली देवत्व की शास्त्रीय धारणा से निकालते हैं. उनका मानवीकरण करते हैं. सम्मान के साथ अधिकार का रिश्ता जोड़ते हैं. देवी-देवताओं को घर-परिवार का सदस्य बना लेते हैं. देवी-देवताओं से संवाद करने के लिए लोक के गीत ही लोक के शास्त्र बनते हैं, जिस पर सामान्य लोगों का अधिकार होता है. पंडितों,ज्ञानियों का नहीं. यानी देवी-देवता और उन्हें चाहनेवालों के बीच में कोई एजेंट नहीं होता और न इसकी जरूरत होती है. कोई देवी-देवता चमत्कारी नहीं होता. दूसरे देवी-देवताओं से जुड़े पारंपरिक लोकगीत भी मोटे तौर पर यही संदेश देते हैं.अभी तो नवरात्र गीत की बात कर रहे हैं, इसलिए इसी पर बात होगी.
इस गीत को गौर से सुनिएगा. कविता की तरह. एक-एक शब्द को. ध्यान देकर.इस गीत में एक पूरी कहानी है. कहानी देवी का है. शास्त्रीय और लोक की देवी में थोड़ा अंतर है. लोक गीत लोक की देवियों के अनुसार रचे गये हैं. शास्त्रीय परंपरा में नवदुर्गा की पूजा होती है. लोक परंपरा में सतबहिनी की यानी सात बहनों की.
इस गीत में एक देवी नीम के पेड़ पर झूला झूल रही हैं. गर्मी का दिन है. उन्हें प्यास लगती है. वह झूला से उतरकर अपने एक भक्त के यहां पहुंचती है. वह भक्त मालीन है.माली जाति की महिला. देवी भक्त के यहां पहुंचकर सीधे घर में पहुंच नहीं जाती. दरवाजे से ही टेर देती हैं,तस्दीक करती हैं कि मालीन सो रही हो कि जग रही हो. मैं झूला झूलते-झूलते थक गयी हूं. बहुत प्यास लगी है. एक बूंद पानी पिलाओगी क्या? मालीन के दरवाजे पर देवी खड़ी हैं, पर वह घबरा नहीं जाती कि देवी-दुर्गा ही सामने आ गयी हैं. वह भी इत्मीनान से कहती हैं कि थोड़ा रुकिए. बच्चे को सुला रही हूं. आपको पानी पिलाती हूं. देवी को मालीन पानी देती हैं. देवी पानी पीती हैं. घर का हालचाल पूछती हैं कि बेटी कहां है, बहू कहां है? फिर जाते समय आशीर्वाद देते हुए जाती हैं कि जो जहां है, वहीं फले फुले. सब सुखी रहे. आज भी गांवों में जायेंगे, तो पुरखा-पुरनिया ऐसे ही,इसी भाव से आशीर्वाद देते हैं. देवी को देवी साबित करने के लिए पुरबिया इलाके के सबसे लोकप्रिय गीत में बस इतना ही तत्व काफी है. इतने ही तत्वों के सहारे यह गीत पीढ़ियों से, सालों से लोकमानस में रचा बसा हुआ है और सबसे प्रिय गीत बना हुआ है. इस गीत में ना तो देवी का चमत्कार है, न ताकत की परीक्षा और ना ही भक्त हीन भावना से ग्रस्त होकर बेचारगी की अवस्था में है. भक्त मालीन देवी की आवाज सुन सब छोड़ दौड़ नहीं जाती. वह रोने बिलखने नहीं लगती कि हमारा भाग्य कि आप आईं देवी. देवी-देवता और भक्त के बीच लेन देन का रिश्ता नहीं है. अपनापा का रिश्ता है. शास्त्रीय परंपरा में यह धारणा है कि देवी-देवता को बलशाली, मायावी, चमत्कारी बनाये बिना देवत्व की परीक्षा की पूरी नहीं होती.
बाद बाकि सब ठीक है.
नवरात्र की शुभकामना है. नये साल की भी.
‘‘सिर्फ हिंदी साहित्य नहीं, हिंदी समुदाय ही गाफिल है, अपनी करनी की सजा मिल रही है’’
आज अशोक वाजपेयीजी का जन्मदिन है. उनसे हुई एक लंबी बातचीत की याद आ रही है. यह बातचीत साल 2012 के अगस्त महीने के आखिरी दिनों में हुई थी. पटने में. लंबी बातचीत थी, जो तब तहलका हिंदी में प्रकाशित हुआ. उसका कुछ अंश, उनके जन्मदिन पर. मात्र दस सवाल, दस जवाब.पढ़-बांच सकते हैं.
1. आप कवि भी हैं, कविता के आलोचक भी. साथ ही भारतीय शास्त्रीय संगीत तथा ललित कला के समीक्षक भी. आपको अपनी कौन-सी पहचान की रेखा आत्मीय लगती है?
- मैं मूलतः कवि हूं. आलोचना के क्षेत्र में तो मैं घूसपैठिये की तरह हूं और ललित कला और शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में मेरी स्थिति अंधों में काना राजा जैसी है क्योंकि उस क्षेत्र में लिखने-बोलने वाले कम हैं तो अपनी मांग बनी और बढ़ी रहती है.
2. आलोचक तो पहले से ही बहुतेरे थे, फिर आपको घूसपैठिया बनकर टांग अड़ाने की क्या जरूरत थी?
- आलोचनाओं को पढ़ना-समझना शुरू किया तो लगा कि अभी भी सोच दकियानुसी है और समझ के स्तर पर नयापन नहीं है. मैंने धूमिल, शमशेर आदि पर लिखना शुरू किया और अब तो तीन-चार किताबें आलोचना की है.
3. लेकिन अपने यहां साहित्य के क्षेत्र में कविता को ही सबसे बेचारगी की अवस्था में माना जाता है!
- मैं नहीं मानता. हर तीसरे साल कवि को ही नोबल पुरस्कार मिलता है. अब अगर आप कविता संग्रहों की बिक्री के आधार पर बात कर रहे होंगे तो मैं यह कहना चाहूंगा कि अमिर खां, कुमार गंधर्व आदि के सीडी खरीदनेवाले कम हैं, लता मंगेशकर को सुननेवालों की संख्या करोड़ों में हैं. तब इससे क्या अमीर खां साहब या कुमार गंधर्व का महत्व कम जाता है. तथ्यतः मैं यह भी नहीं मानता कि कविता के पाठक नहीं हैं. मुझे याद है कि करीब 15 साल पहले मैं बिहार के मुजफ्फरपुर में गया था. काव्य पाठ था. 100-150 श्रोता थे. युवक-युवतियों की संख्या अच्छी थी. मैंने अपनी कविताओं का पाठ किया. श्रोताओं में से आवाज आयी कि बाजपेयी साहब आपने अपनी वह पुरानी कविता तो सुनायी ही नहीं. फिर उन्होंने मेरी ही कविता का स्क्रिप्ट मुझे दिया. जिसे मैं भूल गया था, वह युवा पाठकों को याद था. मैं तो ब्लॉग आदि की दुनिया से बावस्ता नहीं लेकिन मेरे मित्र ने अभी मेरी कुछ कविताएं ब्लॉग पर पोस्ट की तो बहुतेरे कमेंट आये हैं. यह सब काहे का प्रमाण है. मैं कैसे मान लूं कि कविता बेचारगी की अवस्था में है.
4. चलिए फिर क्या बात है. यह मान लेते हैं कि हिंदी साहित्य में सभी अपने दायित्वों का निर्वहन ठीक से कर रहे हैं. कविता की सेहत ठीक ही है. गद्य वाले हुंकार भरते ही रहते हैं, पाठकों की कमी है ही नहीं...!
- नहीं, मैं ऐसा नहीं कह रहा. हिंदी साहित्य का सबसे ज्यादा अहित इस विषय के अध्यापक कर रहे हैं. इस देश में औसतन हर साल हिंदी साहित्य के 50 हजार से अधिक विद्यार्थी पढ़कर निकल रहे हैं. उनमें से 50 प्रतिशत भी हिंदी साहित्य के पाठक नहीं बन पा रहे तो यह क्या कमाल की पढ़ाई करवा रहे हैं, समझ सकते हैं. दूसरा हिंदी समाज है, वह खुद ही गाफिल है. देश में इस समाज को छोड़ कोई भाषा-भाषी समाज नहीं है, जो अपने साहित्य-संस्कृति से इतना कम वास्ता रखता हो. 10-12 साल पहले गुवाहाटी गया था. असम साहित्य सभा के उद्घाटन समारोह में. दो से ढाई लाख लोग मौजूद थे. मैंने अपनी जिंदगी में इस तरह की साहित्यिक सभा नहीं देखी. वहां कहते हैं कि जब तक कोई बच्चा एक बार असम साहित्य सभा मे ंन जाये, उसका जीवन संस्कार ही पूरा नहीं होता. असमिया जैसे भाषा का समाज यह है और अपने हिंदी इलाके में देखिए. तीसरा, हिंदी मीडिया का रवैया देखिए. अखबार मान बैठे हैं कि हिंदी साहित्य के पाठक नहीं हैं. अंगरेजी अखबार उस भाषा के घटिया से घटिया लेखकों और किताबों पर लगातार छापते हैं लेकिन हिंदी अखबारों में अक्सर साहित्यकारों की खबरें उनके मरने पर ही छपती है.
5. रोबोटिक एक्ट वाली नयी पीढ़ी के युग में साहित्य का भविष्य कैसा देख रहे हैं?
- अब जिन देशों की नकल कर हम रोबोट-से होते जा रहे हैं, वहां तो साहित्य-संस्कृति के भविष्य पर संकट नहीं दिखता. आज भी अंग्रेजी, फं्रेच साहित्य की स्थिति बेहतर है. वहां के लोगों में रुचि है, तभी तो वहां की मीडिया भी बैले, साहित्य, थियेटर आदि पर विस्तृत कवरेज देती है. अब जिन देशों की नकल कर हम बिगड़े हैं, इस मामले में भी उन देशों की नकल करनी होगी.
6. हिंदी जातीय व सामुदायिक अस्मिता के लेखन के खाके में बंटता जा रहा है. इसे कैसे देखते-आंकते हैं?
- यह तो साहित्य के जनतंत्र का विस्तार है और हिंदी साहित्य के सेहत के लिए हर दृष्टि से ठीक है. आधी आबादी, दलित और अब आदिवासियों की बात साहित्य के जरिये आये, इससे बेहतर क्या होगा. 19वीं सदी में कोई दलित कवि ही नहीं हुआ, उनका उभार हो रहा है तो यह अच्छी बात है. मैं जिस मध्यप्रदेश से आता हूं, वहां 45 जनजातियां रहती हैं, उनमें से कोई लेखक निकले, उनकी बात सामने आये, यह हर दृष्टि से ठीक है और हिंदी समुदाय को इसका स्वागत करना चाहिए.
7. लेकिन एक खेमे का कहना है कि स्त्री की बात स्त्री ही लिखे, दलित की बात दलित ही लिखे, आदिवासियों की बात आदिवासी ही लिखे, तभी सही तथ्य आयेंगे वरना तथ्य तोड़े-मरोड़े जाते हैं...
- यह तो फालतू बात है. अशोक बाजपेयी को सब पर बोलने का हक है और मुझ पर भी सभी को बोलने का हक है. प्रेमचंद अमीर नही ंतो बहुत गरीब भी नहीं थे और न ही दलित लेकिन उन्होंने तो दलितों और गरीबों पर डूबकर लिखा. जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘गुंडा’ तो क्लासिक कहानी है, क्या जयशंकर प्रसाद गुंडा थे. मैंने बढ़ई, कुंजरा, कुम्हार, मछुआरा आदि पर एक श्रृंखला में कविताएं लिखी हैं, मैं तो सामुदायिक स्तर पर इनमें से कुछ भी नहीं. साहित्य तो बुनिदारी कल्पना का जादू है.
8. साहित्य से इतर यदि हिंदी भाषी समुदाय की बात करें तो इन दिनों वह गैर हिंदी क्षेत्रों में लगातार निशाने पर लिया जा रहा है. इसे कैसे देखते हैं?
- इसे व्यापक तौर पर देखना होगा. हिंदी की अपनी विडंबना है. यह संघीय भाषा होने के बावजूद विस्तार नहीं ले सका. अब एक कलेक्टर की बात कीजिए, कहीं उसे जिलाधीश कहा जाता है, कहीं जिला अध्यक्ष, कहीं समाहर्ता. इसके लिए एक शब्द चलन में नहीं ला सके. दूसरी ओर इसी हिंदी के नाम पर असम से लेकर दमन तक हर संस्थानों में हिंदी अधिकारी बहाल होते रहे जो चापलूसी और ठकुरसुहाती के पद बन गये. पहले तो हिंदी अधिकारियों के पद को खत्म करना चाहिए. ये हिंदी का कुछ भला तो नहीं कर पाये इससे गैर हिंदी भाषी इलाकों में हिंदी को लेकर छोटे हिस्से में ही सही, ईर्ष्या का भाव पनपते रहता है. हिंदी के विभाग भी आपको देश के हर राज्यों के विश्वविद्यालय में खुले हुए मिलेंगे. दूसरी विडंबना देखिए, दो मराठी, बंगाली, कन्नड़ कहीं मिलेंगे तो आपस में अपनी भाषा में बात करेंगे लेकिन दो थोड़े पढ़े लिखे हिंदी भाषी मिलेंगे तो गलत अंग्रेजी में बतियायेंगे. आगे गौर कीजिए, हिंदी अधिकारी दूसरे राज्यो ंमें तो फैले हुए मिलेंगे लेकिन हिंदी भाषी इलाकों के गली-गली में आपको अंग्रेजी स्कूल खुले हुए दिखेंगे. दुनिया के समाजशास्त्री, मनोविज्ञानी कह रहे हैं कि आरंभिक शिक्षा मातृभाषा में देनी चाहिए, इससे बच्चों का ज्ञानतंत्र मजबूत होता है और उनकी समझ भी बढ़ती है लेकिन हिंदी समाज इसे समझने को तैयार नहीं. एक और बात. हिंदी में मुख्य रूप से 46 बोलियां हैं. अब उनमें से एक तो खड़ी हिंदी बन गयी लेकिन शेष 45 को अपने हाल पर छोड़ दिया गया. 19वीं सदी तक हिंदी साहित्य, हिंदी बोलियों का ही साहित्य था, उस हिंदी साहित्य ने भी बोलियों को छोड़ा. हिंदी ने अपने ही परिवार के बोलियों के साथ व्यवहार ठीक नहीं रखा, यह कहां तक क्षम्य है. अब एक समुदाय इतनी विडंबनाओं से घिरा हुआ और इस कदर बिखरा हुआ हो तो राज ठाकरे जैसे लोग कुछ से कुछ तो बोलेंगे ही. लेकिन यह सही नहीं है.
9. आप तो महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति रहे और भारत भवन जैसे संस्थान के संस्थापक भी. ये दोनों संस्थान भी अब हमेशा विवादों में ही रहते हैं. आप खुद ब्यूरोक्रेट्स भी रहे हैं. क्या शासन और राजनीति भी हिंदी समुदाय और ऐसे संस्थानों को गर्त में ले जाने के लिए जिम्मेवार हैं?
- सब के सब जिम्मेवार हैं. राजनीति में तो हिंदी प्रदेशों की असल राजनीति की बात करनेवाले आखिरी आदमी डॉ राममनोहर लोहिया थे. बात जहां तक संस्थानों की कर रहे हैं तो ऐसे संस्थान हिंदी में बन तो सकते हैं लेकिन चल नहीं सकते. यह देखा जा चुका है. राष्ट्र भाषा परिषद, हिंदी ग्रंथ अकादमियों का क्या हश्र हुआ, देख चुके हैं. जबकि हिंदी के पास जो संभावना है और अखिल भारतीय दृष्टि है, उसका कोई जोड़ नहीं. हिंदी के ही सबसे ज्यादा अनुवाद होते हैं, बांग्ला जैसी लोकप्रिय भाषा तो सबसे आखिरी पायदान पर है लेकिन हिंदी में सांस्थानिक वृत्ति ही नहीं है. सिर्फ संस्थाओं के ध्वस्त होने से चिंतित होने की जरूरत नहीं. आप देखिए तो हिंदी भाषी क्षेत्रों की आबादी 50 करोड़ से अधिक है लेकिन इस इलाके से चित्रकारी में मकबूल फिदा हुसैन, रामकुमार, सैयद रजा और सुबोध गुप्ता जैसे चार नाम गिने चुने हुए. रंगमंच की दुनिया में झांकिये तो हिंदी रंगकर्म को बढ़ाने और प्रसिद्धी दिलाने में बंशी कौल, हबीब तनवीर, रैना, अलकाजी आदि की भूमिका रही और ये सभी हिंदी इलाके के नहीं थे. हिंदी ने अर्थशास़्त्र, मनोविज्ञान, समाजशास़्त्र में कहां कोई मौलिक चिंतक या विद्वान दिये, जो ज्ञानोत्पादन हिंदी में ही करता हो. हिंदी इलाके में ही ग्वालियर, बनारस, लखनउ जैसे प्रसिद्ध घराने थे, सब एक-एक कर खत्म हो गये. इसे लंबे समय में, सभी ने मिलकर खत्म किया है, सबकी भूमिका रही है, किसी एक का दोष नहीं दिया जा सकता.
10. आखिरी सवाल, कवि-आलोचक अशोक बाजपेयी को अभी वाले दौर में कौन सा हिंदी कवि पसंद है?
- कोई नहीं. वैसे भी मेरी रुचि विश्व कविता में ज्यादा रहती है.
रामनंदन मिश्र की जयंती ( 16 जनवरी)पर एक लंबा पोस्ट
(समय हो,लंबा पढ़ने की आदत हो, तो पढ़ सकते हैं)
आज रामनंदन मिश्र की जयंती है. दो बरस पहले बिहार के अलग—अलग जगह से हम साथी लोग बिहार के मुजफ्फरपुर के चंद्रहट्टी गांव में जुटे थे. उनकी स्मृति में एक आयोजन में. तय हुआ था था कि हर साल जुटेंगे. उनके बहाने हर साल सामूहिक जुटान होगा, कुछ बातें होंगी. पर, उसके बाद से कोरोना की लहर ने अब तक सालाना जुटान को स्थगित कर रखा है.
रामनंदन मिश्र को जाननेवाले जानते ही हैं. जो नहीं जानते, यह पोस्ट उनके लिए है. उनका पूरा नाम था रामनंदन मिश्र. काशी विद्यापीठ से संस्कृत से शास्त्री की पढ़ाई पूरी हुई तो अकादमीक तौर पर पंडित की उपाधि मिल गयी. नाम के आगे पंडित लगा. पंडित रामनंदन मिश्र. पर, उनके सक्रिय जीवनकाल में ही उनके नाम से आरंभ का पंडित और आखिर का मिश्र हट गया था. वह सिर्फ रामनंदन हो गये थे. गांधी तो उन्हें बालपन से ही रामनंदन कहकर बुलाते थे. बाद में उनके विचारों से प्रभावित, उनके पथ का अनुसरण करनेवाले, उनकी बनायी पगडंडी को रास्ते में बदलने और उस राह पर चलने की कोशिश करनेवाले उन्हें बाबूजी कहने लगे. अभी की पीढ़ी के लोकमानस और लोकस्मृतियों में वह बाबूजी के नाम से ही रचे—बसे हैं और मौजूद भी.
उनके कर्तृत्व और नेतृत्व की बहुआयामी—विशाल दुनिया को संक्षेप में जानें, उसके पहले उनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा व्यक्तिगत परिचय के रूप में जान लेते हैं. बिहार के दरभंगा जिले पतोर गांव में जन्म हुआ था. 16 जनवरी 1906 को. गांव का नाम तो पतोर था लेकिन उनके ड्योढ़ी का नाम रघुनाथपुर ड्योढ़ी था. जमींदार की ड्योढ़ी. पिता राजेंद्र प्रसाद मिश्र और पुरखे इलाके के नामी लोग. जमींदार.थोड़े दिन गांव में रहे, आरंभिक अक्षरज्ञान वाली पढ़ाई—लिखाई गांव में हुई और उसके बाद अपने बड़े भाई जानकीरमण मिश्र के साथ पढ़ाई के लिए चले गये पटना. पटना में अपने मामा के घर. मामा थे बाबू वैद्यनाथ सिंह. अपने समय के मशहूर वकील. न सिर्फ पटना बल्कि बिहार के नामी वकील. डॉ राजेंद्र प्रसाद के मित्र. मामा कांग्रेसी थे. बड़े—बड़े नेताओं की चौपाल लगती थी मामा के यहां. रामनंदन को बालपन से ही बड़े नेताओं को देखने का मौका मिलने लगा, बोलने—बतियाने का भी. उस बालपन में ही गांधी से भी बतियाने और गांधी की गोद में भी बैठने का मौका मिल गया. इस प्रसंग पर विस्तार से बात आगे किताब में है.
तो पटने की पढ़ाई के बाद रामनंदन बनारस भेजे गये पढ़ने के लिए. बनारस से उनका एक अलग रिश्ता भी था. उनकी बहन की शादी काशी नरेश के यहां थी. यह वह समय था जब जमींदारों के लड़के, बड़े घरों के लड़के पढ़ने के लिए विदेश भेजे जाते थे. बैरिस्ट्री की पढ़ाई को लेकर एक आकर्षण था तब. रामनंदन को भी पढ़ने के लिए विदेश ही भेजे जाने की बात हुई. बात क्या हुई, बात तय ही हो गयी थी. रामनंदन की एक बार फिर से गांधीजी से बनारस में भेंट हो गयी. रामनंदन ने गांधीजी से ही पूछ दिया कि बड़ी दुविधा में है मन. विदेश जाने की बात है, मन ही मन सारी तैयारियां हो चुकी है लेकिन दुविधा है मन में. गांधीजी ने एक लाइन में कह दिया कि नहीं जाओ विदेश और आगे से चिट्ठियां लिखते रहना, संपर्क में रहना. रामनंदन ने विदेश जाकर पढ़ने के अवसर को एक झटके में छोड़ दिया. गांधी का रंग उन पर चढ़ गया. दिन—ब—दिन वह रंग और गाढ़ा, और चटक होता गया. जमींदार परिवार से ताल्लुक रखनेवाले रामनंदन सार्वजनिक जीवन में गांधीवादी हो गये और फिर समाजवादी. गांधीवादी और समाजवादी भी ऐसे—वैसे नहीं, बोलचाल के शब्दों में, सहज भाषा में कहें तो कट्टर टाइप. कमिटेड गांधीवादी और समाजवादी, जो जीवन भर अपने संकल्पों के प्रति दृढ़ रहे, कथनी और करनी में एका बनाये रखे. इस गांधीवाद, समाजवाद को निभाने में जीवन में दुर्दिन आये. ऐसे दुर्दिन कि खाने के भी लाले पड़ गये, घर—परिवार से लेकर समाज तक ने बहिष्कृत कर दिया, अछूत—से बन गये लेकिन तमाम मुश्किलों को झेलते हुए, चुनौतियों का सामना करते हुए, न कभी अपने संकल्प से हटे, न कर्तव्य पथ से और ना ही कभी कथनी और करनी में फर्क आने दिया.
आखिर क्यों ऐसा? बड़े जमींदार का बेटा, जिस परिवार की रिश्तेदारी काशी नरेश के यहां, वह क्यों सुख—सुविधा की सारी संभावनाओं को छोड़कर, तब की राजनीति के अनुसार चलते हुए धन के बूते आसानी से राजनीति में जगह बनाकर सत्ता और धन, दोनों का सुख भोगने की बजाय ऐसी राह का राही बन गया, जिस राह में रोड़े तो अपार थे ही, किसी ठोस मंजिल का भी पता नहीं था. क्या बचपन से ही रामनंदन के मन में ये बीज थे? बचपन की कहानियां स्पष्ट नहीं होतीं, लेकिन किशोर रामनंदन के मन में बवंडर उफान मारने लगा था. घर छोड़ने के बाद अपने पिता को 07 दिसंबर 1927 को लिखी गई चिट्ठी से यह स्पष्ट होता है. उस चिट्ठी में वह लिखते हैं कि,'' होश संभालने के छठे वर्ष से ही मुझे लगने लगा था कि हमें अपने जीवन को देश के लिए लगाना है. गांधीजी की पुकार पर चलना है.'' उस चिट्ठी में अपने पिता को वह लिखते हैं कि,'' गांधीजी ने जब नवयुवकों को देश पर अपना भविष्य बलिदान करने का आह्वान किया था, तभी मेरा मन था कि अंग्रेज सरकार की पाठशालाओं से असहयोग कर अपना धर्म निभाना ही होगा. लेकिन, तब अधीर न हुआ. मेरी उम्र उस समय 15 वर्ष की थी और गांधीजी ने 16 वर्ष से कम उम्रवालों को पितृआज्ञा के बिना स्कूल छोड़ने की सलाह नहीं दी थी. मैं रुक गया. शीघ्रता से असहयोग नहीं किया. लगातार एक वर्ष विचार करता रहा. माघ कृष्णअष्टमी को जब मेरा 16वां वर्ष प्रारंभ हुआ तो मैंने स्कूल छोड़ दिया और आपकी आज्ञा न मिलने पर घर छोड़ने का भी निर्णय कर लिया. पर आपने एक तरह से आज्ञा दे दी और मेरा विरोध न किया, उस समय आबद्ध होकर मैं रह गया और घर छोड़ न सका.''
चिट्ठी लंबी है. उसमें बातें बहुत है. इस बिंदु की चर्चा यह समझने के लिए कि रामनंदन के जीवन में बदलाव के बीज कब से पनप रहे थे. ऐसी अनेक घटनाएं हुईं लेकिन जीवन में टर्निंग प्वाइंट आया राजकिशोरी से शादी के बाद और संयोग से उसी के आसपास गांधीजी के दरभंगा आगमन की घटना के बाद.
1926 में गांधीजी दरभंगा आये. वहां एक महिला सभा में बोलने गये. गांधीजी और स्त्रियों के बीच एक पर्दा लगाया गया था. दरभंगा से लौटने के बाद गांधीजी ने 'यंग इंडिया' में एक लंबी टिप्पणी की. पर्दा के विरोध में. संयोग से उसी समय रामनंदन की शादी भी हुई थी. रामनंदन कालेज की अपनी पढ़ाई खत्म कर गांव लौट आये थे. गांधीजी की लेख के बाद रामनंदन अपने गांव में सात—आठ मित्रों के साथ बातचीत कर रहे थे कि इस पर्दा प्रथा के खिलाफ हमलोगों को कुछ करना चाहिए. सवाल था कि इसकी पहल कौन करेगा? रामनंदनजी ने गांधीजी को एक लंबी चिट्ठी लिख दी. यह खबर रामनंदन के पिताजी को मिली. घर का माहौल बदला. परिवार में तनाव शुरू हुआ. रामनंदन अपनी पत्नी राजकिशोरी को पढ़ाकर, पढ़ने के लिए घर से बाहर निकालकर यह पर्दा तोड़ने की शुरुआत करना चाहते थे. घर में तनाव इतना बढ़ा कि गांधीजी को बीच में रास्ता निकालना पड़ा. चिट्ठियों के मार्फत ही गांधीजी ने रास्ता निकाला कि राजकिशोरी जहां है, वहीं रहे, वह अपने आश्रम से किसी योग्य महिला को पढ़ाने के लिए भेजेंगे. सरदार वल्लभभाई पटेल की बेटी मणिबेन पटेल का नाम तय हुआ लेकिन किसी कारण से वह नहीं आ सकी तो गांधीजी अपने प्रिय भतीजा मगनलाल गांधी की बेटी राधाबाई और दुर्गाबाई का भेज दिया. इधर रामनंदन के पिता ने अपनी बहू यानी राजकिशोरी को उनके नैहर गया जिले के मंझवे गांव में भेज दिया. राधाबाई और दुर्गाबाई वहीं पहुंची. राजकिशोरी को पढ़ाने लगीं लेकिन दुर्भाग्य से घटना यह घटी कि अपनी बेटी से मिलने मंझवे गांव पहुंचे मगनलाल की तबीयत गांव में ही खराब हुई और उनकी मृत्यु भी बिहार में ही हो गयी.
यह एक बड़ी घटना घटी. रामनंदन ने मन ही मन तय किया कि अब पर्दा प्रथा के खिलाफ आंदोलन तेज होगा. पिता की मृत्यु के बाद राधाबाई वापस आश्रम चली गयीं, गांधीजी के पास. गांधीजी ने राजकिशोरी को भी वहीं बुलाया लेकिन राजकिेशोरी का वहां जाना इतना आसान न था. रामनदंन ने अपनी ही पत्नी को चुपके से नैहर से निकाला. रात के अंधेर में. तब तक राजकिेशोरी मां बन चुकी थीं. छोटे से बालक, विजय को लेकर अंधेरे में वह अपने पति के साथ नैहर से निकल गयीं. पटना आयीं. अनुग्रह नारायण सिन्हा साबरमती लेकर चले गये.
दो—चार पंक्तियों में ही सिमटी हुई यह घटना अब के समय से कितनी आसान लगेगी लेकिन यह बात 1926 की है. इस घटना का ताल्लुक उस परिवार से है, जो अपनी बहू को पढ़ाने को ही तैयार नहीं था लेकिन उसी बहू का पति अपनी अनपढ़ पत्नी को पढ़ाने और पढ़ाई के जरिये पर्दा तोड़ने के लिए, अपनी ही पत्नी को सबकी नजरों से बचाकर, नैहर से ले जाता है.
रामनंदन के सार्वजनिक जीवन में आने टर्निंग प्वाइंट यही होता और फिर तो इस घटना के बाद उनके जीवन में संघर्ष की नई कहानी शुरू होती है. निजी जीवन में दुख अपना अपार विस्तार पाता है लेकिन अपने संकल्पों और कर्तव्यों से बंधे रामनंदन पीछे पलटकर नहीं देखते. वह और दुख—और दुख, और संघर्ष—और संघर्ष बटोरते हुए आगे बढ़ते जाते हैं. कई बार ऐसा लगेगा, जैसे वे सृजन के लिए संघर्ष की जमीन पहले तैयार कर रहे थे ताकि सृजन की धार संघर्षों में तपकर और तेज हो.
राजकिशोरी अपने बेटे के साथ साबरमती पहुंची, रामनंदन भी पहुंचे. गांधी ने जीवन का पाठ एक पंक्ति में समझा दिया, घर से विद्रोही हो गये हो तो याद रखो कि विद्रोही पुत्र को पिता के धन की आशा नहीं करनी चाहिए. रामनंदन ने गांधी की इस बात को गांठ की तरह बांध लिया, जीवन मंत्र की तरह. वह अपनी पत्नी और बेटे के साथ दरभंगा लौटे. दरभंगा जिला के एक गांव में घास—फूस की झोपड़ी डालकर रहने लगे. घर से कोई सहायता नहीं. छह माह चावल नमक खाकर निकल गये. रामनंदन लकड़ी काटते, राजकिशोरी किसी तरह खाना बनाती. रामनंदन दिन भर कंधे पर खादी लेकर गांव—गांव घूमकर बेचते. इस कदर तिरस्कृत और बहिष्कृत हो गये थे कि कई बार तो गांववाले कुएं पर पानी भी नहीं भरने देते. पर, रामनंदन यह सब सहते हुए अपने कर्मों में लगे रहे. नौजवान थे तो एक युवा, जिद्दी धुन में मगन.
मगनलाल की याद में पटना में 08 जुलाई 1928 को पर्दा विरोधी दिवस मनाया गया. चंदा जमा हुआ. तय हुआ कि पूरे राज्य में पर्दा के खिलाफ आंदोलन चलेगा. रामनंदन उसके अगुआ बने. गांव—गांव जाते, गालियां सुनते, अपमान झेलते लेकिन वह लगे रहे. संघर्ष के उन्हीं दिनों में गांधीजी की सलाह पर 1929 में लहेरियासराय से पांच किलोमीटर दूर मंझोलिया गांव में मगन आश्रम की स्थापना की. साबरमती आश्रम के तर्ज पर यह खड़ा होने लगा. जगदीश चौधरी ने जमीन दान दी, इलाके के लोगों ने श्रमदान किया, कुल नौ लोग आश्रम में रहने लगे, उसे गढ़ने लगे. आश्रम में जाति व्यवस्था भी नहीं थी और ना ही स्त्रियों के लिए पर्दा. मुसलमानों के घर भोजन करने पर भी रोक नहीं. मिथिला के इलाके में ऐसे आश्रम का होना एक क्रांतिकारी कदम था, इसलिए उपेक्षा के साथ—साथ उस समय विरोध भी कोई कम न झेलना पड़ा.
पर्दा प्रथा के विरोध में उनके सार्वजनिक जीवन में प्रवेश का आंदोलन था. उस आंदोलन की लंबी कहानी है. लेकिन, रामनंदन के सार्वजनिक जीवन में संघर्ष और सृजन की कहानी यही नहीं है. यह तो आरंभ है. अनेक घटनाएं, अनेक कहानियां, जिनका विस्तार से चर्चा न करके, दो आंदोलनों में उनकी भूमिका या सक्रियता पर यहां बात की जा सकती है.
एक 1942 का आंदोलन और दूसरा चंपारण के किसानों की स्थिति को लेकर 1950 में बनी लोहिया कमिटी में उनकी सक्रियता और सकारात्मक भूमिका.
लोहिया कमिटी की रिपोर्ट की बात बाद में, पहले 1942 के आंदोलन में रामनंदन की सक्रियता और भूमिका की चर्चा करते हैं. कांग्रेस से जुड़े रहे और गांधी के बेहद करीबी रहे रामनंदन ने समाजवादी राजनीति का रास्ता अपनाया. 1942 के आंदोलन का बिगुल बजा. रामनंदन सात अगस्त 1942 को बंबई के बिड़ला भवन में थे. गांधीजी के साथ समाजवादियों की बैठक डॉ लोहिया की अगुवाई में थी कि गिरफ्तारी देने की योजना क्या हो. दो दिनों बाद 09 अगस्त को गांधीजी 'करो या मरो' का नारा देकर जेल चले गये. रामनंदन भूमिगत. बंबई से मद्रास गये, फिर कटक. उड़ीसा—आंध्रप्रदेश में वेष बदलकर भागते रहे, घूमते रहे. लेकिन गिरफ्तार कर लिये गये. रामनंदन की पहचान सिर्फ समाजवादी नेता या कार्यकर्ता की नहीं थी बल्कि क्रांतिकारी छवि थी, सो अंग्रेजों ने इन्हें जेल में यातनाएं ज्यादा दीं. अंग्रेजी सरकार रामनंदन को इस जेल से उस जेल भेजती रही. पहले कटक, फिर बहरामपुर, फिर गंजाम जिले के रसलकुंडा में. यह डर था अंग्रेजों को रामनंदन जेल से भाग जायेंगे. आखिर में रामनंदन को हजारीबाग जेल भेजा गया.
हजारीबाग जेल में जयप्रकाश नारायण बंदी के रूप में थे. क्रांतिकारी योगेंद्र शुक्ल और सूर्यनारायण सिंह जैसे नेता भी. अंग्रेजी सरकार जिस रामनंदन को जिस डर से इस जेल से उस जेल में भेजती रही, उसी को अंजाम हजारीबाग जेल से दिया गया. आठ नवंबर 1942 को ऐतिहासिक हजारीबाग जेल की घटना घटी, जब जेपी, योगेंद्र शुक्ल, सूर्यनारायण सिंह, गुलाली प्रसाद और शालीग्राम सिंह के साथ रामनंदन जेल की दीवार फांदकर वहां से भाग गये. हजारीबाग जेल से निकलने के बाद कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा, इसकी कहानी लंबी है.
इसके बाद रामनंदन दूसरे रूप में सक्रिय हुए. क्रांतिकारी रूप में. क्रांतिकारी दलों के संपर्क में आ गये. वेश्याओं के घर जाकर क्रांतिकारियों से मिलना, एसिड, डायनामाइट, हथियार आदि खरीदना, नेताजी सुभाषचंद्र बोस से मिलने की कोशिश करना, नये रामनंदन इस रूप में थे. वायसराय के महल पर बम गिराने की योजना के प्रमुख सूत्रधार बन गये.
कंपकंपाती ठंड में लाहौर पहुंच गये. गुप्त केंद्र स्थापित करने की योजना में लग गये. लाहौर में बड़े प्रदर्शन की तैयारी में लग गये. 22 फरवरी 1943 को रामनंदन वहां गिरफ्तार हो गये. जयप्रकाश भी उस समय लाहौर में ही बंदी बनाकर रखे गये थे. रामनंदन 25 सप्ताह कैद में रहें. विभत्स यातनाएं सहकर. अंग्रेज अधिकारियों ने रामनंदन पर अनेक जुल्म ढाये. पूरी योजना जानने के लिए, गांधीजी की योजना जानने के लिए.
ऐसी अनगिनत कहानी रामनंदन के जीवन में जुड़ती गयी. वह अपनी पूरी जवानी ऐसे संघर्षों में गुजारते रहे. किसान आंदोलन में उनकी सक्रियता और भूमिका अलग रही.
देश आजाद हुआ. गांधी से उनका संबंध उसी तरह प्रगाढ़ बना रहा. बल्कि यूं कहें कि देश की आजादी के बाद गांधी के और आत्मीय हो गये रामनंदन. हत्या के कुछ दिनों पहले तक उनके बीच हुए संवाद से इस आत्मीयता को महसूसा जा सकता है, जो इस किताब में दर्ज है. आजादी के बाद सोशलिस्ट पार्टी की राजनीति में रामनंदन सक्रिय रहे.
आजादी पाने के दो साल बाद वह फिर एक नयी भूमिका में दिखे. 1917 में गांधी चंपारण की भूमि पर सत्याग्रह का बीज बोकर, सत्याग्रह आंदोलन का सूत्रपात कर चुके थे. उस सत्याग्रह का फलाफल ठोस रूप में क्या निकला, वहां के किसानों की हालत कैसी है या क्या सुधार हुआ, इसके अध्ययन के लिए सोशलिस्टों ने एक कमिटी बनाई, जिसे ऐतिहासिक लोहिया कमिटी के नाम से जानते हैं. यह बात 1950 की है. इस जांच कमिटी में दो सदस्य थे, एक रामनंदन और दूसरे खुर्शीद एडी नौरोजी.
1950 के दशक में कांग्रेस की सरकार थी. केंद्र और राज्य, दोनों जगह इसलिए जो रिपोर्ट तैयार हुई, उसे एक तरीके से दबाकर रखा गया लेकिन रामनंदन ने उसे लेख की शक्ल में भी लिखा, विदेश के अखबारों में भी छपा. इस जांच और अध्ययन रिपोर्ट से बात सामने आयी थी कि कैसे गांधी के सत्याग्रह के बाद अंग्रेज निलहा तो चले गये थे लेकिन उनकी जगह मिलहा आ गये थे. चीनी मील वाले. रैयतों से ढाई लाख एकड़ जमीन खरीद छीन ली गयी थी. सरकारी ऋण चुकाने में रैयतों की जमीन चली गयी थी. चीनी मील मालिक 40 हजार एकड़ जमीन पर काबिज हो गये थे और इन चीनी मीलों ने दस हजार से अधिक परिवारों को भूमिहीन बना दिया था.
यह तो उस रिपोर्ट का सार भी नहीं, बस एक अध्याय का एक हिस्सा भर है. उस रिपोर्ट में रामनंदन ने खुलकर कांग्रेस के बड़े नेताओं का नाम लिखा कि कैसे अंग्रेज निलहों के जाने के बाद मिलहों को छूट देने के एवज में बिहार के बड़े नेताओं ने, राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित नेताओं ने अपने नाम फार्म हाउस या जमीन आदि लेकर खेल किया. इस रिपोर्ट से भूचाल आया था उस समय. यह रिपोर्ट अगर दगाई गयी नहीं होती तो कई बड़े नेता जनमानस में अपना नायकत्व खो बैठते. लेकिन जांच या अध्ययन रिपोर्ट करने गये रामनंदन उस समय इसे लेकर जरा भी संकोच में नहीं रहे कि कोई बड़े नाम हैं या निजी संबंध हैं तो उनके गुनाह को सामने न लायें.
दरअसल, किशोरावस्था से रामनंदन राजनीति में इतनी जमीनी लड़ाई लड़ चुके थे, आंदोलन और संघर्ष कर चुके थे और गांधी का इतना असर उन पर पड़ चुका था कि वे सत्ता और शासन के मोह—माया में फंसे हुए नेता भर नहीं रह गये थे. इसका विस्तार तुरंत ही दिखा, जब रामनंदन राजनीति में एक बड़ी पहचान बना लेने, बिहारी नेताओं में अग्रणी कतार में शामिल हो जाने बाद अचानक ही सब छोड़कर एक नयी दुनिया में प्रवेश कर गये और जीवन के आखिरी समय तक उसी में रचे—बसे—रमे रह गये. वह नयी दुनिया थी आध्यात्म की. वैज्ञानिक चेतना से लैश आध्यात्म की. वैश्विक चेतना से लैश आध्यात्म की. इस मूलमंत्र के साथ कि मानव जाति को जीवन रक्षा, संस्कृति तथा स्वस्थ्य जीवन के लिए नई दिशा लेनी होगी. आध्यात्मिक जीवन में क्रांति के छह बिंदु लेकर आगे बढ़े. वह छह बिंदु थे—
1. आध्यात्म (मैं के स्थान पर हम की स्थापना)
2. मर्यादित विज्ञान
3. प्रजातंत्र
4. स्वतंत्रता (हर हालत में प्रजा का शांतिमय पथ से विरोध का अधिकार)
5. सर्वोदय
6. प्रेम के आधार पर सहजीवन.
आजीवन राजनीति में जीवन लगाने—खपाने के बाद आध्यात्म की दुनिया में इन बिंदुओं को लेकर वे उस समय आगे बढ़े तो उन्हें भी मालूम था कि धर्म की जड़ता को तोड़ना या ऐसी आध्यात्मिक चेतना का विस्तार इतना आसान नहीं. लेकिन वह टैगोर के वाक्य को भी अपने जीवन का एक मंत्र मानते थे— एकला चलो रे.
अब वह पूरी तरह इसी दुनिया में रमते जा रहे थे. इसके लिए पुरी, कलकत्ता, बनारस,प्रयाग, वृंदावन, पांडिचेरी जाने लगे. अपने समय के मशहूर स्वतंत्रता सेनानी दिव्य आध्यात्मिक पुरूष कालीपद गुहा राय से उनका अनुराग हुआ. उन्होंने नंगा बाबा के बारे में बताया. रामनंदन नंगा बाबा के पास पहुंचे और वही उनके आध्यात्मिक गुरु हुए. आध्यात्मिक दुनिया में रामनंदन के विचरने की कहानी लंबी है. अनेक पड़ाव से गुजरे लेकिन जैसे व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक जीवन में विद्रोही स्वभाव के थे, क्रांतिकारी मिजाज के थे, आध्यात्मिक दुनिया में जड़ता को तोड़ने के लिए भी वे विद्रोही और क्रांतिकारी ही रहे.
27 अगस्त 1989 को वे दुनिया से विदा हो गये. एक विरासत, एक परंपरा छोड़कर. एक पगडंडी बनाकर. उस पगडंडी पर चलनेवाले संख्या के गणित के अनुसार भले कम दिखते हैं लेकिन जो हैं, वे बहुत बहुत ही ठोस. दृढ़ संकल्पी. आदर्शों और कथनी—करनी में एका रखनेवाले.
रामनंदन सब छोड़ आध्यात्म की दुनिया में क्या एकबारगी चले गये? आखिर क्यों चले गये? क्या महज किसी राजनीतिक घटना की वजह से उनका राजनीति से मोहभंग हुआ? क्या अपने आत्मीय गांधीजी के दुनिया में नहीं रहने के बाद राजनीति के प्रति उनका आकर्षण घटता गया और उन्होंने आध्यात्म का रास्ता अपना लिया? यह सवाल उठते रहते हैं. इसका सही—सही जवाब खुद रामनंदन ही अपने लिखे में सांकेतिक तौर पर दे चुके हैं. एकबारगी से उनका आध्यात्म की ओर झुकाव नहीं हुआ था. संस्मरण किताब के आरंभ में ही रामनंदन ने लिखा है— ''भोग और वैराग्य के प्रबल आकर्षणों के बीच संतुलन ढूंढती हुई जीवन धारा चली जा रही है. यह संतुलन जिस कर्म क्षेत्र में ढूंढना पड़ा, उसके द्वार पर ही परिवार, समाज और सरकार ने द्वंद्व खड़ा कर दिया. उन्होंने स्पष्ट शब्दों में जोर के साथ कहा— मेरी मर्जी से चलो.अपने विचारों और सिद्धांतों का आकर्षण उलझ पड़ा जीवन के सुख और शांति के आकर्षण से.अंत में विचारों का आकर्षण विजयी हुआ. ''
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