Common Service Center
CSCs are envisioned as the front-end delivery points for government, private and social sector services to citizens of India.
The CSC is a strategic cornerstone of the National e-Governance Plan (NeGP), approved by the Government in May 2006, as part of its commitment in the National Common Minimum Programme to introduce e-governance on a massive scale. The CSCs would provide high quality and cost-effective video, voice and data content and services, in the areas of e-governance, education, health, telemedicine, entertai
समयसूचक AM और PM का उद्गगम भारत ही था, लेकिन हमें बचपन से यह रटवाया गया, विश्वास दिलवाया गया कि इन दो शब्दों AM और PM का मतलब होता है :
AM : Ante Meridian PM : Post Meridian
एंटे यानि पहले, लेकिन किसके? पोस्ट यानि बाद में, लेकिन किसके?
यह कभी साफ नहीं किया गया, क्योंकि यह चुराये गये शब्द का लघुतम रूप था।काफ़ी अध्ययन करने के पश्चात ज्ञात हुआ और हमारी प्राचीन संस्कृत भाषा ने इस संशय को साफ-साफ दृष्टिगत किया है। कैसे? देखिये...
AM = आरोहनम् मार्तण्डस्य Aarohanam Martandasya
PM = पतनम् मार्तण्डस्य Patanam Martandasya
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
सूर्य, जो कि हर आकाशीय गणना का मूल है, उसी को गौण कर दिया। अंग्रेजी के ये शब्द संस्कृत के उस वास्तविक ‘मतलब' को इंगित नहीं करते।
आरोहणम् मार्तण्डस्य यानि सूर्य का आरोहण (चढ़ाव)।
पतनम् मार्तण्डस्य यानि सूर्य का ढलाव।
बारह बजे के पहले सूर्य चढ़ता रहता है - 'आरोहनम मार्तण्डस्य' (AM)।
बारह के बाद सूर्य का अवसान/ ढलाव होता है - 'पतनम मार्तण्डस्य' (PM)।
पश्चिम के प्रभाव में रमे हुए और पश्चिमी शिक्षा पाए कुछ लोगों को भ्रम हुआ कि समस्त वैज्ञानिकता पश्चिम जगत की देन है।
हम अपनी हजारों साल की समृद्ध विरासत, परंपराओं और संस्कृति का पालन करते हुए भी आधुनिक और उन्नत हो सकते हैं।इस से शर्मिंदा न हों बल्कि इस पर गौरव की अनुभूति करें और केवल नकली सुधारवादी बनने के लिए इसे नीचा न दिखाएं।समय निकालें और इसके बारे में पढ़ें / समझें / बात करें / जानने की कोशिश करें।
अपने “सनातनी" होने पर गौरवान्वित महसूस करें।
#सनातनी #सनातनभारत #सनातन #सनातनहमारीपहचान
नमस्ते जी 🙏
ओम्
‘श्राद्ध’ शब्द बना है ‘श्रद्धा’ से। ‘श्रद्धा’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘श्रत्’ या ‘श्रद्’ शब्द से ‘अङ्’ प्रत्यय की युति होने पर होती है, जिसका अर्थ है- ‘आस्तिक बुद्धि। ‘सत्य धीयते यस्याम्’ अर्थात् जिसमें सत्य प्रतिष्ठित है।
छान्दोग्योपनिषद् 7/19 व 20 में श्रद्धा की दो प्रमुख विशेषताएँ बताई गई हैं – मनुष्य के हृदय में निष्ठा / आस्तिक बुद्धि जागृत कराना व मनन कराना।
मनुष्य समाज की समस्या यह है कि वह दिनों-दिन विचार और बुद्धि के खेल खेलने में तो निष्णात होता जा रहा है, किन्तु श्रद्धा का अभाव उसके जीवन को दु:ख और पीड़ा से भरने का बड़ा कारक है। विचार के बिना श्रद्धा पंगु है व श्रद्धा तथा भावना के बिना विचार । वह अंध-श्रद्धा हो जाती है क्योंकि विवेक के अभाव में यही पता नहीं कि श्रद्धा किस पर व क्यों लानी है या कि उसका अभिप्राय क्या है। इसीलिए ध्यान देने की आवश्यकता है कि मूलतः श्रद्धा का शाब्दिक अर्थ हृदय में निष्ठा व आस्तिक बुद्धि है….. बुद्धि के साथ श्रद्धा।
यह तो रही ‘श्राद्ध’ के अर्थ की बात। पितरों से जोड़ कर इस शब्द की बात करें तो उनके प्रति श्रद्धा, कुल- परिवार व अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा, अपनी जातीय-परम्परा के प्रति श्रद्धा, माता-पिता-आचार्यों के प्रति श्रद्धा की भावना से प्रेरित होकर किए जाने वाले कार्यों को ‘श्राद्ध’ कहा जाता है। यदि हमने अपने घर-परिवार व समाज के जीवित पितरों व माता-पिता के शारीरिक-मानसिक-आत्मिक सुख की भावना से कुछ नहीं किया तो मृतक पितरों के नाम पर भोजन करवाने मात्र से हमारे पितरों की आत्मा शान्ति नहीं पाएगी। न ही पितर केवल भोजन के भूखे होते हैं। वे अपने कुल व सन्तानों में वे मूलभूत आदर्श देखने में अधिक सुख पाते हैं जिसकी कामना कोई भी अपनी सन्तान से करता है । इसलिए यदि हम में वे गुण नहीं हैं व हम अपने जीवित माता-पिता या बुजुर्गों को सुख नहीं दे सकते तो निश्चय जानिए कि तब श्राद्ध के नाम किया जाना वाला सारा कर्मकाण्ड तमाशा-मात्र है।
संस्कृत न जानने वालों को बता दूँ कि ‘पितर’ शब्द संस्कृत के ‘पितृ’ से बना है जो पिता का वाचक है, किन्तु माता व पिता (पेरेंट्स) के लिए संस्कृत में ‘पितरौ’ शब्द है। इसी से हिन्दी में ‘पिता’ व जर्मन में ‘Vater’ (जर्मन में ‘V’ का उच्चारण ‘फ’ होने से उच्चारण है ‘फाटर’ ) शब्द बना है व उसी से अङ्ग्रेज़ी में ‘फादर’ शब्द बना। संस्कृत में ‘पितरौ” क्योंकि माता व पिता (अर्थात् ‘पेरेंट्स’ ) का वाचक है तो जर्मनी में इसीलिए ‘पितर’ शब्द के लिए ‘Manes’ (उच्चारण कुछ-कुछ मानस शब्द जैसा) शब्द कहा जाता है जबकि इसी से अङ्ग्रेज़ी में शब्द बना Manes (उच्चारण मैनेस् )। ‘माँ’ से इसकी उच्चारण व वर्तनी साम्यता देखी-समझी जा सकती है।
समस्या यह है कि श्राद्ध को लोग कर्मकाण्ड समझते व करते हैं और वैसा कर वे अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। जबकि मृतक पितरों के नाम पर पूजा करवा कर यह समझना कि किसी को खाना खिलाने से उन तक पहुँच जाएगा, यह बड़ी भूल है। जीवित पितरों को सुख नहीं दो व मृतक पितरों के नाम पर कर्मकाण्ड करना ही गड़बड़ है। कर्मकाण्ड श्राद्ध नहीं है। कोई भी कर्मकाण्ड मात्र प्रतीक-भर है मूल जीवन में अपनाने योग्य किसी भी संस्कार का। यदि जीवन में उस संस्कार को आचरण में नहीं लाए तो कर्मकाण्ड केवल तमाशा है। घरों परिवारों में बुजुर्ग और बड़े-बूढ़े दु:ख पाते रहें, उनके प्रति श्रद्धा का वातवरण घर में लेशमात्र भी न हो और हम मृतक पितरों को जल चढ़ाते रहें, तर्पण करते रहें या उनके नाम पर श्राद्ध का आयोजन कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते रहें, इस से बड़ा क्रूर व हास्यास्पद पाखण्ड और क्या होगा।
वस्तुतः मूल अर्थों में श्राद्ध, श्रावणी उपाकर्म के पश्चात् अपने-अपने कार्यक्षेत्र में लौटते समय वरिष्ठों आदि के अभिनंदन सत्कार के लिए होने वाले आयोजन के निमित्त समाज द्वारा प्रचलित परम्परा थी, जिसका मूल अर्थ व भावना लुप्त होकर यह केवल प्रदर्शन-मात्र रह गई है। मूल अर्थों में यह ‘पितृयज्ञ’ का वाचक है व उसी भावना से इसका विनियोग समाज ने किया था, इसीलिए इसे पितृपक्ष भी कहा जाता है; किन्तु अब इसे नेष्ट, कणातें, अशुभ, नकारात्मक दिन, शुभकार्य प्रारम्भ करने के लिए अपशकुन आदि मान लिया गया है। हमारे पूर्वजों से जुड़ा कोई दिन अशुभ कैसे हो सकता है, नकारात्मक प्रभाव कैसे दे सकता है, अपशकुन कैसे कर सकता है ? क्या हमारे पूर्वज हमारे लिए अनिष्ट चाह सकते हैं ? क्या किसी के भी पूर्वज उनके लिए अशुभकारी हो सकते हैं? माता-पिता के अतिरिक्त संसार में कोई भी अन्य सम्बन्ध केवल और केवल हितकारी व निस्स्वार्थ नहीं होता। सन्तान भी माता-पिता का वैसा हित कदापि नहीं चाह सकती जैसा माता-पिता अपनी संतान के लिए स्वयं हानि, दु:ख व निस्स्वार्थ बलिदान कर लेते हैं, उसे अपने से आगे बढ़ाना चाहते हैं, उसे अपने से अधिक पाता हुआ देखना चाहते हैं और ऐसा होता देख ईर्ष्या नहीं अपितु सुख पाते हैं। ऐसे में ‘पितृपक्ष’ (पितृयज्ञ की विशेष अवधि) को नकारात्मक प्रभाव देने वाला मानना कितना अनुचित व अतार्किक है।
आज समाज में सबसे निर्बल व तिरस्कृत कोई हैं, तो वे हैं हमारे बुजुर्ग। वृद्धाश्रमों की बढ़ती कतारों वाला समाज श्राद्ध के नाम पर कर्मकाण्ड कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ले तो यह भीषण विडम्बना ही है। यदि हम घर परिवारों में उन्हें उचित आदर-सत्कार, मान-सम्मान व स्नेह के दो बोल भी नहीं दे सकते तो श्राद्ध के नाम पर किया गया हमारा सब कुछ केवल तमाशा व ढोंग है। यों भी वह अतार्किक व श्राद्ध का गलत अभिप्राय लगा कर किया जाने वाला कार्य तो है ही। जब तक इसका सही अर्थ समझ कर इसे सही ढंग से नहीं किया जाएगा तब तक यह करने वाले को कोई फल नहीं दे सकता (यदि आप किसी फल की आशा में इसे करते हैं तो)। वैसे प्रत्येक कर्म अपना फल तो देता ही है और उसे अच्छा किया जाए तो अच्छा फल भी मिलता ही है।
मृतकों तक कोई सन्देश या किसी का खाया भोजन नहीं पहुँचता और न ही आपके-हमारे दिवंगत पूर्वज मात्र खाने-पीने से संतुष्ट और सुखी हो जाने वाले हैं। भूख देह को लगती है, आत्मा को यह आहार नहीं चाहिए। मृतक पूर्वजों को भोजन पहुँचाने ( जिसकी उन्हें आवश्यकता ही नहीं) से अधिक बढ़कर आवश्यक है कि भूखों को भोजन मिले, अपने जीवित माता पिता व बुजुर्गों को आदर सम्मान से हमारे घरों में स्थान, प्रतिष्ठा व अपनापन मिले, उन्हें कभी कोई दुख सन्ताप हमारे कारण न हो। उनके आशीर्वादों के हम सदा भागी बनें और उनकी सेवा में सुख पाएँ। किसी दिन वृद्धाश्रम में जाकर उन सबको आदर सत्कार पूर्वक अपने हाथ से भोजन करवा उनके साथ समय बिताकर देखिए… कितने आशीष मिलेंगे। परिवार के वरिष्ठों व अपने माता-पिता आदि की सेवा सम्मान में जरा-सा जुट कर देखिए, कैसे घर पर सुख सौभाग्य बरसता है।
श्राद्ध के माध्यम से मृतकों से तार जोड़ने या आत्माओं से संबंध जोड़ने वाले अज्ञानियों को कौन बताए कि पुनर्जन्म तो होता है, विज्ञान भी मानता है; किन्तु यदि इन्हें आत्मा के स्वरूप और कर्मफल सिद्धान्त का सही-सही पता होता तो ये ऐसी बात नहीं करते। आत्मा का किसी से कोई रिश्ता नहीं होता, न आप हम उसे यहाँ से संचालित कर सकते हैं। प्रत्येक आत्मा अपने देह के माध्यम द्वारा किए कर्मों के अनुसार फल भोगता है और तदनुसार ही अगला जीवन पाता है । आत्मा को ‘रिमोट ऑपरेशन’ से ‘कंट्रोल’ करने की उनकी थ्योरी बचकानी, अतार्किक व भारतीय दर्शन तथा वैदिक वाङ्मय के विरुद्ध है।
अभिप्राय यह नहीं कि श्राद्ध गलत है या उसे नहीं करना चाहिए। वस्तुतः तो जीवन ही श्राद्धमय हो जाए तब भी गलत नहीं, अपितु बढ़िया ही है। वस्तुत: इस लेख का मूल अभिप्राय यह है कि श्राद्ध क्या है, क्यों इसका विधान किया गया, इसके करने का अर्थ क्या है, भावना क्या है आदि को जान कर इसे करें। श्राद्ध के नाम पर पाखण्ड व ढकोसला नहीं करें अपितु सच्ची श्रद्धा से कुल- परिवार व अपने पूर्वजों के प्रति, अपनी जातीय-परम्परा के प्रति, माता-पिता-आचार्यों के प्रति, समाज के बुजुर्गों व वृद्धों के प्रति श्रद्धा की भावना से प्रेरित होकर अपने तन, मन, धन से तथा निस्स्वार्थ व कृतज्ञ भाव से जीवन जीना व उनके ऋण को अनुभव करते हुए पितृयज्ञ की भावना बनाए रखना ही सच्चा श्राद्ध है।
Click here to claim your Sponsored Listing.
Videos (show all)
Contact the business
Website
Address
Panchayat Sadan, Main Road, Village Khewra
Sonepat
131021
Sonipat
Sonepat, 131402
Best Bodybuilding Motevation.. This is a Motevational page for all Young nd ,Muscle lover...
Rai
Sonepat
Best boxing shorts video's for follow my page Boxing XS Boxing related more interesting video's
House No. 45 Ekta Vihar, Baltana
Sonepat, 140604
All types of accessories available for snooker and pool. selling and purchasing of old and new tables are also available including repairing.
Above Attitude Fitness Studio Old Rothak Road Kath Mandi Sonepat
Sonepat, 131001
Attitude Fitness and Dance Studio was founded on the 17th of September 2015 by 2 Person Aayush sain
Patel Nagar
Sonepat, 131001
The Fitness Gym. Amazing gym for the teenagers to show their talent. Will play all the Championship
V. P. O. Rampur(Kundal), Teh. Kharkhoda, Distt. Sonipat
Sonepat, 131402
Blast your body in all directions by incorporating different calisthenics, plyometric and body condi