Swaroop Kumari Bakshi

There were many facets to the lady: freedom fighter,veteran politician, brilliant academician, creat

14/04/2024

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13/04/2024

On the occasion of Bakshi didi’s 5th death anniversary we celebrate her memories by the pearls that she has left behind. Sharing one of her poems which represents her ideology of selfless service 🙏

परहित एवं परकल्याण को अपने जीवन का आधार बनाने वाली परम पूज्य बक्शी दीदी के मनोभाव उनके द्वारा रचित कविता में अभिव्यक्त हैं ।विनम्र श्रद्धांजलि| शत शत नमन 🙏

Photos from Swaroop Kumari Bakshi's post 24/03/2024

Holi ki sabhi ko hardik shubhkaamnaayein, ye rango ka parv aap sab ke liye mangalmaya ho. Aaj is shubh avsar par aap sab ke saamne prastut hai adaraneey Srimati Swaroop Kumari Bakshi ji (Bakshi didi) ki ek rachna, “Dhoom Machi Re Holi Aayi”.

11/02/2024

“कौड़ियों का दास है”
-स्वरूप कुमारी बक्शी (बक्शी दीदी)

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09/01/2024

जोगी की चिट्ठी पाती
-स्वरूप कुमारी बक्शी

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07/01/2024

पूर्व जन्म में
-स्वरूप कुमारी बक्शी

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Photos from Swaroop Kumari Bakshi's post 05/01/2024

क्या आप जानते हैं, कि श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी (बक्शी दीदी) कौन थी????
यदि कोई वृत्तांत याद आये तो कॉमेंट करके हम सब के साथ साझा करे।

02/10/2023

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एवं देश के पूर्व प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी की पावन जयंती के अवसर पर उन्हें शत शत नमन।
श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी द्वारा रचित गांधी जी पर एक कविता प्रस्तुत है।

हे महापुरुष गाँधी
रचनाकार: श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी

हे महापुरुष, हे जननायक,
गाँधी तुम ज्योति निरन्तर हो।

इस युग के तुम अवतार अमर,
जग की आवाज़ तुम्हारा स्वर,
तुम ले आए वरदान परम
जग पावन शुद्ध मनोहर हो।

तुम चमक उठे बनकर तारा,
सच्चाई की निर्मल धारा,
नवयुग की गंगा ले आए तुम
जन जीवन शुभ सुन्दर हो।

तुम में झंकृत युग की वाणी,
तुम को प्रिय जग का हर प्राणी,
हर प्राणी की साँसों में तुम
गाँधी दर्शन अनश्वर हो।

तुम विश्व प्रेम का रूप विमल,
तुम क्षमाशील निर्मल निश्छल,
तुम दीन दु:खी के साथी संगी
तुम करुणा के सागर हो।

हम पर हो बापू की छाया,
तुमने जगमग पथ दर्शाया,
हर प्राणी का मन प्रेम दया
ममता का निर्मल निर्झर हो।

शोषित जनता की आस जगी,
आज़ादी की लौ लगन लगी,
जन जीवन में आवाज़ उठी
मानव तुम ईश अनश्वर हो।

जिसने सबको समझा भाई,
औ पीर पराई अपनाई,
उस महापुरुष ने कहा नहीं
मानव मानव में अन्तर हो।

तुमने जीवन से मुख मोड़ा,
इस तन को तिनके सा छोड़ा,
दु:ख ताप हटे मद लोभ मिटे
जग में मानव का आदर हो।

[ काव्य निकुंज पृष्ठ सं 59 प्रकाशन वर्ष 2016 ]

15/08/2023

गांधी जी की प्रेरणा पर श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी की स्वतंत्रता संग्राम यात्रा
[उन्हीं के शब्दों में]

बचपन में गांधी को देखा
वह क्षण मेरा था अनमोल,
ऐसे अद्भुत दिव्य दिवि क्षण
जिसका कहीं न मोल न तोल।

उन्नीस सौ उन्तीस की बात
मैं दस वर्षीया बाला थी,
गांधी जी को हार पहनाऊँ
कर गुलाब की माला थी।

कांग्रेस महा अधिवेशन था
शामियाना अति विशाल,
एक लाख श्री श्रोतागण थे
दमक रहे थे जवाहर लाल।

अधिवेशन के बीचोंबीच
उत्तम उच्च मचान था,
गांधी जी तो चरखा कातें
नेहरू का आह्वान था।

नेहरू पहने अचकन टोपी
गांधी खद्दर की चदरी,
प्रान्त-प्रान्त की रंग पोशाकें
सिक्खों दी सोणी पगड़ी।

गांधी जी का मौन दिवस था
केवल चर्खा बोल रहा था,
हमें चाहिए पूर्ण स्वराज्य
मन में अमृत घोल रहा था।

जो भी वक्ता बोल उठा
वह थी गांधी की आवाज,
या यूँ कहिए गांधी जी के
चर्खे का ही था अंदाज़।

गांधी जी का मौन अचूक
अधिवेशन में घूम रहा था,
चर्खे की आवाज़ सुनकर
बच्चा-बच्चा झूम रहा था।

बोल उठा जवाहरलाल
वाणी थी गम्भीर विशेष,
ब्रिटिश राज को भेज दिया है
भारत जन-जन का सन्देश।

जो प्रस्ताव पास हुआ
आज यहाँ अधिवेशन में,
वायसराय को भेज दिया
मैंने द्रुत इसी क्षण में।

अपने खून से लिख दिए थे
मैंने अपने हस्ताक्षर,
स्वाधीनता पूर्ण चाहिए
भारत को हर कीमत पर।

आँखों में आँसू मैं बोली
मेरा भी तुम ले लो रक्त,
मैं दस वर्षीया बाला छोटी
पर मैं किंचित् नहीं अशक्त।

सन् उन्नीस सौ बयालीस में
बम्बई में अधिवेशन था,
अंग्रेजों भारत छोड़ो तुम
जोश भरा आन्दोलन था।

‘भारत छोड़ो अंग्रेजों तुम’
यह प्रस्ताव जनरंजन था,
एक मत से सहमत होकर
सबने किया अनुमोदन था।

करो मरो का नारा गूँजा
अंग्रेजों तुम भारत छोड़ो,
माता को आजाद करेंगे
जंजीरों के बन्धन तोड़ो।

मैं पीछे ना रहने वाली
मैंने अलग बनायी टोली,
अंग्रेजी वस्त्रों के गट्ठर
गली-गली जलाई होली।

अंग्रेजी कॉपी पेन्सिल धागा
तुरत करो सब बहिष्कार,
देशी कपड़ा जूता मोजा
देशी वस्तु हो आधार।

जोशीले भाषण को सुनकर
मेरे मन में उमड़ा जोश,
अंग्रेजों की कूटनीति की
चाल, मन में था आक्रोश।

मेरा रंग दे बसन्ती चोला
रंग दे बसन्ती चोला रे,
झाँसी की रानी का चोला
मेरा मन यूँ बोला रे।

बलिदानी का चोला पहनूँ
मैंने मन में ठान लिया,
करो मरो की वेला आई
मैंने यह भी जान लिया।

भारत माँ यूँ बोल उठी हाँ
जीवन को उत्सर्ग करो,
प्राण भले ही छूटा जाए
भारत का उत्कर्ष करो।

छूटा जाए रैन बसेरा
पक्षी को नभ उड़ना है,
खोलो बन्धे के बन्धन को
गंगा माँ को बहना है।

खोल गुलामी के बन्धन
आजादी गले लगाना है,
विष पीना है पीते जाओ
अमृत घट को पाना है।

मन्थन करते जाओ समुन्दर
लक्ष्मी श्री को आना है,
हट जा री अंग्रेजी सत्ता
विजयश्री को लाना है।

मैंने धूम मचायी घर-घर
सत्ता का बहिष्कार करो,
पराधीनता के प्रेतों को
सात समन्दर पार करो।

महिला कॉलेज छात्राओं ने
पढ़ना लिखना त्याग दिया,
आज़ादी के संघर्षों में
खुलकर सबने भाग लिया।

सिंहनाद सी वाणी थी
पद्मा सिंह ओजस्विनी,
चौराहे पर खड़ी हुई वह
ज्यों झाँसी की रानी थी।

एक दिवस की बात अनोखी
मैंने धावा बोल दिया,
मानों मैंने आज़ादी के
सिंहद्वार को खोल दिया।

मरना होगा मर जायेंगे
पीछे नहीं हटेगा पग,
प्राण गगन उड़ते जायेंगे
खोलो आज़ादी का मग।

कान्यकुब्ज महाविद्यालय
उसका नाम महान था,
छात्राओं के संग गयी मैं
सिंहनाद आह्वान था।

हज्जारों थे छात्र युवा गण
कक्षाओं से निकल पड़े,
लाठी डण्डा लैस सिपाही
उनके सम्मुख धमक पड़े।

सीटी जोर बजी घनघोर
लाठी डण्डा मार पड़ी,
एक कदम न पीछे हटना
मैं भी डट कर खड़ी-खड़ी।

एकाएक दिशा दक्षिण
गोरा पलटन भारी थी,
बन्दूकें करतूस भरी थीं
मैं हिम्मत ना हारी थी।

बज जाती जो सीटी उस क्षण
उड़ जाते हम सबके प्राण,
युवा शक्ति का लेकर ओज
हम निश्चित होते बलिदान।

रामा राव* का आया संकेत
भूमिगत तुम हो जाओ,
[* स्वर्गीय श्री के. रामा राव, दैनिक समाचार पत्र ‘नेशनल हेराल्ड’ के प्रथम सम्पादक एवं
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे।]
धरती माता की धूलि के
आँचल में तुम खो जाओ।

रणक्षेत्र से नहीं हटूँगी
हाँ; मैं डट कर यूँ बोली,
हिम्मत है तो ए गोरे तू
मार दे मुझ पर अपनी गोली।

संगी साथी सबने मिलकर
मुझे घसीटा जब्बरजोर,
मैं घिसटती चली गई
छितवापुर भुइयाँ की ओर।

कुरुक्षेत्र में चीख रहा था
मरघट का सन्नाटा था,
युवा शक्ति का देख मनोबल
शत्रु दलों में घाटा था।

सन्नाटे की चीखें सुनकर
प्रेत वृन्द भी थर-थर-थर,
मृत्यु दलों की छाया कृतियाँ
डर के पंखों पर फर-फर।

घर के मालिक हैं जेलों में
दो आँखें रोती रहती हैं,
बच्चे भूखे ही सो जाते
पलटन चलती ही रहती है।

आटा गूँथ रही है गृहिणी
आँखों में पानी-पानी,
रोटी में आँसू घर-घर में
यही कहानी मनमानी।

एक दिवस की सुनो कहानी
अजब कहानी है मेरी,
भारत माँ ही मेरी माँ है
मैं हूँ चरणों की चेरी।

स्टेशन रोड नम्बर उन्नीस
घर हमारा छोटा था,
मैं दुलहन बनकर आयी थी
मम मन तनिक न खोटा था।

अग्र भाग में चमन सुगन्धित
हरी घास मखमल की चादर,
हरसिंगार का वृक्ष सलोना
सरस सुगन्धित झर-झर-झर।

गूलर वृक्ष वर महके-महके
छाया शुद्ध रसोई थी,
अन्नदान का भण्डारा था
वत्सलता में खोई थी।

चार पाँच जीपों में भर-भर
वर्दी वाले धमक पड़े,
दारोगा जी हथ डण्डा ले
इधर-उधर लख तमक पड़े।

ऐसा जाल बिछाया क्रूर
जैसे हो हिरनी का घेरा,
बर्बरता और जोर जुल्म का
अन्धकार घनघोर घनेरा।

अन्तत: आततायियों ने
मुझे कर लिया गिरफ़्तार,
बापू की जय बोल-बोल कर
मैंने कभी न मानी हार।

सत्याग्रह का मुझमें बल था
ममता बन्धन तोड़ दिया,
भौतिकता की सुख सुविधा से
स्वेच्छा से मुख मोड़ लिया।

महिलाओं का बन्दीगृह मम
पावन तीर्थ स्थान बना,
बन्दीगृह का द्वार भयानक
मेरा अमृत गान बना।

बन्दी थीं शिवराजवती भी
इन्दिरा जी की चाची थीं,
शान्ता वैद्या आशा त्रिपाठी
देशभक्ति में साँची थीं।

दमघोंटूँ ऊँची दीवारें
जीवन यहीं बिताना था,
फिर वापस कब घर जायेंगे
इसका नहीं ठिकाना था।

आज लगा मुझको ऐसा कि
सारा जग बेगाना था,
अब तक जो सुख चैन मिला घर
दो दिन का अफ़साना था।

बचपन से ही लगन लगी थी
देशभक्ति में प्राणार्पण,
माँ की तोड़ें जंजीरें हम
मुक्त करें उसके बन्धन।

सूर्य अस्त सन्ध्या वेला
गूँजा करता मेरा गान,
प्रतिध्वनियाँ भी मुखरित होतीं
सन्-सन्-सन्-सन् उनके प्राण।
x x x

रचनाकार: श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी
[ हे भारत के महाप्राण, पृष्ठ सं 137, प्रकाशन वर्ष 2019]

Photos from Swaroop Kumari Bakshi's post 04/07/2023

An event organised by Social Welfare Department, UP Gov in the late 1900s

04/07/2023

आज से पवित्र श्रावण मास का आगमन हुआ है । आइये श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी द्वारा रचित कविता से सावन का स्वागत करें ।
घनी बदरिया आई
रचनाकार: श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी

सावन की ऋतु आई छिन-छिन
छाई घनी बदरिया ।

रिमझिम-रिमझिम बरसे पानी,
झिलमिल सांझें हुई सुहानी,
धरती राधा बनी ठुमकती,
बादल नट सांवरिया ।

टपटप-टपटप हीरे-मोती,
टहनी-टहनी हार पिरोती,
हरी-भरी धरती की सारी,
भीग गई चूनरिया ।

छमछम-छमछम बहती नदियां,
भीग गई आमों की बगियां,
कुंज निकुंजों में फिरती है,
पुरवैया बावरिया ।

बरस पड़ा जल धूम धड़ाधड़,
कैसी नभ की दुलहिन अल्हड़,
अम्बर के आंगन में उलटी
धर दी नील गगरिया ।

भरी बदरिया बरसन लागी,
जाने किसकी किस्मत जागी,
भीगी-भीगी रातों में भी,
बाज उठी बांसुरिया ।

नाचे मोर, पपीहा बोले,
आशाओं के बंधन खोले,
नयनों से बरसात छलकती,
भीगी प्रेम अटरिया ।

[ नारी तुम घर-घर की गंगा हो, पृष्ठ सं 140 प्रकाशन वर्ष 2008 ]

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Photos from Swaroop Kumari Bakshi's post 28/06/2023

Bakshi Didi with 7th President Giani Zail Singh Ji

Photos from Swaroop Kumari Bakshi's post 24/06/2023

स्वरूप कुमारी बक्शी (बक्शी दीदी) जी के १०४ वी जयंती सप्ताह के उपलक्ष्य में Rang Yatra संस्था ने किया दीदी की एक कहानी, “बाँके और बन्नो” का नाट्य रूपांतरण।

22/06/2023

आज परम श्रद्धेय स्व. श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी जी की 104 वीं जयंती है। उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए कोटिश: नमन । बक्शी दीदी को साहित्य सृजन की प्रेरणा एवं शिक्षा अपने पिता स्व. श्री बद्री प्रसाद शिंगलू जी से विरासत में मिली । प्रस्तुत है बक्शी दीदी द्वारा रचित कविता “कांच का रूप” तथा उसका अंग्रेज़ी भाषा में अनुवाद जो उनके पिताश्री ने किया है ।

कांच का रूप
रचनाकार: श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी

यह सलोना रूप तेरा कांच का है जाम,
यह नशा है एक पल का, एक पल की शाम ।

खुल गये जब केश तेरे उतर आई रात,
नयन से आंसू गिरे तो छा गई बरसात ।

एक ठोकर-सी लगी और कांच चकनाचूर,
ज़र्रा-ज़र्रा बन गया है ज़िंदगी का नूर ।

है कहानी सच वही जिसमें नहीं आवाज़,
ज़िंदगी जिसने लुटा दी है उसी का राज ।

ज्योति जो मन में जला दे बस वही है दीप,
गोद में मोती लिया जिसने वही है सीप ।

तू समझ अपना उसी को जो कहीं है दूर,
आंख लगने पर चमक जाये वही है नूर ।

चल पड़ो राही, यहीं सब छोड़कर अरमान,
है वही मंज़िल कि जिसकी राह है अनजान ।

[स्वरूप कुमारी बक्शी ग्रंथावली‌‌- काव्य खंड, पृष्ठ सं. 39 प्रकाशन वर्ष 1999]

Translation by late Shri Badri Prasad Shinglu (Father of late Smt. Swaroop Kumari Bakshi)

The Inward Light

Frail like a crystal wine-cup,
Is the beauty of your face,
Soon to perish and crumble
With all its heavenly grace.

A stone came from nowhere
And broke the cup of delight,
Turning each fragment of it
Into a focus of inward light.

From the tresses dishevelled in grief
And tears dripping from sad eyes,
Was born on a monsoon night
A joy that never dies.

There’s a lamp that illumines
The innermost recesses of the mind,
There’s a priceless pearl that lies
In the shell of the soul enshrined.

There’s a story that remains untold,
To the men of the world unknown,
One who sacrifices his all,
It’s truth is revealed to him alone.

13/05/2023

मातृदिवस पर मातृशक्ति को नमन वंदन । मां की महिमा पर आधारित श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी जी की एक अत्यंत हृदयस्पर्शी, भावपूर्ण रचना प्रस्तुत है ।

मेरी प्यारी माँ का आँचल
रचनाकार: श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी

माँ तेरी छवि में मैंने भगवान को देखा है।

नील सरोवर सी सुन्दर तुम खिले कमल हो प्यारे,
या रजनी वेला हँसते हैं, आसमान में तारे,
तेरे मुख पर चन्दा की मुस्कान को देखा है।

गज भर का तेरा आँचल कोने में फटा-फटा-सा,
प्रेम दया रोटी सुख निद्रा सब इसमें सिमटा-सा,
मैंने इसमें धरती के परिमाण को देखा है।

मुझको देती हो ड्रेस पुस्तक साइकिल कॉपी टाई,
आँखों में मोती भर भर तुम गिनती पाई-पाई,
चिथड़ों पर पैबन्द लगे परिधान को देखा है।

रात अँधेरी पापा आते, कुछ-कुछ बहके-बहके,
तुम उनको रोटी देती फिर रोती चुपके-चुपके,
तेरे दृग में सावन के तूफ़ान को देखा है।

बरतन-भाण्डे मांज रही तुम घर-घर की मजदूरी,
फिर भी आटा दाल न मिलता माँ तेरी मजबूरी,
तुझमें विप्लव के बढ़ते अभियान को देखा है।

भोर नया ले आती हो माँ जब तू मुझे जगाती,
सूरज की किरणें चमकाती जब माँ तू मुस्काती,
तेरी आँखों में रवि के वरदान को देखा है।

श्रद्धा ममता की किरणों ने तेरा रूप सँवारा,
तेरे जीवन की गति में है परम शान्ति की धारा,
द्वेष क्लेश के भावों के अवसान को देखा है।

कभी-कभी दानव बन जाता मानव मद में चूर,
हिंसावृत्तियों का नर्तन पीड़ित जन-जन पर क्रूर,
तुममें मानवता के हित कल्याण को देखा है।

तुम अनन्त कृपामयी हो दयामयी श्रुति रूपा,
कभी-कभी हो जाती हो सीमाहीन अरूपा,
तुममें परम पिता के सुसंविधान को देखा है।

श्रद्धा ममता दया क्षमा तुम धैर्य रूप धरा हो,
पृथ्वी पर वरदानमयी माँ दिव्य शक्ति परा हो,
तुममें भारत संस्कृति के उत्थान को देखा है।

सीमाप्रान्तों पर हिंसा की ज्वाला धधक रही है,
पीड़ित मानवता जलती रेती पर सिसक रही है,
तेरे आँचल में जग के परित्राण को देखा है।

तू गंगा सी पावन शीतल परम शान्ति की धारा,
हरी भरी है तेरी झोली धरती का विस्तारा,
तेरी मृदु बोली में गीता ज्ञान को देखा है।

मां तेरी छवि में मैंने भगवान को देखा है ।

[हे मानव ! तुम आनंद सरोवर, पृष्ठ सं 156 प्रकाशन वर्ष 2011]

स्वरूप कुमारी बक्शी "बक्शी दीदी" - 70 followers 07/05/2023

मुझे प्रतिलिपि पर फॉलो करें :

स्वरूप कुमारी बक्शी "बक्शी दीदी" - 70 followers "The Sky is the Symbol of Eternity", felt the distinguished writer and social worker Late Mrs. Swaroop Kumari Bakshi. There were many facts to the lady : veteran politician, brilliant academician, creative writer and a great philosopher.The philosophy of Vedanta was her guiding light and the desire....

26/04/2023
23/04/2023

फूल उन्हीं को मिलते हैं
रचनाकार: श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी

जो कांटों को प्यार करे हैं, फूल उन्हीं को मिलते हैं,
जो झंझा को गले लगायें कूल उन्हीं को मिलते हैं।

जो शूलों की खेती बोये, फूल कहां से मिलना है,
जो झंझा से कतरा जाये, कूल कहां से मिलना है।

घृणा-द्वेष जो पाले मन में प्रेम कहां से मिलना है,
अनाचार के पंथ चले जो श्रेय कहां से मिलना है।

जिनमें उड़ने का साहस है गगन उन्हीं को मिलता है,
कंठ-स्वरों में जिनके रस हैं, चमन उन्हीं को मिलता है।

अपना दिल ही जो खो बैठे मीत उन्हीं को मिलता है,
खो बैठे जो मीत-प्रीत को गीत उन्हीं को मिलता है।

जिसके मन में हनुमान हैं, राम उन्हीं को मिलता है,
जिसके मन में वृंदावन है श्याम उन्हीं को मिलता है।

माटी सोना एक समाना राम उन्हीं को मिलता है,
सुख-दु:ख एक समाना जिन घनश्याम उन्हीं को मिलता है।

उड़ता जाये मन अनंत में ज्ञान उन्हीं को मिलता है,
जग सपना जिन जान लिया, भगवान उन्हीं को मिलता है।

[ हे परमानंदम, पृष्ठ सं 46, प्रकाशन वर्ष 2006 ]

"One woman's unending quest for Eternity" 13/04/2023

आज परम श्रद्धेय श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी जी की पुण्य तिथि पर उनकी जीवन यात्रा की एक छोटी झलक।

"One woman's unending quest for Eternity" Poem: Tab hota hai kahi saveraWriter: Swaroop Kumari BakshiSong: Jheeni re JheeniSinger: Anup Jalota

13/04/2023

आज परम श्रद्धेय श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी जी की पुण्य तिथि पर उनकी पावन स्मृतियों को कोटिश: नमन । उन्हीं के द्वारा रचित एक कविता, शीर्षक “ एक दीप हो” प्रस्तुत है ।

एक दीप हो
रचनाकार: श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी

दीप जला करते हैं लाखों गली-गली,
किन्तु किसी की ज्योति न क्षण से अधिक जली,
अम्बर ने जब एक दीप रवि को पाला,
हर निर्झर ने पहनी किरणों की माला,
जब तारों का नटखट झुण्ड मचलता है,
चाँद अकेला ही निशि पथ पर चलता है।

जिसका नाम जपा करती जग की धारा,
जिसने रण में लंका के नृप को मारा,
ऐसे राम नहीं हुआ करते दो चार,
जन्म नहीं लेते वे घर में बारम्बार,
कौशल्या ने एक पुत्र को जन्म दिया,
एक दीप से आलोकित संसार किया।

क्रॉस पर चढ़कर जिसने बलिदान किया,
रक्तदान देकर जग का कल्याण किया,
जो मानव था पर जिसकी द्युति अपरम्पार,
जिसने सारे जग को ही समझा परिवार,
ऐसा व्यक्ति नहीं आता जग में दो बार,
ऐसे ईशु न होते गोदी में दो चार।

जिसकी करुणा की छाया है कण-कण में,
जिसकी आभा दमक रही जन-जीवन में,
गौतम जिसका नाम, अमर जिसकी जननी,
जिसकी माँ ने पहनी आँसू की नथनी,
ऐसे त्यागी और विरागी पुत्र महान्,
जन के हित के लिये लुटा देते जो प्राण।

माँ के आँचल में होते दो चार नहीं,
जगती में पैदा होते दस बार नहीं,
इस विशाल प्रकृति का आँचल अपरम्पार,
कृष्ण कन्हैया उसके जीवन का आधार,
हर प्राणी की साँसों में जिसका है धाम,
अजर अमर मुरलीधर जिसका रूप ललाम।

जिसने खेल-खेल में गोवर्धन उठाया,
जिसने माँ के माथे पर शशि मुकुट सजाया,
यह दुनिया जिसका बस एक खिलौना है,
कंस कालिया ज्यों हिरणी का छौना है,
ऐसा माँ का लाल हुआ करता है एक,
माटी के पुतले होते हैं यहाँ अनेक।

फूल कहीं हो एक, चमन ही महक उठे,
वन पक्षी हो एक, चमन ही चहक उठे,
दीपक हो बस एक, जगत् ही चमक उठे,
नेता हो बस एक, कि जनता फड़क उठे,
एक दीप घर में, जगमग जग हो जाए,
अन्धकार से रहित पथिक मग हो जाए।

एक पुत्र घर में, घर अक्षय हो जाए,
घर क्या सारा जग ही जगमग हो जाए,
खुशियों के फूलों से दुनिया भर जाए,
मानव के चरणों पर चाँद बिखर जाए,
क्यों ना ऐसे घर में स्वर्ग उतर आए,
क्यों ना ऐसी माँ का जीवन तर जाए।

[ काव्य निकुंज, पृष्ठ सं. 111 प्रकाशन वर्ष 2016 ]

24/01/2023

आया वसंत
रचनाकार: श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी

आया वसंत, आया वसंत,
फूलों में भर अनुराग लिये।

रवि-किरणों की नटखट टोली,
नभ से फुहार झर-झर रोली,
भर लो झोली, भर लो डोली,
आया वसंत दिनकर रथ में
भर- भर आनंद पराग लिये।

केसर की चादरिया पीली,
फूलों की छतरी चटकीली,
मुस्कान धूप की सित उजली,
झल-झलल-झलल, झल-झलल-झलल,
झल-झलल-झलल आया वसंत
सिर पर जगमग रवि-पाग लिये।

केसर कुमकुम छल-छलक उठा,
हर कुंज मनोहर महक उठा,
अंगना-अंगना खग चहक उठा,
आया वसंत, आया वसंत
गृहिणी का रंग-पराग लिये।

कलियां चटकीं नवरंग लिये,
भ्रमरा रसचोर उमंग लिये,
उल्लास- विलास तरंग लिये,
आया वसंत दुल्हन के घर,
डोली में भर,
झोली में भर,
रोली में भर,
फूलों की टोकरियों में भर
आया वसन्त सोहाग लिये।

आमों के बौर फलें-फूलें,
मकरंद फुहारें रस घोलें,
लतिकाओं में कलियां झूलें,
आया वसंत कोयल कूके,
डाली-डाली,
ऋतु मतवाली,
रस की प्याली,
कहु कहु कहू उ उ उ....
आया वसंत रस-राग लिये।

सरसों टेसू के फूल खिलें,
गेंदा गुलाब गुल धुले- धुले,
सतरंग फुहारें पंख खुलें,
तितली- तितली थिर थिरक-थिरक,
थिर थिरक-थिरक,
थिर थिरक थिरक,
आया वसंत रस-राग लिये।

मधुमास की वेला राग लिये,
नवरंग विहंग विहाग लिये,
फूलों में भर सौभाग लिये,
आया वसंत मधु भोर लिये,
रवि किरण-किरण की डोर लिये,
खगकुल का कुलमुल शोर लिये,
हिल्लोर लिये,
तोता-मैना चुनिया-मुनिया,
टिउ टिउ टिउ, टिउ टिउ टिउ,
टिर टिर टिर टिर्र....
आया वसंत टहनी-टहनी
पंछी-पंछी का राग लिये।

चट चटकें चटकीली कलियां,
भ्रमरों का गुंजन रंगरलियां,
लुक-छिप कर चुहुल करे छलिया,
आया वसंत गुनगुन-गुनगुन,
गुनगुन-गुनगुन,
गुनगुन-गुनगुन आया वसंत
भ्रमरों की प्रीत का राग लिये।

खेतों की दुल्हन हरी-हरी,
मुस्काये चुनरी रूप-भरी,
छलके-छलके रस की गगरी,
छलछल-छलछल,
छलछल-छलछल,
छल छल छल छल आया वसंत
सोलह सिंगार सोहाग लिये।

चितवन की बिजली चमक-दमक,
कंगन चूड़ी की खनक-खनक,
छुन-छुन-छुन,
छुन-छुन-छुन,
छुन-छुन-छुन पायल पुलक-पुलक,
झन-झनक-झनक,
झन-झनक-झनक,
झन-झनक-झनक आया वसंत
वधुओं के प्रेम का राग लिये।

गोरी कुंजों में भटक गयी,
चोटी नागिन-सी लटक गयी,
रसभीगी चितवन छलक गयी,
ठुम-ठुमक-ठुमक,
ठुम-ठुमक-ठुमक,
ठुम-ठुमक-ठुमक आया वसंत
प्रेमीजन के रति-ताग लिये।

महुए की ऋतु महके-महके,
छोरी के चमक गये झुमके,
गति-चाल-ढाल छलके-छलके,
दम-दमक-दमक,
दम-दमक-दमक,
दम-दमक-दमक आया वसंत,
गेंदा गुलाब की आग लिये,
रस-फाग लिये,
अनुराग लिये।

जिनके जीवन में पतझर है,
दृग अश्रुकणों का निर्झर है,
मन में नैराश्य निरंतर है,
उनकी भी बगिया झूम गयी,
रवि किरण चक्र में घूम गयी,
पक्षी-पक्षी को चूम गयी,
आया वसंत, आया वसंत
संदेश सुखद का राग लिये।

पतझर भी चमन सजा जाये,
गूंगा भी गीत सुना जाये,
अंधा भी राह दिखा जाये,
ऐसा विप्लव कर दो ज्वलंत,
आओ वसंत, आओ वसंत।
x-x-x-x
[ स्वरूप कुमारी बक्शी ग्रंथावली (काव्य-खण्ड), पृष्ठ सं 269, प्रकाशन वर्ष 1999]

15/08/2022

शहीदों की वसीयत
रचनाकार: श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी

हम शहीदों को मुसाफ़िर भूल मत जाना,
याद करना तुम हमें शबनम न छलकाना।

मर मिटें हम देश पर यह है चमन प्यारा,
मर मिटें हर बार हम बस एक हो नारा।

हम बहा देंगे चमन में रक्त का निर्झर,
प्रेम करुणा और खुशी के फूल हों सुन्दर।

है यही इच्छा कि शत-शत जन्म हम पाएं,
और हम सौ बार फिर कुर्बान हो जाएं।

यह खुशी की बात है हम हो गए कुर्बान,
हम मुसाफ़िर हैं कि जिनका नाम है अन्जान।

मिट गई माटी किरण बुझने न पाएगी,
क्या महल क्या झोपड़ी बाती जलाएगी।

यह धरा जो मौन है नव गीत गाएगी,
हम शहीदों की कथा घर-घर सुनाएगी।

यह वसीयत है हमारे रक्त के अक्षर,
तुम सभी हो भ्रात-बन्धु तनिक नहीं अन्तर।

ज्ञान की बाती जला दो आज तुम घर-घर,
सत्य का दीपक जला दो हृदय के अन्दर।

इस वतन की आन पर कुर्बान हो जाओ,
छोड़ दो घर द्वार अब मैदान में आओ।

देखना गिरने न पाए अश्रु की शबनम,
देखना झुकने न पाए राष्ट्र का परचम।

[ काव्य निकुंज, पृष्ठ सं. 50-51, प्रकाशन वर्ष 2016 ]

स्वतन्त्रता दिवस की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं 🙏

03/07/2022

घन-घन घिर-घिर आए बदरा
रचनाकार: श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी

घन-घन घिर-घिर आए बदरा,
प्रियतम मधुबन आना रे।

बुन्दियाँ बरसें झरर-झरर-झर,
पवन बहे फर-फरर-फरर-फर,
सरिता बहती सरर-सरर-सर,
नन्द को छोरा, माखन चोर,
नैना दरस दिखाना रे।

सूंड़ उठाए बदरा काले,
हाथी डोल रहे मतवाले,
मोर-मयूरी झुण्ड निराले,
ठुमक-ठुमक ठुम तकि-तकि ठिठकें,
कुंज-निकुंज सुहाना रे।

वृन्दावन में श्याम विराजे,
मोर मुकुटवर सिर पर साजे,
चरणों में पैंजनिया बाजे,
राधारानी छम-छम नाचे,
बीजुरिया चमकाना रे।

डाल-डाल मधु कोयल बोले,
बरखा रस में मिसरी घोले,
पुष्पभरी वल्लरियाँ डोलें,
मुरली की धुन सरस रसीली,
मधुबन को सरसाना रे।

प्रात किरण की प्रथम चमक सी,
कमल कली की प्रथम चटक सी,
प्रेम राग की प्रथम कसक सी,
मन के द्वारे निशि वेला में,
नटखट नट खटकाना रे।

प्रेमराग में मधुरस घोलो,
भावों के झूले में झूलो,
कमल नयन द्युति पट को खोलो,
हृदय कुंज की कली-कली को
चटक चटक चटकाना रे।

(हे मानव! तुम आनन्द सरोवर, पृष्ठ सं. 159, प्रकाशन वर्ष 2011)

30/06/2022

मेघा बरसे-बरसे रे
रचनाकार: श्रीमती स्वरूप कुमारी बक्शी

रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम,
मेघा बरसे-बरसे रे,
मेघा घूम-घुमक्कड़ घूमे,
हियरा तरसे-तरसे रे।

घन-घन घोर घटाएं आईं,
बिजुरी चमके-चमके रे,
गोरी भीग गई चूनरिया,
गगरी छलके-छलके रे।

दादुर मोर पपीहा बोले,
पायल छन-छन-छन-छन रे,
भीग गया श्रृंगार सखी री,
चूड़ी कंचन-कंगन रे।

वृक्ष खड़े हैं मधुर मनोहर,
जामुन टपके-टपके रे,
छोरा-छोरी लूटें भर-भर,
चोरी चुपके-चुपके रे।

जामुन की ओढ़निया ओढ़े,
धरती मां इतराए रे,
जामुन के दोनों को बांटे,
मन में मोद
बनाए रे।

कजरे बदरा उमड़ें-उमड़ें
हर्ष-हर्ष हरसाए रे,
मोर-मयूरी ठुमके-ठुमके,
पोर-पोर फरकाए रे।

घन मेघा तकि-तकि टुक-टुक-टुक,
पंख खोल इतराए रे,
घूम-घूम कर चक्कर काटे,
नीलमणि छलकाए रे।

आम की बगिया झूमे-झूमे,
मधुर-मधुर महकाए रे,
डाली-डाली कोयल कूके,
सुग्गा फड़के-फड़के रे।

नन्हीं मुन्नी झूला झूलें,
चूनर धानी-धानी रे,
सखियां पेंग बढ़ाएं गाएं,
हरसानी-मुस्कानी रे।

काले-काले बदरा छाए,
जैसे कृष्ण-कन्हैया रे,
हल्की-हल्की सोंधी-सोंधी,
सर-सर-सर पुरवइया रे।

कोई कहता कृष्ण-कन्हैया,
कोई कुंज बिहारी रे,
कोई कहता नटखट लल्ला,
कोई कृष्ण मुरारी रे।

कोई कहता निर्गुण न्यारे,
कोई नटखट छोरा रे,
कोई कहता ध्यानी-ज्ञानी,
कोई माखन चोरा रे।

( नारी तुम घर-घर की गंगा हो, पृष्ठ सं.142, प्रकाशन वर्ष 2008 )

23/06/2022

कविता : मुक्त कर दो
कवयित्री : स्वरुप कुमारी बक्शी
स्वर : गौरी मालवीय

21/06/2022

आज परम श्रद्धेय बक्शी दीदी जी की 103वीं जयंती पर उन्हें कोटिश: नमन करते हुए हम अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। उन्हीं के द्वारा रचित एक कविता " प्राण के पक्षी " प्रस्तुत है।
स्वर: गौरी मालवीय

@Ajamil Ki Kavitayen स्वरूप कुमारी बख्शी की कविताएँ, काव्यपाठ: अजामिल 30/04/2022

बक्शी दीदी की कविताएं, "मुस्काते देखा है" एवं "भारत की गौरव गंगा" की प्रस्तुति श्री अजामिल जी द्वारा।
#हिंदीसाहित्य #हिंदी #लेखिका #कविता

@Ajamil Ki Kavitayen स्वरूप कुमारी बख्शी की कविताएँ, काव्यपाठ: अजामिल

Mobile uploads 26/04/2022
13/04/2022

आज आदरणीया स्वरूप कुमारी बक्शी जी की पुण्यतिथि है। उनकी यादें सदैव हमारे साथ रहेंगी। उन्हीं के द्वारा रचित एक कविता जिसका शीर्षक है "दूर बसेरा" उनकी पुत्री उषा मालवीय के स्वर में प्रस्तुत है।

#हिंदीसाहित्य #हिंदी

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